________________ नक्षत्रमण्डलोंकी संख्या ] गाथा 80-81 [169 भादों-भाद्रपद और अश्विनीसे आश्विन या आसोज मास पड़ा है / हरएक महीनेका नक्षत्र उस महीनेमें शामको उगता है और सुबह अस्त होता है / जैन सिद्धान्तानुसार नक्षत्रोंकी कुल संख्या अट्ठाईस है, वे इस तरह 1. अभिजित् , 2. श्रवण, 3. धनिष्ठा, 4. शततारा, 5. पूर्वाभाद्रपदा, 6. उत्तराभाद्रपदा, 7. रेवती, 8. अश्विनी, 9. भरणी, 10. कृत्तिका, 11. रोहिणी, 12. मृगशीर्ष, 13. आर्द्रा, 14 पुनर्वसु, 15. पुष्य, 16. आश्लेषा, 17. मघा, 18. पूर्वाफाल्गुनी, 19. उत्तराफाल्गुनी, 20. हस्त, 21. चित्रा, 22. स्वाति, 23. विशाखा, 24. अनुराधा, 25 ज्येष्ठा, 26 मूल, 27. पूर्वाषाढा, 28. उत्तराषाढा / यद्यपि लौकिक क्रम तो प्रथम अश्विनी फिर भरणी-कृत्तिका-रोहिणी ऐसा है, फिर भी यहाँ दिया गया उपरोक्त क्रम जिस सिद्धान्तमें रक्खा गया है उसका कारण यह है कि युग वगैरह के आदिमें चन्द्रके साथ प्रथम नक्षत्रका योग ‘अभिजित् 'का ही होता है और तत्पश्चात् अनुक्रमसे अन्य नक्षत्रका योग होनेके कारण अभिजित्से लेकर उक्त क्रम रक्खा गया है। विशेषमें कृत्तिकादि नक्षत्रका क्रम तो लोकमें केवल शलाकाचक्रादिक स्थानकोंमें ही उपयोगी है। शंका-जब अभिजित् नक्षत्रसे ही नक्षत्रक्रमका आरम्भ करते हो तो अन्य नक्षत्रोंकी तरह अभिजित् नक्षत्र व्यवहारमें क्यों प्रवर्तित नहीं है ? समाधान-चन्द्रमाके साथ अभिजित् नक्षत्रका योग स्वल्पकालीन है, फिर चन्द्रमा उस नक्षत्रको छोडकर सद्यः अन्य नक्षत्रमें प्रवेश कर लेता है, अतः वह नक्षत्र अव्यवहृत है। यहाँ इतना विशेष समझना कि-जम्बूद्वीपमें तो अभिजित्के सिवा 27 नक्षत्र व्यवहारमें वर्तित हैं, (परन्तु धातकीखण्डादिमें वैसा नहीं है ) क्योंकि अभिजित् नक्षत्रका उत्तराषाढाके चौथे पादमें समावेश होता है, और लोकमें उससे भी कम अर्थात् वेधसत्ता आदि देखने में उत्तराषाढाके साथ अभिजित् नक्षत्रका सहयोग अन्तिमपादकी चार घड़ी जितना ही कहलाता है। ऊपर कहे अट्ठाईस नक्षत्रों के मण्डल तो सिर्फ आठ ही हैं / और इन आठों मण्डलों की अपने अपने नियतमण्डलमें ही गति है / इति संख्याप्ररूपणा // मण्डलक्षेत्र और मेरुके प्रति अबाधा . सूर्यकी तरह नक्षत्रों के मण्डलोंको अयनका अभाव होनेसे और अतः वे नक्षत्रमण्डल बृ. सं. 22