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________________ अमरिकादि पाश्चात्य क्षेत्रको महाविदेह क्या माना जाए ? ] गाथा 86-50 / 247 छोर पर्यंतकी (परिधिकी ) लम्बाई लगभग 25000 मील प्रमाण मानी जाती है। पूर्वपश्चिम व्यास 5926 मील और उत्तर-दक्षिण व्यास 7900 मील प्रमाण है। इस अपेक्षासे वत्तमानमें अन्वेषित देशोंका भरतके नीचेके तीन खंडोंमें समावेश करना उसमें किसी भी प्रकारका बाधित हेतु नहीं दीखता। अमरिकादि पाश्चात्य क्षेत्रको महाविदेह क्षेत्र क्या माना जाए? प्रश्न-आपने जणाया कि पाश्चात्य देशोंका समावेश दक्षिणार्ध भरतमें गिने तो हम लोग भी दक्षिणार्ध भरतमें हैं फिर भी जब जोधपुर-अहमदाबादकी अपेक्षासे इस देशमें सूर्योदय होता है, उस अवसर पर अमरिका आदि दूर देशोंमें लगभग शामका समय हुआ होता है; ऐसा वहाँसे आते वायरलेस, टेलिग्राफ आदिसे जणाया जाता है अर्थात् अमरिकादि देशों में होते सूर्योदय तथा सूर्यास्तका अंतर इस देशकी अपेक्षा 10 घण्टेका पडता है। (और यह क्यों पड़ता है यह पहले बताया गया है ) इतना ही नहीं लेकिन उसके अनुसार इंग्लैंड, जर्मनी, तथा खुद हिन्दुस्तानमें भी चार-तीन-एक घण्टेका अंतर अमुक अमुक देशाश्रयी पडता है, यह बात जैन शास्त्रों में भी सूचित की गई है। जब भरतक्षेत्र में दिन हो तब महाविदेहक्षेत्रमें रात्रि होती है और जब महाविदेह क्षेत्रमें रात्रि हो तब भरतक्षेत्रमें दिवस होता है। ऐसे एकदेशीय सिद्धान्तका श्रवण करके किसी अर्धदग्धको ऐसा भी कहनेका मन होता कि अमरिकामें इस देशकी अपेक्षासे लगभग उदय-अस्तका विपरीत क्रम हो उस अमरिकाको महाविदेह क्यों न कहा जाए ? तथा शास्त्रके रहस्यको समझनेगले तो महाविदेह में सदाकाल चतुर्थ आरा, खुद तीर्थकरका सद्भाव, मोक्षगमनका अविरह, तथा यहाँके मनुष्यमें वहाँ जाने की शक्तिका अभाव आदि कारणोंसे अमरिकाको महाविदेह कभी नहीं कहेंगे। तब अथ उक्त अंतर पड़ता है उसका कारण क्या ? 1उत्तर-प्रथम जता गए उसके अनुसार भरतक्षेत्रकी पूर्वसमुद्रसे-पश्चिमसमुद्र पर्यंत लंबाई 14471 64 यो० प्रमाण है, वर्तमानमें जाहिर रूपमें प्रकट हुए (एशियासे अमरिका तकके पांचों खंड ) पाश्चात्य देशोंका समावेश भी भरतके दक्षिणार्ध विभागमें होनेका युक्तिपूर्वक हम जता गए हैं। उच्चस्थान पर यंत्रपूर्वक रचा गया घूमता दीपक प्रारम्भमें अपने पासवाले प्रकाशयोग्य क्षेत्रमें प्रकाश देता है, वही दीपक यंत्रके बलसे ज्यों ज्यों आगे खसकता जाता है, त्यों त्यों प्रथम प्रकाशित क्षेत्रके अमुक विभागमें अन्धकार होनेके साथ आगे आगेके क्षेत्रमें प्रकाश देता है। उसी तरह निषधपर्वतके ऊपर उदय पाता सूर्य प्रारम्भमें अपना जितना प्रकाश्यक्षेत्र है उस क्षेत्र में आते नजदीकके भागको प्रकाश देता है अर्थात् उस स्थानमें रहे मनुष्योंको सूर्यका प्रकाश मिलनेसे सूर्योदय होनेका भान होता है। मेरुकी प्रदक्षिणाके क्रमसे घूमता सूर्य ज्यों ज्यों आगे आता है त्यों त्यों पीछेके क्षेत्रों में अन्धकार होनेके साथ क्षेत्र संबन्धी आगे आगेके विभागों में प्रकाश होता होनेसे उस समय
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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