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________________ 124. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * - लक्षण क्या है ? तो जिनकी नसें, जोड, गांठें गुप्त हों साथ ही जिनके टूट जानेसे समान सुंदर हिस्से हो जाते हों, छिद जानेसे फिरसे उगें वैसी हों आदि मुख्य छः लक्षणोंसे परिचित, अनेक प्रकारोंवाली साधारण वनस्पति समझना। वस्तुतः सर्व वनस्पतियाँ उगते समय तो साधारण स्वरूपमें ही होती हैं। फिर अमुक समय होने के बाद कतिपय प्रत्येक नाम कर्मवाली प्रत्येक स्वरूपमें परिवर्तित होती हैं। और साधारण नाम कर्मके उदयवाली कतिपय साधारण रूपमें रहती हैं। इति स्थावर जीव व्याख्या। __ त्रस जीय-(एकेन्द्रिय सिवायके शेष ) दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीव वे। दो इन्द्रियके भेदोंमें-कुक्षिमें ( पेट ) तथा गुदा द्वारमें होते कीडे, काष्ठमें उत्पन्न होनेवाले कीडे (धुने), गंडोले, केंचुएँ, जलौकाएँ, क्षुद्र, कीटक, शंख, छोटे शंख, कौड़ियाँ छीपे, चंदनादि जीव। जिनके चमडी और जिह्वा दो ही इन्द्रियाँ हैं वे दो इन्द्रिय। तेइन्द्रियो-सर्व प्रकार की चींटियाँ, घृतेली, उद्देही, लीख, जूं, खटमल, इंद्रगोप, इल्लियाँ, सावा, कानखजूरे, गोबरके धान्यके कीडे, चोर कीडे, पाँचों प्रकार के कुंथुए आदि / इन जीवोंके शरीर, जिह्वा और नासिका ये तीन इन्द्रियाँ हैं। ___ चउरिन्द्रियाँ-बिच्छू, मकडी, भ्रमर, भ्रमरी, कसारी, मच्छर, तिड्ड, मक्खी, मधुमक्खी, पतंगे, डाँस, खद्योत विविध रंगके पंखवाले कीडे-जीव, घासमकडी इन जीवोंके शरीर, जिह्वा, नासिका तथा आँख ये चार इन्द्रियाँ होती हैं। एकेन्द्रियसे लेकर चउरिन्द्रिय तक के सर्व जीव समूच्छिम ही (वह नर-मादाके संयोगके बिना स्वजातिके मललार, मृतकादिके संयोगसे-स्पर्शसे उत्पन्न होनेवाले) होते हैं, परंतु गर्भज नहीं होते। पंचेन्द्रिय-देव, नारकी, मनुष्य और तिर्यच इस तरह चार प्रकार हैं। उनमें देव 198 भेदोंमें, नारकी 7 भेदोंमें, मनुष्य 303, तिर्यच 48 भेदोंमें हैं। प्रथम तीन का वर्णन किया गया है और अंतिम तिर्यच पंचेन्द्रियका अब कहने का है। तिर्य व पंचेन्द्रियके मुख्य तीन भेद हैं-जलचर, स्थलचर और खेचर। 1. 'जलचर' मख्यतया जल में रहकर जीनेवाले हैं। उनके मत्स्य.कछए, ग्राह-मगर, शिशमार इस तरह मुख्यतया पांच प्रकार हैं। 2. 'स्थलचर' जमीन पर चलनेवाले, उनके तीन भेद हैं। 1. चतुष्पदजीव वे एक-दो खुरवाले, नाखूनवाले गाय, भैंस, बाघ, हाथी, सिंह, बिल्ली आदि चार पैरवाले / 2. उरपरिसर्प-पेटसे चलनेवाले-फन वाले-फनरहित सर्प आसालीक, महारग, अजगरादि / 3. भुजपरिसर्प-भुजासे चलनेवाले नेवले, छिपकली, गिलहरी, गिरगीट, चंदनगोह, पट्टगोह आदि। 3. 'खेचर' वह आकाशमें विचरनेवाले, ये दो प्रकारके हैं। रोये के पंखवाले तथा चमडेके पंखवाले। रोमज पक्षी हंस, सारस, बगुले, उल्लू, चील, तोते, कौवे चिड़ियाँ 432. अपेक्षासे गतिमान होनेसे तेउ और वाउके जीवोंको 'गतित्रस' भी कहे जाते हैं।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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