________________ * 292 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * किस कषायसे कौनसी गति मिलती है ? -संज्वलन कषायवालोंको (साधुत्वनेकी-पवित्रता-सज्जनतावाले साधु इत्यादि) मरकर देवगति, प्रत्याख्यानीवालोंको . मनुष्यगति, अप्रत्याख्यानीवालोंको तिर्यंचगति और अनंतानुबंधीवालोंको नरकगति प्राप्त होती है। आखिर ये सभी कषाय जन्मते क्यों है ? -ये कषाय मोह, माया, ममता, आसक्ति, अज्ञानभावके कारण भूमि, घर-वंगला इत्यादि, शरीर, उपधि (छल धोखेबाजी) और धन-धान्य-वस्त्रादि परिग्रहोंमेंसे जनमता है। एकेन्द्रियोंमें भी कषायभाव प्रच्छन्नरूप होता है। अल्पबहुत्व- इनमें बिना कषायवाले जीव सबसे कम, इससे अनंतगुने मानकषायी जीव, इससे अधिक क्रोधकषायवाले, इससे भी अधिक मायाकषायीवाले और सबसे अधिक लोभ कषायीवाले जीव होते हैं। इन चार मुख्य कषायोंके अतिरिक्त कषायके दूसरे सहचारियोंमें हास्य, रति, अरति ( विरक्ति-असंतोष-क्रोध-चिंता ), भय, जुगुप्सा, शोक और तीन वेद इत्यादि नौ कषाय भी हैं। ये नौ सहचारी कषाय मुख्य चार कषायोंको उद्दीप्त करते हैं। तात्पर्य यह कि हँसना, खुश होना, नाखुश होना, भय, ऊबना, नफरत पैदा होना और शोकात दशा बनी रहना तथा स्त्रीका पुरुषसंगाभिलाष और वेदन, पुरुषका स्त्रीसंगाभिलाष और वेदन तथा स्त्री-पुरुष दोनोंमें परस्पर अभिलाष और वेदन ये सभी भावनाएँ अंतमें तो रागद्वेष ही उत्पन्न कराती है। * कषायोंकी गुणस्थानक मर्यादा- इसमें अनंतानुबंधीका उदय दूसरे गुणस्थानक तक, दूसरे कषायका चौथे तक, तीसरेका पाँचवे तक और चौथेका दसवें गुण स्थानक तक उदय होता है। लेकिन ( अधिकारसे ) सत्तामें तो चारों कषाय ग्यारहवें गुणस्थानक तक होते हैं। अनंतानुबंधी क्रोधके उदयके समय शेष तीन कषाय भी उदयमान होते ही है। उसी प्रकार मान, माया इत्यादिके उदयके प्रसंगमें भी शेष तीनोंका अस्तित्व होता है ही। इन कषायोंके विषयमें यद्यपि बहुत कुछ जानने-समझने योग्य बाकी है लेकिन इस पाठ्यग्रन्थमें तो उतना विस्तार हम कहाँ कर सकते हैं ! . ये कषाय मोहनीय कर्मके हैं। ये जीवमें मोहदशा-विकलता उत्पन्न करते हैं। इनमें से ही राग-द्वेषका जनम और परंपरा (सिलसिला) पेदा होती है, जो पुनः संसार परंपराको जनम देती है। इसी कारणसे ही आठों कर्ममें मोहनीयको सेनापति जैसा अथवा मुख्य