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मूर्तिदवी जैन ग्रन्थमाला : अपभ्रंश ग्रन्थांक 17
महाकइपुप्फयंतविरइउ
महापुराणु [ महाकवि पुष्पदन्तविरचित महापुराण ]
तृतीय भाग
जीवन-चरित : तीर्थंकर अजितनाथ से मल्लिनाथ तक
(सन्धि 38 से 67)
अपभ्रंश मूल - सम्पादन डॉ. पी. एल. वैद्य
हिन्दी - अनुवाद डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, इन्दौर
क
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MA-
भारतीय ज्ञानपीठ दूसरा संस्करण : 2001 - मूल्य : 200 रुपये
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भूमिका
पुष्पदन्तके महापुराणकी पहली जिल्दमें, कुल एक सौ दो सम्बियों से सैंतीस सम्बियाँ हैं, जो १९३७ में, पम्पमाला न्यासधारियोंके सदय संरक्षण में, माणिकचन्द ग्रन्थमाला बम्बई ३७ क्रमांकके रूपमें प्रकाशित हुई थीं । अब मैं दूसरी मिल्य, जिसमें अगली तैंतालीस मन्धियाँ हैं उसी ग्रन्थमालाके ग्रन्थ क्रमांक इक की सवेंके रूपमें प्रकाशित कर रहा हूँ, वह भी उक्त ग्यासधारियों और बम्बई विश्वविद्यालय के संरक्षण में। मैं सोचता हूँ कि अबसे एक साल के भीतर महापुराणकी तीसरी और बन्धिम जिल्द प्रकाशित कर दी जाये ।
यह मेरा सुखद कर्तव्य है कि मैं उन सबके बारे में सोचूँ कि जिन्होंने इस दूसरी जिल्दके प्रकावनमें मेरी सहायता की। सबसे पहले मैं माणिकचन्द दिगम्बर ग्रन्थमालाके कार्यकारी न्यासधारी श्री ठाकुरदास भगवानदास जवेरीको धन्यवाद देना चाहूँगा कि जिन्होंने प्रन्थमालाकी धनराशि कम होते हुए भी, इसके प्रकाशनमें आर्थिक सहायता दी। ग्रन्थमाला के मन्त्री पण्डित नाथूराम प्रेमी और हीरालाल जैन, प्रोफेसर किंग एडवर्ड कॉलेज अमरावतीके प्रति मैं अपनी विशेष हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ, पहली जिल्द प्रकाशन के समय 'माला' की धनराशि लगभग समाप्त हो चुकी थी, और हर था कि शायद मुझे तीसरी जिल्दका, जो अधूरी है, काम छोड़ना पड़ेगा, परन्तु इन विद्वानोंने धन प्राप्त करनेके लिए आकाश-पाताल एक कर दिया, कि जो इसके प्रकाशन में लगता । विशेष रूप से मैं प्रोफेसर हीरालाल जैनको धन्यवाद देता हूँ कि जिन्होंने मेरे उपयोगके लिए उत्तरपुराणकी पाण्डुलिपि ( जिसे बालोचनात्मक सामग्रीमें 'ए' प्रति कहा गया 1) और मास्टर मोतीलाल संघवी जैनके सम्पति पुस्तकालयसे, प्रभाचम्के टिप्पण उपलब्ध कराये, उन्होंने कृपाकर तबतक के लिए मेरे अधिकार में उसे दे दिया कि जबतक में मिलान के लिए उनका उपयोग करना चाहूँ । मैं मास्टर मोतीलालको धन्यवाद देता हूँ उनकी इस उदारता के लिए। श्री आर. जी. मराठे, एम. ए. ने जो मेरे भूतपूर्व शिष्य और इस समय बिलिंगडन कलिज सांगलीमें अर्द्धमागधीके प्रोफेसर है, इस जिल्द मिलानकार्यमें मेरी मदद की। उन्होंने जो सहायता की, उसके डिए वे धन्यवावके पात्र है। न्यू भारत प्रिंटिंग प्रेस बम्बईके श्री देसाई और उनके प्रूफरीडरोंके, इच्छासे काम करनेवाले स्टाफको मैं नहीं भूल सकता, कि जो इसकी शानदार साज-सज्जा और इसके निर्दोष प्रकाशनके लिए उत्तरदायी हैं। मुझे इस्र areer उल्लेख विशेष रूपसे करना है कि इस जिस्के अन्त में जो गलतियोंकी सूची है वह उनकी उपेक्षाका परिणाम नहीं है, बल्कि वह उनका मेरी दृष्टिसे ओझल हो आनेका परिणाम है ।
अन्तमें सम्पादक और प्रकाशक, विश्वविद्यालय बम्बई के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते है, जिसने प्रतीक रूपमें ६५७) रु. मूलभूत सहायता की 1
नास वाशिय कॉलेज
अगस १६४०
[४]
-- पी. एल. वैद्य
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परिचयात्मक भूमिका
बालोचनात्मक सामग्री
पुष्पदन्तका 'महापुराण' अथवा त्रिषष्टिपुरुषगुणालंकार, जो इस जिल्वमें है, के. ए. और पो. पाण्डुलिपियोंपर आधारित है। इनका पूर्णरूपसे मिलान किया गया है। कभी-कभी पाठको निश्चित करने के लिए, प्रभाव टिपणसे सहायता ली गयी है। मैं नीचे इस सामग्रीका सम्पूर्ण विवरण दे रहा है।
१. 'के' इस पाण्डुलिपिका मेरी पहली जिल्द ७-८ पृष्ठोंपर पूरा विवरण है। उत्तरपुराणका हिस्सा क्रमांक २८९ से प्रारम्भ होता है, चूंकि आदिपुराण के दो पाठोंकी तुलनायें यह पाण्डुलिपि निश्चित रूपसे पुरानी है, अतः इस जिल्दके पाठोंकी रचनायें मैं इसपर 'निर्भर' रहा हूँ। यह खेदकी बात है कि मादिपुराणकी 'जी' पाण्डुलिपिसे मिलती-जुलती पाण्डुलिपि इस जिल्दके लिए प्राप्त नहीं की जा सकी। मैं यहाँ यह कह सकता हूँ कि उत्तरपुराणकी जो पाण्डुलिपियों मुझे ज्ञात हैं, बहुत पोड़ी हैं, धादिपुराणकी पाण्डुलिपियों की तुलना ।
२. 'ए' यह पाण्डुलिपि मुझे प्रोफेसर हीरालाल जैन, किंग एडवर्ड कॉलेज अमरावतीने, मास्टर मोतीलाल संघवी जैन सन्मति पुस्तकालय, जयपुरसे उपलब्ध करायी । इसमें ४२३ पन्ते हैं, जो १२ ईष लम्बे और ५ इंच चौड़े हैं । प्रत्येक पृष्ठ पर ११ पंक्तियों और प्रत्येक पंक्ति में लगभग ३६ अक्षर हैं। इस पाण्डुलिपि में अपने मूलरूप में वही पाठ हैं जो 'पी' में हैं, परन्तु फिर भी किसी दूसरी पाण्डुलिपिके आधारपर पाठ सुनार किया गया है, परन्तु वह मुझे उपलब्ध नहीं। इसका परिणाम यह है कि जो विभिन्न पाठ अंकित किये गये है वे संशोधित पाटोंके आधारपर हैं। आगे यह पाण्डुलिपि (B) मूल पाण्डुलिपिके पन्नोंखे बनी है कि जिसके कुछ पन्ने खो गये हैं, और (b ) कुछ वन पन्नोंसे बनी है जो भिन्न-भिन्न हाथोंसे लिखित नये पन्नों से बनी हैं, जो खोये हुए पश्नोंके स्थानपर जोड़े गये हैं । मेरा यह अनुमान, १८३-३८४ के पत्रांक के सन्दर्भ से समर्पित है जिसमें आघा पृष्ठ खाली है कि जिससे मैटर मूलभागके अगले पृष्ठ ३८५ के अक्षरसे प्रारम्भ किया जा सके। इस प्रकार जोड़े गये पृष्ठों में प्रति पृछपर नी पंक्तियां हैं, प्रत्येक पंक्ति में लगभग ३८ अक्षर हैं। इस पाण्डुलिपिके पाठ, 'के और पी' प्रतियों के पाठों से भिल है, यह इस सम्यसे स्पष्ट है कि इसमें ४६, ४७, ४८ ( पहली जिल्दकी भूमिका पु. २७ देखिए ) प्रशस्तिछेद हैं. जो उत्तरपुराणकी किसी भी पाण्डुलिपिसे नहीं मिलते। यह पाण्डुलिपि इस प्रकार प्रारम्भ होती है न नमः वीतरागाय, बमहो भालयसामिहो और अन्त इस प्रकार है 'इस महापुराणे तिसट्टिमहापुरुसगुणालंकारे महाकपुष्पमंतविरार महाभववभरहाणुमण्णिए महाकच्चे दुउत्तरसयमो परिच्छेत्रो समत्ती । संधि १०२ । इति उत्तर पुराण समाप्ता । शुभमस्तु | कल्याणमस्तु । संवत् १६१५ वर्षे, माषादि ६ सुक्रवासरे उत्तरपुराणं समतं । बाईको पठनार्थ ज्ञानावरणी कम्म खयार्थ ग्रंथ संख्या ॥ १२००० ॥
यद्यपि, यह अन्तिम पृष्ठ मूल पाण्डुलिपिका मूल पृष्ठ नहीं है, बल्कि गया लिखा गया है। इस पुष्पिका के अनुसार पाण्डुलिपिकी तिथि माघकी छठ है, वि. संवत् १९१५ की, जो १५५८, सवोके लगभग है ।
(पी) दवन कालेज के संग्रहकी इस पाण्डुलिपिका क्रमांक ११०६ - १८८४-८७ है, वो अब भण्डारकर संस्थान पूनामें जमा । इसमें ६८१ प हैं, जो ११ + ४३ इंच हैं, प्रत्येक आठ पंक्तियाँ
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महापुराण
और प्रत्येक पंक्तिमें ३३ अक्षर है 1इसको तिथि भाद्रपदको पूर्णिमा है ( अगस्त-सितम्बर); वि. स. १६३०, ई. १५७३ के लगभग । इस पाण्डुलिपिका अन्तिम पृष्ठ क्षतिग्रस्त है और इसलिए फिरसे लिखा गया, आषाढ शुक्ल छठीको ( जुलाई ) वि. सं. १९३४. ई. स. १८७७ के लगभग । इसमें पार्श्वभागमें संक्षिप्त टीका है। यह इस प्रकार प्रारम्भ होता है; ओं नमः वीतरागाय । बभहो । बंभालयसमियहो। मूल पृष्ठका अन्त इस प्रकार है इय महापुराणे-दुइत्तरसमो परिच्छेमो समत्तो। दूसरे रूप पाठ इस प्रकार है : संवत् १६३० वर्षे भाद्रपदमासे शुक्लपक्षे पूणिमादियो, के (वि वासरे उत्त), रा भाद्रपदा नक्षत्रे, नेमिनाथ चैत्यालये, श्रीमूक्षसंधे-बलात्कार छे कुंवकुंदाम्बये-स्थापन्न पुछका अम्त इस प्रकार होता है। बलदेवदास टौंग्याका कारण, मीती अषाढ सुदी ६समत १९३४ का सालम, श्री पीया मंडीका मंदिर पंचाहत। मदरने सहायो ॥ 01010॥इन बलदेवदासके पास क्षतिग्रस्त पना दी हिस्सोंमें था, जिसका पहला हिस्सा, अभी भी, मूल पाण्डुलिपिके साप संस्थान में सुरक्षित है। मूल पृष्पर १६३० अंकित है, और मूल पृष्ठपर पट्टावलीवाला हिस्सा, किसी दूसरे हाथसे लिखा हुआ प्रतीत होता है।
उक्त ती पालिपियोंके सम्पूर्ण मिलानके अतिरिक्त प्रभाचन्द्र के टिप्पणका पूरा उपयोग किया गया है। इसकी पाण्डुलिपि, प्रोफेसर हीरालाल जैन ने, श्री मोतीलाल संघी जैन, जयपुर से प्राप्त करायो । गिनती इस पलिमें ५५ मत है। जो जगाई-पोलाईमें १२४५ इंच है। प्रत्येक पृष्ठमें १३ पंकियां और प्रत्येक पंक्तिमें ३१ अक्षर है। यह प्रारम्भ होता है-थों नमः सिद्धेभ्यः, बमहो परमात्मनो । अन्त इस प्रकार होता है-श्रीविक्रमादित्य संवत्सरे वर्षाणामशीत्यधिक सहस्र, महापुराण-विषम-पद विवरणं सागरसेन सैद्धान्तान् परिज्ञाय, मूल टिप्पणकां बालोश्य कृतमिदं समुचयटिप्पणं । अज्ञपातभोलेन श्रीमद्बलाकारगण श्रीसंघाचार्य सत्कवि शिष्येण धोचन्द्रमुनिमा निजदोर्दण्डाभिभवरिपुराज्यविजमिनः श्रोभोजदेवस्य ॥१०२॥ इति उत्तर पुराण टिप्पणक प्रभाषन्द्राचार्यविरचित समाप्त छ ॥ अथ संवत्सरेऽस्मिन् श्रीनृपविक्रमादिस्यगतामा संगत् १५७५ वर्षे भाद्रवा सुदि । बुद्धि दिन । कुरुमांगल देसे । सुलितान सिकन्दर पुत्र सुलतानाब्राहीम सुरतात्र प्रवर्तमाने श्रीकाष्ठासंषे मायुरान्वये पुष्करगणे भट्टारक श्रोगुणभद्रसूरिदेवाः । तदानाये पैसवालक पी. टोडरमल्ल । इदं उतर पुराण टीका लिखापितं । सुभं भवतु । मागल्यं ददाति, लेखकपाठकयोः।
__ ओम् सिखोंको नमस्कार, ब्रह्म और परमात्माको नमस्कार। श्री विक्रम संवत्के एक हजार अस्सी अधिक होने पर, महापुराणके विषम पदोंका विवरण. सागरसेन सद्धान्तसे { ?) को ज्ञातकर और मूलटिप्पणियाँ देखकर, यह समूचा टिप्पण किया गया। अज्ञपात भीत श्रीमत् बलात्कार गणके श्रीसंघाचार्य सत्कवि शिष्य बनमुनिने, अपने पाइदण्डसे अभिभूत मात्र राज्यको जीतमेवाले श्रोभोजटेयके । प्रभापन्द्राचार्य द्वारा विरचित उत्तरपुराण टिप्पण समाप्त था। अब इस संवत्सर नप विक्रमादित्य गत १५०५ वर्ष भादों सुदी, बुधवार । कुरुजांगल देशमें सुलतान सिकन्दरके पुत्र सुलतान इब्राहीमके द्वारा सुराज्य स्थापित होने पर, श्रीकाष्ठासंघ, माथुरान्वय, पुष्करगण । भट्टारक श्रीगुणमद्रसूरीदेव, उनके आम्नायमें
सपा .चौ. टोबरमल । यह उत्तरपुराण टीका लिखवाई। शुभ हो। मांगल्य देता है-लेखक और पाठकको ।
इस पाण्डुलिपिकी पुष्पिका कुछ दिलचस्प समस्याएं खड़ी करती है? जिनका मैंने प्रथम जिल्दके प. मह पर विस्तारसे विचार किया है। इसलिए यहां उनका फिरसे कथन और परीक्षण अरूरी नहीं है । मुझे यहाँ केवल यह कहना अरूरी है कि मैंने 'टी'का पूरा उपयोग किया है, और के. और पी.के हाशियों पर अंकित टीकामोंका भी, पाव-टिप्पणियों को रथमा ।
उत्तर पुराणकी एक और पाण्डुलिपि मुझे ज्ञात है। यह कारंजा (रार)के बलात्कार गण जैन मन्दिर में सुरक्षित है। सी. पी. एण्ड परारक संमत-प्राकृत टलागमें इसका क्रमांक ७०२९ है। यह क्रमांक
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परिचयास्मिका भूमिका स्व, रायबहादुर हीरालालने दिया है। इस पाण्डुलिपिकी तिथि, संवत् १६०६, मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष अष्टमी, को १५४९ ई. है। १९२५-१९२९ में मैंने व्यक्तिगत रूपसे कारंजा जाकर इस पाण्डुलिपिका परीक्षण किया है, और जायके तौर पर कुछ मिलान किया है। मुझे मन्दिरके ग्यासधारियोंने यह वचन दिया था पाण्डुलिपि मुझे सपारदी जायेगी। लेकिन जब मुझे वास्तविक रूपसे इसकी जरूरत पड़ी, तो मैं क्यासधारियोंकी बिचित्र मनोदत्तिके कारण उसे प्राप्त महीं कर सका । अपने जांच मिलानसे, लगता है कि यह पाण्डुलिपि 'पो' पाण्डुलिपिक बहुत निकट है, जिसका कि इस संस्करणमें पूरा मिलान किया गया है।
इस जिल्दमें, मैंने अपने मूल पाठकी रचना ऊपर लिखित सामग्रीके आधारपर की है। ऐसे करते हुए मैं 'के' में सुरक्षित पाठोपर अधिकतर निर्भर रहा हूँ जो उसरपुराणकी दोनों पाण्डुलिपियों में सबसे पुरानी है।
विषयसामग्रीको संक्षेपिका २. महापुराणको इस दुसरी जिल्दमें महापुराण महाकाव्यको ३७ से ८०-कुल घपालोस सन्षियो है, और बीस तीथंकरोंकी जीवनियों का वर्णन करती है। अजितनाथसे प्रारम्भ होकर नमिनाथ तक, जो २१ तीर्थकर है। भीम से आठवी , वासुदेवों और प्रतिवासुदेवोंका वर्णन है । और बारह चक्रवतियोंमेंसे दस चक्रवतियोंका, सगरसे लेकर जयसेन तक। इन जीवनियोंके वर्णनमें कबिने परम्परासे प्राप्त सूचनाओंसे काम लिया है, वह अधिकतर गुणभद्रके संस्कृत उत्तरपुराणसे प्रभावित है, ऐसा प्रतीत होता है कि इन महापुरुषोंकी जीवनियों का विस्तार, पुराने साधुओंने वर्गीकृत कर दिया था। परन्तु विषयवस्तुका उपयोग करते हुए व्यक्तिगत रूपसे कवि, विस्तत वर्णनमें अपनी काव्य-प्रतिमाके उपयोगमें स्वतन्त्र थे। विमलमूरिने 'पउमचरित' में कहा है
'नामावलिय निबद्ध आयरियपरम्परागयं स ।
बोच्छामि पढमचरियं अहाणुविध समासेण 11 ऐसा लगता है कि यद्यपि, जैनोंके दोनों सम्प्रदायों में जानकारी अधिकतर वर्गीकृत और तालिकाबद्ध रूपमें परम्परासे प्राप्त है, और विषयवस्तुमें काफी समानता है। मैंने स्वयं कुछ तालिकाएं बनायो है और उन्हें इस जिल्पके परिशिष्टमें दिया गया है। अब मैं सम्धियोंका संक्षेप देना शुरू करता है कि जहाँ सन्धियोंका संक्षेप तालिका के रूप में देना सम्भव नहीं है।
XXXVIII कवि प्रारम्भमें पांच परमेथियोंकी बम्बना करता है और दूसरे तीर्थकर, अजितनाथ की जीवनीका वर्णन करते हुए, पाठकोंको काव्यरचना जारी रखनेका आश्वासन देता है। प्रारम्भ करने के पहले, यह बहता है कि कुछ कारणों से उसका मन उदास था और इसलिए उसने कुछ समय के लिए काम्य रचना बन्द कर दी थी। एक दिन विद्याकी देवी सरस्वतो उसके सामने स्वप्नमें प्रकट हुई और बोली, 'तुम महंन्को नमस्कार करो। कवि जाग पहा पर उसे कोई भी दिखाई नहीं दिया । संकटके इस क्षणमें मात्रयदाता भरत उसके घर बाया और बोला कि क्या मैंने उसके प्रति कोई अपराध किया है कि जिसके कारण यह काम्परचना जारी नहीं रख सका । भरतने उसे स्मरण विलाया कि जोवन क्षणभंगुर है, और उसे अपनी काव्यप्रतिभाका पूरा-पूरा उपयोग करना चाहिए। तब कवि ने आश्रयदाता भरतसे कहा कि मैं अपने मन में दुःखी हूँ, क्योंकि यह दुनिया दुष्टोंसे भरी है। और इसलिए काव्यरचना जारी रखने की कृषि उसमें नहीं है। लेकिन अब वह उसकी प्रार्थनापर फिर काग्यरचना शुरू करेगा क्योंकि वह उसे इनकार नहीं कर सकता। कवि काव्यरचना प्रारम्भ करता है और अजिसके जीवनका वर्णन करता है, विस्तारके लिए देखिए टिप्पण और तालिका । परिशिष्ट I, II, III में देखिए !
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महापुराण
xxXIX-पृध्दापुरमें राजा जयसेन था, पूर्व विवेहमें वत्सावठी उसकी राजधानी थी। उसके रविसेन और धृतिक्षेन-दो सुन्दर पुत्र थे। रतिसेन जल्दी मर गया। उसके पिता बहुत दुःखीहए। वह सांसारिक जीवनसे विरक्त हो गये। पुषको राज्य देकर, मन्त्री महामसके साथ मुनि बन गये। जयसेन और महारत दोनोंने तपस्या की। मृत्युके बाद वे स्वर्गमें महाबल और मणिकेतु नामक देव हए । इन दो वेवोंने आपसमें यह प्रतिज्ञा की कि जो पहले घरतीपर उत्पन्न होगा, उसे दूसरा उच्चधर्मकी शिक्षा देगा। इनमें से महाबल पहले परतीपर सगर नामका राजा हुआ साफेवमें । और समयके दौरान चक्रवर्ती राजा बन गया। एक बार चतुर्मुख मुनिको केबलज्ञान प्राप्त हुआ, उस अवसरपर देव वहाँ बाये । सगर भी वहां मुनिके प्रति अपनी श्रद्धा समर्पित करने के लिए गया। मणिकेतुने राजा सगरको वेखा। उस देव महादलको दिया गया अपना वचन याद आया। इसपर मणिकेतुने सगरको संसारको क्षणभंगुरता बतानेका प्रयास किया परन्तु उसने उसकी बातपर ध्यान नहीं दिया। मणिकेतु एक बार, सगरके प्रासादपर उसे समझाने आया, परन्तु इस बार भी वह असफल रहा। ठीक इसी समय, सगरके साठ हजार पुत्र, अपने पिताके पास पाये, और उनसे कुछ काम बतानेके लिए कहा-क्योंकि वे आलस्यों रहनेसे थक चुके हैं । सगरने पहले तो यह कहा कि ऐसा कोई काम करने के लिए नहीं है। क्योंकि चक्र ने प्रतापील उनके लिये उपाय करनी है। लेकिन नमको पुत्रोंने आग्रह किया--तो सगरने उनसे मन्दराचल जाने और प्रथम चक्रवर्ती भरत द्वारा निर्मित चौबीस तीर्थकरोंके मन्दिरॉकी सुरक्षाका प्रयम्ब करनेके लिए कहा । तब सगरके साठ हजार पुत्र अपने लक्ष्यपर गये। उन्होंने बहुत बड़ी खाई खोदी मन्दराचलके चारों ओर, और उसे गंगाके पानीसे भर दिया, जो मागलोफमें पहुंच गया । इस सवसरपर मणिकेतुने नई लीसे सगरको समझानेकी बात सोची। वह बहुत पनाग बन गया। उसने सगर के हजारों पुत्रों को क्रुद्ध दृष्टिसे देखा, और उन्हें भस्मीभूत कर दिया; केवल भीम और भगीरथ नौवित बच सके । सगरको विनाशको सूचना दी गयो, माह्मणने उसे संसारकी क्षणभंगुरताके बारेमें बताया । सगरमे भगीरपको गद्दी दी, और वह अपने पुत्र भीमके साथ मुनि हो गया । यह देखकर मणिकेतु बहुत प्रसन्न हुआ और उसने सगरको बताया कि किस प्रकार उसने विद्याके बलसे उसके पुत्रोंको मृत कर दिया था, सब सब पुत्र जीवित कर दिये गये परन्तु उन्होंने भी अपने पिताका अनुगमन किया-और मुनि बन गये । काफी समय बीतनेपर भगीरप भी मुनि बन गयर, बोर मुक्त हुवा।
XL, XLI, XLII, XLIII, और XLIV–सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, परप्रभ और सुपापर्वको जीनियों के लिये, वालिका देखिए ।
XLV--यह सन्धि, माठवें तीर्घकर चन्द्रप्रभके पूर्वभवोंका वर्णन करती है। अपने इन पूर्वभवों चन्द्रप्रभुको मात्मा, परिश्रमी विदेहके सुगन्धदेश, श्रीषेणराजा और रानी श्रीकान्ताके दम्पतिका पुत्र हुई। पवित्र जीवन बिताते हुए, वह अगले अम्ममें श्रीधरदेव, फिर अजितसेन नामसे, अलकादेशको अयोध्यानगरीमें राजा अजितंजय और रानी मजितमा दम्पति को सन्तान (पुत्र) हई। यह अजितसेन चक्रवर्ती बना। उसका जीवन पवित्र था। अगले अम्ममें अम्त स्वर्गमें अहमेन्द्र हुई । अगले जन्ममें बह पानाम, यह पयप्रभके रूपमें उत्पन्न हुई, कनकप्रभ और कनकमालाके पुषके रूपमें, मंगलापती क्षेत्रके वस्तुसंचय नगरमें । अगले जन्ममें उसका जन्म वैजयन्त स्वर्ग में अहमेन्द्र के रूपमें जमा ।
XLVI -चन्द्रप्रभके जीवन के लिए तालिका देखिए । XLVII-सुविधि तीर्थकरके जीवन के लिए तालिका देखिए ।
XLVIII-सर्वे तीर्थकर शीतल, अपने पूर्व जोवनमें, सुसोमाके राजा पृथ्वीपाल थे। उसकी परलीका नाम वसन्तलक्ष्मी था, जो योवनकी प्राथमिकतामें ही मर गयी। उसको मृत्युसे प्रभावित हए राजाने संन्यास ग्रहण कर लिया। अगले जन्म में वह मरण स्वर्गमें देव हमा। अगले जन्ममें वह शीतलके नामसे राजा
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परिचयारिमका भूमिका
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दृढ़रप और रामी सुतम्बाका पुत्र हुआ राजभर नगरमें । कमलमैं मरे हुए भौरेको देखकर, उसके मन में सांसारिक जीवन के प्रति घृणा हो गयी, उसने संन्यास ग्रहण कर लिया। तीर्थकरको सामान्य जीवन प्रक्रियामैं गुजरते हर सम्होंने निर्वाण प्राप्त किया। उनके निर्वाणके बाव, उपदेश देने और आचरण करने वालोंके अभावमें जैनधर्मको पूरे दिन देखने पड़े। इस अवसरपर भद्रिलपुण्णमें मेघरथ नामका राणा पर। वह उपयुक्त मादमियोंके लिए अपने धनका दान करता पाहता था, उसने मन्त्रियोंसे सलाह मांगी कि सबसे अच्छा धान क्या होगा । मन्त्रीने शास्त्रदानको दानका सर्वश्रेष्ठ रूप बताया । परन्तु राजाको यह सलाह पसन्द नहीं पायी। उसने मण्डलायन मन्त्रीसे पुछा, उसने राजासे कहा कि उसे ब्राह्मणोंको हाथी, पाय बादि दान देने चाहिए । राजाने सलाह मान ली जिसने केवल ब्राह्मणोंको सम्पन्न बनाया परन्तु उससे अच्छा नहीं
IL-श्रेयांसकी जीवनी के लिए वालिका देखिए।
L, LI, LII-2 वोन सन्धियाँ प्रथम बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेवका वर्णन करती है। श्रेयांसके तीर्थकालमें राजगहमें राजा वसुभति और रानी बैनी थे। राजाका विशासभति नामका छोटा भाई था, उसको पल्लीका नाम लक्षमणा था । जैनीने वसुनदी पुत्रको अन्म दिया और लक्ष्मणाने विशालनन्दीको । एक दिन राजाने शरदके रादल आकाशमें विलीन होते हुए देखे, इससे राजाको संसारसे विरक्ति हो गयी । अपने छोटे भाई विशावभूतिको राज्य देकर उसने दीक्षा ग्रहण कर लो । जब विशाभूति राजा हुमा, तो विश्वमन्दी युवराज बन गया । एक दिन वह अपने प्रमद-उद्यान नन्दनवनमें गया। वह वही स्त्रियों के साथ थानन्द कर रहा था, विशाखनवीने उसे देख लिया। उसके मनमें उस उद्यानपर अधिकार करनेकी कल्पना आयी। बह अपने पिताके पास गया और उसने वह उद्यान उसे देने के लिए उमपर दबाव डाला। राजाने ऐसा करना स्वीकार कर लिया। उसने विश्वनन्दीको बुलाया और उससे राज्यका भार लेने के लिए कहा, उसने मागे बताया कि यह विद्रोह करनेवाली जातियों के दमन के लिए सीमान्त प्रवेशपर जाना चाहता है। विश्वनन्वीको यह विचार अच्छा नहीं लगा कि उसके चाचा लड़ने जायें, उसने उनसे कहा कि वह खुद इस कार्यके लिए जाना पसन्द करेगा । विशाखभूतिने विश्वनन्दीकी यह बात मान ली। विश्वनन्दी चला गया । विश्वनन्दीको अनुपस्थिति में विशाखभतिने नन्दनवन अपने पुत्र विशाखनन्दीके लिए दे दिया। अब विश्वनन्दी लौटा तो उसने पाया कि उद्यान विशास्त्रनन्दीके अधिकारमें है। विश्वनन्दी अपने चारा और मेरे भाईपर क्रुद्ध हो उठा। उसने भाई पर अाक्रमण करना चाहा, परन्तु यह वृक्षपर चढ़ गया, विश्वनन्दीने उसे विशाखनन्दी सहित उखाड़ दिया। उसने दोनोंको नष्ट करना चाहा, परन्तु विशासनन्दो पल्परके खम्भेपर चढ़ गया, विश्वनन्दीने उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये । सब विशाखनन्दी अपना जीवन बचाने के लिए भागा । इस बीच विश्वनन्दीको तरस माया कि उसने अपने भाईपर आक्रमण किया, उसने जैनमुनि बननेका निश्चय कर लिया। विशावभूतिने भी विश्वनन्दीका अनुकरण करनेका निश्चय कर लिया। विशाखनम्दीको गद्दीपर स्थापित कर दिया । वनमें जाकर उसने तप किया। मरमेके बाद महाशुक्र स्वर्गमें उत्पन्न हुना। अब विशाखनन्धी एक शक्तिशाली शत्रुसे पराजित होकर राजषानीसे भागकर मथुरा गया और वहकि राजाका मन्त्री बन गया। एक दिन, मुनि विश्वनन्दी ( पचेरे भाई ) पर्याक लिए सहकपर जा रहे थे। हाल ही में व्यानेवाली जधान गायने उन्हें मार दिया जिससे वह गिर पड़े। महलकी छातसे विशालनादीने यह देखा और उसने मुनिका अपमान किया । मुनि इसे सहन नहीं कर सके, उन्होंने संकल्प किया कि अगले जम्ममें में इस अपमानका बदला लूंगा। मरकर वह महाशक्र स्वर्गमें देव हुए वहां उसके पाचा विशासभूति थे। कुछ समय बाद विशाखनन्दी घुणासे अभिभूत हो उठा। उसने तप किया और वह भी महाशुक्र स्वर्गमैं देव दया । अलका नगरी में राजा मयूरग्रीव और उसकी पत्नी नीलांजनप्रभा रहती थी। अगले जन्ममें विशालगन्दी उसका पुत्र हुमा-- अश्वग्रीवके नाम से । अपने दुश्मनों का सफाया कर, वह प्रतिवासुदेव तीन खम्ह घरतीका सम्राट
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अर्षचक्रवर्ती बन बैठा । पोदनपुरके राजाको दो रानियां थीं-जपावती और मृगावती । जयावतीने जिस पुत्रको धम्म दिया, उसका नाम विजय पाजो कि पूर्वजन्ममें विशाखभूति था। यह विजय, जैन पुराणविद्याके प्रथम बलदेव थे, उनका रंग गोरा था। मृगावतीने जिस बालकको जन्म दिया, उसका नाम त्रिपृष्ठ था जो कि अपने पूर्वजन्ममें विशाखनन्दी था। यह पहले वासुदेव थे, बौर इनका वर्ण काला था 1 ये दोनों सौतेले भाई एक दूसरेके प्रति प्रगाढ़ प्रेम रखते थे।
LI एक बार रामा प्रजापतिके पास यह समाचार बाया कि एक भयंकर सिंह प्रजामें आतंक मवा रहा है। प्रजाने उससे इस अनर्थको हटाने की प्रार्थना की। तत्पश्चात् राजा स्वयं जाकर सिंहको मारने के लिए तैयार हो गया, जब कि विजयने उससे प्रार्थना की कि उसे इस कार्यके लिए जाने दिया जाये। चिजानेउसे जाने की अनुमति दे दो, उसका छोटा भाई भी उसके पीछे गया। दोनों सिंहकी गुफामें पहुँचे, योद्धाओंके शोरगुल और चिल्लाहटसे भड़ककर सिंह बाहर आया। बह विजयपर झपटनेवाला था कि त्रिपष्टने अपने पोनों वाहुओंमें सिंहके पंजे पकड़ लिये और उसके मुंहपर आचात किया । सिंह मरकर गिर गया ।
एक विन द्वारपाल पहुँश और रामासे निवेदन करने लगा-कि द्वारपर एक विद्यारर है जो आपसे मिलना चाहता है। उसे राधाके सम्मुख उपस्थित किया गया। विद्याधरने राजा प्रजापतिसे कहा कि पसका नाम इन्द्र है और वह राजा ज्वलनजदीका जनकर भागा है। यह सन और विजाइ तथा विपद्धको विद्यापर-क्षेत्रके लिए निमन्त्रित करने आया है ताकि त्रिपृष्ठ पत्थरको शिला उठाये, जिसका नाम कोटिशिला है, तथा अश्वग्रीव को मारे और उसकी कन्या स्वयंप्रभासे शादी करे, बहसीनाखण्ड घरतोका राजा बने और राजा ज्वलनअटीको विजयाई पर्वतकी दोनों श्रेणियोंका राजा बनाये। प्रजापतिने निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। वह विद्याधर क्षेत्रमें गया। ज्वलनमटीने उनका अच्छी तरह स्वागत किया। उससे अपने पुत्र अर्ककोतिसे परिचय कराया। बात बीतके दौरान यह तय किया गया कि सबसे पहले विपृष्ठ शिला उठाये जिससे सन्हें विश्वास हो सके कि वह अश्वग्रीवको मार सकता है। तत्पश्चात् वे सब उस जंगलमें गये, जहाँ कोटिशिला रखी हुई थी। उन्होंने त्रिपृष्ठ शिला उठाने के लिए कहा। उसने आराानीसे उसे उठा दिया । ज्वलनजटो और दूसरोंने इतनी पाकिके लिए उसकी प्रशंसा की। उसके बाद वे सब पोदनपुर लौट आये और उन्होंने त्रिपृष्ठ और स्वयंप्रमाके विवाहका उत्सव मनाया 1 विवाहका समाचार अश्वग्रीवके कानों में पड़ा, बह ज्वलनजटीफे कार्यो कुढ़ गया, कि उसने अपनी कन्याका विवाह जातिके बाहर किया-अर्थात उसने एक मनुष्य त्रिपुष्ठको अपनी कन्या विवाह वी, बजाय विद्याधर अश्वग्रीवके। उसने मन्त्रियों की राय विरुष्ट ज्वलनबाटी और प्रजापतिपर चढ़ाई करनेके लिए कम किया ।
LIL-बरोंने राजाको सेना और अश्वग्रोवके पोदनपुरके प्रवेशद्वार तक पहुंचने की सूचना दो। इसपर प्रजापतिने ज्वलमजटीसे परामर्श किया कि उन्हें किस प्रकार स्थितिका सामना करना चाहिए. जबकि विजयने कहा-मुझे विश्वास है कि त्रिपुष्ठ निश्चित रूपसे अपवनीवको मार डालेगा । लाई शुरू होने के पहले अश्वग्रोवने दूत भेजा, त्रिपृष्ठके पास यह जाननेके लिए कि क्या वह अश्वग्रीवके साथ सन्धि करने और स्वयंप्रभा वापस करनेके लिए तैयार है। त्रिपुष्ठने प्रस्ताव ठुकरा दिया । युद्ध शुरू हो गया । देवीन विपृष्ठको सारंग नामको धनुष, पांचजन्य नामका शंख, कौस्तुभ मणि और कुमुदनी गदा और विजयके लिए दल, मुसल और गवा दिया । सेनाएं भिड़ों और उनमें भयंकर युद्ध हुआ । युद्ध के दौरान अश्वग्रीषने अपना चक्र त्रिपृष्ठपर फेंका, पर वह उनको हानि नहीं कर सका, वह उसके हाथ में स्थित हो गया। उसने तब इमो चक्रका उपयोग अश्वग्रीवके विरुद्ध किया जिससे वह मारा गया। उसकी मृत्यु के बाद त्रिपृष्ठ अर्धचक्रवर्ती बन गया। उसके शोघ्र बाब ज्वलनमटी अपनी राजधानी रचनपुर नगर बा गया और लम्बे अरसे तक विजया पर्वतकी दोनों श्रेणियोंके ऊपर प्रभुसत्ताका भोग करता रहा, फिर साधु हो गया। राजा प्रजापतिने भी ऐसा ही किया । अब त्रिपुष्ठ सदैव मानन्दसे अतृप्त रहा । वह मरकर सातवें नरकमें गया । उसकी मृत्यु के
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परिचयास्मिका भूमिका गाव विजयने अपनी राजधानी श्रीविजय को सौंप दी और तपस्या कर मुक्ति प्राप्त की। स्वयंप्रभाने भी यही किया।
LIII-वासुपूज्यकी जीवनी के लिए तालिका देखिए।
LIV---यह सन्धि बलदेव, बासुदेव और प्रतिवापूदेवके दूसरे समूहका वर्णन करती है। विध्यपुरमें विन्ध्यशक्ति राज्य करता था। कनकपुरका रामा सुषेण उसका मित्र था । सुषेणके पास गुणमंजरी नामकी सुन्दर वेश्या पी। विन्ध्यशक्तिने उसके पास दूत भेजा कि वेश्या उसे दे दी जाये। सुषेणने प्रार्थना करा दी। दोनों मित्रोंमें युद्ध छिड़ गया। सूषेण पराजित हुआ। मित्रको पराजय सुनकर महापुरके वायुरप सांसारिक जीवनसे विरत हो गया। वह मुनि बन गया। सुषेणने भी मुनिव्रतकी ईक्षा ले ली। उसने मरते समय अपने वैरका बदला लेनेका निदान बांधा। वायुरथ और सुषेण वोनों प्राणत स्वर्गमें देव हुए । राजा विध्यशक्ति भी किसी एक स्वर्गमें उत्पन्न हुआ। अगले जन्ममें बिन्ध्यशक्ति भोगवर्धनपुरके राजा श्रीधर और रानी श्रीमतीका पुत्र उत्पन्न हुआ। उसका नाम तारक था। समयको अवधिमें वह अर्घचक्रवर्ती बन गया । वायुरथ और सुषेण राजा ब्रह्मा एवं रानी सुभद्रा और उषादेवीके पुत्र हुए। अचल और द्विपृष्ठ उनके नाम थे जो बलदेव और वासुदेव थे। उनके पास श्रेष्ठ हामी था। तारक उस हार अपने पास रखना चाहता था और उसने विषष्ठके पास हाथो देनेके लिए दूत भेजा। अचलने ममा कर दिया। तारक और द्विषष्ठमें संघर्ष आ, जिसमें तारक मारा गया। द्विपष्ट अर्ध पक्रवर्ती बन गया। मृत्युके बाद तारक और द्विपष्ठ नरक गये। अपने भाईको मृत्यु देखकर अचलने जन-दीक्षा ग्रहण कर ली और उसने संसारसे मक्ति प्राप्त कर ली।
1.v.तेरहवें तीर्थकर विमलकी जीवनी के लिए तालिका देखिए ।
L.VI–पवित्रमी बिरेहके श्रीपुर में राजा नदिमित्र था। एक दिन उसे संसारकी क्षणभंगुरताका शान हो गया, सुखभोग छोड़कर उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। मृत्यु अनन्तर वन अनुत्तर विमानमें देव हुम।। धावस्ती में सुरेतु नामका राजा या । ससी नगरमें दूसरा राजा बली था। वे एक दिन जुआ खेले जिममें सुकेतु सब कुछ हार गया । निराशामें यह मुनि बन गया । परन्तु तपस्या करते हुए उसने यह निदान बाषा कि उसे पलोसे अगले जन्ममें बदला लेना चाहिए । मृत्यु के बाद सुकेतु लान्तव स्वर्गमें उत्पन्न हुर। बली भी स्वर्गमें देव उत्पन्न हुना। अपने अगले जम्मों में बली रहलपुरके राबा समरकेशरी और रानी सुन्दरीका पुष एला । उसको मधु कहा गया। वह प्रतिजापुदेव और अर्धचक्रवर्ती था। नन्दिमिव और सुकेतु द्वारावतीके राजा रुद्रकी पत्नियों सुभद्रा और पृथ्वी से उत्पन्न हए । उनके नाम थे धर्म (बलदेव) और स्वयम्भू (वासुदेव )। एक दिन स्वयम्भूने जब अपने महलको छतपर बैठा हुआ था, शहर के बाहर सैनिक-शिविरको ठहरा हुआ देखा। उसने मन्त्रीसे पूछा कि यह सेना किसकी है। मन्त्रीने उससे कहा कि सामन्त पाक्षिसोमने राजा मषुको उपहार भेजा है जिसमें हाथी-घोड़ा आदि है। स्वयम्भूने इसकी अनुमति नहीं दी। उसने शशिसोमको हरा दिया और उपहार छीन लिया। पह खबर मधुके कामों तक पहुँची। उसके बाद उसने स्वयम्मपर हमला बोल दिया। बादमें जो लड़ाई हुई उसमें स्वयम्भू ने मका काम तमाम कर दिया। यह अर्घचक्रवर्षी हो गया। राज्यका उपभोग करते हुए स्वयम्भू भी मरकर भरकमें गया । धर्मने मुनिवर्मकी दीक्षा ली और निर्माण प्राप्त किया।
LVI!-यह सन्धि संजयन्त, मेरु और मन्दरकी कहानीका वर्णन करती है। इममें से दो बादमें विमलबाहनके गणपर हए, जो तेरहवें तीर्थकर थे। दो और बादमी ये जो इस कहानीसे सम्बन्धित हैमन्त्री श्रीभूति और व्यापारी भवामित्र । इनमें से श्रीभृति सत्यघोषसे संलग्न है। पहले तीन व्यक्तियों के सात भवोंका कवि वर्णन करता है जब कि अन्तिम दोके कुछ ही भवोंमा वर्णन करता है। इस सन्धिके टिप्पणमें इनकी सूचीपर हिपात किया गया है जिससे पाठकोंको समझने में सुविधा होगी।
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महापुराण बीतशोकनगरमें वैधयन्त नामका राजा था। उसको रानीका नाम सर्वश्री था। उसने दो पुत्रोंको जन्म दिया-संजयन्त और उपन्त । एक दिन जैन मुनिका प्रवचन सुनकर उन सबने संसारका परित्याग कर दिया । समयके दौरान वैजयन्तने निर्वाण प्राप्त किया। इस अवसरपर जो देव उनके प्रति अपनी प्रज्ञा प्रदर्शित करने आये, उनमें नागोंका देव भी था जो अत्यन्त सुन्दर था। जयन्नने यह निदान बांधा कि अगले अम्ममें उसका वैसा ही सुन्दर शरीर हो जैसा कि नागोके स्वामीका है। वह भागलो कमें नागोंका देवता हुआ। एक दिन जब संजयन्त प्रतिमाओंकी सायना कर रहा था, विद्यदष्ट विद्याथरने उसे देखा, उसे उठाया और च नदियोंके संगमक्षेत्र में फेंक दिया तथा लोगोस कह दिया कि पति शैतान है। इसपर टोगोंने मुनिको पीटा, परन्तु वह अविचलित रहे। वह यातनाओंको सडझे हुए रिणिको प्राप्त हुए। इस अवसरपर जयम्त सहित, जो नागोंका देवना या, पर न आये। अपने भाई की स्थिति देखकर नागने लोगोंपर हमला शुरू कर दिया । ये बोले कि हमने इसलिए साधुको विद्याधर विद्युदंष्टकी सूचनापर पीटा। तब नागदेवताने विद्याधर विद्युइंष्टको पकड़ा, और जब कि पहला दूगरेको समुद्रम फेंकनेवाला था, आदित्यप्रभ देखने बीच-बचाव किया और उसने उन सबके पूर्वभवोंका वर्णन किया। सिंहपरमें वहां सिहसेन मामका राणा था। रामदत्ता उसको गनी थी ! श्रीभूति और सत्यघोष उसके मन्त्री थे। नगरमें भद्रमित्र नामक व्यापारी था, जो पद्मख पडपुरवे सुरत्त और सुमिपाका पुत्र था । यात्रा करते हुए भदमित्रको कीमती मणि मिले जिन्हें उसने अश्योगके पास परोह के अपमें रख दिया। ( बाद में रावघोष और श्रीभुति में भ्रम है) कुछ समय बाद भद्रमित्रने अश्वघोषसे रल लौटाने को कहा, परन्तु उसने रत्नों की जानकारी के बारे में साफ मना कर दिया, यहां तक राजाके पूछने पर गो। भद्रमित पागल हो गया और गजमहलके पड़ोस में एक पेड़ार बहकर चिल्लाकर मन्त्रीकी इज्जत घरने लगा। रानी रामदत्ता मन्त्रीसे चिढ़ गयी और उसने उसके साथ एक चाल पली । उसने सत्यगोपी मास जएका खेल खेला जिसमें वह पहचानवाली अँगूठी और पवित्र जनेऊ रातीसे हार गया। उसने अपनी दासीके माध्यमसे मन्त्रीके खजांचीके पास अंगूठी भेटी और उससे रन प्राप्त कर लिये। इस बातकी परीक्षाके लिए कि भद्राभित्रने जो कुछ कहा है, वह सत्ये है, राजाने उन रनोंमें मिला दिये जो मिटके थे। वे रत्न मद्रमित्रको दिखाये गये। उसने केवल अपने रल उठाये यह कहते हुए कि वे उसके नहीं है। तब राजा उसपर प्रसन्न हो गया। राजाने मन्त्रोको सजा दी और वही बर्ताव किया जो गक घोरपे साथ किया जाता है। मन्त्रोने इसके लिए राजाके प्रति अपने मनमें गांठ बांध ली। अगले जन्म में बढ़ अगम्यन नाग बना और राजाके सजानेमें खड़े होकर राजाको काट सामा। अगले जम्मा भद्रमित्र रामबत्ताके पुत्र के रूप में जन्मा उसका नाम सिंहवन्द्र रखा गया । उसका छोटा भाई पूर्णवन्न पा। और यह इस विस्तारमें है कि तीनों व्यक्तियों को पूर्वमव की जोधनियाँ इस सम्धिके प्रारम्भमें गणित की गयी है।
LVIIP-समान्तकी जीवनीके लिए (१४ तीर्थकर ) तालिका देखिए । उनके तीर्थकाल में बलदेव, वासुदेष और प्रतिषासुदेवका चौपा समूह उत्पन्न हुआ। नन्दएरमें राजा महाबल था । वह 'मुनि हो गये और मरकर सहस्रार स्वर्गमें सत्पन्न हए। उस समय पोदनपुरमें राजा वसुसेन राज्य करता था। उसकी रानी नया बहुत सुन्दर थी। उसका मित्र चन्द्रशासन उसके पास रहने आया। उसने नन्दाको देखा, वह उसके प्रेममें पड़ गया और यमुसेनसे कहा कि वह उसे दे दे। उसने ऐसा करने से मना कर दिया। परन्तु चन्द्रशासन उसे जबरदस्ती ले गया। इसके बाद वसुसेन मुनि बन गया और मृत्यु के बाद उसो स्वर्गमें सत्पन्न हुआ, जिसमें महाबल उत्पन्न हुआ था। पन्द्रशासन अगले जन्ममें वाराणसोके राजा विकास और रानी गुणवतीका पुत्र हुआ। महाबल और वसुसेन, राजा सोमप्रभकी रानियों (जयावती और सीक्षा) से क्रमशः तत्पन्न हुए और क्रमशः उनके नाम सुप्रभ और पुरुषोत्तम रखे गये । मधुसूदनने उनसे उपहारकी मांग की, और चूंकि उन्होंने ऐसा करनेसे मना कर दिया, इसलिए मधुसूदन और पुरुषोत्तममें संघर्ष हुमा जिसमें मधुसुदन मारा गया। पुरुषोत्तम अर्घचक्रवर्ती बन गया।
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परिचयामिका भूमिका
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Lix-पन्द्रहवें तीर्थकर धर्मनाथकी जीवनीके लिए तालिका देखिए । इनके सार्थकालमें बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेवका पाँचवा समूह हुआ। बीतशोकनगरमें नरवृषभ राजा हुआ। उसने तपस्या की ओर मरकर यह सहस्रार स्वर्गमें उत्पन्न हुआ। राजगृहमें राजा सुमित्र का 1 वह राजसिंहसे लड़ाई में मारा गया। सुमित्रचे तपस्या की और मरते समय यह निदान बाँधा कि मैं अगले जन्म में राजसिंहको पराजित करूं। मृत्युके बाद वह महेन्द्र स्वर्नमें उत्पन्न हुमा । राजसिंह अगले जन्म में हस्तिनापुरका राजा मकोड़ हा। राजा नरवृषभ और मुमित्र राजा सिंहसेनको रानियों विजया और अम्बिकासे उसके पुत्र हुए, उनके नाम सुदर्शन और पुरुषोत्तम थे, जो पांचवें बलदेव और थासुदेव थे। राजा मघुकीड़ने दुत भेजकर सुदर्शनसे कर मांगा जिसे उसने अस्वीकार कर दिया। उनमें युद्ध हुआ। पुरुषोत्तमने मधुकीड़ो मार डाला और अबक्रवती सम्राट् जन गण । उसी राज्यमें साकेतम राजा सुमित्र था । उसको रानो मद्रा थी। उसने एक पुत्र को जन्म दिया, उसका नाम मषवन था । उसने समस्त छह खण्ड घरती जीत लो और जैनपुराणविद्याके अनुसार तीसरा सार्वभौम चक्रवर्ती सम्राट् बन गया। बहुत समय सक धरतीका उपभोग करने के बाद उसने संसारका परित्याग कर मोक्ष प्राप्त किया । थोड़े समय के बाद उसी शासनकालमें चौथा चक्रवर्ती हुआ, उसका नाम सनरकुमार था। वह विनीतपुरके राजा अवार्थ और रानो महादेवो का पुत्र था। वह अत्यन्त सुन्दर था । इन्द्रके द्वारा प्रेषित दो देव उसका सौन्दर्य देशने शमे । उन्होंने राजासे कहा कि कुमारका सौन्दर्य शाश्वत रहेगा यदि उसे बुढ़ापे और मोतन नहीं घरा। बुढ़ापे और मृत्युका नाम सुनकर सनत्कुमारने संसारका परित्याग कर दिया और निर्बाणलाम किया।
LX-श्रमोघजी नामके ब्राह्मणने भविष्यवाणी को कि छह महीने बाद मामा श्रीजीव सिरपर बिजली गिरेगी, जो वासुदेव त्रिपृष्ठका पुत्र है और उसमें सिरपर रत्नोंकी वर्षा होगी। जब ब्राह्मी यह पूछा गया कि वह इस प्रकारका भविष्यक यन कंत कर सकता है तो उसने कहा कि मैंने प्रसिद्ध शिक्षक या विद्या पढ़ी है। एक दिन जब उसने अपना पत्नीस भोजनके लिए कहा तो उसने पाली में स्नाली की डयां परोस दी, क्योंकि गरीबोके कारण उसके घरमें कुछ और था ही नहीं : पत्नीने उसे हिण्डका कि तुम कुछ काम करके धन नहीं कमाते । ठोक इसी समय आगकी चिनगारी उ..को पालीम मिरी, ठोक इसो समय नीका घड़ा उनको पत्नीने उसके सिरपर डाल दिया। यह इस घटना कारण था कि ब्राह्मणने यह भविष्यवाणी को भी कि राजाके सिरपर बिजली गिरेगी और उसके सरपर रत्नों की वर्षा होगी। तत्पश्चात मन्त्रिमाने राजाको नलाल दो कि देवा विपत्तिको टालने के लिए कुछ समयके लिए राज्य छोड़ दिया जाये और तबतक के लिए किसा दूसरेको गहोपर बैठा दिया जाये । इसके बादका सन्धि रोविजय और अमिततेज विद्याधरके बीच हुई त्रुता
और संघर्ष का वर्णन करती है। एक मुनि हस्तक्षेप करते हैं और उन्हें जैनसिद्धान्तों का उपदेश देते हैं, इसके परिणामस्वरूप दे दानों दीक्षा ग्रहण कर लेते है।
1 -अगले जन्ममे श्रोविजय और अमिततेज स्वर्ग में देव हुए, मणचूल ओ: रवि के नामने । अगले जन्म में प्रभावती नगरके राजा स्थित पागरके रानी वसुन्धरा और अपराजितास पुत्र हए। उनके दरबारमें दो सुन्दर नृत्यांगनाएं थों, जिनकी विद्याधर राजा दमितारिने मांग को ।
LX-LXIII-ये चार सन्धियो जोकर शान्तिनाथ और उनके पूर्वमबोंका, विशेष रूप और खासकर चक्रायुध की, जोवनो विस्तारसे ( LXI.I ) जिसका टिप्पणमें विस्तार है ।
LXIV–कुन्युकी जीवनी के लिए तालिका देखिए ।
LXV--अहं में जावन के लिए तालिका देखिए। अह के शामन साल आठवें भर्ती सुमोम हुन। सदरूवाह नामका राजा था । उसको पत्नी विवित्रनताने कुतबार पत्रको जन्म दिया। विचित्रमनीकी बहन श्रीमतीका विवाह शतबिन्तु में हुआ था। उनमे जो पुष उभा उसका नाम जरिन रखा गया। बचपन में माताको मृत्युके कारण जमदग्नि तापसनुन बन गया। दातबिन्दु और उसका मन्त्री हरिश भी क्रमाः जैन
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महापुराण
और हिन्दू मुनि बन गये। कुछ समयके बाद शतबिन्दु मरकर सौधर्म स्वममें देवता हुमा तथा हरिशर्मा ज्योतिष दव हुआ। वे दोनों जमदग्निकी पवित्रताको परीक्षा करना चाहते थे। उन्होंने चिड़ी-चिड़ाका रूप धारण कर जमदग्निके वालोंमें घोंसला बना लिया। शोर कुछ उसके प्रति अपमानजनक बातें करने लगे। वह पक्षियोंपर नाराज हो गये और उन्हें मारनेको धमकी दी। उन पक्षियों में से एकने कहा कि उसे नहीं मालूम कि वह ( जमदग्नि ) इसलिए स्वर्ग न पा सका क्योंकि उसके पुत्र नहीं है। जमदग्निने इसपर विचार किया और मामाके पास जाकर उसने उसको क-यासे विवाह करनेका प्रस्ताव किया। बुढ़ापा होनेसे कन्या उससे विवाह नहीं करना चाहती थी। इसपर बुद्ध होकर उसने नगरकी सब कन्याओंको बौना होनेका शाप दे दिया। तबसे उस नगरका नाम कान्यकुब्ज पड़ गया ( आधुनिक कोज)। उसे किमी प्रकार मामाको लड़की मिल गयी, उसका नाम रेणुका ( भूलभरी) मिल गयो। उसे फेला दिखाकर बाकर्षित किया और अपनी गोदमें बैठा लिया। उससे विवाह कर लिया। चूंकि उसने कहा कि वह उसे चाहती थी। समय बीतनेपर उसने दो पुत्रों को जन्म दिया-इन्द्रराम और श्वेतराम । उसके भाइयोंने उसे दानमें एक गाय दी थी जो सब मनोकामनाएं पूरी करतो थो, और मन्त्र फरशा दिया। रेणुका और जमदग्नि सुखपूर्वक रहते थे। एक दिन राजा सहस्रबाहु अपने पुत्र कृतवीरके साथ मुनिकी कुटियापर आया । रेणुकाने उन्हें गजकीय भोज दिया। पिता-पुत्र भोजनकी श्रेष्ठतासे प्रभावित हुए और उन्होंने पूछा कि मुनिकी पत्नी होते हुए रेणुकाने उनको इसना व्यमसाध्य भोजन कैसे दिया । रेणुका बोली कि उसके भाइयोंने गाय दी है बह मनचाही चीजें देवी है। कृतवीरने वह गाय माही और रेणुका विरोधके बावजूद वह चसे ले गया। कृतवीर और जमदग्निकी जो लड़ाई हुई उसमें सहनबाहुने जमदग्निको मार डाला । उसके पुत्र इन्द्रराम और श्वेतराम बाहर थे। जब वे लौटे तो उन्हें अपनी मांस पता चला कि उनके पिताको सहस्रबाह और उसके पुत्रने मार डाला है और वे उनकी गाय ले गये है। वे ऋद्ध हए। रंणुकाने उन्हें परशुमन्त्र पढ़ाया। तब वे सात गये और सहस्रबाहु तथा कृतवीर तथा घरके दूसरे सदस्योंको तथा क्षत्रियजातिको इक्कीस बार हत्या की। समस्त क्षत्रियोंके बिनाशके बाद उन्होंने सारी धरती ब्राह्मणोंको दे दी जिसपर उन्होंने बादमें शासन किया। सहस्रबाहुको रानो विचित्रमति उस समय गर्भवती थी, उसके गर्भसे पूर्वजन्मकी आत्मा भूपालके नामने पैदा हुई, जिसकी नियति भागे चक्रवती होनेकी थी। वह जीवनकी सुरक्षाके लिए जंगल में भाग गयो । शाण्डिल्य मुनिने वले संरक्षण दिया । उसकी कुटियामें उसने बच्चे को जन्म दिया, जिसका नाम सुमोम रखा गया।
LXVI-सुभौमने अपना बचपन जंगलमें शाण्डिल्य मुनिकी कुटियामें बिताया। बह एक शक्तिशालो दृढ़ युवक बन गया। एक दिन उसने अपनी मांसे पूछा कि उसने अपने पिताको नहीं देखा और उनके बारेमें बताने के लिए आग्रह किया। तब मौने सारी कहानी सुनायी कि किस प्रकार सहलबाहु परशुरामके द्वारा मारे गये। इसी बीच एक ज्योतिषी परशुरामके घर आया और उसने बताया कि उसकी मृत्यु किस प्रकार होगी। उसने कहा कि उसके शत्रुओं ( सहस्रबाह और कृतवीर ) के दांतोंसे भरी थाली, जिसके दृष्टिपातसे चावलोंको थालमें बदल जायेगी, वह उसका वध करनेवाला होगा। इसपर परशुरामने नगरके मध्य एक दानशाला खुलवायी जहाँ ब्राह्मणोंको मुमत भोजन दिया जाता और उन्हें दांतोंको बाली दिखाई आती । सुभौमसे भी दानशालेकी भेंट करने के लिए कहा गया, यह जाननेके लिए कि क्या यही वह व्यक्ति ई जिसके हाथों परशुरामकी मौत होगी। तब सुभौम दानशालामें गया, उसने वाली देखी जो पके हुए चावलोंके रूपमें बदल गयी । रक्षकोंने फौरन हमला कर दिया जब कि यह निहत्था था । परन्तु वह बाली हो तत्काल चक्रमें बदल गयी जिससे उसने उनका और परशुरामका अन्त कर दिया। उसके बाद वह चक्रवर्ती हो गया। एक शर सुभौमको उसके रसोइएने चिका फल परोसा। वह बुद्ध हो उठा और उसने इस अपराधके लिए रसोइएको मार डाला। रसोइया ज्योतिष देव उत्पन्न हआ। वह व्यापारीका रूप धारण करके आया और राजाको कुछ सुन्दर फल विमे । राजाने वन फलों को खूब पराम्ब किया और व्यापारोसे और फल सानेका मागह
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परिषयात्मिका भूमिका
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किया। व्यापारीमे कहा कि देवने जो फल दिये थे के समान हो गये हैं। कि रावा अपनी मांगके लिए
आग्रह करता रहा, तो ज्योतिषीने कहा कि राजा उन फलोंको पा सकता है यदि वह उसके साथ एक द्वीपके लिए पलता है। राजाने मंजूर कर लिया । वह व्यापारी के साथ गया, उसने उसे चट्टानपर रखा और मार बाला । मृत्युके बाद सुभौम नरक गया। अरके शासनकालमें बलदेव, वासुदेव कोर प्रतिवासुदेवका छठा इल उत्पन्न हुआ। उनके नाम पे नन्दीसेन, पुण्डरीक और निशुम्भ । विस्तारके लिए ताकिका पेलिए।
___LXVII-मल्लिकी जीवनीके लिए तालिका देखिए। इसके शासनकाल में मौवें पक्रवतों पप हुए । विस्तृत जीवनीके लिए तालिका देखिए । यह मल्लिनाथके शासनकालमें हुआ कि बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेवका साना दल अत्पन्न हुआ। जिनके नाम है मन्दिमित्र, दत्त और पलि 1 विस्तारके किए पालिका देखिए।
परिशिष्ट
औमपुराणोंमें वेसठ शलाका पुरुषोंकी जीवनियोंके परम्परागत विस्तारमैं जो एकरूपता वे दी गयो है, और विमकसूरिमे अपने 'पउमरिस' में जो संकेत दिया ई (पृ. ११ पर उपत है ) मे मुझे यह विचार दिया कि मैं मुविषयानक शीर्षकोंके रूपमें सभीको मुख्य बातोंको मंकित कर दें। इसलिए में इस जिल्बमें पांच तालिकाएं दे रहा है। तालिका एकमें, दिगम्बरोंकी परम्परा अनुसार तीर्थंकरोंको प्रतिमालकि विवोंको दिया गया है। मैंने यह तालिका, श्री पी. एच. खरेकी मराठी पुस्तकसे जो बहुत मूल्यवान् है, ली है, इसलिए कि मेरी तालिका में जानकारी है, वह गुण मद्र और पुष्पदम्तके उस बाभकारीसे मिलनी चाहिए, जो उन्होंने अपने पुराणोंमें पी है, इसके लिए मैंने श्री बरेको सालिका घोड़ा फेरबदल किया है। दूसरी तालिका, तीर्थकरोंके पूर्वजन्म, अम्भस्थान आविका विवरण देती है। तीसरी वालिका विभिन्न ठोकरोंक मणघरोंकी सूची है। बौधीमें चक्रवतियों के बारेमें सूचनाएं। पापी तालिका बलदेवों, मासुदेवों, प्रतिवामदेबोकबारे में जानकारी है। दरअसल मेरी जानकारीका स्रोत बिसेनका बादिपुराण, गणमटका उत्तरपुराण और पुष्पदन्तका महापुराणहै। ये रचनाएं, मैं आषा करता है कि विगम्पर परम्पराका प्रतिनिधित्व करनेवाले सर्वोत्तम स्रोतोंमें से एक है, यदि ने सर्वोत्तम नहीं है तो एक या दो स्पानोपर मेमे श्वेताम्बर परम्पराका उपयोग किया है, क्योंकि उनको जानकारी देने में महापुराण समर्थनहीं था या फिर में उसमें सामग्री देखने में समर्थ नहीं हो सका। मैं पाठकों के प्रति मत्यन्त तक होगा यपि बेबनपयुक्तताबों और कमियों को ध्यान का सके, मधम्यवादके साथ उनपर विचार करूंगा।
मोरोजी पाडिया कालेज पूना अगस्त५१४.
-पी. एस. वैध
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विषयानुक्रमणिका
अड़तीसवीं सन्धि:
१-२३ अजितनाथकी बन्दना (१-२), कविकी सजनसे उदासी (२-३), सरस्वती और भरतकविको समझाना, (२), कविका उत्तर, समयकी विपरीतसाका उल्लेख, सृजनकी स्वीकृति (४-५), रचनाका उद्देश्य जिनमवित (५.६), वत्सदेया और सुसीमा नगरीका वर्णन (६-७), विमलवाहन राजाको विरक्ति और तपस्या, विजयका अनुसार विमान में जन्म (८), इन्द्रके आदेशसे कुबेर द्वारा अयोध्याकी रचना; स्वर्णवृष्टि (१), विजयादेवीका सोलह स्वप्न देखना (१०), स्वप्नफल कथन (११-१२), अजितनाथका जन्म (१२), अजित जिनका जन्माभिषेक (१३), देवों द्वारा जिनकी बन्दना (१४), विवाहका प्रस्ताद (१५), उल्कापात देखकर विक्ति (१६), लौकान्तिक देवों द्वारा सम्बोधन और स्तुति (७), दीक्षा ग्रहण करना (१८), देवेन्द्र द्वारा जिनेन्द्र की स्तुति; समवसरण की रचना (२०), जिनवर द्वारा तत्वकथन (२१), संघका वर्णन (२२)।
उनतालीसवीं सम्धि:
२४-४० वल्सावती देशके राजा पुण्डरीकका वर्णन (२४), राजा जयसेनका वर्णन, उसके रतिसेन और धृतसेन पुत्र, रतिसेनकी मृत्यु, पिताका शोक (२५), जितसेन दीक्षा ग्रहण करता है, जयसेन मरकर स्वर्गमें महाबलदेव हुला, उसके माथ तप करनेवाला सामन्त महारुतमी मरकर सोलहवें स्वर्ग में मणि केतु हुआ (२६), उनमें तय हुआ कि जो स्वर्ग में रहेगा, वह दूसरेको मर्त्यलोकमें जाकर उपदेश देगा, महाबलकी मृत्यु (२७), महायलका सगर के रूपमें जन्म, उसका चक्रवर्ती बनना, मणिबेतुदेवका आकर समझाना (२८), देवका अपना परिचय देना, सगरकी अनसुनो करना, मणिकेतुका मनिक रूपमें आना (२९), सगरका उनसे विरक्तिका कारण पूछना, मणिकेतुका उपदेश; सगरपर कोई प्रतिक्रिया नहीं, देवकी वापसी; सगरके साठ हजार पुष (२००३२), मगरका भरत द्वारा निर्मित मन्दिरोंकी सुरक्षाका आदेश, पुत्रों का वञ्चरत्नसे कैलासके चारों ओर साईखोदना, पानोका निकलना, खाइके रूप गंगाका कैलास पर्वतको घेरमा (३३-३४), नागभवनका प्रताड़ित होना, मणिकेतु देवका नागराज बनकर पुषोंको भस्म कर देना, भीम और भगीरथका जाकर सारा वृत्तान्त राजा सगरको बताना, दण्डी सानुका अवतरण, साधुका उपदेश, उसका वस्तुस्थिति बताना, सगरको विरक्ति और भगीरथको राजगहो मिलना (३४-३७), मणिकेतुका मृत पुत्रोंको जोषित
करना, उनका दीक्षा ग्रहण करना, तपस्याका वर्णन, सगरको निर्वाण-प्राप्ति (३९-४०)। चालीसवीं सन्धि:
सम्भवनायको स्तुति (४१-४२), कच्छ देशके क्षेम नगरका वर्णन (४३), राजा विमलवाहनका तप ग्रहण करना, सुदर्शन विमानमें जन्म (४४), श्रावस्तीमें इक्ष्वाकुवंशका शासन, राजा
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महापुराण
दृढरष, रानी सुषेणा, स्वप्न दर्शन (४५), इन्द्रका कुबेरको आदेश, सम्भवनाथका जन्म, रस्ल वर्षा (४६), जिनेन्द्र सम्भवनापका अभिषेक और अलंकरण (४७-५१), सम्भवनायका तपररण, नोबलझानकी प्राप्ति, देवताओं द्वारा स्तुति और समवसरण (५२-५४) गणधरोंकी संख्या और मोक्ष (५५-५७) ।
इकतालीसवीं सन्धि : .
५८-५ अभिनन्दनकी स्तुति (५८-५९), मंगलावठी देश, रत्नसंचम नगर, राजा महाबल, रानी लक्ष्मीकान्ता, राजाको विरक्ति और तपश्चरण, अनुत्तरविमानमें जन्म (६०-६१), इन्द्रके आदेशसे कुबेर द्वारा कौशलपुरीको रचना, स्वप्मकथन, राजा स्वयंवरका भविष्यकथन अहमेन्द्रका अभिनन्दनके रूपमें जन्म, इन्द्र के द्वारा अभिषेक (६२-६४), अभिषेकमें विशेष देवताओंका आह्वान (६६-६७), अभिनन्दनके यौवनका वर्णन, राज्याभिषेक (६८-६९), विरक्ति, लौका दियौता सम्बोधन, पारण, यलहान, देवेन्द्र पार स्तुति, निर्वाण (७०-७५)।
बयालीसौं सन्धि:
७६-८८ सुमतिनाथकी वन्दना (७६-७७), पुण्डरी किणी नगरीका वर्णन (७७), राजा रतिसेन अपने पृष बहनन्दनको राज्य देकर दीक्षा ग्रहण करता है (७८), अहमेन्द्र स्वर्ग में उत्तान होना, इन्द्रका कुबेरको मादेश कि वह जाकर अयोध्या भावी तीर्थकरके जन्मको व्यवस्था करे, मेयरथकी पत्नी मंगल का स्वप्न देखना (७९), राजा द्वारा तीर्थकरके जन्मका भविष्यकथन, कुबेर द्वारा स्वर्णवृष्टि (८०), जिनके जन्मपर देवेन्द्र द्वारा बन्दना (८१), जिनेन्द्रका अभिषेक (८२), सुमतिनाथको बालक्रीड़ा, राज्याभिषेक, राज्य करते हए जिनेन्द्रका आत्मचिन्तन (८३), लौकान्तिक देवोंका आगमन और उद्बोधन, दोक्षाग्रहण (८४), कैवरज्ञानको प्राप्ति, देवेन्द्रद्वारा स्तुति (८५), स्तुति जारी (८६), समवसरणकी रचना, उसका वर्णन, गणघरों का उल्लेख (८७), गणधरोंका उल्लेख, निर्वाण (८८)।
संतालीसवीं सन्धि:
८१-१-२ पमप्रभुको वन्दना (८९), वत्स देशका वर्णन, सुसीमा नगरी, अपराजित राजा (९०), राजाका आत्मचिन्तन, दीक्षा प्रहण करमा (९१), तपस्याका वर्णन; मृत्युके बाद प्रीतंकर विमानमें जन्म, ह माह शेष रहने पर इन्द्र के आदेशसे कौशाम्बी नगरीकी रचना और स्वर्णप्रसादकी रचना (९२), रानीका स्वप्नदर्शन (९३), स्वप्नफल कथन, जिनेन्द्रकी उत्पत्तिकी भविष्यवाणी, जिनका गर्भ में माना (९४), जिनका जन्म अभिषेक, बालक्रोड़ा (९५), महागजको मृत्यु, पपप्रभकी विरक्ति (९६), दीक्षाभिषेक और तपश्चरण (९७), सोमदत्त द्वारा आहारदान, तपश्चरण, केवलझानको उत्पत्ति, देवों द्वारा स्तुति (९८), स्तुति (९९), समवसरणकी रचना (१००), निर्वाणलाभ (१०१)।
चौवालीसवीं सन्धिः
१०३-१११ सुपार्श्वनायकी वन्दना (१०३), कच्छ देशका वर्णन, क्षेमपुरी राजाकी विरक्ति, तपश्चरण, शरीर त्यागकर भद्रामर विमानमें अहमेन्द्र (१०४), छह माह शेष रहनेपर इन्द्र के आदेशसे कुबेर द्वारा काशीकी वाराणसीकी पुनर्रचना, पृथ्वीसेनाका स्वप्नदर्शन (१०५-१०६),
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विक्रमणिका
स्वप्नफलकथन, सुषाका गर्भ में अवतरण (१०७), बालक्रीड़ा, भोगमय जीवन, उल्कापात देखकर विरक्ति (१०८), दीक्षा कल्याण (१०९), देवेन्द्र द्वारा स्तुति (१०९), केवलज्ञान की उत्पत्ति, जिनका उपदेश (११०), निर्वाणलाभ (१११ ) ।
पैंतालीसवों सन्धि:
पद्मनाभ तीर्थंकर का वर्णन ( ११२-१२४) ।
छियालीस सन्धि:
चन्द्र स्वामीका वर्णन (१२५-१३७) तक 1
तालीसवीं सन्धि :
पुष्पदन्तका वर्णन (१३८-१५२) ।
अड़तालीसवीं सन्धि :
शीतलनाथका वर्णन (१५३-१७२) ।
उनवासवीं सन्धि:
श्रेयांसनाथका वर्णन (१७३-१८४) ।
पचासों सन्धि :
अश्वग्रीव और त्रिपृष्ठ वासुदेव और बलदेवकी उत्पत्ति (१८५-१९५) ।
इक्यानवों सन्धि :
त्रिपृष्ठ द्वारा सिंहमारण और कौटिशिलाका उद्धार (१९५-२११) ।
बावनी सन्धि :
fight असे भिड़न्त ( २१२०२४१ ) ।
नवों सन्धि :
वासुपूज्य का वर्णन (२४२-२५३) ।
starai सन्धि :
त्रिपृष्ठ और तारक के परि वर्णन (२५४-२७१) ।
पचनसन्धि :
विमलनाथका वर्णन (२७२-२८१) ।
छप्पनव सन्धि :
भीम और स्वयम्भूकी भिड़न्तका वर्णन ( २८२-२९१) ।
[1]
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⠀⠀⠀
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४१
११२-१२८
१२५-१३७
१३८- १५२
१५३-१७२
१७३-१८४
१८५-१९५
१९६-२११
२१२-२४१
२४२-२५३
२५४-२०१
२७२-२८१
२८२-१९१
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४२
सत्तावन सम्बि:
मम्दर और मेरुकी कथा (२९३-३१७) ।
मानव सन्धि :
अनन्तनामके तीर्थंकालमें सुप्रभ पुरुषोत्तम और मधुसूदन की कथा ( ३१८-३३६) ।
जनसठवीं सन्धि :
साठव सन्धि :
धर्मनाथका वर्णन, सुदर्शन, पुरुषसिंह, मधुक्रीड़, मषवा, सनत्कुमार (१३७-३५७) ।
शान्तिनाथ भवालि (३५८-२८४) ।
इकसठवीं सन्धि :
बासठ सन्धि :
चक्रवर्ती (३८५-४०५) ।
प्रेसठव सन्धि :
महापुराण
मेघरका तीर्थंकर गोत्रबन्ध ( ४०६-४२४ ) |
शान्तिनाथ निर्वाणगमन (४२५-४३४) ।
चौंसठ सन्धि :
पैंसठवीं सरिध :
कुन् चक्रवर्ती और तीर्थकर (४३१-४४४) ।
बर तीर्थंकर और परशुराम विभवका वर्णन (४४५-४६४) ।
***
छियासठवीं सन्धि :
सुभीम चक्रवर्ती वासुदेव -प्रतिवासुदेव कथान्तर (४६५-४७४) । सड़सठषों सन्धि :
मल्लिनाथ-पद्म चक्रवर्ती-नन्दिभित्र दत्त बलि-पुराण (४७५-४८९ ) ।
+421
wwww
२९३-३१७
३१८-३३६
३६७-३५७
३५८-३८४
३८५-४०५
४०६-४२४
४२५- ४३४
४३५-४४४
४४५-४६४
४६५-४७४
४७६४८९
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महाकवि पुष्पदन्त विरचित
महापुराण
संधि ३८ बंभहु बंभालयसामियह ईसहु ईसरवंबहु । अजिबहु जियकामहु कामयहु पणविवि परमजिणिबहु ॥ ध्रुवकं ।।
सुहयरुओहं वीरमघोरं उवसमणिलयं कंदरवाल मंदरसितं गमारमणे विणयजणाणं जेण कयं तं आलोयंते भमइ जसोहो णाहो ताणं
सुइयरुमेहं। वयविहिघोरं। पसमियणिलयं । फंदरणीलं । मंदरसित्तं । गमारमणे। विणयजणाण। जे ण कयंतं । आलोयते। भवेइजसोहो। जो भसार्ण।
सन्धि ३८ ब्रह्मा ( परमात्मा ) मोक्षालयके स्वामी, ईश्वरोंके द्वारा बन्दनीय, ईश, जिन्होंने कामको जीत लिया है, जो कामनाओंको पूरा करनेवाले हैं, ऐसे परम जिनेन्द्र अजितनाथको मैं प्रणाम कर।
जिन्होंने रोगों ( काम-क्रोधादि ) के समूहका नाश कर दिया है, जो पुण्यरूपी वृक्षके लिए मेधके समान हैं, जो बोर और सौम्य हैं, जो व्रतोंके आचरणमें कठोर हैं, जो उपशम (शान्तभाव) के घर हैं, जिन्होंने मनुष्यों के विनाशको शान्त कर दिया है, जिनकी ध्वनि (दिव्य ध्वनि ) मेधको ध्वनिके समान है, गुफा हो जिनका घर है, जिनका सुमेर पर्वतपर अभिषेक हुआ है, जिसमें धन और कामका मन्थन है ऐसे स्त्रीरमणमें जिनकी मन्दरसता है, जिन्होंने विनत जनों के लिए विनयजज्ञान (श्रतज्ञान) दिया है. जो यमको नहीं देखते, जिनका यश-समूह चन्द्रमाको किरणोंके समान शोभावाला है, तथा लोकपर्यन्त परिभ्रमण करता है, जो भक्तोंका पाण करने.
