________________ * सात नरक में लेश्याओं के विभाग . 65. अपना . सफेदपन छोड़कर, लाल वस्त्र के स्वरूप में जिस तरह पलट जाता है उस प्रकार विद्यमान कृष्णलेश्या के द्रव्यों को (आगन्तुक) तेजोलेश्या के द्रव्यों का संबंध होने पर तेजोलेश्या के द्रव्यों का परिबल अधिक होने से कृष्णलेश्या के द्रव्य तेजोलेश्या रूपमें परिणत होते हैं और इस तरह कारण सामग्री को पाकर मनुष्यों, तिर्यचो को अन्तर्मुहूर्त में लेश्याओं का परावर्तन होता है / जब कि देवों को लेश्या के विषय में इस तरह नहीं होता, अर्थात् देव, नारकों के जो अवस्थित विद्यमान लेश्याएँ होती हैं उन लेश्याद्रव्यों को अन्य लेश्याद्रव्यों का संबंध होता है सही, परंतु मनुष्य, तिर्यंचों के लेश्याद्रव्यों की तरह इन देव, नारकों के लेण्याद्रव्य रंगे हुए वस्त्र की तरह एकाकार रूप परिणत नहीं होते, परंतु इन आगन्तुक लेश्याद्रव्यों का आकार प्रतिबिंब सिर्फ विद्यमान लेद्रिव्य पर पड़ता है, अर्थात् स्फटिक स्वयं निर्मल होने पर भी लाल, पीली वस्त्रादि की उपाधि से लाल अथवा पीला दीखता है, परंतु वस्त्र और स्फटिक दोनों स्वयं अलग ही हैं; अथवा निर्मल दर्पण में वस्तु की विकृति के कारण विकारवाला प्रतिबिंब पड़ता है, लेकिन वस्तुतः वह वस्तु और दर्पण अलग ही हैं। इस तरह यहाँ विद्यमान लेश्याद्रव्यों के पर अन्य (आगन्तुक) लेश्याद्रव्यों का आकार प्रतिबिंब पड़ता है, परंतु तात्त्विक रीत से दोनों अलग हैं। इसे ही अर्थात् इस आकार अथवा प्रतिबिंब को ही देव, नारकों के लिए भावलेश्याएँ गिननी हैं / यह प्रतिबिंब अथवा मात्र आकार स्वरूप भावलेश्या जिस अवसर पर उत्पन्न होती है, उस अवसर पर नारक जीवों के कृष्णादि दुष्ट लेश्या विद्यमान होने पर भी (पूर्वोक्त भावलेश्या से तेजोलेश्यादि के संभववाली) सम्यक्त्व की प्राप्ति हो सकती है / और प्रतिपक्षी घटना में संगमादि को तेजोलेश्या अवस्थित होने पर भी; कृष्णलेश्या के फलरूप प्रभुको उपसर्ग करने के दुष्ट परिणाम भी होते हैं / इस पर से भावना परावर्तन से प्रतिबिंब स्वरूप भावलेश्याएँ आने पर भी, अवस्थित लेश्याओं के मूल स्वरूप में कुछ फरक नहीं होता / और ऊपर बताए अनुसार छ हो भावलेश्याओं को मानने में भी विरोध नहीं आता [ 257] ३८०-लेश्या क्या है ? उसकी उत्पत्ति किस में से होती है ? उसकी वर्णगंधादि चतुष्क के साथ घटना, उसका अल्प बहुत्व, उसकी काल व्यवस्था, उसके अध्यवसाय स्थानक आदि वर्णन श्री उत्तराध्ययन, पनवणा, लोकप्रकाशादिक ग्रन्थ के द्वारा समझ लें / वृ. 9