________________ .शानद्वार-मतिशान * 'वर्गमें .ही जो समाविष्ट कर दिया है वे इस प्रकार हैं-अर्थावग्रह, ईहा, अपाय और धारणा। इन चार प्रकारको पाँच इन्द्रिय तथा छठे मनके साथ गुननेसे 24 बनते हैं और व्यंजनावग्रह मनचक्षुका बनता न होनेसे अथवा इसकी सिर्फ चार इन्द्रियाँ होनेसे इसके चार भेद अर्थात् 24+4=""28 भेद कुल मिलाकर हो गये। साथ साथ बुद्धिवैशद्यके लिए तथा मतिज्ञानकी विशेषताएँ कैसी कैसी होती है इसकी झलक दिखानेके लिए मिसालके तौरपर दूसरे बारह प्रकार भी बताये हैं / 1-2 बहु-अबहु, 3-4 बहुविध-अबहुविध, 5-6 क्षिप्र-अक्षिप्र, 7-8 निश्चित-अनिश्चित, 9-10 संदिग्धअसंदिग्ध, 11-12 ध्रुव-अधूव / इसका विवरण ग्रन्थान्तरोंसे जान लें। इन सब भेदों परसे 'अवधान' क्या चीज होती है उसका ख्याल आयेगा / यह अवधान भी मुख्यतः मतिज्ञानका ही एक प्रकार है। सारे विश्वमें जितनी भी बुद्धियाँ काम कर रही है, उन सबको चार विभागमें वर्गीकृत कर दिया है। 1. औत्पातिकी, 2. वैनयिकी 3. कार्मिकी और 4. पारिणामिकी / . 1. औत्पातिकी-अन देखी या अन सुनी बातें जब यकायक हमारे सामने आ जाती है जिसके बारेमें इससे पहले हमने कभी थोड़ा भी सोचा न हो, ( फिर भी) उसे देखते या सुननेके साथ ही उभयलोक अविरुद्ध, तत्काल, यकायक, फलोपधायक सच्चा निर्णय करनेवाली गतिशील जो बुद्धि है वह / 2. वैनयिकी - गुरु, बुजर्ग अथवा गुणीजन ( संत-महात्मा ) से विनय करनेसे प्राप्त जो विशिष्ट बुद्धि होती है वह / 3. कार्मिकी- अर्थात् किसी भी शिल्पकार्यमें या किसी कर्ममें प्रवृत्त रहकर उस कर्ममें ऐसा अनुभवी या निष्णात बन जाता है कि फिर अल्प ही मेहनत (श्रम-परिश्रम) में वह कार्य बडी सुंदरतासे और सफलतासे कर दिखाता है तथा अनेक कार्यमें प्रावीण्य ( कुशलता, निपुणता) प्राप्त करता है। 4. पारिणामिकी-जो बुद्धि उम्र गुजरते, स्वानुभवसे गहरी कल्पना, चिंतन तथा मननके बाद एक ऐसी वेधक दृष्टि आ जाती है कि अमुक विचार, प्रवृत्ति या विषयका 616. इस ज्ञानके भेदोंमें भी बहुत-सी अपेक्षाएँ होनेसे 2, 4, 28, 168, 336 और 340 इस तरह विभिन्न प्रकार भी हैं। ये 28 भेदको विभिन्न ढंगसे भी घटाते हैं / 617. भगवतीजी आदिमें अपेक्षा रखकर उपर्युक्त 28 भेदोंमें से छः प्रकारके अपाय और छः प्रकारकी धारणाको मतिज्ञानके रूपमें और ईहा अवग्रहमें शेष 16 भेदकी दर्शनके रूपमें विवक्षा की है। 7. सं. 10