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________________ * भावेन्द्रियका वर्णन . * 241. तो फिर दोइन्द्रिय त्रिइन्द्रियका व्यवहार किस तरह होता है ? तो वह व्यवहार तो द्रव्येन्द्रियकी अपेक्षासे किया जाता है।। शंका-आपने एक ही समय पर एक ही उपयोग बताया, लेकिन एक दृष्टांत ऐसा है कि जिसमें एक ही समय पर पांचों इन्द्रियोंका उपयोग या ज्ञान होता है उसका क्या ? और इसके लिए एक दृष्टांत भी है। जैसे कि सिर पर बाल न हो ऐसा कोई गंजा मनुष्य, मध्याह्नके समय, खुले सिर, खुले पैर, सुगंधमय, कडक, मधुर और सुंदर ऐसी लम्बी तिलपपडी मुखमें खाता खाता नदी पार कर रहा हो तब एक साथ पांचों इन्द्रियोंके विषयोंका अनुभव होता रहता है। क्योंकि दोपहरकी धूपसे खुले गंजे सिरमें उष्णस्पर्श और खुले पैर पानीमें चलता होनेसे शीतलस्पर्शका अनुभव होता है, यह स्पर्शानुभव स्पर्शेन्द्रियका विषय है / तिलपपडी मीठीमधुर लगनेसे मधुरताका अनुभव रसना-जिह्वाका विषयानुभव है / तिलपपडीमें इलायची आदि सुगंधी द्रव्य होनेसे घाणेन्द्रियका विषयानुभव, तिलपपडी लम्बी होनेसे खाते खाते आँखसे उसके रुप रंगको देखनेसे चक्षुइन्द्रियका विषयानुभव और कडक होनेसे खाते वक्त कचर-कचर आवाज होती है, वह श्रोत्रन्द्रियका विषयानुभव, इस तरह एक साथ पांचों इन्द्रियोंके विषयोंका अस्तित्त्व है। तो फिर यदि कोई पूछे कि पांचोंका उपयोग क्यों न हो ? __ समाधान-इस दृष्टांतको ऊपर ऊपरसे देखने पर बराबर लगे, लेकिन वस्तुतः परिस्थिति ऐसी नहीं है। अपने छानस्थिक-अपूर्ण ज्ञानके कारण, या बुद्धिकी परिमितताके कारणसे अनेक समयोंमें होता कार्य एक ही समयमें हुआ ऐसा भ्रम होता है। और हमेशा भ्रमज्ञान असत् है और इससे उसका अनुभव मी असत् है। हमेशा इन्द्रियजनित ज्ञान क्रमिक ही हो सकता है। लेकिन अपनी ग्रहण शक्तिकी पामरताके कारण, 'समय' मानके सूक्ष्मकालको देखनेकी या जाननेकी शक्तिके अभावमें अनेक समयमें होता कार्य समकालमें या एक ही समय पर हुआ ऐसा आभास होना स्वाभाविक है। उदाहरण स्वरूप सौ कमलके पौँको कोई वीरपुरुष भालेसे वींधे, तब प्रतिपत्र वींधनेकी क्रिया क्रमशः ही बनी है। हरेक पत्रका भेदन समय अलग ही है। एक के बाद ही दूसरा भेदा जाता है, यह निश्चित-ठोस हकीकत है। फिर भी देखनेवाला स्थूल नजरके कारण ऐसा ही कहेगा कि, नहीं एक साथ ही, एक ही समयमें मैंने छेद डाले। लेकिन यह अनुभव गलत है। उपयोग ज्ञान एक साथ एक ही इन्द्रियका होता हैं। पांचोंका कभी नहीं होता / बृ. सं. 31 .., . , .... .. ... ..
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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