________________ .324. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * अथवा पर्याय का अर्थ 'अवस्था' मी होता है। मनके विचारोंकी विभिन्न अवस्थाएँ जिस ज्ञानसे हम जान सकते हैं उस ज्ञानका नाम मनःपर्यव है। यह ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भावकी मर्यादासे युक्त अन्य पुरुषके मन द्वारा सोचे गये रूपी पदार्थोंको इन्द्रिय अथवा मनके निमित्त विना ही प्रत्यक्ष कर दिखाता है। ___इस संसारमें जितने जीवोंमें 'मन' हैं उतने जीवोंको शास्त्रमें "संज्ञी' शन्दसे संबोधित किया गया है। और जिसमें 'मन' नहीं होता उनका परिचय 'असंज्ञी' कहकर दिया है। एकेन्द्रियसे लेकर चौरिन्द्रिय तकके समूच्छिम जीवोंमें मन सर्वथा होता ही नहीं है। इसके कारण उनमें सोचनेकी शक्ति ही नहीं होती। इससे उन्हें असंज्ञी कहा. जाता है। बादमें आते हैं पंचेन्द्रिय जीव / लेकिन सभी पंचेन्द्रियोंमें मन नहीं होता / इन्हीं पंचेन्द्रियोंमेंसे संमूर्छिम पंचेन्द्रिय असंज्ञी अर्थात् बिना मनके हैं। देवों, नारकों तथा गर्भज पंचेन्द्रिय मनुष्योंमें ही मन होते हैं / अब मन कौन-सी चीज है ? क्या इससे ही सोच मनन कर सकते हैं ? मन दो प्रकारी होता है-१. द्रव्य और 2. भाव / इनमें द्रव्यमन पुद्गलरूप होता है अर्थात् वह एक पदार्थ स्वरूप है जिसे वर्ण, गंध, रस, (स्वाद) तथा स्पर्श होता है। यह मन पदार्थ विश्वमें प्रवर्तमान मननयोग्य अमुक प्रकारके अणुओंसे बनता है। अर्थात् शास्त्रमें बताये गए 'मनोवर्गणा' नामक परमाणुओंसे ही यह बनता है / दो परमाणु संख्यासे लेकर अनंत संख्यावाले परमाणुके इसी समूहको 'स्कंध' कहा जाता है। जिससे शास्त्रीय परिभाषामें आत्मा जिसे ग्रहण करते हैं, इसका पूरा नाम कहना हो तो 'मनोवर्गणाके स्कंध' कहा जाता है / भावमन क्या है ? मनके पुद्गलोंको ग्रहण करके जीव जिसे विचारके रूपमें प्रस्तुत करता है वही भावमन है। इस प्रकार अनेक विचारों अथवा शब्दादि आकारोंका नाम 635. 21 वें द्वारमें तीन संज्ञाओंका वर्णन किया जायेगा / उसमें 'दीर्घकालिकी संज्ञा' की बात भी कही जायेगी / जिसमें यह ‘संज्ञा' होती है उसे 'संज्ञी' कहा जाता है। 636. चार गतिमें जनम तीन प्रकारसे बताए हैं-१. सम्मूर्छन, 2. गर्भ, 3. उपपात / इनमें देव नारकोंमें उपपात, तिर्यंच मनुष्यों में गर्भ तथा सम्मूर्छन दोनों भेद लागु पडते हैं / इनमें सम्मूर्छन जन्मको गर्भधारणादिक होता नहीं है / ऐसे जीव तो जन्मलायक कारण-सामग्री हवा-जल, विष्ठामलादिका संयोग होते एकदम पैदा हो जाते हैं / वे कौन कौन-से हैं यह तो कह चुके हैं। 637. समन्ततः मूर्च्छनमिति / अर्थात् चारों ओर कहीं भी शरीरोंका उत्पन्न होना वह / 638. तिथंच तथा मनुष्य दोनोंको लेना /