________________ * नरकगति अधिकार में आठवाँ परिशिष्ट * .73. प्रथम के तीन जेलों में उत्पन्न होनेवाली कोठरियाँ भयंकर दुःखद, साथ ही वहाँ 'परमाधामी असुर' जेलरो के रूप में होते हैं, वे भयंकर स्वरूपो धारण करते हैं, नरक के जीवों को अगाऊ बताये अनुसार किये अपराधों की भयंकर सजा करते हैं / हर क्षण दिये जाते दुःखों, त्रास-वेदनाएँ, उनके भयंकर चीत्कार, अपार यातनाएँ सुनकर कंपन पैदा होता है / भले इस सृष्टि पर के भयंकर अपराधों को शायद कोई न जाने, भले उनके लिए सजाएँ न हों, अथवा हों तो कम भी हों, भले यहाँ शायद छूट जाएँ लेकिन अपराधों की पर्याप्त सजा भोगने के लिए इन भूगर्भ जेलों में गए बिना कभी चलनेवाला नहीं है। कुदरत के घरका इन्साफ अटल और अदल होता है, यह हिसाब संपूर्ण चूकते ही करना पडता है / वहाँ विनतियाँ, माँस या लांच-रिश्वत कुछ भी चलता नहीं है / __ शेष चार नरक जेलों में परमाधामी कृत वेदना नहीं है लेकिन परस्पर शस्त्रजन्य, अन्योन्य खून-खराबी करने रूप तथा स्थानजन्य वेदनाएँ अकथ्य और अनंत हैं / जो वर्णन आगे किया गया हैं। इस जेल की सजा मर्यादा हजारों-लाखों, करोडों नहीं बल्कि अरबों सालों की है। अतः मानवजाति स्वयं सुझ बनकर, 'पाप के फल अवश्य भोगने ही पड़ते हैं, ऐसा समझकर पापमार्ग से लौटे। महाआरंभ-समारंभों को एक छोटीसी जिंदगी के खातिर, बित्ते भर के पेट के खड़े को भरने के खातिर छोड दे / अशुभ प्रवृत्तियों का त्याग करे या संयम रक्खे ! मानव या पशु पक्षी आदि सजीव सृष्टि पर दया रक्खे / उसकी दया का पालन करे, सबका रक्षण करे, सबका भला करे / मूर्छा-ममत्व के भावों को मर्यादित करे और धर्म से परिपूत जीवन, जीए। जिससे अति दुःखद नरकगति का भोग होने का न बनने पाए।