________________ *44 . श्रीबृहतसंग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . अवतरण-अब नरकावास की तीन हजार योजन की ऊँचाई तथा उसकी व्यवस्था समझाते हुए ग्रन्थकार लिखते हैं कि हिट्ठा घणो सहस्स, उप्पि३७१ संकोयओ सहस्सं तु। मज्झे सहस्स झुसिग, तिनि सहस्ससिआ निरया // 237 // [प्र. गा. 58] गाथार्थ-नीचे के हिस्से में एक हजार योजन का ठोस (घनीभूत ) भाग होता है और ऊपर के हिस्से में भी एक हजार योजन का ठोस भाग होता है। सिर्फ ऊपरि भाग ही बाहरी दिखावे में धीरे-धीरे ऊपर जाते शिखर की तरह सकुचित बनता जाता है। और बीच का भाग जो एक हजार योजन का है वह एकदम खोखला होता है। और इसी भाग में ही नरक के जीवादि रहते हैं। इस प्रकार प्रत्येक नरकावास तीन हजार योजन का होता है। // 237 // . विशेषार्थ-जिस प्रकार मकान की प्लीन्थ होती है उसी प्रकार हरेक 'नरकावास' की भी प्लीन्थ होती है अर्थात् ठोस ( मजबूत ) भाग होता है / यह कितना होता है ? तो वह गाथा में बताये गये मतानुसार एक हजार योजन का होता हैं। इसके बाद नारकी जीवों को जहाँ त्रास, दुःख और वेदना का परमाधामीयों के द्वारा अनुभव होता है वह भाग आता है। वह हिस्सा भी एक हजार योजन का खोखला होता है। परमाधामी लोग नारकी जीवों को 500 योजन ऊँचा उछालकर भयंकर नुकीले भालों पर उठा लेते हैं यह सब इसी हजार योजन के पोले हिस्से में ही बनता है, और उसके बाद नरकावास का ऊपरि हिस्सा भी नीचे की तरह ही बिलकुल पृथ्वीकायरूप ठोस एव घनीभूत ही होता है। यहाँ सिर्फ इतनी विशेषता है कि-उपरि भाग अंत में किसी मंदिर के शिखर की तरह ऊपर की ओर बढ़ता हुआ संकुचित बनता जाता है। इस प्रकार तीन हजार योजन के ये आवास रत्नप्रभा के प्रतरों में आये हुए हैं। इन तीन हजार योजन के नरकावासाओं के बीच में एक हजार योजन के पोले भाग की भीतरी ( अंदर की) भित्तियों में वज्रमय अशुभ वैक्रिय पुद्गलों को ग्रहण करके वैक्रिय शरीर के साथ उत्पन्न होते हैं। यह उत्पत्तिस्थान तो बड़ा होता है, लेकिन उसमें से बाहर निकलने का छिद्र छोटा होता है / इस प्रकार किसी घट (घड़ा) या गवाक्ष (झरोखा) के समान अतिशय सकीर्ण ( सकुचित ) मुखवाले और बड़े पेटवाले आवास 371 पाठां संकुयसहस्समेन !