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________________ 382 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 195-199 इन्द्रादिक देव यावत् शर्कराप्रभापृथ्वीके अन्त तक, ब्रह्म-लांतक कल्पके देव वालुकाप्रभाके अन्त तक, शुक्र--सहस्रारके देव चौथी पंकप्रभाके अन्त तक और आनत-प्राणत-आरण-अच्युत कल्पके देव पाँचवीं धूमप्रभाके अन्त तक देख सकते हैं / लेकिन इतना विशेष समझे कि उत्तरोत्तर कल्पके देव एक-दूसरेसे अधिक विशुद्धनर विशुद्धतमरूप क्रमशः पदार्थोंके बहुपर्यायोंको देख सकते हैं / [195] प्रारम्भके छः अवेयकके देव छठ्ठी तमःप्रभा पृथ्वी तक, बादके (ऊपरके) तीन ग्रैवेयकके देव सातवीं तमस्तमप्रभा तक और अनुत्तर कल्पके देव (अपनी धजाके अन्तसे ऊपर नहीं इसलिए) कुछ न्यून ऐसी लोकनालिका अर्थात् पंचास्तिकायसे पूर्ण चौदह राजप्रमाण क्षेत्रको देख सकते हैं / ऊपरि तीन प्रैवेयकके अतिरिक्त ये देव सातवीं नरक अधोवर्ती अलोकाकाश तकके विषयको भी जानते हैं। उ. तिर्यक् अवधिक्षेत्र-सौधर्मसे लेकर अनुत्तर तकके देव तिच्छ असंख्याता द्वीपसमुद्र तक (लेकिन उत्तरोत्तर एक-दूसरेसे अधिक असंख्य योजनरूप ) देख सकते हैं। अर्थात् असंख्यातामें असंख्य भेद पड़नेसे सौधर्म देव जिस असंख्य द्वीपसमुद्र देख सकते हैं, ईशान देवलोकवासी देव इससे भी अधिक असंख्य प्रमाण अधिक द्वीप-समुद्रोंके क्षेत्रको देख सकते हैं अथवा उसी क्षेत्रको अधिक स्पष्ट तथा सविशेष देख सकते हैं / इस तरह अधिक-अधिकतर-तमरूप अधिक उत्तरोत्तर कल्पके देवोंको अवधिज्ञानके प्रकाशमें विशुद्धतर-तमपनका सद्भाव होनेसे उसी तरह देखने में वे शक्तिमान हैं। उ. उर्ध्व अवधिक्षेत्र प्रत्येक कल्पके सौधर्मादिक सर्व देव ऊँचा तो भवस्वभावसे अपने अपने विमानकी धजाके अंत तक देख सकते हैं। लेकिन इससे भी उर्ध्वक्षेत्रमें देखनेमें वे अशक्तिमान है। [196-97 ] इत्युत्कृष्टोऽवधिः / सर्वजघन्य अवधि-इन देवोंका जघन्यअवधि विषय अंगुलके. असंख्यवाँ भागरूप (वह कोई एक सम्यग्दृष्टि अवधिज्ञान सहित उत्पन्न होती है अतः उस समय उतना ही बड़ा होता है इसी अपेक्षासे) जानें / यह अवधिविषय पारभविक सम्बन्धी कदाचित् प्राप्त होनेसे ग्रन्थकारने इसे मूलगाथामें बताया नहीं है / // इति वैमानिकानां जघन्योत्कृष्टमवधिक्षेत्रम् // शेष तीन निकायमें अवधिक्षेत्रमान बताते हैं उत्कृष्ट तिर्यगक्षेत्रम्-जिन देवोंका आयुष्य अर्ध सागरोपमसे न्यून हैं ऐसे भवनपतिकी नौ निकाय व्यन्तर, ज्योतिषी आदि सभी संख्य योजनका क्षेत्र देख सकते हैं अर्थात् उतने क्षेत्रके द्वीप-समुद्रोंको देख सकते हैं, और इससे अधिक अधिक आयुष्यवाले चमरेन्द्र,
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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