________________ * कायस्थिति तथा भवस्थितिका वर्णन * * संम् 0 पंचे० मनुष्यकी अन्तर्मुहूर्त पृथक्त्व [ २से 9 मु० ]की कायस्थिति है। देव-नारककी कायस्थिति होती नहीं है। क्योंकि देव मरकर तुरंत देव हो नहि सकता। यहाँ प्रसंग होनेसे तिर्यंच तथा मनुष्यकी भी कायस्थिति कही, परंतु देवों तथा नारकोंके तो कायस्थिति ही नहीं होती; क्योंकि देवको मरकर पुनः देवरूपमें या नारकीको मरकर पुनः नारक रूपमें अनन्तर भवमें उत्पन्न होना ही नहीं पडता / विचमें अन्य योनिमें अवश्य जाना पडे, अतः उनकी कायस्थिति नहीं कही। परंतु अपेक्षासे उनकी भवस्थिति वही उनकी कायस्थिति औपचारिक रूपमें मात्र बोली जाए, वास्तवमें तो नहीं ही। अब पंचेन्द्रियमें ही जीव [ पंचेन्द्रियपनमें ही चारों गतिमें ] भ्रमण करे तो साधिक हजार सागरोपमकालकी कायस्थिति हो [ पंचेन्द्रियके पर्याप्तपनकी ही स्थिति सागरोपम पृथकत्व होती हैं। ] और दोइन्द्रियादि सर्व त्रसजीवोंमें भ्रमण करे तो एक साथ यावत् , संख्याता वर्षाधिक दो हजार सागरोपमकी कायस्थिति हो / तत्पश्चात् भवपरावर्तन हो ही। इन जीवोंको पर्याप्त-अपर्याप्त आदिकी स्थिति ग्रन्थान्तरसे जाने। [290] अवतरण-अब अर्धगाथासे जघन्यमें भव-आयुष्य स्थिति तथा कायस्थिति कहते हैं। - सव्वेसिपि जहन्ना, अंतमुहुत्तं भवे अ काए य // 2903 // गाथार्थ—पूर्वोक्त गर्भज संमूच्छिम-सूक्ष्म या बादर सर्व पृथ्वीकायादिकसे लेकर सर्व . तिथंच तथा मनुष्योंकी भवस्थिति [ आयुष्य ] जघन्यसे अन्तर्मुहूर्तकी [ देव-नारककी * 10 हजार वर्षकी ] और कायस्थिति भी [ पर्याप्त अपर्याप्तकी ओघसे या पृथक् ] जघन्य अन्तर्मुहर्तकी ही जाने, तत्पश्चात् जीवका अनन्तर भवमें परावर्तन होता है / [2903] - विशेषार्थ–सुगम है / [2903 ] ज