________________ द्वीप-समुद्र पर विमानोंकी संख्या ] [गाथा 19-101 / 277 आवलियविमाणाणं, तु अन्तरं नियमसो असंखिज्जं / संखिज्जमसखिज्ज, भणियं पुप्फावकिण्णाणं / / 99 / / _ [प्र. गा. सं. 26] गाथार्थ-आवलिकागत विमानोंका परस्पर अन्तर असंख्याता योजनका होता है / जब कि पुष्पावकीर्ण विमानोंका परस्पर अन्तर प्रमाण संख्याता योजनका सथा असंख्याता योजनका भी होता है / // 99 // विशेषार्थ–सुगम है। [99] [प्र. गा. सं. 26 ] अवतरण-"अब उक्त अन्तरवाले उन विमानों मेंसे किस किस द्वीप-समुद्र पर पहले प्रतरकी विमानपंक्तिके क्या क्या विमान ऊर्ध्वभागमें आते हैं वह कहते हैं। एगं देवे दीवे, दुवे य नागोदहीसु बोद्धठवे / चत्तारि जक्खदीवे, भूयसमुद्देसु अट्ठव // 10 // [प्र. गा. सं. 27 ] सोलससयंभूरमणे. दीवेसु पइठिया य सुरभवणा / .. इगतीसं च विमाणा, सयंभूरमणे समुढे य // 101 // [प्र. गा. सं. 28 ] गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 100-101 / / विशेषार्थ-पहले बता गये कि सौधर्मके प्रथम प्रतरमें मध्यभागमें वर्तुलाकारमें इन्द्रक विमान आया है और उसकी चारों दिशावर्ती बासठ बासठ विमानोंसे युक्त चारों पंक्तियोंकी चारों दिशाओं में शुरूआत होती है / अब उनमें बिचका जो इन्द्रविमान है वह गोल और 45 लाख योजनका होनेसे अढाईद्वीप पर रहा है अतः वह द्वीपके ढक्कन समान है / साथ ही पंक्तिगत विमानोंमेंसे प्रत्येक पंक्तिके पहले त्रिकोणाकार विमान स्वस्वदिशावर्ती असंख्याता द्वीपसमुद्र बीतनेके बाद आते देवद्वीप पर चारों बाजू पर आए हैं / [अर्थात् प्रत्येक पंक्तिका आरम्भ इन्द्रकविमानसे असंख्य योजन दूरसे होता है ] उसके बाद आए चारों बाजूवर्ती वेष्टित नागसमुद्र पर प्रत्येक दिशावर्ती प्रत्येक पंक्तिके दो-दो (गोल और समचतुर्भुज ) विमान आए हैं, वैसे ही यक्षद्वीप पर समश्रेणीमें चारों दिशावर्ती पंक्तिके चार-चार विमान आए हैं, भूतसमुद्र पर आठ-आठ विमान, स्वयंभूरमणद्वीप पर सोलह सोलह विमान और स्वयंभूरमणसमुद्रमें ऊर्ध्व भागमें चारों दिशावर्ती प्रत्येक पंक्तिगत अवशिष्ट एकतीस-एकतीस विमान जगत्स्वभावसे ऊर्ध्वभागमें प्रतिष्ठित हैं।