________________ अवसर्पिणी कालका वर्णन गाथा 5-6 [43 है। इस तीसरे आरेके मनुष्य वन-ऋषभ-नाराच-संघयणवाले, समचतुरस्र-संस्थानवाले और इस आरेके प्रारम्भमें एक पल्योपमके आयुष्यवाले होते हैं। तीसरे आरेसे चौथे आरेमें, चौथे आरेसे पांचवेंमें, पांचवेंसे छठे में अनुक्रमसे सिंघयण, संस्थान, ऊँचाई वर्ण-रस-गन्धस्पर्श-हीन, हीनतर, हीनतम समझना। जब कि राग-द्वेष, कषायोंकी क्रमशः वृद्धि समझना / अतः अभी पंचमकालमें अपनेको अन्तिम 'सेवार्त'-छेवट्ठा संघयण (हड्डीकी संधिका बन्धन-विशेष ) वर्तमान है, जिससे शरीरके भागको स्वल्प उपद्रव होनेसे हड्डी तूट जाती है और अनेक प्रकारके तेल आदिके सेवनसे 'मूलस्थितिमें लानेके प्रयत्नका सेवन करना पड़ता है। साथ ही कषायोंका उदय भी सविशेष देखा जाता है। 4. दुःषमसुषम :-इस आरेके प्रारम्भमें दुःख विशेष और सुख अल्प होता है। यह आरा 42000 वर्षन्यून 1 कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है। इस आरेमें उत्कृष्ट आयुष्य 1 पूर्वकरोड़का होता हैं। पूर्व (पहले) तीसरे आरेके अन्तमें ऋषभदेय स्वामी हुए, उन्हें केवल संपूर्ण ज्ञान होनेके बाद उनकी माताजी मरुदेवा, तीर्थस्थापित होनेके पहले ही. “अन्तकृत् केवली होकर मोक्षमें गई। तबसे मोक्षमार्ग शुरु हुआ / __ वर्तमान जगतमें सातसौसे अधिक संख्यामें महत्त्वकी भाषाएँ प्रवर्त्तमान हैं, वे साथ ही जो नवीन नवीन लिपियाँ भाषाएँ निकली हैं, उन मूललिपियोंका अमुक अंशमें अपभ्रंशरूप होनेके साथ उस उस देशमें नवीन प्रवर्त्तमान होती भी हैं / अतः अमुक कालमें ही उन लिपियोंका चलन होता है जब कि उपर्युक्त मूल सभी भाषाएँ तथा लिपियाँ न्यूनाधिकतासे यदा-तदा चल्ती होती हैं / 66. 'संघयणं संठाणं, उच्चत्तं आउभं च मणुआणं / अणुसमयं परिहायइ, ओसष्पिणी कालदोसेण // 1 // कोह-मय-माय-लोहा, ओसनं वड्ढए मणुआणं / कूडतूल-कुडमाणं तेणाणुमाणेण सर्वपि // 2 // [जंबूदीय-पन्नती] 67. 'जिसके लिये हैमकोषमें कहा है कि-तत्रैकान्तसुषमारश्चतस्रः कोटिकोटयः / सागराणां सुषमा तु तिस्रस्तत्फोटिकोटयः // 1 // सुषमदुःषमा ते द्वे दुःषमसुषमा पुनः / सैकासहवर्षाणां द्विचत्वारिंशतोनिता // 2 // अथ दुःषमैकविंशतिरब्दसहस्राणि तावति तु स्यात् / एकान्तदुःषमापि ह्येतत्-संख्याः परेऽपि विपरीताः // 3 // प्रथमेऽरत्रये मर्त्य स्त्रिद्वयेकपल्यजीविताः त्रिद्वयेकगव्यूतोच्छायास्त्रिद्वयेकदिनभोजनाः // 4 // कल्पद्रुफलसंतुष्टाश्चतुर्थे त्वरके नराः / पूर्वकोटयायुषः पञ्चधनुःशतसमुच्छ्रयाः // 5 // पञ्चमे तु वर्षशतायुषः सप्तकरोच्छ्रयाः / षष्ठे पुनः षोडशाब्दायुषो हस्त समुच्छ्रयाः // 6 // एकान्तदुःखप्रचिता उत्सर्पिण्यामपीदृशाः। पश्चानुपूर्ध्या विज्ञेया अरेषु किल षट्स्वपि // 7 // 68. 'पुवस्स उ परिमाणं सयरिं खलु वासकोडिलक्खाओ। छप्पन्नं च सहस्सा बोधव्वा वासकोडीणं / ' 69. मरुदेवा माताके सुपुत्र ऋषभदेव स्वामीजीने दीक्षा ग्रहण की, तब उनके वियोगमें एक हजार