१. १. A भवइ । २ A भमई ।
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महापुराण
[३८. १. १४जो भयवतो जो भय वंसो। जमकरणहूं लगारगम अण्णाणमहं
सण्णाणमहं। णिहारहियं णिहारहिये । अवसाषसणं
आसावसणं । आसासमणं
आसासमणं। घररमणीसं
वररमणीसं। णीसंसाल
णीसंसालं। परसमयंत
परसमयंत। अहिवंदिययं सुहमिदिययं । जेणे ण फहियं तेलोकहियं ।
णिरुवमदेह तं वंदे है। घना-पुणु पणविवि पंच वि परमगुरु णियजसु विजगि पयासे चि ।।
घणदुरियपडलणिपणासयस अजियहु चरिख समास वि ॥१||
मणि जायण कि पि अमणोजें कइयदियहई केण चि कों। गिठिवण्णेउ थिच जाम महाकइ ता सिविणंतरि पत्त सरासइ । भणइ भडारी सुहयाओहं
पणमह अरुई, सुहर्यरमेह । दाले स्वामी हैं. जो ज्ञानवान् और सात भयोंका नाश करनेवाले हैं, जो रोगादिका विनाश करनेवाले यमों और व्रतोंका अनुष्ठान करनेवाले हैं, जो अज्ञानका नाश करनेवाले ज्ञानको धारण करते हैं, जो निद्रा और कलत्रसे रहित हैं, जो शापसे शन्य और दिशारूपी वस्त्रोंको धारण करते हैं, जो सब ओर त्रैलोक्यरूपी लक्ष्मीसे विलसित हैं, जो आशाके शामक और मुक्तिरूपो रमणोके ईश हैं, जिनको बुद्धि बर देनेवाली है, जो मनुष्योंको प्रशंसासे युक्त है, जो संसारका परित्याग कर चुके हैं, जो पर सिद्धान्तोंका अन्त करनेवाले हैं, जो श्रेष्ठ शान्ति से रमणीय, और नागराजके द्वारा अभिनन्दनीय हैं, जिन्होंने इन्द्रियजन्य सुखको सुख नहीं माना, तथा जो अनुपम और अशरीरी हैं, ऐसे अजितनाथकी मैं वन्दना करता हूँ।
पत्ता-पांचों परमगुरुओं ( पांच परमेष्ठियों) को प्रणाम कर तथा अपने राशको तोनों लोकों में प्रकाशित कर धन पाप पटल के नाशक श्री अजितनाथके चरितका संक्षेपमें कथन करता हूँ।
कई दिनों तक किसी कारण, मन में कुल असुन्दर बात हो जानेसे जब कवि उदासीन था तो उसे सपने में सरस्वती प्राप्त हुई। आदरणीया वह कहती हैं-"संसारके रोगसमूहका नाश करनेवाले तथा पुण्यरूपो वृक्षके मेध श्री अरहन्तको तुम नमस्कार करो।"
३.A जिंदारहि । ४. Pण । ५. AP पयासमि । ६, AP समामि । २. १. A कइवयदियह: P aयद दियह । २. K णिविणार यिउ but gloss निविणः; P णियिण
उदिन । ३. A पणमह वह । ४. A गइयर मेहं but gloss in K शुभतरुमेघम ।
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-३८.३.६]
महाकषि पुष्पदन्त विरचित इय णिसुणेवि घिउद्धेष्ठ कहबह सयलकलायर णं छणससहरु। दिसत णिहालइ कि पि ण पेछा जा विमिहयमह र्णियधरि अच्छा। ताम पराइएण णयवंत मलियकरयलेण पणवंत ।। दसदिसिपसरियजसवरकंदै घरमइमत्तवंसणर्हयंदें । छणससिभंडलसंणिहवयणे णवकुवलयदलदीहरणयणं । घत्ता-खलसंकुलि कालि कुसीलमइ विणउ करेप्पिणु संवेरिय ॥
वचंति षि'"सुण्णसुसुण्णवाहि जेण सरासइ "उद्धरिय ॥२॥
१०
আলিগুলা
जयदुंदुहिसरगहिरणिणाएं। जिणवरसमयणिहेलपाखभे दुत्थियमितें वनगये। मैई उवयारावु णिव्वहणे विसविहुरसयभयेणिम्महणे। ओहामियपवरकरहे
तेण विगखें भन्यं भरहे। बोलाविउ का कन्वपिसल्लउ किं तुहं सबउ बाप गहिल्लउ ।
किं दीसहि विच्छायउ दुम्मणु गंधकरणि किं ण करहि णियमणु । यह सुनकर महाकवि जाग उठा मानो समस्त कलाओंको धारण करनेवाला पूर्णिमाका चन्द्र हो । वह विशाओंको देखता है, पशु साह कुछ भी नहीं पाता, शिगिरा बुद्धि का बद्ध अपने घरमें स्थित पा, तब जो न्यायशील है, जिसने दोनों करतल जोड़ रखे हैं, जो प्रणाम कर रहा है, जिसके यशरूपी वृक्षको जड़ें दसों दिशाओंमें फेंक रही हैं, जो श्रेष्ठ महामात्यके वंशरूपी आकाशका चन्द्रमा हैं, जिसका मुख पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान है, जिनके नेत्र दोर्ष कुवलयदलके समान है, ऐसे आये हुए भरतने
पत्ता-खलोंसे व्याप्त समयमें विनय करके कुशीलमतिको रोका। जिसके द्वारा आकाशके सूने पथमें जाती हुई सरस्वतीका उद्धार किया गया ।।२।।
को अइयण (एपण या देवीयव्वा) देवोका पुत्र है, जिसका स्वर विजयको दुंदुभिके स्वरको तरह गम्भीर है, जो जिनवरके सिद्धांत रूपो भवनका आधार स्तम्भ है, जो दुःस्थित लोगोंका मित्र है, सम्भसे रहित है, मुसमें उपकार भावका निर्वाह करनेवाला है, जो विद्वानोंके संकटों
और सैकड़ों भयोंका नाश करनेवाला है, जिसने अपने तेजसे सूर्यके रथको निष्प्रभ कर दिया है, ऐसे उस गर्दरहित भव्य भरतने कहा-“हे काव्य-पण्डित कवि, क्या तुम बेचारे ग्रहगृहीत हो (तुम्हें भूत लग गया है ), तुम कान्तिहीन और उदासीन क्यों दिखाई देते हो, अन्य रचनामें
५. A विबुवाच । ६. AF विभियमह । ७. १ बसविसं । ८. APणहचदें। ९. P संवरि । १.. A
विसण सुसुण्ण । ११. P रिस। ३. १. A अश्यणदेविअंध.; P इयणुदेवियम्य । २. A वबगनिमें । ३. AP परचबयार । ४. A भार;
'हार।५. रुप ।
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१०
५
१०
महापुराण
किं किउ काई वि भई अवराहड
अवक को षि किं विरसुम्मादव | भभ भणिय स पडिस्क्रेषि हउं कयँपंज लियरु ओह ईषि । बत्ता - अथिरेण असारं जीविएण किं अप्पल संमोहहि ॥
तु सिद्धहि वाणीवेणुहि नवरसखीरा ण दोहहि || २ ||
तं णिसुणेपिणु दर विहसंतें कसणसरोन सेतु कु कासवगोत सद पुष्यंतत्रणा पडिउत्त मिलि कालु वत्ररेरड जो जो दीसह सो सो दुजगु रावणं संझहि केरड उब्वे जि बित्थरइ णिरिव
*
तिहारविंदु जोतें । विगन्भसंभू । केकुलतिलं सरसइणिलैएं । भो भो भरह णिसुपि णिक्खुत्तउ । निग्विणु णिग्गुणु दुष्णयगारच | निष्फलु णीरसु णं सुकर वणु । अस्थि पयट्टइ मणु ण महारउ । एक्कु विपल वि रबड भारिख ।
धत्ता - दोसे होउ तं त्र भणमि दोज अवरु मणि थक्क | जगु एउ चडाविडं चाउं जिह तिह गुणेण सह बंक ||४||
[ ३८. ३. ७
अपना मन क्यों नहीं लगाते ? क्या मुझसे कोई अपराध हो गया है, या कोई दूसरी उदासीनता उत्पन्न करनेवाली बात हो गयी है। कहो कहो, मैं कहा हुआ सबको स्वीकार करता हूँ । छो, यह हाथ जोड़कर तुम्हारी बात सुनने के लिए में बेठा हूँ।
पत्ता - अस्थिर और असार जीवनसे तुम अपनेको सम्मोहित क्यों करते हो, तुम सिद्ध वाणीरूपी धेनुसे नव ( जी / नया ) रस रूपी दूध क्यों नहीं दुहते ||३||
यह सुनकर थोड़ा हँसते हुए मित्रका मुखकमल देखते हुए, कुश शरीर और अरयन्त कुरूप देवो गर्भ से उत्पन्न कश्यपगोत्री केशवपुत्र, कविकुल तिलक और सरस्वती के पुत्र पुष्पदन्त कविने प्रत्युत्तर दिया - हे भरत, तुम निश्चितरूपने सुनो। कलिके मलसे मेला यह समय विपरीत निर्घुण निर्गुण और दुर्नयकारक है, जो-जो दीखता है, वह दुर्जन है, वह निष्फल नीरस है, मानो शुष्कवन हो । ( लोगोंका ) राग सन्ध्याके रागको तरह है, मेरा मन किसी अर्थ में प्रवृत्त नहीं होता, अत्यन्त उद्वेग बढ़ रहा है, एक भी पदकी रचना करना भारी जान पड़ रहा है।
पत्ता - दोष होगा इसलिए नहीं कहता, मेरे मन में दूसरा कुतूहल यह है कि यह विश्व गुणके साथ उसी प्रकार टेढ़ा है जिस तरह डोरी पर चढ़ा हुआ धनुष टेढ़ा होता है ॥ ४ ॥
2
६. AP पच्छिम । ७. A कयपंजलि अरुहं अच्छमि । ८. PT मोहच्छमि । ९. AP तुहु ४. १ A P युद्धकुरु । २. P कयकुल ३ A omits सरसइपिलएं and reads उत्तमसत्ते in its place; P सरसय ४ Padds after this उत्तमसते जिणपयभसें । ५. A रएवच । ६. A गव
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-३८. ६.३]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
जइ वि तो वि जिणगुणगणु वाणेवि किह पइं अन्मथिउ अवगण वि । चायभोयभोउगमसत्तिई पई अणवरयरइयकश्मेत्ति। राउ सालवाहणु वि विसेसिख पई णियजसु मुवणयलि पयासि । कालिंदासु जे खंधे णीयउ तहु सिरिहरिसहु तुहुँ जगि वीयप । तुहुं फरकामघेणु कइवच्छलु तुहूं कइकप्परक्खु ढोइयफलु। तुहूं कइसुरषरकीलागिरिवर तुहूं कइरायहंसमाणससरु । मंदु मयालसु मयणुम्मत्तष । लोउ असेसु चि तिहाइ मुत्त । केण वि कन्यपिसाट मेषणउ केण वि थंद्ध भणिवि अवगण्णि । णिश्वमेव सम्भाउ परजिउ पई पुणु विण फरिवि हड रंजित । घता-धणु र्तणु समु मझु ण तं गहणु णेहु णिकारिमु इच्छेवि !!
देवीसुय सुहणिहि तेण हउं णिलइ तुहार अच्छवि ॥५॥
१०
महसमयागमि जायहि ललियहि बोझ कोइल अंबयकलियहि । काणणि चंचरीउ रुगुरुंटइ ___ कीरु किं ण हरिसेण विसट्टइ। मज्झु कान्तणु जिणपयतिहि पसरइ गाउ णियजीवियवित्तिहि ।
यद्यपि, तब भी जिनवरक गुणोंको मन करता हूँ। तुमने अभ्यर्थना की है किस प्रकार उपेक्षा करू ? तुमने त्याग भोगकी उद्दाम ( उद्गम ) शक्ति, और निरन्तर की गयी कविकी मित्रता द्वारा, राजा शालिवाहनसे भी विशेषता प्राप्त की है। तुमने अपना यश भुवनतल पर प्रकाशित किया है, जिसने कालिदासको अपने कन्धे पर बैठाया है उस श्रोहर्षसे तुम जगमें द्वितीय हो, तुम कवियोंके लिए कामधेनु और कवि वत्सल हो, तुम कवियों के लिए फल उपहारमें देनेवाले कल्पवृक्ष हो । तुम कवियों के लिए ( कपियोंके लिए), देवोंके क्रीड़ा- पर्वत ( सुमेरु पर्वत ) हो । तुम कविराज रूपी हंसके लिए मानसरोवर हो । लोग, मन्द मदालस, कामसे उन्मत्त और तृष्णासे भुक्त हैं। किसीके द्वारा कामपण्डित माना गया, और किसीके द्वारा मूर्ख कहकर मेरी अवहेलना की गयी। लेकिन तुमने हमेशा सद्भावका प्रयोग किया और विनय करके मुझे प्रसन्न रखा।
पत्ता-धन मेरे लिए तिनकेके समान है, मैं उसे नहीं लेता। मैं अकारण स्नेहका भूखा हूँ। हे देवीपुत्र शुभनिधि भरत, इसीलिए मैं तुम्हारे घरमें रहता हूँ ॥५॥
वसन्तका समय आने पर सुन्दर हुई आम्रमजरी पर कोयल बोलती है, काननमें भ्रमर रुनझुन करता है, फिर तोता हर्षसे विशिष्ट क्यों नहीं होता, मेरा कवित्व जिनवरके चरणोंकी भक्तिसे प्रसरित होता है,अपनी आजीविकाकी वृत्तिसे नहीं।
५. १. P जय वि । २. A बणम्मि; P वणमि । ३. AP अवगण्णामि । ४. AP सालिवाहणु। ५. APr
मण्णिउ। ६. A मंदु; यहनु; T बंठ जहः । ७. AP सम्भाव । ८. A तिण । ९. AP इमछमि । १०. AP मछमि।
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4
ܐ
५
विमलगुणाहरण कियदेउ कमलगंधु घेइ सारंगे गमणलील जा कय सारंग सज्जैणदूसियदू सणवस कमिक वम्महसंघारणु
महापुराण
सरपंकयरयरत्तविदेहइ सीहि दाहिकूलि रवण्णउ सहलारामहिं गामहिं घोसहि पविचलपक्क लैब के यारहिं भरण हिं
चंपदेवदारुसाहारह चिरमुकमोर के कार महिमेस जुज्च्छ व मिलियाई
पडे भर निसुणइ पई जेहउ | सालूरेंणीसारंगें । सा किं णासिज्जइ सारंगें । सुइकिति किं हम्म पिसुर्णे । अजियपुराणु भवण्णवतारणु ।
पत्ता - जिणगुणरयणाच लिये यडित ससुवणे समुज्जलु ॥ आहासइ गणहरु सेणियहु करहु कणि कोंडलु ||६||
ू
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यूदी पुविदेह | छणाम देसु वित्थड | दहियविरोलणसंथणिघोसहि । कणिसु चुतहिं जपिरकीरहि । हंसणवयंभरणिसण्नहिं । कुसुमाली भमरशंकारहिं । पचलनलाल व सारहिं । जो सोहद "दंतहिं हलियहिं ।
[ ३८.६.४
हे भरत, जिसने शरीर पर विमल गुणरूपी आभरण चारण किये हैं ऐसा तुम जैसा व्यक्ति उसे सुनता है, कमलकी गन्ध भ्रमरके द्वारा ग्रहण की जाती है सारहोन मेंढक के द्वारा नहीं । हरिणके द्वारा जो गमनलीला की जाती है, क्या वह धनुष के द्वारा नष्ट की जा सकती है। जिनका स्वभाव सज्जनोंको दूषित करना है ऐसे दुष्टके द्वारा क्या सुकविकी कीति नष्ट की जा सकती है? में कामदेवका संहार करनेवाले और संसार रूपी समुद्रसे सन्तरण करनेवाले अजित पुराण काव्यको कहता हूँ ।
धत्ता - गौतम गणधर कहते हैं, "हे गौतम, तुम जिनवर के गुणोंकी रत्नावलीसे विजड़ित शब्दरूपी स्वर्ण से समुज्ज्वल यह कथा रूपी कुण्डल अपने कानोंमें धारण करो" ||६||
७
जहाँ सरोवरोंके कमलरजसे पक्षियोंके शरीर घूसरित हैं जम्बूद्वीप के ऐसे पूर्व विदेह में, सीता नदी के दक्षिण तट पर, सुन्दर वत्स नामका विशाल देश है, जो फल सहित उद्यानों, ग्रामों, दही बिलोनेकी मचानियोंके घोषवाले गोकुलों, पके हुए प्रचुर धान्यके खेतों, कण चुगते बोलते हुए शुकों, सघन दानोंसे भरे हुए नये धान्यों नवकमलों पर बैठे हुए हंसों, चम्पक देवदारु और मात्र वृक्षों, पुष्पोंमें लीन भ्रमरोंकी झंकारों, नृत्य करते हुए मुक्त मयूरोंकी ध्वनियों, प्रबल बलयुक्त बैलोंके ठेक्कार शब्दों तथा भैंसाओं और मेढ़ों के युद्धोत्सव में इकट्ठे हुए प्रसन्न हलवाहोंसे शोभित है ।
६. १. P ए६ । २. AP विष्वह । ३ AP वड्ढि सज्जनदूषणं । ४. P सुक५. AP सुवणु ६. AP कहकुंद्धलु ।
७. १. उत्तर; K उत्तर but corrects it to दक्षिण । २. A° पिक्क । ३. API कल । ४. AP
अण्णहि; K धण्र्ष्णाहि and gloss । ५. A देवदारं । ६. AP कुसुमाली । ७. AP मच्चि रमोरमुक् । ८. P "क्कारहि । ९. AP महिसह मेसाई जुक्षित्रिमिलिय । १०. Pomics जो । ११. Padds fr after दंतहि ।
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-३८. ८. १३३
महाकवि पुष्पदन्त विरचित वत्ता तहि अस्थि सुसीमा णाम पुरि सरसहछण्णमहासर ।।
"णंदणदणसंठियदेवसिरमउद्धरयणकर" सियघर ॥७||
परिहाजलपरिघोलिररसहिं हिमपंडुरपायारणिवसणहिं । विविह्दुवारंतरवरषयणहि गेहगवबुग्घाडियणयाई । धूंबधूमधम्मेल्लपकसहि. तोरणमोत्तियमालादसणहिं । लंषियचलचिंधावलिवस्थाहिं ठाणमाणलक्खणहिं पसत्थई । मंदिरकंचणकलसयथणियहि किं वणिजह सीमंतिणियहि । जवष्णहूं भेसइ विण सकाइ सुरवइ फणिवइ अवर वि सका । अस्थि विमलवाणु तहिं राणा जसु विहवेण ण सक्कु समाणउ । जसु सोहम् वम्महु भजद तेण अणंगसणु पडिवजा। जसु वइवसुवसु दंडहु संकइ तेयहु तरणि तवंतु चयकइ । पडिमयभडथड भड मंजंबहु तास गरिंदलच्छि भुजंतहु । जाणियसारासारविवेयर एकहि दिणि जायउ णिवेयउ । घत्ता-पुरु परियणु इय गय रह सधय अतेउरु अवगणिषि ॥
सीहासणछत्तई चामरइं गउ सर्यलई तणु मण्णिवि ।।८।। घत्ता-उसमें सुसीमा नामको नगरो है जिसके सरोवर कमलोंसे आच्छन्न हैं, तथा लक्ष्मीगृह नन्दनवनोंमें बैठे हुए देवोंके सिरोंके मुकुटोंकी किरणोंसे युक्त हैं ।।७।।
८
परिखाके जलोंको शब्द करनेवाली करपनियों, हिमको तरह स्वच्छ प्राकार रूपो वस्त्रों, विविध द्वारों के अन्तररूपी मुखों, घरोंके झरोखों रूपो उघड़े हुए नेत्रों, धूपके धुओं रूपो केशपाशोंसे काले तोरणोंकी मुक्तामालाओंके दौतों, लम्बे चंचल ध्वजोंको आवलियोंके वस्त्रों, स्थान और मानके प्रशस्त लक्षणों, मन्दिरोंके स्वर्णकलशोंके स्तनों वाली उस नगरी रूपी सोमंतिनी ( नारी)का क्या वर्णन किया जाये, जिसका वर्णन बृहस्पति भी नहीं कर सकता, देवेन्द्र नागराज और दूसरा कोई भी वर्णन नहीं कर सकता। उस नगरीमें विमलवाहन नामका राजा है, इन्द्र भी उसके वैभवके समान नहीं है, जिसके सौभाग्यसे कामदेव भग्न हो जाता है इसीलिए उसके द्वारा अंगहीनत्व धारण किया जाता है, जिसके दण्डसे यमको सेना डर जाती है, जिसके तेजसे सूर्य चमकता रहता है, शत्रुओंके हाथियों और योद्धाओं के समूहको नष्ट करते हुए तथा राजलक्ष्मोका भोग करते हुए उसे जिसमें सार और असारका विवेक जान लिया गया है, ऐसा वैराग्य एक दिन हो गया।
पत्ता-पुर परिजन अश्व गज ध्वज सहित रथ और अन्तःपुरकी उपेक्षाकर, तथा समस्त सिंहासनों,छत्रों-चामरोंको तिनकेके बराबर समझकर चला गया |८||
१२. P महासरि । १३. P"वणमंडिय कसहिं । १४. AP "देवसिरि मउ । १५. P सियरि । ८. १. P घूपं । २. Aधम्मेल्लाह । ३. P रायमार्थ । ४. A उसु विहवें सक्कु वि ण समाणउ ।
५. PT बइवसुपसु । ६. A बमक्काइ; P चमुक्का । ७. घडधर । ८. A सिंहासणं; । सिंघासण । ९. AP समलु वि सिंणु ।
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महापुराण
[ ३८.९.१
गुरुचरणारविंदु सेवेपिणु जायउ परमभिक्खु तउ लेप्पिणु । धीयरायवयणेण विणायन पालइ पंचमहन्वयमाय । अप्पाणउ तिहि गुत्तिहि मावई णीरसुबह णिसिहि ण सोवइ । वेजावच करइ मुणिणाह बालई, वुड्ढई रुययदेहह। धम्मु अहिंसालकखणु अक्खह मित्त वि सन्त वि सम जि णिरिक्खइ। आगच्छंतुबसगु समिच्छाइ लंबियकरु उन्मभउ अच्छा। दसमसय सुद्धसंत ण साउद सप वि लग्ग देहि णर फेडद । दमणसुद्धिविण उ आराहर सहइ परीसह इंदिय साहइ । विकहउ ण कारण रुसद्द ण हमइ भीसणि णिजणि कायणि रिसइ । गाणु गिरंतक तेणमसियउ कम्मु अहम्मकारि संपुसियज । एम घोम तवचरणु चरेपिपणु तित्थयरत्त णा बंधेपिपणु । घता-तेलोकचक्कसंखोहणई मुकम्माई समजिवि ।। मुनिक हिस्सा लिहि करिवि चित्त समत्ति पिउंजिचि ॥२॥
१० तेत्तीसंबुहि आ उपमाणइ पंचागुंतरविजयविमाणइ। किं वणवि पुण्णेप्पणउ त्थ मेततणु ससहरबण उ ।
गुरुके चरण-कमलोंको सेवा कर वह तप ग्रहण कर परम भिक्षु हो गया। वह वीतरागके वचनोंसे ज्ञात, पांच महानतोंकी पांच-पांच भावनाओं का पालन करता है, वह स्वयंको तीन गुतियोंसे भावित करता है, नीरस भोजन करता है, रातमें नहीं सोता है। रोगसे जिनका शरीर आहत है ऐसे बाल और वृद्ध मुनिस्वामियोंको वैयावृत्य ( सेवा ) करता है, अहिंसा लक्षणवाले धर्मको व्याख्या करता है, जो मित्र और शत्रुको समानरूपसे देखता है, आते हुए उपसर्गकी सहन करता है, हाथ ऊपर कर खगासन में स्थित रहता है। काटते हुए डॉम और मच्छरोंको नहीं भगाता, शरीर पर लगे हुए सांपको भी नहीं हटाता, दर्शनविशुद्धि और विनयको आराधना करता है, परीषहोंको सहन करता है, और इन्द्रियोंको सिद्ध करता है, विकथा नहीं कहता, न क्रोध करता है और न हसता है, भीषण और निर्जन काननमें निवा५ करता है। इस प्रकार उसने निरन्तर ज्ञानका अभ्यास किया, और अधर्म करने वाले कर्मका नाश कर दिया इस प्रकार घोर तपश्चरण कर तीर्थंकर प्रकृतिका बंधकर ।
घना-त्रिलोकचक्रको क्षुब्ध करनेवाले शुभ कर्मोंका अर्जनकर, अनशन विधिकर और चिनको सभ्यवत्वमें नियोजित कर वह मृत्युको प्राप्त हुए ॥५||
तैंतीम सागर आयु प्रमाणवाले पांचवें विजयनामक अनुन र विमानमें वह उत्पन्न हुए। पुण्यसे उत्पन्न उनका क्या वणन करूं! उनका एक हाथ प्रमाण शरीर नन्द्रमा के रंग का प्रतिकार९.१. P विणाय 3 ! २. । गोवइ । ३. AP जेमइ। ४. A विजावच्चु । ५. A सम्। ६. P
उपभ3 । ७. A! झाडइ : ८. A विकाउ कह ण हपइ 'ण कमः । ६. NP अणतण । १०. १. A तीसंवति । २. AP पंना पुनरि। ३. APणमि। ४. . पुणेा पाउ: P Tण
पलाउ 19. A हल्पमेनन ।
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-१८. ११.४]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित णिपडियारट णिरइंकारस भूसणहरु अहमिदभडार। णियवासहु वासंतरु ण सरह उत्तरवेउन्वित वन ण करई । सीहासणि सुपिसण्णज अच्छइ सोहि तिजगणाडि संपेच्छइ । लेइ मणेण भक्खु छुह णासहि सो तेसीसहिं वरिससहासहि । णिग्गयदइयधवणणिहदुक्खहिं णीस सेइ तेन्सियहिं जि पक्खहिं । छम्मासाउसु वहई अझ्यह सोहम्मिद जाणिव तइयहु । सो अहमैमराहिउ आवेसई जियसत्तहि धरि जिणवरु होस । इम चितेवि भणित जवाहिर धरणीगयणिहाणलक्खाहिर । जंबदीवभरहउज्झाउरि
धणय कणयमयणिलयेण लहु करि । घत्ताता गयरि कुबेरै णिम्मविय कंधणभवणविसेसहि ॥
सरिसरवरसेववणजिणहरहिं पहचचरविण्णासहि ॥१०||
११
आयत देविट इंदाएस
पुरवरु माणवमाणिणिवेसे । सिरिहिरिदिहिमइकतीकित्तिउ विजयादेविहि सेव करंतिउ । तणुसंसोहणगुणसंजोयहि थक्कर णाणाविहिहिं विणोहिं ।
गभि ण यंतहु अमरवरिहर घसुधारहि. वइसवणु वरिट्टल। से रहित और निरहंकार, भूषण धारण करनेवाला आदरणीय अहमेन्द्र । वह अपने निवासविमानसे दूसरे विमानमें नहीं जाता । उसका शरीर प्रतिशरीर उत्पन्न नहीं करता। वह अपने सिंहासनपर स्थित रहता । अवधिज्ञानसे वह तीनों लोकोंकी नाड़ोको देखता, वह भूख नष्ट करनेके लिए तैंतीस हजार वर्षमें मनसे आहार ग्रहण करता और धमनीके समान दुःखसे रहित तेतीस पक्षों एक बार श्वास लेता। जब उसकी छह माह आयु शेष रह जाती है तब सौधर्म स्वगंके इन्द्रके द्वारा जान ली गयी। वह अहमेन्द्रराज आयेगा और जितशत्रुके घर जिनवर होगा। यह विचारकर ( इन्द्रने ) परतीपर स्थित लाखों निधानोंके स्वामी कुबेरसे कहा, 'हे धनद, जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रकी अयोध्यानगरीमें स्वर्णमय प्रासादका निर्माण करो।'
पत्ता-तब कुबेरने नगरीका विशेष कंचन भवनों, नदियों, सरोवरों, उपवनों, जिनधरों, पथों और चत्वरोंकी रचनाओंसे निर्माण कर दिया ॥१०॥
इन्द्र के आदेशसे मानवोंकी मानदियोंके वेश देवियां नगरवरमें आयीं। श्री, हो, ति, कान्ति, कीर्ति और विजयदेवो सेवा करने लगीं। शरीरके संशोधनों और गुणों के उत्पादनों भोर नाना प्रकारके विनोदों के साथ वे स्थित हो गयौं । उनके गर्भ में स्थित नहीं होते हुए भी अमर श्रेष्ठ
६. AP महमिदु । ७. P भिक्खु । ८, A तेतीसहि । २. दयिषवर्ण । १०. P adds dि after गोससे।। ११. A P वड्डइ । १२ A P सो लह अमराहिउ । १३. A P आएसइ । १४. A अंदोबे भरहे उज्ज्ञाP जंबूभरहदीउ उज्मा । १५. P"णिलबह लह । १६. P जिणहरउववणेहि ।
१७. A भइरमणीयपएसहि। ११.१. P पाउ । २. P संजीवहि । ३. Pणाणविहिहिं । ४. A गम्भेच्छन; P यमि ण छंठ ।
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महापुराण
[ ३८. ११.५सुहदसणि णियमणि संतु? जा छम्मासहि ता परिउट्ठेउ । पल्हत्यंत णिहाणई दिट्ठउ ।। णरवपिंगणि दविणु ण माई सयलहं दीणाणाहर ढोइडं। पवरिक्खाउससंभूयहु
चम्महरूवपरजियरूवह । विजयदेवि णं चंदह रोहिणि जियसत्तहि गरणाहह गेहिणि । १.हिणवाया जगमोहंजवरण पल्लंकि पसुत्ती।
धत्ता-परमेसरि णिसि पच्छिमपहरि पक्केकर जि समिच्छा ॥
णिहालसवस मउलियणयण सोलह सिविर्णय पेछइ ॥११॥
मजल्लल्लगंड
पमत्तं पयंडं । गिरिंदप्पमाणं
गयं गजमार्ण । धरित्ती खणतं
रिम डेकरतं । हयारिंदपखं
हरि तिवणवस्त्रं । करिंदाहिमित्तं
मिरि पोमवत् । मयामोयधाम
ण पुष्फदाम । सुई सेयभाणं
दिसुब्भासिभाणं। सिणिझं समाणं
दहे कीलमाणं । रईलीलयाणं
जुयं मीणयाणं । बरं वारिपुण्णं
सियंभोयछपणं। कुबेर धनको धाराओं में बरस गया । शुभदर्शनसे अपने मन में सन्तुष्ट मब छह माह हो गये, तब वह परितुष्ट हो गया। निधान फैलता हुआ दिखाई दिया। राजाले आंगन में धन नहीं समाया, समस्त धन दोनों और अनापोंके लिए दे दिया गया । महान् दक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न वामदेवके रूपको अपने रूपसे पराजित करनेवाले राजा जित शत्रु को गृहिणी विजयादेवी उसी प्रकार थी जिस प्रकार चन्द्रमाको रोहिणी, जो अभिनव शतदलके समान कोमल शरीरवाली थी। इसके रंगकी यह पलंगपर सो रही थी।
पत्ता-रातके अन्तिम प्रहरमें नींदसे अलनायो आन्हें इन्द किये हुए वह परमेश्वरी सोलह सपने देखती है और एक-एकको समीक्षा करता है ।।११||
मदसे गीले गण्डस्थलवाला प्रमत्त प्रचण्ड पहाड़ जैसा गरजता हुआ महागज, धरती खोदता हुआ, तथा फेक्कार करता हुआ वृषभ, शत्रुपक्षको नष्ट करनेवाला, तीखे नखोवाला सिंह, गजेन्द्रों के द्वारा अभिषिक्त कमलपत्रोंवाली लक्ष्मी, सदैव आमोद प्रदान करनेवाली नव पुष्पमाला, शुभ चन्द्र, दिशाओंको उद्भासित करनेवाला सूर्य, सरोवरमें कोड़ा करता हुआ रतिकोडासे युक्त मत्स्योंका स्निग्ध षोड़ा, जलसे भारत और श्वेत कमलोंसे आच्छादित पड़ोंको शोभा
५. A परिठ्ठ but corrects it to परिसुठ्ठ; P परिवृ83; T परिवठ्ठल । ६.AP add
after this : घणु डिह पुण बरिसंतु अणिक । ७. x प्रगणि । ८. A सविणय; सिविणा । १२.१.२ पोम्मवत्तं ।
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1
- ३८.१३.५
रमारामरम्मं
लयापत्तणीलं
मराला लिरोलं
जलुल्लोलमाल गद्दीरं रवाल पहारिद्धिरूढं
हे धावमा घरंचणितं
जसे
गयासाम
सिहाली चलत
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
घडणं च जुम्मं । बिद्धारणालं । सरं सारसाल 1 महामच्छवालं । समुदं विसालं ।
पहुणा विहसिवि गुणगण बंत हि होही तुह सु जियवम्मीसरु युवा कुंजरवेसें पिंजरामाणि गभि परिधि जिणु जगमंगलु
पी
सुराणं विमानं । सत्यं पवितं ।
घरं पण्णयाणं ।
समूहं ।
जलतं ।
हुया
धत्ता -- सिक्षिणपंति मनोहरिय जोइवि सीलविसुद्ध ॥ सुविण राहु पजरिय सुतविद्ध मुद्धः ||१२||
१३
सिविलु विष्णासिष्ठ कंतहि । तिहुयणगुरु तिणाणजोईसह । आपण बुयणचंदेहु | शांत पडणं दिणयरु घणि । घिरि सुरसंथुइकलयलु ।
११
१५
ܪ
५
समूहसे युक्त जोड़ा, लतापत्रोंसे हरा, खिले हुए कमलोंसे युक्त, सारसोंका घर सरोवर, उछलती हुई, जलतरंगों से सहित महामत्स्योंका पालक शब्दमय विमल शरीर समुद्र, प्रभाके वैभवसे भरपूर सिंहासनपीठ, आकाशमें दोड़ता हुआ देवताओंका विमान, धरती के बिलसे निकलता हुआ पवित्र प्रशस्त तथा यशसे उन्नत नागों का समूह, दिशाओं में फैली हुई किरणोंदाला मणिसमूह, तथा ज्वालाओं में जलती हुई आग ।
घत्ता - इस प्रकार स्वप्नावली देखकर शीलसे विशुद्ध सुन्दर मुग्धा विजयादेवो सबेरे सोकर उठी । उसने राजासे कहा | ॥१२॥
१३
राजाने हंसकर गुणगण से युक्त कान्ताको स्वप्नोंका फल बताया- "तुम्हारा कामदेवको जोनेवाला त्रिभुवनका गुरु तीन ज्ञानोंका धारक योगीश्वर पुत्र होगा ।" बुधजनोंके चन्द्र उस वाहन अमेन्द्रकी आयु पूर्ण हो गयी । वह शीघ्र गजरूपमें रानीके मुखमें इस प्रकार प्रवेश कर गया मानो सूर्यने बादलोंमें प्रवेश किया हो । विश्वका कल्याण करनेवाले जिन गर्भमें लाये
२. A P विबुद्धां । ३. P तं । ४ A सिहालोपलितं; P सिहालीवलस, but I सिहालो चलंतं । ५.
।
१३. १. A Padd after this : जेठठु मास पक्ति अचंदणि ( P पक्खियचंदिणि), मासदिणि ससरि पियरोहिणि २.AP वि
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महापुराण
३८.१३. + चिउ वरमालु वियसेसर अहिणदिउ जियससु गरेसग । तासु घरंगणि वण्णविचित्तई रयणई पुणु णवमास णिहित्तई । धणयापसें जक्खफुमारिष्टि
घोसियसुमहुरसाकारिहिं । कामकोहमयमोहविहंजणि णिवुइ रिसहजिणिदि णिरंजणि । जलणिहिसमई कालपरिवाडिहिं जा पण्णासलक्खु गय कोडिहिं । चत्ता-ता माहमार्स सियदसमिदिणि बीयउ सिकंपनगामि ॥
तित्थंकर णाणत्तयसहिर उप्पण्णच जगसामिउ ॥१२॥
१०
उप्पाण्णइ जिणि आऊरिय घर कहि वि समुम्गय जयघंटारव । कहिं वि मइंदणिणाय सुभइरव कहि वि समुग्गय जयघंटारय । आसपक विम्हावियम कंपित अहिवह महिवइ सुरवइ । इसपकमलसरणच्चियसुरवारि मयजलमिलियघुलियबहुमहुयरि । सयमहु मुणिमहसयणिज्यूटर अइरावणि वारणि आरूढल । भंभाभूरिभेरिसंघाहि वजंतहिं वाइत्तैणिणायहि। जिणकमकमलजुयलसंगयमणु सबहु सवाइणु सघउ सपहरणु । सोमभीमभूसाभाभासुर चलिय हरि सरसरसिर सुरासुर ।
कोसलणयरि झड त्ति पराइय परियंचेवि विवार धरु आइय । और घरमें देवताओंकी स्तुतिका कल-कल शब्द होने लगा। इन्द्र ने अत्यन्त मधुर नृत्य किया, उसने राजा जितशत्रुका अभिनन्दन किया। नौ माह तक उसके घरमें रत्नोंकी वर्षा होती रही। जिन्होंने साधुकारको घोषणा की है ऐसो यक्ष-कुमारियोंने रंगबिरंगे रनोंकी वर्षा कुबेरके आदेशसे की। काम, क्रोध, मद और मोहका नाश करनेवाले ऋषभ जिनेन्द्र के निर्वाणको प्राप्त होनेके बाद, पांच लाख करोड़ वर्ष बीत जाने पर
घत्ता-माघ माहके शुक्लपक्षकी दसमीके दिन शिवपदगामी तीन ज्ञानके धारी विश्तके स्वामी द्वितीय तीर्थकर अजितनाथका जन्म हुआ ॥१३॥
१४
अजितनाथ जिनके उत्पन्न होनेपर परतो आपूरित हो उठी। कहोंपर जय-जय और घण्टों. के शब्द होने लगे, कहीं भयंकर सिंहनाद शब्द हो रहा था, कहीं जयघण्टारव उठा, आसनके कम्पायमान होनेसे जिसकी बुद्धि विस्मित है ऐसे नागराज, पृथ्वीराज और देवराज कांप उठे, जिसके दांतोंपर स्थित सरोवरके कमलपर देववर नत्य कर रहे हैं. जिसके मदजलसे आकष्ट होकर अनेक भ्रमर गुनगुना रहे हैं, ऐसे ऐरावत महागजपर, तीर्थंकरोंके अभिषेकका निर्वाह करनेवाला इन्द्र मारूढ़ हो गया। भम्भा और प्रचुर भेरियोंके समूहों, बजते हुए वाद्योंके निनादोंके साथ, जिनवरके चरणकमल युगलमें संगतमन अपनी वधू, वाहन, ध्वज और अस्त्रों के साथ, सौम्य विशाल भूषाको आभासे भास्वर, प्रेमसे शब्द करते हुए इन्द्र, सुर और असुर चले। वे शोघ्र ही अयोध्या नगरी पहुंचे, तोन परिअर्चनाएं कर ये घरमें आये।
३. A कुमारहि । ४. A साहक्कारहि । ५. A लक्ख । ६. A मासि। ७. A सिवपुर ।
८. A तित्थंकर। १४. १. A P कहि मि । २. A विभावियं । ३. P भंभारिपन्ह । ४. P वायत्त ।
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महाकवि पुष्पवन्स विरचित
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पत्ता- पणवेणु पिरई प्रायारण सहसा चित्ति वियैप्पित ॥ अणमा यहि माय सुरवरहिं मायाषालु सेमप्पिड ||१४||
१५
- ३८. १६.२ ]
जगगुरु लेवि देव गय तेत्तहि aft सोसण णिवि भडारड इंदु जण जमणेरिय वरुणहू आवाहण करेषि पोमाइवि अमरपंति अवितुट्टै करेपिणु किसलयपण कलस उच्चाइवि देविंद जिणंदु अहिसिंघिउ देवंगईं वत्थ परिहावि भूeिr] भूमणेहिं साणंदें
सुरगिरिपंडुसिलाय जेतहि । माणसंतानिवारण | पवणघणयभवससिखर किरणहं । जणभाउ सम्भावें दोषि । its खीरेंमयरहरि भरेष्पिणु । मंतु पणवसाहा संजोइवि । कुत्रलयकमलकयंषहिं अंचिङ । hair rafवश्व | णामकरणु विरइवं देविं ।
धत्ता -जाएण जेण जसु बंधुयणु कीलासु वि अविसंकिउ || बहिरंतरंगवइरिहिं ण जिउ अजिउ तेण सो कोकिउ || १५||
१६
मो बिसुद्ध युद्ध सिद्धसासणा । णमो फणिदेवदर्विदपुज्जिया ।
मो जिणा कर्यतपासणासणा णमो कसा सोयरीय वज्जिया
१३
१०
१०
धत्ता-माता-पिताको आदरसे प्रणाम कर सहसा देवेन्द्र ने अपने मनमें विचार किया और मायासे निर्मित कृत्रिम बालक जिनवरकी माताको दे दिया || १४॥
५. P वियपिठ । ६. P समम्पियउ ।
१९. १. AP संहाराणि । २. A संयाय ३. P अविरुद्ध । ४. P खीय । ५. A देव । १६. १ A P विसुद्धबुद्धि सिद्धाणा २ AP फणिवदचंदपूज्जिया 1
१५
विश्वगुरुको लेकर देवता वहाँ गये, जहाँ सुमेरु पर्वतपर पाण्डुक शिला थी, वहाँ कामदेवके बाणोंका सन्ताप दूर करनेवाले भट्टारक जिनवरको रख दिया । इन्द्र, अग्नि, यम, नैऋत्य, वरुण, पवन, धनद, शंकर, चन्द्र और सूर्यका आह्वान कर संस्तुति को और सद्भावसे यज्ञ पूरा कर अविछिन्न देवपति निर्मित कर, क्षीरसागर से जल भरकर, किसलयोंसे आच्छादित कलशोंको ऊपर कर, 'ओम् स्वाहा' कहकर, नीलकमलोंसे युक्त जलसे देवेन्द्रोंने जिनेन्द्रदेवका अभिषेक किया तथा उन्हें दिव्य वस्त्र पहनाये । दिव्य गन्धोंसे लेप किया, देवेन्द्रले आनन्दपूर्वक अलंकारोंसे उन्हें भूषित किया तथा उनका नामकरण संस्कार किया ।
धत्ता -- जिसके उत्पन्न होनेसे जिसके बन्धुजन क्रीड़ाओंमें शंकाविहीन हो उठे और जो बहिरंग तथा अन्तरंग शत्रुओं से नहीं जोते जा सके, इसलिए उन्हें 'अजित' कहकर पुकारा
गया ।। १५ ।।
१६
यमके पाशको काटनेवाले है जिन आपको नमस्कार हो, हे सिद्धबुद्ध और सिद्धशासन आपको नमस्कार हो, कषाय समूह और रोगसे रहित आपको नमस्कार हो; नागेशों चन्द्रों के समूहसे
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१४
५
१०
अदीणकामबाणचारणा मो विसालमोहजालहिंदणा णमो णिहित्तसुण्णवाइवासणा णमो गयालसालसीलभूषणः मो विमुकन्दघोसणीसणा णमो अनंतसंतसम्भावणा
महापुराण
णमो महाभवं बुरासितारणा । णमो जियारियरायणंदणा । णमो अणेयमेयभावभासणा । णमो पण दिसणा णमो रिसी तवोविद्दीपयासणा । मोरेत मोक्खमादावणा ।
धत्ता - इय बंदिवि अमराणंदियहि णंदणषणसुच्छाय हि ॥ आपणु उज्झहि परमजिणु इंदें अपित मायहि ||१६||
१७
काले जंतें जाय उ पोढर का षि पारि आलिंगणु मा का वि कुमारि भइ मई परिणहि एकसु देहि दिट्ठि सुहगारी इणारीयणु होतु रसिल्लब रक्खहि देवदेव णियसंगें त्रिणा सुरवडणा घरु पिंगु
[ ३८. १६. ३
जयवइ णवजोणि आरूढउ । कवि कामावर पायहि लग्गइ | विरहु भडारा किं तुहुं ण मुणहि । जा जीवमिता दासि तुहारी । कामासत्तष्ठ कामगद्दिल्लए । मारिज्जंतु वराड अंगे 1 पत्थि जिणकुमारु पण वेष्पिणु ।
पूज्य आपको नमस्कार हो, अदीन काम बाणोंका ध्वंस करनेवाले आपको नमस्कार हो, हे निर्भय आपको नमस्कार, महासंसाररूपी समुद्रसे तरनेवाले आपको नमस्कार, विशाल मोहरूपी जालका छेदन करनेवाले आपको नमस्कार, जितशत्रुके पुत्र आपको नमस्कार शून्यवादी विचारधाराको समाप्त करनेवाले आपको नमस्कार, अनेक भेदों और भावोंका कथन करनेवाले आपको नमस्कार, आलस्यसे रहित और शीलसे भूषित आपको नमस्कार, प्रसन्न और क्रोधरूपो दूषणको दूर करनेवाले आपको नमस्कार दिव्यध्वनिका शब्द करनेवाले आपको नमस्कार, तपकी विधिके प्रकाशक आपको नमस्कार, अनन्त शाला और समभाववाले आपको नमस्कार; मोक्ष मार्ग के अर्हन्त आपको नमस्कार ।
पत्ता - इस प्रकार वन्दना कर, इन्द्रने, नन्दनवन के समान शोभा धारण करनेवाली अयोध्या में आकर जिनेन्द्रदेवको उनको माता के लिए अर्पित कर दिया || १६||
५७
समय बीतने पर वे प्रोढ़ हो गये। विश्वपति अजितनाथ नवयोवन में स्थित हो गये । कोई नारी आलिंगन मांगती है, कोई कामातुर होकर पैरोंसे लगती है, कोई कुमारी कहती है कि "मुझसे विवाह करो। हे आदरणीय क्या आप विरहको नहीं समझते। एक सौभाग्यशाली दृष्टि दीजिए, मैं जीवित नहीं रहूंगी, तुम्हारी दासी हूँ। इस प्रकार रसमय कामसे आसक्त और कामसे गृहीत होते हुए, कामदेवले मारे जाते हुए नारीजनकी हे देवदेव अपने संगसे रक्षा कीजिए" इस प्रकार पिता और इन्द्रने घर जाकर जिनकुमार अजितको प्रणामकर निवेदन किया। किसी
संतसोमभावणा । ५. A मां अरहंत ।
३ AP दोस। ४AP १७. १. एक्क सुदिद्धि देखि
एक्क सविद्धि देहि मुहगारी । २. A Padd after this: ; कुमर (P कुमरति ) पुणु काल सुहासिज पुन अदलक्ख पणासि ।
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-३८. १८.९]
महाकवि पुष्पवम्त विरचित कह व कह व मह इच्छाविउ कण्णासहसहि पैड परिणाविउ । सुसिर तंति घणु पुखरु वज्जइ जहिं तुंबुलगा सुसरउ गिजा । जहिं वसिरंभहि णचिजइ अणवैमरसविसेसु संचिजइ । घत्ता-जहिं मंगलदच्वविहस्थियहिं नरघोलिरहारमणिहि ॥
आचंतिहिं जंलिहिं सुललिहि छेउ णस्थि सुररमणिहि ॥१७॥
जहि उबमाणउ किं पि ण विजइ तं उच्छउ मई कि वणिजइ। सम्वतिस्थपरिपुर्हि कलसहिं मुणित्रयहिं श्रियलियकलुसहि। खीरतुसारतारणित्तारहिं। जिविलासिणिमोत्तियहारहि। कोमलकिसलयलाइयवत्तहि विसहरसुरणरखयमक्खित्तहि । मंगलफोसविलासविसेमहि तियसिंदहि मिलेत्रि पुहईसहि। किम रजाहिसेउसियसेवहु बधु णिलाटि पटु तह देवहु । महि मुंजतह पीणियमबई एक्कुणवीस लक्ख गय पुचहं । पक्कहिं दिणि णरणियरगिरंतरि अच्छतें अस्थाणम्भंतरि ।
वसुबइव सुमइकताकत रयणिहि गयणभाउ जोयंत । प्रकार बलपूर्वक इच्छा उत्पन्न करके प्रभका एक हजार कन्याओंरो विवाह कर दिया गया। जहां सुषिर, तन्त्री, पन और पुष्कर वाद्य बजाये जाते हैं और तुम्बिरके द्वारा सुसरस गान किया जाता है, जहां उर्वशी और रम्भाके द्वारा नृत्य किया जाता है। इस प्रकार बिना नौवें रस (शान्त) के बिना रस विशेष संचित किया जाता है।
घत्ता-जहां, जिनके हाथमें मंगल द्रव्य हैं और वक्षपर हारमणि हिलडुल रहे हैं ऐसी आती जाती हुई सुन्दर सुर रमणियोंका अन्त नहीं है ॥१७॥
जिसका कोई भी उपमान नहीं दिया जा सकता, ऐसे उम उत्सवका मेरे द्वारा क्या वर्णन किया जा सकता है ? मुनि वचनों के समान कालष्य (पाप-कलुषता ) से रहित, क्षीरकी तरह हिमकणोंसे निरन्तर भरपूर, विलासिनियोंके मोतियों के हारको जोतनेवाले, कोमल किसलयवाले, पत्तोंसे आच्छादित, नागो, देवों और मनुष्यों एवं विद्याधरोंके द्वारा उठाये गये, सब तीर्थोसे परिपूर्ण कलशोंसे, मंगलघोषों और बिलासोंसे विशिष्ट, देवों देवेन्द्रों और पृथ्वोशोंने, लक्ष्मोके द्वारा सेवित देवका राज्याभिषेक किया और उनके ललाटपर पढ़ चौध दिया। भव्यों को प्रसन्न करनेवाले और धरतीका भोग करनेवाले उन्नीस लाख पूर्व समः। बीत गया। एक दिन मनुष्य-समूहसे भरपूर दरबारके मध्य बेठे हुए धरती और लक्ष्मी के स्वामी रात्रिम आकाश मार्ग में देरफ्ते हर
३. A मंड; F मडइ। ४. P सहु। ५. A P अणुधर्म'; T अणुवर्म" but the meaning
given is शान्तरसरहितः ।। १८. १. A P गं मुणि । २. Fiणिदि विला । ३. A कमलकिसल्यच्छाइय; P कमलहि किसलय.
छाय 1४. सुरसेव ा मृयगे बहू । ५. एकुण-उपवीस गयः । तमपंचास लक्स गय । ६. P +3 प्रत्याण ।
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महापुराण
[३८. १८.१०घत्ता-ताण दीह ससहरधवल उक पडती विट्ठिय ।।
णं णहसिरिफंठहु परियलिय चलमुत्ताहलकंठिय |१८||
पेच्छंतहु सा वईि जिविलीणी ईसमणीस समासमलीणी। गयणु मुक्क उपक गय जोही थिर रेसरसंपय हो । लग्गमि णिरघजहि मुणिविजहि पभणइ सामि जामि पार्वजहि । छणि छणि जड़यणु कि हरिसिजहि आउ वरिसबरिसेणे जि खिवजह । जीय भणंत विहसइतूसह मर पभणंतहरुखहरूसह। ण सहा मरणह केरउ णा वि. पहरणु धरह फुरइ णित्थाउ वि | कालि महाकालिहिं घरू दुक्का मज्जु मासु ढोवंतु ण थक्कइ । जोइणीहिं को किरें रखिन्जा पीडिषि मोडिवि काले खज्जह । खयकालहु रक्खंति णा किंकर मय मायंग तुरंगम रहवर । खयकालहु रक्खंति न केसव चक्कट्टि विजाहरप्रसव । होइ विसुई सप्प घेप्पई
दादिषिसापिमिगहि दारिजइ । जलि जलयर थलि थलयर वदरिय नहि णहयर भक्खंति अवारिय । सो वि जीउ जोवेवेह वंछा लोहें मोहें मोहित अच्छा।
पत्ता-चन्द्रमाके समान धवल लम्बी उल्का गिरते हुए देखी मानो आकाशरूपी लक्ष्मीकी मोतियोंकी चंचल कण्ठी गिर गयी हो ||१८||
देखते-देखते वह उल्का वहीं विलीन हो गयी। भगवान की बुद्धि उपशमको प्राप्त हुई। वह विचार करने लगे कि जिस प्रकार आकापसे च्युत अल्का चली गयी, उसी प्रकार नरेश्वरकी सम्पत्ति अस्थिर है। मैं निरवय मुनिविद्या में लगेगा। स्वामी ने कहा कि में प्रवज्याके लिए जाता हूँ। मूर्खजन क्षण-क्षणमें क्यों प्रसन्न होता है ? आयु साल-सालमें क्षीण क्षोण होती है। 'जियों' कहने वालों पर (जोव ) हंसता है और सन्तुष्ट होता है, मरो कहने वालों पर गर्जता है
और रुष्ट होता है ? वह मरणका नाम भी सहन नहीं करता। दुवैल होते हुए भी प्रहरण धारण करता है, स्फुरित होता है । काली और महाकालीके घर पहुँचता है। और मद्य मांस ले जाते हुए नहीं थकता। योगिनियोंके द्वारा किसको रक्षा की जाती है, कालके द्वारा पीडित कर और तोड़कर खा लिया जाता है। अनुचर क्षयकालसे नहीं बचा सकते। मत्तमातंग तुरंग और रथवर भी। क्षयकालसे केशव चक्रवर्ती विद्याधर इन्द्र भी रक्षा नहीं करते। विशचिका होता है और सपिके द्वारा ग्रहण किया जाता है। दाढ़ो और सींगवाले पशुओंके द्वारा विदीर्ण कर दिया जाता है। जल में जलपर और थल में थलचर उसके दुश्मन है. आकाशमें आकाशचर जोव खा लेते हैं विना किसी देरके । तब भी जोव जीनेको इच्छा रखता है, और लोभ तथा मोहसे मोहित रहता है ।
७. A हो। १९. १. P पवजहि । २.A P वरिसु बरिसेण । ३. A मरणु मणंतह; P मय पमणंतह । ४. A किर
को रश्खिबर: Pकिकिर । ५. A संपेसिजद। .A Padd after this : दहि बड़ा अलणेण पलिप्पा । ७. K°मृगहि । ८. A P add after this : विसविवश्वसत्यहि मारिया। ९. A जीवत; Pबीवेक्वत ।
Free niran हि युद्ध बलोग
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-३८. २०. १२) महाकवि पुष्पदन्त विरचित
घत्ता--सुहूं वंछ पर तं पर लहइ मरणह ससई ण धुक्काद।। ''इच्छाभयपरषसु एकु जणु जममुकुहह दुक्का ॥१९||
२० तांबाइय लोयंतिय सुरवर से भणति जय जगगुरु सुरषर। अंग चित्तंडिंमु संथषिय णाणणिहेलणि पई संथवियड। छडैहि पणइणि कंचर्णगोरी धरैहि मुवणसंबोहणगोरी। गइदुचरित्तकम्मसंताप
अजियसेणु णिहियड संताणइ । पणिव पुत्त चरसु संताणा सयलमहीयलकयसंताणइ । सहि अवसरि ण छण्णु विमाणहिं पत्तहिं गिवाणेहिं विमाणिहि । किउ दिक्खाहिसेस तियसेसहि चिज पहु पसस्थतियसेसहि । गय खग सुर णियसिवियाजाणे फलतरुणविएं पवरुज्जाणे । णार्य णचित सहेवणामें सो सोहंतु सुद्धपरिणामें। णिच्च करति पणयफलई सई जहिं सरि सह मुयंति कलहंसई ।
तडगंधवगीयकलहंसई ताई चलणि रसियई कलहंसई । तहिं सत्तच्छयतलि सुणिसण्णउ जिणु जिणंतु पत्तारि वि सम्णः ।
पत्ता-सुखकी इच्छा करता है परन्तु उसे नहीं पाता, मोतसे डरता है ( त्रस्त होता है ) परन्तु चूकता नहीं, इस प्रकार इच्छा और भयके अधीन यह जीव उन यमके मुख रूपी कुहरमें प्रवेश करता है ।।१९॥
२०
इतनेमें लौकान्तिक देववर आये। वे देववर कहते हैं कि हे विश्वगुरु आपकी जय हो, आपने चित्तरूपी बालकको धैर्य बैषाया, और उसे ज्ञानरूपी घरमें स्थापित किया। स्वर्गको तरह गोरी कामिनीको आप छोड़ते हैं, और भुवनको सम्बोधित करनेवाली गोरी ( सरस्वती) को धारण करते हैं । दुश्चरित कर्मको सन्तान परम्परा चले जाने पर उन्होंने अजितसेनको कुलपरम्परामें स्थापित किया और कहा-हे पुत्र, तुम कुल-परम्परामें चलना, और समस्त विश्वको निज सन्तान समान मानना । उस अवसरपर आकाश विमानोंसे आम्छादित हो गया। आये हुए असंख्य देवेन्द्रोंके द्वारा दीक्षाभिषेक किया गया। प्रशस्त स्त्रियों के द्वारा अर्चा की गयी। विद्याधर और देव अपने-अपने शिविकायानसे चले गये। वह अपने शुद्ध धारणाओंसे इस प्रकार शोभित है, जिस प्रकार, फलसे योवनको प्रास, सहेतुक नामका विशाल उद्यान जैसे झुक गया हो। जहाँ कलहंस स्वयं नित्य प्रणयकलह करते हैं और जहां नदीमें वे सुन्दर स्वर करते हैं। जहाँ नट गन्धयोंके गीतोंको सुन्दरताको नष्ट करनेवाले उनके पैरोंमें सुन्दर नूपुर बज रहे थे, ऐसे उद्यानमें सप्तपर्णी वृक्षके नीचे बैठे हुए, चार संज्ञाओं ( आहार, निद्रा, भय और मैथुन ) को जीतते हुए, आशा रहित परमेश जिनवर ने।
१०. P पर गउ। ११. A इच्छाहय परवसु; न मिच्छाभयपरवसु । २०.१.AP तावाश्य । २.पित्तम्भु but gloss बालकः । ३.A इंडिवि; Pण्डहि। ४. APपंपय ।
५.Pवरहि। ६.Pबरस । ७.A पर; Pणिव । ८. A तावह पमिल । ९.AP सहउबणाम: K सहेवपणामें but gloss And T सहेवणामें सहेतुकनाम्नोयामम् । १..A पगंपन्य। P तडि गंधा ।
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महापुराण
[ ३८. २०. १३घत्ता--'माहे मासे सियणवमिदिणे रोहिणिरिक्खि गयासे ।।
अवरण्डा केसलोउ करिवि लक्ष्य दिक्ख परमेसें ॥२०॥
जे धम्मेल्ल विमुक्क सुबत्ते ते सुरणाहे मणिमयपत्तें। लेवि पित्त खीरपणवणार को णउ करइ भप्ति जहणीरइ । विसापरीसह रिउहु ण संकिर नृवसहासु ते सहुं दिक्ख किट । णाणु चउत्थउ खणि उप्पण्ण छट्टववास बउ पडिवण्ण। सज्माणयरिहि बीयई वासरि किउं पारणलं बंभरायहु धरि । कुसुमारे सुशीयायः पंचच्छरियई तहिं संजायई। गेहणेहबंधणु विच्छिण्ण बारहवरिसई तड संचिण्णवं । पूसहु सुक्कपक्खि संपत्ता एयारसि रोहिणिणक्खत्तइ ।
भावाभावालोयविराइल केवलणाणु तेण उपाइउ । १० हय दुंदुहि णं गज्जिउ सम्गें आय देव दिसिधि दिसहुँ मगे!
घसा-चत्तारि सयाई सरासणहं सड्ढई देहु जिणिंदहो।। ___ अमरिंदे दूरासकिएण मण्णिउ सरिसु गिरिंदहो ॥२१॥
पत्ता-माघ, माहके शुक्लपक्षको नवमीके दिन रोहिणीनक्षत्रके अपरालके समय केश लोचकर दीक्षा ग्रहण कर ली ॥२०॥
सुन्दर मुखवाले उन्होंने जो बाल छोड़े उन्हें देवेन्द्रने मणिमय पात्रमें लेकर क्षीर समुद्रके पानीमें डाल दिया, नीरज ( रजरहित निष्पाप ) मुनिकी भक्ति कौन नहीं करता। विषयरूपी परीसहके शत्रुसे शंका नहीं करते हुए, एक हजार राजाओंने उनके साथ दोक्षा ग्रहण कर लो। एक क्षणमें चौथा ज्ञान उन्हें उत्पन्न हो गया, छठे उपवाससे उनका व्रत सम्पन्न हुआ, दूसरे दिन, अयोध्यानगरीमें उन्होंने ब्रह्मराजाके यहां पारणा की। कुसुम वर्षा, देवनगाड़ोंका निनाद और पांच महाश्चर्य वहाँ हुए, घरके स्नेहका बन्धन छिन्न-भिन्न हो गया, बारह वर्ष तक उन्होंने तपश्चरण किया । पूष माहका शुक्लपक्ष आनेपर ग्यारस रोहिणी नक्षत्र में विश्वके समस्त पदार्थोंको प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान उन्हें उत्पन्न हो गया। देव दुन्दुभियां आहत हो उठौं, मानो स्वर्ग गरज उठा हो, देवता विशा और विदिशाके रास्ते आये ।
पत्ता-जिनेन्त्रके साढ़े चार सौ धनुष ऊँचे शरीरको देखकर दूरसे आशंकाको प्राप्त इन्द्रने उन्हें सुमेरु पर्वतके समान समझा ॥२१॥
११. A P माहहो मासहो। २१.१.A P°वते । २.A P विसहपरीसह । ३. A P णि । ४. A P 43 । ५. A तोपा । ६. AP
पम्ह । ७. P मेहि गई। ८. A P भावाभावलोएं पविरायउ। ९. A"विदिसह मग्गे; P°विदिसि णहग्नें।
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-३८. [२२.१५ 1
वणवण्णु संधु अण
जय भव भव॑त
जय सूर्येणाह
जय गोरिरमण
जय तिजरबद्दण
जय मोक्खभग्ग
जय सोमसीस
जय णायहारसुतिलोषणाससुरयंत वित्तणीसरियविमल जय वेयभासि डिंभ
कंपावियक्क
महाकवि पुष्पवन्त विरचित
२२
खमभावु पुण्णु । अमराहिवेण ।
जय दाणवंत | विरयविवाह !
जय सुविसगमण |
जय मयणमण | णिग्गंथ जग्ग
जय तिहुणी | भूसियसरीर ।
हर हरविलास |
पब्भाररत ।
चवयणकमल । पपयासि ।
जय परमबंभ कयधम्मचक्क |
१९
५
१०
१५
२२
इन्द्रने उनको स्तुति शुरू की - "आप नवस्वर्णवर्ण के समान हैं, आपका क्षमाभाव पूर्ण हो चुका है, भवका अन्त करनेवाले हे शंकर आपकी जय हो । दानशील आपकी जय हो। हे भूतनाथ ( सकल प्राणियों के स्वामी ), आपकी जय हो । विवाहसे विरक्त आपकी जय हो । गौरीरमण (पार्वती सरस्वती से रमण करनेवाले ) आपकी जय हो, सुवृषगमन ( धर्मका प्रवर्तन करनेवाले, बेलपर गमन करनेवाले ) आपकी जय हो। त्रिपुर दहन ( त्रिपुरराक्षसका दहन करनेवाले और जन्म जरा और मरणका नाश करनेवाले ) आपकी जय हो, मोक्षमार्ग ( मोक्षमार्ग स्वरूप, बाण छोड़नेवाले ) आपकी जय हो, हे निर्ग्रन्थनग्न आपकी जय हो । हे सोमशिष्य ( शान्त शिष्य, चन्द्रमस्तक ) आपकी जय हो । त्रिभुवस्वामी ( त्रिलोकस्वामी त्रिपथगा स्वामी) आपकी जय हो । हे नाथभार ( सन्मार्ग धारण करनेवाले और नागोंको धारण करनेवाले ) आपको जय हो । भूषित शरीर ( अलंकृत शरीर, भभूतसे अलंकृत शरीर ) आपकी जय हो । हे सुतिलोयनाश ( त्रिलोकका नाश करनेवाले, तीन नेत्रोंको धारण करनेवाले ) हे हर ( शिव, धर्मंधर) आपको जय हो, हरविलास ( कोड़ा रहित विशिष्ट क्रीड़ावाले ) आपकी जय हो । सुरयंतवित्त प्रारभाररक ( सुरतिका अन्त करनेवाले, वश्तिके व्रतमें लीन रहनेवाले, सुरतिमें अन्तत प्रयत्नशील रहनेवाले ) गोसरियविमल ( जिससे विशिष्ट मल अलग हो चुके हैं, ऐसे जो चार मुख रूपो कमलवाले हैं।
वेदभाषी ( ज्ञानको प्रकाशित करनेवाले, वेदको प्रकाशित करनेवाले ) आपकी जय हो । सुवह पयासी ( पशुवध करनेवाले, पशुओंके लिए भी पथ प्रकाशक ) आपकी जय हो । निर्दग्धदम्भ ( दम्भको जलानेवाले, निकृष्ट दम्भवाले ) आपकी जय हो। हे परम ब्रह्म (परमात्मस्वरूप, ब्रह्मा, विष्णु और महेश स्वरूप ) आपकी जय हो, अर्कको कम्पित करनेवाले हे धर्मवक २२. १. P भूषणा । २ A डिंभ |
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महापुराण
[३८.२२. १६जय चक्कपाणि
जय दिव्वाणि । बहुसोवस्त्रहेउ
जय गरुलकेउ । घत्ता-तुह गम्भणिवासि हिरण्मयविट्टिा सट्ट पसिद्धाच !!
तुहूं तेण हिरण्णगर्भ भणिउ अण्णहु एवं णिसिद्धउ ॥२२।।
वंदिवि एम सुरिंदे सत्तिइ विरइउ समवसरणु जिणभत्ति। माणखभसरबरसरपरिह हिं सेकुसुमवेलिहिं मरगयफलिहहिं । णिम्मियपायारेहिं विचित्तिहिं थूर्हि सूरयतमणिवित्तिहिं। कप्रदुमचेईहरचिंधहिं धूवहडेहिं सुधूर्वसुगंधहिं। णसालाहिं गट्टसंडवियहि थामि थामि मणिमयमंडवियहि । तोरणरयणालंकियोमहि फणयदंडवरफणिपडिहारहि । ज एंड्रडं तहिं मोस्खहु पंथिल अजियणाहु सीहासणि संठिउ ।
पुर्वासासंमुहूं आसीणच किं वपणमि तेलोचपहाणउ । (धर्मचक्र, चकाकार धनुषवाले ) आपको जय हो। हे चक्रपाणि ( हाथमें चककालांछनवाले, चक्रयाले ) आपको जय हो । हे दिव्यज्ञान आपको जय हो । बहुसोपनहेउ (बहुत लोगोंके सुखके कारण, वधुओंके सुखके कारण ) हे गरुडध्वज आपको जय हो।
पत्ता-गर्भमें स्थित रहनेपर हिरण्यमय वृष्टिसे आप बहुत प्रसिद्ध हुए इसी कारण आप हिरण्यगर्भ कहे गये, दूसरेके लिए, यह नाम निषिद्ध है ।।२२।।
२३
इस प्रकार देवेन्द्र ने वन्दना कर, मानस्तम्भों, सरोवरों, सरों और परिवाओं, पुष्प सहित लताओं, मरकत और स्फटिक मणियों, बनाये गये विचित्र परकोटों, सूर्यकान्तमणियोंसे दीप धूनियों, कल्पवृक्षों, चैत्यगृहों और चिह्नों, सुन्दर धूप से सुगन्धित धूपघटों, जिनमें ताण्डव नाट्य किया जा रहा है, ऐसी नाट्यशालाओं, स्थान-स्थानपर मणिमय मण्डपों तोरणों, रनों से अलंकृत माछाओं, स्वर्णदण्ड धारण करनेवाले श्रेष्ठ ....? प्रतिहारोंसे, उसने { देवेन्द्रने) शक्ति और भक्तिके साथ जब ऐसे समवशरणको रचना की, तो मोक्षके पथिक अजितनाथ सिंहासनपर स्थित हो गये। पूर्व दिशा के सम्मुख बैठे हुए उन त्रिलोक श्रेष्ठ का में क्या वर्णन करूं?
