________________ 392 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-२०० उपर्युक्त पाँच प्रकारकी 343सभाएँ अनेक देवोंकी राजधानियों में होती हैं। तथा हरेककी अपनी अपनी बाह्य, मध्यम तथा आभ्यन्तर (भीतरी ) यों तीन-तीन प्रकारकी परिषद् भी होती है। विभिन्न देवोंकी ये त्रिपर्षदाएँ विभिन्न नामोंसे अलंकृत हैं। 2. भवनपति तथा वैमानिकके इन्द्रोंके पास अपने-अपने विमानकी रक्षाके लिए चार-चार लोकपाल होते हैं। ये सभी अपने-अपने देवके विमानकी चारों दिशाओं में प्रवर्तित (स्थापित) होते हैं। इन सभी लोकपालोंके नाम हरेकके विभिन्न श्रीस्थानांग सूत्रमें कहा गया है। व्यन्तर तथा ज्योतिषीमें तो इस लोकपालकी जाति ही नहीं है। इसलिए वहाँके इन्द्रोंके पास लोकपाल कहाँसे हो सके ? 3. भवनपतिसे लेकर ईशानेन्द्र तकके इन्द्रों, लोकपालोंकी पट्टरानियों ( महारानियों) 35488 ग्रहों तथा इन्द्रोंके सेनापतियोंके नाम श्रीस्थानांगसूत्रसे जान लें। 4. देव अपने च्यवनको अर्थात् मृत्युको छः मास पूर्व नीचेके कारणोंकी सहायतासे जान सकते हैं। जब मृत्युकाल निकट आता है तब ‘युवावस्था' भी परिवर्तित होती (बदलती) जाती है, इसी कारण बल तथा कांतिमें ह्रासका अनुभव होता है। कल्पवृक्ष: म्लान तथा कंपित होता है, स्वतेजोलेश्याहीन होती है, कंठकी अम्लान पुष्पमाला म्लान एवं मुरझाने लगती है, दैन्य तथा तन्द्राका आविर्भाव होने लगता है, बार-बार अरति होती है, जिन नये देवोंको देखकर हर्ष होता था इसके बजाय अब खेद होते देखकर वे शंकाशील बनते हैं तथा अवधिज्ञानके बलसे वे स्वायुष्य ( अपने आयुष्य )का अन्तिम काल भी जान सकते हैं। ___ यह जानकर वे बहुत उद्विग्न होते हैं / सतत चिंतातुर रहते हैं। अहो ! क्या यह लब्धि, विपुल वैभव, अपार सुख, दिव्य कामभोग आदिको छोड़कर मरना पड़ेगा ? अरे ! माताके उदरमें माताका ओजस तथा पिताका वीर्य-इन दोनोंका मिश्रित आहार करना पड़ेगा ? अहो ! अशुचि तथा महान् त्रासके स्थानरूप गर्भावासमें रहना पडेगा ! ऐसी चितासे व्यग्र होते हैं। 5. देवलोकमें सुन्दर देवांगनाओंका हरण करने आदि प्रसंग पर जब भी कोई नकोई भीषण संग्राम छेड़ा जाता है तब परस्पर बहुत ही ताड़न-तर्जन होती है, लेकिन देव ___353. यहाँ ' सभा' शब्द स्थानसूचक है, लेकिन परिवारसूचक नहीं; अतः सभा और परिषद् दोनों भिन्नार्थक समझें / परिषद्से परिवार सूचित है। .. 354. अठासी ग्रहोंके नामोंकी मौलिकताके लिए अब तक कुछ निर्णय नहीं हो सका है /