________________ . 150 . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * पुढवीदग परित्तवणा, बीयरपज्जत्त हुंति चउलेसा / गब्भयतिरिअनराणां, छल्लेसा तिन्नि सेसाणं // 308 // गाथार्थ-चादरपर्याप्ता पृथ्वीकाय, अप्काय और प्रत्येक वनस्पतिकायमें प्रथमकी [कृष्ण-नील-कापोत तथा तेजो] चार लेश्याएँ होती हैं। गर्भज, तिर्यंच और मनुष्यों के. छहों [कृष्ण-नील-कापोत-तेजो-पद्म और शुक्ल ] लेश्याएँ होती हैं / और शेष बादरपर्याप्त तेजस्काय, वायुकाय, सूक्ष्म तथा अपर्याप्ता पृथ्व्यादि स्थावर साधारण वनस्पति, अपर्याप्त प्रत्येक, विकलेन्द्रिय, संमूछिम पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा मनुष्योंके प्रथमकी [कृष्णनील-कापोत] तीन लेश्याएँ होती हैं / // 308 // विशेषार्थ-लेश्या किसे कहा जाए ? यह विषय आगे देवद्वारमें आ गया है। यहाँ वादर पर्याप्त पृथ्व्यादिमें चार लेश्याएँ कही तो चौथी तेजो लेश्याका संभव किस तरह हो ? इसका समाधान गाथा 310 के विवरणमेंसे मिलेगा। तिर्यंचमनुष्यके छः लेश्याएँ कही हैं, क्योंकि ये जीव अनवस्थित परावर्तित लेश्यावाले हैं, जो बात गाथा 311 के विवरणसे ही समझमें आएगी / [308] ___अवतरण-अब लेश्याका परिणाम जीवको किस गतिमें कब परावर्तन पाए ? यह ओघसे कहते हैं। अंतमुहुत्तम्मि गए, अंतमुहुत्तम्मि सेसए चेव / ' लेसाहिं परिणया हिं, जीवा वचंति परलोय // 309 // [प्रक्षेपक गाथा 70] गाथार्थ-अंतर्मुहूर्त्त जाने पर तथा अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर, लेश्यामें परिणमन भाववाले होने पर जीव परलोकमें जाते हैं / // 309 // विशेषार्थ–सुगम है / अन्यथा इस विषयक अधिक समझ अगली गाथामें ही कहते हैं / [309] [प्रक्षेपक गाथा 70] अवतरण-उक्त गाथाके दो प्रकारके नियमनमें, क्या क्या जीव हो सकते हैं ! यह स्पष्ट करते हैं। तिरिनरआगामिभवल्लेसाए अइगए सुरा निरया / पुन्वभवलेससेसे, अंतमुहुत्ते मरणमिति // 310 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 310 // 452. यहाँ 'बादर' ऐसा विशेषण स्वरूपदर्शक है /