________________ समयादिकालका स्वरूप गाथा 3-4 [25 वर्तमानकाल एक समयरूप ही है, क्योंकि कालकी वर्तना एक समयरूप व्यवहारवाली है। प्रत्येक द्रव्य-पर्यायों में रहनेवाली तथा एक समय जितने ही कालमें स्वसत्ताका अनुभव करनेवाली जो वर्तना वह उत्पन्न होते और विनाश पाते भावोंके प्रथम समय सम्बन्धविषयक संव्यवहाररूप है / और वह तंदुल (चावल)के विकारवत् अनुमानसे समझने योग्य है / तात्पर्य यह है कि उत्पन्न होते और व्यय पाते हुए पदार्थोंके प्रथम समयका व्यवहार अर्थात् जिस समय पर पदार्थकी उत्पत्ति हुई तथा जिस समय विनाशभाव हुआ उस प्रथम समय पर ही वर्तनाका संव्यवहार है। वह वर्तनाकाल, समय प्रमाण अतिसूक्ष्म होनेसे सर्वज्ञ पुरुषोंसे ही ग्राह्य है / जिसके कारण कहा है कि__'बिसस्य बाला इव दह्यमाना, न लक्ष्यते विकृतिरिहाग्निपाते / तां वेदयन्ते मित सर्वभावाः, सूक्ष्मो हि कालोऽनुमितेन गम्यः // 1 // अर्थ :-कमल नालके तंतु * अग्नि-संयोगसे दहमान होने पर भी हमें ज्ञात नहीं होता, साथ ही उसका विकाररूप जो भस्म है वह भी चर्मचक्षुसे दृष्टिगोचर नहीं हो सकता, तथापि सर्व भावोंको जाननेवाले सर्वज्ञ-परमात्मा तो उन विकारादिको जानते हैं। उसी तरह सूक्ष्मकालको सर्वज्ञ तो जानते ही हैं, लेकिन हमारे लिए तो वह अनुमानसे ही जानने योग्य है। उस सूक्ष्मसे सूक्ष्म कालका ज्ञान कराने के लिए शास्त्रमें नीचे अनुसार दृष्टांत दिये हैं। निमेष (आँखकी पलक) मात्र होने में जितना समय लगता है, उस कालके असंख्यातभागको समय कहते हैं, अर्थात् आँखकी एक पलकमें असंख्यात समय होते हैं / - इसके लिए दृष्टान्त दिया है कि किसी २४तरुण पुरुषने किसी अतिजीर्ण वस्त्रको शीघ्रतासे फाड़ डाला, उस समय उस वस्त्रके एक तन्तुसे दूसरे तन्तुको फाड़नेमें असंख्य२९.. 'जीर्ण पटे भिद्यमाने, तरुणेन बलीयसा / कालेन यावता तन्तुस्त्रुटत्येको जरातुरः // ' 'असंख्येयतमो भागो, यः स्यात्कालाय तावतः / समये समयः सैष, कथितस्तत्त्वेवदिभिः // ' 'तस्मिँस्तन्तौ यदेकस्मिनपक्ष्माणि स्युरनेकशः / प्रतिपक्ष्म च साताः, क्षणच्छेद्या असङ्ख्यशः // ' 'तेषां क्रमात्छेदनेषु भवन्ति समयाः पृथक् / असंख्यैः समयैस्तत् स्यात्तन्तोरेकस्य भेदनम् // ' [लोकप्रकाश, सर्ग 28 ] ' एवं पत्रशतोद्वेधे चक्षुसन्मेष एव च / भाव्याश्चपुट्टिकायां चासंख्येयाः समया बुधैः // ' [ काललोक ] सं. 4