________________ बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी] गाथा 3-4 [23 .यह काल वह द्रव्य है तथापि प्रदेशों के समुदायरूप न होनेसे उसे धर्मास्तिकायकी तरह 2 अस्तिकाय कहा नहीं है / वास्तविकतासे सोचने पर यह काल, भेदों के अभाववाला है। अतः कालके भेद नहीं हैं, तो भी निश्चय और व्यवहार रूपमें दो भेद शास्त्रों में कहे हैं / गत्युपकारक धर्मास्तिकाय और स्थित्युपकारक अधर्मास्तिकायकी तरह यह काल द्रव्य भी उपकारी है। और इसी बातको श्री तत्त्वार्थसूत्रके पांचवें अध्यायमें 'वर्तना परिणाम क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य ' इस सूत्र पर समर्थ टीकाकार श्री सिद्धसेनगणि महाराजने सविस्तर व्याख्यासे सिद्ध की है। जिसका स्वरूप प्रारंभके अभ्यासीके लिए अति कठिन होनेसे यहाँ नहीं दिया है। जिज्ञासुओंको उसमें देख लेना आवश्यक है। यहाँ तो व्यावहारिक काल दर्शानेका प्रयोजन होनेसे व्यावहारिक कालका स्वरूप ही संक्षेपमें दिया है। व्यावहारिक काल अर्थात् क्या ? कहा है कि 'योतिः शास्त्रे यस्य मानम् , उच्यते समयादिकम् / . स व्यावहारिककालः, कालवेदिभिरामतः // '' यह व्यावहारिक काल २"समयसे लेकर शीर्षप्रहेलिका (संख्य ), असंख्य और अनन्त तक अथवा शीर्थप्रहेलिकासे पल्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, कालचक्र, पुद्गलपरावर्तादि अनेक प्रकारसे है। 27. तस्मात् मानुषलोक-व्यापी इह कालोऽस्ति समय एक इह / एकत्वाच्च स कायो, न भवति कायो हि समुदायः // 1 // 'समयाद्याश्च कालस्य, विशेषाः सर्वसंमताः / जगत् प्रसिद्धाः संसिद्धाः, सिद्धान्तादिप्रमाणतः // 1 // ' 'लोगाणु भाव-जणिअं जोइस-चक्कं भणंति अरिहंता / सब्वे कालविसेसा, जस्स गइ विसेसनिष्पन्ना' [ज्योतिष्करंडक] ‘लोकानुभावतो ज्योतिष्चक्रं भ्रमति सर्वदा / नृक्षेत्रे तद्गतिभवः, कालो नानाविधः स्मृतः // ' 'सूर्यादिक्रियया व्यक्तोकृतो नृक्षेत्रगोचरः / गोदोहादिक्रियानिऱ्या पेक्षोऽद्धाकाल उच्यते // ' 'यावत्क्षेत्रं स्वकिरणैश्चरन्नुद्योतयेद्रविः / दिवसस्तावति क्षेत्रे परतो रजनी भवेत् // ' [लोकप्रकाश]