________________ * उत्सेधांगुल और प्रमाणांगुलकी व्याख्या . . 16. . वेढ तक.होना समझते हैं यह उनका भ्रम ही सूचित करता है। और अंगुल गिनतीके साथ वेढेका कुछ ही संबंध नहीं हैं और यह माप व्यावहारिक भी बन नहीं सकता, फिर भी खड़ी अंगुली मापकर 'उत्सेधांगुल' निश्चित ही करना हो तो आडे आठ जौ रखकर उसकी विचकी मोटाईकी श्रेणीसे खुशीसे कर सकते हैं / यहाँ एक बात खास ध्यानमें रखनी कि 'प्रमाणांगुल' के मापमें लंबाईके साथ चौडाईकी गिनती भी बताई है, जबकि उत्सेधांगुल और आत्मांगुलमें यह नहीं बताई / अतः इन दोनों अंगुलोंको सूचीश्रेणिकी तरह, एक ही दीर्घ मापसे समझनेके और उसी तरह मापनेके हैं / __छः उत्सेधांगुलसे एक पाद (पगका माप) होता है, दो पादसे एक बित्ता, दो वित्तेसे [विसस्ति] एक हाथ, चार हाथसे एक धनुष, दो हजार धनुषसे एक कोस, चार कोससे एक योजन होता है। आज कल इस देशमें इसी मापका व्यवहार चलता है / __परमाणुकी व्याख्या कह चुके हैं / अब उत्श्लक्ष्ण-श्लक्ष्णिका, लक्ष्णश्लक्ष्णिका यह मी अत्यन्त सूक्ष्म होती है परंतु परमाणुकी अपेक्षासे उत्तरोत्तर अधिक मानवाला माप कहा जाए / तत्पश्चात् ऊर्ध्वरेणु-वह स्वतः अथवा पर-वायु आदि के प्रयोगसे ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् गति करता अथवा जाली, छप्परके छिद्रमें सूर्यके किरणोंमें उडती दीखती रजका एक कण [रजकण] वह / 'त्रसरेणु'-परप्रयोगसे अर्थात् नगरादिकके वायुप्रयोगसे गति करनेवाला रजकण / 'रहरेणु'-रथके चलनेसे उसके पहियेसे उडनेवाली धूलका रजकण वह / यह रजकण कुछ अधिक स्थूल है। [316-317 ] - अवतरण-उत्सेधांगुलमानको बताकर, मूल गाथाके द्वारा प्रमाणांगुलकी व्याख्या करते हैं / . चउसयगुणं पमाणं-गुलमुस्सेहंगुलाउ बोधव्वं / उस्सेहंगुल दुगुणं, वीरस्सायंगुलं भणियं // 318 // गाथार्थ-उत्सेधांगुलसे चारसौ गुना बड़ा प्रमाणांगुल जाने और उत्सेधांगुलसे द्विगुण भगवान महावीरका एक अंगुल कहा है। 318 // विशेषार्थ- इस गाथामें उत्सेधांगुलसे प्रमाणांगुल 400 गुना दीर्घ कहा लेकिन चौडा कितना यह बताया नहीं है, तो ( अन्य ग्रन्थानुसार) उसकी चौडाई 2 // उत्सेधांगुल समझना / अर्थात् 400 उत्सेधांगुल लंबा और 2 // उ० अंगुल चौडा हो उसे प्रमाणांगुल कहा जाता है। ऐसा अंगुल श्रीऋषभदेव भगवान अथवा भरत चक्रब. स. 21