________________ * इस ग्रन्थका कर्ता कौन और संग्रहणीका गाथामान कितना ?. .263 . अधिक अर्थ, उसमें नहीं हैं, वे इसमें हैं, अतः हमारे कृपालु गुरुदेवका प्रयास सप्रयोजन और सफल है / पुनः कोई तर्क करे कि इतना अधिक अर्थसंग्रह करके विशिष्ट क्यों बनाई ! उसका जवाब संग्रहणीकार (गुरु) स्वयं ही मूलगाथामें देते हैं कि, 'अत्तपढणत्था' [ गा०२७१ ] मेरे अपने स्वाध्यायार्थ बनाई। ऐसा उल्लेख करके सचमुच ! उन्होंने एक जैनश्रमणमें जो होनी चाहिए ऐसी निरभिमानता और सरलताका ही परिचय कराया है। उत्तम, गुणज्ञ और कुलीन आत्माएँ कभी भी अपने परोपकारकी या कार्यकी बधाई गानेके बजाय स्वोपकारको ही आगे धरते हैं। क्योंकि ये महामतिमहर्षि समझते हैं कि स्वोपकारमें परोपकार अपने आप समाया होता ही हैं। ' लघुतामें प्रभुता समझना' इसका नाम / . श्रीचन्द्रमहर्षिके शिष्य वास्तविक बातको प्रस्तुत करते हैं खुद संग्रहणीकारके शिष्य श्री देवभद्रसूरिजी जो सत्य हकीकत जानते थे, वे स्वयं ही इसी संग्रहणीकी टीकामें बताते हैं कि " हमारे पूज्य गुरुदेवश्री जिन्होंने मानकषायको संपूर्ण क्षीण कर डाला था, वे गंभीर मनवाले हमारे तारक गुरुदेवश्री उदंडता व्यक्त हो ऐसे शब्द प्रयोग करना कभी पसंद नहीं करते थे। इसी लिए उन्होंने अत्तपढणत्था अर्थात् अपने अभ्यासके लिए की, ऐसा बताया लेकिन सचमुच हकीकत यह थी कि उनका यह सफल प्रयत्न नवदीक्षितों और अल्प बुद्धिधना आत्माओंके लिए ही था और यह बात हम उनके सब शिष्य स्पष्ट और अच्छी तरह जानते हैं। टीकामें मैंने जब यह बात लिखी तब मेरे अन्य साथी मुनिवरोंने बताया कि-' ऐसे महामतिमान, श्रुतज्ञानके भंडारसमान और करुणाहृदयी ऋषीने 'अत्तपढणत्था'-अपने अभ्यासके लिए ऐसां अत्यल्प लघुतासूचक वाक्य बोलना नहीं चाहिए था / __. इसके जवाबमें टीकाकारने स्वगुरुकी लघुताको न्याय देने, प्रस्तुत उद्गारोंको अंकित करते हुए बताया कि “यह लघुता ही उनकी श्रुतसंपत्ति तथा महत्ताकी सूचक है। कैसा सुंदर खुलासा!" - साथ ही टीकामें ऐसा बताया है कि, संक्षिप्त रचना, परस्परश्रुतका और स्व-पर शास्त्रका स्वाध्याय और अनुचिंतन करनेवाले, तथा अपने अपने गच्छ और श्रीसंघके कल्याण आदि व्यापारमें अग्रगण्य सेवा देनेवाले महामुनियों के शीघ्रपाठ और अर्थचिंतन आदि करनेमें अवश्य अत्यन्त उपकार करनेवाली है / और इस उपकारबुद्धिकी बात हमारे गुरुदेवने