________________ .286. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * ६-कैसाय (कषाय) ___ इसका अर्थ साँचे तो कप अर्थात् संसार और आय का अर्थ होता है लाभ / इसका अर्थ यह हुआ कि जिससे संसारवृद्धि-भवभ्रमणका लाभ हो उसे कषाय कहते हैं / यह कषायका अति प्रसिद्ध अर्थ है / ___कषाय विषय पर तो बहुतसे पन्नें लिख सकते हैं, लेकिन यहाँ तो संक्षिप्तरूपसे ही 24 दंडक की व्याख्या करनी है इसलिए महत्त्वका जरुरी विवेचन ही कहा जायेगा। ये कषाय कि जिनके कारण इस संसारका परिश्रमण चलता ही रहता है, उनके मूल प्रकार चार है-१. क्रोध, 2. मान, 3. माया और 4. लोभ / यहाँ एक बात यह ध्यानमें रखनी है कि आम तौर पर कुछ लोगोंके मनमें ऐसा गलत ख्याल घर कर गया है कि कषाय माने मात्र रोष, गुस्सा और द्वेष आदि होता है / लेकिन ऐसा नहीं हैं / कषाय तत्त्वमें तो जीवके सैंकडो भाव रहता है / इसमें क्रोधके अतिरिक्त दूसरे तीन-मान, माया तथा लोभ और उसके उपप्रकार भी आ जाता है / इसी कारणसे कषायका अर्थ विस्तृत होता है। अब इन्हीं चारों प्रकारोंका अर्थ सोचें / क्रोध-यह कषाय मैत्री-दोस्ती, प्रेम, स्नेह और प्रीतिका नाश करता है। और जब मी क्रोध, गुस्सा या रोष आ जाता है तब इसके चिह शरीर पर दिखायी पड़ते हैं / अर्थात् चेहरा लाल लाल हो जाना, आँखें भयंकर हो जाना, होठोंका कोपना तथा शरीरमें कंप उत्पन्न होना इत्यादि / इतना ही नहीं आगे चलकर कठोर और असभ्य शब्द वचन (वाणी) के द्वारा तथा शारीरिक चेष्टाओं द्वारा व्यक्त होते हैं। ये सभी क्रिया-प्रतिक्रियाएँ क्रोध नामक कषाय कर्मसे ही उत्पन्न होती हैं / कोई क्रोधित व्यक्ति क्रोध करते समय ली गयी अपनी किसी तस्वीरको एकदम शांत होनेके बाद जब देखता है तब क्रोध अपने चेहरेको कितना विकृत बना सकता है ? उसका सच्चा ख्याल आ सकता है। - ... 592. 'कषाय' शब्दकी विभिन्न व्युत्पत्तियाँ विभिन्न आगमोंकी टीकाओंमें देखनेको मिलता है। जैसेकि कृषन्ति विलिखन्ति कर्मक्षेत्र सुखदुःखफलयोग्यं कुर्वन्ति कलुषयन्ति वा जीवमिति अथवा कलुषयन्ति शुद्धस्वभावं सन्तं कर्ममलिनं कुर्वन्ति जीवमिति कषायाः। अथवा कल्पयन्ते बाध्यन्ते प्राणिनोऽनेनेति कषं कर्म भवो वा तदायो लाभ एषां यतः / कष्यन्तेऽस्मिन्प्राणी पुनः पुनरावृत्तिभावमनुभवति कषोपलकष्यमाणकनकवदिति / कषः संसारः तस्मिन्नासमन्तादयन्ते गच्छन्त्येभिरसुमन्त इति / यद्वा कषाया इव कषायाः // इत्यादि /