________________ .288 . .श्री बृहदसंग्रहणीरल-हिन्दी भाषांतर * - अब इन्हीं दोषोंको किस प्रकार वम कर सकते हैं ! तो इसका भी छोटासा और सरल उपाय बताता हुआ उपकारी महर्षिगण कहता है कि उवसमेण हणे कोहं, माणं महवया जिणे / मायं चज्जवभावेणं, लोभं संतोसओ जिणे // हे आत्मन् / क्रोधका उदय होनेके साथ ही उपशान्त (संतुष्ट) बनकर, क्षमा रखकर क्रोधके उदयको विफल बना दे, मृदुता (कोमलता)-नम्रतासे मान स्वरूप दुश्मनको तथा मायाकपट (छलना) करनेकी मनोवृत्तिके जागने पर सरलहृदयी बनकर मायाको जीत ले और लोभवृत्तिके जागने पर निःस्पृह बनकर संतोषभाव या अनासक्त भाव धारण करके लोभ पर विजय पा ले / इन चारों कषायोंको राग और द्वेष नामक दो विभागोंमें विभाजित किये जाते हैं। इसमें क्रोध और मानका द्वेषके अंतर्गत तथा माया और लोभका रागके अंतर्गत समावेश होता है। मतांतरसे मान, माया और लोभ तीनोंका समावेश रागमें होता है / हम तीर्थंकरको संक्षिप्तमें राग-द्वेषरहित जो मानते हैं उसका अर्थ वे चारों कषाय रहित भगवान हैं ऐसा फलित होता है / ये कषाय क्षमा-नम्रतादि गुण स्वरूप सम्यक् चारित्रमार्गका आवरण करते हैं / इससे आगे बढकर वे क्रोधादिकके भाव उत्पन्न करके असभ्य बरताव भी करवा सकते है / और आगे बढता क्रोध तो ऐसा है कि अगर वह अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया तो नये कर्म बांधनेका अनंत सीलसीला मानो शुरु हो जायेगा / क्रोधादि चारों कषायकी बदनसीबी तो ऐसी है कि क्रोधके समय बँधा हुआ कर्म फिरसे क्रोध हो ऐसा ही बंधेगा और बंधा हुआ कर्म फिरसे जब उदित होता है तब वह तीसरी बार भी वैसा ही बाँधेगा !....इस प्रकार अनंत सीलसीला जारी ही रहेगा। क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों के तरतम ( न्यूनाधिक्य अथवा तारतम्य) भावयुक्त विभिन्न भाव हजारों होते हैं / इर्षा, द्वेष, निंदा इत्यादि / ये कषाय मोहनीयकर्मजन्य हैं। इनका उदयमें निजगुणरमणीयता अथवा स्वभावदशामें अस्थिरता उत्पन्न कर देता है, जिसके कारण आत्मा अपना मूल स्वभाव प्रकट नहीं कर सकती है, उलटा परभावमें रमणीयता उत्पन्न करवाकर, दूसरोंकी चीजोंको अपनी मनवानेकी भूल करवाकर, आत्मासे पर मानी जाती चीजोंमें मोह उत्पन्न करवाकर तथा उनमें मेरा-मेरी का भाव पेदा करवाता है /