________________ * संमूर्छिम तिर्यचोकी उत्कृष्ट कायस्थिति * यहाँ एकेन्द्रिय जीवोंमें एक वनस्पतिकायको वर्जित करके शेष पृथ्वी, अप् , तेउ और वाउकायकी उत्कृष्टसे असंख्य अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी प्रमाण स्वकायस्थिति है। यहाँ पृथ्व्यादिक चारकी यह स्थिति ग्रन्थकारने ओघसे अर्थात् सामान्यतः [ सूक्ष्म वादरकी विवक्षाके विना ] समुच्चयमें बताई, परंतु वस्तुतः यह काल स्थितिमान सूक्ष्म पृथ्वी-अप-तेउ-वाउ इन चारकी है / लेकिन बादरकी नहीं है, लेकिन सूक्ष्ममानके अंदर बादरका समावेश हो जाता है। इससे पृथक् विचारणामें सूक्ष्म पृथ्वी-अप-तेउ-वाउकी कालसे असंख्य उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी कायस्थिति और क्षेत्रसे लोकाकाश जितने असंख्य लोकके असंख्य आकाशके प्रदेशोंमेंसे, प्रत्येक क्षणमें एक एक आकाशप्रदेश अपहरते, उन प्रदेशोंको हर लेने में जितना काल जाए उतने समयकी है / ये आकाशप्रदेश संपूर्णतया हर लेनेमें उसका काल असंख्य कालचक्र [ लेकिन सादिसांत ] जितना होता है, क्योंकि कालसे क्षेत्र अधिक सूक्ष्म है / चार एकेन्द्रियोंके ओघसे जो असंख्य उत्सर्पिणी अवसर्पिणी स्थिति कही थी उसमें उसे सूक्ष्म-वादर प्रकारसे पृथक् करके, सूक्ष्म पृथ्वी आदि चारकी कायस्थिति तो कही / अब बादर पृथ्वी-अप-तेउ तथा वाउकाय इन प्रत्येककी सत्तर कोटानुकोटी सागरोपमकी [3 / / कालचक्र जितने कालकी ] है / इन चारों पृथ्वी आदि चार बादरोंकी ओघसे भी उतनी ही स्थिति समझना / [ संख्याका अल्पत्व होनेसे ] बादरमें क्षेत्रके द्वारा पृथक गणना नहीं होती, अतः बादर पृथ्वी आदिकी कायस्थिति सूक्ष्मसे न्यून होती है। [ 289 ] - अवतरण- एकेन्द्रियमें पृथ्व्यादि चारकी स्थिति कही / अब शेष वनस्पतिकायकी कहनेके साथ दोइन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय जीवोंकी कायस्थिति बताते हैं / ताउ वणम्मि अणंता, संखिज्जा वाससहस विगलेसु / पंचिंदितिरिनरेसु, सत्तट्ठभवा उ उक्कोसा // 290 // 435. पृथ्वीकायादि जीवोंकी पर्याप्तपनकी कायस्थिति आयुष्यस्थिति जितनी होती है, अत: वे जीव __ अपनी उस संपूर्ण स्थितिका उपभोग स्वस्थानमें ही आंतर आंतर पर उपजनेसे सात आठ भवसे करते हैं क्योंकि उनके पर्याप्ता भव इतने होते हैं / फिर नौवें भवमें उसी योनिमें पर्या'तपन प्राप्त न करे परंतु * स्थानांतर हो, ऐसी जब पृथ्वीकाय एक भवाश्रयी 22 हजार वर्षकी कायस्थिति है तो आठ भवकी 176 हजार वर्षकी होती है / इस तरह 4 पर्याप्ता अप्कायकी 56 हजार वर्ष, अग्निकाय की 24 दिवस, वायुकायकी 24 हजार वर्ष, वनस्पतिकायकी 80 हजार वर्षकी है / इसमें भी लब्धि अपर्याप्तत्वकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तकी होती है / यह स्थिति बारबार अपर्याप्तावस्थामें भवांतरमें बारवार जाए और उसके अन्तर्मुहूर्त्तके कतिपय जन्म होते उसका जोड करें तो उक्त मान हो / बृ. सं. 17