३. A P दिग्यवाणि । ४. A P°गम्भु । ५. A एउ ग सिद्धट । २३. १. P सुकुसुम । २. P सुयंवसुर्यवाहि । ३. A पट्टमरविहिं । ४. A P रयणतोरणालं । ५. AP 'दारहि । ६ A P°दंडधर । ७. Pएहस त सक्कै पस्थि उ, अगकाणे आवेष्पिण पिच । ८. P पुष्वासामुहं खेण बासीण।
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-३८. २४. १२ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित
घसा-चउसीसातिसयविसेसघर जिणु हरिवीढि घाइट्ठल ।।
उययदिसिहरि उययंतु रवि छुडु णं लोएं दिउ ॥२३॥
२४
S
सवमद्दु तं तहु सीहासणु कुसुमवासु भसलाव लिपोसणु । णवककेल्लिहक्खु कोमलपलु भाभलु गियरमडलु । छत्तई तिणि चंदसंकासई चमर हिमगोखीराभासई। बजइ दुंदुहि मुवणाणंदणु विरश्यरिद्धिष्ट सई सक्कंदगु । णिग्गय दिवभास सच्चुण्णय तं णिसुणंति अमर पर पण्णय । अक्खा जिणु सत्त वि पायालई णरयलक्खदुक्खग्गिविसालई। अक्खइ जिणु भावणसंपन्तिड बेंतरजोइससग्गुष्पत्ति। अक्खा जिणु अहमिद वि सुरवर बहुविह पर तिरिक्ख तस थावर । अक्ल जीवकम्भेयंता अक्खड़ पेक्खइ तिजगुणिरंतर । सीहसेणरायाइय गणहर जाया गइ तासु सम्मयधर। पत्ता-सहसाई तिण्णि पण्णासियई सयई सत्त भयवंतहं ।।
पुगधरह तहिं मुणिवरह जायई संतह दंतहं ॥२४|| पत्ता-चौंतीस अतिशय विशेषोंको धारण करनेवाले जिनेन्द्र भगवान् सिंहासनपर बैठ गये मानो लोगों ने उदयाचलके शिरपर उगता हुआ सूर्य शीन देखा हो ।।२३।।
उनका वह सर्वभद्र सिंहासन था, जिसमें कुसुमोंकी गन्ध है, और जो भ्रमरावलीका पोषण करनेवाला है, ऐसा कोमलदलवाला नव अशोकवृक्ष, भामण्डल, (मानो दिनकरका मण्डल हो) चन्द्रमाके समान तीन छथ, चन्द्रमा और दूधकी आमाके समान चमर, भुवनको आनन्द देनेवाली दन्दभि नातो है। ऋषियोंको उत्पन्न करनेवाला इन्द्र स्वयं (कहता है); भगवान्की सत्यसे उन्नत दियभाषा निकलती है उसे अमर नर और नाग सुनते हैं। जिन भगवान् नरकको लाखों दुःखरूपी अग्नियोंसे विशाल सात पातालों ( सातों नरकों) का कयन करते हैं। जिनवर, भवनवासी देवोंकी सम्पत्तिका कथन करते हैं। व्यन्तर ज्योतिष स्वाँकी उत्पत्तिका कथन करते हैं। जिन, अहमेन्द्र सुरवर बहुविष मनुष्य तिर्यच अस और स्थावरका कथन करते हैं। जीव और कर्मके भेदोंका कथन करते हैं । निजगको निरन्तर देखते हैं और उसका कथन करते हैं। सम्यग्दर्शन धारण करनेवाले सिंहसेनादि उनके नब्बे गणधर थे।
पत्ता-तोन हजार सात सौ पचास ज्ञानवान पूर्वांगके धारी शान्त और दांत मुनिवर हुए ॥२४॥
..Aणं लोएं पिट्ठ । २४. १. P दिव्ववाणि । २. A सम्वृष्णय; P सम्वष्णुप; but K रुच्चुग्णय and gloss सत्योम्नता ।
३. कम्महो यंतक । ४.A तिजयभंतक। ५.AP मवह Kणवि and gloss नवतिः । ६. A सम्मश्वर ।
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। ३८. २५.१
दुसयाई इगिवीससहासई सिक्खुयरिसिहिं विमुक्कघणासई । घउसयाई णवसाहसई सिट्टई णाणतयसंजुत्तेहं विदुई। केवलणाणिहिं वीससहासई जाई अगसंगणिण्णासई। ताई जि पुणु चउसयहिं समेयई विक्किरियारिद्धिहरह पोयई । सवसमसहसई पुणरषि उत्तई घउसयाई पण्णासइ जुत्तई । सम्गारोहणसुहय णिसेणिहिं ।। संमयई मणपजवणाणिहिं । तेत्तियई जि पण्णासह रहियई दिपणुतरहं विवाइहिं विहियेई। एवं गणतगर्णतहुं आयन
एक्कु लक्खु भिक्खुहूं संजायउ । अजह लक्खई तिणि समासवि उपरि सहसई वीस णिवेर्सदि। तेत्तिय ह सौवय आहासवि पंचलक्ख अणुवइयहि घोसदि । संखाराहेय देव णिसवि" देविहिं किह परिमाणु"गवेसविं। पत्ता-इय एत्तियसंघे परियरिउ पुन्वहं विरश्यपेर हिय ॥
"तेपण्णलक्खु महियलि भमिवि बारहवरिसहिं विरहिय ||२५||
सिहरिहि दरिसियदरिमयवेयहु मासमेत्तु थिउ पडिमाजोएं
पुणु अवसाणि गंपि संमेय । जाणेमि णाहु विमुक्कट जोएं।
घनकी आशासे रहित इक्कीस हजार सातसो शिक्षक मुनि थे। नौ हजार चार सौ, तीन झानोंसे युक्त ( अवधिज्ञानी ) कहे गये हैं। कामके संगका नाश करनेवाले बीस हजार केवलज्ञानी। इतने ही अर्थात् बीस हजार और चार सौ विक्रिया ऋद्धिवालों को जानना चाहिए । स्वर्गारोहणको सुखद नसैनो मनःपर्यय ज्ञानो बारह हजार चार सौ पचास । पचास रहित इतने ही अर्थात् बारह हजार चारसी उत्तर देनेवाले अनुत्तरवादी। इस प्रकार गिनते-गिनते एक लाख भिक्ष हो जाते हैं. संक्षेपमें तीन लास्त्र बोस हजार आयिकाएं और इतने ही में श्रावक कहता हूँ। मैं पांच लाख अणुव्रतियों ( श्राविकाओं) की घोषणा करता हूँ। में देवोंका संख्यारहित निर्देश करता हूँ। देवियोंके परिमाणको मैं क्या खोज करू?
घत्ता-इस प्रकार इतने संघसे घिरे हुए, बारह वर्ष कम त्रेपन लाख पूर्वतक, दूसरोंका हित करते हुए उन्होंने परतोपर परिभ्रमण किया ॥२५॥
२६
जिसकी घाटियोंमें हरिणोंका वेग दिखाई देता है, ऐसे सम्मेदशिखरपर वह अन्तमें गये । एक माह तक प्रतिमायोगमें स्थित रहे । मैं जानता हूँ फिर स्वामी योगसे विमुक हो गये। इस २५. १. A P"संजुत्तई । २. १ तत्तई । ३. A P सुहणिस्सेणिहि, but T मुहय सुखर । ४. P संभूयहिं ।
५P वडियई। ६.A Pएम । ७.A Pसमासमि। ८.AP गिवेसमि१.AP सावदसाहासमि । १०.A Pघोसमि। ११.AP णिहेसमि। १२. A P कहि । १३. A P गसमि। १४. AP
बिहरह परहिय । १५, A तेचण लक्ख; P सो एमकुरुक्षु । २६.१.A दावियरिसरिय: Pदरिसियदरिसरिवेपह।
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-३८.२६. ११ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित
एक्कपिंड बाहत्तरिलक्खई जीवेप्पिणु पुन्वहं कसोक्खई। मासि चइति पवित्र ससिजोण्डा। पंधमिदिवसि जाइ पुरवण्हइ । रोहिणिरिक्खि कम्मसंघारणु दईकवाडुरुजगजगपूरणु। अंतिमझाणु शत्ति विरएप्पिणु तिपिण वि राणुबंधणई मुएप्पिणु । भुवणेत्तयसिहरह सुहठाणह
अजित महारगड णिव्वाणह | कय णिचाणपुज सुरसारहिं सणु संपइल अग्गिकुमारहिं । गउ सुरवइ जिणगुणरंजियमणु अवरु वि अहिं आयड तहिं गर जणु । पत्ता-जिद रिसई मरहहु बजरि तिहह तुह सृयाणण ।।
आहासमि सयररायचरिउ कुंदपुष्फवाणण ॥२६।।
इय महापुराजे तिशतवारिसर महापाnि मामलमरहाणुमग्जिए महाकम्बे भजियणिन्दाजरामर्षणाममतीसमो परिच्छे श्री समत्ती ॥३॥
॥ अंजियचरियं मम ॥
प्रकार बहत्तर लाख पूर्व वर्ष सुख पूर्वक जोकर चरमशरीरी, चैत्रशुक्ल पंचमीकै दिन पूर्वाह्यमें (जब कि रोहिणी नक्षत्र था) कर्मका संहारक दाप्रतर आदि लोकपूरण-समुदात क्रिया कर तथा अन्तिम ध्यान कर तीन शरीर बन्धनों ( औदारिक तेजस और कार्मण ) को छोड़कर, आदरणीय अजितनाथ भुवनत्रयके शिखर शुभस्थान निर्वाणके लिए चले गये । सुरश्रेष्षोंने उनको निर्माणपूजा की। अग्निकुमार देवोंने उनके शरीरका संस्कार किया। इन गुणोंसे रंजित मन होनेवाला इन्द्र चला गया । और भी लोग जहाँसे आये थे वहाँ चले गये।
पत्ता-कुन्द पुष्पके समान मुखबाले हे श्रेणिक, सगर राजाका जैसा चरित ऋषम नाथने भरतसे कहा था वैसा मैं तुमसे कहता हूँ ॥२६॥
इस प्रकार असउ महापुरुषों गुणाकारों थुक महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामन्य मरत वाणा मनुमत महाकाव्यका
तीसवाँ परिच्छेद समास हुमा men
२. AP जाणिधि । ३. A P कयसंखहं । ४. A दंडु कवाड पयरजयपूरण: P दंडकबाडु पयक जयपूरणु । ५. A भुवर्णतयं; P भुवणता । ६.AP संकारि। ७, A P T सियमागण । ८. A P onit अजियपरियं समत्तं ।
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संधि ३१
गुणगणहरु भासइ गणहरु बहुरसमावणिरंतरु ।। मगहाहिव णिसुणि महाहिव सयरणरिदकहंता ॥ध्र षकं ॥
इह जंबुदीवि खरयरकराहि सीयहि दाहियलि संणिसण्णु णं धरणिइ दाविउ सुहपएम् मार्यदणवदलुक्कठियाउ कमलायर धरियसुपुंडरीय उववणई विविवच्छकियाई
मंदरगिरिपुचिल्लइ विदेहि । उद्दामगामसीमापण्णु | वच्छावइ णामें अस्थि देसु । जहिं कलयलंति कलयंठियाउ । णं गरबइ धरियसुपुंढरीय । गोउलइं धवलवच्छकियाई।
सन्धि ३९ गुणोंके समूहको धारण करनेवाले गौतम गणघर कहते हैं- "हे महाधिप मगधराज, अनेक रसभावों से परिपूर्ण राजा सगरका कथान्तर सुनो।"
सुर्यके तेजसे युक्त इस जम्बूद्वीपमें मन्दराचलके पूर्व विदेहमें सीता नदोके दक्षिण तटपर स्थित वत्सावती नामका देश है । उत्कट ग्रामों और सीमाओंसे परिपूर्ण जो मानो धरतीके द्वारा सुप्रदेशके रूपमें विखाया गया हो। जहाँ आम्रवृक्षोंके नवदलों के लिए उस्कष्ठित कोयलें कलकल ध्वनि करती हैं, कमलोंको धारण करने वाले सरोवर ऐसे हैं मानो राजाने सुपुण्डरीक (छत्र और कमल) धारण कर रखा हो । जहाँ विविष वृक्षोंसे अकित उपवन हैं, और धवल बछड़ोंसे अंकित
Ms. A and P have the following stanza at the beginniag of this Sampdhi -
शशधर विम्बात्कान्ति ( ति?) स्तेमस्तपनाद्गमीरतामुदधेः ।
इति गुणसमुच्चयेन प्रायो भरतः कुतो विधिना ॥१॥ This stanza is also found at the beginning of Samdhi XVIII of this Work in certain Mas. of the Mahapurópa. For detail. see Introduction to Vol. I. PP. xvi-xxvi and also foot-note on Page 295 of the same Vol. K doca not give it there or here. १. १.A Pमहाणिष । २. A उत्तरयलि; Kउत्तरयलि but corrects it ta दाहिणयलि। ३.A
कलियंठियाउ।
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३९. २.१० ]
घरि घरि करिणिय हल वहुति |
जहि मंडव दक्वाइल वहति जहिं णिच्चु जिसु सुहिक्खु खेडं कामिणिय देति कामुयहं खेडं । घता — बिहिर्यसुरु सहि पुहई पुरु पविमलमणिमयमहिये || सरयामलु चंदयराज्जलु "घरचूलायणले ॥१॥
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
तहिं णिवस सिरिजय सेणु राष्ट रसे पुत्तु पररमणिअवम ते विषिण वि जण पञ्चक्खकाम ते विणि वि जण ससिसूरधाम ते विविध वि जण पर हिय विवेये गुरुदेव विविणीत करपल्लवग्गताडियउरा
अपण सुति र दुबारु
२
जिणसेणापणइजिनियराउ | to वा दिहिसे अवरु । ते विणि वि जण संपेणकाम | ते विणि वि जण जयलच्छिधाम । ते चिणि हि जण जणणहु विधेय । serer काणीउ । पडियई पियरहं सोयाउराई । सिमोणो मुणिहिं वि दुवारु । उत्रसममा ॥ कतिहि दिण्डं मंतिहिं जिणववयेगु रसायणु ||२||
धत्ता-त्रित बिहिं वि रडत
૪
२५
१०
१०
गोकुल हैं। जहां मण्डप द्राक्षाफलों ( अंगूरों ) को धारण करते हैं, जहां घर-घर में किसानों के हल चलते हैं। जहां क्षेत्र नित्य सुन्दर और सुभक्ष्य रहते हैं, जहाँ कामिनियां कामुकको आलिंगन देती हैं।
पत्ता -- उसमें देवोंको विस्मित करनेवाला और स्वच्छ मणिमय महोतलवाला पृथ्वीपुर नामका नगर है, जो शरद्की तरह निर्मल, चन्द्रकिरणों को तरह उज्ज्वल और अपने गृहशिवरोंसे आकाशको आहत करनेवाला है ||१||
२
उसमें श्री जिनसेन नामका, अपनी प्रणयिनी जितसेना के लिए राग उत्पन्न करनेवाला राजा निवास करता था । उसका परस्त्रियों से दूर रहनेवाला रतिसेन नामका पुत्र हुआ, एक और दूसरा धृतिसेन नामका | वे दोनों ही जन जैसे साक्षात् कामदेव थे। वे दोनों ही पूर्ण कामनावाचे थे। वे दोनों ही सूर्य और चन्द्रमाके आश्रय थे। वे दोनों ही विजयलक्ष्मो के घर थे। वे दोनों हो दूसरों के कल्याणका विवेक रखते थे, वे दोनों ही लोगों के प्रति विनयशील थे। गुरुदेव, मित्रों और बन्धुजनों के लिए विनीत रतिसेनको कालने उठा लिया। गातात्रिता, करपल्लवोंके अग्रभागसे ( हथेलियोंसे ) अपने उर पीटते हुए शोकसे व्याकुल होकर मूच्छित हो गये । वे स्वयंको घर और द्वारको कुछ भी नहीं समझते। पुत्रका स्नेह मुनियोंके लिए भी दुनिवार होता है ।
धत्ता - शान्ति करनेवाले मन्त्रियोंने मूच्छित और पड़े हुए तथा रोते हुए उन दोनोंको जिनवर वचनरूपो रसायन दिया || २ ||
४, A P दक्खारसु । ५. A करसनियहं । ६. AP मुल्य १७ AP सुभिक्षतु । A विभियं । ९. A P° मन्हियलु । १०. डा। ११. AP पहलु ।
२. १. A संपूणकाम | २. A विहेय but gloss विबेक: । ३ AP सर दुवारु । ४. AP कुलमंतिहि ।
५.
राय ।
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२६
१०
कुलकंचुईहिं संबोहियाई
जण मगलमूलालाणरब्जु जयसेर्णे णासियरइरुण
देवि सहु रबिण पहि दुर्जेय दुण्णय दुज्जसहरासु परिसे से पिणुणी से संगु घोलीins गुरुवाइ कालि मणितिय
सरेवि
मुणिवरहिं मयणषणमारुपहि
महापुराण
३
कहे कह व ता सम्मोहियाई । तक्खणि दिहिसेहु देवि रज्जु । सामंत सम महारुएण । अण् मि बहुणरमिहुणएहि । पणविवि जसरासु ।
डे
जयसेणु मरेवि महालक्खु dofors जहिं णीरोड कार इस वि सुहकमें तहि जि धोन तमु महा परते
सत्र चिण्णचं तेहि दुबालसंगु । पछा संपत्त मरणकालि । arपरंगणचरियई पसरेवि । दो मि जयसे महापहि ।
घसा- - दुरियाई तिष्णि षि साई हिययहु कढिषि घित्तई । किड असणु दूसहु भीसणु पंच वि करणई जित्तई ॥३॥
*
संजय सुरवरु अस व लक्खु । बाषीसजलहिसमपरिमियाब । सोलह काशि। संभूय सिरिमणिकेस देव ।
[ ३९.३.१
३
कुलके प्रतिहारियों द्वारा सम्बोधित होनेपर किसी प्रकार बड़ी कठिनाईसे उनका मोह दूर हुआ । उसने शीघ्र घृतिषेणको जनरूपी मदगजोंको बाँधनेके लिए रस्सीके समान राज्य देकर रति आकर्षणको नष्ट करनेवाले जयसेन नामक सामन्त महारुत और अपनी देवी के साथ, तथा रागको नष्ट करनेवाले, दूसरे नर जोड़ोंके साथ दुर्जय, दुनंय और अपयक्षका हरण करनेवाले यशोधर मुनिको प्रणाम कर व्रत ग्रहण कर लिये । समस्त परिग्रहको छोड़कर उन दोनोंने दुष्कालका साथ लग ग्रहण कर लिया। गुरुकी सेवा आदिमें समय बीतनेपर और बादमें मरणकाल आने पर अपने मन में त्रिभुवन-लक्ष्मीपति जिनेन्द्रकी याद कर, उत्तम और श्रेष्ठ चर्या में प्रवेश करते हुए, कामरूपी मेघके लिए पवन के समान उन दोनों - जयसेन और महारुत मुनिवरोंने---
घता - अपने हृदयसे पापमयी तीनों शल्योंको उखाड़कर फेंक दिया। उन्होंने दुःसह्य और भीषण अनशन किया और पांचों इन्द्रियोंको जीत लिया || ३ |
૪
जयसेन मरकर महाबल नामका यशसे उज्ज्वल देववर हुआ। जहाँ उसका नीरोग वैकियिक शरीर था और बाईस सागर प्रमाण आयु थी। दूसरा भी ( महारात ) शरीर छोड़कर अच्युतकल्प नामक सोलहवें स्वर्ग में प्रवर तेजस्वी श्री मणिकेतु नामका देव हुआ । सज्जन लोग अपने स्नेहका बन्ध नहीं छोड़ते। उन दोनोंने एक दूसरेको प्रतिबोधित करनेका यह वचन दिया
३. १. P कह क । २A णं मयगलचूणा P मगलाला । ३ AP
;
हि । ४. A दुष्णसहासु; P दुक्किय दृष्णय दुज्जमासु । ५. K ब्रउ । ६, A P परपरगणे । ४. १. AP थामि । २. A महारुइ ।
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1
-३९५.८ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
यंति सणसणेहबंधु जो पावइ अग्गइ मणुयजम्भु विणि वि ते दिवि निवसति जांव कोसलपुर राज समुह बिज्ञउ विजया णामें त अत्थि घरिणि सो तिय समसिहराव लहसि
far दोहिं म पहिबोहण णिबंधु । तहु अमर समास परधम्मु । काले महाबलु ढलि तांब जसु घरि घोसिज्वर णिश्वविजय । परमेसरि णाई अणंगधरणि । तहि केर गम्भणिवासि बसि ।
पत्ता - हरिकंधरु बहुलक्खणधरु छणससहर मंडलमुहु ॥ कच्छवि णाव णवरवि जाणिवठ जणणि तजुरुहु ||४||
संगामसमुहरउद्दमय केसरि दरदीसंतदादु काले गलेतें जाउ पोदु गुता जोड़कर भूणाई मंदरभित्ति व उत्तंगिमाई तहु विकुमारको ललिय तेत्तिय जि महामंडलषइन्तु गहुं तय सुकियसारु
५
कोक कुमार तारण सयरु | दुव्वारवे रिसंगाम सोडु | पलक्कु व तिब्यारूदु । चरद्धया सरासणाई | छज्जइ गोरी से विथ रमाइ । goat अट्ठारहलक्ख गलिय । पात पत्थिवपय पयन्तु । उप्पण्णव चक्कु फुरंतधा ।
२७
१०
५.
कि जो पहले मनुष्य जन्म प्राप्त करेगा, देव उसे परमधर्मका कथन करेगा। इस प्रकार जब वे दोनों स्वर्ग में निवास कर रहे थे तब समयके साथ महाबल देव स्वर्गसे च्युत हुआ । कोशलपुर में राजा समुद्रविजय था। उसके घर में नित्य विजय घोषित की जाती थी, उसको विजया नामकी गृहिणी थी। वह परमेश्वरी जैसे कामदेवकी भूमि थी। वह देव स्वर्गशिखर से च्युत होकर, उसके गर्भनिवास में आकर बस गया ।
३. A सूर्याणि । ४. A P पवरु घम्भु । ५.१.२. P उत्तंगिमाइ । ३. P कुमारलीलाइ ।
धत्ता - सिह के समान कन्धोंवाले, अनेक लक्षणों के धारक और पूर्णिमाके चन्द्र के समान मुखवाले उस बालकको माताने जन्म दिया, जैसे स्वर्णछविने नवसूर्यको जन्म दिया हो ||४||
५
संग्रामरूपी समुद्र के भयंकर मगर उस कुमारको पिताने सगर कहकर पुकारा । दुर्वार रियोंके संग्राम में समर्थ वह मानो सिंह था कि जिसकी थोड़ी-थोड़ी डाढ़े दिखाई दे रही थीं । समय बीतने पर वह प्रौढ़ हो गया। वह प्रलय सूर्यके समान अपने तीव्र प्रतापसे प्रसिद्ध था । उसका शरीर योद्धाओंके हाथोंके आभूषण स्वरूप साढ़े चार सौ धनुष के बराबर था। ऊंचाईमें यह मन्दराचलकी भित्तिके समान था । लक्ष्मी और सरस्वती से सेवित वह शोभित था । पत्नीकी सुन्दर क्रीड़ा में अठारह लाख पूर्व वर्ष बीत गये, और जब इतने हो वर्ष महामण्डलाध्यक्ष के रूप में पार्थिवप्रजाका प्रयत्नपूर्वक पालन करते हुए हो गये तो उसे पुण्यका सारभूत चमकती बारवाला
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महापुराणं
[ ३९. ५.९. असि चम्मै छत्तु गहवेइ पुरोहु करि हरि कागणि मणि सेण्णणाहु ! वरजुवइ थइ बरकुलिसदं परपहरणगणणिद्दलैणचंड। चोदह रयणाई महियलु छखंड महाकालु कालु पिंगलु"पयंड। दुई पोम संख दुइ अव दिव्चु माणव इय णव णिहिति सक्छ । पत्ता-महि हिंडिवि समरु “समोडिवि दुजणे दुट्ट दुसाहिय ।।
जलयलवाणहयर णरवइ देव वि तेण पसाहिय ॥५॥
वरवसुमइ असिणा बसि करेवि णीसेसणरेसई कप्पु लेवि । आवेपिणु कार पाहिणिवास एप्तिय संपय भुषणयलि कास। जिंब भरहहु तिवै सयरहु जि होइ तं वण्णहुँ ण वि सक्कंति जोइ । णामेण च उम्मुहु देउ संतु उप्पण्णउं वहु केबलु अणंतु ।
आसीणु भहार ३ णिलइ जेत्थु संजायउ देवागमणु तेत्थु ।। किंकरकरवालकरालधारू अण्णहिं दिणि सुंदर सपरिवार । गउ वंदणहत्तिइ सयर राव अवयरिउ सहि जि मणिके उ देउ । अवलोइ जिणपयणिहियचित्त बोझाविउ तियो परममित्त ।
भो देव महाबल णिचियप्प ओलक्खहि कि मई णाहिं बप्प । चकरल प्राप्त हुआ । असि, चर्म, छत्र, गहत, पुरोहित, हाथी, अश्व, काकणीमणि, सेनापति, वरकामिनी, स्थपति, शत्रुओं के शस्त्रसमूहको नष्ट करनेवाला श्रेष्ठ बजदण्ड, ये चौदह रत्न और छह खण्ड धरती महाकाल, काल, पिंगल, पप, महापप, प्रचण्ड दो और शंख (शंख, महाशंख), और मानव, ये नौ निधियो उसको सब कुछ देती हों।
घत्ता-धरतोपर घूमकर युद्ध कर उसने दुःसाध्य दुष्ट, दुर्जन, जलस्थलपति, विद्याधर, राजा और देव सभीको सिद्ध कर लिया ॥५॥
६
अपनी श्रेष्ठ तलवारसे श्रेष्ठ घरतीको जीतकर, समस्त राजाओंसे कर लेकर और आकर उसने अयोध्या में निवास किया। भुवनतलमें इतनो सम्पति किसकी है? जिस प्रकार भरतके पास सम्पत्ति यी, उतनी ही सगर चक्रवतोंकी थी, योगी मो उसका वर्णन नहीं कर सकता। चतुर्मुख नामक एक मुनिको अनन्त केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। वह भादरणीय मुनि जिस स्थानपर विराजमान थे, वहाँ देवोंका आगमन हुआ। दूसरे दिन अनुचर और भयंकर तलवार धारण करनेवाला मह राजा सगर अपने परिवार के साथ वन्दनाभकिके लिए गया। वहींपर मणिकेतु देव भी पाया । उस देवने जिनके चरणों में अपना मन लगाये हुए अपने मित्र सगरको देखा। उसने कहा-“हे विकल्पहीन महाबल देव ! हे सुमट, क्या तुम मुझे नहीं पहचानते । पृथ्वीपुरमें
Y. AP चम्मु । ५. A P गिहवा । ६.AP हरि करि । ७. Komits पया। 4.A P दद। ९. A °णिहाणपंड; P°शिवहणपंडु । १०. A पठदह । ११. A P पछु । १२. A तह पोम संप्स
सप्प सम्वु । १३. P पवर मन्नु । १४. AP सुरिवि । १५. P दुग्नस । ६.१.AP जिम । २. A P सिम । ३. P बंदणभत्तिा । ४. AP सपरराव । ५. P अवलोय ।
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-३९. ७. १२]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित पुहईपुरि गरवरसंथुरहिं होइथि जयसेणमहारुपहिं । चिरु चिण्णन तउ जइणिंदमन्गि जाया थिणि वि सोलह मि सग्गि । घत्ता-तुहं सुहमइ सयर गरबह हज ओइच्छवि सुरवरु ।।
जं जंपिट आसि वियपिउं तं हिय उलइ संभरु ।।६।।
जे गय ते मयमउलवियणयण जे हरिवर से चल बंकवयण । संदण ण मुर्गति विईण्णु णेहु किंकर पियकजहि देति देहु। रायह हियवइ धम्मु लिगमा नागरवणे पड़े मिलाइ । अंतरि छत्तई छत्तहर देतु तं तइ वि बप्प पेक्खा कयंतु । अंगई लकिछडि दोसंकियाई मुजंतई केवै ण संकियाई। रायउलई पहु पई जेरिसाई पंचिंदियसुहविसरसवसाई । णिवदंति परइ घोरंधयारि ण विरप्पा कि तुहुं भोयभारि । कि रक्खइ तेरत विजयचक सिरि पडइ भयंकर कालचछ । तहु वयणहु तेण ण दिष्णु कण्णु गउ सुरवर सुरहरु मणि विसणु । पुणु अण्णहिं वासरि रयणकेउ णियरूवोहामियमयरकेउ । मुणिवा होइघि कयधम्मसवणि आइउ थिउ सयरजिणिदभवणि ।
पेच्छिवि पुरु जंप असेसु एहंण हवु पावइ सुरेसु । लोगोंके द्वारा संस्तुत जयसेन और महारुत होते हुए, प्राचीन समयमें हम दोनोंने जेनमार्गका तप ग्रहण किया था, और हम सोलहवें स्वर्ग में देव उत्पन्न हुए थे।
धत्ता-तुम, अब शुभम तिवाले राजा हुए हो, और मैं सुरवर ही है। जो विचार तुमने कहा था, उसे अब याद करो ॥६॥
जो गज हैं वे आंखें बन्द कर मर जाते हैं, जो अश्व हैं वे चंचल और पक्रनेत्र हैं। रथ कुछ भी विचार नहीं करते । स्नेह विदोर्ण ( नष्ट) हो जाता है। अनुचर अपने स्वार्थसे शरीर देते हैं। राजाओंके हृदयमें धर्म नहीं ठहरता है, चमरके पवनसे वह उड़ जाता है। छत्रधर भीतर छत्र लगा देते हैं, परन्तु उसे ( जीवको) कृतान्त वहां देख लेता है । लक्ष्मीके दोषोंसे अंकित अंगोंका ( सप्तांग राज्य ) का भोग करते हुए राजा लोग आशंकित क्यों नहीं होते? पाँच इन्द्रियोंके सुख रूपी विषरसके वशीभूत होकर हे प्रभु, तुम्हारे जैसे राजकुल, घोर अन्धकारपूर्ण नरकमें गिरते हैं । तुम भोगके भारसे विरक्त क्यों नहीं होते ? क्या तेरा विजयचक्र तेरी रक्षा कर लेगा? सिरपर भयंकर कालचक्र पड़ेगा। परन्तु राजाने उसके वचनोंपर कान नहीं दिया। सुरवर अपने मनमें दुखी होकर स्वर्ग चला गया। एक दूसरे दिन, अपने रूपसे कामदेवको तिरस्कृत करनेवाला मणिकेतु देव मुनिवर होकर, जिसमें धर्मश्रवण किया जाता है ऐसे जिन-मन्दिरमें सगर आकर बैठ गया। उसे देखकर, सारे नगरने कहा कि ऐसा रूप इन्द्र भो नहीं पा सकता ।
P.A Pणरवई । ७. A P सो अच्छमि । ७.१. P मलेषि णयण । २. P वियण्णु । ३. A के गत संकियाई; P केम ण संकियाई । ४. Pomita
पुणु । ५. A P आइवि । ६. P एहत पर ण बच्चुयसुरेसु ।
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महापुराण
(३९.७.१५पचा-जणणेत्तई जहिं जि णिहित्तई तहि जि णिरारिज लगाई।
बुहयंदड तासु मुर्णिदहु को वण्णइ सणुअंगई ॥७॥
तं वदिवि र्षितइ सयक एंव किं पहा होति ण होति वेव । एहर सुरुषु णन वम्भहासु पुणु चवइ णिवह दरविर्य सियासु । मुँणि किं तुह किर धेरैगु थियड भणु किं जोवणु वणजोग्गु किया । तं सुणिषि भणइ मायारिसिंतु शिष्यत गवेगसहि पुण्णिमिदु । भरियल पुणु रित्त होइ राय सासय किं तिहि अभछाय । तणु घणु परियणु सिषिणयसमाणु तसथावरजीबहुं अभयदाणु। किजइ तहणसणि तवपवित्ति बुट्टत्तणि पुणु परियलाइ सत्ति। जर पसरद विहइ देहबंधु लोयणजुयलुल्लर होइ अंधु।
पडभट्टचेदछु गयरमणराउ वकणिहिं कोकिला इसिषि ताउ । १. बह थेक सो वि किं णिव्यियारि बहवेण जि पंहउ भयारि। जीविजाइ जहिं सो णिययवेसु तं भोयणु अं मुणिमुत्तसेसु । पत्ता-कि भन्ने पंखियगवे लोट असेसु गडिज्जइ ।।
विसत्तणु तं सुंकहत्तणु जेण ण णरइ पडिजइ ।।। धत्ता-सोगोंके नेत्र जहाँ भी पड़ते वे वहीं लगकर रह जाते। बुध-चन्द्र उस मुनीन्द्रके शरोरके अंगोंका वर्णन कौन कर सकता है ? ॥७||
उसकी वन्दना करके राजा सगर अपने मनमें विचार करता है, हो न हो ये क्या देव हैं ? यह मनुष्य का स्वरूप नहीं है। अपना योड़ा-सा मुंह खोलते हुए राजाने कहा, "हे मुनि, आप विरकक्यों हो गये? बताइए आपने-अपने यौवनको बनके योग्य क्यों बनाया?" यह सुनकर वह कपटी मुनि बोला, "क्या तुम पूर्णिमाके चन्द्र को नष्ट होते हुए नहीं देखते ? पहले चन्द्रमा भर जाता है, फिर खाली होता है, हे राजन्, क्या तुम बादलोंकी छायाको शाश्वत समझते हो ? तन, धन, और परिजन स्वप्नके समान है ? इसलिए वस और स्थावर जीवोंके लिए, अभयवान एवं यौवनमें तपकी प्रवृत्ति करनो चाहिए। बुढ़ापे में तो फिर शरीरको शक्ति नष्ट हो जाती है। बुढ़ापा फैलने लगता है । शरीरके बंध ढीले पड़ जाते हैं, दोनों नेत्रयुगल अन्धे हो जाते है। चेष्टाबोंसे भ्रष्ध और रमणरागसे रहित बूढ़ा आदमी युवतियोंके द्वारा हसकर तात पुकारा जाता है । वृद्ध आदमी दाध हो जाता है ( उसकी इन्द्रियचेतना नष्ट हो जाता है ) क्या वह भी निवृत्ति करनेवाला हो सकता है ? नपुंसकको तो देवने ही ब्रह्मचारी बना दिया। वहीं जीवित रहना चाहिए जो अपना देश है, भोजन यही हैं जो मुनिके आहारसे मचा हो।
पत्ता-बुद्धिके गवाले भव्पके द्वारा समस्त लोक क्यों प्रतारित किया जाता है ? पाण्डित्य और सुकयित्व वही है कि जिससे मनुष्य नरकमें नहीं पड़ता ।।८।। ८. १. A सरूस P सरूव । २. A P दरविसिमाम् । ३. A मुणि; P मुणे । ४. P वहरम् । ५. A वणमोग; P दणिजोगु । ६.AP सुर पहत्तणु।
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-३९. १०.२]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
सो सूरउ जो इंदियई जिणइ सो सुद्धबुद्धि जा तच्चु मुणइ । सो ठु बंधु जो धम्मु कहइ तं तणुबलु जं वयभार वहइ । ते कर जे पढिलिहणे धरति ते कम जे मण्यवं संचरति । तं सिरु जं जिणपयजुय लि णवह तं तोंडुण जं विप्पियई पवा। ते चकाखुण जे सियम नियति ते सवण ण जे रइसुइ सुणंति । सा जोह ण जा रसलोल लुलाइ तं हिय जं परमस्थि चलइ । सुंकार देंतु जिंदा दुगंधु
तं णकुण जं इच्छइ सुर्यधु । तं अंगु ण जं कुसयणहु ससइ सो मिस समउं जो रविण वसइ । ते चारु केस संजमधरेहिं
सुप्पाडिय जे मुणिवरकरेहिं । संकयत्थई जईकरमहई ताई लम्गाई विलासिणिथणि ण जाई । डझउ कामाउरु सीलरहिड तं जीविउ जे चारित्तसहिउ । घत्ता-उर्जयमणु जं गुणभायणु तं माणुसु सुकुलीण ॥
तं जोवणु हर्ज मण्णविं घणु जंतवचरणे खीणख ।२।।
आवेहि जाएं लइ तुहुं वि विक्ख इय कहा जइ वि सो देवसाहु
सिक्ख हि गयमयरय मोक्खसिक्ख । पडिबुद्धउ तो वि ण पुहेविणाहु ।
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शूर वही है जो इन्द्रियोंको जीतता है, वही सद्बुद्धिवाला है जो तत्वका विचार करता है। वही इष्ट बन्धु है कि जो धर्मका कथन करता है। वही शरीरबल है जो व्रतमारको धारण करता है । वे ही हाथ हैं जो मयूरपिच्छ धारण करते हैं। वे ही चरण हैं जो मृदुतासे चलते हैं, वही सिर हैं जो जिनपद युगलमें नमन करते हैं, वही मुख है जो बुरा नहीं बोलता । के हो आँखें हैं जो स्त्रियोंको नहीं देखती। वे ही कान हैं जो रतिसुखको नहीं सुनते । जीभ वही है जो रसकी लम्पटतामें नहीं पड़ती है। हृदय वहो है जो परमार्थ से नहीं चलता। नाक वही है जो सुंकार करते हुए न तो दुगंधको निन्दा करती है और न सुगन्धकी इच्छा करती है ? शरीर वह है जो कुश पर सोनेसे पीड़ित नहीं होला । वही मित्र है जो जंगलमें साथ रहता है। सुन्दर केश वही है, जो संयमधारण करनेवाले मुनिवरोंके द्वारा उखाड़े जाते हैं। मुनिके वे ही हाथ कृतार्थ हैं जो विलासिनियों के स्तनोंसे नहीं लगे। कामातुर और शील रहित जोवनमें आग लगे। वही जीवन है जो चारित्र्यसहित हो।
घत्ता-जो सरलमन और गुणोंका भाजन है, वही मनुष्य कुलोन है। उसी यौवनको मैं मानता हूँ जो तपश्चरणके द्वारा क्षीण है ॥९॥
"आओ, चलें, तुम भी दोभा ले लो। मदरजसे रहित मोक्षको शिक्षा सोख लो।" यद्यपि
९.१.A सो सुझबुद्धि जो । २. AP पडिलेहर धरति । ३. A जंग 1४. A P विप्पिय ठ। ५.AP
णका । ६. A सुगंधु । ७. P सकहत्थई । ८. A P जण । ९. A उज्जुयमणु । १०. A P मणमि । १०.१.AJहणाहु ।
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३५
५
१०
महापुराण
जाणिव देवे कय गमण सिद्धि । विदिश कमलिणिवणासु । सहसाई सहि तरुह ताम | पाहुं तुहारी पायसेन । सरहुँ महारिष रण एवं पि । लीलाइ समाणहुँ काजु तं पि । बिसेष्पिणु वृत्तं राणरण । आरुहिषि तुरंगम मत्तहत्थि । मा जंप वयणई चफलाई । भंगाह मंडलाई घणरिद्वहं ॥ सुट् ठु दुलाई सिद्धई ॥ १०॥
ल अज्जि विण लहइ काललद्धि गड चट्टि णिलणासु अत्थाणि परिट्टिङ छुडु जिजाम आयाई भई जीर्य देव दे देहि र आसु किं पि मंदर महिर जेड जंपि तं णिणिव लक्समाणरण आएस कारणु किं पित्थि अजहु महू रिद्धिहि फलाई ता- विग्गह पेस मधु एक
[ ३९.१०. ३
अह जइ सुर्य दक्खेवि अज्जु देवेण जाई केसरेण लंबियघंटाचा मरयाई वरसिहर उस वि ताह जिन्हें पास खलमाण वहं मन्गु
११
तो कर महार धम्भकज्जु । कारावियाई भरसरेण । केटासु पिकं चणमया । परिरक्ख पजह जिणहराई | ति विरय तहसिलसलिलदुग्गु ।
५
वह देवमुनि यह कहता है, फिर भी वह पृथ्वीनाथ सगर प्रतिबुद्ध नहीं हुआ । लो वह आज भी atroofer नहीं पाता । यह जानकर उस देवने गमनसिद्धि की ( अर्थात् वह वहाँसे चला गया ) 1 राजा सगर अपने निवासके लिए चला गया, मानो भ्रपर अपने कमलिनो निवासके लिए चल दिया हो । जैसे ही वह अपने दरबार में बैठा, वैसे ही उसने अपने साठ हजार पुत्रोंको देखा। आये हुए उन्होंने कहा - "हे देव ! आपकी जय हो, हम आपके चरणोंकी सेवा प्रकट करते हैं। आप शीघ्र हो कोई आदेश दीजिए, यदि युद्ध में सुमेरुपर्वत के बराबर भी शत्रु होगा, तो भी हम अपना पैर नहीं हटायेंगे? इस कार्य को भी खेल-खेल में सम्मानित करेंगे ।" यह सुनकर इन्द्रके समान हँसते हुए राजा सगरने कहा, "आदेश देनेके लिए कोई कारण नहीं है ? तुम लोग अश्वों और मतवाले हाथियोंपर चढ़कर मेरे वैभव के फलोंको चखी। चंचल वचनों का प्रयोग मत करो। "
पत्ता- क्यों सकते हो और आज्ञा मांगते हो। मेरे द्वारा मुक्त एक चकसे ही दुःसाध्य और धन-सम्पन्न मण्डल अच्छी तरह जीत लिये गये ॥१०॥
११
अथवा यदि तुम्हें आज अपना सुपुत्रत्व दिखाना है, तो हमारा एक धर्मकार्य करो । चक्रवर्ती राजा भरतेश्वरने जिनमन्दिरोंका जो निर्माण करवाया था, तुम फैलास पर्वत जाकर, जिनमें घण्टा, चमर और ध्वज अवलम्बित हैं ऐसे स्वर्णमय और श्रेष्ठ शिखरवाले चौबीसों जिनमन्दिरों की परिरक्षा करो। तुम वृक्षों, चट्टानों और जलोंका दुर्ग बनाओ जिससे दुष्ट मनुष्यों का
२. A 2 अज्जवि 1 ३. P कय देखें जाणसिद्धि । ४ A P जीव । ५. AP जेवड्ड । ६. सं सुणिषि । ७. उत्तर ८. P लग्गह।
११. १. A संयत । २. AP दबखच । ३. वर । ४. A जिम ।
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महाकवि पुष्पदन्त विरचित ता णिगय तणय पसार भणिवि जमदंड भुथवर धुणिवि । धरधरणक्खम उद्घद्धसोंड मयगल मयंजलगिल्लगंड । धाइय जुवाण मुहमुकराव णं पलयजलय गज्जणसहोष । धत्ता-पविदंडे खणरुपडे फाडिउ खणि स्त्रोणीयलु ॥
णरसारहिं रायकुमारहिं देवहुं दावि मुयबलु ॥११॥
१०
णियविरंपवाह पिहपहु मुयंति करिकरहगलियमयमलु घुयति । परिभमियवारिविम्मम ममंति कमलोयरमयरंदई धर्मति । परिमलमिलियालिहि गुमुगुमंति देणयवजालोलिहिं सिमिसिमंति। सविसई विसिविषेरई पइसरति फणिफुकारिहिं परोसरंति। गिरिकंदर परि सर सरि भरति दिसणहयलु बलु जलु जलु करंति । ५ वत्तुंगतरंगहि पाहि मिलंति विर्यडयरसिलायल पक्खलति । कच्छरमच्छोह समुच्छलति हंसावलि कलरव कलयलंति । पविउलजलवलयहि पलवलंति कप्रिय गंगाणखेलखलंति ।
वलइयर वाइ कइलासु कम्ब बेसाइ पमस मुयंगु जेम्व । मार्ग ( आना ) नष्ट हो जाये।" तब 'जैसी आज्ञा' कहकर वे पुत्र यमदण्डके समान प्रचण्ड अपने मजदण्ड ठोकते हुए निकल पड़े, जैसे वे पृथ्वी धारण करने में सक्षम, अपनी सूर ऊपर किये हुए, मदसे आई गण्डस्थलवाले गह। अपने मुंहो शब्द करते हुए वे युवक ऐसे दौड़े, मानो गर्जनस्वभाववाले प्रलयमेष हों।
___ पत्ता-विजलीकी तरह प्रचण्ड वपदण्डसे उन्होंने एक क्षणमें पृथ्वीतलको विदीर्ण कर दिया, और इस प्रकार मनुष्यश्रेष्ठ उन राजकुमारोंने देवोंके लिए अपना बाहुबल दिखा दिया ॥११॥
१२
अपने चिर प्रवाहके विशाल मार्गको छोड़ती हुई, हाथोके गण्डस्थलोंसे गलित मजलको धोती हई, घूमते जलोंसे विभ्रमको धारण करतो हुई, कमलोदरोंसे मकरन्दका वमन करती हई, सौरभसे मिले हुए भ्रमरोंके द्वारा गुनगुनाती हुई, बनोंको दावाग्नियोंकी ज्वालाओंसे सिमसिमाती हुई, सांपोंके विषेले बिलोंमें प्रवेश करती हुई, नागोंके फुत्कारोंसे थोड़ा फैलती हुई, पहारको गफाओं, घाटियों, सरोवरों, नदियोंको भरती हुई, दिशाओं, आकाशतल, स्थल और जलको जलमय बनाती हुई, ऊंची तरंगोंसे आकाशसे मिलती हुई, विकट शिलातलोंका प्रक्षालन करसी हुई, फछओं और मत्स्योंके समूहोंको उछालती हुई, हंसावलियोंका कलरव करतीहाई, विशाल जलविलयोंसे चिल-बिल करती हुई, और खल-खल करती हुई गंगा नदी आकर्षित की गयी, उसके द्वारा केलास पर्वत उसी प्रकार घेर दिया गया, जिस प्रकार देण्याके द्वारा प्रमत्त लम्पट घेर लिया जाता है।
५. जयदई । ६. A वरपरणुक्सम तद्वायसर । ७. A जलमयगिल्ल । ८. A राय । ९. A सहाय ।
१०. A परियटित गंगाजलु; P परियलित गंगाजलु। १२. १. Afचत पवाइपिहम । २. A°मयजल वंति: P"मयजल पुर्यति। ३. P मुर्यति । ४.A P ववव। ५. A विसधिवरई। ६.A विसि । ७. Pमल पल । ८.Aविबलयलसिलार्याल। ९. सलहलति ।
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महापुराण
[ ३९. १२. १०घसा-धक्लंग वेदिउ गंगइ पुणु वि"मज्झु सो भाषा ॥
सुरमणहरु मंदरमहिहरु तारापंतिइ णावइ ।।१२।।
फणिभवणि विलग्गउ दंडरयणु तह सहे कंपिउ सयलु मुवणु । भयथरहरंत कुंडलिय णाय वणि वणयरेहिं पविमुकणाय । झलझलिये जलहि लढलिय धरणि विहिउँ सुरिंदु कंपविष्ट तरणि । पडियोहणकारणु मुणि तेण मणिकैउणा हि परामरेण । फैणिमणिपहापिहियदिणाहिवेण होइवि मायाणायाहिवेण । तिहुराणजणमरगुप्पायणेहि गुंजारुणदारुणलोयणेहिं । जोइवि कुमार कर भईरासि णं पुंजिय सस विभूइरासि। तहिं 'कासु वि ण हवा पलयकालु दरिसाविउ देवें इंदजालु ।
'अमुयाई वि मुयाई व दिट्ठ बंधु गय भीम भईरहि पुरुसचिंधु । १. "जव्वरिय कह व ते विहिवसेण घरु पत्ता मुक्का पोरिसेण ।
घत्ता-घरु गंपिणु पिड पणवेप्पिणु आसणेसु आसीणा ।।
सविसाएं विषिण चि ताएं दिट्ठ सुठ विहाणा ॥१२॥ पत्ता--गोरे अंगोंवालो गंगानदीके द्वारा घेरा गया कैलास पर्वत मुझे ऐसा लगता है मानो देवसुन्दर मन्दराचल तारापंक्तियोंसे घिरा हुआ हो ॥१२॥
वह दण्डरत्न नागभवनसे जा लगा। उसके शञ्चसं सारा विश्व काँप उठा, कुण्डलाकार नाग भयसे काँप उठे, वनमें वनचरोंने शब्द करना शुरू कर दिया, समुद्र झलझला उठा, धरती काँप उठी। देवेन्द्र विस्मित हो उठा । सूर्य कांप गया। उस मणिकेतु प्रवर देवने इसे प्रतिबोधनका कारण समझा। जिसने अपने फगमणिको प्रभासे दिनाधिप ( सूर्य) को ढक लिया है, ऐसा मायावी नागराज बनकर, उस देवने, त्रिभुवन के लोगोंको मृत्यु उत्पन्न करनेवाले, गुंजाफलके समान काल और भयंकर नेत्रोंसे कुमारोंको देखकर राखका ढेर बना दिया, ( उन्हें भस्म कर दिया ) मानो उसने अपने यशकी विभूतिराशि एकत्रित कर लो हो। उसमें किसी के लिए भी प्रलयकाल नहीं हुआ। क्योंकि देवने अपने इन्द्रजालका प्रदर्शन किया था। बिना मरे हुए भी भाई मरे हुए दिखाई दिये । तब भीम और भगीरथ अपने-अपने ध्वजचिह्नोंके साथ गये। भाग्यके पथसे वे दोनों किसी प्रकार बच गये थे । अपने पौरुषसे रहित वे घर पहुंचे।
घसा-घर जाकर, अपने पिताको प्रणाम कर वे आसनोंपर बैठ गये । विषादपूर्वक पिताने देखा कि वे दोनों ही अत्यन्त दुःखी हैं ॥१६॥
१०.A मज्झि । ११. P भाछ। १३.१. A परहरति । २. A मकलित। ३.ATलटनिय । ४.AP विभित। ५. AP पियत ।
६. A पडिबोहण । ७. A P वि । ८. P फणमणि । १. A भूय । १०. P सज्जसविहई । ११. A काम ण यज । १२. A P अमुया वि । १३. AP पुरि। १४. A सम्वरिय ते ण कह विहिवसेण ।
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-३६१४.१३
कशेयण किरणुभासणाई बिहिं ऊणी सहि दुठिपण मणिमयकुंडलचयगंडु
महापुष्पवन्त विरचित
दुइ आया इयर ण पइसरंति पुर्व चि सुरसंकेश्पण
तंगिसुनिधि मिं अत्थमेण किं रवि उययभाव
वि पास किं तद्धि मेहसोह थिरु होइ पण संज्ञारायरंगु विहइ पण काई सुरचाषदंडु काले गिलिये देविंद देव
१४
जोयेष सहसह सुण्णासणाई | सुदंसण सोक्कंठिए । रापण पॅलोइडं मंतियोंडु ।
भणु कारणु तगुरु किं करंति । बोहणबुद्धि विराइण । माहिययथेण ।
ऐ
उल्दाइ ण किं पञ्चलिख दी । फुति किं जम्बुद्द । गड आवs ण
सरिसरत रंगु ।
किं स्वयहुण व मणुय पिंडु । पपत्तिर्हि कहि एव ।
पत्ता-ता राहु बढियसोहु बाइजलाई पेत्तई ॥ वलपत्तई ओसासित्तई णं गलंति सयवसई ॥ १४ ॥
५
१०
૪
कर्केतन रत्नोंकी किरणोंसे आलोकित हजारों सूने आसनोंको देखकर भाग्यसे साठकी संख्या नष्ट हो जाने से व्याकुल चित्त, और पुत्रदर्शनके सुखके लिए उत्कण्ठित राजाने, मणिकुण्डलोंसे अलंकृत गालवाले मन्त्रीमुखकी ओर देखा और कहा ) कि दो ही पुत्र आये हैं, दूसरे नहीं आये है। कारण बताओ कि पुत्र क्या कर रहे हैं ? तब पहले के देव (मणिकेतु ) के द्वारा पहलेसे समझाये गये और राजाको सम्बोधन देनेकी बुद्धिसे शोभित मन्त्रीने कहा - "हे महिलाओंके स्तनको चुरानेवाले राजन्, क्या उदय होनेवाले सूर्यका अस्त नहीं होता ? क्या जलाया हुआ दीप शान्त नहीं होता ? मैत्रोंकी शोभा बिजली क्या नष्ट नहीं होती ? क्या जलके बुदबुदोंका समूह नहीं फूटता ? सन्ध्यारागका रंग स्थिर नहीं होता ! नदी और सरोवरको गयी हुई लहर वापस नहीं आती ! क्या इन्द्रधनुष नष्ट नहीं होता ? क्या मनुष्य शरीर विनाशके मार्गपर नहीं जाता ? देवेन्द्र और देव महाकालके द्वारा निगल लिये जाते हैं ?" इस प्रकार प्रच्छन्न उक्तियोंसे मन्त्रीने
कहा ।
पत्ता- तब जिसका शोक बढ़ गया है, ऐसे राजाके अश्रुजलसे गीले नेत्र इस प्रकार गल गये मानो ओससे गीले चंचल पत्तोंवाले कमल हों || १४ ||
;
१४. १, A जोइदि सहास सुण्ण p बबलोदवि सुदसुष्णा । २. A सुबक्कंठिएण P " मोड स्कटिएन । ३. A पलोय; P एलोबिउ | ४. ते महिवह महिलहिपर्य; P हे महिवर महिलहित्रययेण । ५. A अश्व । ६. P उयणभाव । ७ A जलपुरवषोष but glos बलबुद्ध । ८. A गलिय । ९. A यतत्तिि
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महापुराण
[ ३९.१५, १
तावेक्कु परायउ दंचपाणि कासायचीरधरु महरवाणि । जिणव व णिवारियभवधिहरु । कुंडलियणोलभमरडलपिहरु। सोत्तरियफुरियजण्णोक्योर स्वेण गुणेण वि दुतीउ । सो मतिहिं गहियखणेहि महिउ कुलबभणु भणिघि नृवस्तुं कहि । ता भासइ लद्धावसरु विप्पु को पुत्त एत्थु किर कवणु बप्पु । संसारु असारु णिरायराय कि सासय मषणहि अन्भछाय । जिह तस्वेजिहिं परगम्मु होइ तिह गरु णारिहि अप्पउँ ण वेइ । जीहोषयहिं जगमारणेहिं । हिहि उन्भवकारणेहि ।
संसारिय सयल सणेह लेंति केसा इव बंधणजोग्ग होति । १. मोहे बद्धा भैवि संसरति पुणु पुणु हति पुणु पुणु मरंति ।
पत्ता-महु विसई पुस्तकलतई एम''भणंतु जि णिज्जइ ।।
"सुहं माणइ धम्मु ण याणइ जगु खयरक्खें खज्जइ ॥१५||
१५
तब इतने में गेरुए वस्त्र धारण किये हुए मीठी वाणी बोलनेवाला एक दण्डो साधु वहाँ माया। जो जिनवरकी तरह भव्योंके कष्टोंको दूर करनेवाला था, जिसके भ्रमरकुलके समान नीले बाल कुण्वलित थे, जो उत्तरीय वस्त्रके साथ यज्ञोपवीत धारण किये हुए था। वह रूप और गुण में अद्वितीय था । तपके लिए नियम ग्रहण करनेवाले मन्त्रियोंने उसका सम्मान किया और कुलीन ब्राह्मण समारकर राजासे कहा । तन अवसर मिलनेपर ब्राह्मण बोला-"यहाँ कौन पुत्र है, और कोन आप है? मनुष्योंके राजराज, यह संसार असार है। क्या हम मेघोंकी छायाको शाश्वत मानते हो? जिस प्रकार तरु लताओंके परवश हो जाता है, उसो प्रकार मनुष्य नारियों के कारण अपनेको नहीं जान पाता। जगका नाश करनेवाली जीवकी अवस्थाओं, बच्चों और बच्चोंके बन्मकारणोंके द्वारा सभी संसारी जीव स्नेह ग्रहण करते हैं, और केशोंके समान बन्धनके योग्य हो जाते हैं। भोहसे बंधकर संसारमें परिभ्रमण करते हैं। फिर-फिर जन्म ग्रहण करते हैं और फिर-फिर मृत्युको प्राप्त होते हैं।
पत्ता-'मेरा धन, मेरे पुत्र-कलत्र' इस प्रकार कहता हुआ वह ले जाया जाता है, फिर भी वह सुख मानता है, धर्म नहीं जानता। और इस प्रकार यह जग यमरूपी राक्षसके द्वारा खा लिया जाता है ।।१५।।
१५. १. A चीक पह। २. A P°विहरू । ३. A अदुई P अदुईउ । ४.AP हिवस्स । ५.A
भुभव। ६.A मोह बवा । ७. P अगि। ८. P संभाति । ९. A मरंति; P भवति । १०.A हति । ११. A एणंतु । १२. सुफ मागह।
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-३२. १६.१३1
महाकवि पुष्पवन्त विरचित
१६
आणि मंदाणि तु सुपहि । णिग्गज फणि गैरलुपेच्छ्रणयणु । ओश्य वि णंदण वइवसेण । हाइजर दिब्ज काई सलिलु 1 "वर पंचमुट्ठि सिरि देमि लोउ । ण हु होइ कयाइ अणिट्ठजोड | जहि थक अप्पर णामेत्तु ।
श्रीमकुमार णिवेण बुत्तु । गुणवंतें परगेहिणिय जेम ।
अपणु लम्ड परीयकजि । राहि भावें मोक्खमग्गु |
दारिवि धरणीय दिढसुरहि
अभिवणि विलगड दंडरयणु आसेपि आसी विसेण ता चव सह गयदुरियकलिलु कि एणपणास सोड
कहि मिच्छमि सुहिदिओठ जहि सथलकाल अयरामैंरतु
सि
वसु इच्छिय तेण म ताथविवि भईरहि पुद्दइरजि दहधम्महु पायंति सभम्गु
घत्ता- - सहुं भीमें णिज्जियकामें चारितरेण विहसिउ ॥1 चक्केसरु हुए जोईसर मणिकेले वि सुरु तोसि ॥ १६ ॥
૨૦
१०
१६
तुम्हारे पुत्र घरतोको अपने दृढ़ बाहुओंसे खोदकर गंगा नदी ले आये। उनका दण्डरत्न नागभवन से जा टकराया। विषसे परिपूर्ण नेत्रवाला वह नाग निकला। उसने क्रुद्ध होकर यमके समान उन पुत्रोंको देखा। इसपर जिसका पाप कलंक घुल गया है ऐसा राजा सगर कहता है कि क्या स्नान किया जाये और पानी दिया जाये, क्या इससे इष्टजनका वियोग दूर हो जायेगा ? अच्छा है में पांच मुट्ठियोंमें सिरके बाल लेकर केशलोंच करता हूँ। जहाँ किसो सुघीका वियोग मैं नहीं देखता। और न कभी भी अनिष्ट योग होता है, जहाँ सदैव अजर और अमरत्व निवास करता है । जहाँ आत्मा ज्ञानमात्र रहता है, में उस शिवको सिद्ध करता हूँ। मैं चारित्र ग्रहण करता हूँ ।" तब राजाने कुमार भीमसे कहा कि यह घरतो तुम ले लो। परन्तु उस गुणवान्ने उसकी इच्छा नहीं की जैसे वह किसी दूसरेकी गृहिणी हो । तब भगीरथको पृथ्वीके राज्य में स्थापित कर राजा सगर स्वयं परलोकके काममें ठग गया। दृषर्मा मुनिके चरणोंके निकट उसने सम्पूर्ण भावसे समग्र मोक्षमार्गको आराधना की ।
१६. १. P गरल दुच्यणु । २. P रूपिणु आसी विसबिसेन । ३.AP ५. Pथरि । ६. AP सम्यकाल । ७AP अयरामरतु । ८. AP सामि । १०. AP मणिकेत वि संतोसित ।
घत्ता - कामको जीतनेवाले चारित्रसे विभूषित, और भोमके साथ वह चक्रेश्वर योगीश्वर हो गया। इससे मणिकेतु देव भी सन्तुष्ट हो गया ॥ १६ ॥
४. A बुट्ट्ठसोठ । ९. AP हमि ।
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महापुराम
[३९. १७.१
गउ तेत्तहि जेत्तहि पडिय पुस मायाविसमुछारयविलित्त । अवहरिवि विवियगरले भष्पु जीवाविय कर णिम्मलु वियप्पु । उहिय ते सायरि सायरेण भासियसुरेण महुरक्खरेण । मसु पसुमइ सीहासणु मुएवि गज तुम्हह पित्र पावज लेवि । णिय जोवियघायपरिग्गहेण तुम्हई विडिय गंगागहेण । ता तेहिं विमुक्कउ णिहिल गंथु गउ जेण महाजणु सो जि पंथु । जाया जइ णियजणणाणुयारि णीरंजण थिरमण णिब्वियारि । दोवासपयडपासुलियगत सवालमूलसुणिलीणणेत्त । उत्तीणखप्परोसरकराल
दोहरणह भासुररोमवाले। जणदिट्टपुट्टिगयवसपन्च
विच्छिण्णगाव तवतावतिव्व । कडाडयजाणुकोप्परपएस उखवासखीण चम्मट्टिसेस। कंकालरूव जगभीमवेस गिजणणिवासि सुइसुक्कलेस । घत्ता--दिहि परियर पसमियमयजर जमसंजमधरणुच्छव ॥
"बहुखमदम कुचियकरकम णावइ थलगय कच्छव ॥१७॥
वह वहीं गया जहाँ माया-विषकी मू के वेगसे लुप्त पुत्र पड़े हुए थे। उसने वेक्रियिक विषको खींचकर भस्मको जीवित कर सुन्दर शरीर में परिणत कर दिया। वे सगर-पुत्र आदरके साथ उठ बैठे। देवने मधुरवाणी में उनसे कहा कि धन, धरती और सिंहासन छोड़कर तुम्हारे पिता संन्यास लेकर चले गये हैं। अपने जीवन के त्यागका परिग्रह है जिसमें, ऐसी गंगा लाने के आग्रहसे तुम लोग प्रवंचित हुए। यह सुनकर उन लोगों ने भी समस्त परिग्रहका परित्याग कर दिया और उसी रास्ते पर गये, जिसपर महाजनला के थे। अपने पिताका अनकरण करनेवालवे निरंज निर्विकार और स्थिरमन मुनि हो गये। जिनके शरीरके दोनों पावभागोंकी पसलियां निकल आयी हैं, जिनके नेत्र कपालके मूल भागमें लीन हो गये हैं, जो उठे हुए खापरके उदरसे भयंकर हैं जिनके लम्बे नाखून और चमकता हुआ रोमजाल है, जिनके पीठके बांसको गोटें दिखाई दे रही हैं, जिनका अहंकार जा चुका है, जो तीव्र तपके तापसे सन्तप्त हैं, जिनके घुटने और हथेलियोंके प्रदेश सूख गये हैं, जो उपवाससे क्षीण है और जिनको केवल चमड़ी और हड्डियां शेष रह गयो हैं । जो कंकालस्वरूप और जगमें भयंकररूप धारण करते हैं, एकान्तमें निवास करनेवाले जो पवित्र शुक्ललेश्यावाले हैं।
पता-जो धैर्यके परिग्रहसे युक्त, जराको शान्त करनेवाले, यम और संयमको धारण करनेका उत्सव करनेवाले, बहुत ही क्षमा और दयायाले तथा जिन्होंने अपने हाथ-पैर संकुचित कर लिये हैं ऐसे मानो स्थलपर रहनेवाले ककछप हैं ।।१७।। १७. १. 1 P जेहि तेत्तहि । २. . "सालिस; । रयपलित । ३. गरल दप्प; P"गरलु सप्प। ___४. A P सिंहासणु । ५. : जीविपरराय । ६. A P मायागहेण । ७. 17 यिर मणि । ८. A P दोपापु
पपडपंसुलिय। ९. उत्ताणुयखप्परो । १०.AP रोमजाल । ११. गयबंभपव्व । १२. 12 विच्छिण्णगन्ध । १३.APणिज्जणि वास। १४.AP पिहखमदम ।
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-३९. १८. २३ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
सुरवणुवलए गजंतषणे सरिवहसरिसे संविहियेथले मिगरवमूहले निवसति इसी गलकंदलए ओसापसरे दैरिसियगयणे णिक्कंपमणा तमछइयदिसं हिमणिगमणे गिरिसिहरगया संतावणिहि विसहति जई णिज्जियविसय पालेवि सम विद्धस्थरयं जणतोसयरो गिट्टवियरि अंयमेय वयं जियपुत्तयहो जयलच्छिसाहि
विज्जुज्जलए।
यविरहियणे। धारावरिसे। एवइंतजले । वणचिडवितले। विलुलति विसी। पुणु कंदलए । पत्ते सिसिरे। वाहिरसयणे। धोरा समणा। गमयाते णिस। गिम्हागमणे । सज्झाणरया। रषिकिरणसिहि । सुविसुद्धमई। इय परिसयं । पुत्तेहि समं । णियाणगये। पत्तो सयरो। जिसणेवि पिठ। गयमयणमयं। वरयत्तयहो। दाऊण महि ।
१
इन्द्रधनुषसे मण्डित, विद्युत्से उज्ज्वल, विरहीजनोंको आहत करनेवाले मेघोंके गरजनेपर नदीके प्रवाह पथके समान स्थलभागको ढक लेनेवाले, धारावाहिक रूपसे जलके प्रवाहित होनेपर, पशुकुलसे मुखरित वनविटपके नीचे वे मुनि रहते हैं और विषयों का नाश करते हैं । जिसके कन्दल ( अंकुर केश ) गल चुके हैं, ऐसे मस्तक प्रदेशमें औसके प्रसारसे युक्त शिशिर ऋतुके प्राप्त होनेपर, जिसमें आकाश दिखाई देता है, ऐसे बाह्म शयनमें, धीर श्रमण निष्कम्प भावसे तमसे आच्छादित दिशाओंवाली रात्रि व्यतीत करते हैं । हिम ( शीत ) तके चले जानेपर और प्रोष्म ऋतुके आगमनपर पहाड़ोंके शिखरोंपर विराजमान वे सत् ध्यानमें रत रहते हैं। सतानेवाली रविकिरणोंको आगको सुविशुद्ध मतिवाले वे मुनि सहन करते हैं। विषयों को जीतनेवाले इस प्रकारको साधनाका पालन कर राजाजनोंको सन्तुष्ट करनेवाले सगर अपने पुत्रोंके साथ, पापका नाश करनेवाले निर्वाणको प्राप्त हुए । यह सुनकर कि पिताने कोका नाश कर दिया है, ( यह सोचकर ) अपने १८.१. A P विज्जनलिए । २. A P संपिडिय; K संविहिय but gloss संपिहित । ३.K
मृगरवं । ४. A P दरसियं । ५.AP गिभागमणे । ६.A रई। ७. ८.AP अपमेयघम् । ९. A परदत्तयहो; P वरपत्तयहो ।
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महापुराण
[ ३९. १८. २४'आसमि गुणिहे गुत्तयमुणिहे'। घत्ता-अरितरुसिहि राउ भईरहि हिसारंमु मएप्पिणु । सरहंगहि तडि थिउ गंगहि 'जिणपावज लएप्पिणु ॥१८॥
१९ ताराहारावलिपविमलेहि सतुसारखीरसायरजलेहिं । कलहोयकलसकविलियकरहिं तहु पयजुयलउ सिंचिउ सुरेहिं। तप्पायधोयसलिलेण सित्त
तहिं हुई सुरवरसरि पवित्त। हिमवंतपोमसरवरपसूय
अज्जु वि जणु मण्णइ तित्थभूय । मंदारजाइसिंदूरएहि
अरविंदकुंदकणियारएहिं। सुपउरमयरंदायंवरहि
अंचिवि णवकुसुमकरंबएहिं । आमोयमिलियचलमलिहेहि गंधेहि दिण्णणासासुहेहि । थोत्तेहिं जईसरु धरियजोउ वंदेवि देव गय सम्गलोउ।
उप्पाइवि केवलु तिजगचक्खु संपत्त भईरहि परममोक्खु । १० धत्ता--सो मुणिवरु अजरामरु हूयउ खणि असेरीरिउ ॥
___ भरहत्थहिं णिवसथहिं पुप्फदंतु जयकारिउ ॥१९॥ इय महापुराणे तिसटिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महामन्वमरहाणुमण्णिए महाकच्चे सयरणिवाणगमणं णाम एकणचालोसमो परिच्छेभो समतो ॥११॥
॥ सेयरचरियं समत्तं ॥ पुत्र वरदत्तके लिए विजयरूपी लक्ष्मीकी सहेली धरती देकर गुणवान् गुप्तमुनिसे कामके मदसे रहित यही व्रत ग्रहण करता हूँ।
घत्ता-अरिरूपी वृक्षके लिए आगके समान राजा भगीरथ हिंसा और आरम्भको छोड़कर तथा जिनदीक्षा ग्रहण कर चक्रवाकोंसे युक्त गंगानदीके तटपर स्थित हो गये ॥१८॥
तारोंको हारावलियोंके समान स्वच्छ, तुषारकणों सहित, क्षीरसागरके जलोंसे स्वर्णकलशसे हाथोंसे देवोंने उनके पदयुगलका अभिषेक किया। उनके चरणोंके धोये गये जलसे सींची गयो देवनदी गंगा उस समय पवित्र हो गयी। हिमवन्त सरोवरसे निकलनेवाली गंगानदीको लोग आज भी तीर्थस्वरूप मानते हैं। मन्दार, जुही, सिन्दुवार, अरविन्द, कुन्द, कनेर पुष्पोंके सुप्रचुर मकरन्दोंसे लाल नव कुसुम समूहोंसे अर्चा कर, तथा जिनमें आमोदसे चंचल मधुकर मिले हुए हैं ऐसी नासिकाको सुख देनेवाले गन्धों और स्तोत्रोंसे योगधारी योगोश्वरकी वन्दना कर देव स्वर्गलोक चले गये। त्रिलोकनयन केवलज्ञान उत्पन्न कर भगीरथ परममोक्षको प्राप्त हुए।
घत्ता-वह मुनिवर एक क्षणमें अजर-अमर और अशरीरी हो गये। भरतक्षेत्रवासी राजसमूहोंने पुष्पदन्तके समान उनका जयजयकार किया ॥१९॥
इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामन्य मरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका सगरनिर्वाणगमन नामका
उनताकीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुभा ॥३९॥
१०.AP असमे । ११. A P गोत्तयम् णेहें। १२. A P जिणपठवज्ज । १९. १. . महुवरेहि; A°महयरेहि । २. A असरोरउ । ३. A P omit सयरचरियं समत्तं"
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पणवेपणु संभव सासयसंभवु संभवणासणु मुणिपवरु ।। पुणु त केरी कह रंजियबहसेह कहं वि सरासइ देउ वरु ॥ ध्रुवकं ॥
सदयं परिरक्खियमयं
चूरिय अलियलयंस यं दूसियपरहणहरणयं विणिवारियपरदारयं
रयणी भोयणविरमणं कगिहिसंगपाणयं
संधि ४०
१
अदर्यं विद्धंसियमयं ।
लुं चियअलिअलयं सयं ! पुसियबंभहरिहरणयं । परदरिसियपरदारयं । धीरं अविवेविरमणं । बहुणिहियमाणयं ।
सन्धि ४०
शाश्वत है जन्म जिनका ऐसे तथा जन्मका नाश करनेवाले मुनिप्रवर सम्भवनाथको प्रणाम कर फिर उन्हींकी, पण्डित सभाको रंजित करनेवाली कथा कहता हूँ, हे सरस्वती देवी, मुझे वर दो।
१
जो पशुओं की रक्षा करनेवाले सदय हैं, जो मदको ध्वस्त करनेवाले अदय हैं, जिन्होंने असत्य के अंशको ध्वस्त कर दिया है, और भ्रमरके समान श्याम केशोंको उखाड़ दिया है, जिन्होंने दूसरे के धनके हरणकी निन्दा की है, जिन्होंने ब्रह्मा, हरि और हरके नयको दूर कर दिया है। जो परस्त्रीका निवारण करनेवाले हैं, तथा जिन्होंने दूसरोंके लिए मोक्षका द्वार बताया है, जो निशा भोजनसे विरत हैं, धीर और अकम्पित मन हैं। जिन्होंने गृहस्थ जीवन में परिग्रहका परि
Mss. A and P have the following stanza at the beginning of this Samdhi :
१. १. A P बहसुह । २. A वीरं ।
६
विनयाङ्कुर सातवाहनादौ नृपचक्रे दिवि (व) मीयुषि क्रमेण ।
भरत तव योग्यसज्जनानामुपकारो भवति प्रसक्त एव ॥१॥
This stanza is also found at the beginning of Samdhi XXXIII of this Work in certain Mss. See foot-note on page 530 of Vol I. K does not give it there or here.
