________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . . __गाथार्थ-वासुदेव रुप में और चक्रवर्ती के मनुष्यरत्नरुप में अनुत्तर देव (च्यवन पाकर ) अवतरते नहीं हैं और शेष हाथी, अश्व और एकेन्द्रिय सात रत्नों का उपपात यथासंभव जाने / / 264 / / विशेषार्थ-वासुदेवो वैमानिकनिकाय तथा नरक में से ही आए होते हैं / जब वैमानिकनिकाय में से निकला जीव वासुदेव होवे तो अनुत्तर विमान के देवों को वर्जित करके शेष चार वैमानिकनिकायों में से आया हुआ जाने / प्रतिवासुदेव की गति वासुदेववत् समझना / चक्रवर्ती के आगे कहे जानेवाले महासुख-संपत्तिदायक उत्तमोत्तम चौदह रत्नों में से चक्रादिक सात रत्नों एकेंद्रिय स्वरुप में होते हैं, जब कि शेष पुरो. हितादि सात रत्नो पंचेन्द्रिय रूपमें हैं / इन सात पंचेन्द्रिय में पुनः हस्ति और अश्व . . ये दो रत्नो तिर्यचरूप में होते हैं और शेष पांच रत्नो मनुष्यरूप में होते हैं। ये पांच मनुप्यरत्नरूप में, सातवें नरक में से निकले जीव, तेऊ. वाऊकाय के जीव और असंख्य वर्ष आयुषी तिर्यंच-मनुष्यों ( अनन्तर भव में ) जन्म नहीं लेते, क्योंकि उनके लिए मनुष्यभव प्राप्ति का 262 गाथा में ही निषेध किया गया है / अतः उसे वर्जित करके शेष दंडकों में से पुरोहितादि पांचो पंचेन्द्रिय मनुष्य रत्नो [ तथा मंडलीक राजा भी ] रुप में अवतरते हैं / परंतु इतना विशेष कि-यदि वैमानिक में से पांच मनुप्यरत्नरूप में अवतरें तो अनुत्तरकल्प वर्ण्य शेष देवलोक में से ही समझना / अब पंचेन्द्रिय में शेष हस्ति-अश्व दो तिर्यंच रत्नों का यथासंभव उपपात अर्थात् जिस दंडक में से निकले तियेच पंचेन्द्रियो होते हों उस उस स्थान से समझना, अर्थात् सातों नरक से संख्य वर्षायुषी नर-तिर्यंच तथा भवनपति से लेकर सहस्रार तक के देवो उस रत्नरूप में अवतार ले सकते हैं, क्योंकि तब तक के देवों की तिर्यंच में गति पहले कही जा चुकी हैं। साथ ही चक्रादि शेष सात एकेन्द्रिय रत्नरुप में, संख्य-वर्षायुषी तियेच, नर और भवनपति से लेकर ईशानकल्प तक के देवो निश्चय रूप से उत्पन्न हो सकते हैं, अतः आगे के देवों के लिए तो वहाँ उत्पन्न होने का निषेध है / [ 264 ] अवतरण-अब चक्रवर्ती के चौदह रत्नों के नाम तथा प्रत्येक का मान कहते हैं / वामपमाणं चकं, छत्तं दंडं दुहत्थयं चम्मं / बत्तीसंगुल खग्गो सुवण्णकागिणि चउरंगुलिया // 265 // चउरंगुलो दुअंगुल, पिहुलो य मणी पुरोहि-गय-तुरया / . सेणावइ, गाहावइ, वड्ढइ त्थी चक्कि : रयणाई. // 266 //