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________________ * वचन बलका स्वरूप. .247. मन रहित होनेसे 'असंज्ञी' कहे जाते ऐसे संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य, तथा एकेन्द्रियसे लेकर चउरिन्द्रिय तकके जीव इन सबके द्रव्यमन नहीं होता लेकिन अल्प ऐसा भावमन जरूर होता है। मनःपर्याप्ति नामकर्मके उदयसे जीव यह क्रिया करनेकी ताकत रखता है। तीर्थकर-सर्वज्ञोंके मात्र द्रव्य मन ही होता है। अब उन्हें भावमनकी आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि तब तो वे कृतकृत्य हुए होनेसे उन्हें अखिल विश्व त्रैकालिक भावसे आत्मप्रत्यक्ष हुआ होनेसे, अब कुछ मी जाननेके लिए उन्हें विचार करनेरूप रहा ही नहीं। विचार करनेमें उपयोगी कर्म नष्ट हो गया है। सिर्फ दूसरेको जवाब देना हो, तब ही 'द्रव्यमन'को (मनोवर्गणाके पुद्गलोंको) भेजनेकी आवश्यकता पड़ती है। तत्हेतु उसका अस्तित्त्व स्वीकृत है। साथ ही यह मन शरीरके अमुक भागमें ही रहता है ऐसा नहीं है, परंतु समग्र शरीरमें व्याप्त है, इतना सही कि हृदय भागमें उसका प्रमाण विशेष है। 2, वचनबल-वचन विषयक व्यापार किया जा सके ऐसी शक्ति / अब शक्तिके बलसे ही, जीव वचनयोग अर्थात् वचनका व्यापार कर सकता है। बल और योग दोनोंके कारण कार्यभाव द्वारा भाषा प्रवर्तन होता है। वचनबल कारण है, जब वचनयोग ( बलका) कार्य है। अब वह वचनबल या वाणीका वल किस तरह उपयोगी वनता है वह देखें / __जीवको जब बोलना हो तब आकाशके अंदर रहे स्वात्मप्रदेशावगाही, भाषा बोलनेमें उपयोगी ऐसे भाषावर्गणाके पुद्गल स्कंधोंको अपने काय ( शरीर ) योग द्वारा ग्रहण करे अर्थात् खिंचे, फिर जैसा बोलना हो, वैसा वाणीरूपमें परिणत करे अर्थात् उस प्रकार संस्कारित करे, फिर परिणत पुद्गलोंके आलंघनसे वचनका व्यापार करे-बोले -वाणीका उच्चार करे (जिसे वचनयोग कहा जाता है) और तत्पश्चात् साथ साथ उच्चारित या व्याप्त बने भाषाके पुद्गलोंका विसर्जन करे / यहाँ काययोगसे भाषा वर्गणाके पुद्गलोंका ग्रहण और परिणमन तथा वचनवलसे भाषा बोलनेका और विसर्जनका कार्य होता है। वचनबल श्रेष्ठ हो तो तीव्रोच्चार, मंद 538. बलवत्तर कोटिका-विचार समर्थ-मन भले ही न हो, लेकिन सूक्ष्मकोटिका द्रव्यमन-अर्थात् अस्पष्ट मनोविज्ञान-मूछित मनुष्यकी तरह जरूरत होती है। ऐसा कोई कोई ग्रंथकार मानते हैं / 539. दिगम्बर सिर्फ हृदयकमल व्याप्त, और नैयायिक मात्र 'अणु' प्रमाण और अन्य दर्शन विभिन्न रीतसे मानते हैं। लेकिन श्वेताम्बर मान्यता ऊपर कही वह है। 540. 'गिण्हइ य काइएणं, निसिरह तह चाइएणजोएणं / ' [ आ० नि.]
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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