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४२
१०
१५
२०
ri अपमा
पविभिन्वसुरीयमं जंतवावेणुग् अणुहुत्त संसारयं
दूरुज्झि संसारयं
महापुराण
१०
Faणं पिमयं ।
णिदिय सोंडसुरीयमं ।
जेण वीयरा उग्गयं ।
बद्धं हरिसा रयं ।
ण हि संसासंसारयं ।
जं देवं कं पावणं । सिद्धिपुरंधियारयं । पट्टाणि अयारयं । अरुहं निरहंकार |
तसं परमक्खरं ।
[ ४०.१.९
देवासुरकंपावर्ण जयपायडियसयारयं कंतं तीइ अयारयं
बी सरकार
उयरलीणसयलक्खरं
तं वंदेहं संभवं ।
भुवणकुमुयवणसंभवं 'ओसारियअसिआरसं
"णविऊणं असिआउस । जोक |
भणिमो संभव संक धत्ता-तियसिंदफर्णिदहिं खयरणरिंदहिं जं धुवइ कयपंजलिहिं | हुं सुकइत्तणु अमिडं पियह कण्णंज लिहिं ॥ १ ॥
तंकित
arr किया है । जो अनेक नयोंसे प्रमाणको स्थापित करनेवाले हैं, जो ज्ञानसे अप्रमाण ( सीमा रहित ) हैं; और जो स्वपरको ज्ञानरूपी लक्ष्मीको प्राप्त करानेवाले हैं, जिन्होंने भव्यजनों के लिए देवोंका आगमन करवाया है, जिन्होंने मद्यको प्रशंसा करनेवाले शास्त्रोंकी निन्दा की है, जो तपभावसे उग्र हैं और जिन्होंने वीतराग भाव उत्पन्न किया है, जिन्होंने अनन्त सुखका अनुभव किया है, जो हर्षसे पापमें लिप्त नहीं हैं, जिन्होंने संसारको छोड़ दिया है, और जो प्रशंसा या अप्रशंसामें रत नहीं हैं, जो देव और असुरोंको कँपानेवाले हैं, उस देवके समान पवित्र कौन है ? जिन्होंने जगमें सदाचारको प्रकट किया है, जो सिद्धिरूपी इन्द्राणीमें सदारत हैं, जो मुक्तिरूपी कान्ता दूतरहित स्वामी हैं, जिनके नामके प्रथम अक्षर में 'अ' और दूसरे स्थान में 'र' सहित हकार है ( अर्थात् अर्हत् ), जिसके भीतर समस्त अक्षर लीन हैं, जो मन्त्रेश और परम अक्षर हैं, जो भुवनरूपी कुमुदवनके लिए चन्द्रमा हैं, ऐसे उन सम्भवनाथ की मैं वन्दना करता हूँ । जिन्होंने लक्ष्मी और आयुका निवारण कर दिया है, ऐसे पंचपरमेष्ठीको प्रणाम कर जन्म दुःख की शंकाका नाश करनेवाले सम्भवनाथकी कथा कहता हूँ ।
पत्ता - देवेन्द्रों, नागेन्द्रों और विद्याधरेन्द्रोंके द्वारा जिनको हाथ जोड़कर स्तुति की जाती है, ऐसे जिनके गुणकीर्तन और मेरे सुकवित्वरूपी अमृतको कर्णरूनी अंजलियों द्वारा दियो || १ ||
3. A P_add after this: देवं जं सुषमाणय; T seems to omit it. ४. P सवरे दरिसियायमं । ५. Padds after this : सवरेवि परमायमं; T seems to omit it ६. P सुरामयं । ७. A पढमट्ठाण अयारयं । ८. A सुमहिय सरहंकारयं । ९ AP add after this : पाइय ( A झाइय ) णिरहंकारयं पावियमाइककारयं । १०. AT ओहामिय; Pऊसारियं । ११. A भरणं ।
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-४०. २. १९]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
दिणयरपईवए मेरुपुठिवल्लए तहिं विदेहे वैरे पविमलदियंतरे रायहंसुज्जलं फुल्लपंकयवणं णवकुसुमपरिमलं रुणुरुणियमहुयरं तुंगपायारयं विरइयमहुच्छवं रसियणिवारणं चिंधमालाउलं हेममयमंदिरं चाहिं सुह उलाहनो वसइ सिरिसेविओ चारुरजे कए तिविहणिव्वेइणा थोरदीहरभुए सधरधरणी पया
इह पढमदीवए। पसुकणधणिल्लए। सीयसरिउत्तरे। कच्छदेसंतरे। सच्छविच्छुलु जलं। पवणहल्लिरवणं । सरससुमहुरफलं। रइरमियणहयरं। गोउरदुवारयं । तुरेयहिलिहिलिरवं। णीलदलतोरणं । विविह जणसंकुलं । खेमणामं पुरं। पहु विमलबाहणो। पणइणीणं पिओ। दीहकाले गए। तेण वरराइणा। विमलकित्तीसए। विणि हियो संपया।
जिसमें सूर्यरूयो प्रदीप हैं ऐसे इस प्रथम द्वीप जम्बूद्वीपमें सुमेहार्वतके पूर्व में पशु और धान्यसे सम्पन्न श्रेष्ठ विदेह क्षेत्रमें सीता नदी के उत्तर में प्रविमल दिशान्तरवाले कच्छ देशमें क्षेम नामका नगर है, जो राजहंसकी तरह उज्ज्वल और स्वच्छ उछलते हुए जलवाला है, जिसमें कमलवन खिला हुआ है, और जो पवनसे हिलने के कारण सुन्दर है। नवकुसुमोंसे सुरभित, और सरस तथा सुमधुर फलवाला है। जिसमें मधुप गुंजन कर रहे हैं और नभचर रतिसे क्रीड़ा कर रहे हैं । जिसमें ऊँचे परकोटे हैं, जो गोपुर द्वारवाला है, जिसमें महोत्सव हो रहे हैं, अश्वोंके हिनहिनानेका शब्द हो रहा है। राजाके गज चिग्बाड़ रहे हैं, नोलपत्तोंके तोरण हैं, जो ध्वजचिह्नोंको मालाओंसे व्याप्त हैं, तरह-तरहके जनोंसे संकुल हैं और जिसमें स्वर्ण निर्मित प्रासाद हैं, ऐसे उसमें सुभटोंकी सेवासे युक्त विमलवाहन नामका राजा था। श्रीसे सेवित वह अपनो प्रणयिनियोंके लिए अत्यन्त प्रिय था। अपना सुन्दर राज्य करते हुए, उसका जब बहुत समय बीत गया, तो संसार, शरीर और कामसे विरक्त होकर उस उत्तम राजाने अपने स्थूल और लम्बो बाहुवाले विमलकीर्ति नामक पुत्रके लिए पर्वत और धरती सहित समस्त सम्पदा सौंप दी। और असन्दिग्ध प्रभावाले स्वयंप्रभ जिनको
२. १. P वसुकणं । २. P विदेहे पुरे । ३. A विच्छुलजलं । ४. AP सरसमहरं फलं । ५. P तुरियं ।
६. K नृववारणं । ७. A विवलवाहणो। ८. A विवलकित्ती । ९. APT विणिहया ।
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महापुराण
[ ४०.२. २०
जिणमसंसयपहं
पणविवि सयंपहं। जायओ जइवरो णिम्मम णिरंबरो। "सहिवि तवतावणं धरिवि सुहभावणं । जिणगुणणिबंधणं मुवणयलखोहणं। चिणिवि "सुहसंपयं धुणिवि भवभवरयं । उवसमविहूसणं करिवि संणासणं । "अवियलियसंजमो मरिवि मुणिपुंगमो। पढमगइवेयए
"पढमयणिकेयए। विस्सुयसुदंसणे
दुक्खविलुसणे। अहम मरवइ हुओ भविययण संथुओ। घत्ता-तेकीस अणूणई जलहिममाणई आउ णिबद्धउं सुरवरहु ।।
बिहिं रेयणिहिं जुत्तउ अद्ध णिरुत्त उ तणुपरिमाणु वि भणिउं तहु ॥२।।
5.
तेवीसवरिसंसहसहिं असइ वण्णे भावेण वि सुकिलउ णउ गेयश्वज्जसरकलयलउ पाविट्ठ दु8 जहिं णत्थि जणु णाणे जाणइ सुरणरणियइ तं तेत्तिउ वैदृइ णिट्ठियां
तेत्तियहिं जि पक्खिहिं ऊससइ। विलुलंतहारमणिमेहलठ। णउ णारि ण हियवइकलमलउ । जो जो दीसइ सो सो सुयणु । सत्तमणरयंतु जाम णियइ । जांवासेसु तहु णि ट्ठियउं ।
प्रणाम कर वह निर्मम दिगम्बर यतिवर हो गये। तपकी तपन सहकर और शुभभावना धारण कर त्रिभुवनतलको क्षुब्ध करनेवाले जिनगुणोंका निबन्धन कर शुभ सम्पदाका चयन कर, भवके भय
और पापको नष्ट कर, उपशमसे विभषित संन्यास धारण कर. अविगलित संयम वह मनिश्रेष्ठ मरकर प्रथम ग्रेवेयकके दुःखोंका नाश करनेवाले प्रथम विश्वप्रसिद्ध सुदर्शन विमानमें, भव्य जनों द्वारा संस्तुत अहमेन्द्र देवके रूपमें उत्पन्न हुआ।
पत्ता-उस सुरवरके तेईस सागर प्रमाण पूरो आयु थी। ढाई हाथ ऊंचा उसके शरीरका प्रमाण था । वह भी मैंने निश्चयपूर्वक कहा ॥२॥
तैंतीस हजार वर्षमें वह भोजन करता । और उतने ही पक्षोंमें ( अर्थात् साढ़े ग्यारह हजार वर्षों में ) श्वास लेता। रंग और भावमें वह शुभ्र था। उसपर हार और मणिमेखला झूलती थी। उस प्रेवेयक विमानमें कामदेवका कोलाहल नहीं था, और न स्त्री और हृदयमें पाप था। वहां पापिष्ठ और दुष्ट लोग नहीं थे। जो दिखाई देता था, वह सज्जन था। अवधिज्ञानसे वह सुर और मनुष्योंको जानता था । सातवें नरकके अन्त तक वह देख सकता था। जब उसका उतना समय
१० A सहइ तव । ११. AP सुहसंचयं । १२. A भवभयरयं । १३. AP अविलिय । १४. A
पढमणिक्खेयए: P पढमाणिकेयए । १५. A विहरयणिहि । ३. १. A तेवीससहासवरिसहि; P तेवोससहसवरिसेहिं । २. A सुकिल्लउ । ३. AP वड्दछ ।
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-४०. ४. १२]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित ता एत्तहि उववणि रमिXणेसुरि इह भरहखेत्ति सावत्थिपुरि । इक्खाउवंसु सुविसुद्धमइ
हयसद ददु णामें पुहइवइ । धणुगुणसंधियपंचमसरहु । तहु घरणि सु सेण सेण सरहु । एकहिं दिणि णिसि पच्छिमपहरि सुहं सुत्ती देवि सवासहरि । पत्ता-सा सालंकारी सेण भडारी पइवय सोलह सुंदरई ।। __महिमंडलसामिणि मंथरगामिणि अवलोयइ सिविणंतरई ।।३।।
करिणं वसहं केसरिणं
लच्छि दामं चंदमिणं । झंसजुय कुंभजुयं च वरं
सरवरममलिणमयरहरं । हरिवीढं देविंदघरं
फणिभवणं फुडमणिणियरं । विप्फुलिंगपिंगलियणहं
सिहिणं जलियं दोहे सिहं ।। इय जोइवि पीणस्थणिया पविउँद्धा सीमंतिणिया। सिसुमयणयणा पत्तलिया णीलप्पलदलसामलिया। अहिणववेल्लि व कोमलिया गहियाहरणा संचलिया। करि धरिवि सविलासिणियं कलहंसी विव हंसिणियं । पत्ता कता रायहरं
सिहरोलंबियसलिलहरें। अवलोइवि पइमुहकमलं
पुच्छह सत्था सिविणहलं । णियबुद्धीइ परिग्गहियं
तेण वि तिस्सा तं कहियं । जस्स वसा तेलोक्कसिरी
मजणवीढं मेरुगिरी। बीत गया, और उसको आयुका निश्चित भाग शेष रह गया, तब जिसमें देवता कोड़ा करते हैं, ऐसे उपवनवाले भरत क्षेत्रको श्रावस्ती नगरीमें इक्ष्वाकुवंश था। उसमें विशुद्धतम बुद्धि दृढ़रथ नामका राजा था। उसकी सुषेणा नामकी गृहिणी, मानो धनुषको डोरीपर पांच बाणोंका सन्धान करनेवाले कामदेवकी सेना थी। एक दिन रात्रिके अन्तिम प्रहरमें वह देवी अपने निवासगृहमें सुखसे सोयी हुई थी। महीमण्डलको स्वामिनी मन्द गतिवाली उसने स्वप्न-परम्परा देखी ।।३।।
हाथी, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, पुष्पमाला, चन्द्र, मत्स्ययुगल, श्रेष्ठ कुम्भयुग्म, स्वच्छ सरोवर, सूर्य, समुद्र, सिंहासन, देवविमान, नागभवन, स्फुटमणिसमूह और स्फुलिंगोंसे आकाशको पीला बनानेवाली दीर्घ ज्वालाओंवाली प्रज्वलित आग। पोनस्तनोंवाली वह सोमन्तिनी यह देखकर जाग गयी। शिशुमगनयनी दुबली पतली नीलकमलदलके समान श्यामल, अभिनवलताके समान कोमल, और आभरण धारण करनेवाली वह चली। विलाससे युक्त कलहंसीके समान वह हंसिनीको अपने हाथमें धारण कर, वह कान्ता शिखरोंसे मेघगृहोंको सहारा देनेवाले राजभवन में पहुंची। अपने पतिका मुखरूपी कमल देखकर, स्वस्थ वह, स्वप्नोंका फल पूछती है। अपनी बुद्धिसे ज्ञात कर उसने भी उनका फल उसे बता दिया कि त्रिलोक लक्ष्मी, जिसके अधीन है, सुमेरुपर्वत,
४. A रमियसरि । ५. A इक्खागुवंस । ६.A हयसयदछु । ७. A ससेण । ८. A सुहसुत्ती;
P सुहे सुत्तो । ४. १. AP सजुयलं कुंभजुयं पवरं । २. A दीयसिहं । ३. P विउद्धा । ४. P मयसिसु । ५. P रयणहरं ।
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१५
५
अमरउलं चिर्य भिच्च उलं सो हे तुह दिण्णवरो
१०
महापुराण
[ ४०.४.१३
वजिगा धम्मकज्जं तओ पीणियं एत्थ सावत्थिरायस्स गेहे जिणो जाहि ताणं तुम होहि तोसायरो तामासाहि वाणाइमात्रेणं समालयं सूरत पह आगया गव्यसंमोहर्णत्थं इरी जाम छम्मास ता संपयालिंगणे फग्गुणे भासए सुकपक्खंतरे सिंधुरायारधारी सुद्देगुण्णओ रिदेहे थिओ सुद्वाचत्तए धम्मचंदस्स चंदिमाणंदिया णि माणिकरासी पुणो घत्तिया जिसका स्नानपीठ हैं, विशाल त्रिजग, जिसका घर है, हे कल्पाणि, वरोंको देनेवाला तुम्हारा ऐसा तीर्थंकरपुत्र होगा ।
धत्ता -- यह सुनकर कामरूपी पर्वतको घाटी वह सुन्दरी पुलकसे रोमांचित हो उठी मानो वसन्तके कानों को पोषित करनेवाली वार्ता प्रणयिनी कोयल पुलकित हो उठी हो ||४||
जस्स घरं तिजगं विडलं । होही तण ओ तित्थयैरो ।
धत्ता - तं णिसुणिवि सुंदरि सरमहिहरदरि रोमंचिय पुलएण हि । महुसमहु वत्तइ पोसियसोत्तइ पणइणि पियमाहविय जिई ||४||
५
चितियं चितणिज्जं मेणे भावियं । जक्ख होही सुसेणासईणंदणो । वासवित्ताइरिद्धीप वित्तीयरो | hot asoi पट्टणं । सव्वकालंघियं सव्वसोक्खावहं । कति कित्ती दिही लच्छि बुद्धी हिरी । मम्मट्टी का राइणो पंगणे । पंचमे रिक्खए अट्टमवासरे । 'पुज्जगेव ज्जदेवो समोइण्णओ । वारिबिंदु राईविणीपत्तए ।
देवदेवेण मयापि बंदिया | दोस संखे हि पक्खेहिं णिव्वत्तिया ।
५
उस अवसरपर ने चिन्तनीय कर्म की अपने मनमें चिन्ता और भावना की और यह धर्मकार्य यक्षसे कहा - 'हे यक्ष, श्रावस्तीके राजाके घर में जिन भगवान् सती सुषेणाके पुत्र होंगे, तुम वहाँ जाओ और सन्तोष उत्पन्न करनेवाली गृह-द्रव्य आदि मनोहर ऋद्धियाँ उत्पन्न करो ।' इस प्रकार आकाश के राजा ( इन्द्र ) की आज्ञा से कुबेरने रत्नोंकी वृष्टि और नगर की रचना वह नगर स्वर्णनिर्मित घरों और सूर्यकान्त मणियोंकी प्रभासे युक्त था । उसमें सब कालके वृक्ष थे और वह सर्व प्रकार के सुखोंका घर था। शीघ्र ही गर्भ संशोधन करनेवाली देवियाँ, कान्ति-कीर्तिधृति-लक्ष्मी बुद्धि और हो, इन्द्रकी आज्ञासे वहां आयीं। जब छह माह शेष रह गये तब सम्पत्तियों से
1
लिगित राजा के आंगन में स्वर्णवृष्टि हुई। फागुन माह के शुक्ल पक्षमें अष्टमीको पाँचवें मृगशिरा नक्षत्र में गजका आकार धारण करनेवाला, सुखसे उन्नत पूर्वग्रैवेयकका देव अवतीर्ण हुआ और शुद्ध धातुवाले नारीरूपमें इस प्रकार स्थित हो गया मानो कमलिनी पत्रपर जलकण हो । जिनेन्द्रकी शोभासे आनन्दित होनेवाले माता-पिता की देवदेवने वन्दना की। फिर नौ महोने तक प्रति
६. A विय; Pपियं । ७. P तिहरी । ८P जह |
५. १. A मणे जाणियं; P कज्जयं जाणियं । २. AP मावड्ढणं । ३ A सूरयंतं पहं । ४. A सोहणत्ये इरी and gloss इरी त्वरिता; I इ दूरी; PK सिरी । ५. P कित्ति कंती | ६. P पुग्वगेवजं ।
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-४० ६.४ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
दीहरी माणं खणेणं खणं जित्तसत्तू सुए कम्मणिमुक्कए कत्ति पुण्णमासी भे पंचमे तउतइया तिणाणी समुप्पण्णओ आइया भावणा जोइसा विंतरा अंकुस भामिओ देहभाधारिणा चमाणा परे गायमाणा परे 'सट्टहासा परे गजमाणा परे छाइयासारसा सारसा सासुरा
कोडिलक्खा गया तीस जइया घणं । पंत्तिए बीर्यतित्थंकरे दुक्कए । सोमेजोए दुजोयावलीणिग्गमे । इंदु इंदोरवी कंपिओ पण्णओ । सायरा भासुरा कप्पवासी सुरा ! चोदओ वारणो झत्ति जंभारिणा । धावमाना परे खेलमाणा ३ परे । सीहसद्दा परे संखसद्दा परे । "चित्तचारेहिं पत्तेहि पत्ता सुरा ।
५
धत्ता - पुरु परियं चेष्पिणु घरु जाएप्पिणु जणणिहि देष्पिणु सिसु अवरु || पियर पुज्जेपिणु कर मउलेप्पिणु लइउ सुरिंदें तित्थयरु ||५||
६
१४
जिणरुवरिद्धि पेच्छंतियइ तक्खणि तारायणु लंघियउ पविलोइय पंडुर पंडुसिले ताहि सईइ सई धारियउ
सुरवरपंतिइ गच्छंतियइ | सुरसिहरिसिहरु आसंघियउ । सा खंड संकसमाण किलें । करिकंधराउ उत्तारियउ ।
४७
१५
२०
दिन रत्नवृष्टि की गयी । फिर बितशत्रुके पुत्र दूसरे तीर्थंकर ( अजितनाथ ) के कर्मसे निवृत्त होनेसे लेकर दीर्घ समुद्र प्रमाण तो करोड़ वर्ष समय बीतनेवर कार्तिक शुक्ला पूर्णमासीके दिन मृगशिरा नक्षत्र में दुर्योगावली से रहित सौम्ययोग में तीन ज्ञानधारी संम्भवनाथका जन्म हुआ । इन्द्र, इन्दु, सूर्य और नागराज कांप उठे । भवनवासो व्यन्तर, ज्योतिषदेव और भास्वर कल्पवासी देव आदरपूर्वक आये । शरीरकी कान्तिके धारक इन्द्रने अपना अंकुश घुमाया और शीघ्र अपने हाथीको प्रेरित किया। कोई नाच रहे थे, कोई गा रहे थे, कोई दौड़ रहे थे, कोई खेल रहे थे। कोई अट्टहास कर रहे थे, कोई गरज रहे थे। कोई सिंहगर्जना कर रहे थे। कोई शंख बजा रहा था । देवोंसे पृथ्वी और आकाश छा गये । उत्कृष्ट लक्ष्मीसे युक्त देवोंके साथ देव नाना प्रकारकी प्रवृत्तिवाले वाहनोंके साथ आये ।
け
पत्ता - नगरको परिक्रमा कर घर जाकर, माताको दूसरा पुत्र देकर माता-पिताकी पूजा कर और हाथ जोड़कर जिनेन्द्र भगवान्को ले लिया गया ||५||
६
जिनेन्द्रकी रूपऋद्धि देखतो हुई, देवताओंकी कतार जाती हुई, शीघ्र तारागणों को लांघती हुई सुमेरुपर्वत के शिखर पर पहुँचो । वहाँ सफेद पाण्डुक शिला देखी जो चन्द्रमाके खण्ड के समान थी । वहाँ उसने इन्द्राणीके साथ उन्हें उठा लिया और हाथीके कन्धेसे उन्हें उतारा। प्रभुको
७. AP पत्तए । ८. A बोइ तित्यंकरे । ९. A सोम्मजोर । १०. A इंदु इंदो रई कि पि उप्पण्णओ; ११. A देहभावारिणो; । देहसाधारिणा । १२. A P सहसु लक्खणहं वसु अहिय संपुष्णो । जंभारिणो । १३. AP खेल्लमाणा । १४. A सहसा । १५. P संखसद्दा परे पडहसद्दा परे । १६. A चित्तधारेहि; P चित्तयारेहि ।
६. १. AP पंडुमिला। २. AP किला ।
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४८
५
१०
हरिआणि पहु वइसारियउ दिण्णलं दग्भासणु हियम लु दसदिसु सुँधूवु उच्चाइयउ दस दिसु थियै सुरवर कलसकर खीरोयखीरधाराधरहिं हारावलित डिफुरिएहिं किह
महापुराण
हरिणा परमेट्ठि पसाहियड सिहिणा तहु दीव बोहियउ fiories five refre जडबईणा जडमणु परिहरिउ वारण भडारड विज्जियउ इसाई भणिवि विउ सूरेण वि मोहंधारहरु
इंदे मंतु उच्चारियउ | दसदिसु परिधित्तु सँकुसुमजलु । दस दिसु चरुभाउ णिवेइयउ । दस दिसु वित्थरिय मुइंगसर । सिंचित जिनिंदु सलामरहिं । गज्जतिहिं मेहहिं मेरु जिह |
घत्ता -
- मंगलु गायंतिहि पुरउ णडंतिहिं दावियबहुरसभावहिं । णाणाविभासँह थोत्तसहासहिं जगगुरु संथुङ देवहि ||६||
थुइगिराहि आराहियउ । जडं जंपइ हउं पई साहियउ । विणण णएण जि संचरिउ । परमप्पड णियहियवइ धरिउ । रसें रयणहिं पुजियउ ।
3
"सुसुहासूएं सुहाहि हविउ । सूरु जि णिज्झाइड परमपरु |
[ ४०.६.५०
सिंहासन पर बैठाया । इन्द्रने मन्त्रका उच्चारण किया । दर्भासन रखा, और दसों दिशाओं में मलका नाश करनेवाला कुसुमोंसे सुवासित जल फेंका। दसों दिशाओं में धूपका क्षेपण किया, दसों दिशाओं में चरुभाग निवेदित किया गया। हाथमें कलश लिये हुए देव दसों दिशाओं में खड़े हो गये । मृदंगका स्वर दसों दिशाओं में फैल गया । क्षीरसमुद्रके क्षोरकी धाराओं को धारण करनेवाले समस्त देवोंने जिनेन्द्रका इस प्रकार अभिषेक किया, जैसे हारावलीके समान बिजली से भास्वर गरजते हुए मेघों द्वारा सुमेरु पर्वतका अभिषेक किया गया हो ।
घत्ता - मंगलगान करते हुए, सामने नृत्य करते हुए, अनेक रसभावोंका प्रदर्शन करते हुए, देवोंने अनेक प्रकारकी भाषाओंवाले हजारों स्तोत्रोंसे विश्वगुरु की स्तुति की ||६||
67
देवेन्द्र परमेष्ठको अलंकृत किया। पवित्र स्तुतियोंको वाणोसे उनको आराधना की । आग द्वारा उनका दीप प्रज्वलित किया गया। यम कहता है कि मैं तुम्हारे द्वारा जीत लिया गया हूँ । नैऋत्यदेव अपने रीछके वाहनसे उतर पड़ा। वह विनय और नयके साथ चला। जड़वादी (वरुण) ने जड़बुद्धि छोड़ दी। उसने परमात्माको अपने हृदय में धारण कर लिया। वायु ने आदरणीय पर पंखा झला, रत्नेशने रत्नोंसे उनकी पूजा की। ईशानने ईश कहकर नमन किया । चन्द्रमाने अमृत से स्नान करवाया। सूर्यने भो मोहान्धकारका नाश करनेवाले शूरवीर जिनका
३. P सुकुसुम । ४. A दसदिस सुधूमु; P दसदि सुषमुच्व । ५. AP सुरवर थिय । ६. A ● भाव; Pभावेहि । ७. A णाणा विहभासिहि; P णाणाविहिभासे हि ।
७. १. P सह । २. AP जडवयणा । ३. A ससुहासूई; P सुसुहासूई ।
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-४०. ८. १२ ]
महाविदन्तविरचित
पत्थर महुं देव तुहुं जि सरणु । संभवु संभव सहयउ ।
धरणिंदें धरणिसमुद्धरणु बहुविवाह बंदिय
घत्ता - पुणु पुणु पणवेष्पिणु घरु ओणेपिणु दिण्णु सुसेणासुंदरिहि ॥ गुरुचरण चिकिउ संचिवि गड सुरवइ सुरवरपुरिहि ||७||
८
कणयच्छवि सुडु सलक्खणड अंगड लायण्णमेहिड्डिय जसु आयत्तउ सयमेव विहि जसु अंगि लोहिउं गणम दुद्ध जसु गुणपरिमाणु णेय लहंवि अच्छरणरमणंदणहु कीत अमरवरेहिं सहुं घरघडियारयदंडेण हय पइरत्तउ पेच्छेिवि तरुणियणु उपणु नृवँइकुमारिगणु
जहिं दीसइ तहिं जि सुहावणउ । चचावसयाई पवडियउ । सो किं वणिज्जइ रुवणिहि । सो खमवंत किं किर भणमि । सो सूहउ हउं किरे किं कवि । हुत्थु सुसेणाणंदणहु । भुंजत रायकुमार हुँ । goat पण्णा हलक्ख गय । आलु आयत व पुणु । पारंभिक राहु परिणयणु ।
घत्ता - तूरहिं वज्र्जतहिं गलगजंतहिं तियसेहिं किं ण विसंदृ महि ॥ जिणाहु हवं तिहिं वारि वहतिहिं किं जाणहुं सोसिउ उवहि ||८||
४९
१०
५
१०
ध्यान किया । धरणेन्द्रने प्रार्थना की- "हे धरतीका उद्धार करनेवाले देव, आप ही मेरे लिए शरण हैं ।" इस प्रकार देवोंने उनकी वन्दना की ओर निश्चित रूपसे 'सम्भव - सम्भव' शब्दका उच्चारण किया ।
धत्ता - बार-बार प्रणाम कर और घर आकर ( उन्होंने ) सुन्दरी सुषेणाको बालक दे दिया । गुरुके चरणोंकी वन्दना कर और पुण्यका संचय कर इन्द्र अपने स्वर्ग चला गया ||७||
८
स्वर्ण रंगवाले और लक्षणोंसे युक्त वह जहाँ दिखाई देते वहीं सुन्दर लगते । लावण्य और ऋद्धियोंसे सम्पन्न उनका शरीर चार सौ धनुष ऊंचा था। जिसके अधीन स्वयं विधाता हैं, उस रूपनिधिका क्या वर्णन किया जाये ? जिसके शरीर में मैं रक्तको दूध गिनता हूँ, उनको में क्षमावान् किस प्रकार कहूँ ? मैं जिसके गुणोंके परिमाणको नहीं पा सकता, उन्हें मैं सुभग किस प्रकार कहूँ ? अप्सराओं, मनुष्यों और स्त्रियोंको आनन्दित करनेवाले, सुषेणादेवीके पुत्र ( सम्भव ) के देवों के साथ क्रीड़ा करते हुए, और राजकुमारका सुख भोगते हुए, घरकी घड़ीके दण्डसे आहत पन्द्रह लाख पूर्व वर्ष निकल गये । पतिमें अनुरक्त युवतीजनको देखकर, इन्द्र दुबारा आया । राजाओंकी कन्याओं का समूह देकर उनका विवाह प्रारम्भ किया गया ।
घत्ता - बजते हुए तूर्यो, गरजते हुए देवेन्द्रसे क्या धरती उल्लासित नहीं हुई? जिननाथका अभिषेक करते और पानी बहाते हुए क्या जानें कि समुद्र सूख गया ||८||
४. A ध. व संभव संभउ; P धुउ संभउ संभउ । ५. A आवेष्पिणु ।
८. १. AP महढियउ । २. A कि किर । ३. A रामावंदगहु । ४. A ता तेत्थु । ५. AP पेक्खिवि । ६. T उवणेविणु । ७. AP णाहहु । ९. P विसड़ढ |
७
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महापुराण
[ ४०.९.१
भालयलइ पट्ट' चडावियत रायासणि राठ चडावियउ । चितंतहु तासु णयाणयई पालंतहु गामणयरसयई। पुव्वहं परमाउहि संचलिय चालीस चयारि लक्ख गलिय । तइयहं तहिं दियहि सुसोहणइ अच्छतहु सुहं सणिहेलणइ। अवलोइवि गयणि विलीणु घणु थिउ महिगयणयणु विसण्णमणु । वेरग्गु पहूय जिणवरहु
हरि सजव विणेति ण सिवपुरहु । गय मत्ता महुँ वि जणंति मउ पहु रह रहंति मुणिधम्ममउ । चामरवाएं नृवु मोडियउ भणु कवणु ण काले तोडियउ । सिरि धरियइं वारिणिवारणई पुणु होंति ण मारिणिवारणई। तहि अवसरि लोयंतिय अइय ते विण्णवंति भत्तिइ लइय ।। जं इंदियसोक्खु समुझियउं तं चार चारु पई बुझियउं । घत्ता-जो पई संबोहइ सो संबोहइ सूरहु दीवउ मूढमइ ।
पई मुइवि गुंणुब्भव सामिय संभव को परियाणइ परमगइ ।।९।।
आणंदु ण हियवइ माइयउ पुणु परिबुड्ढहिं देवावलिहिं थिरदीहरहत्थगलत्थियहि
पुणु तेत्थु पुरंदरु आइयउ। आहूय दुद्धसलिलावलिहिं । चामीयरघडपल्हत्थियहिं ।
उनके भालतलपर पट्ट बाँध दिया गया और राज्यासन पर राजाको बैठा दिया गया। न्याय-अन्यायको चिन्ता करते और सैकड़ों ग्राम-नगरोंका पालन करते हुए, उनकी परमायुके चालीस लाख पूर्व वर्ष और बीत गये । एक दिन, तब, अपने सुन्दर प्रासादमें सुखसे बैठे हुए उन्होंने आकाश में लुप्त होते हुए मेघको देखा। वह धरतीमें आंखें गड़ाकर उदासमन हो गया। जिनवरको अत्यन्त वैराग्य हो गया। (वे सोचते हैं ) कि तेजसे तेज वेगवाले भी अश्व शिवपुर नहीं ले जा सकते। मदवाले गज भी मुझमें मद उत्पन्न नहीं करते, रथ मुनिधर्ममय पथका अवरोध करनेवाले होते हैं, चामरोंकी हवासे राजा मोड़ दिया जाता है, बताओ संसारमें कालसे कौन नहीं तोड़ दिया जाता। सिरपर धारण किये गये छत्र, फिर मृत्युका निवारण करनेवाले नहीं होते। उस अवसरपर लोकान्तिक देव आये, उन्होंने भकिके साथ निवेदन किया, "जो आपने इन्द्रिय-सुखोंका त्याग किया है, वह आपने अच्छा किया।
धत्ता-जो आपको सम्बोधित करता है, वह मूढ़मति दीपक, सूर्यको सम्बोधित करता है ? हे गुणसम्भव स्वामी, आपको छोड़कर और कोन परमगति को जान सकता है ?" ||९||
१.
जिसके हृदयमें आनन्द नहीं समा सका ऐसा इन्द्र फिर आया। पुनः दूध और जलोंकी (कलश पंक्तियाँ ) लानेवाली बढ़ती हुई देवपंक्तियोंने अपने लम्बे स्थिर हाथोंसे गिरती हुई स्वर्ण९. १. P पट्ट । २. A णयरगामसयई । ३. A दिवसि । ४. AP सहुं । ५. A पहूवउं । ६. AP णित् ।
७. AP गुणण्णव । १०. १. AP परितुट्टिहिं । २. A आहूउ ।
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-४०. ११. ३ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
संविउ विउ पोमाइयउ दुम्मो मुप्पि रज्जैहु परमेसरु पणइणिपाणपिउ बहुखगमाणियफलसाडय परिसेसेप्पिणु सिरिणिवर उप्पाfee denote किह सकुसुम सभसलु सु करिवि करि कि सेस सायणिक्खवणु बवासु करेष्पिणु सावसरि सावत्थिहि वरियामग्गु किउ
वत्थालंकारविराइयउ | सिद्धत्थय सिविया पहु । णरखयरहिं तियसहिं वहिवि णिउ । दवणु गंपि सहे उडं । पणवेपणु देव सिद्धगुरु । भवकुरुई मूलप भारु जिह । सइरमर्णे वित्त मयरहरि | "रायहं सहसे सहुं णिक्खवणु । Dates दिण दिrयरकर पेसेरि । "" देविददत्तणिवभवणि थिउ ।
घत्ता-सुररबु मंदाणिलु घणैर्वैरिसियजल सुरहिउ मणिको डिहिं सहिउ ॥ दायार पुज्जिउ दुंदुहि वज्जिउ दाणपुण्णु" देवहिं महिउं ||१०||
११
ते
कडु चिउ
जं संजमजोग्गर बुज्झिय उं तं भुंजइ सवीरोयणउं
trong or faणम्मविउ । दहिसप्पखीर तेल्लुज्झियउं । डिसेहियद कोयणउं ।
५१
५
१५
कलशों की कतारोंसे भगवान् को स्नान कराया, और वस्त्रालंकारोंसे अलंकृत कर उनकी स्तुति की । दुर्मोहको उत्पन्न करनेवाले राजरूपी ग्रहको छोड़कर सिद्धार्थं नामक शिविकामें बैठकर प्रणयिनियोंके प्राणप्रिय परमेश्वर मनुष्य, विद्याधरों और देवोंके द्वारा ले जाये गये। जिसके फलोंका स्वाद अनेक पक्षियोंके द्वारा मान्य है, ऐसे सहेतुक नन्दनवनमें जाकर देवने लक्ष्मी और स्त्रियोंका अपने चित्तमें त्यागकर तथा सिद्धगुरुको प्रणाम कर अपने केश इस प्रकार उखाड़ लिये मानो संसाररूपी वृक्षकी जड़ोंको ही उखाड़ दिया हो। पुष्पों और भ्रमरों सहित उन्हें अपने हाथमें लेकर शचीरमण ( इन्द्र ) ने क्षीरसमुद्र में फेंक दिया। उन्होंने क्रोध और प्रसादका संयम कर लिया और एक हजार राजाओंके साथ संन्यास ग्रहण कर लिया । उपवास कर पारणा बेलामें, दूसरे दिन, सूर्यको किरणोंका प्रसार होनेपर वह चर्याके लिए श्रावस्ती में गये और इन्द्रदत्त राजाके घर में ठहरे ।
घत्ता — देवशब्द, मन्दपवन, सुरभित मेघोंसे बरसा हुआ जल, हुई। नगाड़े बजे और देवोंने दान पुण्यका सम्मान किया || १० ||
रत्नोंके साथ दातारकी पूजा
११
(आहार) देते हुए उसने संकटको चिन्ता नहीं की, जो कि किसी दूसरेके निमित्तसे बनाया गया था, और मुनिके लिए उपयुक्त समझा गया था। दही, घी, खीर और तेलसे रहित था,
८. A रमणिय६ ।
३. A सो हविउ । ४. A दुम्मोह । ५. P रज्जु गहु । ६. P णरखेयारतियसहि । ७. Padds after this: आगहणमासि सियकुहुयदिणि, सिलउवरि णिहिउ उद्दयइणि । १०. A रोसकसायहं । ९. A ११. AP रायहंससहसें । १३. P देवेंदुतं । १४. A वरयिं । १५. AP गज्जिउ । १६. A दाणवंतु ११. १. A चितिय । २. A दुक्खुक्कोहणउं ।
मूल पब्भारु ।
।
o
१२. A परि ।
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महापुराण
[४०.११.गहणंति कहिं वि अहणिसु गमइ जंपइ ण किं पि सं संसमइ । विहरइ मणपज्जवणाणधरु विसमें जिणकप्पें जिणपवरु । तउ एंव करतहु झीणाई
चउदहवरिसई वोलीणाई। कत्तियसियपक्खि चउत्थिदिणि अवरण्हि जम्मरिक्खि वियणि । छटेणुववासें णिट्ठियहु
सुविसालसालतलि संठियहु । गइ पढमि बीइ सुक्कुग्गमणि चउकम्मकुलक्खयसंकमणि । उप्पण्णउं केवलु केवलिहि गयणोवडतकुसुमंजलिहि ॥ घत्ता-तहु जाएं णाणे णेयपमाणे जे केण वि णे वि चिंतविय ॥
ते विवरि अहीसर महिहि महीसर सग्गि सुरिंदवि कंपविय ॥११॥
१०
१२
खगामिणा ससामिणा। समेयया
अमेयया। अमाहरा
रमाहरा। मलासयं
णियासयं । कुणतया
थुर्णतया। मुणीसरं
सरो सरं। ण संधए
ण विंधए। ण जम्मि सा मलीमसा। ৰছি ।
कया विहा। महाजसं
तमेरिसं। महाइया
पराइया। ऐसा, दर्पकी उत्कण्ठाओंका निषेध करनेवाली कांजीके साथ भातको उन्होंने खा लिया। गहन वन में वह कहीं भ्रमण करते हैं, वह कुछ भी नहीं बोलते, आत्माका उपशमन करते हैं, मनःपर्यय ज्ञानके धारी वह जिनप्रवर विषम जिनकल्पमें भ्रमण करते हैं। इस प्रकार तप करते हुए उनके चौदह वर्ष बीत गये। तब कार्तिक शुक्ला चतुर्थीके दिन, जन्मकालीन मृगशिरा नक्षत्रमें अपराह्न के समय, छठे उपवासके साथ, एक विशाल शाल वृक्षके नीचे बैठे हुए, प्रथम गति के बीतने तथा शुक्लध्यान उत्पन्न होनेपर, चार घातिया कर्मोके कुलका क्षय कर लेनेपर, जिनके ऊपर आकाशमें कुसुम-वृष्टि हो रही है ऐसे उन केवलीके लिए केवलज्ञान उत्पन्न हो गया।
घत्ता-जिसका किसी से विचार नहीं किया जा सकता ऐसे ज्ञेय प्रमाण ज्ञान (केवलज्ञान) के होने पर, पाताल लोकके नागेश्वर, धरतीके राजा और स्वर्गके देवेन्द्र भी कम्पित हो उठे ॥11॥
___ अपने स्वामीके साथ विद्याधर प्रचुर संख्यामें इकट्ठे हुए। अलक्ष्मीका नाश करनेवाले लक्ष्मीके धारक, अपने चित्तको मलरहित करते हुए तथा जिनपर कामदेव न तो बाणका सन्धान करता है, और न बेधता है, ऐसे मुनीश्वरकी स्तुति करते हुए, और जिन मुनीश्वरमें मलिन रति-कामनाका अन्त कर दिया गया है, महायशवाले ऐसे मुनीश्वरके पास, वे महा
३. A सं सम्ममइ । ४. A ण वि चितिय; Pण वि चितविया । ५. वि कंपिय; P वि कंपविया । १२. १. P रईछिहा।
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-४०. १२.३५ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
समासुरा सिमुग्गया रसुद्धरा सुसाइया सुवत्तया रसंकिया सरूवया सुगंधया सकारणा ससंभवा ससंगया रयास याणिही अहंगया ण ते णया सरायया खयं गया सइंदिया णिविंदियाँ पसाहिओ कुकम्मरं कहति जे गगेसु या पढंतु मा
सुरासुरा। समुग्गया। इमी गिरा। अणाइया। अवत्तया। रसुज्झियो। अरूवया। अगंधया। अकारणा। असंभवा। असंगया। पुणो णवं । तवोविही। अहं गया। वरायया। समायया। महादिया। अणिंदिया। णिवं दिया। पबोदिओ। सुयंतरं। कुबुद्धि ते । पुरीसें या। ण ताण मा।
३५
आदरणीय सुन्दर सुर और असुर आये। उनके मुखसे सभी दिशाओंमें व्याप्त होनेवाली रससे परिपूर्ण यह वाणी निकली-"आप पर्यायको अपेक्षा आदि हैं, और द्रव्यको अपेक्षा अनादि । आप अत्यन्त व्यक्त हैं और अव्यक्त हैं, आप रससे युक्त हैं, और रससे रहित हैं, आप स्वरूपवान् हैं और अरूप हैं, आप गन्धयुक्त हैं और गन्धहीन हैं, आप कारणसहित हैं और अकारण हैं। आप संसारसहित हैं और संसारसे रहित हैं, ज्ञानसे युक्त होकर भी परिग्रहसे रहित हैं, कर्मोका आश्रव होनेपर भी आप नये हैं। आप दयाकी निधि और तपका विधान करनेवाले हैं। भंगसे रहित हे देव, जो बेचारे देव आपको वमन नहीं करते वे नरकको प्राप्त होते हैं। रागसहित दूसरोंको ठगनेवाले ( मायावी कपटी) महाद्विज क्षयको प्राप्त होते हैं। द्रव्येन्द्रियोंसे सहित, भावेन्द्रियोंसे रहित, मनुष्योंसे वंचित जो कुकर्मोंका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रान्तरोंको कहते हैं वे खोटी बुद्धिवाले होते हैं । जो पहाड़ोंमें और नगरियोंमें उन्हें पढ़ते हैं ( शास्त्रोंको पढ़ते हैं ) उन ब्राह्मणों
२. P adds after this: सतच्चया, अतच्चया। ३. AP सगंधया । ४. P दयामही । ५. PA णिवंदिया । ६. A oniits this foot । ७. P कुकम्मदं। ८. APणएसु वा । ९. P पुरेसु वा । १०.A पढंत मा।
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महापुराण
[४०.१२.३६
सुसासया
णिरंसया। सुणीरए
तुहारए। अदुण्णए
बुहा मए। कउज्जमा
महाखमा। चरति जे
लहंति ते। महंगई
परंगई। सुहं गया
हयावया। णिरामया
सरामया। णिरंजणा
णमो जिणा। पत्ता-कयमाणवखंभहिं सारसरंभहिं वेल्लीदुर्भमणिवेइयहिं ॥
वरधूलीसालहिं णचणसालहिं गोउरथूहहिं चेइयहिं ॥१२।।
१३
जहिं समवसरणु सुरणिम्मविउं गुरु कंठीरवविट्ठरु ठविउं । जहिं सुविहावलउं विलंबिकर अलिचुंबियफुल्लु असोयतरु । जहि णहणिवडिउँ पसूयपयाँ आहंडलडिंडिमु मुयह सरु। जहिं छत्तई तिण्णि समुब्भियई विविहई चिंधई चमरई सियई। जक्खिदमउंडसिहरुद्धरित जहिं धम्मचक्कु आराफुरिउ । जहिं वंति गंति णचंति सुर विभयरसपरवस थक्क गरे ।
तहिं संणिसण्णु सो परममुणि मुणिवयणविणिग्गंड दिव्वझुणि । को शाश्वत और अंशरहित अर्थात् सम्पूर्ण लक्ष्मी नहीं प्राप्त होती। जो लोग तुम्हारे अत्यन्त पवित्र, दुर्नयोंसे रहित मार्गमें चलते हैं, उद्यम करनेवाले अत्यन्त क्षमाशील वे अपनी आपत्तियोंका नाश कर परमगति और सुखको प्राप्त होते हैं। जो निरामय हैं, कामदेवके रोगसे रहित ऐसे निरंजन जिनको प्रणाम करता हूँ।"
पत्ता-बनाये गये मानस्तम्भों, सारसयुक्त जलों, लताद्रुम और मणिमय वेदिकाओं, श्रेष्ठ धूलिप्राकारों, नृत्यशालाओं, गोपुर-समूहों और चैत्योंसे सहित-॥१२॥
जहां देवनिर्मित समवशरण था। उसमें विशाल सिंहासन रखा हुआ था। जहां कान्तिसे सहित, प्रसरित किरणोंवाला, भ्रमरोंसे चुम्बित पुष्पवाला अशोक वृक्ष था, जहां आकाशसे पुष्प समूह गिर रहा था । इन्द्रका नगाड़ा डिम-डिम वाद्य बजा रहा था। जहां तीन छत्र उत्पन्न हुए थे, विविध ध्वजचिह्न और चमर भी। जहां यक्षेन्द्रके मुकुटशिखरपर उद्धृत और आशाओंसे विस्फुरित धर्मचक्र था। जहां देवता गाते-बजाते नाच रहे थे। विस्मय रससे भरे हुए लोक स्थिर रह गये। ऐसे उस समवसरणमें वह परममुनि विराजमान थे। मुनिवरके मुखसे दिव्यध्वनि
११. A सुसंसया । १२. APT महुण्णई । १३. A माणवहरखंभहि; Komits कय । १४. P वल्ली। १३. १. A विट्ठर। २. AP फुल्ल । ३. णिवडिय । ४. AP°पवरु। ५. A°म उल। ६. AP सुरा ।
७. A विभिय । ८. AP णरा । ९. P "विणिग्गय ।
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•४०. १४.११]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित झुणि साहइ जणजम्मंतरइं झुणि साहइ भूभुवणंतरई। झुणि साहइ मणुयदेवसुहई झुणि साहइणरतिरियदुहई । झुणि साहइ जीवरासिकुअई झुणि साहइ बंधमोक्खफलई। घत्ता-झुणि सुणिवि पबुद्धहं जाइविसुद्धहं णिग्गंथहं मउलियकरहं ।
जायउ गयगामिहि संभवसामिहि पंचुत्तरु सउ गणहरहं ॥१३॥
तहिं चारुसेणु पहिला भणिवि पुणु गणमुणि मेल्लिवि मुणि गणेवि । दोसहसई अवरु दिवड्दु सउ पुव्वंगंधरहं थिउ जिणिवि मउ । सयतिउ सलक्खु सिक्खुयमइहिं एक्कूणतीससहसई जइहिं । परमोहिणाणधारिहिं मियई छहसयई रंधसहसंकियई। पण्णारहसहसई केवलिहिं एक्कूणतीस पसमियकलिहिं । सहसाई रिसिंदहं वसुसयई वेउव्वणरिद्धिहिं कयवयई। सउ संड्दु सहासइं तवसमई मणपज्जवधरिहिं धरियसमई। सउ सयह समउ सयवीसइइ जइवाइहिं संख करवि मइई। जार्यई बम्मीसरदारोह
दुइलक्खई एंव भडाराह। लक्खाई तिण्णि रइवजियह दहगुणिय तिणि सहसज्जियह। १०
सावियह लक्ख पंच जि भणमि सावयह तिणि ते हउं''मुणमि । निकलती है। वह ध्वनि जो जन्म-जन्मान्तरका कथन करती है, वह ध्वनि जो भू और भुवनान्तरोंका कथन करती है, ध्वनि जो मनुज और देवोंके सुखोंका कथन करती है, ध्वनि जो नरक और तियंचोंके दुःखोंका कथन करती है, ध्वनि जो जीवकुलराशिका कथन करती है, ध्वनि जो बन्ध और मोक्षफलोंका कथन करती है।
___घत्ता-ध्वनि सुनकर प्रबुद्ध हुए जातिसे शुद्ध निर्ग्रन्थ हाथ जोड़े हुए एक सो पांच गणधर गजगतिसे गमन करनेवाले सम्भव स्वामोके गणधर हुए ॥१३॥
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उनमें चारुसेनको पहला कहकर, फिर गणप्रमुखको छोड़कर मुनियोंको गिनाता हूँ। दो हजार एक सो पचास मदको जीतनेवाले पूर्वधारी थे। एक लाख उनतीस हजार तीन सौ शिक्षामतिवाले शिक्षक मुनि थे। नौ हजार छह सौ परम अवधिज्ञानके धारी थे। पन्द्रह हजार केवलज्ञानी थे। पापको नष्ट करनेवाले उन्नीस हजार आठ सौ विक्रिया ऋद्धिके धारक मुनि थे। बारह हजार एक सौ पचास शान्तिको धारण करनेवाले मनःपर्ययज्ञानी उनको सभामें थे। वादी मुनियोंको संख्या में बारह हजार कहता हूँ। इस प्रकार कामदेवको जीतनेवाले आदरणीय दो लाख मुनि थे। रतिसे रहित तीन लाख तोस हजार आर्यिकाएं थीं। पांच लाख श्राविकाएं थीं, तीन लाख श्रावक थे। उनको मैं जानता हूँ।
१०. P भुवणु अणंतरई । ११. A गरयतिरिय । १४. १. P भणमि । २. A गणिवि । ३. A सिक्खुवं; P सिक्खयं । ४. AP सद्ध । ५. P सयवीमइहु ।
६. AP करमि संख । ७. P महहु । ८. A जाया । ९. A°दारयहं । १०. A भडारयहं । ११. AP मुणमि । १२. AP भणमि ।
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५६
५
१०
महापुराण
घत्ता
- अहणिसु कयसेवहं च विहदेवहं देविहिं संखण दीसइ || संखेजतिरिक्खहं इच्छियसोक्खहं धम्मु अधम्भु' वि भासइ ||१४||
मह विहरिवि भवियतिमिरु लुहिवि तर्हि दोणि पक्ख तणुचाउ किउ traft ofग्गfa yoवहं तणउं बद्धाहिं पुन्वहं विताई
मासम्म पहिलइ पक्खि सिइ णियजम्मरिक्खि संभाइयउ छेtल्लs सुकझाणु धरिवि पुग्गल परिणामहु णवणवहु ठि अट्टमपुर्हहि अट्ठगुणु सुरमुक्ककुसुमरयमहमहिउ as वीयरायरायडु ललिउ
लोएहिं पवित्त पावरहिय
[ ४०. १४. १२
१५
मेहु सिहरु समारुहबि । रिसिह सहुं षडिमाइ थिउ । चोरिणउं लक्खु गउ । लक्खाई सहि अणुहुत्ताई । छट्ठइ दिणि मज्झण्हइ ल्हसिइ । अवि घाइचक्कु विघाइयउ । किरियाविच्छित्ति झत्ति करिवि । TB मुक्कड संभवु संभवहु । महुं पसियउ णिक्कलु णाणतणु । Craft धधू महिउ । affitosमणिसि हिजलिउ । अहं भूइ सीसें गहिय ।
घत्ता - दिन-रात सेवा करनेवाले देवों और देवियोंकी संख्या दिखाई नहीं देती । सुखको चाहनेवाले उसमें संख्यात तिथंच थे। वह धर्म-अधर्मका कथन करते हैं ||१४||
१५
धरतीपर विहार कर, भव्य लोगोंके अन्धकारको दूर कर सम्मेदशिखर पर्वतपर आरूढ़ होकर उन्होंने वहीं दो पक्ष तकके लिए एक हजार मुनियोंके साथ प्रतिमायोग धारण कर लिया । दीक्षा समय से लेकर चौदह वर्ष कम एक लाख पूर्व वर्ष बीतनेपर अपनी बँधी हुई आयुके साठ लाख पूर्व वर्ष भोगकर छोड़ दिये। चैत्र माह के शुक्लपक्षको छठोके दिन मध्याह्न होनेपर अपने जन्मनक्षत्र में सम्भावित चार घातिया कर्मोंका नाश कर दिया । छेदक शुक्लध्यान धारण कर, शीघ्र सूक्ष्म क्रिया विप्रतिपत्ति कर, उत्पन्न होनेवाले नये-नये पुद्गल परमाणुओंसे मुक्त होकर सम्भवनाथ मोक्ष चले गये । आठ गुणोंसे युक्त वह, आठवीं भूमि ( सिद्ध शिला ) में जाकर स्थित हो गये । निष्पाप ज्ञानशरीर वह मुझपर प्रसन्न हों । देवोंके द्वारा मुक्त कुसुमांजलियों के परागसे महकते हुए, दीपों और धूपोंसे पूजित, वीतरागराजका सुन्दर शरीर, अग्नीन्द्रोंके द्वारा अपने मुकुटकी आगसे जला दिया गया। लोगोंने पवित्र, पाप रहित अहंतके शरीरकी भस्म अपने सिरपर ग्रहण की।
१२. AP अहम्मु वि हासइ ।
१५. १. A सिहरि । २. P रिसिसहसँ पडिमाजोएं ठिउ । ३. A चउदह; P बारह । ४ AP वित्ताइं । ५. AP अनुताई । ६. P इय घाई । ७. A परिमाणहु । ८. AP पुहविहि ।
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- ४०. १४. १४ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
बत्ता - जिणणिव्वाणुच्छवि सच्छरु सविहवि सुरवइ भरहु पणश्चि । गणियेघर रंग सिंगारंगहु पुष्पदंतणियरचिउ || १५ ||
इय महापुराणे विसट्टि महापुरिस गुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महामन्वमरहाणुमणिए महाकब्वे संभवणिग्वाणगमणं णाम चाकीसमो परिच्छेओ समत्तो ॥ ४० ॥
॥ संभवचरियं समत्तं ॥
धत्ता - जिन भगवान् के निर्वाण-उत्सव में, अप्सराओं और अपने वैभव के साथ कान्तिमान् इन्द्र खूब नाचा । फिर पुष्पदन्त (नक्षत्रों ) के समूहसे अर्चित वह श्रृंगारस्वरूप अपने घरकी रंगशाला के लिए चला गया ॥ १५॥
इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामध्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य में चालीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ ४० ॥
५७
९. P णियघरि रंगहु वज्जियभंगहु । १०. AP omit संभवचरियं समत्तं ।
८
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संधि ४१
अहिणंदणु इंदाणंदयरु णिदिदियई णिवारउ । वंदारयवंदेहि वंदियउ वंदिवि संतु भडारउ ॥ध्रुवक।।
असोक्खकंतारयं ण जं च कंतारयं जेणस्स सं गंगयं विइण्णमलभंगयं सुवण्णरुइरंगयं विहंसियणिरंगयं रयं परमघोरयं
हयभवोहकतारयं। ण्हवणयम्मि कं तारयं । कुणइ जस्स संग गयं । हुणइ वड्ढमाणं गयं । जसपउण्णभूरंगयं । जणियभावणारंगयं । असमसंपयावारयं।
सन्धि ४१ इन्द्रको आनन्द देनेवाले निन्दित इन्द्रियोंके द्वारा निवारित देवसमूहके द्वारा वन्दित सन्त भट्टारक अभिनन्दनकी मैं वन्दना करता हूँ।
जो दुखरूपी जलसे तारनेवाले और जन्मसमूहरूपी कान्तारको नष्ट करनेवाले हैं, जो स्वयं कान्तामें रत नहीं हैं, जिनके अभिषेककर्मका जल स्वच्छ है, गंगासे उत्पन्न और उनके शरीरसे प्राप्त जो जल लोगोंके लिए सुख उत्पन्न करता है। मलोंका घातक जो बढ़ते हुए रोगोंका नाश करनेवाला है, जिनके शरीरकी कान्ति स्वर्णके समान है, जिनके यशसे समस्त भूमिमण्डल परिपूर्ण है, जिन्होंने कामदेवको ध्वस्त कर दिया है, जिन्होंने सोलह कारण भावनाओंमें राग पैदा किया है, जो आत्मरत और परम अरोद्र हैं । जो क्रोधरूपी सम्पत्तिका निवारण करने.
