________________ * नरकगतिप्रसंग में द्वितीय भवनद्वार . ... गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / 206 // विशेषार्थ-अपने पूर्वभव में किये गये अनेक दुष्ट और भयंकर पापाचरणों से क्रूरताभरी घोर हिंसाएँ, भयंकर झूठ बोलना, निर्दय चोरी करना, परस्त्री गमन, लक्ष्मी आदि पदार्थों पर अधिक मोह के कारण अनेक प्राणियों का घात इत्यादि करने से वे सभी आत्माएँ नरकगति योग्य आयुष्यका बन्द करके नरक में उत्पन्न होती हैं जिन्हें 'नारकी' के रूपमें पहचानी जाती है। अशुभ गति में उत्पन्न होनेवाले इन्हीं जीवों को अपने पूर्वकमोदय के कारण तीन प्रकारकी वेदनाओं का अनुभव करना पडता है। 1 'क्षेत्र' से उत्पन्न वेदना, 2 'अन्योन्य' (परस्पर) से उत्पन्न होती वेदना और 3 संक्लिष्ट अध्यावसायी पंद्रह 'परमाधामी' देवकृत वेदना / इन्हीं तीनों में से अन्योन्यकृत वेदना के पुनः दो भेद पडते हैं—१. शरीर से परस्पर उत्पन्न होती और 2. शस्त्र द्वारा परस्पर उत्पन्न होती वेदना / इन में क्षेत्रवेदना सातों नरक में है और अनुक्रम से नीचे-नीचे अशुभ, अशुभतर, अशुभतम मिलती है। अन्योन्यकृत वेदना में शरीर के माध्यम द्वारा होती अन्योन्यकृत वेदना सातों पृथ्वी में होती है और प्रहरणकृत वेदना प्रारंभ के पाँचों नरक में मिलती है तथा तीसरी परमाधामीकृत वेदना पहले तीन नरकों में मिलती है / [206] अवतरण-और अब सबसे पहले क्षेत्र नामक वेदना जो कि नारकीय जीवोंको अपने ही नरकक्षेत्र के स्वभाव से ही दस प्रकार के दुःख देनेवाले पुद्गल परिणाम रूप होती है, उसे बताते हैं। ... बंधण गइ संठाणा, भेया वन्ना य गंध-रस-फासा / अगुरुलहु सद्द दसहा, असुहा वि य पुग्गला निरए // 207 / / (प्रक्षे. गा. 45) गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / 207 / / विशेषार्थ-१ बन्धन-नारकों की बन्धनावस्था तथा प्रत्येक क्षण उसी प्रकार के आहारयोग्य पुद्गल के सम्बन्ध-ग्रहणस्वरूप बन्धन परिणाम (नतीजा) यह मानो भीषण जलती अग्नि से भी अधिक भयंकर लगता है / 357. सत्तसु खेतसहावा अन्नोन्नोदीरिआय जा छट्ठी / तिसु आइमासु विअणा परमाहम्मि असुरकया य // 1 // यह गाथा अन्योन्यकृत वेदना को छठे नरक तक ही बताती है / तदाशय ज्ञानीगम्य समझें /