________________ भवनपतिके भवन कहां है ? ] गाथा-२६ [85 शंका-भवनपति निकायमें हर समय प्रथम दक्षिण-विभाग और फिर उत्तर-विभाग ऐसा क्रम क्यों रक्खा ? उत्तर-उत्तरदिशामें रहे देवोंकी आयुष्यादि स्थितियोंकी विशेषता है इसलिए अथवा तो ग्रन्थकारकी विवक्षा यही प्रमाण है // 25 // [प्र० गा० सं० 3] अवतरण-ये पूर्वोक्त भवन कहाँ रहे हैं ? उस स्थानका निरूपण करते हैं; रयणाए हिवरिं, जोयण सहसं विमुत्तु ते भवणा / जंबुद्दीवसमा तह, संखमसंखिज्ज वित्थारा // 26 // गाथार्थ–रत्नप्रभा नारकीके पिंडमेंसे, ऊपर और नीचेके हजार-हजार योजन छोड़कर बाकी बचे हुए बीचके अंतरमें, भवनपतिके भवन हैं, वें भवन जघन्यसे जम्बूद्वीप जितने, मध्यम प्रमाणसे संख्ययोजन विस्तारवाले और उत्कृष्ट प्रमाणसे असंख्ययोजन विस्तारवाले होते हैं // 26 // विशेषार्थ-अधोलोकमें रत्नप्रभादि सात पृथ्वियाँ हैं / उनमें भवनपति, व्यन्तर, परमाधामी देव तथा नरकावासाओंमें उत्पन्न होते नारक आदि वस्तुओंका समावेश होता है। उनमें प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी है और रत्नप्रभा पृथ्वीके पिंडमें ही भवनपति और व्यन्तरादि देवोंके निवासस्थान हैं / इस रत्नप्रभापृथ्वीका पिंड मोटाईमें (स्थूलता) एक लाख और अस्सीहजार योजन होता है। इस प्रमाणमेंसे ऊपर और नीचे एक एक हजार योजन छोड़कर अवशिष्ट रहे ११३एक लाख और अठत्तर हजार [1,78,000 ] योजनमें उन भवनपतिदेवोंके भवन आये हैं / अर्थात् रत्नप्रभापृथ्वीके एक लाख और अस्सीहजार योजनमें तेरह प्रतर हैं। ये प्रतर अर्थात् पाथडे तीन तीन हजार योजन ऊँचे, (मध्यमें पोले ) हैं / इन पाथडोंके पोले भागकी दीवारों में नरकावास हैं। जिनमें नारक जीव उत्पन्न होते हैं। उनमेंसे महाकष्टसे बाहर निकलकर पोले भागमें पड़ते हैं / वहाँ परमाधामी देव आदिके द्वारा कष्ट भोगते हैं / उन तेरह पाथडोंके बारह अन्तर और उन बारह आन्तरोंमेंसे ऊपर नीचेका एक एक आंतरा छोड़कर बाकीके 10 आंतरोंमें भवनपति देव होते हैं, उनमें एक पाटडेसे दूसरे पाटडे तकके विभागमें उन भवनपतिदेवोंके भवन स्थित हैं। उनमें सबसे छोटे भवन एक लाख योजन प्रमाणवाले 113. कुछ आचार्य रत्नप्रभापृथ्वीके पिंडप्रमाणमें, रुचकसे नीचे नब्बेहजार योजन जाने पर भवनपति देवोंके निवास स्थान हैं ऐसा कहते हैं /