Mss. A and P have the following stanza at the beginning of this Saindhi:
वरमकरोदपारतरविवरमहिकिरणेन्दुमण्डलं यदपि च जलषिवलयमधिलंध्य विधेस्तदनन्तरं दिशः । विगलितजलपयोदपटलद्यति कथमिदमन्यथा यशः
प्रसरदमादमल्लकदनाभारत भुवि भरत सांप्रतम् ॥१॥ A reads °किरणद्धिमण्डलं in the first; P reads विधिसूदनन्तरं दिशः। P rePeats the stanza at the beginning of XLVII. A gives it only here. K doee net give
it here or there. १. १. AP°विंदहिं । २. AP add जं before जणस्स । ३. AP हणइ ।
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-४१. २.७]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित सुजायमसरीरिणं
णिहणिऊणमसरीरिणं। जमीसममरच्चियं
गुणणिसेणियाहिं चियं । अहं समहिणंदणं
पणविऊण धीणंदणं। भणामि तव्ववसियं किर कह तिणा ववसियं वणे चडुलवाणरे
सुहयमाणिणीवाणरे । मुएउ मा णा सणं
सुणउ पावणिण्णासणं। इमं सुकियवासणं
लहउ सम्मईसासणं। घत्ता-जिंव सुयकेवलि जिंव तियसवइ जिंव पुणु थुणउ फणीसरु ॥
हउं णरु जीहासहसेण विणु किं वण्णवि परमेसरु ॥१॥
सालतालतालीदुमोहए
मेरुसिहरिपुवे विदेहए। संचरंति करिमयरसंतई वहइ गहिर सीया महाणई। तीई तीरि दाहिणइ पविउले चूयचारफलघुलियसंविउले । वारिवाधाराहि सित्तए मुग्गमासजववीहिछेत्तैए। छेत्तवालिणीसहसंगए
दिण्णकण्णसंठियकुरंगए। बेकरतबहुदुद्धगोहणे
वच्छमहिसवसहिंदसोहणे। सव्वधण्णछण्णे अणसरे
सरतरंत किंणरवहूसरे। वाले हैं, जो सुजात सिद्ध और दारिद्रयरूपी ऋणका नाश करनेवाले हैं, ईश्वर जो देवोंके द्वारा पूज्य हैं, जो गुणरूपी सीढ़ियोंसे समृद्ध हैं, ऐसे बुद्धिको बढ़ानेवाले अभिनन्दनको प्रणाम कर उनके व्यवसित (चरित ) को कहता हूँ कि जिसकी उन्होंने चेष्टा की। जिसमें चटुल वानर हैं, और जो सुन्दर मानिनियोंके लिए पीड़ाजनक है, ऐसे संसाररूपी वनमें मनुष्य शब्दको न कहे, (चुप रहे) तथा पापका नाश करनेवाले उस शब्दको ( कथान्तरको ) अवश्य सुने, जिसमें पुण्य ( सुकृत) की वर्षा है, तथा सन्मतिके शासनको प्राप्त करे।
पत्ता-जिस प्रकार श्रुतकेवली इन्द्र, और जिस प्रकार नागेश्वर स्तुति करता है, मैं मनुष्य, हजारों जीभोंके बिना परमेश्वरका वैसा वर्णन कैसे कर सकता हूँ? १॥
सुमेरुपर्वतके पूर्वमें शाल और ताल तथा ताली वृक्षोंके समूहसे युक्त विदेह क्षेत्रमें गजों और मगरोंको परम्परा जिसमें संचरण करती है, ऐसी गम्भीर सीता नदी बहती है। उसके विशाल दक्षिणी किनारेपर मंगलावती भूमिमण्डल ( देश ) है, जिसके आम्र और चार वृक्षोंपर विशाल पक्षिकुल आन्दोलित है, जो मेघकी धाराओंसे अभिषिक्त है। जिसमें मूंग, उड़द, जौ और धान्यके खेत हैं । जो क्षेत्रोंको रखानेवाली बालिकाओंके शब्दसे युक्त है, जिसमें हरिण कान दिये हुए बैठे हैं, अत्यधिक दूध देनेवाला गोधन जिसमें रंभा रहा है, जो बछड़ों, महिषों और वृषभेन्द्रोंसे शोभित है, जो सब प्रकारके धान्योंसे आच्छन्न और उपजाऊ है। जिसके सरोवरोंमें किन्नर वधुएँ
४. A मसिरीरणं । ५. P गुणिणिसेणि । ६. A चटुलवाणरे; P चवलवाणरे । ७. A जिण पुणु । २. १. A पुत्वविदेहए। २. A संचरंत । ३. A ताइ। ४. P पविउले । ५. A मुग्गमाह। ६
छत्तए । ७. A वेकरंतबहुबुद्ध; P बुक्करंत ।।
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महापुराण
[४१. २.८कंजपुंजरंजंतमहुलिहे
कयलिललियलवलीलयागिहे। णिसुयमहुरपियमाहवीसरे पहियहिययगयविसर्मसरसरे। 'उच्छवीलणुल्ललियरसजले मंगलावईभूमिमंडले। कोट्टेवटुलट्टालदुग्गमं
रुद्धकुद्धलुद्धारिसंगम । खोल्लखाइयावूढकोमलं
पंचवण्णकेलिल्लिचंचलं। मणिगणंसुमालाविरोहियं कूदीहियावाविसोहियं । कणयघडियघरपंतिपिंगलं णिञ्चमेव संगीयमंगलं। अमियरायरिद्धीपपवेट्टणं रयणसंचयं णाम पट्टणं । तत्थ वसइ राया महाबलो मुयबलि व धीरो महाबलो। जस्स लच्छिकता उरत्थले रमइ कित्तिरमणी महीयले । दीहकालमवियलमणोरह" मुंजिऊण रज रमासुहं ।"
किं कुणामि णिचं परासुहं हो मुयामि इणमो परासुहं । २० माणस दमेणं णियंतियं
एम तेण सहसा विचिंतियं । पत्ता-धणवालहु बालहु णियसुयहु विरइवि पट्टणिबंधणु ।।
सो पासि विमलवाहणजिणहु जायउ राउ तवोहणु ॥२॥ तैरती हैं, जहां कमलोंके समूहपर भ्रमर गुंजन कर रहे हैं, जिसमें कदलियों और लवली लताओंके सुन्दर लतागृह हैं, जिसमें कोयलोंके मधुर स्वर सुनाई दे रहे हैं, जहां पथिकोंके हृदय कामदेवके विषम तीरोंसे आहत हैं, जिसमें गन्नोंके पेरनेसे रसरूपी जल उछल रहा है। उसमें ( मंगलावती देशमें ) रत्नसंचय नामका नगर है, जो परकोटों और गोल-गोल अट्टालिकाओंसे दुर्गम है । जिसमें क्रुद्ध और लोभी शत्रुओंका समूह अवरुद्ध हैं, जो कोटरों और खाइयोंसे व्याप्त और कोमल है, जो पांच रंगोंकी पताकाओंसे चंचल है, जो मणिगणोंकी किरणमालाओंसे सुशोभित है, और कूप और दोघं वापिकाओंसे सुशोभित है, जो स्वर्णनिर्मित गृह पंक्तियोंसे पीला है, और जिसमें सदैव संगीत और मंगल होते रहते हैं, जिसमें अमित राज्यवैभव बढ़ रहा है। उसमें (रत्नसंचय नगरमें) राजा महाबल नामका राजा निवास करता था, जो बाहुबलिके समान धीर और महाबली था। जिसके उरस्थल में लक्ष्मीकान्ता रमण करती थी, और महीतल पर कीर्तिरूपी रमणी। लम्बे समय तक निर्विघ्न मनोरथ राज्य और रमासुखका भोग करनेके बाद एक दिन उसने सहसा विचार किया कि मैं नित्य दूसरोंके प्राणोंका घात क्यों करता हूँ ? हा, मैं इन अत्यन्त अशुभ (कामोंको) छोड़ता हूँ। मैं अपने मनको संयमसे नियन्त्रित करता हूँ।
पत्ता-अपने पुत्र बालक धनपालको पट्ट बांधकर, वह राजा विमलवाहन जिनके पास जाकर मुनि हो गया ॥२॥
८. A°जरयरत्त । ९. P°विसमसरिसरे । १०. A उच्छपीलणु; P उच्छुपीलणु । ११. A कोट्टबद्धलंटालदुग्गम; P कोट्टवटुलाट्टालसंगमं । १२. P कुद्धलुद्ध मुद्धारिदुग्गमं । १३. A पंचवण्णकंकेल्लि । १४. P°दीविया । १५. A° पवड्ढणं । १६. A P°मविलय । १७. A°मणोहरं । १८. A 'रमाहरं । १९. P कुणोमि । २०. हो ण जामि ।
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-४१ ४. ३ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
३
सणिय वियरइ पावहु बीहइ । ure hr a fiदि मण्णइ दुहुं । हिंसंत मणावि उ हिंसइ । समु जि समणु संठिउ समचरणइ । तिणि तिउत्तरसैंय पासंडहं । स सुद्धि बुद्धि आराहिवि । सिरिअरहंतणारं गोत्तज्जलु । देहखेत्तु रिसिई लिएं किसियाडं । पासहिं दिवि दढयर मंडिवि । सासु मुयंतें मुक्कु णियंगउं ।
सोगं गंथु ण समीहइ ण पसंसाइ करइ पहेसिउं मुहुं दूत पर पिसुणु ण दूसइ महालाहइ जीवियमरणइ जिणिवि कुहेउवाय णयचंडहं यारह अंगई अवगाहिवि बंधिवि कय सोलह कारणहलु हिण्यालि अणसणु अब्भसियड कामकोहधरणीरुह खंडिवि णाणसासु वड्ढारिउ चंगडं
घत्ता - सुहझानें मुउँ सो परमरिसि णिम्मलु णिरुवमरूयउ || अहमंदु अंतरि धवलतणु विजयविमाणई' हूयउ || ३ ||
जल हिस मेमिए कालि णिग्गए तम्मि सुंदरे
४
ती सति यहिए । सुहं मग्गए । हं पुरंदरे ।
६१
१०
वह निर्ग्रन्थ मुनि, परिग्रहको इच्छा नहीं करते, धीरे-धीरे विचरण करते, और पापसे डरते । प्रशंसासे वह अपना मुख हँसता हुआ नहीं करते ( प्रसन्न नहीं होते ), और किसीके द्वारा निन्दा किये जाने पर दुःख नहीं करते । दूषण लगाते हुए भी दुष्टको वह दोष नहीं देते। हिंसा - करनेपर भी, जरा भी हिंसा नहीं करते। लाभ-अलाभ, जीवन और मरणमें सम, वह श्रमण समता के आचरण में स्थित हो गये । कुहेतुवादोंको जीतकर और नयसे प्रचण्ड तीन सौ त्रेसठ पाखण्डोंको जीतकर, ग्यारह अंगोंका अवगाहन कर दर्शनशुद्धि और बुद्धिकी आराधना कर, सोलह कारण भावनाओंके फल, श्री अरहन्तके उज्ज्वल गोत्रका बन्ध कर, उन्होंने अन्तिम समय अनशनका अभ्यास किया, और देहरूपी खेतको मुनिरूपी कृषकने कर्षित किया | काम-क्रोधरूपी वृक्षोंको उखाड़कर चारों ओर धैर्यंको मजबूत बागड़ लगाकर उन्होंने ज्ञानरूपी धान्य खूब बढ़ा ली, सांस छोड़ते ही उन्होंने अपने शरीरका त्याग कर दिया ।
घत्ता - शुभध्यानसे मरकर वह निर्मल परममुनि, और विजय नामक अनुत्तर विमान में अनुपम रूपवाले धवलशरीर अहमेन्द्र देव हुए ||३||
४
तीन अधिक तीस अर्थात् तेंतीस सागर प्रमाण, देवरीतिसे समय बीतनेपर, उस शुभाशय
३. १. P ण गंथु । २. AP पहसियमुहु । ३. A परविसुणु ण दूसइ; P परि पिसुणु ण दोसइ । ४. A P तिणि तिस ट्ठसय । ५. AP दंसणं । ६. A रिसिहलि संकिसियत । ७.A मुयउ ।
८.AP
०
व । ९. A अणुत । १०. P . विमाणे ।
४. १. A समणिए; P समसिए । २ A सुरहरं गए ।
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थिई सुहास ए
महापुराण आउसेस | पढमदीवए । रहमंडणा । कोसला । पुण्ण सिहो ।
111
धरियजीव astखंडणा अथ सुहयरी रिसहकुलरुहो तस्स इथिया चारुहारिया भवणलच्छिया णिसिविरामए पेच्छए हियं गलियमयजलं कुंदे पंडुरं हरदारुणं
णाम संवरो । साहित्थिया । सुइरीरिया । मलियच्छिया । चरमजामए । सिविणमालियं । अमरमयगलं । गोवरं वरं ।
बहुविलासिणी भमररामयं यणपरिणयं हिये तिमिरयं
दुवइरिणं । लिवासिणी । कुसुमदामयं । सिसिरकिरणयं । तरुणेमि हिरयं ।
रमणरसणयं सजलकमलयं रमयैरो रं
मणमिणयं । कलसजुवलयं । पंकयारं ।
मयर भीयरं लच्छ सासणं हरिणलणं मणिसंग
खीरसायरं । हरिवरासणं । फणिणिकेयणं । अवि य हुयवहं ।
६२
५
१०
१५
२०
२५
[ ४१.४.४
• अहमेन्द्र की थोड़ी आयु शेष रहनेपर, जीवोंको धारण करनेवाले प्रथम द्वीप (जम्बूद्वीप) में शत्रुका खण्डन करनेवाली, भारतका मण्डन, तथा शुभ करनेवाली कौशलपुरी नगरी थी। उसमें ऋषभकुलका अंकुर, पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखवाला स्वयंवर नामका राजा था । उसको सिद्ध करनेवाली (सिद्धार्था) नामकी पत्नी थी । सुन्दर पवित्र शरीरवाली उस भुवनलक्ष्मीने आँखें बन्द किये हुए, रात्रिका अन्त होनेपर अन्तिम प्रहर में सुन्दर स्वप्नमाला देखी । मद झरता हुआ ऐरावत महागज; कुन्दपुष्पके समान श्रेष्ठ वृषभराज; नखोंसे भयंकर गजका शत्रु (सिंह); कमलों में निवास करनेवाली, बहुविलासिनी ( लक्ष्मी ); भ्रमरोंसे सुन्दर कुसुममाला; नेत्रोंके लिए सुन्दर चन्द्र; अन्धकारको नष्ट करनेवाला तरुणसूर्य; रमणकी ध्वनि करता हुआ मोनयुगल; कमल और जलसे सहित कलशयुगल, जिसमें चक्रवाक क्रीड़ा कर रहे हैं ऐसा कमलाकर, मगरोंसे भयंकर क्षीरसमुद्र, लक्ष्मीका शासन सिंहासन, देवोंका विमान और नागभवन, मणियोंका समूह और अग्नि ।
३. A थिय । ४. Preads this line as : पढपदीवए धरियजीवए । ५. AP कोसलापुरी | ६. P सरीरया । ७. A मोलियच्छिया । ८. A चरिमं । ९. Preads this line as : गोवई वरं कुंदपंडुरं । १०. A कमलवासिणि । ११. A णिहियं । १२. A तरुणि । १३. P रमियखेयरं ।
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-४१. ५.११
महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-इय दंसणणि उरुबउ सइइ सुहसुत्ताइ णिरिक्खिउ ।
सुविहाणइ संवरणरवइहि जं जिह तं तिह अक्खिउ ।।४।।
तं णिसुणिवि जसधवलियमहियलु कहइ कंतु कंतहु सिविणयफलु । जो तिहुवणमंगलु तिहुयणवेइ जं झायंति जोई गयमलमइ । सो तुह होसइ सुउ मई णायउं चहि सुंदरि चंगउ जायउं । तहिं अवसरि दिवि स बुकिङ संवरैमहिवइ मुंजउ सुक्किउ । सिरि अरहंतु देउ अवलोयउ सिद्धत्थइ सिद्धत्थु जणेव्वउ । मा होजउ तहु किं पि दुगुंछिउ अहु णिहिणाह करहि हियइच्छिउँ । ता साकेयणयरु विस्थारिउ अहिणवु धणएं सव्वु सवारि । फुरियपसंडिपिडु पविरइयर जहिं दीसइ तहिं तहिं अइसइयउ । कडयमउंडमंडियवरगत्तर उयरसुद्धिपारंभणिउत्तउ । घत्ता-सोहम्मसुरिंदें पेसियउ सव्वउ पुण्णपसत्थउ ।
घरु रायहु आयउ देवयउ मंगलदव्वविहत्थर ।।५।।
पत्ता-इस प्रकार सुखसे सोयी हुई उस सतीने स्वप्न-समूह देखा। दूसरे दिन सुन्दर प्रभातमें, उसने जैसा देखा था, वैसा अपने पति राजा स्वयंवरसे कहा ॥४॥
यह सुनकर अपने यशसे महीतलको धवल कर देनेवाले कन्तने अपनी कान्तासे कहा"जो त्रिभुवनके मंगल और त्रिभुवनपति हैं, निर्मल मतिवाले योगी जिनका ध्यान करते हैं, वह तुम्हारे पुत्र होंगे, मैंने यह जान लिया है। हे सुन्दरी, तुम नाचो; यह बहुत अच्छा हुआ।" उसी अवसरपर स्वर्गमें इन्द्रने कहा कि राजा स्वयंवरको पुण्यका भोग हुआ है । देखो, वह श्री अरहन्त देवको सिद्धार्थकी तरह, सिद्धार्थासे जन्म देगा। हे कुबेर, उनके लिए कुछ भी खराब बात न हो, जाओ तुम उनकी इच्छाके अनुसार काम करो। तब उसने साकेत नगरका विस्तार किया। धनदने वहां सब कुछ नया कर दिया। सुन्दर स्वर्णपिण्डसे रचना की। वह जहां दिखाई देता वहाँ अतिशय सुन्दर था। उदरकी शुद्धि प्रारम्भ करनेके लिए नियुक्त कटक और मुकुटोंसे अलंकृत शरीरवाली,
धत्ता-सौधर्म स्वर्गके देवों द्वारा भेजी गयी, पुण्यसे प्रशस्त मंगलद्रव्य अपने हाथोंमें लिये हुए देवियाँ राजाके घर आयीं ।।५।।
१४. A णिउरंबउ । १५. A P सुई सुत्ताइ । १६. A संवरणिवइहि । ५. १. P°हलु । २. A तिभवणवइ । ३. A जोगि। ४. A मयणाय उ । ५. A P बुज्झिउं । ६. A संवरणरवह भुंजइ । ७. A बविलेवर; P अवलोइठ । ८. A सक्केयणयह । ९. A P समारिठ। . १०. A°पिंड । ११. A°मठलमंडियं ।
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महापुराण
[४१.६.१
छम्मासई व मुहार वरिष्ठी थिय जिणेजणणि जाम संतुट्ठी । ता वइसाहेहु पंडरपक्खइ छट्ठीवासरि सत्तमरिक्खइ । विजयणाहु तिहुयणविलायन करिसवें सिविणतरि आयस । मयणविलासविसे सुप्पत्तिहि इयरि परि द्विस सेवरपत्तिहि । पुणु सो णिहिया णिवैहि पसाहिए पंगेणि छडरंगावलिसोहिइ। धरणीयलगेयणिहिआकरिसई गव वि मास माणिकई वरिसइ । जसससहरकरधवलिय दिग्गा संभव संभवपासविणिगा।' जझ्यहुं सायरसरिसहुं प्रीणई वहलवाई कोडिहिं वोलीपाई।
तझ्यहुं माहमासवारसियहि पालेयंसुकरावलिमुसियहि । १. बारइमम्मि जोइ कोमलतणु बारहअणुवेक्खाभावियमणु । णाणत्तयज्ञाणियजगरूयउ वेड घउत्थर जिणु संभूयड । धचा-जिणजम्म' आसणथरहरणि जाणिवि कुंजर स जिउ ॥
महि आयउ ससुरु सुराहिवह सुरकरचमरहिं विजित ||६||
छह माह तक रत्नवृष्टि हुई । भगवान्को माता सन्तुष्ट हो गयो । वैशाख माहके शुक्लपक्ष में षष्ठोके दिन, सातवे नक्षत्र (पुनर्वसु) में, त्रिभुवनविख्यात विजयनाय अहमेन्द्र मजरूपमें स्वप्नान्तरमें आया और कामके विलास विशेषोंको उत्पन्न करनेवाली राजा स्वयंवरकी पत्नी सिवा के उदरमें प्रविष्ट हो गया। वह कुबेर पुनः राजाको प्रसन्न करता है, वह छह प्रकारके रंगों की रांगोलोसे शोभित घरके प्रांगण में, परतीतलकी निषियोंको आकर्षित करनेवाले माणिक्योंकी नौ माह तक वर्षा करता है। अपने यशरूपी चन्द्रमाको किरणोंसे दिग्गजोंको घेवलित करनेवाले सम्भवनाथके जन्मपाशसे मुक्त होनेपर, जब दस लाख करोड़ सागर समय बीत गया, तब माघमासके शुक्लपक्षको चन्द्रकिरणोंसे धवल द्वादशीके दिन, बारह अनुप्रेक्षामोसे भावितमन कोमल शरीर तीन ज्ञानोंसे विश्वस्वरूपको जाननेवाले, चौथे तीर्थकर अभिनन्दन उत्पन्न हए ।
पत्ता-सिंहासन कापनेसे जिनका जन्म जानकर देवेन्द्रने अपना हाथी सज्जित किया और देवोंके हाथोंसे चमरों द्वारा हवा किया जाता हुआ देवों सहित वह धरतीपर बाया ॥६॥
६.१. A णियजमणि । २. P वयसाहह । ३, A P पंदुर । ४. A पवरपसाहिए। ५.AP प्रगति ।
६.P परणीयले । ७, Pणवमास। ८. A ससहरकरवलियदिग्ग; P लिए विग्गर । ९.A संभमि । १.. A P समवपासह णिमह । ११. A पालेयंसकरावलि ; P पालेयं सुकलावति । १२. AP बारहम्मि । १३. AP'अम्मगि ।
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-४१.७. १३ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
पुरि परियचिवि पइसिवि णिवघरि कित्तिमु सिसु दिण्णउ जणणिहि करि । सयेणुकिरणकविलियपविरलणहु पोमरायपहणिहतंबिरणहु । बहुभवकयवयणियमियणियमझ विसमविसयविसहरणहयरवइ । कमलेकुलिसकलसंकियकमजुउ। विरइयरइसंवरु संवरसुउ । गंद वद्ध जय देव भणेप्पिणु सुरणाहे मुणिणाहु लएप्पिणु। अंकि चडाविउ चंपयगोरउ गोरो सो तेण जि अवियारउ । जायउ जंतहु गुरु रहसुन्भडु अमरविमाणहं घणव हि संकडु । पडिवाहणहयवाहणसेणिहि इंदें कह व मंदसंदाणिहि । वारणु चरणचारु संजोईउ मंदर मंदरुइल्लु पलोइउ । जिणदेहच्छविइ अहिहवियउ गुरुयणतेएं कवणु ण खवियउ । ससिरवितारापंतिउ लंघिवि तं तहु तणउ सिहरु आसंघिवि ।
घत्ता-तहिं पंडुसिलायलु ससिधवलु तित्थु पसण्णु णिहालिउ ।।
अहिमंतिवि पाणि सयमहिण सीहवी? पक्खालिउ ॥७॥
-
नगरकी परिक्रमा देकर, एवं राजाके घरमें प्रवेश कर कृत्रिम बालक माताकी गोदमें देकर,. अपने शरीरकी किरणोंको कान्तिसे विशाल आकाशको आलोकित करनेवाले, पद्मरागमणियोंको प्रभाके समान लाल नखवाले, अनेक जन्मोंमें किये गये व्रतोंसे अपनी मति नियमित करनेवाले, विषयरूपी विषधरोंके लिए गरुड़, कमल कुलिश और कलशोंसे चिह्नित चरण, रतिका संवरण करनेवाले हे स्वयंवर पुत्र, तुम बढ़ो, प्रसन्न होओ,जय हो देव, यह कहकर सुरनाथने मुनिनाथ भो ले लिया। चम्पक कुसुमकी तरह गोरे, ज्ञानरत, और अविकारी उन्हें, उसने अपनी गोदमें ले लिया। उसके जाते हुए अत्यन्त हर्ष-उल्लास हुआ। जिसमें प्रतिवाहनों और अश्ववाहन श्रेणियां हैं और जिसमें धीमे रथ चल रहे हैं, ऐसे घनपथमें देवोंके विमानोंका जमघट हो गया। इन्द्रने बड़ी कठिनाईसे अपने हाथीको प्रेरित किया और मन्दकान्ति मन्दराचलको देखा । जिनेन्द्रकी देहकान्ति से वह अत्यन्त अभिभूत हो गया। गुरुजनोंके तेजसे कोन क्षीणताको प्राप्त नहीं होता। चन्द्र, सूर्यऔर तारोंकी पंक्तिको लांघकर, उसके उस शिखरको पाकर,
पत्ता-वहां उसने चन्द्रमाके समान धवल प्रसन्न पाण्डुक शिलातलको देखा, इन्द्रने जलको अभिमन्त्रित कर सिंहासनका प्रक्षालन किया ॥७॥
७. १. A पुरु । २. A सयणुविकरणं । ३. P°पविमल । ४. A बहुंतवं । ५. A P°णिवसिपणियमह ।
६. A कमलकलसकुलिसंकिय । ७. A P गोरउ तेण जि सो अवियारउ । ८.A संजोयन; P संचोइट। ९. A पसत्थु । १०. P सीहपीढु ।
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६६
५
१०
महापुराण
[ ४१.८. १
८
कयविहिपरियम्मं छिण्णदुकम्मजम्मं सेई सिरिअरहंतं तम्मि औरोहिउं तं । faat दसदिसासुं से भिंगारणीरं बहुदसणविसाले कक्खणक्खत्तमाले पविहरमराणीसेवियं देवबंद जलियकविलवालं भासुरालं करालं पयपयउरब्भं भाविणीभावियासं जलय पडलकालं निद्धणीलं 'व सेलं करवेलइयदंडे "छाहिसं सत्तसंत भेलगरलमालाका रोमं तुरंतं जुवइजणि कामं साहिरामं करामो करिमेयैरणिविट्टं हारणीहारतेयं वरुणममरसारं माणसे संभरामो तरुपहरणपाणि 'वाइसंदिण्णरायं
कुण सुरवरिंदो सिद्धमं ताहियारं ||१|| चलियचमरलीले संठियं पीलुबाले । विवि से सेवाहरामोमरिंदं ||२|| दिसि पसरिजालं धूम चिंघेण णीलं । जिवणविसेसे बाहरामो हुयासं ||३|| महिसमुहसमीरुड्डीण जीमूयमालं । जिणuraणविसेसे वाहरामो कर्यतं ||४|| अरुणणयणछोह रिछमावाहयं तं । जिष्णहवणविसेसे मेरियं वाहरामो ||५|| धुर्वे धवल ओहं कामिणीए समेयं । touraणविसेसे सायरं वाहरामो ||६|| सुरहिपरिमलंगं मणिणीजायरायं ।
८
जिन्होंने विधाता के परिकर्मको किया है, और पापकर्म और जन्मका नाश कर दिया है, ऐसे श्री अरहन्तको उसपर आरोहित कर दिया। दसों दिशाओंसे श्वेत भृंगारपात्रोंका जल गिरता है; सुरवरेन्द्र सिद्धमन्त्रोंका अभिचार करता है । बहुतसे दांतोंसे विशाल, वरत्रारूपी नक्षत्रमालासे युक्त, चलते हुए चमरोंकी लीला धारण करनेवाले बाल ऐरावत गजपर उन्हें रख दिया । जिन भगवान् के अभिषेक विशेष में मैं, ( कवि पुष्पदन्त ) वज्रको धारण करनेवाले, इन्द्राणीके द्वारा सेवित, देवोंके द्वारा वन्दनीय, अमरेन्द्रको बुलाता हूँ। जिसके प्रज्वलित कपिल केश हैं, भास्वर भयंकर, दिशाओं में जिसका जाल फैला हुआ है, धूमचिह्नोंसे नीला, अपने पैरसे मेषको आहत करनेवाला, अपनी पत्नी के द्वारा जिसका मुख देखा गया है, ऐसे अग्निदेवको मैं जिनेन्द्र के अभिषेकविशेष में बुलाता हूँ । जो मेघपटलके समान श्याम है, शैलके समान स्निग्ध और नीला है, जिसके महिषके मुख के पवनसे मेघमाला उढ़ रही है, जिसके हाथमें दण्ड झुका हुआ है, अपनी भार्या, छाया में जिसका चित्त आसक है, ऐसे यमको मैं जिनके अभिषेक विशेष में बुलाता हूँ । भ्रमर और गरलमालाके समान जिसके रोम काले हैं, जो लाल आंखोंकी कान्तिवाला है, रीछपर सवारी करता है, युवतीजन में जो काम उत्पन्न करता है, ऐसे नैऋत्यको में अनुरागयुक्त करता हूँ और जिनेन्द्र के अभिषेक - विशेषमें उसे बुलाता हूँ। जो गजाकार मगरपर अधिष्ठित हैं, जो हार-नीहारकी तरह स्वच्छ हैं, हिलती हुई धवल ध्वज-समूहसे युक्त हैं, कामिनीसे सहित हैं, ऐसे अमरोंमें श्रेष्ठ वरुणकी मैं याद करता हूँ और जिनेन्द्र के अभिषेक विशेष में उन्हें सादर बुलाता हूँ। वृक्ष ही जिसके प्रहरण और हाथ हैं, वातप्रेमी मृगीमें जिसका अनुराग है, सुरभिपरिमल जिसका शरीर है,
०
o
०
८. १. A कुक्कम् । २. A सयसिरिं । ३ AP अरिहंतं । ४. A आराहिऊणं । ५. P खिवइ । ६. A ● ममराणीसंजुयं देवदेवं; P॰ ममरेहि सेवियं देवविदं । ७. P अग्गिवालं पहालं । ८. P° पिद्धणीला लिसे लं । ९. Aवडइयं । १०. A छाहिसंसत्तगत्तं; Pछाहित्तवतं । ११. P कसणभसलमालाकारी । १२. P साहिरामो। १३. A मयरणिविद्धं । १४. A P घुयधवलं । कामिणिजाय ।
१५. A P वायसं । १६. P
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-४१. ९.२]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित चडुलगमणसीलं लंघियायासपारं जिणण्हवणविसेसे वाहरामो समीरं ॥७॥ विमलमणिवियाणं" मंदरहोसमाणं कर्यमयरविमाणं देहभाभासमाणं। १५ धणयमधणदुक्खातंकपंकावहारं जिणण्हवणविसेसे वाहरामो कुबेरं ॥८॥ सगणेगुणगणालं भोलभीमच्छिवत्तं वरैविसवसहंदुक्खित्तपायं महंत । फणिवलयकैरंग्गुग्गिण्णसूलं दुरिक्खं जिणण्हवणविसेसे वाहरामो तियक्खं ॥९॥ अमयमयसरीरं कूरकंठीरवत्थं णवकुवलयमालामालियं कोंतहत्थं । जणणयणसुहंक संकेमुच्छिण्णसंकं जिणण्हवणविसेसे वाहरामो ससंकं ॥१०॥ २० मणिफुरियफणालं दित्तदिचकवालं अहिणवरविवण्णं कुम्मेयट्ठीणिसँण्णं । महि विवरणिवासं रम्मपोम्मावईसं जिणण्हवणविसेसे वाहरामो फणीसं ॥११॥ घत्ता--णियवाहणपहरणपियरमणिचिंधावलिहिं विराइय ॥
इंदे सेहुं इंदावाहणए लोयवाल संप्राइय ॥८॥
एवं पत्ते पंकयणेत्ते विस्से देवे णविऊणं
दुहासणयं सुहसासणयं दब्भासणयं ठविऊणं । जो मानिनी स्त्रियोंमें राग उत्पन्न करता है, जो चंचल और गमनशील है, जो आकाशको सीमाको लांघ जाता है, ऐसे समीरको मैं जिनेन्द्र के अभिषेक-विशेषमें बुलाता हूँ। जो विमल मणियोंका जानकार है, जो उत्तर दिशाका अधिपति है, जिसका विमान मकराकृति है, जो देहकान्तिसे भास्वर है, जो अधनके दुःख और आतंककी कीचड़का अपहरण करनेवाला हैं, ऐसे धनद कुबेरको मैं जिनेन्द्रके अभिषेक-विशेषमें बुलाता हूँ। जो अपने गणों और गुणगुणोंका आश्रय है, जो भालपर भीम आंखोंवाला है, श्रेष्ठ वृषभके कन्धेपर जो पैर रखे हुए है, जो नागोंके बलयवाले हाथको अंगुलियोंमें त्रिशूल उठाये हुए है, ऐसे दुर्दर्शनीय महान् रुद्रको मैं जिनेन्द्रके अभिषेक-विशेषके समय बुलाता हूँ। जो अमृतमय शरीरवाला है, जो कण्ठोरव (सिंह) पर स्थित है, जो नवकुवलयमालासे शोभित है, जिसके हाथमें भाला है, जो जननेत्रोंके लिए अमृतजल है, चिह्न सहित तथा शंकाओं को दूर करनेवाला है, ऐसे चन्द्रको मैं जिनेन्द्र के अभिषेक-विशेष में बुलाता हूँ। जिसका फणसमूह मणियोंसे स्फुरित है, जिसने दिशामण्डलको प्रदीप्त किया है, जो अभिनव सूर्यके रंगका है, जो कूर्मकी हड्डियोंपर आसीन है, जिसका निवास महीविवर है, जो सुन्दर पद्मावतीका स्वामी है, ऐसे फणोशको मैं जिनवरके अभिषेक-विशेषमें बुलाता हूँ।
पत्ता-अपने-अपने वाहन, प्रहरण, प्रिय रमणी और चिह्नोंको पंक्तियों के शोभित लोकपाल, इन्द्रके आह्वानपर इन्द्रके साथ आये ॥८॥
९
इस प्रकार कमलनयनके प्राप्त होनेपर सब देवोंको नमस्कार कर दुःखनाशक सुखका शासन १७. A°विताणं । १८. A P कणयमयविमाणं । १९. P°तंकसंकावहारं । २०. A सगुणगुण । २१. A P भीमच्छिवंतं । २२. A वरविसविसहत्थं खित्त; P वरसियवसहपुढे खित्त । २३. A करग्गुभिण्ण । २५. A मालियाकुंतहत्थं । २५. A सुक्कमुच्छिण्ण'; P सक्कमुच्छिण्ण । २६. A P कुम्मपिट्ठी । २७. A रवणं । २८. A फणिदं । २९. A सहु देवाणंदएण । ३०. A P संपाइय । ९. १. P दुहुणासणयं ।
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[ ४१. ९.३
महापुराण सरगंभीरं पणकुच्चारं साहाकारं काऊणं अग्छ पत्तं गंधं धूवं चरुवं दीवं दाऊणं । दुण्णयेतावं मिच्छागावं दुक्कियभावं महिऊणं पव्वयसरिसे पयणियह रिसे कंचणकलसे गहिऊणं । आसासंते रवियरवंते गयणयलंते चरिऊणं भंगरउहे खीरसमुद्दे खिप्पं खीरं भरिऊणं । कीलालोलं गेयरवालं सुरवरमालं रइऊणं ते जलवाहे जियजलवाहे हत्थाहत्थं लइऊणं । सोहम्मेणं ईसाणेणं तियसयेणेणं संण्डविओ। दाउं वास कुसुमं भूसं तेहिं जिणिंदो पुणु णविओ । सिंगुत्तुंगं वसियकुरंग मेलं मोत्तुं वारिदरिं णरेसोक्खयरि कोसलणयरिं आगंतूणं पुरिसहरिं । णयणिरयाणं गुरुपियराणं दाउं णहयलदिण्णपया हरिसविसटुं रईउं देवा सग्गं झ त्ति गया। पत्ता-सज्जणहं णेहु दिहि दुत्थियहं तरुणिहि पेम्मैपहावउ ।
__णाहे वड्ढ़तें वढियउ पिसुणहं मणि संतावउ ।।९।।
जोवणभावें देहि चडतें __ घडियामाणे काले जंतें। देहपमाणु पत्तु रणचंडहं
सड्ढई तिण्णि सयई धणुदंडहं । दर्भासन बिछाकर, गम्भीर स्वरमें ओम्के साथ स्वाहाका उच्चारण कर अर्घ-पत्र-गन्ध-धूप-चरु और दीप देकर, दुर्नयका सन्ताप, मिथ्यागर्व और पापभावका नाश कर, पर्वतके समान हर्षको उत्पन्न करनेवाले स्वर्णकलशोंको लेकर, उच्छपासोंके मध्य, सूर्य की किरणोंसे यक्त आकाशमें चल कर, भंगिमासे भयंकर क्षीर समुद्र में शीघ्र जल भरकर, क्रीड़ासे चंचल, गीतोंसे सुन्दर सुरवरोंकी पंक्ति रचकर, मेघोंको जीतनेवाले उन कलशोंको हाथों-हाथ लेकर, सौधर्मेन्द्र, ईशानेन्द्र और देवजनोंने स्नान कराया तथा वस्त्र-भूषण देकर, उन्होंने जिनेन्द्रको फिर नमस्कार किया। फिर शिखरोंसे ऊंचे हरिणोंसे बसे हुए जलयुक्त घाटियोंसे युक्त सुमेरु पर्वतको छोड़कर, मनुष्योंको सुख देनेवाली अयोध्या नगरी में आकर न्यायरत उन पुरुषश्रेष्ठको माता-पिताको देकर और हर्षविशिष्ट नाट्यका अभिनय कर वे शीघ्र स्वर्ग चले गये।
पत्ता-स्वामीके बढ़नेपर सज्जनोंका स्नेह, दुःस्थितोंका भाग्य, युवतियोंका प्रेमभाव और दुष्टोंके मनमें सन्ताप बढ़ने लगा ॥९॥
१०
यौवनभावसे उनकी देह बढ़ती गयी, और घड़ीके मानसे समय बीतता गया। उनके शरीर
२. A दुग्णयभावं । ३. P गहिऊगं । ४. P हत्थाहत्थे गहिऊणं । ५. A तियसवरेणं । ६. P संग्रहविउं । ७. Pणविउं । ८.A घोरदार । ९. P"सोक्खयरी। १०. Pणयरी। ११. Aणरणियराणं । १२. P
रइयं णटुं । १३. P णेहपहावउ । १०.१. A देह चडतें । २. A P घडियामालें ।
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-४१. ११. २ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
सिसुकीलाइ रमियगंधव्वहं फणिसुरणरमणणयणाणंदणु भणि देव किं देवि सकित्तणु लइ लइ रज्जु अज्जु जाएसंवि तहि अवसर आयउ सक्कदणु वाई सिरु तंति घणु पुक्खरु पुरतें अमरणिहाएं सायरसरिसरजलसंघाएं हर तार जोयणवित्थिण्णी
दोणि दहद्धलक्ख गय पुव्वहं । aur कारि अहिणंदणु | भुवणत्तयसामिहि सामित्तणु । हउं परलोयकज्जु थाहेसविं । पुरि घरि गणिण माइड सुरयणु । गाय किं पि गेडै महुरक्खरु । वइयालय दण्णासीवाएं । पुणु हाणिउँ कुमारु सुरराएं । हि गंगाइ अवइण्णी ।
घत्ता--जलधार पडइ सिरि दुर्द्धरिय देउ ताई ण वि हम्मइ ॥ भाई महुं तु विघयहि बिदुरेण णउ तिम्मइ ॥ १० ॥
११
पिताणि णिओइ अहिट्ठिउ । हुवि महिं भुंजंतु सजायउ ।
मउडपट्टधरु बीर्यविणिट्ठिउ विनियराउ ताउ रिसि जायड
१०
का प्रमाण साढ़े तीन सौ प्रचण्ड धनुष हो गया । क्रीड़ामें गन्धर्वोके साथ खेलते हुए उनके साढ़े बारह लाख पूर्व वर्ष बीत गये । नागों, सुरों और मनुष्योंके मनको आनन्द देनेवाले अभिनन्दनको पिताने पुकारा और कहा, "हे देव, भुवनत्रयके स्वामी के लिए कीर्तिसहित स्वामित्व क्या दूँ, लोलो राज्य, आज मैं जाऊँगा, और मैं परलोककार्यको थाह लूंगा ।" उस अवसरपर भी इन्द्र आया, और वह देवसमूह, पुर, घर तथा आकाशमें नहीं समा सका । सुषिर, तन्त्री, घन और पुष्कर arr बजाये गये | और मधुर अक्षरों में कुछ भी मधुर गीत गाया गया। सामने नाचते देवहुए समूह वैतालिकोंके द्वारा दिये गये आशीर्वादके साथ समुद्र, नदी और सरोवरोंके जलसमूहसे इन्द्रने कुमारका पुनः अभिषेक किया। हारोंकी तरह स्वच्छ एक योजन तक फैली हुई, मानो आकाश में गंगानदी अवतीर्ण हुई हो ।
घत्ता - दुर्धर जलधारा उनके सिरपर पड़ती है, लेकिन देव उससे आहत नहीं होते । वह मुझे अच्छे लगते हैं कि सैकड़ों घड़ों से नहलाये जाते हुए भी वह एक बूँदसे भी नहीं भींगते ॥ १०॥
११
मुकुट पट्टको धारण किये हुए, धैर्यसे युक्त वह नियोगसे पितृपरम्परा में नियुक्त हो गये । और पिता रागको नष्ट करनेवाले मुनि हो गये। प्रभु भी पत्नी के साथ धरतीका उपभोग करने
३. A कोक्कावि । ४. P साहसमि । ५. A वायउ सुरु । ६. A गेय । ७. AP हाविउ | ८. A हारसुतारतोयविच्छिण्णो; P हारसुतारजोयविच्छिणी । ९ A सिरिसिहरि; PT दुद्धरिस । १०. A P तहि ण वि हम्मद । ११. A णावइ but records a p १३. A जं बिंदुएण; P तं बिंदुएण ।
भावइ । १२. A P घडसएण ।
११. १. A धीरविणिट्ठिउ; P पीढि णिविट्ठउ । २. AP पहिट्ठिउ । ३. P विणियराउ । ४. P एहू वि
महि भुंजंतु ।
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महापुराण
[ ४१. ११. ३
अच्छइ जाम सपुत्तु सपरियणु रक्खइ पोसइ माभीसइ जणु । गय छत्तीस लक्ख लक्खद्ध सहुं पुन्वहं सिरिसोक्खसमिद्धे । मुयणभाणु णहि णयणई ढोयइ ता गंधवणयरु अवलोयइ । पेच्छइ सत्तभूमिघरसिहरई पेच्छइ जालगवक्खई पवरई। पेच्छइ धेयमालउ उल्ललियउ पेच्छइ पुत्तलियउ चित्तलियउ । पेच्छइ चंदसाल मुहसालउ पेच्छइ लेहसाल गयसालउ ।
पेच्छइ दाणसाल णडसालउ मणुयारोगसाल असिसालउ । १० पेच्छइ ह₹मग्ग च उदारइं पेच्छइ पहु आरामविहारई।
इय पेच्छंतहु तक्खणि णट्ठउ तहिं तं पुरु पुणु तेण ण दिट्ठउ । घत्ता-णासंतें जयरे साहियउ णासु अस्थि नृवंरिद्धिहि ॥
कि णरु रइपरवंसु परिभमइ उज्जम करइ ण सिद्धिहि ॥११॥
ता लोयंतिएहि संबोहिउ
आऐणिदें ण्हविउ पसाहिउ । उट्ठिउ सयलदेवडिंडिमसरु चडिउ विचित्तहि सिवियहि जिणवरु । णरखेयरसुरेहिं पणवेप्पिणु बाहुदंडखंधेहिं वहेप्पिणु । णिहियउ पुरबाहिरि णंदणवणि मग्नेंसिरइ सिइ बारहमइ दिणि ।
अवरोहइ णियसंभव रिक्खइ अप्पुणु अप्पउ भूसिउ दिक्खइ । लगे। इस प्रकार जबतक वह अपने पुत्रों-परिजनके साथ रहते हैं, और लोगोंकी रक्षा-पालन करते
और अभयदान देते हैं, तबतक उनके स्त्री-सुखसे समृद्ध साढ़े छत्तीस लाख पूर्व वर्ष बोत गये । एक दिन विश्वसूर्यको आंखें आकाशकी ओर जाती हैं, वह वहाँ गन्धर्व नगर देखता है । वह सात भूमिवाले गृहशिखर देखता है, जालोंके विशाल गवाक्षोंको देखता है, उड़ती हुई ध्वजमालाओंको देखता है, वह चित्रिन पुतलियोंको देखता है, वह चित्रशाला और मुख्यशाला देखता है। वह लंखशाला और गजशाला देखता है। दानशाला और नटशाला देखता है। वह वैद्यशाला और
आयुधशाला देखता है, बाजार मार्ग ओर चारद्वार देखता है, राज-विश्राम और विहार देखता है। इस प्रकार उसके देखते हुए ही वह नगर तत्काल नष्ट हो गया। फिर उसने उस नगरको नहीं देखा।
पत्ता-नष्ट होते हुए नगरने मानो यह कहा कि नप-ऋद्धिका भी नाश होता है। मनुष्य रतिके अधीन क्यों घूमता है। सिद्धिके लिए वह प्रयत्न क्यों नहीं करता ॥११॥
१२ तब लोकान्तिक देवोंने उन्हें सम्बोधित किया, आये हुए इन्द्रने उनका अभिषेक किया। समस्त देवोंका डिडिम स्वर उठा । जिनवर विचित्र शिविकापर चढ़ गये। प्रणाम कर मनुष्य, देव और विद्याधरोंने अपने बाहुदण्डों और कन्धोंसे उसे ले जाकर नगरके बाहर नन्दनवनमें रख दिया। माघ माहके शुक्लपक्षको द्वादशीके दिन अपराह्म में अपने जन्मनक्षत्रमें उन्होंने स्वयंको
५. A णयरि । ६. A धयमालाउल्लं । ७. P हट्टमग्गि। ८. A P णिवरिद्धिहि । ९. A परवसु
मूढमइ उज्जम् । १२. १. A आइवि इंदें; T आयंदेण आगतेनेन्द्रेण । २. A मग्गसिरासिइ; P माहमासि सिइ ।
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७१
-४१. १३.७]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित मण्णेप्पिणु घर गिरिवरकंदर दढमुट्टिहिं उप्पाडिय कंदर । भावु करेवि अहप्पयरासिहि ते सक्केण पित्त पयरासिहि । दावियणिढे छहववासे
जइ हूयउ सहुं णिवहं सहासें । मुक्कउ जीयधणासाकेयइ
बीमाइ दिणि पट्ट साकेगा। पंथु पलोयइ जंतु ण खंडइ में भे भवइ व घरि घरि हिंडइ । लहुयउं गरुयउं गेहु ण चिंतइ अंगणु प्राविवि पुणु विणियत्तइ । घत्ता-जहिं रेजु कियउ तहिं तेण पुणु दरिसिउ भिक्खविहाणउं ।
भयलज्जामाणमयवज्जियउं जिणवउं पेम्मसमाणउं ॥१२॥
१३
सयमहदतें पहु पाराविउ पंचविहु वि जयजयपभणंतिहिं अक्खयदाणु भणेप्पिणु णिन्ग जो ण समिच्छइ विपरियावहु जेण मूलु रइवालहु छिण्णउं| जेण सहियवउंणाणे भिण्णउं 'णीसंगेण णिरुत्तु विहारिउ
तहु देवहिं दाणुच्छवु दाविउ । आयासहु कुसुमाइं घिवंतिहिं ।। गउ वणु चरणविसेसहु लग्गउ । पहि चरंतु ण करइ इरियावहु । दाणु जेण अभयावहु दिण्णउं । अट्ठारहवरिसइंतवु चिण्णउं । पुणे वि जेण तं छट्ठ संवारिउँ ।
दीक्षासे अलंकृत कर लिया। गिरिवरकी गुफाओंको घर मानकर उन्होंने अपनी दृढ़ मुट्ठियोंसे केश उखाड़ लिये। पापोंको नाश करनेवाले उन केशोंको इन्द्रने समुद्र में फेंक दिया। निष्ठाको प्रदर्शित करनेवाले छठे उपवासके साथ एक हजार राजाओं सहित वह मुनि हो गये। जीव और धनकी आशारूपी डोरसे मुक्त वह दूसरे दिन अयोध्या नगरी गये। वह रास्ता देखते हैं जन्तुका नाश नहीं करते । भो-भो शब्द होता है, वह घर-घर परिभ्रमण करते हैं, छोटे या बड़े घरका विचार नहीं करते। प्रांगणमें जाकर फिर उसे देखते हैं।
पत्ता-जहां उन्होंने राज्य किया था वहां उन्होंने भिक्षाके विधानका प्रदर्शन किया। भय, लज्जा, मान और मदसे रहित जिनपद प्रेमके समान है ।।१२।।
१३
इन्द्रदत्तने उन्हें पारणा करायी। जय जय कहते, और आकाशसे फूलोंको गिराते हुए देवोंने, उसके दानका पांच प्रकार महोत्सव किया। 'अक्षयदान' कहकर वह चले गये और वनमें जाकर विशेष तपश्चरणमें लग गये। जो ब्राह्मणोंके ऋचापथ (वेदमार्ग) को नहीं मानते, जो रास्ते में चलते हुए ईर्या समितिका हनन नहीं करते, जिन्होंने कामदेवकी जड़को समाप्त कर दिया है, जिन्होंने सबको अभयदान दिया। जिन्होंने अपने हृदयको ज्ञानसे परिपूर्ण कर लिया और अठारह वर्ष तक लगातार तप किया, अनासंग भावसे लगातार विहार किया। फिर उन्होंने छठा उपवास
३. A भे भे विरह व, but records a p: भवइ इति पाठः। ४. A P पंगणु पाइवि ।
५. A रज्जि । १३. १. Pणी संगत्तु । २. P पुणिवि । ३. A संचारिउ; P समारिउ ।
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महापुराण
[४१. १३. ८पूर्सहु मासा पक्खि पहाला चवदहमइ दिणि सिणतरुमूलइ । सडुवरि सतमि जेणुप्पाइज केवलणाणु तिलोस वि जोइन । धत्ता-सो मोहमहामहिरहालणु जिणवर जियपंचिंदिन ।।
गिबाणहि सम पराइएण वाणवलेण पेवंदिर ॥१३॥ शुणइ सुरिंदु सरर गुण समणे तुई जि' देउ कि देवागमणें । सुहुँ जि अणंगु अणंगहु वंकहि अणुदिणु णिशालाइ पर छहि । तुई सरुयु कि तुद आहरणे तुहूं सुयंधु कि तुइ सबलहणे । सुहं अकामु किं तुह णारियणे तुई गिद्दु किं तुह घरसयणे । सुद्धिवंतु तुहूं कि तुह पहाणे दिव्वासहु किं तुह परिहाणे । तुझु ण वहरु पा भउ उ पहरणु तुझुण रहण कीलाविहरणु । तुई जि सोम्मु सोम्में किं किजा तुह छविहरू रवि काई भणिजह । गुणणिहि तुहूं तुह किं किर थोत्तें तो वि थुणइ जणवउ सहियतें । हरिकरिगिरिजलणि हिहिं समाणउ पई किं भणेइ वराउ अयाणउ । पत्ता-ससिसूरहं सरिसर पई परम भत्तिइ कइयणु अक्खाइ ।।
गयणयलहु अवरु वि तुइ गुणहं पान को वि किं पेक्नइ ॥१४॥ किया, पूस माहके शुक्लपक्षकी चतुर्दशीके दिन असन वृक्षके तलमागमें सातवें पुनर्वसु नक्षत्रमें उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया और उन्होंने त्रिलोकको देख लिया।
- पत्ता-मोहरूपी महावृक्षके लिए आगो समान, पांचों इन्द्रियोंको जीतनेवाले जिनवरको देवोंके साथ आकर इन्द्रने वन्दना की ॥१३॥
देवेन्द्र स्तुति करता है, अपने मनसे उनके गुणोंका स्मरण करता है कि तुम्ही देव हो, देवागमनसे क्या ? तुम स्वयं काम हो, तुम कामको क्यों चाहोगे? तुम स्वयं ही सुन्दर हो, तुम्हें बाभरणोंसे क्या तुम स्वयं सुगन्ध हो, तुम्हें विलेपनसे क्या? तुम स्वयं अकाम हो, तुम्हें नारीजनसे क्या? आप स्वयं निद्रारहित हैं, आपको उत्तम शयनसे क्या ? आप स्वयं शुद्धिसे युक्त हैं, आपको स्नानसे क्या? आप दिगम्बर हैं, आपको वस्त्रोंसे क्या ? आपका न शत्रु है, न भय है और न प्रहरण है, आपमें न रति है और न क्रीडाविहार है। आप स्वयं सौम्य हैं, आपको सोम (चन्द्रमा) से क्या? कान्तिसे आहत सूर्यको कान्तिमान क्यों कहा जाता है ? आप गुणोंकी निधि हैं, आपको स्तोत्रोंसे क्या? फिर भी लोग, अपने मनसे तुम्हारी स्तुति करते हैं, बेचारे अज्ञानी वे आपको अश्व, गज, गिरि और जलनिधिके समान क्यों बताते हैं।
पत्ता-कविजन केवल भक्तिसे आपको शशि और सूर्यके समान बताते हैं लेकिन एक आकाश और दूसरे तुम्हारे गुणोंका पार कौन पा सका है ? ॥१४॥
४.A P परसह । ५. A T पहिल्लइ । ६. AP सिणितक । ७. A पंचेंदियत । ८. A T वालवलेण;
P वणवाण । ९. A पर्ववियन । १४.१.वि । २. A PE मणंगु जो अंगण इहि । ३.A TERB P सुरूत। ४. A P अणि ।
५. A सोमु सोमि किं। ६.A मणमि । ७. A गुणहं सामि पार को लक्खा P गुणहं सामिय पार
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-४१. १५. १४ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
१५
इंदणरिंदचंदसूराउलु
समवसरणु जिणरायहु राउलु। बहुपालिद्धय अट्ठ महाधय । पसुकोट्ठइ दक्खा लिय हय गय । धम्मचक्कु अग्गइ अवइण्ण पंगेणु सुरणररमणिहिं छण्णउं । पुण्णमणोरह जे ते णं रह मउलियकर थिय संमुह णव गह । जसु तवेण कंपइ भूमंडलु
अवसे तासु होइ भामंडलु । | छत्तई दुरियायव विणिवारई चमरई भवसीणतणतारई। जासु मोक्खं सोक्खु जि जायउं फलु सो असोउ किं वण्णमि चलँदलु । अवरु वि अरुहहु उत्तमसत्तहु आसणु सासणु तिजगपहुवहु । आयासहु णिवडइ कुसुमावलि सरु भीयउ भासइ ण सरावलि । रंजउ अलि तइ सिंथ ण मेरी णिच्छ उ सामिय आण तुहारी। दुंदुहि खणु यजंति ण थक्क लोउ धम्मु णिसुणहुं णं कोक्कइ । दिव्वें घोसें भुवणु वि सुज्झइ अप्पउं पर परलोर वि बुज्झइ । धत्ता-सिरिवजणाहु णिवु"धुरि करिवि सीलविमलजलवाहह ।।
तिहिं सहियउ सउ संतासयहं संजायउ गणणाहहं ॥१५॥
इन्द्र, नरेन्द्र, चन्द्र और सूर्यसे परिपूर्ण समवसरण जिनराजका राजकुल था। आठ महाध्वज थे और छोटे-छोटे ध्वज अनेक थे। पशुओंके कोठोंमें अश्व और गज दिखाई देते थे। आगे धर्मचक्र अवतीर्ण हुआ। प्रांगण सुरों और नरोंकी रमणियोंसे भर गया। जो-जो पूर्णरथ थे, वे किसी भी प्रकार, अपने दोनों हाथ जोड़कर उनके सम्मुख नवग्रहके समान स्थित थे। जिसके तपसे भूमण्डल कांप उठता है; उनके लिए अवश्य भामण्डल प्राप्त होगा। दुरितोंके आतपका निवारण करनेवाले छत्र, संसारकी थकानको दूर करनेवाले चामर होंगे। जिन्हें मोक्ष और सुखका फल प्राप्त है, उनका चंचल पत्तोंवाले अशोकके रूप में क्या वर्णन करूं। और भी उत्तम सत्त्ववाले श्री अरहन्तके आसन और त्रिजगको प्रभुताके शासनका क्या वर्णन करूं? आकाशसे पुष्पोंकी अंजलि गिरती है, कामदेव डरता है, उनपर अपना तीरावलि नहीं छोड़ता। भ्रमर रोता है कि वह मेरी प्रत्यंचा नहीं है । हे स्वामी, यह निश्चय ही तुम्हारी आज्ञा है, दुन्दुभि बजते हुए थकती नहीं, लोगोंको धर्म सुनने के लिए मानो वह पुकार रही है, दिव्यघोषसे भुवन शुद्ध होता है और स्वपर तथा परलोकको समझने लगता है।
पत्ता-श्री वज्रनाथ ( वज्रनाभि ) को प्रमुख गणधर बनाकर, शीलरूपी विमल जलको वहन करनेवाले और शान्तचित्त एक सौ तीन गणधर हुए ॥१५॥
१५. १. A P रावलु । २. K प्रंगणु । ३. P सुरवररमणिहिं । ४. A ते णयरहं । ५. A P दुरियावयं ।
६. A भवरीणत्तणु; P भवझोणत्तणु । ७. A P मोक्ख सोक्खु । ८. A P वरदलु । ९. A कुसुमाउलि । १०. A P रुंजइ । ११. A घरिवि धुरि ।
१०
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७४
महापुराण
[४१. १६.१
अड्डाइज्जसहस णिरणंगह रिसिसीहहं सिक्खियपुव्वंगहं। पण्णासइ संजुत्तहं भिक्खुहुँ तीससहसदोलक्खई सिक्खुहुं । अट्ठाणउवि सेयाई तिणाणिहिं सोलह सहसई केवलणाणिहिं । एक्कुणवीससहसई विक्किरियह संख भणमि मणपजवरिसियहं । सावयगुणठाणेहिं सहासहि छहसएहि अण्णु वि पण्णासहिं । एक्कारहसहसाइं विवाइहिं रिसिहिं तिणि लक्खइं सज्झाइहिं । तसंजमवयतणुरुहमाइहि संजमधरिहिं सुद्धकुलजाइहिं । भोयभूमिसमसहसई चेयहि लक्ख तिण्णि रिदुसयइं वि वेयहि ।
अजियसंख एम जाणिजइ लक्खत्तउ साव यह गणिज्जइ। १० पंचलक्ख सावियह णिरुत्तउ देवहिं देविहिं माणु ण उत्तँउ ।
घत्ता-विहरंतहु महि परमेसरहु धम्मु कहतहु भन्वहं॥ __ अट्ठारहवरिसइं°ऊणय रु एक्कु लक्ख गउ पुव्वहं ।।१६।।
१७ इय पुव्वहं पण्णास जि लक्खइं गणहरमुणिवरसाहियसंखइं। गयई ण किं पि वि धाई णियाणइ मासेंसेसि थिउ आउपमाणइ । हरिणहअवियकरिकभत्थलि तहिं संमेयगिरिंदवणथलि। लंबियकरु सहुँ मणिसंदोहें दुण्णि पक्ख थिउ जोयणिरोहें ।
निष्काम पूर्वांगधारी मुनिश्रेष्ठ ढाई हजार, संयमी शिक्षक दो लाख तीस हजार पचास, अवधिज्ञानी नौ हजार आठ सौ, केवलज्ञानी सोलह हजार, विक्रिया ऋद्धिधारी उन्नीस हजार, मनःपर्ययज्ञानधारियोंको संख्या कहता हूँ, वे ग्यारह हजार छह सौ पचास हैं। वादी मुनि ग्यारह हजार, इस प्रकार श्रुत ध्यानवाले कुल तीन लाख मुनि उनके साथ थे। तप, संयम, व्रत और शरीरको कान्तिसे युक्त शुद्ध कुल जातिवाली तथा संयम धारण करनेवाली आर्यिकाओंको तीन लाख तीस हजार छह सौ जानो। आर्यिकाओंकी संख्या इस प्रकार जानना चाहिए, श्रावकोंको तीन लाख गिना जाये । श्राविकाओंको निश्चित रूपसे पांच लाख जाना जाये। देवों और देवियों की वहां कोई गिनती नहीं थी।
पत्ता-इस प्रकार धरतीपर विहार करते हुए और भव्य जनोंके लिए धर्मका कथन करते हुए परमेश्वरके अठारह वर्ष कम, एक लाख पूर्व वर्ष व्यतीत हो गये ।।१६।।
गणधर मुनिवरों द्वारा कहे गये एक लाख पचास हजार पूर्व वर्ष बीत गये। अन्त में कुछ भी नहीं रहता, केवल उनकी आयुका प्रमाण एक माह शेष रह गया, जहां सिंहके द्वारा हाथियोंके कुम्भस्थल आहत नहीं किये जाते, ऐसे सम्मेदशिखर पर्वतपर, मुनिसमूहके साथ हाथ ऊपर कर दो
१६.१.Aरिसिसोसहं । २. P सयई तिण्णाणिहि। ३. A P एयारह । ४. Aomits this foot. ५. A
omits this foot. ६. A विरयहिं । ७. P लक्खतइउ। ८. A P add after this: मिलिउ
तिरिक्खविंदु संखेज्जउ, एत्तियजणहं करिवि साहिज्जउं । ९. A P कहंतहं । १०. A वरिसहं । १७. १. A P ठाइ । २. A माससेस थिय । ३. A हरिणहअविरुय; P हरिणयरि हयं ।
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-४१. १७.१४ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित वइसाहहु मासहु सियछट्ठिहि सत्तमभवि हियचंदाइट्रिहि । खंतिवयंसियाइ संमाणिउ एक्कल्लउ समाहिघर आणिउ | णाहु चारुचारित्तु विवज्जइ णग्गउ थिउ णिल्लज्ज ण लज्जइ। किरियाभट्ठ उड्दु संचलियउ सिद्धिविलासिणीहि जिणुं मिलियउ । जीवपक्खिबंदिग्गहपंजरु इंदें पुज्जिउ मुक्ककलेवरु । अग्गिकुमारहिं अग्गि विइण्णउ सर्वइ चवइ णहि जंतु सउण्णउ । चउदहभयगामरइ छंडिय
अहिणंदणेण मोक्खपुर मंडिय । गउ गउ गउ जि पडीवउं णायउ मझु वि होजउ तेहिं जि णिकेयउ । पत्ता-जणु आवइ जाइ ण थाइ खणु अथवणुग्गमु दावइ ।
महुं हियवइ भरहाणंदयरंपुप्फयंतसमु भावइ ॥१७॥
इय महापुराणे तिसटिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महामन्चमरहाणुमणिए
महाकम्वे अहिणंदणणिब्वाणगमणं णाम एकचालीसमो परिच्छेउ समत्तो॥४॥
॥' अहिगंदणचरियं समतं ॥
पक्षके योगनिरोधमें स्थित हो गये। वैशाख माहके शुक्लपक्षकी षष्ठीके दिन सातवें नक्षत्रके चन्द्रमासे युक्त होनेपर शान्तिरूपी सखोसे सम्मानित वह अकेले समाधिघरमें स्थित हो गये। सुन्दर चरितवाले स्वामीका विश्लेषण किया जाता है, वह नग्न स्थित थे एकदम लज्जाहीन, उन्हें लज्जा नहीं आती थी। स्पन्दनसे रहित नक्षत्रके समान वह ऊपर चले, और जिन भगवान् सिद्धिरूपी विलासिनीसे जा मिले। इन्द्रने जीवरूपी पक्षीके लिए वन्दीगृहके समान उनके शरीरको पूजा की। अग्निकुमार देवोंने उसे आग दो। आकाशमें जाते हुए पुण्यात्मा इन्द्र कहता है कि चौदह भूतग्रामोंमें रति छोड़कर अभिनन्दनने मोक्षपुरीको अलंकृत किया। वह गये तो गये, फिर वापस नहीं आये । मेरा भी घर वहींपर हो।
घत्ता-जीव आता है और जाता है; एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता, केवल अस्त और उद्गम बताता है। वह मुझे भरतको आनन्द देनेवाले पुष्पदन्तके समान, हृदयमें अच्छे लगते हैं ॥१७॥
इस प्रकार श्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा प्रणीत और महामव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य में अभिनन्दन
जिनवरका निर्वाणगमन नामका इकतालीसवाँ
परिच्छेद समाप्त हुआ ॥४॥
४. A सत्तमभवियहिं चंदा । ५. A P जिल्लज्जु । ६. A उवसंचलिय । ७. P जणु । ८. A P सक्छु; but T सवह स्वर्गपतिः । ९. A तं जि णिकेवउ; P बहिं जि णिकेयउ । १०. Pणंदयरु । ११. A Pomit the line.
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संधि ४२
पंचमगइगमणु पडु पंचगुरुहुं पहिलारउ ।। पंचमैतित्थयरु पणविवि पंचेसुवियारउ ।। ध्रुवकं ।।
णिज्जियसवणं
संतं सैवणं । णिज्जियरूवं
णिरुवमरूवं। णिज्जियगंध
सुरहियगंधं । णिजियसरसं
वजियसरसं। णिज्जियकोहं
वरवक्कोहं। णिजियमाणं
सुहरिसमाणं। णिज्जियमायं
चत्तपमायं। णिजियलोहं
गयसल्लोहं । मुणियपयत्थं
भासातत्थं । कयसुत्तत्थं
जं दिव्वत्थं । पालियमहिमं
घेल्लियमहिमं ।
सन्धि ४२ पांच गुरुओंमें पहले, पांचवीं गतिमें गमन करनेवाले प्रभु ( सिद्ध ) और कामका नाश करनेवाले पांचवें तीर्थंकर (सुमतिनाथ) को मैं प्रणाम करता हूँ।
जो श्रवण ( कान ) को जीतनेवाले सन्त श्रमण हैं, जो बाह्य रूपको जीतकर भी अनुपम रूपवाले हैं, गन्धको जीतकर भी सुरभित गन्धवाले हैं, काम-सुखको जीतकर जिन्होंने सराग वचन छोड़ दिया है, जो क्रोधको जोतकर भी उत्तम वाक्य-समूहवाले हैं, मानको जीतकर भी जो इन्द्रके समान हैं, जिन्होंने मायाको जीत लिया है, एवं प्रमादका परित्याग कर दिया है। जो लोभको जीतनेवाले और शल्योंसे रहित हैं । प्रशस्तके ज्ञाता, निर्बाध वक्ता, दिव्यार्थवाले सूत्रोंके निर्माता,
A has, at the beginning of this Samdhi, the following stanzal
सोऽयं श्रीभरतः कलङ्करहितः कान्तः सुवृत्तः शुचिः सज्ज्योतिर्मणिराकरो प्लुत इवानो गुणैर्भासते। वंशो येन पवित्रतामिह महामत्राह्वयः प्राप्तवान् (प्रापितः ?)
श्रीमद्वल्लभराज-कटके यश्चाभवनायकः ॥१॥ No other known MS of the work gives it. १. १. A P पंचम तिथिय । २. P°समणं । ३. P°समणं । ४. A°सुरहिसुयंध; T सुरहिसुगंधं ।
५. A सुवतत्थं । ६. T लंषियमहिमं ।
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-४२. २.९]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महिलाकुमई
मोत्तुं कुमई। इच्छियसुमई
णमिउं सुमई। तस्स पवित्तं
वोच्छं वित्तं। घत्ता-जिह ते लइउ वउ जिह हुयउ अणुत्तरि सुरवरु ।।
जिह जायउ सुमइ तिह कह मि समासइ वइयरु ॥१॥
जलवरिससीयए दीवए बीयए कुंभयेण्णेहिं णिक्खित्तमहिबीयए। भमियमत्तंडए तमपडलखंडए फुल्लतरुसंडए धौदईसंडए । तरुणणरमिहुँणपरिवड्डियसणेहए पुर्वसुरसिहरिणो हरिदिसिविदेहए । णडियबरहिणणडे संरिवरुत्तरतडे पोमरयरासिपिंजरियकुंजरघडे । दुक्खणिग्गमणरइरमणवणसिरिसही जत्थ तत्थरिथ पिहु पुक्खलावइ मही। ५ तम्मि गच्छंतसामंतभडसुहयरी सेयसउहावली पुंडरिंगिणि पुरी। घुसिणरससिंचिए हसियगयणंगणे मोत्तियकणंचिए पंगणे पंगणे । अमलिणा सणेलिणा जत्थ जलवाविया कुररकारंडकलहंससंसेविया ।
मंदिरे मंदिरे सइरेगह गोमिणी हम्मई महलो णश्चए कामिणी । महिमाका पालन करनेवाले, घरती और लक्ष्मीको छोड़नेवाले हैं। जिन्होंने महिला पृथ्वीको बुद्धि और कुमतिको छोड़नेके लिए सुमतिको इच्छा की है, ऐसे सुमतिनाथको मैं प्रणाम करता हूं और उनके पवित्र वृत्तान्तको कहता हूँ।
पत्ता-जिस प्रकार उन्होंने व्रत लिया, जिस प्रकार वह अनुत्तर स्वर्ग विमानमें उत्पन्न हुए और जिस प्रकार सुमति नामक तीर्थकर हुए, वह सारा वृत्तान्त में संक्षेपमें कहता हूं ॥१॥
जो जल वर्षासे शीतल हैं तथा जिसमें घड़ोंके द्वारा धरतीमें बीज बोये जाते हैं, जिसमें अन्धकारके समूहको नष्ट करनेवाला सूर्य परिभ्रमण करता है और वृक्षसमूह खिला हुआ है, ऐसे धातकी खण्ड द्वीपके पूर्व में सुमेरुपर्वतकी पूर्वदिशामें, जिसमें तरुण नर जोड़ोंमें स्नेह बढ़ रहा है, ऐसा विदेह क्षेत्र है । जिसमें मयूररूपी नट नृत्य करता है और जिसमें कमलोंके परागसमूहसे हस्तिघटा पिंजरित (पोली) है, सोता नदीके ऐसे उत्तर तटपर विशाल पुष्कलावती भूमि है, जो दुःखको दूर करनेवाली एवं रतिरमण करानेवाली वनलक्ष्मीकी सखी है। उसमें चलते हुए भट सामन्तोंसे सुखकर एवं श्वेत चूनोंके प्रासादोंवाली पुण्डरीकिणी नामकी नगरी है। जिसके केशर रससे सिंचित गगनांगनको हंसनेवाले मुक्ताकणोंसे अंचित आंगन-आँगनमें कमलों सहित निर्मल बावड़ियां हैं। घर-घरमें स्वैरगामिनी लक्ष्मी है। मृदंग बजाया जाता है और कामिनी नचायो जाती है। जहां
७. A लयउ वर; P लइउ व्रउ, २. १. A P कुंभयण्णेहिए खितं । २. A पायई । ३. A P°णरमिहणए पड्डिय। ४. A हरिदिसं।
५. A P°सिहरिए । ६. A सउहाउली। ७. A P पुंडरिकिणि । ८. K पंगणे अंगणे। ९. A समलिणा । १०. A P कलहंसजुयसेविया । ११. A सई रमइ but gloss स्वेच्छाचारिणी।
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महापुराण
[ ४२. २. १०महुसमयसंगमो उववणे उववणे रमइ वेईसवणओ आवणे आवणे । बूढसिंगारए जोवणे णवणवे वसइ वरसरसई माणवे माणवे । जत्थ सव्वो जणो जित्तगिवाणओ तत्थ पहु अस्थि णामेण रइसेणओ। किंकरा बंधुणो दाणसंमाणिया रायलच्छी चिरं तेण संमाणिया। मंतियं चिंतियं चारु कजं पुणो मोक्खसोक्खंकरो णस्थि रजे गुणो। घत्ता-उवसमवाणिएण सिंचेप्पिणु किज्जइ सीयलु ॥
भोयतणेण पुणु पज्जलइ भीमु कामाणलु ॥२॥
गच्छामु इच्छामु गुरुपाय पेच्छामु। इय भणिवि समु चिणिवि जिणु थुणिवि भणु जिणिवि । मोहणिउ मेल्लेवि अइरहहु मैहि देवि। वल्लहहु णंदणहु तं अरुहणंदणहुँ। "पायंति वउ लाउ हियवउ ण विम्हियंउ । रामाहिरामेसु
इटेसु कामेसु। दुव्वारवारण
सोलह वि कारणइं। भावेण भावेवि
णीसह वसेवि। जिणसुत्तु जिणवित्तु जिणणाउं जिणगोत्तु । गुरुपुण्णु अन्जेवि मोहं विसज्जेवि ।
उपवन-उपवन में वसन्तका समागम है, और जहां कुबेर बाजार-बाजारमें रमण करता है। शृंगारित नवनवयौवन और मनुष्य-मनुष्यमें जहाँ सरस्वती निवास करती है। जहाँ सभी मनुष्य देवोंको जीतनेवाले हैं, ऐसे उस नगरमें रतिसेन नामका राजा था। जिसके अनुचर और बन्धु दानसे सम्मानित हैं, उसने बहुत राज्यलक्ष्मीको सम्मानित किया ( बहुत समय तक उसका उपभोग किया)। फिर उसने अपने शुभ कामको मन्त्रणा और चिन्तना की कि राज्यमें मोक्षसुखको देनेवाला गुण नहीं है।
पत्ता-उपशमरूपी जलसे सींचकर कामरूपी आगको शान्त करना चाहिए, भोगोंसे तो कामाग्नि भयंकर रूपसे प्रज्वलित हो उठती है ॥२॥
'मैं जाता है। इच्छा करता हूँ। गुरुचरणोंके दर्शन करता हूँ।' यह विचारकर, समताको पहचानकर, जिनकी स्तुति कर, मनको जीतकर, मोहनीय कर्मको छोड़कर, अपने प्रिय पुत्र अतिरथको राज्य देकर, अर्हन्नन्दनके चरणों में उसने व्रत ले लिया। स्त्रियोंसे सुन्दर इष्ट कामोंमें उसका मन तनिक भी विस्मित नहीं हुआ। संसारका निवारण करनेवाली सोलह कारण भावनाओंकी अपने मनसे भावना कर, मुक्त व्यवसाय कर, जिनसूत्र जिनवृत्त जिननाम जिनगोत्र भारीपुण्यका
१२. AP वइसवणु पुणु । १३. A P°पाणिएण । १४. A P भोयत्तणेण । ३. १. P एच्छामु। २. P मही देवि । ३. A P जित्तारिसंदणहु । ४. A P add after this: मुणि
गोत्तणामासु रविकिरणषामासु । ५. AP पायंति तउ । ६. AP विभविउ । ७. A Pउवसेवि ।
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-४२. ४.५ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित मउ करिवि संणासु हुउ वइजयंतीसु । णिवसेइ कंतम्मि ते वइजयंतम्मि। कालेण दीहरहं
तेत्तीस सायरह। सरिसाउ माणियउं णियबंध णीणियउं। पुणु तस्स सुहभाउ छम्माससेसाउ। सक्केण जाणियउ संबंधु भाणियउ। धणयस्स हेण हरिसुद्धदेहेण । इह जंबुदीवम्मि
भो भरहखेत्तम्मि। चिरु वसियसयरम्मि साकेयणयरम्म । मेहरहु पहईसु
पिय मंगला तासु । 'हविही सुओ ताह जिणु जाहिं पियराहं ।
पुरु करहि सोवण्णु ता झ ति बहुवेण्णु । घत्ता-वजहिं मरगयहिं वेरुलियहं गयणुब्भासणु ।
जक्खे "णिम्मविय उं कोसलपुरु पावविणासणु ॥३॥
एत्थंतरए जणमणरामे वासहरे णिसि पच्छिमजामे । म उपल्लं के णिहायंती हंसी विव कमले णिवसंती। पेच्छइ देवी सिविणयपंती तुहिणतारमुत्ताहलकंती । गयणाहं गोमंडलणाहं पिंगलचलणयणं मयणाहं । पोमं' पीणियपुहईणाहं दाम रंजियभसलसणाहं।
अर्जन कर, मोहका विसर्जन कर; वह संन्यासपूर्वक मरकर वैजयन्त विमानमें अहमेन्द्र हुआ। वह सुन्दर वैजयन्त विमानमें निवास करता है। तेंतीस सागर पर्यन्त उसने सरस आयुका भोग किया, और इस प्रकार अपना निबन्ध पूरा किया। फिर उसको शुभभाववाली आयु छह माह शेष बची। इन्द्रने जान लिया। हर्षसे उद्धत है देह जिसमें, ऐसे स्नेहसे उसने धनदसे सम्बन्ध कहा-"इस जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्रमें, जिसमें पहले सगरका निवास था ऐसे साकेत नगर में राजा मेघरथ है। उसको प्रिया मंगला है। उनका पुत्र जिन होगा; इसलिए तुम उनके माता-पिताके पास जाओ, नगरको स्वर्णमय बनाओ।" तब शीघ्र ही
___घना-यक्षने वज्रों, मरकत मणियों -वैदूर्योसे आकाशचुम्बी पापोंका नाश करनेवाले बहुरंगे अयोध्यानगरका निर्माण किया ॥३॥
इसी बीच जनमनोंके सुन्दर निवासगृहमें रात्रिके अन्तिम प्रहरमें कोमल पलंगपर सोती हुई, जैसे हंसिनी कमलोंमें निवास करती है, हिम तार और मोतियोंके समान कान्तिवाली वह देवी स्वप्नमाला देखती है । गजनाथ वृषभराज पीली और चंचल आंखोंवाला, सिंहः पृथ्वीनाथको
८. A P मुउ । ९. A P त । १०. P णियबंधणियउ । ११. A होही । १२. A बहुपुण्णु । १३. A P णिम्मियउं । ४.१.A लच्छीवियसियकमलसणाह: Pपोमापीणिय ।
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महापुराण
[ ४२. ४.६
वाराणाई वासरणाई
झसजुयलं तडिजुयलगुणाई । कलसजुयं मंगलकुलणाह कमलसरं कोलियकरिणाहं । तुगतरंग तीहिणिणाई
वइसणयं च ससावयणाई । गेहं सुदसियसुवरणाई
अवरं पवर थियफणिणाहं । रचणगणं विम्हियेधणणाह दीहसिहास साहाणाई। इय दैर्छ पुच्छइ णिय॑णाहं जाया अज विट्ठसिविाह । भो सोलापुरिल्लगयणाहो ताणं कहसु फलं मइण हो। तं णिसुणिवि पभणइ प्रेरणाहो होही पुत्तो तुह अगणाहो ।
"सम्वण्हं सम्बिदसमच्चो , देवो णहु सो भण्णइ मच्चो । १५ हुए हरिभगणे णिरबजे
सइसरीरपक्खालणकण्जे। आया देवी हिरि' सिरि कंती लच्छी बुद्धी दिहि 'मइ कित्ती । घत्ता-अणवइणि अरुहे पहिलस जि जाम छम्मासि ॥ __ताम घणाहिवेण धणधारहि "णिवघरि वरिसि ॥४॥
णीलियविसावणा मासम्मि सावणाई। महि शुद्धबीया
रं विणीसाइत प्रसन्न करनेवाली पना, ( लक्ष्मी ), गुनगुनाते हुए भ्रमरोंसे युक्त पुष्पमाला,तारानाथ ( चन्द्रमा), वासरनाथ ( सूर्य ); विद्युत्युगलको तरह मत्स्ययुगल, भेगलकुलका स्वामी कलशयुगल; जिसमें गजनाथ क्रीड़ा कर रहे हैं, ऐसा कमलाकर, ऊंची तरंगोंवाला समुद्रा सिहोंसे युक्त आसन (सिंहासन), सुवसित-सुरबरोंका पर ( देवविमान ); नागलोक, कुबेरको विस्मित करनेवाला रत्नसमूह; लम्बी ज्वालाओंवाली आग। यह देखकर वह अपने स्वामीसे पूछतो है कि "आज मैं स्वप्न देखनेवाली हो गयी हूँ, अर्थात् आज मैंने स्वप्न देखे हैं, जिनमें पहला गजनाथ है, ऐसे उन स्वप्नोंका फल हे स्वामी मुझसे कहिए" । यह सुनकर राजाने कहा, "तुम्हें विश्वनाथ पुत्र होगा। सर्वज्ञ, और सर्वेन्द्रोंके द्वारा समर्चनीय वह देव हैं, उन्हें मत्यं नहीं कहा जाता।" इन्द्रका निरवद्य कयन पूरा होनेपर; सतीके शरीरका प्रक्षालन करने के लिए, श्री-हो-कान्ति-लक्ष्मी-बुद्धि धुति देवियां आयौं ।
पत्ता-देवके अवतार लेने के पहले जब छह माह बाकी थे, तब कुबेरने राजाके घरमें स्वर्णवृष्टि की ॥४॥
