________________ . 168 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * गाथार्थ—विशेषार्थवत् / // 321-3223 // विशेषार्थ-कुलकोटी अर्थात् क्या ?-तो जिनकी उत्पत्ति योनिमें ही हो वे कुल कहलाते / अनेक प्रकारके जीवोंके एक ही योनिमें भी बहुत कुल उत्पन्न होते हैं। उदाहरण स्वरूप एक ही उपलेके पिड़के अंदर कृमि, बिच्छु, कीडे आदि अनेक प्रकारके क्षुद्र प्राणियों के अनेक कुल होते हैं / उनमें पृथ्वीकायकी बारह लाख कुलकोटी, अपकायकी सात लाख, तेउकायकी तीन लाख, वायुकायकी सात लाख, वनस्पतिकायकी अठाइस लाखकी है / [यहाँ सूक्ष्मबादरकी भिन्न भिन्न नहीं बताई / ] दोइन्द्रियकी सात लाख, त्रिइन्द्रियकी आठ लाख, चउरिन्द्रियकी नौ लाख है, तिर्यच पंचेन्द्रिय जीव में जलचर जीवोंकी साढे बारह लाख, खेचरोंकी बारह लाख, चतुष्पद जीवोंकी दस लाख, उरपरिसर्पकी दस लाख और भुजपरिसर्पकी नौ लाख कुलकोटी है / / और मनुष्यकी बारह लाख, देवताकी छब्बीस लाख और नारकीकी पचीस लाख कुलकोटी है। कुल "सर्व जीवोंकी कुलकोटीकी सर्व संख्या मिलकर एक करोड , साढे सतानवे लाख [197 / / लाख] है / [321-3223]. अवतरण–अब पूर्वोक्त [आभ्यन्तर] योनिके ही संवृतादि भेद कहे जाते हैं। संवुडजोणि सुरेगिदिनारया, विअड विगल गभूमया // 323 // गाथार्थ-संवृत्तयोनि देव-एकेन्द्रिय-नारक जीवोंकी. और विवृत्तयोनि विकलेन्द्रियकी और गर्भज जीवोंकी उभय [संवृत-विवृत] योनि है / // 323 // विशेषार्थ-संवृत-अर्थात् अच्छी तरह ढंकी हुई। विवृत-खुली हुई और संवृतविवृत अर्थात् पूर्वोक्त दोनों प्रकारकी अर्थात् मिश्र / _ चारों प्रकारके देव, एकेन्द्रिय वे पृथ्वी-अप-तेउ-वायु और वनस्पति तथा सातों नारकोंकी संवृत योनि है / संवृत योनि किस तरह ?-देवलोकमें देव दिव्य शय्याओंमें उत्पन्न होते हैं / ___471. इस कुलकोटीकी संख्याके बारेमें आचारांगादि ग्रन्थोंका कथन अलग पडता है / साथ ही लोकप्रकाशमें भी देवताकी कुल संख्या बारह लाख कही है आदि संख्याकी बाबतमें मतांतर हैं / कुलकोटीकी . ऊपर बताई व्याख्यासे अधिक संतोषजनक व्याख्या देखनेको नहीं मिलती / ... ..