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________________ 140 ] वृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 67-69 मामा . बहियाउ माणुसुत्तर, चन्दा सूरा अवढि-उज्जोया / चन्दा अभीइ-जुत्ता, सूरा पुण हुँति पुस्सेहिं / / 67 // [प्र. गा० सं० 15] गाथार्थ–मानुषोत्तरपर्वतसे बाहर अवस्थित चन्द्र तथा सूर्य स्थिर प्रकाशवाले होते हैं अर्थात् एक स्थलमें स्थिर रहकर प्रकाश देते हैं और चन्द्र अभिजित् नक्षत्रसे युक्त होते हैं और सूर्य पुष्य नक्षत्रसे युक्त होते हैं। // 6 // विशेषार्थ-गाथार्थवत् सुगम है। केवल 'नक्षत्रयुक्त' ऐसा कहनेका आशय यह है कि, मनुष्यक्षेत्रमें तो चरभाव होनेसे अट्ठाईस नक्षत्रोंमेंसे प्रत्येकका यथावासरे (दिनके अनुसार) चन्द्रादिकके साथ संयोग होता रहता है, परन्तु मनुष्यक्षेत्रके बाहर तो ज्योतिषी स्थिर होनेसे वे अनादिसिद्ध ऐसे जिस नक्षत्रके योगमें पड़े हों उसी नक्षत्रका ही उसे सहयोग सदाके लिए कहा जाता है। (ये दोनों नक्षत्र ज्योतिषशास्त्र भी श्रेष्ठ माने जाते हैं।) (प्र० गा० सं० 15) [67 ] इति ज्योतिषीनिकायाधिकारान्तर्वर्तीज्योतिषीणां विमानादि-विषयव्याख्या समाप्ता // अथप्रासङ्गिकद्वीप-समुद्राधिकारः // अवतरण-इस तरह मनुष्यक्षेत्रके बहिर्वर्ती चन्द्र-सूर्यादिका किंचित् स्वरूप बतानेके बाद, आगे प्रतिद्वीपमें कितने सूर्य होते हैं ? यह और उसे जाननेका कारण तथा उन चन्द्र-सूर्य-ग्रहादिकी पंक्ति आदिका वर्णन करते हैं, उसके पहले यदि द्वीप समुद्रके स्थान और संख्यादिका वर्णन समझा जाए तो आनेवाला विषय सरल हो सके। इसलिए ग्रन्थकारमहर्षि प्रथम द्वीप-समुद्रका संख्या प्रमाण और विस्तारप्रमाण कितना है ? यह युक्तिसे नीचे दी हुई गाथाओं द्वारा समझाते हैं। प्रथम द्वीप-समुद्र कितने और कितने बड़े हैं ? इसका निरूपण करते हैं / उद्धारसागर दुगे, सड्ढे समएहि तुल्ल दीवुदही / दुगुणादुगुणपवित्थर, वलयागारा पढमवज्जं / / 68 // पढमो जोयणलक्खं, वट्टो तं वेढिउं ठिया सेसा / पढमो जम्बुद्दीवो, सयंभुरमणोदही चरमो // 69 //
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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