श्रावण माहमें, जब कि दिशाएं और धरती हरी थो, शुक्लपक्षकी द्वितीयाके दिन वह गर्भ
२. A णिज्जियघणणाह; P विभियधणणाहं। ३, P दिछ । ४. A fणवणाहं । ५. A सिविणो हं। ६. A जे सोलह । P जो सोलह । ७. A P गयणाहं । ८. A Pणाहूं। ९. P महिणाहो । १०. १ जयणाहो । ११. P सम्वण्ह सविद । १२. A देवो गउ भण्णा सो मच्यो; P वेधो ण हि सो भष्ण महो। १३. A P हरिभवणे । १४. A fणरुवज्ज । १५. P सिरि हिरि। १६. P सई। १७. P छमासिउ । १८. K वरि ।
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४२. ५. २१]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित गम्भम्मि अवयरिउ जणणीइ उरि धरिउ। सो वइजयंतेंदु पुण्णिमइ णं चंदु। कयजयरवालाइ आवेवि लीलाइ। करधरियवीणाइ सहुँ तियससेणाइ। तं णयरु तं भवणु सा जणणि सो जणणु । अंगंतरंगत्थु
वंदेवि मुंणितित्थु । गउ सयमहो तेत्थु सविमाणु तं.जेत्थु । रयणप्पहाकिट्ठि पुणु विहिय वसुविट्ठि। जक्खीकडक्खेण तूसे वि जक्खेण । ता जाव णवमास संपुण्णविहलास। केवलसिरीरिद्धि अहिणंदणे सिद्धि। हयदियहपाडीहिं णवलक्खकोडीहिं। जइया गया ताह सायरसमाणाहं । तइया महंतेण
पुण्णण होतेण । चित्ताइ पिउजोइ पविमलदिसाटोई। तिण्णाणमयदिहि पंचमउ परमेट्टि।
संभूउ सो जाम __ संखुहिय सुर ताम। घत्ता-णाणावाहणहिं दिसि दिसि झुल्लंतवडायहिं ।
आइउ अमरवइ सहुचउँविहअमरणिकायहिं ।।५।। अवतरित हुआ और अत्यन्त विनोत माने उस वैजयन्त देवको अपने उदरमें धारण किया, जैसे पूर्णिमाने चन्द्रमाको धारण किया हो। तब इन्द्रने जय-जय शब्द करती हुई हाथमें वोणा धारण करनेवाली देवसेनाके साथ लोलापूर्वक आकर, उस नगर, उस भवन, उस माता, उस पिता और शरीरके भीतर स्थित मुनितीर्थकी वन्दना को। और वह वहां चला गया जहां उसका अपना विमान था। फिर यक्षिणीके कटाक्षसे सन्तुष्ट होकर यक्षने रत्नोंकी प्रभाको आकृष्ट करनेवाली धनवृष्टि तबतक की कि जबतक विकलोंको आशा पूरी करनेवाले नौ माह नहीं हुए; जब तीर्थकर अभिनन्दनको केवल श्रीरूपी ऋद्धि सिद्ध हुई थी, तबसे नौ लाख करोड़ सागर दिवस परिपाटीके गुणित होनेपर ( बीतनेपर ); तब महान् पुण्यके योगसे चित्रा नक्षत्रमें ( माघ शुक्ला एकादशी ); दसों दिशाओंका विस्तार जिसमें निर्मल है, ऐसे पितृयोगमें, तीन ज्ञानोंको दृष्टिवाले पांचवें परमेष्ठी जब उत्पन्न हुए तो देवलोक क्षुब्ध हो उठा।
पत्ता-नाना वाहनों दिशा-दिशामें झलती हुई पताकाओं और चार प्रकार के अमरनिकायोंके साथ इन्द्र आया ॥५॥
५.१. A जणषोउरे । २. P करि परिय। ३. A P मुणि तेत्थु । ४. P हयदियहणाहीहिं । ५. A P
पविमलदिसाहोइ; T दिसाभोइ दशदिशाटोपे । ६. P adds after this: एयादसिर पक्खि, सिए चंद महारिक्खि । ७. A बहुविहअमर ।
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महापुराण
[ ४२.६.१
पाविऊण पट्टणं गंपि रायमंदिरं बंधुचित्तविब्भमं वज्जपाणिणा पुणो अंकए णिवेसिओ कुंभकंठबंधुरो पत्तओमरोयलं तम्मि देहमाणवो णाहओ णिरूविओ पावतावहारिणा देवएहिं हाणिओ आलयं पुणाणिओ ते जयम्मि धण्णया मंडणेहिं राइओ जोइएहिं झाइओ अप्पिओ विपकए वज्जिणा जिणेसरो संसिऊण तं णिवं
देवि तिप्पयाहिणं । णिम्मिऊण णिन्भरं। अण्णबालसंक। वंदिओ सयं जिणो। सूहवो सुहासिओ। चोइओ ससिंधुरो। पंडुरं सिलायलं। तेण दिव्वमाणेवो। भत्तएहिं भाविओ। दुद्धरासिवारिणा। पुप्फगंधमाणिओ। जेहिं सोवियाजिओ। णाणिणो संउणिया । किंणरेहिं गाइओ। अस्थिणस्थिवाइओ। माउपाणिपंकए। जीयलोयणेसरो। कोसिओ गओ दिवं।
नगरको पाकर, उसकी तीन प्रदक्षिणा कर राजमन्दिरमें जाकर, बन्धुओंके चित्तको विभ्रममें डालनेवाले कृत्रिम बालकका पूर्ण रूप निर्मित कर, इन्द्रने स्वयं जिनको प्रणाम किया, और सुभग सुभाषित उन्हें अपनी गोदमें ले लिया। गण्डस्थल और कण्ठसे सुन्दर अपने गजको उसने प्रेरित किया और अमरालय पाण्डुशिलापर पहुंचा। देहश्रीसे अभिनव दिव्य मानवनाथको उसने स्थापित किया। और भक्तोंने उसकी भक्ति की। देवोंने पापतापका हरण करनेवाली दुग्धराशिके जलसे स्नान कराया और पुष्पगन्धसे पुजा की । वे पुनः उन्हें घर ले आये, कि जिनके द्वारा वे ले जाये गये थे। जगमें वे ज्ञानी और पुण्यात्मा धन्य हैं जो अलंकारोंसे अलंकृत हैं, किन्नरोंके द्वारा जिनका गान किया जाता है, योगियोंके द्वारा जिनका ध्यान किया जाता है; जो स्याद्वादके प्रतिपादक हैं। फिर माताके निर्मल करकमलमें इन्द्रने जोवलोकके ईश्वर जिनको दे दिया। और राजाकी प्रशंसा कर इन्द्रलोकको चला गया।
६.१. A बज्जपाणिणो। २. AP मरालयं but A corrects it to सुरालयं; gloss in K अमराचलं ।
३. P सिलालयं । ४. A माणवे । ५. A माणवे । ६. A णाहए । ७. A पुणो णिओ। ८ A समुण्णया; P सउण्णया। ९. A विकंपए । १०. समाउपाणिपंकए।
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-४२.७.१२]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-सुरसीमंतिणिहिं थणथण्णएण वडारिउ ।।
सुमइसमेग्धविउ पहु सुमेई भणिवि हक्कारिउ ॥६॥
७
पुव्वाण गिव्वाणकीलाइ कयसोक्ख कुमरत्तणेणेय वोलीण दहलक्ख । अइऊण ता णवर दणुयारिरायण भभंतगंभीरभेरीणिणाएण । सिंचेवि सुईसलिलधाराणिवाएहिं संमैहि वि णवमालईपारियाएहिं । सवलहिवि कप्पूरचंदणपयारेहिं भूसेवि केऊरहारेहिं दोरेहिं । कलरवतुलाकोडिकंचीकलावेहिं णच्चेवि विब्भमहिं हावेहिं भावेहिं । बद्धो सिरे पटु देवाहिदेवस्स णिविंधकामावहो णिविलेवस्स । अंधाई बहिराई धणविहवहीणाई संपीणयंतस्स काणीणदीणाई । महि भुंजमाणस्स दिव्वाई सोक्खाइं गलियाई पुवाई णवलक्खसंखाई। ता चिंतियं चिंतणिज्जं जिणिदेण रज्जेण मह होउ भववेल्लिकंदेण । तं चयमि तउ करमि संचरमि मग्गेण विसहिंदचिण्णेण जडकसरदुग्गेण । १० घत्ता--गिरिकक्करि पडइ महुकारणि जिह हयकरहउ ।।
रज्जरसेण तिह भणु महियलि को किर ण णिहउ ।।७।। पत्ता-देव-सीमन्तिनियोंके द्वारा अपने दूधसे वृद्धिको प्राप्त तथा सुमतिके लिए समर्पित प्रभुको सुमति कहकर पुकारा गया ॥६॥
सुख उत्पन्न करनेवाली देवक्रीड़ाओं और कौमार्यमें उनके जब दस लाख पूर्व वर्ष बीत गये, तो इन्द्रने आकर घूमते हुए गम्भीर भेरी निनादके साथ पवित्र जलधाराओंकी वर्षासे भिषेक कर, नवीन मालती और पारिजात कुसुमोंसे पूजा कर, कपूर और तरह-तरहके चन्दनोंसे लेप कर, केयूर-हार-दोरों ओर सुन्दर बजते हुए चुंघरुओंवाली करनियोंसे अलंकृत कर, विभ्रमों हाव-भावोंसे नृत्य कर, कामको निरन्तर ध्वस्त करनेवाले निर्लेप देवाधिदेवके सिरपर पट्ट बांध दिया। अन्धे, बहिरों, धनविभवसे हीनों, कन्यापुत्रों और दीनोंको प्रसन्न करते हुए, धरती और दिव्य सुखोंका भोग करते हुए, उनकी नौ लाख पूर्व वर्ष आयु बीत गयी। तब जिनेन्द्रने चिन्तनीयका विचार किया कि संसाररूपी लताका अंकुर यह राज्य मेरे लिए व्यर्थ है। उसे में छोड़ता हूँ, तप करता हूँ और वृषभेन्द्र (ऋषभनाथ,धवल बैल) के द्वारा स्वीकृत जड़ और गरियाल बैलोंके लिए अत्यन्त दुर्गम मार्गसे चलता हूँ।
घत्ता-जैसे हत-करभ ( ऊंट ) मधुके लिए पहाड़के शिखरपर गिरता है, बतायो राज्यके रसके कारण संसारमें कौन नहीं मारा जाता ? ॥७॥
११. P T सुमइ समप्पिय c and gloss in T सुमतिः समर्पिता अतिशयवती येन । १२. P सुम्मा । ७.१. P अविऊण । २. P सिंचेवि सो सलिल । ३. A सम्मोवणिव । ४. परियाएहिं । ५. A गोरेहि।
६. A P णिबंध; T णिज्बंध सातत्यम् । ७. P णववीसलक्खाई।
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महापुराण
[ ४२. ८. १
अणुभासियं तं जि लोयंति' विबुहेहिं ।
आवेवि देवेहिं पज्जण्णपमुहेहिं। तिपुरिल्लकल्लाणविहि तेहिं संविहिउ सिवियाइ णेऊण णंदणवणे णिहिउ । मुक्काई वत्थाई भीमाई सस्थाई गहियाई सत्थाई णियधम्मसत्थाई। लुंचेवि कुंतलकलावो वि कोंतलेइ सहुँ छडिओ जोग्गपत्तम्मि पविमलइ । सो देवदेवेण पित्तो समुद्दम्मि दुद्धबुकल्लोलमालारउहम्मि। मणपज्जउप्पण्णणाणेण सुवसिल्लु छट्टोववासत्थु णीसंगु णीसल्लु । णीसंकु णिक्कंखु णिम्मुक्कदुविहासु सियलेसु णिहोसु णीरोसु णीहासु । वइसाहसियणवमि पुठवण्हवेलाइ आलिंगिओ सामिओ दिक्खबालाइ। पत्ता-अवरहिं दियहि पुणु संसारमहण्णवतारउ ।
पुरवरु सउमणसु चरियाइ पइट्ठु भडारउ ॥८॥
१०
तत्थ सो पोमणामेण राएण संभाविओ भाववंतेण सत्तीइ भत्तीइ भुंजाविओ। पंचचोज्जाई जायाइं दाणिस्स तस्सालए लोयणाहो भैमंतो वसंतो गिरिदालए। वीसवासाई घोरे गहीरे तवे संठिओ ता रओ दूसहो दुम्महो दुज्जओ णिटिओ। तम्मि दिक्खावणे वायहल्लंततालीदले णिच्चलं झायमाणेण झेयं पियंगूतले ।
यही बात लोकान्तिक देवोंने आकर कही। इन्द्र प्रभृति देवोंने आकर आगेकी तीसरी कल्याण विधि सम्पन्न की और शिविकासे ले जाकर उन्हें नन्दनवन में स्थापित कर दिया। वस्त्र
और भीषण शस्त्र छोड़ दिये गये, स्वधर्मको शासित करनेवाले शास्त्र ग्रहण कर लिये गये। केशकलापको उखाड़कर पुष्पमालाके साथ पवित्र योगपात्रमें डाल दिया गया। देवेन्द्रने दुग्धजलकी लहरोंकी मालासे भयंकर समुद्र में फेंक दिया। मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो जाने के कारण स्ववशीभूत, अनासंग और शल्यरहित, छठे उपवास में स्थित, निःसंग आकांक्षा-रहित, दुविधाओंसे मुक्त, शुक्ल लेश्यासे युक्त, निर्दोष अक्रोध, भाषाविहीन ( मौन ) स्वामीका वैशाख माहके शुक्लपक्षकी नवमीके दिन, पूर्वाह्य वेलामें दीक्षा रूपी बालाने आलिंगन कर लिया।
पत्ता-एक दूसरे दिन, संसाररूपी महासमुद्रसे तारनेवाले भट्टारक जिन सुमतिनाथ, सौमनस नगरमें चर्याके लिए प्रविष्ट हुए ॥८॥
वहां पमनामक राजाने उन्हें पड़गाहा तथा भावोंसे भरे हुए उसने शक्ति और भक्तिसे उन्हें माहार करवाया। उस दानीके घरमें पांच आश्चर्य हुए। लोकनाथ सुमति पहाड़ोंके घरमें भ्रमण करते और निवास करते हुए वे बीस वर्षोंके घोर तपमें स्थित हो गये। और तब दुःसह, दुर्मद और दुर्जय कर्मरज नष्ट हो गया। वायुसे आन्दोलित तालीदलवाले उसी दीक्षा वनमें ८. १. P लोयंत । २. A P कुंतलइ । ३. P°कल्लोलवेलारउद्दम्मि । ९.१. हम्मालए। २. P समतो। ३. A जायं।
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-४२. १०.६]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित आइमे मासए चंदजोण्हं किए पक्खए बारसीए इणे पच्छिमत्थे मघारिक्खए। ५ इच्छियं णो सइत्तम्मि रायाणसंमाणसं तेण मोत्तूण भत्तं तिरत्तं च काऊण सं।। मेरुधीरेण हतूण कम्मारिकूरं बलं सव्वदवावलोयं समुप्पाइयं केवलं । आसणाणं पयंपेण पायालए पण्णया कंपिया देवलोयम्मि देवा वि णिटुण्णया। माणवा माणवाणं णिवासाउ संचल्लिया वाहणोहेहिं खं ढंकियं मेइणी डोल्लिया। आगओ वित्तसन्न ससूरो सतारो ससी जोइओ दीहणीलालिमालाजडालो रिसि। १० तिण्णि बाणासणाणं सयाई सरीरुण्णओ अंगवण्णेण सोवण्णवण्णं समावण्णओ। धत्ता-सुरवइअहिव हिहिं महिर्वइहिं मि णियणियसत्तिइ ।।
पारद्धउ थुणहुँ सुमईसरु परमइ भत्तिइ ।।९।।
जय देव णिप्पाब जर तुंग णिभंग जय वाम णिवाम जय धीरे संसारजय संत विकत जय कंत कुकयंत
णिक्कोव णित्ताव। दिव्वंग णिवंग। णिकाम णिद्धाम । कंतारणित्थार। परमंत अरहंत । कुणयंत भयवंत ।
प्रियंगुलताके नीचे अपने निश्चल ध्येयका ध्यान करते हुए चैत्र माहके शुक्लपक्षकी एकादशीके दिन सूर्यके पश्चिम दिशामें स्थित होनेपर मघा नक्षत्रमें उन्होंने अपने चित्तमें राजाओंका सम्मान नहीं चाहा । भोगत्व और रतिको छोड़कर और सम्यक्त्व ग्रहण कर मेरुके समान धीर उन्होंने कमरूपी अरिके कर बलको नष्ट कर सर्व द्रव्यका अवलोकन करनेवाले केवलज्ञानको प्राप्त कर लिया। आसनोंके प्रकम्मनसे पाताललोकमें नाग कांप उठे, देवलोकमें देव भी नींदसे उठ बैठे। मनुष्य मनुष्योंके निवाससे चल पड़े। वाहनोंसे आकाश ढक गया और धरती हिल उठी। इन्द्र आ गया, सूर्य और तारों सहित चन्द्रमा आ गया। उन्होंने लम्बी नीली अलिमालाके समान जटावाले ऋषिको देखा। उनका शरीर तीन सौ धनुष ऊंचा था। अपने शरीरके रंगमें वह तपाये गये सोनेके रंगके समान थे।
घत्ता-सुरपतियों, नागपतियों और महीपतियोंने अपनी-अपनी शक्तिके अनुसार भक्तिपूर्वक श्रेष्ठमति सुमतीश्वरको स्तुति शुरू की ।।९।।
१०
__ हे निष्पाप, निष्क्रोध और निस्ताप ! आपकी जय हो। हे महान् निर्दोष दिशांग, आपकी जय हो । हे सुन्दर स्त्रीरहित निष्काम और निर्धाम, आपकी जय हो। हे धीर और संसाररूपी कान्तारसे निस्तार करनेवाले, आपकी जय हो। हे शान्त विक्रान्त परमन्त्र अरहन्त, आपकी जय हो। हे स्वामो कृतान्तके लिए अप्रिय, कुनथका अन्त करनेवाले ज्ञानवान्, आपकी जय हो। हे
४. A बारसीए दिणे; P गारसीए इणे । ५. P सइत्तं । ६. A पकंपेण । ७. P हल्लिया । ८. A P
महिवइहिं णविउणियसत्तिह। १०.१. A णित्ताव णिक्कोव । २. P वीर ।
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महापुराण
[४२.१०.७
जय संथ मयशंथ पिगंध सिवपंथ। जय दित्त तमैचत्त अणिमित्तजगमित्त। जय राय रिसिरीय णीराय णिम्माय। जय णंद रुइरंद- मुहयंद बुहयंद। मुजगिद भूमिंद
खयरिंद तियसिंद। णित्तंद णिहंद
मुणिवंदसयवंदै । जयणाह णिण्णाह णिवाह दुम्वाह । समयार सिंदूर
मंदारणियार-। सुरचित्तसियरत्त- सयवत्त सुविचित्त । कुसुमोहकयसोह णिल्लोह णिम्मोह । जय तिक्ख दुणिरिक्ख- तवपक्खधुवसोक्ख-। फलसाहि महुं देहि सुसमाहि लहुं वोहि । घत्ता-इय वंदिउ सुमइ जीहासयहिं सहसखें ।
चउदारहिं सहिउ किउ समवसरणु ता जक्खें ।।१०।।
मइंदासणं लच्छितूंगत्वासं वरं आयवत्तत्तैयं चंदभासं । सुरुम्मुक्कसेलिंधविट्ठी विसिट्ठा पडती सराणीसरोलि व्व दिट्ठा।
ण सा तस्स काही समारं वियारं मणुम्मोहया ते हया जेण दूरं । स्वस्थ, मदका मन्थन करनेवाले निग्रन्थ शिवमार्ग, आपकी जय हो। हे प्रदीप्त अन्धकारसे त्यक्त, विश्वके अकारण मित्र, आपको जय हो । हे राजर्षिराज नीराग और मायासे रहित, आपकी जय हो। हे आनन्दमय कान्तिसे महान् मुखचन्द बुधेन्द्र, आपकी जय हो । हे भुजगेन्द्र भूपेन्द्र, विद्याधरेन्द्र, देवेन्द्र, नित्येन्द्र निर्द्वन्द्व, सैकड़ों मुनिवरोंसे वन्दनीय, आपकी जय हो। हे नाथरहित निर्बाध और दुधि आपको जय हो । हे समाचार ( शान्त आचारवाले ) सिन्दूर मन्दार कणिकार देवोंके द्वारा फेंके गये श्वेत रक्त कमलोंसे सुविचित्र कुसुमसमूहोंकी शोभावाले आपकी जय हो । हे तीक्ष्ण और दुर्दर्शनीय तपरूपी वृक्षको शाश्वत सुखरूपी फलशाखावाले आपको जय हो। आप मुझे ( कविको ) शीघ्र सुसमाधि और सम्बोधि प्रदान करें।
पत्ता-- इस प्रकार देवेन्द्रने अपनी सैकड़ों जिह्वाओसे सुमतिकी वन्दना की। और इतने में यक्षने चार द्वारोंसे सहित समवसरणकी रचना कर दी॥१०॥
लक्ष्मीके उच्च निवासवाला सिंहासन, चन्द्रमाको आभावाले श्रेष्ठ तीन छत्र, देवों द्वारा को गयी पुष्पवर्षा, जो कामदेव द्वारा विसर्जित तीर-पंक्तिके समान दिखाई दी। लेकिन वह उनमें किसी भी प्रकारका कामका विकार उत्पन्न करने में असमर्थ थी। क्योंकि वे मनको उन्मादन
३. A तवतत्त । ४. A सिरिराय । ५. P णोमाय । ६. P adds after this : अणवद्द ।
७. A तववेक्ख । ११. A तुंगत्तु । २. A आयवत्तं तयं । ३. A सेलंधविट्ठी । ४. P मणुम्मोहयंता हया ।
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४२. १२.७]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित तवेणुभवाए बुहाणंदिरीए विहामंडलं कुंडलं णं सिरीए । णहे सुम्मए दुंदुही गजमाणो मुहालोयणेणेय विद्धत्थमाणो। अभव्वो वि देवस्स पाए णवंतो भिसं दीसए साणुकंपं चवंतो। चला चामराली मरालालिसेया। सुभासाविभासाहि गिज्जति गेया। असोयदुमो दिवपक्खिदरावो जगुम्मोहणो भारहीए पहावो । सुणिजति दवेत्थपज्जायभेया मुणिजति लोएहिं पंचत्थिकाया । गणिज्जति कम्माइं छज्जीवकाया पवटुंति देहीण चित्ते विवेया। पत्ता-पुच्छतहु जणहु संदेह तिमिरु संणिरसइ॥
जाल थलि णहि विवरि तं णत्थि जंण जिणु सासई ॥११॥
१२
संउ सोलह उत्तर गणहरह पुव्ववियाणहं मुणिवरह। दुण्णि सहस चत्तारि सय णिच्चपउंजियजीवदय । दोण्णि लक्ख चउपण्ण पुणु सहस तिण्णि सय तहिं जि भणु । अवरु वि पण्णासइ सहिय एत्तिय सिक्खुव सवरहिय । ऐकारहसहसई परहं
अस्थि तेत्थु अवहीहरहं। देवपित्तकुसुमंजलिहिं
तेरहसहसइं केवलिहिं । चउसयअट्ठारहसहस
वेउव्वियहं सुझाणवस । करनेवाले उन्हें दूरसे ही नष्ट कर चुके थे। प्रभामण्डल ( भामण्डल ) ऐसा मालूम हो रहा था मानो तपसे उद्भासित, पण्डितोंको आनन्द देनेवाली लक्ष्मीका कुण्डल हो। आकाशमें बजती हुई दुन्दुभि सुनाई दे रही थी। मुखके अवलोकन मात्रसे विश्वस्त होता हुआ अभव्य भी देवके पैरोंमें नमस्कार करने लगता है, वह अनुकम्पापूर्वक सुन्दर वाणी कहते हुए दिखाई देते हैं, हंसोंको पंक्तिके समान श्वेत चामरोंकी पंक्ति चंचल है। सुभाषाओं और विभाषाओंमें गीत गाये जा रहे हैं। दिव्य पक्षीन्द्रोंके शब्दसे युक्त अशोक वृक्ष और विश्वका मोह दूर करनेवाला भारतीका प्रभाव है । द्रव्यार्थ और पर्यायार्थोंके भेद सुने जा रहे हैं, लोगोंके द्वारा पंचास्तिकायोंका मनन किया जा रहा है। कर्मादि और छह प्रकारके जीवनिकायोंकी गणना की जा रही है, मनुष्योंके चित्तमें विवेक बढ़ रहा है।
घत्ता-पूछनेवाले मनुष्यका सन्देहरूपी तिमिर नष्ट हो जाता है। जल-थल-नभ और आकाशमें वह नहीं है कि जिसका जिन कथन नहीं करते ॥१५॥
१२ एक सौ सोलह गणधर थे । पूर्वोके ज्ञाता मुनिवर दो हजार चार सौ। नित्य जीवदयाका प्रयोग करनेवाले स्वपरके हितके साधक, शिक्षक दो लाख चौवन हजार तीन सौ पचास, वहाँ ग्यारह हजार अवधिज्ञानी थे। जिनके ऊपर देवताओंने पुष्पांजलि डाली है, ऐसे केवलज्ञानी तेरह हजार, सद्ध्यानमें लीन विक्रिया-ऋद्धिधारी अठारह हजार चार सौ। मदका नाश करनेवाले
५. A P कोंडलं । ६. A सगंधो वि। ७. P मरालाण्णिसे या। ८. P सुहासाहिं भास हिं । ९. K
दिव्वत्थ but gloss द्रव्यार्थ । १०. A P भासइ । १२. १. A P सउ जि ससोलह । २. A P एयारह ।
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महापुराण
[४२. १२.८दहसहास चउरो सयई मणपंजवहहं हयमयई। तेत्तिय पुणु पण्णासजुय
वाइ तासु णिप्पण्णसुय । लक्खई गुत्तिसमय गणमि सहसई अवरु तीस भणमि । सरिसइं बंभीसुंदरिहिं
तहु जायई संजमधरिहिं । णिच्चमेव भउलियकरह
तिणि लक्ख सावयणरह। पंचलक्ख घरचारिणिहिं
णारिहि अणुवयधारिणिहिं । विहरंतहु तेहु महिठाणाई वीसवरिसपरिहीणाई। पुर्वहं घडिमालाहयई
एकवीसलेक्खइं गयई। कायविसग थिउ वियडि
मा ससे संमेयतडि। मासि पहिल्लइ पक्खि सिइ ऐयारसिदिणि दिण्णसिइ। मघणेक्खत्तें णिन्वुयउ
सहुँ जोइहिं णिक्कलु हुयउ। देविंदहिं जयकारियउ
पुजिवि साहुक्कारियउ। अट्ठगुणालंकिउ सुमइ
देउ मज्झु अवियेले सुमइ । घत्ता-भरहेण अण्णहि मि परमेसरु सो वणिज्जइ ।
सई अमराहि वेण गुणपुप्फयंतु जसु गिजई ॥१२॥ इय महापुराणे तिसटिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महामन्वमरहाणुमण्णिए महाकम्वे समइणिव्वाणगणं णाम दुचालीसमो परिच्छेओ समत्तो ॥५२॥
॥ सुमहचरियं समतं ॥
२०
मनःपर्ययज्ञानी दस हजार चार सौ, श्रुतमें निष्णात वादी मुनि दस हजार चार सो पचास । ब्राह्मी सुन्दरीके समान उनकी आर्यिकाएँ तीन लाख तीस हजार थीं। नित्यप्रति हाथ जोड़े हुए श्रावक तीन लाख थे। अणुव्रत धारण करनेवाली श्राविकाएं पांच लाख थीं। धरतीके स्थानोंमें परिभ्रमण करते हुए उनके बीस वर्ष कम, घटिकामालासे आहत इक्कीस लाख पूर्व वर्ष निकल गये। एक माह बाकी रहनेपर वह सम्मेदशिखरके विकट तटपर कायोत्सर्गमें स्थित हो गये। चैत्रशुक्ला ग्यारसके दिन, वह मोक्षलक्ष्मीको देनेवाले मघा नक्षत्र में दूसरे मुनियोंके साथ निर्वाणको प्राप्त हुए ( निष्पाप हुए)। देव-देवेन्द्रोंने उनका जयजयकार किया और पूजा कर साधुवाद दिया। आठ गुणोंसे अलंकृत सुमतिदेव मुझे अविकल सुमति दें।
पत्ता-स्वयं देवेन्द्रके द्वारा जिनके गुणरूपी पुष्पवाले यशका गान किया जाता है, ऐसे उन परमेश्वरका भरत तथा दूसरोंके द्वारा भी वर्णन किया जाता है ।।१२।। इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित तथा महामव्य मरत द्वारा अनुमत महाकाव्य सुमतिनिर्वाणगमन
नामका बयालीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥४२॥
३. P च उरो य सई। ४. A मणपज्जवयहं गयमयई; P मणपज्जवह वि यमयई। ५. P सरसई । ६. A omits तह । ७. A परही णाई। ८. P पुण्णाहं । ९. P एक्कपुव्वलक्खई। १०. A मासमेत्तु । ११. A गारसि । १२. A P महणवखते। १३. A अग्गिदेहिं सक्कारियर; P अग्गिदेहि मंकारिय: । १४. P देउ मज्झु विमलमइ । १५. A पुप्फयंत । १६. A किज्जह ।
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संधि ४३
दप्पिट्ठदुट्ठपाविट्ठजगजणियभावु दावियपहु॥ कम्मटुगंठिणिवणखमु पणवेप्पिणु पउमप्पहु ॥ध्रुवक।।
जिरंतर जो तवलच्छिणिकेउ गइंदखगिंदविसंकियकेउ । परजिउ जेण रणे झसकेउ समुग्गउ जो कुगईखयकेउ। णियोयममग्गणिओइयसीसु अपासु अवासु अणीसु रिसीसु । वियड्ढविवाइविइण्णवियारु रयासववारु विमुक्कवियारु । विवजिउ जेण वियालविहारु सयौ गलकंदलु जस्स विहारु । कडीयलि मेहल णेय णिबद्ध ण कामिणि जेण सणेह णिबद्ध । खयासरिसित्तसरोसहुयासु सुझाणदवग्गिसिहोहहुयासु। भडारउ जोरुणपंकयभासु अमिच्छअतुच्छपयापियभासु । पमेल्लिउ जो विहिणा विविहेणे णमामि तमीसमहं तिविहेण । समिच्छियणिक्खंयसोक्खपयस्स णइच्छियविप्पवियप्पपय॑स्स । दुगुंछियकर्जामयाइणयंस्स भणामि समायरियं इणेयस्स ।
सन्धि ४३ दर्पसे भरे, दुष्ट और पापी जगमें शुभभाव उत्पन्न करनेवाले पथ-प्रदर्शक अष्टकर्मोंकी गांठको नष्ट करनेमें सक्षम पद्मप्रभुको मैं प्रणाम करता हूँ।
जो निरन्तर तपरूपी लक्ष्मीके निकेतन हैं, जिनका ध्वज गजेन्द्र, गरुड़ और वृषभेन्द्रसे अंकित है, जिन्होंने युद्ध में कामदेवको पराजित कर दिया है, जो कुगतिके क्षयके लिए उद्यत हैं, जिन्होंने शिष्योंको अपने आगममार्गमें नियोजित किया है, जो बन्धनरहित, गृहविहीन, अनीश, और ऋषीश्वर हैं। जिन्होंने विदग्ध विवादियोंसे विचार किया है, जो कोके आस्रव-द्वारको रोकनेवाले और विकारोंसे मुक्त हैं। जिन्होंने असमयका विहार करना छोड़ दिया है, जिनका गला सदेव हारसे रहित है। जिन्होंने कटितलपर मेखला नहीं बांधी। जिनसे कामिनी स्नेहबद्ध नहीं है, जिन्होंने क्रोधरूपी ज्वालाको क्षमारूपी नदीसे शान्त कर दिया है, जिन्होंने सुध्यानरूपी दावाग्निके शिखासमूहमें इच्छाओंको होम दिया है, जो अरुण कमलोंकी कान्तिवाले हैं, जिनकी भाषा मिथ्यात्व रहित प्रचुर जनताके लिए प्रिय है, जो विविध क्रमोंसे रहित हैं, मैं उन ईशको तीन प्रकारसे प्रणाम करता हूँ। जिन्होंने विप्रोंके विकल्पोंसे युक्त ( संशयापन्न ) पदकी इच्छा नहीं की है, जिन्होंने अक्षय सुखपदकी इच्छा की है, जिन्होंने कृष्ण मृगाजिनकी निन्दा की है, मैं ऐसे इनके (पद्मप्रभुके)
१.१. A समग्गउ । २. A णियागम । ३. A सयामयकंदलु । ४. A P पयासियभासु । ५. A तिविहेण ।
६. A अक्खयसोक्खपयासु । ७. A 1८. P कण्हमयं अइणस्स । ९. Pइणमस्स ।
१२
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भविस्स जिनिंद अदिसमीह जगुत्तमु गोत्तमु भासइ एंव
सयामयणाहि सुंगंधसमीरि सकच्छउ वच्छउ देसु विसालु समीवसमीवपरिट्ठियगामु फलोणयछेत्तणियत्तणरिधु aft पुरि अस्थि पसिद्ध सुसीम दुभूमितिभूमिसमुण्णयणीड सरोरुह केसर लग्गदुरेह हरीमणिबद्धमणोहरमग्ग तहिं अपरजिउ णाम णरिंदु रई व भाविणिर्दुल्लाहसंगु
महापुराण
घत्ता - धादसंडइ दीवम्मि वरे जणगोहणसंकिण्णइ || पुव्वमेव दिसइ पुण्वविदेहि रवण्णइ ॥ १ ॥
अहो सुणि सेणियराय मिसीह | सुति महोरय दाणव देव ।
[ ४३. १. १४
०
२
सुसी सीहि दाहिणतीरि । मलविवि हिण्णमुणालु । पैणवासिपऊरियकामु । पिओ जहिं रोसणियत्तणणिधु । दुवारविलंबिय मोत्तियदाम | महंत रंतवण्णकवाड । जिणालयचूलिय चंबियमेह | णिभोयविसेस विसेसियसग्ग | करिंदु व दाणि कुलंब चंदु | सरास जेम गुणेण वियंगु ।
१०
सुन्दर चरितको कहता हूँ । उत्तम और सम्यक् चेष्टावाले हे भावी जिनेन्द्र, नृसिंह, हे श्रेणिक सुनो। विश्व में श्रेष्ठ गोतम इस प्रकार कहते हैं और उसे नाग, दानव और देव सुनते हैं ।
घत्ता - धातकीखण्डद्वीपमें मनुष्यों और गोधनसे परिपूर्ण सुन्दर पूर्वविदेह, पूर्वसुमेरु पर्वत के पूर्व में है ॥ १ ॥
अत्यन्त शीतल सीता नदोके, कस्तूरीमृगोंसे सुगन्धित समोरवाले दक्षिण तटपर, सोमो - द्यानोंसे सहित विशाल वत्स देश है, जिसमें हंसपक्षी मृणालोंको छिन्न-भिन्न कर देते हैं, जहाँ ग्राम अत्यन्त पास-पास बसे हुए हैं, जहाँ थके हुए प्रवासियोंकी कामनाएं पूरी की जाती हैं, जो फलोंसे झुके हुए खेतोंके नियन्त्रणसे समृद्ध हैं, जहाँ प्रिय क्रोध के नियन्त्रणसे स्निग्ध हैं। ऐसे उस वत्स देशमें सुप्रसिद्ध सुसीमा नगरी है, जिसके द्वार-द्वारपर मोतियोंकी मालाएं लटकी हुई हैं, जहां दो या तीन भूमियों (मंजिलों) से ऊंचे मकान हैं, खूब चमकते हुए स्वर्ण किवाड़ हैं, जहाँ भ्रमर कमलोंपर मड़रा रहे हैं तथा जिनमन्दिरोंके शिखर आकाशको चूम रहे हैं। जहां हरितमणियों ( मरकत ) मणियोंसे निबद्ध सुन्दर मार्ग हैं। मनुष्योंके भोग विशेषोंसे जो स्वर्गसे विशिष्ट हैं। ऐसी उस नगरीमें अपराजित नामका राजा था, जो करीन्द्रकी तरह दानी (मदजल और दानवाला) अपने कुलरूपी आकाशका चन्द्र था । कामदेव होकर भी जिसका संग, कामिनियोंके लिए दुर्लभ था । धनुषके समान जो गुणोंसे वक्र था, जो तेल की तरह खल (खली और दुष्ट) से रहित और स्नेहपूर्ण
०
२.१. सुगंध; सुयं । २. P तीरिणि । ३. A मरालमुहग्गं । ४. A पहीणं । ५. A पवासिय ऊरिय; P°पवासियपूरियं । ६. A पतंजहि । ७. P कुलंबरइंदु । ८. P भामिणिदुण्णयसंकु । ९. P
अकु |
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महाकवि पुष्पवन्त विरचित
खेलूँ जिउ रोल्लू व इलभोड सविग्गहु सद्दु व लक्खण तु
व समे णिवेसियलोउ । पज संधि बियाणइ मंतु । पत्ता-अन्यहि दिणि तेण णराहिण चितिउँ हो पहुच्चइ ॥ अं पुर मेल्लइ वल्लहउं अप्पणु तं लड्डु मुरुद ||२||
३
४३. ३.११ ]
अरे जडजीव समासमि तुभु गयासु लाल लोहर से जणेण व्रणो पणविज्जइ तेंब मग सुरंगम फिकर कासु मित्तु कलत्तु पुत्तु ण बंधु विचितिविवरुितु मणेण सवित्ति धरिति निवेश्य तासु गुरु' पहिया पणवे विं द सेकसूयंगवयाई धरेषि सुपोभोयणुभक्खु सेवि छुहा भये मेहुणु हि एवि
कस्स दिई जगि को 'विण मज्छु । निरंतरयं णियकज्जव सेण । सजीव तासु रक्खड़ जैव । फलक्खड़ पक्खि व जंति दिसासु । सरी वि एवं विणासि दुगंधु । कोक्किम पुत्तु सुमित खणेण । धरामरधारण कंधरु जासु । थिओ जिदिखवयक्खमु होवि । पुरायरगामसयाई रेषि । risert सुवास वसेबि । समाजले कलंक धुवि ।
११
५
१०
भोगवाला था, जो आकाशके समान समेह ( मेघ ओर बुद्धिसे सहित ); और लोको निवेशित करने वाला था । जो शब्द की तरह विग्रह-रहित ( संघर्ष और पदविग्रहसे मुक्त ) था, व्याकरणकी तरह सन्धिका प्रयोग करता था और मन्त्रको जानता था ।
घत्ता - दूसरे दिन राजाका सोचा पूर्ण होता है। यदि वह प्रिय नगरको छोड़ता है तो खुद भी मुक्त हो जायेगा || २ ||
३
अरे जड़ जी, मैं तुझसे कहता हूँ कि दुनियामें में किसोका नहीं है और कोई मेरा नहीं है। लोभ रस और निरन्तर अपने-अपने कार्यके वशसे मतालस और लालची है। मनुष्यके द्वारा मनुष्यको इस प्रकार प्रणाम किया जाता है कि उसके द्वारा अपने जीव की भी रक्षा नहीं की जाती । गज, अश्व और अनुचर किसके ? फल क्षय होनेपर पक्षियों के समान दिशान्तरों में चले जाते हैं। न मित्र, न कलत्र, न पुत्र और न बन्धु, यह शरीर विनाशी और दुर्गन्धयुक्त है। अपने मन में अच्छी तरह यह विचारकर उसने एक क्षण में अपने पुत्र और मित्रको पुकारा और वृत्ति सहित धरती उसे सौंप दी कि जिसके कन्धे धराका भार उठाने में समर्थ थे। गुरु पिहिताश्रवको प्रणाम कर, जिनदीक्षा और व्रतोंमें सक्षम होकर वह स्थित हो गया। ग्यारह श्रुतांग व्रतोंको धारण कर, सैकड़ों नगरों और ग्रामों में विचरण कर, प्रासुक भोजनका बहार ग्रहण कर, नपुंसक, स्त्री और पुंस्त्वकी वासनाको वश में कर भूख, भय, मैथुन और नींदको छोड़कर ( आहार निद्रा भय और
१०. खल्लि व हलभोड; P खलुझिय तेल व हलु भाउ ११. P सदु सलमखणवंतु । ३. १. A पयामि । २. P को दि । ३. P मोहरसेण । ४ A तासु वि । ५. A एम विणासि । ६. A मित्तु सुसु । ७. A घरामरधारण; P पराभव धारणु । ८. A पिहियासव णं पणवि ९A सुफासूय । १०. A छुहाम ममेहूणु ।
०
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महापुराण
[४३. ३.१२सहेवि परीसह भीमुघसम्म मुणिसणवित्ति चिणेवि समम्गे'। चएप्पिणु दुव्यहसीलवहार णिरिकवहूणिवमत्तकहा।
तवेण करेवि फलेवर खामु णिबंधिवि गोत्तु जिणेसरणामु । १५ विहंडिवि छडिवि चंडु तिदंड "मओ पमुएवि चउन्विहपिंछु ।
पत्ता-अवराइल रिसि उरिशियहि पारनंदहि गिर बनहिं . .
पीईकरणामविमाणवरि सुरु जायउ गेवजहि ॥३॥
गिहीगुणठाणवएहिं विमीस तहि तहु आउ महोवहि वीस । सेंसंतहु अंतरु तेत्तिय पक्ख दुत्थिपमाणिय बोंदि वलक्ख । ण को वि महीयलि संणिहु जासु दिणेहिं अहंसुरणाहह तासु । छमार्से परिहिउ आउसु जाव इणं घणवाहि पजंपा तांव। पुरीकासंबिवई मेणीसु। धराधरणो धरणीसु महीमु। सुसीम णियंबिणि वल्लह तस्स अखंडसुहारुईसोम्ममुहस्स। भिस भरहेसरवंसरुहस्स करेहि दिहिं णिलय व णिवस्स । अहो णिहिणाह विहंसियसोट पहोसइ णंदणु णंदियलोउ ।
तओ धणिणा पुरुपेसणरम्मु विणिम्मिउं भन्मविणिम्मियहम्मु । मैथुन ), अपने ज्ञानरूपी जलसे कलंकको धोकर, भयंकर उपसर्ग और परीषह सहन कर, सम्पूर्ण रूपसे मुनीन्द्रवृत्तिको स्वीकार कर, दुर्वहशीलका नाश करनेवाली चोर, स्त्री और नृपभक्तिकी कथाओंका त्याग कर, तपसे अपने शरीरको क्षोण बनाकर, तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध कर, प्रचण्ड त्रिदण्डको खण्डित कर और छोड़कर, तथा चार प्रकारके आहारका त्याग कर वह मृत्युको प्राप्त हुआ।
पत्ता-वह अपराजित मुनि, मनुष्यों के द्वारा वन्दनीय निरखद्य ग्रेवेयक विमानोंमें से तीसरे प्रोतकर विमानमें देव उत्पन्न हुए ||३||
____ गृहस्थोंके ग्यारह व्रतोंसे मिली हुई बीस सागर, अर्थात् इकतीस सागर प्रमाण उनको आयु थो। उतने ही पक्षोंमें अर्थात् इकतीस पक्षोंमें वह सांस लेते थे। उनका शरीर दो-दो हाथ प्रमाण और शुक्ल था। जिसके समान धरतोपर कोई नहीं था। उस अहमेंद्र देवराजके कई दिनों के बाद छह माह आयु शेष रह गयी । तब इन्द्र कुबेरसे कहता है कि "कौशाम्बी नगरीका पृथ्वीको धोखा करनेवाला मनस्वी राजा धरण है। सम्पूर्ण चन्द्र के समान सौम्य मुख वाले उसकी सुसीमा नामको प्रिय पत्नी है 1 वह भरतेश्वरके वंशका अंकुर है। उसके लिए हे कुबेर, तुम भाग्य और घरकी रचना करो। हे कुबेर, उनके शोकका उपहास करनेवाला और लोकको हर्ष उत्पन्न करनेवाला पुत्र होगा।" तब कुबेरने इन्द्र के आदेशसे रम्य स्वर्णप्रासाद बनाया।
११. A वसरिंग । १२. A समगि । १३. A P मुषो । १४. 4 पोईकरणाम; P पोय करमाण । ४. १. A भाव । २.A सुगंतह। ३ P दिवलय हत्यप । ४. A F छमास । ५. A मुणोम् । ६. A
घरणोद्धरणे । ७. A तासु । ८. A "सुहायरसोन्ममुहासु ।
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-४१.५.१४]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
पत्ता - अण्णा वासरि रायाणियर णिसिविरामि उबलक्खिय || पासायलमवलसुतियइ सिविणयमाल णिरिक्खिय ||४||
दाहिमसायवलु तम ओलको करिंदु खरे खुरेहिं धरग्गु दलंतु fatafat विसाण धुणंसु गिरिंदा कुरंत विणिसु लयादरलोलललाषियजीहु णिसावइसेय दिसागयकंति सूरं गुत्थु पिहिततमीतमुणिम्मलु चंदु फेमस रमंत देईति वरंत मल कुंभल अलीरेषफुल्लिय पोमरयालु मिकीली गईदु पदसिय भीरमीण
सिपण
दु
५
रात्रि झलझलकण्णु ! यिजिंगमु णाई धरिंदु | बलाल बिंद बलेण खलंतु । यिच्छिक संभु एंतु खरं तु ।
सारुदारुणदू सन्तु । हालिरंतु नियच्छिउ सीहु । यिकिय लछि सरोवरि ति । यिच्छित दामयजुम्भु णहत्थु । यिचि तिबु तबंतु दिणिंदु | यिच्छ्रिय मच्छ चलंत वलंत । णियच्छिय कुंभ वरंभपचण | विरंग सिलिंजय चषिखयणालु । यि तामरसायेरे रुंदु । नियच्छिउ बारिर उद्दु समुदु |
९३
१०
बत्ता — दूसरे दिन रात्रिके अन्तिम प्रहर में प्रासादके अन्तिम तलमें सोते हुए रानीने स्वप्नमाला देखी ||४||
५
जो सुधा, चन्द्र और शरद्कालीन मेघके समान सफेद रंगका है, जिसकी सूंड लम्बी है, जो हिलते हुए कानोंवाला है, और जिसके कपोलभागसे मद मर रहा है ऐसा गजराज देखा, जो मानो जंगम पहाड़ हो । अपने लोव्र खुरोंसे धरती के अग्रभागको रोता हुआ, बलशाली, बलसे स्खलित होता हुआ, सींग घुनता हुआ, सामने गाता हुआ, गरजता हुआ विशेष वृषभेन्द्र देखा । पहाड़ोंकी गुफाओं मोर कुहरोंमें रहनेवाला, क्रोधसे अरुण और भयंकर नेत्रवाला लतादलके समान चंचल जीभको हिलाता हुआ, नखावलीसे भास्वर सिंह देखा । चन्द्रमाको तरह श्वेत और ferrint कान्तिवाल लक्ष्मीको सरोवर में स्नान करते हुए देखा। अनेक पुष्प समूहोंसे गूँथी हुई मालाओंका युग्म आकाशमें देखा । रात्रिके अन्धकारको नष्ट करनेवाला निर्मल चन्द्र देखा । तीव्रतम तपता हुआ सूर्य देखा, प्रमत्त रमण करती हुई, सरोवर में तैरती हुईं, चलतो मुड़ती हुई मछलियाँ देखीं । कुम्भमालामें रखा हुआ मघु कमळोंसे ढका हुआ उत्तम जलसे परिपूर्ण घड़ा देखा, जिसमें डूबने और कोड़ा करने में गजेन्द्र लोन है, जो भ्रमरोंके शब्द और पुष्पित कमलोंके रजसे युक्त है, जिसमें हंसों के बच्चे मृगाल खा रहे हैं, ऐसा विशाल सरोवर देखा । जो दिखाई देनेवाले
९.लि सुत्तिय; P ले सुत |
५. १. A कबोल । २. P गईव । ३ AP विसेसु विसेसु । ४. AP रतु । ५. AP | ६. A reads this line after चक्खियालु below. ७. A भमंतु । ८. AP बहंदि । ९. AP अलीरत ।
१०.
A कीलसील: P कीलणणीलु । ११. P रसाय । १९. AP रखद्द्द्द् ।
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९४
१५
२०
५
सुहासु 'पेरिडिट इ यिकिछ अच्छरणाविमाणु छि बोमदिलाणणभासि 'पेषित् पत्ति धिरण व सित्तू यि
विचिरचिययेहु
पत्ता- विद्यहु देवि तुर होस वगुरु
महापुराण
पुरंदरणारं द्विरी प पसाहित्र सोहि सीमहि गच्भु हिमागमि संगमि माहि पवणि असेहि छट्टिहि रत्ति विरामि इहाविधरो वलिरेडि यंग णराम मंदिक आय दह जि पक्ख सिणा दुहहार गए सुमईसि मद्धिमेहि समाइ कत्ति कंदकियोइ
यि बिरु सीणिबिट्टु | अहीसे मंदिर मेरुमाणु । पाइ अणूण मणीण य रासि । महंतु जलंतु ईग्गि मिलंतु । पहाड़ गंपि णराद्दिवगेहु ।
वज्जरिएं जं जिह दंसणु दिजं ॥ परम जिणु तेण ताहि फलु सिद्ध ||५||
[ ४३.५.१५
दिहि केति पराइय छ । रिदुति वुट्टड हेमबरं । हे दिव्यमि पसर्पिण । संकदिवायरसंग सैकामि । थिओ मुणिनाहु समाय रिदेहि । रिहच्छिण उपऋषि सुकियमाय । घरंगण पाहिय कब्बुरधार । असीदहको डिसास मेहिं । अदितेरसि तद्वैयजोड़ ।
भीषण मत्स्योंसे रौद्र है ऐसे जलसे भयंकर समुद्र देखा । सुखावह सुन्दर अच्छी तरह स्थापित सिहासन देखा । देवोंका विमान देखा, और मेरुके समान नागराजका लोक देखा | आकाश और दिशाओं में चमकती हुई प्रभासे अत्युत्तम मणियों की राशि देखो। पवित्र प्रदीप्त घोसे सिंचित महान आकाशसे मिलती हुई अग्नि देखो, प्रभात में मनुष्यों के द्वारा पूजित राजाके घर जाकर
पत्ता- — देवोने अपने पतिसे जिस प्रकार स्वप्नदर्शन किया था वैसा कहा। उसने उसे फल बताते हुए कहा कि उसका पुत्र परम जिन होगा ॥५॥
इन्द्रकी नारियाँ धवल आंखोंवाली ही श्री धृति- कान्ति और लक्ष्मी आयों और स्वामी के गर्भका प्रसाधन तथा शोधन किया। छह माह तक स्वर्णवर्षा हुई। फिर हिमागमवाले माघ माह्के कृष्णपक्ष षष्ठी के दिन जब कि दिशाचक निर्मल था, रात्रिके अन्तमें चन्द्र और सूर्यके सकाम योग में गजरूप में त्रिबलिसे शोभित अपनी माताकी हमें भगवान् स्थित हो गये । नाग, मनुष्य और देव उनके घर आये। और इन्द्रके साथ उत्सवमें उन्होंने मायाको खण्डित कर दिया । कुबेरने अठारह पक्षों तक लगातार गृहप्रांगण में दुःखको दूर करनेवाली स्वर्णवृष्टि को 1 सुमतिनाथके बाद महाऋद्धियोंसे परिपूर्ण नब्बे हजार करोड़ सागर बोस जानेपर कार्तिक माह के कृष्णपक्षको
१३. पट्टि । १४. AP अहो सरह गिरिसमा १५ पलित पवितु थिएन; P पनि पलितु थिए । १६ किंतु ।
६. A गारिहिं को बच्छ । २. A उति । ३ AP संगमिकामि । ४. सुंकिय ५. मह मसि । ६. यि ।
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महाकवि पुष्पदन्त विरचित हुओ परमेसु सुहाई जर्णतु असंखसहासु महामहवंतु। पुणाइब जीय जिणिंद भणंतु णहं तुरहिं गएहिं पिहंतु । पुरं पणवेवि णिवासि विसेवि सुहीहिययंतरि भनि करेवि । जिर्णम्महि हस्थि परो सिसु देवि जगतयणाहु णवेषि लएदि । पवजियढेकु कमक्कमिया पिओइड वारणु चलिउ सकु। गओ गहमंडलु लंधिवि तांव सिला इगसिंचणमेइणि जाय । धत्ता-तहि मेरुसिंगि संणिहिउ जिगु पाणिव सुरयणु आणा ।।
कल्हारपिहियघटसहसकर सई पुलोमिपिउ पहाणइ ॥६॥
विगाणिवि पाणिनि पहामिहीन गुणो दयारु करेवि महीइ । पर्णञ्चिवि अम्गइ बालुं चलेहिं थुणेवि सुरेहि गुणालकुलेहिं । समप्पिर मायहि पंकयणेत सुलक्खणजेणरंजियगत्तु । गयामयभोई सवासपएसु पवडिउ तायहरम्मि जिणेसु । ण वण्णहु सक्कंचि तासु कयाई सयद्ध णिउत्तई दोणि सयाई । सरामणयाई सरीरपमाणु रुईइ विरेहाइ णं णवभाणु । समं परउिभयाण रमेवि इसीसमपुन्च ह लक्ख गमे वि।
वर्यकसमकिउ सुण्णचउक्क पूर्ण पि दिणेहि पमाणु पढुक्क । तेरसके दिन त्वष्ट्रायोगमें परमेश्वर सुखोंको उत्पन्न करते हुए उत्पन्न हए। असंख्य देव और पांच कल्याणकार्यको करनेवाला इन्द्र फिर आया, 'हे जिनेन्द्र जीवित रहो' यह कहते हुए और गजों तथा अश्वोसे आकाशको आच्छादित करते हुए, फिर प्रणाम कर और घरमें स्थापित कर, बन्धुजनोंके हृदयके भीतर भक्ति कर जिनमाताके हाथमें दूसरा शिशु देकर, त्रिलोकनायको प्रणाम कर और लेकर, जिसपर ढक्का बज रहा है, और जो सूर्यका अतिक्रमण करनेवाला है, ऐसे गजको उसने प्रेरित किया, और इन्द्र चला । ग्रहमण्डलका उल्लंघन करता हुआ वह वहां पहुंचा जहाँ जिन भगवान्को अभिषेकभूमि पाण्डुशिला थी।
___ पत्ता-उस सुमेरु पर्वतपर जिन भगवान्को स्थापित कर दिया गया। सुरसमूह जल लाता है, कमलों से आच्छादित घड़े जिसके हजार हाथोंमें हैं ऐसा इन्द्र उनका अभिषेक करता है ||६||
जानकर और स्नानविधिसे स्नान कराकर पुनः धरतीपर अवतरण कर, बालकके धागे नृत्य और स्तुति कर गुणालकुलके देवोंने लक्षणों और सूक्ष्मध्यंजनोंसे शोभित-शरीर कमलनयन बालक माताके लिए सौंप दिया। देव अपने-अपने घर चले गये। जिनेश अपने पिताके घर में बढ़ने लगे। उनकी लीलाओंका मैं वर्णन नहीं कर सकता। उनके शरीरका प्रमाण ढाई सौ धनुष ऊंचा था। कान्तिमें वह ऐसे शोभित थे मानो नवसूर्य हों। इस प्रकार मानव बालकोंके साथ रमण करते हुए, उनके सात लाख पचास हजार पूर्व समय बीत गया। इतने दिनोंका मान (प्रमाण) पूरा
७. AT सुहासु । ८. A PT जिणंबहि । ९. A तुक ।१०,A कमकमियंकू । ७. १. A P read a as b and basa. २. A Pारलेहि । ३. A Pगुणाण । ४. A P°विजण । ५. Aण वष्णहं सबकमि Pण चवि सक्कमि । ६, A P सरीरु १माणु ।
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९६
१०
१०
तो तहिं पतु सयं सयमण्णु दु एक्कु जिवि पंच जि देहि
महापुराण
राहिब दीडरपासणिरुधु समुपणकुंभु जगविलग्गु तओ परिचितिषं दिव्वेणिवेण ण विंझसरीजलकील मणोज्ज कंटल मिड ण कोमलवेणु करेणुरई करता थ घट्टणु फणिरोह एक्कु इहिदु मए इह उत्त ण णिमाइ जग्गाइ किं पिण मूदु अहं पिहु मोहि किं परु मोक्खु दिणा सिरु जाणिव पेच्छमि लोड अलारर्थ खजु सुंदर प्रति
कुमार निवेसिक रजि पसवणु । पुणो वि सिसुत्तरसंख गणेहि ।
[ ४२.७.२९
घता - इय पुण्वकालु पुहईसरहु गड सुहुं सिरि माणं । aurfers ता किंकरेणरिण कर मतलिखि पणवेवि तहु ||७||
4
करीसर वारिणिबंधणि बंधु' । धराहिव जाणषिं तुम्हहुं जोग्गु । भगिय केवलणाणसिवेण | ण सल्लपल्लव भोज ण सेब्ज । ण मग्गविलग्गिर बालक रेणु । सफासवसेण विडं बिउ इत्थि । सहेश् वरा बिभियमोहु । अहो जणु टुक्कियदे णि खुत्त सिरिमयदिपव्वसु दु । दुमा चम्मविणिम्मि रुक्खु । विरप्पैम तो दिण भुंजमि भोउ । इच्छमि वच्छमि गंपि वर्णति ।
I
होनेपर, तब फिर वहाँ इन्द्र स्वयं आया और प्रसन्न कुमारको राज्य में प्रतिष्ठित किया। फिर दो और एकके ऊपर पांच बिन्दु दो और तब शेशव के बादको संख्या गिनो ।
पत्ता- इतने वर्ष पूर्व ( इक्कीस लाख पूर्व वर्ष ) वर्ष लक्ष्मीका सुख मानते हुए राजाके निकल गये तो अनुचर मनुष्यने हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए राजासे निवेदन किया ||७||
८
हे नराधिप, जो लम्बे पाशसे निरुद्ध था, हाथियोंके आलान में बँधा हुआ था और जिसका कुम्भस्थल समुन्नत था, ऐसा वह महागज आकाशके अग्रभागसे जा लगा है ( मर गया है) । अब तुम्हारे योग्य बातको मैं जानता हूँ। तब जिसने केवलज्ञान और शिवकी याचना की है, ऐसे दिव्य राजाने विचार किया - "विन्ध्या नदी (नर्मदा ) को जल-कोड़ा सुन्दर नहीं है, शल्यको लता के पल्लवों का भोजन और सेज भी ठीक नहीं है, न कन्दल मोठे हैं और न कोमल वेणु। न मार्गमें लगी हुईं बाल करेणु अच्छी है, अब उसमें हथिनीका प्रेम और मूंडसे प्रताड़न नहीं है। स्पर्शके वशीभूत होकर हाथो विडम्बनामें पड़ गया है। बढ़ रहा है मोह जिसका, ऐसा यह बेचारा गज दृढ़ अंकुशोंका संघर्षण एवं स्पर्शका निरोष सहन करता है, मैं यह कहता हूँ कि अकेला गजेन्द्र नहीं, आश्चर्यं है लोग भी पापों की कीचड़ में फँसे हुए हैं। मूर्खजन न निकलता है और न थोड़ा भी जागता है। मूर्ख लक्ष्भोके मद और निद्रा के वशीभूत है। अरे में भी तो मोहित है, श्रेष्ठ मोक्ष क्या ? खोटा मनुष्य चर्मसे निर्मित और रखा है। लोकको विनश्वर जानता हूँ और देखता हूँ। तो भी विरक्त नहीं होता, और भोग भोगता हूँ। राज्य मशाश्वत है और अन्तमें सुन्दर नहीं होता। मैं इसे नहीं चाहता । वनमें जाकर रहता हूँ।"
७. P पंच जिव ८. P यारि ९. A परिणा ।
८. १. AP | २. A दिवु । ३. A पासणिरोह । ४ A P वृढुं । ५. विश्पथि ।
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-४३. ९. १३]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-तावायहिं लहुं लोयंतिहिं णाहदु वयणु समैथिउ।
अंबर धावंतहिं दणुरिहिं चित्तचीरु णावह थिउ ||८||
गिरि ४व जलागमणे अलएहिं । सुरेहिं पहू पविओ कुलएहिं । समचिउ लोयगुरू कुडपहि थुओ दुबईवयणुक्कुद्धएहिं। सुवण्णमेयाइ णरहिछपियाइ महिंदणियाइ गओ सिवियाइ । वर्णतरु चार पहुजियचारु सकंकण हाह पमोझिविदारु। खमाविउ लोउ सिरे कउ लोड मवण्णवपोउ विसुद्धतिजोउ । करेप्पिणु छठु वि सुद्छ वरिछु पदिट्टसइदछु समासियणिट्छ । समटुममासि जंगंतपयासि घणागमणासि हिमालपवासि । दिणे असियम्मि सुतेरसियम्मि दिणेसरि जाम दुयालसियम्मि । विणिमाउ हत्थ पहइय चित्त अलंक्रिय तहिणि संजमजेत्त । सुयाई मुणेवि रयाई धुणेवि महन्वय लेवि थिओ रिसि होवि । समं सक्रिवाह सहासु णिवाह तकिट ताहं ण मच्छरु जाई। घत्ता-वारविहतवणिवाहणहि धम्मजोयपरिरक्खहि ॥
पउमप्पह वड्ढमाणणयरि देव पंइष्ट भिक्खहि ॥२॥
१०
घसा-तब लौकान्तिक देवोंने आकर प्रभुके वचनोंका समर्थन किया। आकाशमें दौड़ते हए देवदानवोंने जैसे अपने चित्तरूपो चीरको स्थिर कर लिया ॥८॥
जिस प्रकार वर्षाकान मानेपर मेघोंके द्वारा गिरि अभिषिक्त होता है, उसी प्रकार देवोंने घड़ोंसे प्रभुका अभिषेक किया। कुटक पुष्पोंसे लोकगुरुको समर्चना की। दुवह वचनों (द्विपदा वचनों) से उत्कट (गोतों) से स्तुति की। लोगों के नेत्रोंके लिए सुन्दर, स्वर्णमयी इन्द्रके द्वारा ले जायो गयो शिविकाके द्वारा वह, जिसमें चार पुष्प खिले हुए हैं, ऐसे सुन्दर बन में गये । अपना कंगन हार डोर छोड़कर लोगोंसे क्षमा मांगकर, सिरका केश लोंचकर, संसाररूपी समुद्र के जहाज तीन योगोंसे विशुद्ध, छठा उपवास कर, श्रेष्ठ वरिष्ठ, अपने हितके द्रष्टा, चारित्रसे आश्रय लेनेवाले वह, आठवें माह ( कार्तिक माह ) जबकि विश्वको प्रकाशित करने वाला सूर्य, मेघोंके आगमनका नाश करता हुआ, शीतलताका प्रवेश कराता है, कृष्ण पक्षको त्रयोदशीके दिन, सूर्य दो पहर ढल चुक्ता है, चित्रा और हस्त नक्षत्र उगे हुए थे, तब वह संयमकी यात्रासे शोभित हुए। श्रुतका अध्ययन कर, पापोंका नाश कर महानत ग्रहण कर और महामुनि होकर स्थित हो गये। उनके साथ रामान करुणाबाले एक हजार ऐसे राजाओंने भी अपनेको तपसे अंकित किया कि जिनमें ईर्ष्या नहीं थी।
__घत्ता-बारह प्रकारके तपोंके निर्वाहके लिए, और धर्मयोगको रक्षाके लिए, पद्मप्रभु स्वामो आहारके लिए वर्धमान नगरी में प्रविष्ट हए |९|
६, A P समत्थिय । २. १. A सुवर्णामयाइ । २, A P अगत्तपयासि | ३. A संजमजुत्त । ४. A णिस्वाहणत । ५. A धम्म् ।
६.P जोइपरिक्वहि । ७. A पय ।
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महापुराण
[४३.१०.१
१०
णमोत्थु भणेवि गहीररवेण घर णिल सो ससि येत्तणिवेण | तिणा तहु णिम्मैलु भोयणु विष्णु मुणिंदणिहालणि संचिउ पुण्णु । णिदेलणि उग्गय अग्मुय पंच अहासवदारई संभिषि पंच । गओ रिसि घोसिवि अक्खयदाणु बंधुसु वेरिसु णिच्चसमाणु । पमाय कसाय विसाय हरंतु छमास विहिंडिउ वित्त घरंतु । विहूयनमोमयमंदकलंकि चइत्तछणम्मि पमण्णससकि। सुचित्तहि चिप्सइ चिंतविमुक्क दद मणि पूरिखं बीयर सुक्कु । परंदिसमासिइ बासरराइ इण्णउ केवलणाणु विराक्ष ।
णियासणचालणचालियसग्गु विमाणपऊरियवारियमग्गु॥ १. समागउ झत्ति पवाहियपीलु बिडीउ समिच्चु सचिधु सलीलु ।
धत्ता-दह भावण तर अविह जोइस पंचविहाय ।।
सोलहविह कप्पणिवासिसुर जिणु णवंति गुणराइय ॥१०॥
णमो अरिहंत णमो अरिहंत णमो दयवंत णमो दयवंत
णमो विसयंत णमो विसयंत । णमोत्थु अभंत भयंत भवंत ।
'नमस्कार हो' गम्भीर ध्वनिमें यह कहकर सोमदत्त उन्हें अपने घर ले गया। उसने उन्हें निर्मल भोजन दिया और इस प्रकार मनोन्द्रदर्शनसे पुण्यका संचय किया। उसके घरमें पांच आश्चर्य प्रकट हुए। पांच पापासबोंके द्वारको रोककर, महामुनि, 'अक्षयदान' कहकर चले गये । अच्छे बन्धु या शके प्रति नित्य समानरूपसे रहनेवाले प्रमादों, कषायों और विषादोंको दूर करते हुए और मुनिवृत्तिका आचरण करते हुए उनके छह माह बीत गये। जिसने तमोमय मृगलांछनको नष्ट कर दिया है ऐसी पूर्णचन्द्रमावाली चैत्रशुक्ला पूर्णिमाके दिन, चित्रा नक्षत्रमें, चिन्ता. से मुक्त अपने सुवित्तमें दूसरा शुक्लध्यान पूरा कर लिया। और जब सूर्य पश्चिम दिशामें पहुँच रहा था उन विरागीको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। अपने आसनोंके डिगनेसे स्वर्ग चलायमान हो गया। आकाशमार्ग विमानोंसे भर गया। अपने हाथी को प्रेरित कर, अपने भृत्यों, पताकाओं और लीलाओंके साथ शीघ्र इन्द्र आ गया।
पत्ता-दस प्रकारके भवनवासी, आठ प्रकारके व्यन्तर, पांच प्रकारके ज्योतिष और सोलह प्रकारके कल्पवासी देव गुणोंसे विराजित जिनको नमस्कार करते हैं ।।१०||
११
कर्मरूपो शत्रुओं का धात करनेवाले आपको नमस्कार, अर्हन्नाथ आपको नमस्कार, विषयों का अन्त करनेवाले आपको नमस्कार, विषय (वस्तु) को अन्तिम सीमा तक जाननेवाले आपको नमस्कार, दयायुक्त आपको नमस्कार, अदयाको नष्ट करनेवाले आपको नमस्कार, अभ्रान्त भदन्त १०.१. A ससिदत्त । २. A भोयण णिम्मलु । ३. A णिग्गय । ४. A ' सबंधु । ५. A सबैरि । ६. P
मुभिच्च । ७. A विहंडिज । ८. Pउप्पण। १. P ताद । ११. १. A P अरहंत । २. A णमोस्थ भयंत ।
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४३. १२.४ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
णमो बुहराम णभो विराम णमो गिरिधीर णमो गयसीर मणियमाल सुपंकयमाल फलाई संतु जलाई रसंतु पण जे तवसी अहो मुणिसीह तु सुमरंति भवेसु मरंति पणासियसासय संपचमूलु कुसंगु कुलिंग सामि कुदेउ वियंभर पाणविलोयणसत्ति
णमो गुणथाम मोमियथाम । णमो यमार णमो धुवमार । कैसी महाकरील ।
लाई बसंतु वणमिव संतु । परत्तसिरीह णिरीस गिरोह |
ते सुद्दि होंति मृगेसु हि होंति । महं तु धम्मसिरीपढिकूलु । कुपति कुमित्तु म जम्भ विशेउ । सुणिश्चल होत तुहुपरि भति ।
पत्ता - णिव्वाणभूमिवररमणिसिरिचूडामणि पदं वर्णमि || पिसाएं विडियउ अप्पर हूँ तगु मण्णमि || ११||
धुपेपणु एम गुणोहु जिणेसु उभय सोडियम fe दारेs गोवरयाई सुपायवे लिहेराई
१२
तओ वियसेहिं कओ वहु वासु । हिसारखराव इयमंदिरया । थूह दिoiघराई ।
९९
१०
( मुनि) और ज्ञानवान् आपकी जय हो । पण्डितोंके लिए आपको नमस्कार, अधोंका नाश करनेवाले आपको नमस्कार हो, गुणोंके घर आपको नमस्कार, हे अनन्तवीर्थं आपको नमस्कार । गिरिकी तरह गम्भीर और हल रहित आपको नमस्कार, कामको जीतनेवाले आपको नमस्कार, ध्रुव लक्ष्मीदायक आपको नमस्कार, नियम सहित आपको नमस्कार, कमलोको मालासे शोभित आपको नमस्कार, जिन्होंने सुशील मुनियोंको अपने चरणों में नत किया है ऐसे महागजकी लोला करनेवाले आपको नमस्कार । जो तपस्वी फल खाते हैं, जल पीते हैं, दलोंमें रहते हैं, वन में निवास करते हैं, ऐसे तपस्वीश्रेष्ठ भी, यदि हे निरीह निरोश मुनीश्वर, तुम्हें स्मरण नहीं करते, तो वे जन्म-जन्मान्तरों में मरते हैं, वे पण्डित भी नहीं होते, पशुओंमें उनका जन्म नहीं होता। जिन्होंने शाश्वत सम्पत्की जड़को नष्ट कर दिया है और जो धर्मरूपी लक्ष्मीके प्रतिकूल है, ऐसा कुसंग कुलिंग कुस्वामी कुदेव कुपत्लो कुमित्र मेरा किसी भी जन्ममें न हो। मेरी ज्ञानसे देखनेकी शक्ति बढ़े (विकसित हो), तुम्हारे ऊपर मेरी भक्ति निश्चल हो ।
घत्ता – निर्वाणभूमिरूपो श्रेष्ठ रमणीके सिरके चूड़ामणि हे देव, मैं तुम्हारा वर्णन करता हूँ | काव्यरूपी पिशाचसे प्रताड़ित में जड़ स्वयं तिनकेके बराबर समझता हूँ || ११||
१२
इस प्रकार गुणों के समूह जिनकी वन्दना कर, उस समय देवोंने उनके निवासको रचना की। चारों दिशाओं में खम्भे स्थापित कर दिये गये। चारों ओर सारसोंके शब्दसे युक्त जल था । चारों ओर दरवाजे और गोपुर थे। चारों दिशाओं में चैत्य और मन्दिर थे। चारों ओर वृक्ष मोर
३. P कधिं । ४. A मिनेसु मगेसु 1 ५० A "सिरलामणि । ६ मण्ामि । ७. A त ह । १२. १. P दाबि । २. A बेल्लिबार ३ A दिव्यराई |
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महापुराण
[४३. १२.५चउदिसु दीसह सम्मुहुँ देउ पउद्दिसु आसणु सीहसमेत्र । चउद्दिसु भावलउभ७ तेउ चउदिसु पासवरत्तु असोज । चउदिसु छत्तई पंडुरयाई
चउदिसु सभई चामरयाई। चउदिसु अहमहाधयपंति चउदिस पुप्फचयाई पडंति । चउदिसु दुंदुहिसह घडति चउद्दिसु इंदयावे गडंति । असेसह भासविसेसई खाणि चदिसु तस्स दियभइ वाणि । पत्ता-चाई सस वह धम्मविहि णव पयत्थ छहर्दवई ।।
आहासइ परमप्पा जणहु सवई भूयई भव्वई ॥१२॥
१३ खएक्कु पुणेक्कु गणेसवराह दुसुण्ण तिण्णि दु पुत्वधराह । तिबिंदुय रंध रिऊयदुयजुत जिणिंदाहु एत्तिय सिक्खपउत्त। सहास दमेष य ओहिजुयाह दुवालस ते चिय सम्ववियाई । सहासई सोलह अट्ठसयाई विवरिद्धिरिसिदहं ताई। महामणपज्जयणाणधराई
धुर्व तिसयंकित सउ जि सयाई । सहासह उपरि धसमाई खजुम्मु सडंकु वि वाइवराई । सहासई वीस पयोणिहि लक्ख वियाणहि संजमधारिणिसंख ।
वयस्थघरस्थ तासु तिलक्ख अणुव्वयणारिहिं पंच जि लक्ख | लतागृह थे, चारों ओर स्तम्भ तथा दिव्य घर थे। चारों दिशाओंके सामने देव थे, चारों तरफ सिंहासन थे। चारों ओर भामण्डलोंसे उत्पन्न तेज था, चारों ओर पल्लवोंसे आरक्त अशोक वृक्ष थे। चारों ओर सफेद छत्र थे, चारों ओर दोनों हाथोंमें चामर थे। चारों ओर आठ ध्वजपंक्तियां थीं। चारों दिशाओं में पुष्प-समूहको वर्षा हो रही थी। चारों दिशाओं में दुन्दभि शब्दकी रचना हो रही थी। चारों ओर इन्द्राणियो नृत्य कर रही थीं। समस्त भाषाओंकी खदान उनको वाणी चारों दिशाओं में फैल रही थी।
पत्ता-सात तत्त्व, इस प्रकारका धर्म, नो पदार्थों और छह द्रव्योंका कथन वह सबके लिए करते हैं । यस अवसरपर सभी लोक भव्य हो गये ॥१२॥
र
एक सौ दस उनके गणधर थे। दो हजार तीन सौ पूर्वधारी थे। जिनेन्द्र के दो लाख उनहत्तर हजार शिक्षक कहे गये हैं। दस हजार अवधिज्ञानी, बारह हजार केवलज्ञानी, विक्रियऋद्धिके पारक मुनोन्द्र सोलह हजार आठ सौ; मनःपर्ययज्ञानी दस हजार तीन सो, नो हजार छह सौ श्रेष्ठवादी थे। चार लाख बीस हजार संयम धारण करनेवाली आयिकाएं हैं। व्रतो गृहस्थ तोन लाख थे। अणुव्रत धारण करनेवालो श्राविकाएं पांच लाख थीं। संख्यात तिथंच थे और देव
४, P जक्खकरे। ५. A P इंदतिमाउ । ६. A तासु 1 .A धम्मविह। ८. P छदमाई।
९.A सवभूइभ्याई भवह । १३. १. A सिक्खय उत्त । २. A P अणुव्वयारिहिं ।
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महाकवि पुष्पदन्त विरचित
तिरिक्ख सख सुरा वि असंख पण सिवि राई रईसुहकख । समासिवि धम्मु पेसियदुक्खु
छमाविण पुरवई लक्खु ।
-४३. १४. ८ ]
पत्ता - संमेयडु सिरि समारुहिचि मासमेत्तु थिङ जोएं ॥ ty अंतिम शाणु पराश्य सहुं मुनिवरसंघापं ॥ १३ ॥
मामि फग्गुणपक्खि सुकिविह सासरू विदेहविमुक्कु or कर्णे ण पोच ण लोहिए सुक्कु पुंण संतुण भण्णइ इस्थि ओ परमेसरु अट्टगुणदु सिहिद सिरोमणिमुक् क सिद्दीहिं
सिवि सिद्धणिसी हियथति ओ परिहारि समीरबहेण
१४
वित्त उत्थितिथिही अवरहि । जगग्गधैरितिं जाइवि थक्कु ।
लाह तासु चत्थि गुरुक्कु । फुरंतस केवल बोई गभत्थि । सरी सक्ख तक्खणि दड्छु । समच्चणवंदणहोम बिहीहि । पर िणिओइड कुंजरू झत्ति सुरण व अण्णविभाणुमण ।
१०१
१०
१४
५
असंख्य थे । रातको रतिके सुखको आंकाक्षाका त्याग करनेवाले, धर्मका आश्रय लेनेवाले और दुःखका ध्वंस करनेवाले उनका छह माह कम एक लाख पूर्व समय बीत गया ।
घता - सम्मेद शिखरपर चढ़कर वह एक माह तक योगमें स्थित रहे । मुनिवरसमूहके साथ वह अन्तिम शुक्ल ध्यानपर पहुँचे ||१३||
माघ माह बीतने पर फागुनके कृष्णपक्ष चतुर्थीके दिन अपराह्न के समय चित्रा नक्षत्र में ज्ञानस्वरूप, तीन प्रकारको देहोंसे विमुक्त वह जाकर विश्वके अग्रभाग में स्थित हो गये। जहाँ वह न कृष्ण थे और न पीत । न लाल और न शुक्ल । न उनमें लाघव या और न गुरुता । न वह पुल्लिंग थे और न नपुंसक और न स्त्री कहे जाते थे। वह अपने प्रकाशमान केवलज्ञानमें स्थित थे। वह आठ गुणोंसे समृद्ध परमेश्वर हो गये । लक्षण सहित उनका शरीर समन, वन्दन और होमकी विधियोंसे युक्त अग्निकुमार देवोंके मुकुटमणिकी ज्वालाओंसे तत्काल दग्ध हो गया। सिद्धरूपो नृसिहों में स्थिति पानेवाले उनको नमस्कार कर इन्द्रने अपने पैरसे ऐरावतको प्रेरित किया, और चला गया। दूसरे देव भी सूर्य चन्द्रमा के समान तेजवाले विमानोंपर बैठकर चले गये ।
३. A सुसंख 1 ४. A रायरईसुह Pारिरईसुद्ध | ५. A पहंसि । ६. A सिए ।
१४. १. महामि । २. A सुचित । ३ AP जगमगधरितिहि । ४ A किवह ५. A ण पुंसत संकुण 1 ६. A बोधगमत्थि । ७. समविधि ।
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१०२
१०
महापुराण
घाम तूस भरभव्वणमिस पसप्प हियाइ ॥ तिजगिदडु केरल एम जसु पुप्फयंतु को पावइ ||१४||
इस महापुराणे तिसट्टिमा पुरिस गुणाकारे महाकपुप्फयंतविरहषु महाभव मरहाणुमणिए महाकवे परममिवाणगमणं णाम तियाशीसमो परिछेत्र समसो ॥४३॥
१०
美 "परमप्पहचरिचं समर्त्त ॥
[ ४३. १४.९
पत्ता - भरत भव्य के द्वारा प्रणम्य, आपत्तियोंका नाश करनेवाले पद्मप्रभु मुझपर प्रसन्न
हों, सूर्य-चन्द्र के समान त्रिजगेन्द्रका यश इस प्रकार कौन पा सकता है ? ||१४||
इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणाकारोंसे युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महासभ्य भरत द्वारा अनुमत महाकाष्य में पद्मप्रस निर्माण-गमन नामक तैयाकीसच परिच्छेद समाप्त हुआ ॥१३॥
८. AP भमरई । ९. 4 | परमप्पहु । १०. A Pomit the line,
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संषि४४
अगहिय असिपास गयदप्पासह पासाइयवम्महज यह ॥ सोडियपसुपासह णविवि सुपासह पासियपासंडियणयहु प्रवर्क|
णिरायसं महाजसं णिरंजस समंजस। अमोसयं णिरंजणं
सुवच्छलं णिरंजणं । पुरु गुरु णिरासर्व वोणिहं णिरास। असंगयं णिरंवर मयप्पमाणियंवरं। अमंदिरं गैयालयं वियखणं णयालयं । मुणीसरं णिरामयं समोसह णिरामयं । अलं कुळेण उत्तम सणाणएण णितम। जिणाहिवेसु सच णमंसिऊण सप्तम।
जयाहियं जई हिर्य भणामि तस्स ईहियं । पत्ता-गररयणकरंडइ धावसंडइ पुज्वषिदेहि पु-वगिरिहि ॥
हिमजललवसीयहि संसरि सीयहि कच्छम देसु महासरिहि ॥१॥
सन्धि ४४ जिन्होंने आशाके पाशको ग्रहण नहीं किया, जिनका दर्प और आशा जा चुकी है, जिन्होंने कामदेवको विजयको नियन्त्रित कर लिया है, जिन्होंने जोवके बन्धनोंको तोड़ दिया है, जिन्होंने पाखण्डियोंके नयका खण्डन कर दिया है, ऐसे सुपार्श्वनाथको में प्रणाम करता है।
.
