________________ * संशाद्वार. * 339 . दूसरा कोई जीव थोड़ा पश्चिम दिशाकी ओर रहा हो तो पूर्व दिशा खुली हो जानेसे (अलोक दूर होते ही) उस दिशामेंसे आहार प्राप्तिकी संभावना (शक्य) बनते ही (सिर्फ अधो तथा दक्षिण दोनों दिशाओंको छोड़कर) चार दिशाओंमेंसे आहार प्राप्त कर सकता है। चौदहराजलोकके उर्ध्व भाग पर तथा अधो भाग पर विद्यमान अंतिम प्रतरको लक्षित करके यह बात कही गयी है। लेकिन भीतरके दूसरे-तीसरे प्रतर पर हो तो इसका क्या ? अगर जीव वहाँ विद्यमान है तो इसको पाँचों दिशाओंसे आहार मिलता है, क्योंकि नीचेसे ऊपर अथवा ऊपरसे नीचेकी ओर (उर्ध्वाधो दोनों आश्रयी) गया इसलिए (प्रतरका व्यवधान आते ही) ऊर्ध्व अथवा अधो दिशा खुली हो जानेसे उन्हीं दिशाओंमेंसे आहारकी दिशा बढ़ती है। अब ऊपरके प्रतरोंमें बीचमें जितने भी जीव हैं, उन्हें सभी दिशाओंमें लोक ही होनेके कारण छः दिशाओंसे आहार मिल सकता है। जिस प्रकार उबलते हुए तेलके बीच पुआ अथवा पूरी तथा जलमें उपस्थित स्पंजका टुकड़ा छः दिशाओंसे क्रमानुसार तेल और जल ग्रहण करता है। त्रस जीवोंको सर्वत्र छः दिशाओंसे आहार ग्रहण होता है। क्योंकि वे चौदहराजलोकके मध्यभाग (सनाडी )में होते हैं। और उस जगह पर चारों ओरसे परिवृत्त लोकाकाश है जिसमें आहार योग्य पुद्गल द्रव्योंका सदा अस्तित्व रहता है। इस प्रकार किमाहार द्वार पूर्ण हुआ। अनंत प्रदेशी, असंख्य आकाश प्रदेशावगाही, एक समयसे लेकर असंख्य काल तक आहार स्वरूप रहनेवाले, वर्ण, गंध, रस, स्पर्शवाले, स्वात्म प्रदेशावगाही ऐसे पुद्गलोंका आहार जीव ग्रहण करते हैं। - 21. "सैन्नि ["संझी]-जिसे संज्ञा वर्तित होती है उसे 'संज्ञी' कहा जाता 661. तीन, चार या पाँच दिशाओंका आहार, लोकके पर्यंत भाग पर विद्यमान जीवोंके लिए ही होता है / ___662. गाथामें 'सन्नि' ऐसा उल्लेख क्यों किया है वह सोचनीय है / क्योंकि शेष सभी द्वार उस हरेक चीज अथवा गुणके नामयुक्त हैं, नहीं कि उस हरेक वस्तु अथवा गुणके नामयुक्त व्यक्तिके, यह देखते हुए इसमें भी दूसरीषार -- सन्ना' शब्दका प्रयोग कर सकते थे / इस विषयमें सोचनेपर ऐसा लगता है कि एकबार सन्ना शब्द आ ही गया है इसलिए दूसरीबार फिरसे समानार्थी शब्दका प्रयोग करनेसे कोई द्विधा उत्पन्न न हो ऐसे कोई कारणसे ही किया होगा अथवा दीर्घादि संज्ञावाला संज्ञी शब्द ही खरा है ऐसा बतानेके कोई हेतुसे ताच्छिल अर्थमें संज्ञी शब्दका उपयोग किया होगा / 663. संज्ञाऽस्यातीति संशी।