________________ * 142 . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर .. असंज्ञीसे संमूच्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रियका जन्म-मरणके बिचका उपपात तथा च्यवनविरहकाल उत्कृष्ट से अंतर्मुहूर्त्तका जाने / गर्भजपंचेन्द्रियतिर्यंचका उत्कृष्ट उपपात तथा च्यवनविरह बारह मुहूर्तका जाने / ___अब उपपात तथा च्यवनसंख्याको जणाते शेष दोइन्द्रियादिसे यावत् पंचेन्द्रिय तकके सर्व जीवोंकी एक समय उपपात तथा च्यवनसंख्या देव तुल्य [ वह एक, दो, तीन . यावत् संख्य असंख्य ] जाने / एकेन्द्रिय जीवोंकी संख्या आगे कहते हैं। // 2983 / / विशेषार्थ—यहाँ सूक्ष्म-बादर एकेन्द्रिय जीवोंका उपपात तथा च्यवन विरहकाल नहीं है / इसी लिए ग्रन्थकारने कहा भी नहीं है / इसका कारण यह हैं कि-पृथ्व्यादिक चार तथा [परस्थान-स्वस्थानाश्रयी ] निगोदके जीवोंकी उत्पत्ति और मरण संख्या असंख्य और अनंता प्रमाणमें प्रतिसमय होती है, जिससे विरहकालका नियमन ही घटता नहीं / यही खुलासा गाथा 300 के अर्थ ग्रन्थकार खुद ही देनेवाले है। इति विरहकालमानम् // 2983 // अवतरण---अब एकेन्द्रियका उपपात-च्यवनविरह नहीं है, इसे बताकर उन जीवोंकी उपपात-त्यवनविरह संख्याको विशेष प्रकारसे जणाते हैं / . अणुसमयमसंखेजा, एगिदिअ हुंति अ चवंति // 299 // वणकाइओ अणंता, एक्केकाओ वि जं निगोआओ / / निच्चमसंखो भागो, अणंतजीवो चयइ एइ // 300 // गाथार्थ - विशेषार्थवत् // 299-300 // विशेषार्थ- यहाँ ग्रन्थकारके 'एगिदिय' शब्द व्यवहारसे पांच प्रकारके एकेन्द्रियमेंसे प्रथमके चारको ग्रहण करें। जिससे पृथ्वी, अप, तेज, वायुकायके जीवो, सामान्यतः समय समय पर असंख्याता उत्पन्न होते हैं और असंख्याता च्यवीत होते हैं; परंतु कमी भी एक, दो या संख्याताकी संख्या नहीं होती / वनस्पतिकायके जीव तो हमेशा स्वस्थानकी अपेक्षासे अनन्ता उत्पन्न होते हैं और अनन्ता च्यवित होते हैं / [ परस्थानकी अपेक्षासे लें तो असंख्य जीवोंका उत्पन्न होना-मरना होता है / क्योंकि ( सूक्ष्म या बादर ) निगोदकी वय॑ शेष चारों निकायों तथा त्रसकायके जीवोंकी संख्या ही असंख्याती है / ] ___ अब स्वस्थानकी अपेक्षासे अनन्ता किस तरह उत्पन्न होते हैं ! इसका समाधान यह हैं कि-एक एक निगोदमें विवक्षित समय पर जो अनंत जीव हैं, उनमें से एक ही अर्थात् निश्चित किये समय पर ( सूक्ष्म या वादर ) निगोदका (अनंतजीवात्मक) असंख्या