जो रागसुखसे रहित हैं, जो परमार्थस्वरूप, कुटिलतासे रहित, अमृषावादी, निरंजन, सुवत्सल, अपाप, महान् हितोपदेष्टा, मानवसे रहित, सपोनिधि, अपरिग्रही, दिगम्बर, झानसे आकाशको आच्छादित करनेवाले, गृहविहीन, पहाड़ोंमें भ्रमण करनेवाले, विचक्षण नययुक्त मुनीश्वर नीरोग उपशमरूपी औषषिसे युक्त, स्त्रीसे रहित, समर्थकुलसे उत्तम, केवलजानसे अज्ञानतमको दूर करनेवाले, जिनाषियों में सातिशय सबसे अधिक प्रशस्त, जगके अधिपति और यतियों के द्वारा काम्य हैं, ऐसे सुपार्श्वनाथको प्रणाम कर उनको चेष्टा ( चरित) को कहता हूँ।
पत्ता-जो महापुरुषरूपो रत्नोंके लिए पिटारीके समान हैं ऐसे घातकोखण्डके पूर्वविदेहके पूर्वविदेह पर्वतको हिमकणोंसे शीतल सीता नदीके उत्तरमें कच्छ देश है ॥१॥
१. १. P महायसं। २. A परं; P पुरं । ३. AP तयोणिहि । ४. A णियालयं । ५.P reads a as
band basa. , A बायई । ७. A उत्तरसीमहि ।
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१०४
महापगण
[४४.२.१
तेस्थु सत्तभूयलसनयलहि चूलाकलसलिहियेवोमयलाहि । पाणियपरियपविमलपरिह हि कोट्टालयणधियबरिहहि । पाणावणतरकीलियखयरिहि णंदिसेणु पहु खेमाणयरिहि । महि मुंजेवि सइस णिवेईन लच्छिभारु णियतणयहु ढोइन | धणवइणामहु णामसमाणहु णरवम्मीमहु"विकुसुमबाणहु । अरहतहु सिरिणंदणसामिहि पासि लइल बत्र सिवपयगामिहि । एयारह अंगई अवगाहि वि अप्प सीलगुणेहिं पसाहिति । पावपडलपसरणु आउँधिषि तित्थयरत्त पुण संसंचिति । दीहु कालु तवु तिब्बु तवेपिणु हियवउ जिणकमकमलि थवेप्मिाणु । पाणिवियसंजमु अविरादिवि आराईणभयवह आराहि वि । चउविहु पञ्चश्वाष्णु लएपिणु गंदिसेणु मुगिणाहु मरेपिणु | पत्ता--मझिमगेवजहि संभवसेाहि चंदकुंदसंणिहरुइरु ।।
भामरमंदिरि णयणाणंदिरि संजायउ''अहमिदु सुरु ॥२॥
उसमें क्षेमपुरी नगरी है जिसमें सातभूमियोंवाले सोधतल है, जो अपने शिखरकलशोंसे आकाशतलको छूती है, जिसकी परिखाएं निर्मल पानीसे भरी हुई हैं, जिसके परकोटों और अट्टालिकाओंपर मयूरोंके नृत्य हो रहे हैं, जिसके नाना प्रकारके वृक्षोंपर विद्याधरिया कोड़ा कर रही हैं ऐसी उस नगरी में राजा नन्दिषेण निवास करता था, जो बहुत समय तक लक्ष्मीको उपभोग करने के बाद विरक्त हो गया। उसने लक्ष्मीका भार सार्थक नामवाले अपने पुत्र धनपतिको सौंप दिया, और स्वयं नर ब्रह्मेश्वर कामदेवसे रहित, अरहन्त शिवपदगामी श्रीनन्दन स्वामीके पास व्रत ग्रहण कर लिया । ग्यारह अंगोंका अवगाहन करते हुए, स्वयको शीलगुणोंसे विभूषित करते हुए, पापपटलके प्रसारका संकोच करते हुए, तीर्थकर प्रकृति के पुण्यका संचय कर, दोघं समय तक लम्बा तप कर हृदयको जिनके चरणकमलों में स्थापित करते हुए, प्राणों और इन्द्रियों के संयमको अवधारित करते हुए, भगवतीको आराधना कर, चार प्रकारका प्रत्याख्यान कर, नन्दिपेण मुनिनाथ मृत्युको प्राप्त होकर
घत्ता-मध्यम अवेयकके नेत्रोंके लिए आनन्ददायक, भद्रामर विमानके उत्पत्ति शिला मम्पुटपर चन्द्रमा और कुन्दके समान कान्तिवाला अमेन्द्र देव उत्पन्न हुआ ॥२||
२.१. P तत्य । २. Afणहिय । ३. P बरहिहि । ४. P शिवेश्यः । ५, AP विक्कमठाण हु।
६. P अरिहंतह । ७. A अखंविधि । ८. तिल्पयत पुण: । तित्थयरत्तु गोतु । ९. P राहणा। १०. AP मंणिहु । ११. P अहिमिदु ।
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४४. ३.१४ ]
महाकवि पुष्पवन्त विरचित
५
आउ वि सत्तावीसस मुद्दई ।
ias अणु मिणविणासहि । णीससइ जि तेत्तियहिं जि पक्खहिं । कालें तियणि किं पिण संठित । अक्खड़ सुरवर घणयहु तयहुं । भारहव रिसइ कासीसइ । गाणारसिपुरि सुरैपुर संणिहि । सुपणानें महिरायउ । पुहइसेण णामेण भडारी । देवदेड जिणु पावखयंकरु | पट्टणु भणु भोयसुहु चंग | चित्तु are वित्थारित |
दुरयणितणु लोयण अहिं तेत्तिएँहि सो वरिस सहा सहि afras भिक्खुनरेहिं जियहिं कार्ले से हुआ rिणिद्विव उद्धमासाउसु थक्कड जङ्गय हुं जंबूदी बहुदसिइ सरयसलिलहरस सहरसियगिहि परमारि रिसइण्णव जाय तासु अस्थि पूयै प्राणपियारी ताई विहिं म होस तिर्थकरु ताई विहि मि करि तुर्ज जोगाउ वा जक्ख तं सेम समारिय
घत्ता - तुंगियहि विराम मणि सुत्ति
पच्छिमजामा बालमराललीलगइइ || ढंकियणेत्तर दीसह सिविणावलि सइइ ||३||
१०५
१०
३
वो हाथ ऊंचा शरीर, नींदरहित नेत्र, सत्ताईस सागर आयु, इतने ही हजार वर्ष में अपने मम अनुसार वह भोजन करता है। इन्द्रियोंको जोतनेवाले मुनिवरोंने कहा है कि वह सत्ताईस हजार वर्षों में सांस लेता है । समयके साथ उसकी भी आयु समाप्त हो गयी। समय के साथ त्रिभुवन में कुछ भी स्थित नहीं रहता । जब उसकी आयु छह माह शेष रह गयी, तब इन्द्रने कुबेरसे कहा, "अनेक द्वीपोंके निवासस्थान जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में काशी देश है, उसमें शरद मेघ और चन्द्रमाको शोभाके समान घरोंवाली वाराणसी नगरी इन्द्रपुरीके समान है । उसमें परम ऋषि ऋषभनाथकी कुलपरम्परा में उत्पन्न सुप्रतिष्ठ नामका राजा था। पृथ्वीसेना उसकी प्राणप्यारी पत्नी थी। उन दोनोंके तीर्थंकरका जन्म होगा, देवोंके देव और पापों का नाश करनेवाले । उनके लिए जैसा योग्य समझो वैसा सुन्दर नगर, भवन और भोगसुख पैदा करो।” कुबेरने उसी प्रकार रचना कर दी, रनोंसे विचित्र नगरकी रचना कर दी।
पता - रातका अन्त होनेपर - अन्तिम प्रहर होनेपर बालहंसिनी के समान लोलागतिवाली उस सतीने मणिमय मंचपर आँखों बन्द कर सोते हुए स्वप्नावली देखो ||३||
३. १. A. P अणि । २. P तो यह जिसु । ३. छम्मासाउ । ४ AP दीवणिषेस ५.A सुरपुरं । ६. सिहं गयजायत । ७. A P पिय पाण । ८. A भोभव सुहं । kr
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१०६
महापुराण
[
४.४.१
दीसह पीणपाणि सुरपूर्ण दीसइ सरु मुयंतु उच्छाणउ । दीसइ भंगुरु णहरुकेरल कंठीरंतु करिकुंभविसारष्ठ । दीसह दिगायवरसिंधिय पल दीसइ सुसुमणमाल सपरिमल । दीसइ जोसु जोण्हावास दीसइ उगमंतु णहि पुस । दोसइ पाढीणहं मिहुणुल्लड दीसइ ससलिलु कुडॅजुयलुबउ । दोसइ वियसिउ बंभहराया दीसइ सरिवइ सरयरभीयरु | दीसइ पीडु सीहरूबालउ दीसह घंटारवु तियसालउ । दीसइ गेयमुहलु विसहरघर दीसइ रयणरासि पसरियकरु । दीस जायवेव जालाहरु
इय जोइवि जाइवि रायहु घरु । १० पत्ता-जं जिह मणलालिलं णिसिह जिहालिई त तिह दइयह भासियलं ।।
। वि सहि खुपस्थिवजे? सिविणयफलु उबऐसियलं ॥४॥
होही सुंदरि तुह सुज तेहउ जासु कित्ति लोयंतु पधावइ बारहपक्ख जांव ससिवासह सोचठाण गहयण सुदिहिहि
को विण दोसइ जैगि जे जेहउ । णाणु अलोयंतु वि दरिसावइ । भूरिचंदु णिवडिउ आयासहु । भरवयह मासहु सियछद्विहि ।
स्थूल सूडवाला ऐरावत हाथो देखा, आवाज करता हुआ बेल, नखोंके समूहवाला, भंगुरगजोंके गण्डस्थलोंको विदीर्ण करनेवाला सिंह देखा, दिग्गजोंसे अभिषिक्त लक्ष्मी दिखाई दी, परिमल सहित सुमनमाला दिखाई दो, ज्योत्स्नाका घर चन्द्रमा दिखाई दिया, माकाशमें उगता हुआ सूर्य दिखाई दिया, मत्स्योंका युगल दिखाई दिया, जलसे भरा हुआ कुम्भयुगल दिखाई दिया, खिला हुआ सरोबर दिखाई दिया, जलचरोंसे भयंकर समुद्र दिखाई दिया, सिंहासनपीठ दिखाई दिया, गतिमुखर नागलोक दिखाई दिया, किरणों के प्रसारसे मुक्त समुद दिखाई दिया, ज्वालाओंको धारण करनेवाली आग दिखाई दी, यह देखकर और राजाके घर जाकर
घत्ता-रात्रिमें मनको सुन्दर लगनेवाला जो जैसा देखा था, वह उस प्रकार अपने पतिको बताया। उस ज्येष्ठ राजाने भो सन्तुष्ट होकर स्वप्नफलका कथन किया ॥४||
हे सुन्दरी, तुम्हारा ऐसा पुत्र होगा, जैसा इस संसारमें कोई नहीं है, जिसकी कीर्ति लोकान्त तक जायेगी, जिनका ज्ञान अलोकान्त तक को प्रकट करता है । जब बारह पक्ष ( अर्थात छह माह ) शेष रह गये, तो चन्द्रमाके निवास घर ( आकाश ) से स्वर्णवृष्टि हुई। भाद्रपद शुक्ल
४. १. AP सुरप्यूणउ: र सुरपूणउ and notes at: पूर्णों वा पाठः । २. A सर । ३. P वियदानु ___ मिनिणयकठोरख । ४. A P मृमणसमाल । ५. A उम्गवंतु। ६. A जुयलल्लउं। ७. A कुंभमिद
गाल। ८. P सोहहहरालाल । २. Pमणलालउँ । १०. P भासि। ११.A Pउबएसि। ५... A गि जेनतः जगि जे जेहत ।
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-४.६.१०]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित बढ़तेण विसाहारिक्खें सुमुहुत्तेणुप्पाइयसोलें। गयरूवे विम्हावियसि हिहि हुए गम्भावयारु परमेट्टिहि । घरु आवेप्पिणु खणि सुत्तामें गुरु गुरुयणु अंचिउ जसरामें । गट वाहिट देवावासा पय वंदवि भाव देवेसाह । पत्ता-णरणाहट केरइ हरिसजणेरइ णव मासई तूसवियजणु ।।
जंबुण्णयधारहि दुहमलहारहि धरि बुट्टउ वइसवणु घणु ।।५।।
जयडिबिमि दंडेण समाह णिन्वुइ पउमापहि परमाहा। सायरसमई पमाणे लइयह गवसहासकोडिहिं गय जइयह । कालपमाणे सखाइ आय उ
सायहतहिं वासाहह जायज । पसवणु देवहु जाई सुहासिह बारसिवासरि जेट्ठाभूसिंह। सामर सच्छरु सघउ सवारणु पुणु संप्राइउ सो इरिवाहणु। अम्महि अपर हिंमु संजोइवि पिउ हरिणा जगगुरु उच्चाइवि । सिंचिस सुरगिरिसिरि सुररायहिं मुह षियलियसिवणिवसंघायहिं । सुहतणुपासु सुपासु पकोकिउ सयमहु थोतु करंतष्ठ संकिष्ट । पुजिवि दिवि णिस सणिकेय पहु करपंकाइ णिहियउ तायहु ।
देउ पियंगुपसवसरिसप्पड दोधणुसयपमाणु माणावहु । षष्टीके दिन विशाखा नक्षत्रके बढ़नेपर सुख उत्पन्न करनेवाले शुभमुहूर्त में जिन्होंने सृष्टिको विस्मय. में डाल दिया है, ऐसे परमेष्ठीका गजरूप में अवतार हुआ। यशसे सुन्दर इन्द्रने एक क्षणमें आकर श्रेष्ठजन गुरुकी पूजा की। भावपूर्वक देवेशके पैरोंको वन्दना कर देवेन्द्र अपने देवगृह चला गया।
बत्ता-हर्ष उत्पन्न करनेवाले राजाके घरमें नौ माहतक जिसने जनोंको सन्तुष्ट किया है ऐसा कुबेररूपी मेष, दुखमलको हरण करनेवाली स्वर्णधाराओंसे बरसा ॥५॥
१
.
विजयरूपी दुन्दुभिके एण्डेसे आहत होनेपर, रककमलके समान आभावाले पानायके निर्वाण प्राप्त करनेपर जब नौ हजार करोड़ सागर प्रमाण समय बीत गया तथा कालप्रमाणमें एक शंख हुमा तब विशाखा नक्षत्रका उदय हुआ। जेठ शुक्ल द्वादशीके दिन अग्निमित्र नामक शुभयोगमें देवका जन्म होनेपर देवेन्द्र अपने देवों, अप्सराओं, ध्वजों और गजोंके साथ फिर यहां पहेश। माताको दूसरा मायावी बालक देकर, इन्द्रके द्वारा विश्वगुरुको ऊँचा कर, ले जाया गया । शब्दों ( स्तुति वचनों } के साथ, जो जलघट छोड़ रहे हैं ऐसे देवेन्द्रोंने सुमेरुपर्वसपर उनका अभिषेक किया। दोनों पार्श्वभाग सुन्दर होनेसे उन्हें सुपावं कहा गया। स्तुति करते हुए बन्द्र शंकामें पड़ गया । पूषा और बन्दनाके बाद, उन्हें ( सुपाव को ) अपने घर ले जाया गया, और उन्हें पिताके हाथ में रख दिया गया । सुपाश्वदेव प्रियंगु पुष्पके समान आमावाले थे, मानका नाशक उनका शरीर दो सौ धनुष प्रमाण था।
२.A P विभाषियं । ३. A दिवि; P वंदिय । ४. ? वासवणषणु । १. १. P इंटेण । २. A चंदसुहासिंह । ३. A जेठपभूसिर । ४. सवाहणु। ५. A P संपाइउ । ६. P
मणिकेबह।
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महापुराण
[४४.६.११
घत्ता-जे णाहतणुत्तणु गय दिव्यत्तणु ते तेत्तिय परिमाणु भणु !!
जें तेणे समाण रुवपहाण अण्णु ण दीसह को वि जणु ।।६।।
खेलंतहु दरिसिय सिसुलीला पंचलक्ख पुज्वहं गय बालहु । णाहु सुर्णासीर खीरोहे
पुणु ण्हवियउ पुवुत्तपबाहे। रायलच्छिदेविइ अवडिउ थिउ णरवई णर्यसत्तिइ मंडिड। तित्ति ण पूरइ भोयह दिव्वह चउदहलक्ख जांव गय पुन्वह।
पेचिडविणाह समगि पया। कालें कालु वि जेण गिलिबइ तेण किंण माणुसु कवलिब्रह। जावि धावि पावज लएप्पिणु तो भणंति सुर रिसि पपवेप्पिणु। एमे बुहाहिव तुन्झु जि छनइ अण्णु ष ए, उ जगि पडिवजइ । पत्ता-जणु तिहाइ छित्तउ भमइ पमत्तः पावइ जम्मि जम्मि मरणु ।।
पई मुइवि भडारा तिहुयेणसारा एंव हणइ को जमकरणु ||७||
पुणु पाईर्णबरिहि संपत्त जिणु कल्लागण्हाणि अहिसित्तष्ठ । विहिप तेणे लहुं सिवियारोहण दुक सहेजयंकु णामें घणु ।
पत्ता-स्वामीके शरीर में जितने परमाणु थे वे उतने ही थे इसीलिए उनके जैसा रूपप्रधान कोई दूसरा आदमी नहीं था ॥ ६॥
खेलते और शिशु-क्रीड़ाओंका प्रदान करते हुए शिशुके पांच लाख वर्ष बीत गये। स्वामो. का इन्द्रने फिरसे पूर्वोक्त जलप्रवाह और दूधसे अभिषेक किया, राज्यलक्ष्मी देवोने आलिंगन किया, न्यायकी शक्तिसे अलंकृत यह राजा बने । चौदह लाख वर्ष पूर्व समय बीतनेपर भी जब भोगोंसे तृप्ति नहीं हुई, तब एफ दिन टूटता तारा देखकर, स्वामी अपने मार्ग में प्रवृत्त हुए, जिस कालके द्वारा काल ( नक्षत्र जो समयका प्रतीक है ) नष्ट होता है, तो क्या उससे मनुष्य कलित नहीं होगा । लो मैं जाता हूं और प्रव्रज्या लेकर स्थित होता है। इतने में लोकान्तिक देवोंने आकर प्रणाम किया और कहा-'हे पण्डितोंमें श्रेष्ठ, यह तुम्हें हो शोमा देता है । विश्वमें दूसरा व्यक्ति इसे स्वीकार नहीं कर सकता।'
घत्ता-मनुष्य तुष्णासे व्याकुल और प्रमत्त होकर घूमता है, और जन्म-जन्ममें मृत्युको प्राप्त होता है। हे त्रिभुवनश्रेष्ठ आदरणीय, तुम्हें छोड़कर दूसरा कोन यमकरणका नाश कर सकता है ? || ७ ॥
इन्द्र फिरसे आया और दीक्षाकल्याण-स्नानमें उनका अभिषेक किया। शीघ्र उन्होंने
७. A जो णाई । ८.A तो तत्तय; P तेतिनो जि। १. A जैणु सभाण; P तं तंग समाण । ७. १. खेल्लनह । २. P पुणासिरेहि । ३. A डाविषः । ४. A णिवसत्तिह। ५. P ताम भर्गाह मुर।
६. A एह । ७. A तेहः । ८, A P जम्मजरामरणु । ९. P सुरवरसारा । ८.१. Trecords at: दाणवरिप इति पाठेऽपि इन्द्रः । २.A हिं।
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महाकवि पुष्पदन्त विरचित जेट्टहु मासहु पक्खि वलक्खइ वारैसिदिवसि से संभव रिक्खइ । खत्तियदहसएहि संजुत्त
लक्ष्य दिक्व मुवणुत्तमसत्ते । छ?ववासु करिवि कयकिरियहू सोमखेड पुरवरु गउ चरियहु । तेत्थु महिंददसणरराएं
पाराविउ णवेषि आगुराएं । तहु घरि तियेसणियोसणिणायइं पंचच्छेरेयाई संजायई । णववरिसई छउमत्थु हवेष्पिणु अच्छिउ जिणु जिणकप्पु रेपिणे । पुणु सहेउवाणि मूलि सरीस?" पंचमु हुयन जाणु तिजगीसहु । णाणावाहणवलइयपायउ
देवलोज णीसेसु वि आयउ । घता-पुटुंतपडतहिं पुरउ णडतहिं णविउ गाह पंजलियहि ॥
दहविहअट्ठविहर्हि पुणु पंचविहहिं सोलह विहहिं वि सुरवरहि ॥८॥
पई थुर्णति रिसि अमर सविसहर माणुस अम्हारिस वि णिरक्खर । एकु जि फलु जइ भत्ति समुज्जल लहे पाए हिराया सा र णिम्पल। तो अच्छउ पढेतु थुइलक्खई पावउ मुहवायामें दुक्खई। कह र सक्कु फणिराउ सरासह तुह गुणरासिहि छेउ पा दोसइ ।
जइ तो किं घायइ वपणइ जडु जलहि माणि किं आणिज्जा घडु। शिविकामें आरोहण किया, और वह सहेतुक नामके वन में पहुँचे । ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशीके दिन विशाखा नक्षत्र में, भुवनमें सर्वश्रेष्ठ सत्त्ववाले उन्होंने एक हजार क्षत्रियोंके साथ दीक्षा ग्रहण कर ली। छठा उपवास कर कृतक्रिया चर्याके लिए वह सोमखेट नगरमें गये। वहाँ राजा महेन्द्रपत्तने प्रेमसे प्रणाम कर उन्हें आहार कराया । उसके धरमें देवोंके द्वारा किये गये घोष-निनादोंके साथ पांच आश्चर्य उत्पन्न हुए। नौ वर्ष तक यह छनास्थ अवस्थामें रहे। जिनचर्याका मापरण जिन भगवान ने किया। फिर सडेतक वनमें शिरोष वक्ष के नीचे त्रिजग के स्वामीको पांचव शान (केवलज्ञान ) उत्पन्न हुआ । नाना वाहनोंपर अपने पैरोंको मोड़ते हुए समस्त देवलोक वहाँ माया ।
घत्ता-इस प्रकार आठ प्रकार, पांच प्रकार और सोलह प्रकारके उठते-पड़ते और नाट्य करते हुए देवोंने अंजलियोंसे सामने से देवको नमस्कार किया ||८||
ऋषि, अमर, नाग और हम-जैसे भो निरक्षर मनुष्य आपकी जो स्तुति करते हैं, इसका एक ही फल है कि यदि समुज्ज्वल भकि उत्पन्न हो, यदि वह निर्मल भक्ति हृदयमें नहीं आती, तो तुम लाखों स्तुतियां पढ़ते रहो, मुखके व्यायामसे केवल कष्ट ही प्राप्त करोगे । इन्द्र, नागराज और सरस्वती कहे, फिर तुम्हारी गुणराशिका यदि अन्त नहीं दोखता, तो जड़ कवि क्या बाँचता और
३. P बारिसिदिबसि । ४. संभवरिक्ख; Fमसंभवरिक्खड्। ५.Aणिग्योसणिणाएं । ६. A पंचच्छरियई ता संजायई। ७.AP चम्मस्छु । ८. बहेप्मिणु। ९. P adds after this: फगुणि किण्हि पक्सि छठियदिणि, 'भे चिसाहि पच्छिम नमुहाइ दिणि । १०.AP सिरीसह । ११. P अंजलि
फरेहि । १२. A विहहिं सुरवरहि; P"विहदि वि सुरवरहि । ९. १. A संथुर्णति । २. AP जइ । ३. तो । ४. AP कहा । ५. A P अलहिमाणु ।
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महापुराण
[४४.९.६देव तुहारी हयदुहवेल्लिहि भत्ति मूलु आसिद्धि सुहेलिहि । अट्ट वि पाडिहेर थिय जांवहि समवसरणि आसीणउ तांबहि । भास धम्म भडारउ जेहन भासहुं सक्कइ को वि ण तेहरु। पालइ को वि कहिं मि जइ सूरउ णासइ णिहि जणु विवरेरउ । घत्ता-पाणिवह पमेलह अलि म बोल्लह दवु परायउ मा हरह ।।
परदार म माणइ घणु परिमाणहै रयणिहि भोयणु परिहरइ ॥९॥
एंव भणिवि संबोझिय मणहर पंचणवइ संजाया गणहर । 'षिणि सहस भासिय तीसुत्तर अंगसपुर्वधारि सहु मुणिवर । 'बिणि लक्ख चालीससहासई धउसाहस ई णत्रसयई विमीसई। अवर वि वीस जि सिक्खुय साहिय जे णोरंजणेण णिवाहिय । णव जि सहासई ओहिरियो हेहं सहसेयारह पंचमबोहह । संयई तिणि सहसई पपणारह विक्किरियालई रिसिहि सुहीरह। सोत्तसंमाणसहासपमाण पण्णासुत्तरु सर मणजाणई । घसुसहसई रिदुसयई विवाहि सुद्धसुरूवदेसकुलजाइहिं ।
लक्खई तिपिण तीससहसाल विरयह णारिहिं लुधियालाई । १. सागारह वि लक्खु गुणगुत्तिहिं वयगुणियाई दाई तप्पत्तिहिं । वर्णन करता है ? समुद्र मापनेके लिए क्या घड़ा लाया जाता है ? हे देव, दुःखरूपी लताका हमन करनेवाली सुखरूपी लताका, सिद्धिपर्यन्त मूल तुम्हारी भक्ति ही है । जैसे ही आठ प्रातिहायोकी स्थापना हई वेसे हो, वह समवसरणमें विराजमान हो गये। आदरणीय व जिस प्रकार धर्मका कथन करते हैं, उस प्रकारका कथन दूसरा कोई नहीं कर सकता। कहीं यदि कोई सूर हो तो वह पालन कर सकता है ? निष्ठासे विपरीत मनुष्य नाशको प्राप्त होता है।
पत्ता-प्राणियों का वध छोड़ो, झूठ मत बोलो, दूसरेके धन का अपहरण मत करो, परस्त्रीको मत मानो, धतका परिसीमन करो, रात्रिमें भोजनका परिहार करो ॥९॥
इस प्रकार कहकर उन्होंने सम्बोधित किया। उनके पंचानबें सुन्दर गणधर हुए। अंगधारी मुनिवर दो हजार तीस थे । शिक्षक दो लाख चौवालोस हजार नौ सौ बोस कि जिनका निरंजन ( तीर्थकर ) ने संसारसे उद्धार किया। अवधिज्ञानी नौ हजार; केवलज्ञानी; पन्द्रह हजार तीन सौ सुधीर, विक्रिया-ऋद्धिके धारक थे। मनःपर्ययज्ञानी नो हजार एक सौ पचास । शुद्ध स्वरूप, देशकालमें उत्पन्न हुए वादी मुनि आठ हजार छह सौ। तीन लाख तीस हजार केश लोंच करनेवाली आयिकाएं थों। तीन लाख श्रावक और पांच लाख प्राविकाएं।
६. A बासुति । ७. A कहि मि को वि । ८. AP पाणिवतु । ९. " परदारू । १०. P परियाणह। १०.१. A दोषिणः । २. A अंगसुपुब्वधारि; P अंगपुत्रधारिय । ३. A ओहिविमोहह । ४. P सयाई।
५. P सुधीरहे । ६. P°समारण । ७. A विरक्ष्यणारिहि । ८. P लुचियकुसलहि । ९. A याषिणयाई।
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१११
-४४. ११.११ ]
महाकवि पुष्पदन्स मिश्चित पत्ता-तियसेहिं असंस्खहि संखतिरिक्वहि सह दुचरियई खंडिवि ।।
ववरिसविहीणउ जयविजयाणउ पुबलक्ख महि हिंडिवि ॥१०॥
महियमहिउ महमहियाणगड सहुँ सोसेहिं समाहिवसंगउ । संमेयह जाइवि गिरिधीरत तीस दियह थिउ मुक्कसरीरउ । फग्गुणमासि कालपक्खंतरि साणुराहि सुहसत्तमिवासरि। सूरुग्गमि बुदेवहं देवे णिकिरियत्तु पत्तु विणु खेवें। णिदिउ अट्ठमसुह पढुकउ गउ सुपासु पासेहिं विमक्कर। चंदणकरमेण पव्वालिय पर्नुलोमीसे मालहि मालिय। दिण्णी' मउडाणलजालोलिय चिशिकुमारे तणु पज्जालिय। बंदिघि भर्प पावणिपणास णायणाहु गउ णायावासउ । णायारूढ कहा णयगई पवणवरुणवइसवणपयंगह। घत्ता-जहिं भरइजिणेसहु णाणु सुपासहु पसरह देवहु केवलिहिं ।।
तहिं बाइण वायउ ण तम् ण तेयर पुष्पदंतकिरणावलिहि ॥११॥ इय महापुराणे सिसहिमहापुरिसगुणाकंकार महाकहपुष्फर्यतविरइए महामनभरहाणुमण्णिए ___ महाकम्मे "भुपासणियाणगमणं णाम आउयालीसमो परिच्छेनो मतो ॥१५॥
म सुपासचरियं समत्तं ॥
wanAmAnnrshmah
पत्ता-असंख्यात देवों और संख्यात तियंचोंके साथ दुश्चरितोंका खण्डन कर, नौ वर्ष कम, जय-विजय करनेवाले एक लाख पूर्व वर्ष धरतीपर विहार कर ||१०||
पूज्योंके पूज्य, तेजसे कामका मथन करनेवाले, समाधि लीन, शिष्यों के साथ, पहाड़की तरह धीर सम्मेद शिखरपर जाकर वह तोस दिन तक मुक्त शरीर रहकर फागुन माहके कृष्णपक्षमें शुभ सप्तमोके दिन अनुराधा नक्षत्रमें सूर्योदय वेलामें अनेक देवोंके देवने बिना किसी विलम्बके निष्क्रियत्व ( मुक्ति) को प्राप्त कर लिया। निष्ठावान वह आठवी भूमिमें पहुँच गये, सुपाश्व पाशके बन्धनों से मुक्त हो गये। उनके शरीरको चन्दनसे प्रलिप्त किया गया, इन्द्र के द्वारा मालाओंसे लपेटा गया, अग्निकुमार देवने मुकुटानल ज्वाला दो और शरीर प्रज्वलित कर दिया गया । उनकी, पापका नाश करनेवाली भस्मको वन्दनाकर इन्द्र अपने निवासके लिए चला गया। अपने ऐरावत नागपर आरूढ़ वह नत शरीर पवन, वरुण, वैश्रवण और सूर्य आदि देवोंसे कहता है
पत्ता-कि जहाँ सूर्य-चन्द्र के समान किरणावलिवाले भरतजिनेश और केवली देव सुपाश्वका ज्ञान प्रसरित होता है वहाँ न वादी है और न प्रतिवादी, न तम है और न तेज ॥११|| इस प्रकार ग्रेस महापुरुषों के गुगालंकारोंसे युक्त महापुराणमे महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित महामम्प मरत द्वारा अनुमा महाकाव्यका सुपावं निर्वाणगमन
नामका चबाकोसका परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ ru १०. P मंडिवि । ११. 1. A P दिवह । २. P कालि पावंतरि । ३. A अमिवसुह । ४.A P पोलोमोसें । ५ A मालइ.
मालिय । ६. P मणिमसहाणलेण जालोलिए । ७. P चचिकुमारिहिं । ८, A भव । ९.AP पुषफ. यंत । १०. A सुपासजिणिवाणं । ११. A P amit this line,
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संधि ४५
णित्तेहयोरिवंदडु पण विवि कुबलयचंदहु
षयणचंदजियचंदह ।। चंदप्पहहु अिजिंदा ॥ध्रुवक।
णियंगरस्सीहि सम विणीयं कयं कयत्थं किर जेण गि अतुच्छलछीहलकप्पभूयं दयावरं पालियसम्वभूयं ण जंपियालीविरहे विसणं विसुद्धभाई दिगिमार्य
णिहीसरं जं महियंवराय १० पबुद्धदुकम्भविवायवीलं ।
सुयंगउत्तीहि जयं षिणीयं णमति जं देवबई विणिर्थ । उदारचित्तं गुणपत्तभूयं । गिराहि संबोहियरैक्खमयं । मुंणि महतं विमलं विसणं । परं परस परिक्षीणमायं । परजियाणंतदुरंतरायं। विइण्णदुन्दाइविवायवीलं।
सन्धि ४५
शत्रुसमूहको निस्तेज करनेवाले तथा मुखचन्द्रसे चन्द्रमाको पराजित करनेवाले पृथ्वीमण्डलके चन्द्रप्रभु जिनेन्द्रको मैं प्रणाम करता हूँ।
जिन्होंने अपने शरीरकी किरणोंसे अन्धकारका विनाश किया है, और शोमन द्वादशांग श्रुत की उक्तियोंसे जगको विनीत और कृसार्थ किया है, जिन्हें देवेन्द्र प्रतिदिन नमस्कार करते हैं, जो महान् लक्ष्मीरूपी फलके लिए कल्पवृक्षके समान है, जो उदारचित्त और गुणोंके पात्रीभूत हैं, दयावर सब प्राणियोंके पालनकर्ता, अपनी वाणीसे भूतपिशाचोंको सम्बोधित करनेवाले भो प्रिय सखीके विरहमें विषण्ण नहीं होते, जो पवित्र संज्ञाशून्य महान मुनि हैं, जो विशुद्धभाव और प्रमाद रहित हैं, जो श्रेष्ठ विश्वस्वामी और माया रहित हैं, निधियोंके ईश्वर, अन्तरायोंका नाश करनेवाले, अनन्त दुरन्त रागोंको जोतनेवाले, दुष्पाक कर्मको संवेदनासे सजग, जो दुष्ट वादियों को
A has, at the beginning of this Sarpdhi, the following staaza:
वापीकूपतागबैनवसतीस्त्यक्त्वेह यत्कारितं भव्यश्रीभरतेन सुन्दर पिया जनं सुराणां ( पुराणं ) महत् । तस्कृस्वा प्लवमुत्तमं रविकृतिः ( ? ) संसारवाः सुखं
कोम्यत् {7) खसहसो (7) स्वि कस्य हवयं तं वन्दितुं मेहते ॥१॥ This stanza is not found in any other known MS, of the work, १.१. A भरविदा; P मरिविबह । २. A दयायरं । ३. A संबोहियसम्वभूयं; T recordsap सब
मुमति पाठे सर्व भूक सर्वभूमिकम् । ४. P मुगोमहंत । ५. A P परिसीण । ६. A दुम्यायविशाम ।
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महाकवि पुष्पदन्त विरचित सुसच्चतभंगवियारणासं
अणंगसिंगारवियारणासं। सदिलियाभक्खरभावहारं भवोहसंभूइभयावहारं । पुरंदरालोयणजोग्गगतं
समुजियाहम्मदुपंकगतं । णिवारियप्पवहसेलपायं फणिचूडामणिघट्टपाये। खगिददेविंदमुर्णिदधेयं
णमामि चंदप्पाहणामधेयं । गानि बरसेन पुणो पुराण गणेसगीयं पवरं पुराणं। घत्ता-अमलइ अत्थरसालइ वयणणधुप्पलमालइ ।।
अदुमु जिणवरु पुज्जमि पर पुष्णु आवजमि ॥१५॥
मणुउत्तरोइक्षि
भूभाइ सुसहिल्लि । दीवे पसिद्धम्मि
पुक्खरवरद्धम्मि। जलमरियकंदरा पुठिवल्लमंदरहु । सुरलोयसोहम्मि पच्छिमविदेहम्मि। धणकणसमिद्धम्मि देसे सुगंधम्मि। छक्खंडधरणिवाड सिरिपुरवरे णिवइ । उद्धृयरिउरेणु
णामेण सिरिसेणु । सिरिकंत साहु घरिणि करिवरहु णं करिणि । सुयरहिउ गरणाहु चिंतवइ थिरबाहु ।
किं करमि कहिं चरमि को देस संभरमि । विशेष पीड़ा देनेवाले हैं, जिनका मुख सुसस्य और तत्त्वसे अपलक्षित है, जो कामश्रृंगारके विचारों का नाश करनेवाले हैं, जो अपनी दीप्तिसे सूर्यप्रभाका अपहरण करनेवाले हैं, जिनका शरीर इन्द्रके लिए दर्शनीय है, जिन्होंने अधर्मके दुष्पकमा गतं छोड़ दिया है, जिन्होंने आत्मज्ञानके लिए पर्वतसे नीचे गिरनेका विरोध किया है, जिनके चरण नागराजके चूडामणिसे घिसे जाते हैं, जो खगेन्द्रों, देवेन्द्रों और मानवेन्द्रोंके द्वारा ध्येय हैं-मैं ऐसे चन्द्रप्रभ स्वामीको नमस्कार करता हूँ और फिर उन्हींका पुराण कहता हूँ जो कि पहले गणधरोंके द्वारा कहा गया था।
धत्ता-स्वच्छ अर्थोसे रसाल वचनरूपी नवकमलोंकी मालासे आठवें जिनवरकी मैं पूजा करता हूँ और प्रचुर पुण्यका उपार्जन करता हूँ ||१||
१.
मानुषोत्तर पर्वतसे सुशोभित सुखद भूभागवाले प्रसिद्ध पुष्कर द्वीपमें, जिसकी गुफाएं अलसे पूरित हैं ऐसे पूर्व मन्दराचलके पश्चिम विदेहमें धनकणसे समृद्ध सुगन्धि देशके ओपुर नगरमें छह खण्ड धरतोका अधिपति, शत्रुओंको धूल उड़ानेवाला राजा भीषण था। श्रीकान्ता उसकी गृहिणी थो, मानो करिवरको हथिनी हो । पुत्रसे होन स्थिरबाहु राजा विचार
७. A T भाविहारं । ८. A°संभूहयभावहारं । ९. A पुरंदरोलोयणजोगगत्तं; P पुरंदगलोयगजोयगत । १०. A"
घिपाय । ११. AP पवरं। २.१.A P मणसुप्तरोइल्लि ।
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२०
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को देश मह पुत सा भइ सुपुरो तो कुण सह
धम्मागुरापण जरमरणभयहरई यह रया तेहिं विया से सुयंती सिविम्मि सुँईईइ करिसी सिरि चंदु
महापुराण
बत्ता – घरपुत्तास लक्ष्यहु तेण वि तह परियाणि
सब्जेणगण मणनयणिय पण arrest बेन्लि व लैलिड व देविहि गभालंकरिडं कंहिं विनउ संतोस देविहि पासि गए
गुणरयण संजुत्तु । जइ महसि सुयलाहु | जिणणा असे |
तं सुणिचि राष्ट्रण | पढिमा जिणवर | कलहोयमइया |
खीरेहिं हविया महरायपत्ती | छम्म राई | दिविहारं ।
arras जाइवि दयहु || दंसणफलु बक्खाणिडं ||२||
३
तु सुंदेर होस पियतणव । लायबलजल बिच्छु लिए । ओलख देहेचिंधु तुरिडं ! a fores हरि विष्फुरिडं । णं वणगणियारहिमतगड |
[ ४५.२११
५
करता है - या करूँ, कहाँ जाऊँ ? किस देव की आराधना करूं, कौन मुझे गुणरत्नसे युक्त पुत्र देगा ? सब सुपुरोहित ने कहा कि यदि तुम पुत्र-लाभ चाहते हो तो शुभके हेतु जिननाथका अभिषेक करो । यह सुनकर राजाने धर्मके अनुराग से जरा और मरणके भयका अपहरण करनेवाले जिनवरोंकी रनोंसे रचित स्वर्णमयी प्रतिमाएं बनवायीं । मन्त्रोंसे उनकी स्थापना की और दूधसे अभिषेक कराया। महीराजको सुभगा पस्नीने सुखपूर्वक सोते हुए, रात्रिके अन्तिम भाग में हाथी, सिंह, लक्ष्मी और प्रभासे बहुल चन्द्रमा देखा ।
छत्ता — उसने जाकर श्रेष्ठ पुत्रको आशासे पति से कहा। उसने भी उसे बताया और स्वप्नदर्शनके फलकी व्याख्या की ||२||
३
हे सुन्दरी, तुम्हारे सज्जनसमूहके मनमें प्रणय उत्पन्न करनेवाला प्रिय पुत्र होगा । कुछ हो दिनोंमें देवीका ताके समान सुन्दर लावण्यके अत्यधिक जलसे विच्छुरित शरीर, गर्भसे अलंकृत हो गया। शरीर चिह्नको देखकर कंचुकीने जाकर राजासे कहा । उसका हृदय हर्ष से विस्फुरित हो गया । सन्तोषके साथ वह देवीके पास गया, मानो वनथिनी के पास मतवाला गज गया हो। उसके
२. AP सुहं सुती । ३. A सुसईछ । ४. P पच्छमि । ५. A चंडु and gloss सूर्य: । ६. A बिहोरंडु and gloss चन्द्रः । ७. A सिविणय फलु ।
३. १. A सज्जणगुणगणपयनियपणच P सज्जणजणमणपणिउ पणव । २. AP होसह सुर । ३. A ललिय । ४. A विच्छुक्रिय । ५. P देहि सिंधु । ६. पासु ।
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११५
-४५. ४.७]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित पेच्छिवि कसणाणणु थणजुयलु
पेच्छिवि मुहमंडलु दरयलु । सालसुसंगठ गयगइपसरु । पेच्छिवि पिय संभासिवि सुसरु । गरवइ"णियमंदिरि गपि थिव णवमासहि जणियन प्राणप्रिउ । सु. दुलहु वल्लहु सजणहं कुलमंडणु खंडणु तुझणह। णविजय गिजइ मरसरु 'फँडु बज्जा दिज्जइ धणियरु ! काणीणहुँ दीपहुं दुत्थियहं णिविणहु किविणह पंथियहं"। घत्ता-तूरैरखे दिस हम्मइ कण्णि वि पडिपण सुम्मइ ।
णारीकर्षणपेलिय वसुमइ णावह हल्लिय ॥३॥
४
पिण्णाणे सपणाणे घडियउ हियजणमणि पवजोव्याणि चडिया। ससिवयणहं सयणहं आवद्धिव 'सो इंदु व चंदु व णहि वडिल। जणणीजणेणई जोयंति मुहं अच्छति तेण सहुँ जाव सुहुँ । ता इट्टाउ दिदुर गउ रहिर सुइसीले वणवाले कहि। अरहंतहु संतहु आगमणु
कयतासह पावह णिग्गमणु । मयभावु गावु खणि परियलिउ लहुँ णरवइ सुरवइ जिह् पलिक।
समसरणु समवसरणंतु गड पहु विविध जियमयरधउ । स्तनयुगलको श्याममुख देखकर और मुखमण्डलको कुछ सफेद देखकर, अलसाये अंगों और गजगतिका प्रसार देखकर, प्रियासे सुन्दर स्वरमें बात कर राजा अपने प्रासादमें जाकर स्थित हो गया। नौ माहमें प्रणयिनीने प्राणप्रिय पुत्रको जन्म दिया। वह दुर्लभ पुत्र सज्जनोंका वल्लभ (प्रिय) था, कुलमण्डन और दुर्जनोंका सपउन करनेवाला था 1 मधुर स्वरमें गाया-नाया जाने लगा। घण्टा बजने लगा, धनसमूह दिया जाने लगा-कानीनों, दोनों, दुःखितों, धनरहितों, कृपणों और पथिकोंको।
घत्ता-तूयोंके शब्दोंसे दिशाएं आहत हो उठीं। कानमें पड़ा हुआ भी शब्द सुनाई नहीं देता । नारियोंके नत्यसे प्रेरित जैसे धरती हिल उठी ।।३।।
विज्ञान और सम्यक्ज्ञानसे रचित, जनमनका हरण करनेवाला वह नवयौवन में आरूढ़ हो गया। चन्द्रमाके समान मुखवाले अपने लोगोंमें आकर वह ऐसा लगता था जैसे इन्द्र या चन्द्रमा आकाशमें चढ़ गया हो। माता-पिता जबतक सुखसे उसका मुख देखते हुए रहते हैं तबतक वनपालने जो इष्ट दर्शन किया था, उससे बह रह नहीं सका। उस सुविशील नामक वनपालने वह कह दिया-अरहन्त सन्तका आगमन और सन्तापदायक पापका निर्गमन । एक क्षणमें राजाका मदभाव और गर्व चला गया। शीघ्र ही वह राजा इन्द्रकी तरह चला । उपशमके स्थानपर
७. A वरपवलु P छुहषवलु 1 ८ A गदगय पसरु; P गउ गयपसर । ९. A ससुरु । १.. A मंविरु । ११.AK प्राण घिउ । १२. AP सो दुल्लहु । १३. F महरयर । १४, AP पछु । १५. २ पत्थिय । Padds after this: सिरिसम्मणिरूवित णामु ससु, सुहलवखणु जणवा लद्धजसु । १६. A तूररवहं । १७. P वरिउ 1 १८. Kणचणपरिपेल्लिय । ४. १. P सो इदु चंदु णं पडिउ । २. जणणु वि । ३. K विवहबाट ।
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महापुराण
जिणु वंदिवि णिदिवि अप्पणउं __ तें पिसुणि णिसुणिई तिहुयण । सिरिसेणे सेण पमेल्लविय सिरिसम्मइ सिरिसम्मइ यषिय । माहियोसि णिवासि सिरिपहु णियरइगइछाइयरविरहहु । तवु गहियउं महियर्ड दुरुचरित्रं चेद्विउ चिरु णिरु जिम्मच्छरउ । एत्तहि णंदणु र्णदणु जणहु पउणंतु अंतु दुकियरिणहु । आसाठि रूदि पंछीसरद
छर्णससिहरि मणहरि वासरह । उववासिड तोसिस सुबमुह सहुं सविहिदि ससुहिहिं सुहमइहिं । पत्ता-अट्टरउहहिं चत्त धम्ममाणसंजुत्तः ॥
थिव अत्याणि णराहिउ णं णयलि ताराहि ॥४॥
१५
जांवच्छइ पेच्छइ जलियेदिस ता कामिणिचूडामणिसरिस। विहि विरलिय विलिय उक्क किह सुहबहसररुहमयरंदु जिह । तं पेच्छिवि परिच्छिवि सयलु संचियमलु चंचलु मुवणयलु । णियतणयह पणयहु लच्छिसहि अहिअल्लिय धल्लिय दिग्ण महि ।
पिउगुरुहि पुरुहि थिरु लइड वंड सिरु मुंडि देखि तेण वउ । समयसरणके लिए चला । विविध ध्वजवाले राजाने मकरध्वज (कामदेव) को जीतनेवाले जिनकी वन्दना कर अपनी निन्दा की। उसने जो कहा वह त्रिभुवनने सुना। श्रोषेणने सेना छोड़ दी और लक्ष्मी श्रीशर्मा को सौंप दो। अपनी कान्ति और गतिसे जिन्होंने सूर्यके रथको आच्छादित कर लिया है ऐसे श्रीप्रभ (श्रीपच के आशाओंका नाश करनेवाले निवासपर जाकर उसने सप ग्रहण कर लिया और दुश्चरितका नाश किया । उसकी पुरानी चेष्टाएँ मत्सरभावसे बिलकुल रहित हो गयीं। यहां लोगोंकी वृद्धि करनेवाले उस पुत्रने पापोंका अन्त करते हुए, आषाढ़ माहके प्रसिद्ध नन्दीश्वरमें पूर्णिमाके सुन्दर दिन, धैर्य सम्पन्न और शुभमतिवाले सुहृदोंके साथ उपवास किया और सन्तुष्ट हुआ।
___घत्ता-आठ रौद्रध्यानोंसे दूर और धर्मध्यानसे संयुक्त वह राजा दरबारमें बैठा हुआ ऐसा मालूम होता मानो नभतलमें चन्द्रमा हो ||४||
जब वह बैठा हुआ था तो जलती हुई दिशा देखता है। कामिनीके चूड़ामणिको तरह आकाशमें फेंकी गयी उल्का उसे ऐसी दिखाई दो जैसे चन्द्ररूपी कमलका पराग हो। उसे देखकर संचित मल चंचल समस्त भुवनतलको छोड़कर अपने प्रणत पुत्रको अहित करने वाली लक्ष्मीरूपी सलो त्याग दो और घरतो दे दो। अपने पिताके गुरु नगर में स्थिर वन लिया, सिर मुड़ा लिया,
४. A सेणय मेलविय। ५.A सिरिसमा सिरिकम्म। ६. P readsaas band basa. I ७. P महिलं । ८. सम्वेदित चिरु जिम्मछरिख । ९. AP झणसमहरि । १०.Aमणहवासरह ।
१.१. A सुमुहि हि सुमईहि; P मंतिहि सुहमइहि । १२. P अत्याणेण । ५. A जाम P जापच्छ । २. A जडिय। ३. P°वियलिय विरलिय। ४. P परियच्छिति ।
५. A पुरहि: P गुरुहि । ६. K प्रज; P सब ।
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महाकवि पुष्पदन्त विरचित सइरिहि सिरिसिरिहि हरिवि रइ कयकलसणास संणासगइ । सवियपि कपि सोहम्मवरि एको हिसुहणिहिआउधरि । सिरिवहि सिरिवेहि विललियचमा सिरिहरु मणहरु जायज अमरु । "एसजु पुज्जु तहु अट्ठगुणु सुहवत्त सत्तकरमवियतणु । विहवाई अदई सहस दुइ वटुंति जति जइ मुत्ति तइ। णीसासु मासु पूरिधि मुयइ भावइ सेवा कार्य जुयइ । घप्ता तहु तहिं पंकयतहु कीलंत? कीलंतहु ॥
आउ पईहु वि पर्यलिस काले को "ण कवलिउ ।।५।।
अवर षि णररविपहवत्ति जाहिं बहुजीषइ बीयई दीवि तहिं । मोरयभीमोरयसंगरहु
इसुकारहु सारहु गिरिवरहु । पुवासह वासइ भारह
सियमाणुमाणुकरभारहइ । गंदतपैगविगविगहिरि
इलतिलइ अलयइ विसयवरि । संपयहि पयहि णिहचु जि पियहि णिदुंगेज्झहि उज्महि पायरियहि ।
णिश्वट्टि लोहिल कूरमई अंजियजउ दुज्जत मणुयम । और शरीरको दण्डित किया । सिंहों सहित श्रीपर्वत शिखरपर रतिका नाश कर, जिसमें कालुष्यका नाश कर दिया गया है, ऐसो संन्यास गति रचकर वह एक सागर आयु और सुखको निषि धारण करनेवाले सौधर्म स्वर्गके श्रीसम्पन्न श्रीप्रभ विमानमें, जिसपर चमर ढोरे जा रहे हैं, ऐसा श्रीधर नामका सुन्दर देव हुआ। उसका आठ गुना पूज्य ऐश्वर्य था। उसका सात हाथोंसे मापा गया शरीर सुखका पात्र था। वैभवसे गोले दो हजार वर्ष जब बीत जाते हैं, तब उसका भोजन होता है, एक माहमें सांस लेकर छोड़ता है। उसे स्त्री अच्छी लगती है, और शरीरसे उसका सेवन करता है?
पत्ता-वहाँ कोड़ा करते-करते कमलनेत्र उसका लम्बा समय निकल गया। समय के द्वारा कोन कवलित नहीं होता ? ॥५॥
मनुष्य रूपी सूर्यको प्रभावाले अनेक जोबोंसे युक्त दूसरे धातकीखण्ड द्वोपमें जिसमें मयूर और भयंकर सांपोंका युद्ध होता है, ऐसे श्रेष्ठ इवाकार पर्वतको पूर्व दिशामें सूर्य और चन्द्रमाकी किरणोंसे आलोकित भारतवर्षके आनन्द करते हुए प्रचुर गांवोंसे गम्भीर पृथ्वी श्रेष्ठ अलका क्षेत्रमें सम्पसियों और प्रजाओंसे प्रिय मनुष्यों के द्वारा अग्राह्य अयोध्या नगरीमें अत्यन्त भ्रष्ट
७. AP सुरसिहरिहे। ८. A जुम्मोवहि । ९, A सुर गिहि । १०. A सिरिहरु। ११. A एसज्ज पुज्ज । १२. A कायवि सुवह । १३. " सहूं अच्छर । १४. A पडिज । १५.A काले को विण
कवलित; Pकालें को गउ कलिउ । ६. १. A अवर वि पर रवि पवहति अहि; P अमर वि गरवर विहरति जहिं । २.A दीवइ कोह। ३. A सुइकार । ४. AP पगामगाम । ५. A PिE गिजसहि but fणदुगेजसहि in margin ] ६. AP अजयंजन।
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महापुरान
[४५. ६.७. तहु मंदिर णंदिरि णिम्मलिणि सुंदरि इंदिदिरि णं णलिणि । मुक्कमलकमलदलणयणजय सुहेजलरहल्लि णववेल्लिमुय । 'नियसिरमणि गुणमणिणियहखणि सरसेणाजियसेणा रमणि । सुपसुत्त पुत्तसं णिहियमइ सा सिविणयं' सुविणिय णियह सइ । पत्ता-सीहु इस्थि ससि दिणयह पुण्णकलसु पंकयसरु ॥
सिरि वसहिंदु पमत्तल संखु दाहिणावत्तस ||६||
दिवउ सिट्टउ सुहिमाणियइ णियकतहु कतहु राणियद । फलु विलसि भासिई तेण तहि । दिसवलेए विमलइ थियइ पहि। तहि गभि अग्भि णं चंदमउ घिउ सिरिहरु सिरिहरू सचम । अण्णउ धण्ण पुण्ण णिहि तरु धरणिहि अरणिहि णाई सिहि । जंजाणिउं भाणि जेण जहिं वड्दत संतें तेण तहिं। णय रिद्धिइ बुद्धिइ लक्खियर णिहिलत्थु वि सत्थु वि सिक्खियलं । मायइ पियवायइ गुणसहिउँ णियणामु सधामु तासु णिहिउं ।
सवियक्षउ थका तरुणिरत्र णवजोज्वणि णं' वणि महुसभउ । करमति अजितंजय नामका दुर्जेय ( मनुजमति ) राजा था। आनन्द देनेवाले उसके घरमें निर्मल सुन्दरी गृहिणी थी मानो कमलिनो में लक्ष्मी हो। वह निर्मल कमलके समान आँखों वाली सौन्दर्य के जलकी लहर नवलताके समान बाहुबली, स्त्रियों में शिरोमणि, गुणरूपी मणिसमूहकी खदान, मोर कामदेवकी सेना अजितसेना नामकी स्त्रो यो। पुत्र में अत्यन्त बुद्धि रखनेवाली, अत्यन्त प्रगाढ़ रूपसे सोयो हुई, सुविनीता वह सती स्वप्न देखती है।
घत्ता-सिंह, हाथी, चन्द्रमा, दिनकर, पूर्णकलश, कमल, सरोवर, लक्ष्मी, प्रमत्त वृषभेन्द्र और दक्षिणावर्त शंख ॥६!!
सुषियोंके द्वारा मान्य रानीने जो देखा, वह अपने प्रिय पतिसे कहा। उसने उससे उसका विलसित फल कहा । दिशा मण्डल और आकाशके निर्मल होनेपर उसके गर्भ में, बादलोंमें चन्द्रमा के समान, लक्ष्मीधारक श्रीधर स्थित हो गया। पुण्य निधि और धन्य वह इस प्रकार उससे उत्पन्न हुआ जैसे धरती पर वृक्ष और लकड़ोसे आग उत्पन्न हुई हो। वृद्धिको प्राप्त होते हुए उसने जहां जो जाना वह कहा। न्य-ऋद्धि और बुद्धिसे वह उपलक्षित हो गया, निखिलार्थ शास्त्र भी उसने सीख लिये। प्रिय बोलनेवाली मां ने गुण सहित अपना नाम और घर उसे सौंप दिया { अजितसेन उसका नाम था ) नवयौवन में वह विचारग्रस्त और तरुणीरत हो गया मानो वनमें
७. A पंधिरि मंदिरि । ८. A सुक्क. १९. A सुयबलहरणि णिवस्लिभुय; P सुहजलबहल्लि । १०. K
तृयसिर । ११. A सविणय सिविणय; P सुषिणम सिविणय । १२. AP संखुवि दाहिणवत्तः । ७. १ मुहमाणियह। २. A दिसिवलयइ विमल थिम्मि पहि; P दिसबला विलि षियम्मि यहि ।
३. AF omi: यित। ४. A उप्पण्ण बण्ण उ सञ्चाणिहि; Pउप्पण्णह षण्ण पुण्णणिहि। ५. A तक्षणियउ। ६. Al' वणि गं।
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-४५. ८. ११ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित ताराएं ताएं तालघणु
गंरिणु गयसोर असोयवणु । दुहहरु सिरिहरु जिणु सेवियउ भर्वपासु सुदूर विहावियस । पत्ता-चितह महिपरमेसर एंवहिं धम्महु अबसरु॥
कण्णहु णियडइ घुलियई मरणु कहंति व पलियई ॥७॥
4
सो अजियसेणु वेणु' ध धरहि अहियविउ पहवित ढोइयकरहि । रिसिसिक्स्वहि दिक्खहि लग्गु किह पिस यकलि केवलि हुयउ जिह । एत्तहि जयजचहि जोत्तियाहू णिक्खत्तियखत्तियसोचियहु । तसियच्छु चक्क नहु हुयउ घरि रुइपुंजु कंजु ण कंजसरि। जणजोणिहि खोणिहि साहियई। चडई छक्खंडई साहियई। णव णिहि मणदिहिनप्पायणई रयणई चेयणई अचेयणई। चउदह दहंगभोएँण सहुँ घरु एंति देति चिंतविलहु । कयदमु अरिदमु णामै समणु मासोववासि धणरासितणु । जो मण्णइ वष्णइ जिणचरि जै सुत्तु सुजुत्तु समुद्भरिउ । घर पत्त पत्तु ते जोइयउ
अणवज्जु भोज़ संपायउँ। गवभावण
ते बद्धई णिई कयेपण। बसन्तका समय हो । तब पिता राजाने शोकसे रहित होकर ताल वृक्षोंसे सघन अशोक धनमें जाकर दुःखका हरण करनेवाले श्रीधर जिनकी सेवा की और अत्यन्त दूरवर्ती भवरूपी बन्धनको देख लिया।
पत्ता-धरतीका वह राजा विचार करता है कि इस समय, अब धर्मका अवसर है। कानोंके निकट व्याप्त सफेदी मानो मृत्युका कथन कर रही है ।।७।।
उसने उस अजितसेनको कर देनेवाली धरती पर वेणुके समान स्थापित कर दिया और अभिषेक किया और मुनिकी शिक्षासे युक्त दीक्षामें वह इस प्रकार लग गया कि पापको नष्ट करनेवाले पिता केवलशानी हो गये । इधर विजय-यात्रामें लगे हुए तया जिसने सत्रियों और बाह्मणोंको क्षत्र रहित कर दिया है ऐसे उस राजा अजितसेनको सूर्यको त्रस्त करनेवाला चक्र, इस प्रकार उत्पन्न हुआ मानो कमलोंके सरोवरमें कान्तिका समूह उत्पन्न हुआ हो। उसने मनुष्योंकी योनि प्रचण्ड छह खण्ड भूमि सिद्ध कर ली। नव निषियो, मनके भाग्यको उत्पन्न करनेवाले चेतन अचेतन चौदह रत्न, दांगमोगों के साथ घर आते हैं और वह जिसकी चिन्ता करता है, वे वह शीघ्र प्रदान करते हैं । शान्तमन एक मासका उपवास करनेवाले और तृणके समान शरीरवाले अरिदम नामक श्रमण, जो जिनचरिसको मानते हैं और उसका वर्णन करते हैं, तथा जिन्होंने युक्तियुक्त सूत्रोंका उद्धार किया है.घर आये । राजाने उन्हें देखा और उन्हें अनवद्य आहार दिया। प्रणतिपूर्वक नव-नव भावनासे उसने स्निग्ध नये-नये पुण्योंका बंध किया। जिन्होंने शुभ दिशा
७. A तालहि तालपणु । ८. AP भरमार । ९ A सदूछ । ८. १. A घेणु व घरह । २. A°फरह। ३. P राजसरि । ४. P भोएहि । ५. A गुणरासितणु । ६.P
सजुत्त । ७. K संप्राइट । ८. P णवपुण्णय । ९. P कयविणइ ।
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१२०
१५
१०
१५
गुणवंत संत महरिसिहिं १० "महिषं टयणिकंटयवहि
--चक्रवद्दिसि रिलीलह दिन जिणु तेणील
सुहावई
रविप
थिरं पियं
निवारणा
महाणिण
मुसिं
कथं त
पिरासयं
अदोस
अरोसयं
विहट्टिय चैलं खलं मैंओ मुणी
अणप्पए
बुहत्थुए
विकरे
समाणए
महापुराण
९
आदसिय संसियसुहृदिसिहिं । पंचभूय तह हुय गरे हि । एंव सासु गयकाल ॥ मणहरणाम बाल ||८||
गई हूं । गुणप्पई ।
सुवं सुयं ।
सराइणा ।
पुणो तिणा ।
रई विसं ।
गयासवं ।
अहिंसेचं ।
अमोल ।
अतोयं ।
पोट्टि ।
मणोमलं
ओ गुणी ।
सुकष्पए ।
अ
सुकरे |
विमाणए ।
[ ४१.८१२
दिखायी और सूचित की है, ऐसे गुणवान् और सन्त महर्षियोंके द्वारा मही और पत्तनोंके निष्कंटक स्वामी उस राजा के लिए पाँच आश्चयं उत्पन्न किये गये ।
पत्ता - इस प्रकार चक्रवर्तीकी श्रीलोलासे उसका समय निकलता चला गया। उसने वृक्षोंसे हरेभरे मनहर बनालय में जिनके दर्शन किये ||८||
९
सुख प्राप्त करानेवाले, गतियोंके नाशक, सूर्यके समान प्रभावाले गुणोंके मार्ग, स्थिर स्थित, उन्हें राजाने प्रेमके साथ सुना और फिर चक्रवर्तीने गतिके अधीन सुख छोड़कर आस्रव रहित, आश्रयहीन अहिंसक प्रदोष मृषा शून्य अक्रोष, दोष रहित तप किया और चंचल दुष्ट मनोबल को नष्ट कर दिया। वह मुनि मर गये और वह गुणी महान विभासे युक्त शुभंकर सम्माननीय अच्युत विमान में अच्युतेन्द्र हुमा ।
१०. A महिषणिक्कंटयव हो; P महिष्वणिक्कंटियम हिहि । ११. A णरवइहो । तरुलीलइ ।
९. १. A omita हिसयं । २. A सतोषयं । ३. Aवलं । ४. A मुख । ५. Pओ । ६.AP
सुञए ।
१२. P
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-४५. १०.१६]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित पस:-- इयगि धावीससमुदई ।।
तेत्तियवाससहासहि मुंजइ मणविण्णासहिं ।।९।।
१०
ससेइ सो पमत्त सहंत कठरेहओ अमस्सरोमकेसओ अमोह योहसं णिही किरी? कोडिमंडिओ अधूविओ सुगंधओ सहावजायभूसणो विचित्तचारुचेलओ जईि जहि विजोइओ गुणेहि सो अदुजसो मणेण चितियं हिं कवाडवेइतरे कुलायलावलीवणे जलतरणपावए तहि पि सीयतीरिणी गइंदघटुचंदणे
दुवीसपक्खमेत्तए। तिहत्यमेतदेहओ। ससंकसुकलेसओ। पहू तमपभावही। अपाढओ वि पंडिओ। अण्हायओ सिणिद्धओ। कैणतिकिंकिणीसओ। ललंतफुलमालओ। तहि तहि विराइओ। अणालसो अवामसो। खणेण गच्छए ताहिं। असंखदीयसायरे। रमेइ गंधमायणे। दुइजय म्मि दीवए। णिदाहडाहहारिणी। तडम्मि तीइ दाहिणे।
पत्ता-उसकी आयु, निद्रासे रहिल बाईस सागर प्रमाण पो। उतने ही हजार वर्षों {बाईध हजार वर्षों ) में वह मनसे कल्पित आहार ग्रहण करता ॥२॥
बाईस पक्षोंको यात्रावाले समय में वह सांस लेता। उसके कण्ठकी रेखा शोभित थी। उसका शरीर तीन हाथ प्रमाण था । मूंछ और केशोंसे रहित वह चन्द्रमाके समान निर्मल शुक्ल लेश्यावाला था। तमप्रभा नामक नरक तक अवधिज्ञानसे युझ था। जो किरोटकोटिसे मण्डित था, बिना पढ़ाये हुए भी पण्डित था। बिना धूपके हो जो सुगन्धित था। बिना स्नानके भो स्निम्प था, स्वभाव ही से उसे आभूषण उत्पन्न हुए थे, जो किकिणियोंके मधुर स्वरसे युक्त था, विचित्र सुन्दर वस्त्रोंसे सहित था, झूलती हुई सुन्दर मालाओंसे मुक्त था, वह जहाँ-जहाँ भी देखा गया, वहांवहीं सून्दर था। गुणों के कारण अपयशसे रहित, अनालम और तामसिक प्रवृत्ति से रहित था। मनसे जहाँ चाहता था, वहाँ एक क्षण में पहुंच जाना था। यह कपारवेदी और वेदीवाले असंख्य द्वीप सागरों, कुलाचलोंके पंक्तियनों और गन्धमादन पर्वतपर रमण करता। जिसमें रत्नोंकी ज्वाला प्रज्वलित है, ऐसे दूसरे द्वीपमें ग्रीष्मकी जलनका हरण करनेवाली सीता नदी है, जिसमें
१०. १. A P पत्ता 1 २. A P अमसु । ३, F पहत्तमप्यहाँ । ४, A किरीरिकोळि । ५. AP
अण्हाणि श्री 1 ६. AP कर्णत । ७. AP डाहधारिणी। ८. P गयंद ।
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१२२
२०
१०
बिलासवाससंत पुरं तहिं घराचर्य
धत्ता - सूहउ कामस माणच कणयमाल सह गेोहिणि
सो सुती चुओ देवणाहो ओ तीई दिवो
सरुवेण भारो
महापुराण
यावेण सूरो गए विसिंदो
मई महल्लो
रमाए सुरिंदो पिट्ठचित् गओ रिक् हालग्गताल
भमंतालिसा
वर्ण तं पट्टो हि ते दिट्ठो
घरिति मंगलाबाई | विवाह वत्थुसंचयं ।
कणयप्पहु तहिं राणच ॥ णं जैलहिहि जलवाहिणि ॥ १० ॥
*
जिदिस्स भत्तो । ओ पोमणी । rror सुभो । लेणं समोरो ।
धणेणं कुबेरो ।
जुई णिसिंदो |
गुणीणं पहिलो ।
माए मुर्णिो । सपुतेण भुत्तो । सरुद्दवखंदक |
फळालं लयाले | मनोहारिणामं ।
सासि डि । मुणी वरिट्ठो ।
[ ४५, १०, १७
गजों द्वारा चन्दन घर्षित है उसके ऐसे तटपर विलासपूर्ण गृहों की पंक्तिवाली मंगलावती नामकी भूमि है। उसमें घरोंसे ऊँचा वस्तु संचय नामका नगर शोभित है ।
पत्ता - उसमें सुन्दर कामदेव के समान कनकप्रभ नामका राजा था। कनकमाला उसकी गृहिणी थी मानो समुद्रकी नदी हो ॥ १०॥
११
तब वह सुख जिनभक्त देवेन्द्रनाथ च्युत होकर उससे पद्मनाथ नामक पुत्र हुआ जो दिव्य गर्वरहित, सुन्दर और भव्य था । जो स्वरूपमें कामदेव, बलमें समीर, प्रताप में शूर, धनमें कुबेर, गति में वृषभराज, ज्योतिमें चन्द्रमा, मतिमें श्रेष्ठ, गुणियों में पहला, लक्ष्मीमें देवेश, और क्षमामें मुनीन्द्र था । सन्तुष्ट चित्त पिता पुत्रके साथ मनोहर नामके वनमें गया, जिसमें समृद्ध वृक्ष थे, जो रुद्राक्ष और द्राक्षा वृक्षोंसे युक्त था। जिसमें ताल वृक्ष आकाशको छू रहे थे। जो फलों और लताओंसे युक्त था और भ्रमण करते हुए भ्रमरोंसे श्यामल था। उसने वनमें प्रवेश किया। वहाँ उसने श्रेष्ठ अनुष्ठान से युक्त तथा मुनियों में वरिष्ठ एक मुनिको देखा ।
९.
हि।
११. १. Pपमणाहो । २. A ते दिवो । ३ AP सुरुवेण । ४. Pई सुचंदो । ५. रिशिवं । ६. A सुरो दवदवं । ७. P भर्मता लिमालं; P adds after this : मराठीमराल, सुच्छा इसामं । ८. T सिद्धगिट्टी उत्तमानुष्ठानः ।
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-४५. १२.११]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित पत्ता-तहु धुव सिवेपुरगामिहि गरवइ सि रिहरसामिहि ।।
जम्मणसमभग्गड दिलु कभकमलहिं लगत ॥११॥
णिवदारणि मौरणि साईणिय णियतणया पणयहु मेइणिय । लहु ढोयवि जोयषि सुयमइउ कणयप्पहु दप्पर पावा। पडिवण्णडं सुण्ण तेण षणु चलसंदणु गंदणु गठ भषणु । सोमप्पड सुप्पह तासु पूर्य किं अक्खमि पेक्वमि णाई सूये । णिरवण्णु सुवण्णु सोहं तणड | लण्णा भण्णा कि म ल ! ससिकाचक,चलपयहि दियहेहि रहेहिं व संगयहि । सई सासणि आसणि थियउ जाहिं पहसियमुहु तणुरुहु र्थविर तहि । विण्णविवि विवि ओलगियल डे सिरियरु सिरिहरु मग्गियज । णिग्गंथहु पंथहु स्वर्गुण चुउ सो पोमप्प? रिसिणाहु हुए। पत्ता-सयलहं जीवहं मित्तउ हेमधूलिसमचित्तथ ॥
णियदे वि गिरीहत वणि णिवसइ मुगिसीहरु ॥१२॥
१०
पत्ता-जम्मप्रवके श्रमको नष्ट करनेवाला वह राजा शाश्वत शिवपुरके गामी उन श्रीधर स्थामीके चरणों में पूरी वृद्धतासे लग गया ॥११॥
१२
नृपवारिणी, मारिणी, पाकिनी, भेदिनी आदि विद्याएँ और धरती अपने प्रिय पुत्रको देकर, शुभमति दर्पको बाहत करनेवाला वह कनकप्रभ प्रवजित हो गया। उसने शून्य बन स्वीकार कर लिया। चंचल है रथ जिसका ऐसा पुत्र अपने घर गया। चन्द्रमाके समान कान्तिवाली सुप्रभा उसकी प्रिया पी । उसका क्या वर्णन करूं। मैं उसे पुष्पमालाके समान देखता हूँ। स्वर्णनाभ उन दोनोंका पुत्र था जो मनुष्योंमें सुन्दर था। उन्नति प्राप्त करनेपर ( बड़े होनेपर ) उसे मनुष्य क्या कहा जाये १ जिनके चन्द्रमा और सूर्यरूपी चक्र पैर हैं ऐसे दिनरूपी रथोंके निकल जानेपर, जहाँ राजा स्वर्य शासन और सिंहासनपर स्थित था, वहाँ उसने प्रहसित मुख अपने पुत्रको स्थापित कर दिया। विनय और प्रणाम कर उसने सेवा की, श्रीलक्ष्मीके कर्ता पमनाम श्रीधरसे व्रतकी याचना को । निर्ग्रन्थ पथसे वह एक क्षण व्युत नहीं हुआ। इस प्रकार वह पपनाम मुनि हो गये।
पसा-बह समस्त जीवोंके मित्र थे, स्वर्ण और धूलमें समान चित्त रखनेवाले थे। अपने हो शरीरके प्रति निरीह वह मुनिसिंह बनमें निवास करने लगे ॥१२॥
२. परिगामिहि । १. Fजम्ममरणसभं । ११.A°कमलहो लगाउ। १२. १. P णियमारणि । २. मारणि । ३. A सहरिणिय । ४. AP पिय । ५. AP सिम 1 .Aणाहत
ण । ७.Pमण । ८. A पिय उ: Pणिहिल। ९. A णविच । १०.AP वर सिरिहह। ११.P सणिण कद । १२. A पोमणाह: P परमणाहु ।
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१२४
५
१०
पयारह मणहरकहियाई मदवर्णे तवर्णे तवियाई arraataarane ag die झीउ र पेसरु णामझरं भल्लत्रं जाणियउ आराहिवि साहिवि संतमइ roaring मझ जड़ उच्णछिष्णमिच्छत्तहिं तिगुणियदs तिजलहिआव्हरि तीसवासदवरि रमेत्तु विच्छुरिदिसु धत्ता - तहिं सियंगु सुच्छायड
महापुराण
१३
अविहंग अंगई गहियाई । तुंगई अहं गई स्ववियाई । सुहसीलई सोलह भावगउँ । लइ लडं पद्ध तित्थयरु | परिछेहु छेय आणियः । जीविषे संप्रावि दिव्वगइ | विठाण संबद्धरई । संपुष्णपुण्णफलभुतिवहि । तसं खपक्खणीसासयरि । आहारु चार वहिं अवयरिष्व । जहिं णिद्दिलु घषलु जणु सुजसु । वइजयंति सो जाय || पेक्खिवि पेद्दणी भरह पुष्पदंताणी || १३|
4 %
[ ४५.१३.१
इय महापुराणे विसद्विमापुरसाकारे महाकपुरसत्रिरह महा मध्यमाणुमणि महाकचे परमणादव जयंत संभवो णाम 'पंचचाळीसमो परिच्छे जो समझो ॥ ४५ ॥
१३
केवलज्ञानियों द्वारा प्रतिपादित अविकल ग्यारह अंग उसने स्वीकार कर लिये । मदको सन्तप्त करनेवाले तपमें उन्होंने उसके ऊंचे माठों अंगोंको नष्ट कर दिया। उद्दाम कामको नष्ट करनेवाली शुभशील सोलह कारण भावनाओंका ध्यान किया। उनका रतिप्रसार लोन और क्षीण हो गया, तो उन्होंने तीर्थंकरत्वका बन्ध कर लिया और उसे पा लिया । श्रेष्ठ नामप्रकृतिको जान लिया और उत्तम पुरुषकी आयुका बन्ध कर लिया । शान्तमति वह आराधना और साधना कर दिव्यगति और जीवनको प्राप्त हुआ। जिसने निर्वाणके स्थानमें अपनो रति बाँधी है ऐसे वह मुनि अवग्रह स्वर्ग (वैजयन्त विमान में ) उत्पन्न हुए। जहाँ मिध्यात्वरूप ग्रह नष्ट हो गया है और जो सम्पूर्ण पुण्यफल की भुक्तिको वहन करता है, जहाँ तँतोस सागर प्रमाण आयु होती है, तेंतोस पक्षों में श्वास लिया जाता है, और तैंतीस हजार वर्षमें जहाँ सुन्दर आहार किया जाता है। जहाँ दिशाओंको विच्छुरित करनेवाला एक हाथ प्रमाण शरीर होता है और जहां मनुष्य मानो यशके समान सब ओरसे धवल होता है ।
त्ता - ब उस वैजयन्त विमानमें सुन्दर कान्तिवाला वह श्वेतांग देव हुआ, जिसे देखकर पुष्पदन्त (सूर्य-चन्द्र ) की भार्या ( प्रभा ) प्रभासे हीन हो गयी ||१३||
इस प्रकार प्रेसर महापुरुषोंके [[णाकारोंसे युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्या द्वारा विरचित और महामन्य मास द्वारा अनुमत्र महाकाव्य का एद्मनाम वैजयन्त उत्पत्ति नाम का पैतालीस परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ ५ ॥
१३. १. AT मणहरणिहियाई । २. Pomits this foot | ३. A सोलट । ४, AP add after this : भाषेषु विपावण ५. Pीउ लोपन । ६. रहपसह । ७ AP संपादित । ८. APA 'मिले but gloss ग्रहे । १०. A P विस्परियदिसु । ११. A वसु । १२. A पहाणी । १३. P पंचालीसमो ।
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संधि ४६
तह देवहु तेत्तीसंवणिहिपरिमियाठ पुणु णिढिड। कालं कलियब त ति वि छम्मासंतु परिहिउ ॥ध्रुषकी
तइयतुं सहसच्छि सहासवाहु अक्खइ जक्खहु सोहम्मणाहु । भो जक्ख जक्ख सयदलदलक्ख परिपालियबसुहणिहामलक्ख । इह जंबुदीवि भरतरालि चंदरि पडरि धणकैणजणालि । धरसेगु महासेणक्खु णिवाइ जं लंधिषि उचारे ण रवि वि तव । सोहागे तिहुयणहिययलीण गमण हंसि पोसेण वीण। सियसरलतरलणयणहि कुरंगि लक्खण णामें लक्षणहरंगि। वहु पणइणि पंससहरहु कति णं मुणिवरणाहहु लग खंति । अट्ठमउ दयासरिमहिरिंदु एयह घरि होसइ जिणवरिंदु । सयगासणु भूसणु असणु षसणु कुरि पुरवर सुंदर दलहि वसणु । घसा-सा भूरिचंदमल चंदसरु चैदमुहिण तं विरइया |
पणदेवीभतारेण स्खणि मोत्तियरयणहिं नइयत ॥१॥
mamrnmmmmmmmmna
सन्धि ४६ सस देवकी तेंतीस सागर परिमित आयु फिर समाप्त हो गयी। वह उतनी आयु भी कालके द्वारा कवलित कर ली गयी । केवल छह माह आय शेष रहो।
तब हजार आँखों और बाहुओंवाला सौधर्मेन्द्र यक्षसे कहता है --"कमलके समान अांखोंवाले, और जिसने वसुधाके लाखों खजानोंकी रक्षा की है ऐसे हे यक्ष, इस जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्रके भीतर धन-जन और अन्नसे परिपूर्ण प्रवर चन्द्रपुरमें सेनाको धारण करनेवाला महासेन नामका राजा है, उसे लौधकर; उसके ऊपर सूर्य भी नहीं तपता। उसकी लक्षणोंको धारण करनेवाली लक्ष्मणा नामकी पत्नी है, जो सौभाग्यसे त्रिभुवनके हृदयोंमें लीन है, जो गमनमें हंस और बोलने में वीणा के समान है, जो अपने श्वेत और चंचल नयनोंसे हरिणो है। उसकी वह प्रणयिनी ऐसी थी मानो चन्द्रमाकी कान्ति हो, या मानो मुनिवरके लिए प्रति लगी हो। दयारूपी नदोके लिए महीपरेन्द्र के समान आठवें जिनेन्द्र इनके घर जन्म लेंगे। इसलिए कायनासन, भूषण, बशन, वसन और नगरको सुन्दर बनाओ, सब कष्टोंको दूर कर दो।"
पत्ता-तब चन्द्रमुख और लक्ष्मी देवीके स्वामी कुबेरने शीघ्र ही स्वर्णमय नगरको रचना की और उसे एक क्षणमें मोतियों तथा रस्नोंसे विअस्ति कर दिया ॥१॥ १.A Pलिज । २.A सहसति but closसपा . कयणालि। Y. A परसेणु । ५. A P सुबरु दलियवसणु । ६. भूरिचंदसुहबंदउ । ७. A चंदमुहेणं पिरयच ।
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१२६
.
महापुराण
समेबिजलवाहियालीणिवेसु अवितुहटिटॉपएसु। वियसियषणपरिमलगइमनु पलनीयकुलगुमुगुमंतु । जिणवरघरधंदाटणटणंतु कामिणिकरफेकणखणखणंतु । माणिकरावलिजलजलंतु सिहरग्गधयावलिललललंदु । ससिमणिणिझरजलझलझलंतु मग्गावलम्गहरिहि लिहिलंतु । करिचरणैसंखलाखलखलंतु रषियंत हुयासणधगधगंतु। बहुमंदिरमडियेजिगिजिगंतु सहलदलतोरणाचलचलंतु । गंभीरतूररवरसमसंतु
तसगयवसंतु णिच्चु जि वसंतु। कालायरुधूषियणायरंगु णाणारंगाव लिलिहियरंगु। घसा-सा सुंदरि पियमणहारिणिय सुरहियगंधई मालइ ।।
'सुहं सुत्त विरामि विहावरिहि सिविणयमाल णिहालइ ॥२॥
गलियदाणवलजललवलोलिरभिंगयं
पेच्छा विसालच्छि पमत्तमयंगयं । इट्ठगिद्वितणुकंसणकंटइयगयं
वसहममलथलकमलपसाहियसिंगयं ।
.
जिसमें अश्वोंके सम और विस्तीर्ण कीड़ाप्रदेश हैं, तथा सम्पुष्ट बाजार और द्यूतप्रदेश हैं। जो विकसित वनके परिमलोंसे महक रहा है और चंचल भ्रमरोंके कुलसे गुनगुना रहा है। जिसमें जिनवरके मन्दिरोंके घण्टोंकी टन-टन ध्वनि तथा कामिनियोंके कंगनोंकी खन खन धनि हो रही है, जो माणिक्योंको किरणावलीसे प्रज्वलित है और शिखरोंके अग्रभागकी ध्वजाओंसे चंचल है। जो चन्द्रकान्त मणियोंके निझरोंके जलसे चमक रहा है। मार्गपर चलते हुए अश्वोंसे आन्दोलित है तथा हापियोंके पैरोंकी श्रृंखलाओंसे झल-सा रहा है, सूर्यकान्त मणियोंकी ज्वालासे धकधक करता हुआ, अनेक प्रासादोंकी शोभासे चमकता हुआ जो गीले पत्तोंके तोरणोंसे चपल है, गम्भीर तूर्योसे शद करता हुआ जो तरणजनोंसे अधिष्ठित है और जिसमें वृक्षों में नित्य वसन्त स्थित रहता है। जिसके प्रांगण कालागुरुके धुएंसे युक्त तथा नाना प्रकारको रांगोलियोंसे लिखित हैं।
पत्ता-सुरभित गन्धसे मालतीके समान अपने प्रियके मनका हरण करनेवाली, सुखसे सोतो हुई बह रात्रिका अन्त होने पर स्वप्नावली देखती है ॥२॥
वह विशालाक्षी स्वयं देखती है-जिसके झरते हुए चंचल मदजलके कक्षोंपर चंचल भ्रमर मँडरा रहे हैं ऐसे प्रमत्त महागजको; जिसका शरीर पहली बार ब्याई हुई गौके शरीरके संस्पर्शसे रोमांचित है, २. १. १ समु जेत्यु बाहि । २.°टापवेसु । ३. P°वरणह संस्खला । ४. AP रविरंत । ५. A°माण ।
६. A समसमंतु। ७.A सुरहिगंध णं मालइ; P सुरहियगंध स मालह। ८. A सुहसुत्ति; P सुहें सुत्त।
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-४६. ३. २२ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित तिक्खणक्खणिहारियमारियकुंजरं
रत्तलित्तमुत्ताइलमंडियकेसर। सीहयं मुहावालुयणिग्गयदाढय
गोमिणि च दिसकंजरसिंघणलढयं । इगंधसेलिंधकरबर्यकोसयं
वामजमलमलिमालासहपरिपोसयं । पुण्णयं विहुं जामिणिकामिणिदप्पण
लग्गय इणं पीणियपंकडणीवणं । मीणमिणमणिह्णजलकीलणलंपडं
चारुहारिकजाणघरं घडसंपुढं । इंसचंचुपुर्डखुडियभिसं भिसिणीहरं
सेयसलिलवेलागहिरं रयणायरं । कुलिसणहरफेसरिकिसोरधरियासणं
अवि य पायसासणजसस्स णं सासणं । इंधाममहिवदवास्स णिहेलणं
रयणपुंजमरुणंसुसिहातमहालणं । झत्ति दित्तजलासयछित्तणहंगणं
हुयवहं च सई पेच्छइ जालियकाणणं । और जिसके सींग स्थलकमलों ( गुलाबपुष्पों ) से प्रसाधित हैं, ऐसे वृषभको; जिसने अपने तीखे नखोंसे हाथियोंको फाड़कर मार डाला है, जिसको अयाल रक्त से रंजित मोतियोंसे शोभित है, जिसको लम्बी दाढ़ें निकली हुई हैं ऐसे सिंहको; दिग्गजोंके द्वारा किये गये अभिषेकसे प्रसिद्ध लक्ष्मीको: प्रिय गन्धवाले शेलिन्ध्र पुष्पोंके समूहको जिसमें स्थान है, और जो भ्रमरम सभूसे परिपोषित हैं ऐसे पुष्पमाला युग्मको; भामिनीरूपी कामिनीके लिए दर्पणके समान पूर्णचन्द्र को कमलिनी वनको प्रसन्न करनेवाले उगते हुए सूर्यको, प्रचुर जल कोड़ाके लम्पट मोन युगलको, सुन्दरताको धारण करनेवाले और कल्याणके घर कलशयुगलको; जिसमें हंसिनियोंके चंचुपुटोंसे कमलिनियां काटी गयो हैं, ऐसा कमलिनीगृह अर्थात् सरोबरको; श्वेत मलिलके तटोंसे गम्भीर समुद्रको वजके समान नखोंवाले किशोरसिंहके द्वारा धारण किये गये आसन ( सिंहासन ) को; और भी जो इन्द्र के यशके मानो शासन हो, ऐसे इन्द्रके विमानको; नागराजके भवनको; अपनी अरुण किरणोंको ज्वालासे अन्धकारका प्रक्षालन करनेवाले रत्नसमूहको; और शीघ्र ही अपनी सैकड़ों प्रदीप्त ज्वालाओंसे आकाशके आंगनको आच्छादित करनेवाली और वनोंको भस्म करने वाली आग को। ३. १. P°विदारिय । २. P भुत्ताहलमालामंडियं । ३. AP सुहावालुय । ४. AP करबियं । ५. AT पडसंघडं । ६. A"फुडतुष्यि 19. A इंदषामं वरउरवइणिहेलणं । ८. A समहारणं । ९. "दित्तिजाला। १०. ABयवहस अंसा पेपर: Pव्यवहं च सा पेच्छा ।
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१२८
[४६.३.२३
महापुराण घत्ता-इय पेखिचि रायह राणियइ संतोसें आहासिस ॥
तेण वि तह मंगलदसणहु फलु पणइणिहि पयासिध ॥३॥
सुओ देवि होही तुहं तिरथणाहो असामण्णसंपत्तिवित्तीसणाहो। विही आगया वेवया पंक्यच्छो हिरी फंति कित्ति सिरी बुद्धि लच्छी। णिहीसेण गेहम्मि छम्मासकालं णिहित सुवणं सुवणं पहालं । चइत्तस्स पक्वंतरे दिमिरुले सुहोहायरे वासरे पंचमिल्ले । रिसी पोमणाहो चुओ सोहमिदो थिओ गम्भवासे पुलोमारिवंदो। सुपासाहिवे णिचुए संगपईि समुदाणहो रंधकोडीसएहि ।
हाजक्खणिक्खितमाणिकहि पडण्णेहिं मासेहिं रामकरहिं । सओ पूसमासे पडतम्मि सीए सुहे समजोयम्मि एयारसीए । पहूओ पहू पुण्णपाहोहमेहो । जगाणं गुरू लक्खणुप्पत्तिगहो। सपाया मग्गं सतारवाल खणे कंपियं झत्ति तेलोकचक। घत्ता-परतेस त कत्थइ विप्फुरइ अंधारउ णउ रेहइ ।
जन्मणु गु नि शुनागलि जिण विणणारं सोहा ॥४॥
१०
पत्ता-यह देखकर रानीने राजासे सन्तोषपूर्वक कहा। उसने भी अपनी प्रणयिनीसे मंगल स्वप्न देखने के फलका कथन किया ॥३॥
हे देवी, तुम्हारा असामान्य सम्पत्तियों और प्रवृत्तियोंका स्वामी तीर्थकर पुत्र होगा। कमल नेत्रोंवाली धृति, ही, कान्ति, कीति, श्री, बुद्धि और लक्ष्मी देवियो मा गयौं। कुबेरने उसके घरमें छछ माह तक प्रभासे युक्त सुन्दर रंगके स्वर्णको वर्षा को। चैत्रशुक्ल शुभयोगोंके आकर, पाचवोंके दिन ऋषि पमनाथ सौधर्म इन्द्रच्युत हुआ और इन्द्रके द्वारा संस्तुत वह गर्भवासमें धाकर स्थित हो गया। सुपारवनाथके निर्वाण प्राप्त करने के नौ करोड सागर समय बीतनेपर, जिनमें यक्षके द्वारा आकाशसे रत्नोंको वर्षा की गयी है ऐसे नौ माह सम्पूर्ण होनेपर, पूष माहमें शुक्लपक्षकी एकादशीके दिन शुभ इन्द्रयोग और ज्येष्ठा नक्षत्रमें पुण्यरूपी जलोंके मेष, विश्वगुरु लक्षणोंकी उत्पत्तिके पर प्रभु उत्पन्न हुए। पातालमार्गसे लेकर तारों, सूर्य और इन्द्र के साथ एक क्षणमें त्रिलोकचक्र कोप उठा।
पत्ता-कहीं पर भी दूसरेका तेज नहीं चमकता था और न अन्धकार ही कहीं शोभित पा; जिनरूपी विननाथ (सूर्य) का जन्म और उदय शोभित होता है ॥४॥
११. पगइगिहो। ४. १. P असावण । २. A णिहतं । ". A मिलले । ४. A पुणोमारिवंदो। ५. A सुपपाहिए ।
६. P पुषणयंभोहमेहो । ७. P अयाणं । ८. P सपायालसगं सतारं ससमकं ।
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-४६. ५.१३ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
सहसा जायज सुरलोयखोहु । वीणारवु चलिउ किंणरोह । उच्च्छाहें रक्खस किलिकिलंति वईतई भूयई णहि मिलंति । किंपुरिस के वि किं किं भणंति सहिडिवेव पुच्छिवि मुति । रयत महोरय फुप्फुयंति गंधरुष गेयसरु सँई मुयंति । अणिषद्ध पिसायच लइ चवंदि दसदिसई जक्ख रयणई चिवति । ससहरैरवितेएं महि हवंति तारजे तारमणु पक्खति । दुग्गह गहचरियई णिक्नवंति जय पंद सामिय चर्षति । णक्खसई णवणक्खत्तमहिउ वंदहुंचलियाई षियाररहिन। दाविय णियपति पइण्णारहिं सासेहि पासपण्णएहिं। णहवडणविवरमुहणि मेहि दिसिविदिसाममासमागमेहिं । संगलियई मिलियई सुरभलाई भावणमाभरियई जलथलाई । घत्ता-अरावयकुभविइण्णकह पत्तउ जियपरसेणहु॥
एमयउ पुरपासहि भमि वि घरि पट्ट महसेणहु ।।५।।
शीघ्र हो देवलोकमें क्षोभ मच गया। वोणाके स्वरवाला किन्नर लोक चला। उत्साहसे राक्षस किलकारियां भरते हैं, बढ़ते हुए भूत आकाशमें मिलते हैं। कितने ही किंपुरुष कि कि का सच्चारण करते हैं, अच्छी दष्टिवाले देव पूछकर विचार करते हैं, वेगशील महोरंग फरकार करते हैं, गन्धर्व अपने गीत स्वर स्वयं छेड़ने लगते हैं ? पिशाच अनिबद्ध बोलते हैं, दसों दिशाओंमें यक्ष रत्नोंकी वर्षा करते हैं । चन्द्रमा और सूर्यको प्रभासे पृथ्यो अभिषेक करती है, तारागण भी अपना दीप्ति प्रदर्शित करत हैं ? खोटे ग्रह अपनी गहचर्याका त्याग कर देते हैं, और वे 'हे स्वामी, जय हो, आप वृद्धिको प्राप्त हों, आप प्रसन्न हों,' यह कहते हैं । नक्षत्र भी नव नक्षत्रोंसे पूजित और विकार रहित को वन्दना करने के लिए चले ! नागोंने अपनी पंक्तिका प्रदर्शन किया, जैसे क्षेत्र हल रेखासे निबद्ध धान्योंकी पंक्ति हो, आकाश पतनके विवर मुखोंके निर्गमों और दिशा विदिशा मार्गों के समागमनोंसे देवकुल मिलकर चले। भवनवासी देवोंको आभासे जल और स्थल आलोकित हो उठे।
पत्ता-जिसने ऐरावतके गण्डस्थलपर हाथ फैला रखा है ऐसा इन्द्र, वहाँ आया और नगर की चारों ओर परिक्रमा देकर, शत्रुसेना को जीतने वाले राजा महासेनके घरमें उसने प्रवेश किया ॥५॥
५. १. सुरलोइ खोह । २. A वगंता । ३. P पुप्फुयति । ४. P सयं । ५. A "तेय महि; P तेयई महि ।
६. P तारा3। ७. AP बद्ध। ८. A व वासपण्णएहि; P व वण्णापयपणएहि । ९. A°णिगहि । १०. संबलिय। ११. P भाभारिय जल।
१७
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१३.
महापुराण
[४६.६.१
तओ रोण छम्मेण णिच्छम्मयाए परं डिभयं दिण्णय अम्मेयाए । तवालग्गवारावलीमेईलालं ससिंगप्पहागिदिककूलं । रमंतष्ठराणेउरारावरम्म दिसादीसमाणुद्धजेणिदहम्म। फणिवाणियापायरायावलितं अदिदेवलंबतंकिंफिनिवर्स। लयामंडवासीणपिबाहरिवं तुरंगासासत्तकीलापुलिंद । वरीचंबणामोयलगाहिकपणे मओमत्तमायंगदतग्गभिण्णं । गुहाकिणकिणरालतगेयं सपायंतणिक्खित्तचंदकतेयं । णिओ सुंदर मंदर वेवदेवो तहिं तेहिं सो णाणणिकपभावो। पविच्छिण्णकुंभेहि कभीसगामी तिलोयंतवासीहिं तेलोकसामी। गुणुप्पण्णणेहेहि णिण्णटुणेहो अकूवारखीरेहि खीराहदेहो। जिणिदो जियारी जयंभोयमित्तो फणिदेहि देहि चंदेहिं सित्तो। घता-बुद्ध पर्वत जिणतणुहि फंतिई पयह ण होतउ ।। ___णं अमिउं ससका वियैलियर्ड दिट्ट महिहि धार्षद ॥६॥
उस अवसरपर उस मायावी इन्द्रने (भगवान् की) निष्कपट माँके लिए दूसरा बालक दिया और वह ज्ञानभाव से निष्कम्प उस देवदेवको सुन्दर मन्दराचल पर्वत पर ले गया, जो (मन्दराचल) तटपर लगी हुई तारावली की मेखला (करधनी) से युक्त है, अपने ही शिखरोंकी प्रभासे जिसके दिग्मण्डलों के तट पीले हैं, जो रमण करती हुई अप्सराओंके शब्दसे रमणीय हैं, जिसकी दिशाओंमें ऊँचे-ऊँचे जिन मन्दिर दिखाई देते हैं, जो पद्मावतीके चरणराग से (चरण-लालिमासे) लिप्त हैं, जो अदृष्ट और एकपर-एक अवलम्बित अशोकपत्रोंसे युक्त हैं, जिसके लतामण्डपों में विद्याधरेन्द्र बैठे हुए हैं, जिसमें घोड़ोंके उराधनोंपर बासक कोड़ा-पुलिन्द हैं। जिसमें नागकन्याएँ पाटोके पन्दनोंके आमोदमें लगी हुई है, जो मतवाले गजोंके दांतोंके अग्रभागोंसे विदीर्ण हैं, जिसमें किन्नर और किग्नरियां गीतोंका मालाप कर रहे हैं, जिसने सूर्य और चन्द्रमाको अपने चरणोंके नीचे डाल रखा है। कुंभीसगामी (गजगामी) का अविछिन्न कुम्भों ( पड़ों ) के द्वारा, त्रिलोक स्वामीका त्रिलोकके अन्तमें निवास करनेवाले देवोंके द्वारा स्नेहका नाश करनेवालेका मुणोंमें उत्पन्न स्नेह करनेवालोंके द्वारा दूधको मामाके समान वेहवाले जिनेन्द्रका, समुद्रक्षीरोंके द्वारा, शत्रुओंको जीतनेवाले विजयरूपी कमलके सूर्य श्री जिनेन्द्रका, मागेन्द्रों, इन्द्रों और चन्द्रोंके द्वारा, अभिषेक किया गया।
पत्ता-गिरता हा वह दूष जिनवरके शरीरको कान्तिसे प्रगट नहीं होता हुआ, ऐसा मालूम हो रहा था मानो चन्द्रमासे विगछित अमृत धरतीपर दौड़ रहा हो ॥६॥
६.१. P नंबयाए । २. A मेहसील: P मेहजालं । ३. AP विधवालं । ४, AP ककेहिल । ५. A
णासंत । 1. A°लगाहिकिम । ७. P मयमत्त । ८. P कंति । ९. P वियलिउँ ।
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-४६.७.१६]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
११
दिवं गंध पुप्फ धूवं वासं भूसं चयं दीवं । दाउँ सत्वं सेवाणिटुं काउं पुजं सत्थे दिहूं। णाणत्तयधणपुष्फसमुदं तं गहिणं भयेवं भई। तं पेच्छंता तं पणवंता तं गायंता तं गता। चंदउरं मणितोरणेदार आया देवा रायागारं। सबैसमवेल्लीवासारत जणणीहत्थे दाऊणं तं । सोहम्मीसाणा देवेसा पत्ता सग्गं णाणावेसा। बाणासणदिवछूद्धसयतुंगो सेयंगो णं सेयपयंगो। सप्पाइयस्खाइयसम्मत्तो इक्खाऊ कासवणिवगोत्तो। दो लक्खा पुवाणं छिण्णा पण्णासंबूढसहासाउण्णा। एस तस्स तरुणतणकालो पच्छा हूंओ मेइणिषालो। तत्थ वि जायं देवागमणं पारावारवारिघडणहरणं । वइसषणाणियवसुसंदोहे' भोए मुतस्स"ससोहे । छड्ड लक्ख पुरुषाणं झोणा अरिहसंखपुषंगविलीणा। घत्ता-अण्णहि दिणि दप्पणयलि वयणु जोयंते ते दिहलं॥
जेणेत्य' दड्ढसंसारसुहि हियउल्ललं उम्बिहले ||७||
इष्ट दिव्य गन्ध पुष्प धूप वस्त्र भूषा चरु और दीप सबके लिए इष्ट जिन भगवान्को देकर और शास्त्रमें निर्दिष्ट पूजा कर, और ज्ञानत्रयरूपी सघन जलके समुद्र सबके लिए मद्र उन्हें लेकर, उनको देखते हुए उनको प्रणाम करते हुए, उनको गाते हुए और नृत्य करते हुए देवता लोग, भणियोंके तोरणद्वारवाले चन्द्रपुरमें राज्य-प्रासादमें आये। उपशमरूपी लताके लिए वर्षा ऋतुके समान उन्हें माताके हाथ में देकर सौधर्म ईशान स्वर्गाके नाना देशवाले देवेश अपने-अपने स्वर्ग चले गये । उनका शरीर डेढ़ सौ धनुष ऊंचा था मानो श्वेत अंगोंवाला चन्द्रमा हो। उन्हें क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न हो गया है, ऐसे वह इक्ष्वाकुवंशीय और कश्यपगोत्रीय थे। जब उनको दो लाख और पच्चीस हजार पूर्व आय बीत गयी, तो यह उनका यौवनकाल था। इसके बाद वह पृष्वाक राजा बने। यहाँपर भी देवोंका आगमन हया और समुद्रके जलघटोंसे अभिषेक किया गया। जिसमें कुबेरके द्वारा पनसमूह लाया गया है ऐसे शोभायुक्त भोगको भोगते हुए उनका छह लाल पचास हजार चौबीस पूर्व समय बीत गया।
पश्चा-एक दूसरे दिन, "दर्पणतलमें मुखको देखते हुए उन्होंने ऐसा कुछ देखा कि जिससे दाष संसार सुखोंमें उनका मन विरक्त हो गया ॥७॥ ७. १. AP पश्यं । २. A इट्ट सिटुं न गिट्ठ सिटुं। ३. A सम्वं भई। ४. A तोरणवारं। ५. तवसम । ६. P सजतुंगो.। ७. AP पष्णा सहासा। ८. AP हूपउ । १.P पारावारि वारि। १०. संदोहं । ११. P ससोहं । १२. A णित्यु पछु संसारसुहि ।
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१३२
५
१०
महापुराण
[ ४५.८.१
८
दूराउ पणोमियमत्थएहिं । पडिसोरि आईडलमुणीहिं । असिंचित विहु अणणिवेहिं । परदिणदणु णं वरमयंगु । सहि काल सुरइयविविहवज्जि । सेन्षत्तुषणंतरि सभवइणु । पूसम्म कसणण्यारसीहि । froणेत्तणु अंजिe सरीरि । लुंचिबि घल्लिउ सिरकेर्सवास ।
आपणु पंजलित्थ हिं पंचगमुहुं मणीह मुहपयलमाणधारासिवेहिं कल्लाणाहरणविद्रूसियंगु बरचंसवणु णिविरि rass पहु सिवियहि वैडिण्णु दछिण्णीगई जिसीहि
अणुराणकख शाबयारि
जिल्हूरियि मंदिर मोबा णिक्तु लेषि
वासु
हु पावइय रायहं सहासु ।
तेहु को वि ण मितु ण को वि बेसु मध्झत्थु महत्यु विसुद्धले सु । चंडभाविलंबियवेल मय रि अवरहि दिणि पइसइ णलिणणयरि ।
"
ता- करयलि पतलि पत्तु ण वि व प णेवर घोसणु ॥ भूरिभू सुरेकुंडियउ ट मँसिरेहाभूस ||८||
ረ
हाथ जोड़े हुए दूरसे प्रणामके लिए मस्तिष्कको झुकाते हुए, कोमल स्वरवाले श्रेष्ठ इन्होंने उन्हें प्रोत्साहन दिया। जिनके मुखसे धाराजल निकल रहे हैं ऐसे धारा कलशोंसे अभिषेक किया गया । कल्याणके आभूषणोंसे विभूषित-अंग यह ऐसे मालूम होते थे मानो पर दिण्णदान ( दूसरोंको जिसने दान, या मदजल दिया हो ऐसा ) मातंग (महागज) हो। उसने अपने पुत्र वरचन्द्रको राज्य में स्थापित किया। देवों द्वारा बजाये गये विविध वाद्योंके उस कालमें मोक्षको वाकांक्षासे प्रभु शिविकापर चढ़े और सर्वर्तु वनके भीतर अवतीर्ण हुए। पूस माह्की, दया ( कल्याण दीक्षा) से विस्तीर्ण, कृष्ण एकादशी की रात्रि में अनुराधा नक्षत्रका अवतार होनेपर, वह शरीरसे स्नेहहीन हो गये, अर्थात उन्होंने वीक्षा ग्रहण कर ली । घरके मोह और वर्षोंको दूर कर तथा सिरके बालोंको उखाड़कर फेंक दिया। षष्ठ भुक्ति उपवास करते हुए और संन्यास लेते हुए एक हजार राजा सुखपूर्व संन्यासी हो गये । उनका न तो कोई मित्र था और न कोई द्वैध्य । वह मध्यस्थ महार्थ और विशुद्ध लेण्यावाले थे। दूसरे दिन, जिसमें दण्डों के अग्रभागमें वस्त्रध्वज लगे हुए हैं, ऐसे नलिन नामक नगर में वह प्रवेश करते हैं।
घत्तः न करतल में पत्तल, न पात्र है और न पैरोंमें घुंघरुमोंकी ध्वनि है, न प्रचुर भस्म है ar न कुटिल भौंहें हैं और न श्मश्रुरेलाका भूषण है ||८||
८. १, A पणाविर्य ं । २. A परिवारिव ३ P परिक्षिणं । ४. Pचरंतु । ५. A संपत्तु । ६. P समयवंतु। ७. P मोहपासु । ८ AP सिरि केसपासु ९ A सहुं । १०. Pतहु मित्तु मित्तु ण को वि हेतु । ११. P ण वि । १२. AP पढ कुंडियज । १२. ससिरेहा
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-४६.१०.२]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
हुंकारु ण मुयइ ण देहि भणय पउ सण्णइ ण गंधव्यु झुणइ । परमेसरु पंचायारसारु
दक्खवइ वीर भिक्खावयारु । जा छुडु जि भवणप्रंग पझ्दछु ता सोमयत्तराएण दिद। कर मनलिवि करेवि उरुत्तरी संचिउँ पुण्णकुरपवरवीउ । काएं क्यणे सुद्ध मण
आहारदाणु बहु विष्णु तेण । दुंदुहिसरु सुरसर पुष्फविटि घणु वरिसिप्ट हूई रयणविहि। तहि योजई पंच समुग्गयाई पालंतु संतु संतई वयाई। थिउ तिषण मास छम्मत्थु तांबणायावणिरुहतलु पस जर्जाय । फरगुणि दिणि सत्तमि किण्हवक्खि अवरण्डा तहिं णिक्खवणरिक्खि । छट्वेणुवयासें केवलक्खु उपाइउँ गाणु विवञ्जियक्खु। धत्ता-कहाणि चउत्थइ जइवइहि सुरयणु दिसहि ण माइउ ।।
अहिरामै अहिणवभत्तिवसु अहिहु' अहीसरु आइज ।।९||
लोयालोयविलोयणणाणं सिरिणाहं ससहरकत पयडियदंत केकाले
श्रुणइ मियंको अको सको मुणिणाई । हत्थे ' सूलं खंडकवालं करवालं ।
न हुंकार करते हैं, और न यह कहते हैं कि 'दो'। न क्लान्त होते हैं, न गन्धर्व गाते हैं, फिर भी पांच प्रकारके आचारों में श्रेष्ठ वीर परमेश्वर (चन्दप्रभु) भिक्षा अघतारको दिखाते हैं। जैसे ही वह शीघ्र घरके आँगनमें प्रवेश करते हैं, वैसे ही राजा सोमदत्तने उन्हें देख लिया, हाथ जोड़कर और उत्तरीयको उरपर करते हुए उसने पुण्यरूपी अंकुरोंके प्रवर बोज इकट्ठे कर लिये । शुद्ध मन-वचन-कायसे उनके लिए उसने आहार दान दिया । दुन्दुभिस्वर, देवोंका साधुवाद, पुष्पवृष्टि धन बरसा और रस्नोंकी वर्षा हुई । इस प्रकार यहाँ पांच आश्चयं प्रकट हुए। शान्त व्रतोंका परिपालन करते हुए जब वह छपस्थ तीन माह स्थित रहे तो वह नागवृक्षकी तलभूमिपर पहुंचे । फागुन माहके कृष्णपक्षकी सप्तमीके दिन, अपराल में अनुराधा नक्षत्र में छठे उपवासके द्वारा उन्हें इन्द्रियोंसे रहित केवल नामका ज्ञान केवलज्ञान प्राप्त हो गया।
पता-उन यतिवरके चौथे कल्याणमें देवता लोग दिशाओं में नहीं समा सके। सोन्दर्यसे अभिनव भक्तिके वशीभूत होकर नागराज भी पृथ्वीको लक्ष्य करके आया ||५||
चन्द्र, सूर्य और इन्द्र लोकालोकका अवलोकन करनेवाले ज्ञानसे युक्त लक्ष्मीके पति मुनिनाथ (तीर्थकर) की स्तुति करते हैं, 'जो चन्द्रमाके समान कान्तिवाले हैं, जिनके दात प्रकट हैं, जो ९. १. A reads d as b and b as a । २. AP पंगणु । ३. A सोमदत्त । ४. A का मलि करेविणुरंतरिउ; P कर मलिकरघिणु उत्तरी । ५. A सिचिठ। ६. AP पुण्णंकुरु ! ७. AP वरिसिवि ।
८.A उपाय; P उम्पण्णउं । ९. A अहह । १०.१ A हत्थे संडं फूलकवंडं करवाले।
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महापुराण
[४६.१०.३कडिहि रवाला किंफिणिमाला झणझणिया पासे रामा मुद्धा सामा पणथणिया।
भईरावाणं मिडं खाणं मृगमार्स वाढाचंडं कुद्धं तोड जणतासं ।। ५ पेयावासो रक्खसभीसो णियठाणं चित्तविचित्तं रम्म पम परिहाणं ।
सो देसी व बाण सामााण: झियसुत्तो हिंसाजुसो रयखाणी । जे संरगायणवायणणवणलद्धरसा पामच्छीण रत्ता मत्ता कामवसा । कट्ठा दुट्ठा णिहाणट्ठा णायचुया राइमिच्छेणे महतुच्छेण ते वि थुया । संसरमाणो 'भवममभग्गो भुत्तदुहो भो चंदप्पह वरिसियसुप्पह तुह विमुहो। पई ण मुणतो पई ण धुर्णतो कयमाओ आसो मेसो महिसो हंसोई जाओ। छिंदण भिवण कप्पण पटलण घयतलणं पत्तो तिरिए धुणरवि परए णिलणं । परघरवास परक्यगासं कंखंतो णीरसपिंडं तिलखलखो भक्खंतो। परलच्छीओ धवलच्छीओ सलहतो अलहतो णियहंतो दीणो ई होंतो ।
कटलषियके जोइणिचक्के रेइधरणी लोयणगामिय हा मई रमिया परघरिणी । १५ घत्ता-मई "विप्पे होइवि आसि भवि पसु मारिवि पलु मुत्तरं ।।
___ गंडया हैइ हरिणयहु अणु देव पविसु पवुत्तजं ॥१०॥ अस्थियोंसे युक्त हैं, जिनके हाथमें त्रिशूल है, खण्डित कपाल और तलवार है, कमरमें शब्दयुक्छ झनझन करती हुई किकिणीमाला है, पासमें सघन स्तनों को मुग्धा श्यामा है, मदिरापान है, पशुमांसका मीठा खाना है, जो दाढ़ोंसे प्रचण्ड, क्रुद्ध भूखवाले और जनोंको प्रस्त करनेवाले हैं, राक्षसोंसे भयंकर मरघट जिनका अपना निवास है। चित्र-विचित्र सुन्दर धर्म जिनका परिषान है। जिनका इस प्रकारका रूप है, ऐसे देवके ज्ञानमें धर्मको हानि है । शास्त्रविहीन, हिंसासे सहित वह पापकी खान हैं । जो स्वरोंके गाने बजाने और नाचनेमें रस प्राप्त करते हैं और कामके वशीभूत होकर सुन्दरियोंमें रत और मत्त हैं, जो कठोर दुष्ट, निष्ठासे भ्रष्ट न्यायसे च्युत हैं, बुद्धिहीन मिथ्यादृष्टिके द्वारा उनकी भी स्तुति की जाती है। संसारमें परिभ्रमण करनेवाला भवभ्रमणसे मग्न, दुःखको भोगनेवाला वह, सुपथके प्रदर्शक है चन्द्रप्रम, तुमसे विमुख है। वह तुम्हें नहीं मानता है, तुम्हारी स्तुति नहीं करता है, माया करनेवाला वह, में अश्व-मेष-महिष और हंस हुआ हूँ। छेदा जाना, भेदा जाना, काटा जाना, पकाया जाना, धीमें तला जाना (इन्हें) तिर्यचगतिमें प्राप्त करता है, फिर नरकमें वह दला जाता है। दूसरेके परमें निवास, दूसरेका दिया मोजन चाहता हुआ, नोरस आहार तिलखलके खण्डोंको खाता हुआ दूसरेकी षवल आँखोंवाली स्त्रीकी प्रशंसा करता हुआ, नहीं पाकर अपनी हत्या करता हआ में दीन हया है। चार्वाकोंके एक भेद योगिनीचकमें अफसोस है कि मैंने रतिको भूमि देखी और परस्त्रीका रमण किया।
घसा-मैंने विप्र होकर, जन्ममें पशु मारकर मांसका भक्षण किया हुआ है। गेंडे की हड्डियों और हरिणोंके चर्मकों हे देव, मैंने पवित्र कहा है ॥१०॥
२. A झणिणिया । ३, A सुद्धा। ४, P मरापाणं! ५. AF मिगमासं । ६. AP omit हाणी । ७. AP रयखाणं । ८. AP सुरगायण । ९. AP सृट्ठा । १०, A णिहाणट्ठा । ११. AP भवभय । १२. Aसुहपम; सुहपह । १३, AP हंसो महिसो। १४. P कपपरमासं । १५. A खडसं । १६. A हरिणी । १७. विष्पह होइवि । १८. AP हड्ड हरिणहु अयणु ।
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४१. १२.३
महाकवि पुष्पवन्त विरचित
गिद्धम्म मोसाहारियाई दुहुं देव ण होसि सुसामि आई महयाल गाइ वि जासु वषक्ष बहि सुदधावर तुहुं जि सरणु बलदेव अग्गइ देहि तिणि जे परमविराय बसि रणि हु सहखं पुणु चउरो साई असई साहिलोयणाएं ते चोईस "विकिरियागुणीहि
११
रसलोलहं णियपरवैरियाहूं । अजिणु व अजिण चुक ताई । हो हो किं वेएं तेण मध्झ । तुइ पायमूलि महुं होउ मरणु । हु गणहर हर सहस दोणि ।
राहु मुणिसिक्खुव लक्ख दोणि । सिक्खति सत्थु गुरुसम्मयाई । अट्ठारहर्स इस णिरंजणाई | सहस मणपज्जब मुणीहि ।
पत्ता- पिंढीदुमु चमर दिव्वणि कुसुमवरिषु सियछत्तई ॥ भामंडल दुंदुहि सुरवरहिं जिणचिधाई पिउतई ॥ ११ ॥
१२
भयसहसई छेसय विवाहबाह
सहास तिण्ण लक्ख सावयहं लक्ख गुत्ती समाण
छलजकुलघाइयां । संजमधारिणिहिं वर्हति दिक्ख । ते अणुवणारिहिं वयपमाण ।
१३५
५
१०
११
हैं देव, जो धर्महोन, मांसाहारी, रसलोलुप स्वपरके शत्रु हैं, आप उनके स्वामी नहीं हैं । जिन भगवान्से रहित जिन्होंने मृगचर्म नहीं छोड़ा, उनके आप स्वामी नहीं हैं । यज्ञमें जिसके लिए गाय वध्य है, हो-हो ! उस वेदसे मुझे क्या करना हे सुदयावर, इस समय तुम्हीं मेरीशरण हो, तुम्हारे चरणोंके मूलमें मेरो मृत्यु हो । उनके तेरानबे गणधर थे, दो हजार पूर्वधारी थे, जो परम विरक्त और वनमें निवास करते थे, ऐसे उनके दो लाख चार सौ शिक्षक मुनि थे जो वसम्मत शास्त्रोंकी शिक्षा देते थे। आठ हजार अवधिज्ञानी थे । निर्विकार केवलज्ञानी ( माठ हजार सहित अट्ठारह हजार अर्थात् १० हजार) दस हजार, विक्रिया ऋद्धिके धारक मुनि चौदह हजार, और मन:पर्यय-ज्ञानी आठ हजार थे ।
११. १. P मंसाहारि २. P परबेरियाई । ३ AP सुदयावह । सुयबर down to मुणि in 66; K writes it in marg | after this; चरसहस ताह पुण्यंधराई । ७. A दोसहस चव । १०. A रिदुसया सुविविकरिया ।
घत्ता -- अशोक वृक्ष, चामर, दिव्यध्वनि, पुष्पवर्षा, श्वेतछत्र, भामण्डल, दुन्दुभि जिनवर के ये चिह्न देवताओं द्वारा कहे गये हैं || ११ ||
१२
छल जाति हेतु समूह का खण्डन करनेवाले सात हजार छह सौ वादी मुनि थे। तीन लाख अस्सी हजार संयम को धारण करनेवाली आर्यिकाएं दीक्षाको धारण करती हैं, तीन लाख श्रावक
४ Aomits portion from ५. A बहस । ६. A adds ८. P जाणिीय दहसत ।
९. P ते
१२. १ A सासु; K तासु but corrcats it to इस । २. P जाउ । ३. A बदरासी सहसई । ४. P
व
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१३६
५
१०
देव देवि णव द्वेष अतिथ ग विहीणु बसुम विहरिवि सेवक पुन्तु मेहु सिह समारुद्देषि नामहं गोत्तरं वैयणिययाई कम्मइयतेय तयारियाई
महापुरान
इस णिव्वाणि तूराई वज्र्जति
थोताई किज्जति
बीजाई से अंति चंदई सील traye facia अग पणमंति दीवोई दिज्जति ।
[ ४६. १२. ४
लोकसूर केवलगभस्थि । अणुवि मासहिं सिंहिं मुणहि झीणु । संबोधिवि मणुसमूह भन्छु + थि जोड मासु परंतु लेवि ! आउट्टिसिरिस लहु कथाई । तिविण वि अंगई ओसारियाई ।
घत्ता - सियपक्खहु फग्गुणसत्तमिह परमविद्धि रिद्ध ।। बहुरिसिहिं सहुं चंदप्पहु सिद्ध ||१२||
जेहि पिट्ठियम
१३
पंचम कल्लाणि ।
मंगलई गिज्जति ।
दाणाई दिज्जति ।
दुरिया विज्र्जति । सुरहियां परिलई । घुसणेण सिप्पति । मोह दिप्पति ।
थे । अणुव्रतों का पालन करनेवाली नारियाँ (आर्यिकाएँ) पाँच लाख थीं। देवों और देवियोंका अन्त नहीं था । केवलज्ञानरूपी किरणवाले त्रैलोक्य सूर्य जिन चोबीस पूर्वांगसे रहित और भी उनमें तीन माह कम समझो। एक पूर्व तक घरतोपर विहार कर और भव्य मनुष्यसमूहकोसम्बोधित कर सम्मेदशिखरपर आरोहण कर एक माह पर्यन्तका योग लेकर नाम गोत्र वन्दनीय को आधुके समान स्थितिवाला कर, औदारिक-तेजस और कार्मण तीनों शरीरोंको उन्होंने हटा दिया।
घत्ता - फागुन माह के शुक्लपक्षको सप्तमोके दिन परम विशुद्ध ज्येष्ठा नक्षत्र में मलको नाश करनेवाले चन्द्रप्रभु अनेक मुनियोंके साथ सिद्ध हो गये ||१२||
१३
स्वामी के पांचवें कल्याण निर्माण होनेपर नगाड़े बजते हैं। मंगल गीत गाये जाते हैं, स्तोत्र रचे जाते हैं, दान दिया जाता है, दीन सुखको प्राप्त हो जाते हैं, दुरित नष्ट हो जाते हैं, शीतल चन्दन और सुरभित परिमल जिनके शरीरपर डाले जाते हैं, केशरसे उसका लेप किया जाता है, अग्नीन्द्र
५. AP देवि । ६. AP चढ़वीसई पुरुषं गई । P अवारियाई । ८. विसिद्धि ९ A विद्विवि । १३. १. A णाणस्स पिवा । २. AP सज्जति । ३. वंदणई । ४. A सुरहीषणई; P सुरहियहं इंधनई । ५. A लोणियहि विप्यंति । ६ AP हिप्पति । ७. A मुणि डुब वहं देति ; P मणिमवई देखि । 4. AP omit दीयोह विज्जति ।
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-४६.१३, १९ ।
महाकवि पुष्पदन्त विरचित बूंवोहधमेण
"णाणाविहोएण'। महुयररविल्लाई
पंजलिहिं फुल्लाई। घल्लंति देविंद
वर्णति णाईद। जीहासहासेहि
विमा मिलाने देवीउ णति
सिद्धं समति। "णविऊण तं वित्थु
सो सयलु सुरसत्यु। जिहं गुणकहाकारि पत्तो पुलोमारि। सगं सलीलेण
करिणा मयालेण। "ससिकंतिदंतेण
धीरं रसंतेण। घत्ता-इये मरहखेतणरय दिया जगचंदुजयचंदहु ।।
किं"पुष्फवंतु ह जडु करमि दप्पहहु जिणिदह ॥१३॥
इय महापुराणे तिसद्विमहापुरिसगुणाकारे महाकाहपुप्फर्यतविराइए महामबमरहाणुमणिकर महाकाब्वे चैदष्पहणिवाणगमणं णाम झापाकीसमो परिमोसमतो
पहचरियं समत्त ॥
प्रणाम करते हैं, उनके मुकुटसमूह प्रज्वलित होते हैं, दोपके समूह दिये जाते हैं, धूप समूहके धुएँ और विशिष्ट भोगोंके साथ देवेन्द्र अपने हाथोंकी अजलियोंसे, भ्रमरके शब्दोंसे युक्त पुष्प बरसाते हैं। नागेन्द्र अपनी हजारों जीभोंसे स्तुति करते हैं, देविया विभ्रम विलासोंके साथ नृत्य करती हैं तथा देवको समर्चा करती हैं। वह समस्त सुरसमूह उस तीर्थको बन्दना कर उसी प्रकार स्वर्गको गया जिस प्रकार इन्द्र लोलावाले मदालस चन्द्रकान्तिके समान दोतवाले धोरे-धीरे गरजते हुए हायीके साथ स्वर्ग गया।
पत्ता-जो यहाँ भरतक्षेत्रके लोगोंके लिए दिवस और विश्वरूपी कुमुदके लिए चन्द्र हैं ऐसे चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र के वर्णनमें अड़ कवि पुष्पदन्त क्या करे ? ॥१३॥
इस प्रकार प्रेस महापुरुषोंके गुणाकारोसे पुक महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्या द्वारा विरचित और महामन्य भरत द्वारा अनुमस महाकाम्पका चाचप्रम
निर्वाणगमन मामक कियाकीसवाँ परिच्छेद समातभा ॥१॥
९. A धूमोहणीलाउ । ११. AP णिगंति जालाउ । ११. AP add aftar this : गिरसियमणगाई, हज्झति अंगाई। १२. AP मिकण तं तेत्यु। १३. AP जिणं । १४. A ससिकतवन । १५. A वीरं। १६, A । १७. AP मरहखैत्ति गर । १८. किम । १९.AP omit this lines
१८
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संधि ४७
सुविहिं सुविहिपंथासणं सयमहर्षदियसासणं ।। भुवणणलिणवणविणयरं वने णवमं जिणवर ॥ध्रुवक।
णहास्नित्ततारं सुहामोयसास पदिहं दिसासु परीणं अगम्भ इयं जेण फम्म गयासाविहाणं सुरिंदरिधीरो पयोहीगहीरो दिहीगाइगोषो सकारुण्णभावो कुसिद्धंतषारो ण जो मोहभंतो
सवण्णेण तारं। सया जस्स सासं। रिसिं रविवयासुं। पमोत्तूण गं में। जगे अस्स कम्म। णिहाणं विहाणं। सत्यसाण श्रीदो। असंगहीरो। अमोहो विगोवो। जणुग्घुट्टभावो। सुविसवारो। णजम्मोहवंतो।
संधि ४७ सुविधिका प्रकाशन करनेवाले, इन्द्रके द्वारा जिनका शासन वन्दनीय है ऐसे भुवनस्पी कमलपनके लिए दिवाकर नौवें तीर्थकर सुविधि (पुष्पदन्त) को मैं नमस्कार करता हूँ।
जिन्होंने अपने नखोंसे आकाशके तारोंको तिरस्कृत कर दिया है, जो अपने वर्णसे स्वच्छ हैं, जिमके खास सुख और बामोदमय हैं, जिनका मुख सदेव शोभामय है, जिन्होंने दिशामुखोंको उपविष्ट किया है, जो प्राणियोंके प्राणोंको रक्षा करनेवाले हैं, जिन्होंने शत्रुओंके लिए अगम्य भूमि और लक्ष्मी छोड़कर कोका नाश किया है, विश्व में जिनका काम (नाम) है। जिनका विषान और षर्मोपवेश विधान फल की इच्छासे रहित है। जो सुमेरुपर्वतकी तरह गम्भोर हैं, जो अपने भक्तों के लिए बुधि देते हैं, जो समुदकी तरह गम्भीर हैं, जो शरीरसे स्त्रोका त्याग कर देनेवाले महादेव । जो तिरूपी गायकी रक्षा करनेवाले गोप (विष्णु) हैं। मोह और गर्वसे रहित है; जो कोरुण्य मावसे युक्त हैं, जो लोगोंको पदार्थका स्वरूप बतानेवाले हैं, खोटे सिद्धान्तोंका निवारण करनेवाले और अनन्त स्वरूपोंका अन्त देखनेवाले हैं। जो मोहसे प्रान्त नहीं हैं और न जन्मके
Pgives, at the beginning of this Sandhi, the stanza: बरमकरोक्पार for which
see note on page 45 A and K do not give it, १.१. PT सुविहियसासणे । २. P.वविवि । ३. A पक्खिसदारं । ४. A अगोवो। ५. P सुसिखंतपारो।
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-१७.२..]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित णमामो अणंत रईमोयणं । जिणं पुष्फयंतं. जिणा पुप्फयं तं। ण हत्थेण छित्त' दयाधम्मै छित्तं । सया जस्स सील बुहाण सुसीलं । पयासेइ संतो खर्ण इसंतो।
महीदिण्णमारो कओ जेण मारो। घाता-तहु घरघरियषिसेसयं आयपणह महिमासयं ।।
मेल्लह मोहविडंबणे अथिर घर घरिणी घणं ॥१५॥
दीवि खरंसुदीवि कुसुमियतरु पुक्खरद्धि पुल्वामरमहिहह। पुज्यविदेहि वासु मंयरगइ णीरगहिर सीय सीयाणा पवलवंगपल्लवसुरहियजले मजमाणगजिरवरमयंगल 1 खयरीसिहिणधुसिणरसपीयल गुरुसरंगघोलिरमहुलिहचल। तडवरविडविपडियणोणाहल कोलियमहिसबंदहयणाहल। देइणिलोलमाणसूयर डल पक्खितुंडपविडियसयवल ! जिणपडिमा इव सार्वयसंगिणि किं वणिज दिन्वतरंगिण ।
सत्चरितीरि ताहि हयखलप स्थि भूमि माने जलया। युक्त हैं, ऐसे रतिका मोचन करनेवाले अनन्त जिन पुष्पदन्तको में नमस्कार करता हूँ। जिन्होंने कामदेवको अपने हाथसे नहीं छुआ। जिनका शोल सदैव दयाभावसे स्पृष्ट है कोर पण्डितों के लिए सुशील (व्रतों) का प्रकाशन करनेवाला है। घरतोपर प्राणियोंको मृत्यु देनेवाले विद्यमान कामदेवफो जिन्होंने एक सबमें नष्ट बाणोंवाला बना दिया। ___ पत्ता-ऐसे उन पुष्पदन्तके सैकड़ों महिमावाले श्रेष्ठ चरित्र विशेषको सुनो। मोहकी विडम्बना अस्थिर घर-गृहिणी और घरको छोड़ो ॥१॥
सूर्यको तीन किरणोंसे दोस पुरुकराध द्वीपमें कुसुमित वृक्षोंवाला पूर्व सुमेरुपर्वत है। उसके पूर्वविदेहमें मन्थरगतिवाली जलसे गम्भीर शीतल शीतोदा नदी है । जिसका जल नवलवंगोंके पल्लवोंसे सुरभित है, जिसमें नहाते हुए और गजित पाब्दवाले मैगल हाथी हैं, जो विद्याधरियोंके स्तमोंके केशररससे पोली है, जो बड़ी-बड़ी लहरोंपर व्याप्त भ्रमरोंसे चंचल है, जिसमें तटवर्ती वृक्षों के नाना फल गिरे हुए हैं, जिसमें मैंससमूह, अश्व और भील क्रीड़ा कर रहे हैं, जिसमें शूकर-कुछ कीचड़से खेल रहा है, जिसमें पक्षिसमूहके द्वारा कमल खण्डित कर दिये गये हैं, जो जिन प्रतिमाके समान सावयसंगिनी (भावक संगिनी, वापद संगिनी) है, ऐसी उस दिव्य नदीका क्या वर्णन किया जाये। उसके उत्तर तटपर खल-राजामोंका नाश करनेवाली पुष्कलावती नामको भूमि है।
६. Afठणं । ५. चिणं । ८. A धरणी। २. १. AP सीयल । २. A °जले; अलु । ३. गजिय । ४. A°मयगले; P°मयगल । ५. A
पलिय । १. AP महिसाव । ७. A दहिणीलोल । ८. सिगिणि। ९, A सत्तरतीरे ।
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१४०
महापुराण
[४७.२.९
१०
पुरि पहसिरि व भमालाकंतिहि राउ महापठमउ परमाणणु पत्ता-करतरवारिवियारिया
णिवडिय सूर दणंगया
पंडु पुंडरिकिणि घरपंतिहि ।
पउमषिलोयणु परमामाणणु ।। जेण रिऊ संघारिया। णासिवि भील वणं गया ।।२।।
परियाणिय णिव अत्थाणथा
एकहिं दिगि तमु सारस्य । आवेप्पिणु अक्खिउ वणवाले निव वणु भूसिई तिवणवालें । तं णिसुणिवि सो रइयरहंतह वंदणइत्तिइ गठ अरहंतहु । वंदिउ वंदणिज्जु जो बंदहुं इंदचंदणाईदरिदुहुँ। जिह जिह तेणे देन णिज्झाइस तिह तिह सो णिवेउ पराइल | भिश्चलोछ दूसणु परलोयहु भोउ गणिज सरिसाव फणिभोयह । णारि मारि भीसण ते दिट्ठी हियवा विसयविरक्ति पट्टी। पुत्तहु बालकमलदलणेचर
देवि धेरत्ति मत्ति धणयत्तहु । मुशउँ घरु बहुदुक्खहं भड लक्ष्य पर संसारतरंड। धत्ता-सुपरंतो जिणपुंगमं इसि पाणिचियसंजमं ।।
पालइ मुकणिर्यगत सुयएयारहअंगउ ||३||
उसमें गृहपंक्तियोंसे सफेद पुण्डरीकिणी पुरी नक्षत्रमाला की कान्तिसे आकाशलक्ष्मीकी तरह जान पड़ती है, उसमें कमलके समान आँख, हाथ और मुखवाला महापद्म नामका राजा था।
पत्ता-जिसके द्वारा हाथकी तलवारसे विदारित और संहारित शूरवीर शत्रु घायल होकर गिर पड़े और भागकर वनमें चले गये ।।२।।
अर्थ-अनर्थको जाननेवाले उस राजाके दरबारमें आकर एक दिन वनपालने कहा, "हे राजन्, वन तीन कालकी शोभासे विभूषित हो गया है ।" यह सुनकर वह कामदेवका अन्त करनेवाले अरहन्तको वन्दनाभक्ति करने के लिए गया। इन्द्र, चन्द्र, नागेन्द्र और नरेन्द्रों के समूहके द्वारा वन्दनीय उनकी उसने वन्दना की। जैसे-जैसे उस राजाने देवका ध्यान किया, वैसे-वैसे वह निर्वेदको प्राप्त हो गया। उसने सोचा कि मृत्यलोग परलोकके लिए दूषण हैं, उसने भोगोंको नागके फनकी तरह समझा, उसने नारीको भीषण मारोके रूप में देखा, उसके हृदय में विषयों के प्रति विरक्ति प्रवेश कर गयो। बालकमलके समान माखोंवाले अपने पुत्र धनवतको शीघ्र धरती देकर अनेक दुःखोंके पात्र घरका परित्याग कर दिया, और संसारसे तारनेवाले व्रतको स्वीकार कर लिया।
घसा-जिनश्रेष्ठका स्मरण करते हुए वह मुनि प्राण और इन्द्रियोंके संयम और कामदेवसे रहित एकादश श्रुतांगोंका पालन करते हैं ||३||
१०. पुंडरिंगिणि। ३. १. नृप । २. AP तं णिसुणेवि रस्म । ३. A बंदणभत्तिह। ४. P देउ तेण । ५. P धरित्ति
सत्ति । ६. AP बज । ७, A सुमरतो जिणगर्व P सुमरंकहो मिणपुंगमं । ८. AP पाणिदिय ।
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-४७.५.३1
महाकवि पुष्पवन्त विरचित
१४१
णारीचिंतणु णे करइ ईसणु ण संभासणु ण करफंसणु । गंधु मल्ल सरु रामप्पायणु पर अइमत्तपाणेरसभोयणु । तं परिहरा वच्छ अहि रोसह होइ सूइ माणाझ्यदोसहु । भाविवि भाषणास णयजुसिउ दसणसुद्धिविणयसंपत्ति। कम्मु महम्मु णियाणु णिसिद्ध तित्थयरत्तगोतु से बद्धष्टं । मुच संणासणेण जोईसर जायउ प्राणेयफपि सुरेसर। अढाईजहस्थतणु सुंदर बीससमुरमाणजीषियधरु। मुयइ सासु सुई णिहि दहेमासहि मुंजइ वीसहि परिससहासहि । ओहिणामणाणेण परिक्खा धूमप्पह महि जांब णिरिक्खइ। काले कालाणणु संप्राविई" थिइ छम्माससेसि तहु जीविइ। पत्ता-दिण्णविवक्खासंकयं मुहसोहाजियपंकयं ।।।
सुइलिय सुइमाणियसिवं भणा कुलिसि दविणाहिवं ॥४॥
जधुवीषि रविदीवयरिसह मेहधरियपरमहिवाइर्षविहि कासबगोत्तहु गुप्तससका
भरहे मुत्तइ भारहवरिसह । रमरियहि णयरिहि काकंदिहि । वहरिरणंगणि वनियसंकार ।
वह न तो नारोका चिन्तन करते और न दर्शन । न भाषण और न हाथ से संस्पर्श, न राग को उत्पन्न करनेवाले गन्ध-माल्य और स्वर, और न प्राणोंको अत्यन्त मत्त बनानेवाले रसभोजन । उस वस्तुका परित्याग कर देते, जिससे मानादि दोषों और क्रोधकी उत्पत्ति होती। दर्शनविशुद्धि, विनम-सम्पन्नता आदि नययुक्त भावनाओंका चिन्तन कर, कर्म-अधर्म और निदानका निषेध कर उन्होंने तीर्थकर गोत्रका बन्ध कर लिया। संन्यासमरणसे मरकर यह योगीश्वर प्राणतस्वर्गमें सुरेश्वर हुए । साढ़े तीन हायका सुन्दर शरीर। बीस सागर प्रमाण डीवको धारण करनेवाला,
नधि वह दस माहमें सांस छोड़ता और बीस हजार वर्ष में भोजन करता। वह अवधिज्ञानके द्वारा धूमप्रभ नरक पर्यन्त भूमिको जानता। समय के साथ कालकी अवधि समाप्त होनेपर तथा उसका जीवन छह माह शेष रह जानेपर।
घत्ता-शत्रुपक्षको शंका उत्पन्न करनेवाले, तथा अपने मुखकमलोंको जीतनेवाले सुफलित सुख और शिवको माननेवाले कुबेरसे इन्द्र ने कहा-॥४॥
जिसमें सूर्यरूपी दीपक दिखाई देता है ऐसे जम्बूद्वीपमें भरतके द्वारा भुक्त भारतवर्ष में, जहाँ बलपूर्वक राजारूपी वन्दियोंको पकड़ रखा है, ऐसी आदमियोंसे संकुल काकन्दी नगरीका, ४.१. P करह ण । २. A पाणु रस । ३. P वासु । ४. A गियाणि । ५. AP पाणयकपि । ६. A अशाहियतिहत्य; Pा कि हत्म । ७. P°माण । ८. १ मुहीणिहि । ९. A समाहि । १०. P
ओहिणागमाणेण । ११. AP संपाविह । ५. १. P मर।
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१४२
महापुराण
[४७.५.४मुच्चाहलमंछियसुग्गीवहु । इक्खाउहु रायहु सुम्गीवह। वासषकुलिसु व मझे खामहि जसरामहि देविहि जयरामहि । विखंसियदुखरमणसियसरु । होसइ देख णमतिस्थंकर। जाहि ताई तुहुं दुजण जूरहि चितिर्य सयल मणोरह पूरहि । करि घंग पुरै घर सुहदसणु ता जक्खेण दुक्खविद्धंसणु ।
णिम्मिच गयर काई वपिणज्जा जहिं मणिकिरणविरोह भिजा। १० भाणुषिंबु तहिं परु किं सीसह ते. रयणि ण वासरु दीसइ।
पत्ता-पयगयरंगविहतियं पोमरायमणिपंसियं ॥
ढंका जत्थ बहल्लिया कि सा चंदगहिल्लिया ।५।।
कज्जलु णयणि देति हरिणीलहु । आरूसइ किरणावलि कालहु । दंतपंति सैसियतकरोह दगगलि । जितिनायो । भणइ धरिणि सहिय उ सरलच्छउ एंव हि दसण ण धोयवि णिच्छउ ।
ओयवि घरि मोतियरंगावलि अवर ण बंधेद गलि दारावलि । ५ णीलैंजणेनु ण णिहि गियच्छइ मरगयदित्ति मच्छि दुगुंछइ । कश्यपगोत्रीय शशांकगुप्त नामक, शत्रुओंके प्रांगणमें आशंकाओंसे रहित, गुप्तशशांक, जिसका कण्ठ मुक्तामालाओंसे शोभित है, ऐसे इक्ष्वाकुवंशके राजा सुग्रीवको बजायुधकी तरह मध्यमें शीण तथा यशसे रमणीय जयरामा नामको देवीसे, कामदेवके दुर्धर्ष बाणोंको नष्ट करनेवाले नौवें तीर्थकरका जन्म होगा। जाओ तुम शीघ्र दुश्मनोंको सताओ और चिन्तित समस्त मनोरथोंको पूरा करो। देखने में शुभ सुन्दर नगर बनाओ। तब कुबेरने दुखोंका नाश करने वाले नगरकी रचना की। उसका क्या वर्णन किया जाये ? जहाँ मणिकिरणों के विरोधसे सूर्यबिम्बका तिरस्कार किया जाता है वहां दूसरेके विषय में क्या कहा जाये ? तेजके द्वारा वहां न रात जान पड़ती है, और न दिन।
यत्ता-चरणों में लगे हा राग (लालिमा) को नष्ट करनेवाली पचरागमणियोंको पंक्तिको जहां वधू आच्छादित कर देतो है, क्या वह चन्द्रमाके द्वारा अभिभूत है? ( क्या चन्द्रमारूपी ग्रह उसे लग गया है ?
कोई आंखोंमें काजल लगाती हुई, हरिनील और काले मणियोंको किरणावलीपर ऋद्ध हो उठती है। वह चन्द्रकान्तमणिके किरणसमूह से दन्तपंक्तिको दर्पणतलमें अपनी भ्रान्तिके कारण नहीं देखतो। वह गृहिणो, सरल आँखोंवाली सखीसे कहती है कि इस समय में निश्चयपूर्वक दांत नहीं धोऊंगो । एक और नारी घरमै मोतियोंकी रंगावली देखकर अपने गले में हारावली नहीं बांधतो । अपने स्थापित नोले नेत्रों को नहीं देख पाती और वह मृगनयनी मरकतमणिकी
२. A णव । ३. P दुर्राह । ४, न तह घरि क्षणय मनोरह । ५. A पुरावक । ६. ? काई पायक ।
७. A माणिककिरणयिहि । ८. AP वित्तियं । ६. १, A ससित; P ससिकत । २. P. बढ । ३. A गोलणेत्तु ।
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-४७.७.६)
महाकषि पुष्पदन्त विरचित कश्शेषणकुड्यलइ पेच्छिवि मुंज मुंज णियभासइ पुग्छिवि। दिएणड मुहर्षिबाहरतंबर सिसुणा कूरकवलु पंडिविह। अण्णु वि रंगतच सुत्तहिट थणइ थण्णरसगइणुकंठिस। मणिमहियलगयतणु पेटिमुल्झाउ दोमायसं चिंतइ डिमुलउ । जं घरसिहरायणहभायच फणयघटिउ पुरु पीयलछायम । णिच्चु जि अमुणियसंझारायड सुरहिसुसोयर्लदाहिणवाय। पत्ता-तहिं रयणंसुकराला सोवंती सयणाला ।।
अम्माएवि महासह पेकछह सिविणयमंसह ॥६॥
णाय गाइल्लं गायारि
णारायणियं णरमणहारिं। णाणाफुझं मालाजमलं
णिसियरयं णेसर विमर्म । आययजुम्म सिरिणिवजुम्भ पोमसरं पोमासियपोमं । पालंतुग्गैयवेलाबारं
पारं पंडरपाणियफार। पीढं चामीयरसेही
जोइहरं णाइंदागारं। दीहमऊहं रयणसह
णिद्धं णिधूम हुयवाई। दीप्तिको निन्दा करती है । नीलरत्नकी भित्तिको देखकर अपनी भाषा (शिशुभाषा ) में 'खाओ खाओ' पूछकर बच्चेने मुखके बिम्बाधरसे ताम्र प्रतिबिम्बको भातका कौर दे दिया । एक
और सोकर उठा हुआ बालक, खेलते-खेलते मां का दूध पीनेकी उत्कण्ठासे चिल्लाता है। लेकिन मणि-महीतल में प्रतिबिम्बित ततुको देखकर भूल गया, और बालक सोचता है कि दो माताएं हैं । जो अपने गृहशिखरोंसे आकाशभागको आहत करता है, स्वर्णनिर्मित और पोलो कान्तिवाला है, जो प्रतिदिन सन्ध्यारागको नहीं जानता, और जिसमें सुरभित शोतल और दक्षिण पवन बहता है।
पत्ता-ऐसे उस नगरमें रत्नकिरणोंसे मिश्रित शयनतलमें सोती हुई महासती अम्बादेवी स्वप्न-परम्पराको देखती है ॥६॥
गज, बैल, मनुष्योंके लिए सुन्दर लक्ष्मी, नाना पुष्पोंकी दो मालाएँ, विमल चन्द्रमा और सूर्य, मत्स्ययुग, लक्ष्मीसे युक्त कुम्भयुगल, लक्ष्मीसे अधिष्ठित कमलोंका सरोवर-जिसका तटसमूह बौधोंके बाहर निकला हुआ है और जिसके पानीका विस्तार सफेद है, ऐसा प्रभुद्र; सोनेके सिंहोंका पोठ ( सिंहासन ); स्वर्गविमान और नागभवन, लम्बो किरणोंवाला रस्नसमूह, स्निग्य और निर्धूम अग्नि ।
४. P परिबिंबह । ५. A मणिमहिगयतणु णिक परिभुल्लर P मणिमहिगयतणु परिविपुलर । 1. AP सुसीयलु । ७. AP रम्माए वि। ७. १. P गायल्लं । २. A जुबलं । ३. AT जलयरजुम्मं । ४. AP पालतुंगयदेसावार ( P पारं)।
५. Pणायहरं। ६. Aadds after thia: जयपंचवी एबह। ७. AAdds after this: जालामालाहियदिसोहं ।
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महापुराण
[४७.७.७
धत्ता-इय परंसिविणयमालियं
पइणो तीए सिट्टेयं
जयरामाइ णिहालियं ॥ तेण वि फल व दिद्वयं ॥७॥
दयाभावजुत्तो 'तुम चारुपुत्तो। हले होहिदीसो अणीसो मुणीसो। परस्सोवयारी जिणो णिजियारी। तओ तम्मि काले महातूररोले। तिलोयस्स पुजा
सई का वि लज्जा। मई कति बुद्धी सिरी संति सिद्धी। ससिंगारभारा पघोलंतहारा। गुणुतालभावा सकंचीकलावा। तुलाकोडिपाया विइपणंगराया। दिही दोहरच्छी परा का वि लच्छी। पवण्णा णिवासं जिणंचाह पासं। कया गब्भसुद्धी इमोहिं महिद्धी। धणेसो पहिट्ठो हिरणं पवुट्ठो। रिऊमासमेरं
धरेउसमेरं। अमंदो णिवंदो चुओ पाणइंदो। घचा-फग्गुणमासे पत्तए पक्खे ससियरदित्तए ।
णषमीदियहि पवित्तए देवं मूलणक्खत्तए ॥८॥ घत्ता-इस प्रकार जयरामाने स्वप्नमालिका देखी। उसने पतिसे कहा । उन्होंने भी उसके फल का कथन किया |
कि तुम्हारा दयासे युक्त सुन्दर पुत्र होगा । हे हला, अनीश, मुनीश, दूसरों का कल्याणकारी, शत्रुओंका नाश करनेवाले जिन; तब उस समय कि जब महातूर्य बज रहा था, त्रिलोककी पूजनीय सती कोई लज्जा, (ह्रो), कान्ति, मति ( बुद्धि ), सिद्ध होती हुई श्री, शृंगारके भारसे दबी हुई, हारको आन्दोलिस करती हुई लक्ष्मी, गुणोंसे ऊंचे भाववाली कांची कलापसे युक्त, पेरोंसे घुघरू पहने हुए अंगराग विकीर्ण करती हुई लम्बी आंखोंवाली कोई श्रेष्ठ लक्ष्मी जिननाथके निवासस्थान पर पहुंची। इनके द्वारा महान् ऋद्धिवाली गर्भशुद्धि की गयी। छह माइकी अपनी मर्यादा तक कुबेरने प्रसन्नतासे धनकी वर्षा की । अमन्द मनवन्दनीय प्राणत इन्द्र-च्युत हुआ और।
पत्ता-फागुन माहके कृष्णपक्षको नवमोके दिन मूलनक्षत्र में ||८||
८. A परि । ९. A सिट्टियं । १०. A°दिट्टियं । ८. १. AP तुहं । २. दूरराले । ३. A सुई कावि; P सयं कावि । ४. P जिणंबाय । ५. P सुवपणेण बुहो।
६. A रमतो सभेरं । ७. Pणिमंदो। ८.K प्राणाईदो। १. देउ ।
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-४७.९. १५]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
१४५
जिणो णारिंदेहे थिओ दिव्वणाणो सुरिंदाण वंदेहिं बंदिजमाणो । णिहीकुंभहत्या पणचंति जक्खा वरिट्ठा सुवर्ण बहद्वैव पक्वा । पमोत्तूण संसारवित्थारदुग्गं पवणम्मि चंदप्पहे मोक्खममा । समुदाण कोडोण सौरीसमाण सुमु गाय ते लमाण । तओ मग्गसीसे णिसीसंसुसेएं पहिल्ले दिणे जायओ जायसेएँ। जिणिदस्स जम्मे जियाराइवग्गो ससको असेसो वि सोहम्मसगो। ण सामाइ खे खीणपावो महप्पो बिमाणेहिं जाणेहिं ईसाणकप्पो। सगाईकुमारो समाहिंदणामो विलंबंतसोहंतमंदारदामो। समं बंभणाहेण बंमुत्तरेसो गहुडोणगिव्याणसोहाविसेसो। चलो चल्लिओ लतवो लच्छिधामो असतॄण काविटुवो तुट्टिकामो। ससुको महासुकदेवगगामी सयारो सहारो सहस्सारसामी। समुद्धाइओ आणओ प्राणइंदो जगुद्धारणो आरणो अमचुइंदो। ससी बासरीसो रहुन्बद्धकेऊ हो अंगिरारो सणी राष्ड्ड केऊ। दियंतं गयाणदभेरोणिणाया पुरि 'प्राइया सामराणं णिहाया। णियो चंदिओ तेहिं कार्कदिवालो' करे ढोइओ कित्तिमो को वि बालो।
१५
देवेन्द्रोंके समूहके द्वारा वन्दनीय देव जिन नारीदेहमें आकर स्थित हुए । निधिकलश अपने हाथमें लेकर यक्ष नृत्य किया और अठारह पक्षों तक धनकी वर्षा की। संसारके विस्तार दुर्गको छोड़कर चन्द्रप्रभ स्वामीके मोक्षमार्गमें प्रवृत्त होनेपर, नब्बे करोड़ सागर पर्यन्त समय बीतनेपर मार्गशीर्ष शुक्लपक्षको प्रतिपदाके दिन जिनेन्द्र के अन्ममें, शत्रुवर्गका विजेता, इन्द्र सहित समस्त सौधर्म स्वर्ग आकाशमें नहीं समा सका। निष्पाप और माहात्म्यवाला ईशान स्वर्ग विमानों और यानोंसे, जो लटकती हुई मन्दारपुष्प मालाओंसे शोभित है, ऐसे सानत्कुमार और महेन्द्र स्वर्ग, ब्रह्म स्वर्गके इन्द्र के साथ ब्रह्मोत्तर स्वर्गका इन्द्र (कि जिसको आकाशमें उड़ते हुए देवोंसे शोभा विशेष है ) लक्ष्मीसे युक्त चंचल लान्तव स्वर्ग तथा बिना किसी कपट भावसे सन्तुष्ट काम कापिष्ट स्वर्ग चल पड़ा । शुक वर्गके साथ महाशुक्र स्वर्गका अनगामी देव (इन्द्र), सतार स्वर्ग और हारसहित सहस्रार स्वर्गका स्वामी आनत और प्राणत स्वर्ग दौड़ पड़ा, विश्वको धारण करनेवाला आरण और अच्युत स्वर्ग भी। चन्द्रमा, सूर्य, जिसके रथ पर पताका बंधी हुई है ऐसा बुध, बृहस्पति, शनि, राहु और केतु आये । आनन्दभेरीके निनाद दिशाओं में फैल गये । लोकपालोंके समूह उस नगरीमें पहुंचे । उन्होंने काकन्दी नगरका पालन करनेवाले उस राजाको नमस्कार
९.१. AP ससुण्यं । २. A सुसेओ। ३. A जायसे ओ। ४. AP संमार । ५. P सणाईकुमारो। ६. AP विलोलतमोहंत । ७. AP देवक। ८. AP पाणइंदो। ९. P वासरेसो। १०.AP पाया। ११. AP काकिदिवालो।
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महापुराण
[ ४७.९. १६असामण्णलायपणभारम्मयाए जणेऊण भति" मणे अम्मयाए । तिणाणी विमुद्धो सुलेसासहावो णिओ मदरं देवदेवेहिं देवो। पत्ता-पंसिलोवरि हाणियं पूयाविहिसंमाणियं ॥
"मविऊ अरहंतयं "पुप्फदंतभयवंतयं ॥५॥
ते सुरवर लंघिवि गयणंतर ते लेप्पिणु पडिआया तं पुरु । जणणि हि करयलि णिहिया जेश्वइ गर आणंदु पणश्चिवि सुरषद। काले जंत वडिड सायरु वड्ढिच णं सियैपक्खइ सायरु । वढिठ सुकाहि कवाला व पढिन सुमुणिहिं णाणसहाउद । वड्डि उ उवसमवेल्लिहि कंदु व वति उ अभैयकलहिं जयंदु व । वढि धम्मदिवोबहु तेउ व वढिन भवमयरहरहु सेट ! कुंदुज्जलतणु अईसयभूयत बाणासणसव तुंगु पहूय। सिसुलीलाइ पोसियदिव्वह गय पण्णाससहस तह पुन्वहं । पच्छइ पत्तु पायसासणु सई । उच्छउ कि सीसइ मणुएं मई। जंचितंतउ सुरगुरु गुप्पइ तहिं महंमद णड किं पि विसप्पा । लक्खणलनिखयंवरतणुलहिहि पट्टबंधु जाइज परमेद्विहि ।
१०
किया, और उसके हाथमें कोई भी कृत्रिम बालक दे दिया। असामान्य लावण्यके भारसे युक्त माताके मनमें भ्रान्ति उत्पन्न कर तीन ज्ञानधारी तथा मन-वचन-कायसे शुद्ध शुभलेश्याके स्वभाववाले देवदेवको देवेन्द्रोंके द्वारा मन्दराचल ले जाया गया। पत्ता-पाण्डकशिलाके ऊपर अभिषिक
अभिषिक्त पूजाविधिसे सम्मानित सूर्य और चन्द्रमाकी आभावाले अरहन्तको नमस्कार कर-||
सुरवर आकाशको पार करते हुए उन्हें वापस लेकर उस नगर आये । यतिपति जननिधि जिनको हथेलीपर रखकर तथा आनन्दसे नृत्य कर इन्द्र वापस चला गया। समय बीसनेपर वह आदरपूर्वक बढ़ने लगे मानो शुक्ल पक्षमें सागर बढ़ रहा हो। वह सुकविके काव्यालापको तरह बड़े हो गये, सुमुनिके ज्ञानस्वभावकी तरह बड़े हो गये, उपशमको लताके अंकुरकी तरह बड़े हो गये, अमलकलाओंसे चन्द्रमाके समान बड़े हो गये । सूर्यके तेजके समान वह बड़े हो गये, संसाररूपी समुद्र के सेतुके समान बड़े हो गये, स्वर्णकी तरह अत्यन्त उज्ज्वल, उनका शरीर सौ धनुष प्रमाण ऊंचा और प्रचुर था। इस प्रकार बालक्रीड़ामें उनके देवोंको सन्तुष्ट करनेवाले पचास हजार पूर्व वर्ष बीत गये । उसके बाद इन्द्र स्वयं आया । उस उत्सवका मुझ मनुष्यके द्वारा क्या वर्णन किया जाये। जिसके वर्णनमें स्वयं बृहस्पति व्याकुल हो उठता है, उसमें मेरी मति बिलकुल भी नहीं चलती। लाखों लक्षणोंसे युक्त शरीरलतावाले परमेष्ठीके लिए पट्ट बांध दिया गया ।
१२. F असावाण । १३. A भंती । १४. A तिणाणी तिलेसो तिसुद्धो मुहावो । १५. AP मिऊणं ।
१६. AP पृष्फयंत । १०. १. P जयवइ । २. AP सिमवक्सइ । ३. A अमयकलिहिं । ४. Pणवचंदु व । ५. A घम्मु पयादह
भेउ व Pएम्मदिवायरते व । ६. P अहसंभूय उ । ७. P"परतणु । ८. AP जायउ ।
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-४७. ११.११
महाकवि पुष्पदन्त विरचित पत्ता-माणतहु सिरियंगेई अट्ठबीसपुव्वंगई ।।
पुषहुं पुणु सविलासई पण्णासेव संहासई ॥१०॥
तत्थु तासु वोलीणई जड्य? उक्क पड़ती विट्ठी तइय। तं जोइवि जिणणाहु वियका कोलहु कलिहिण कोइ वि चुाद । जणणमरणपरिवहणलक्खणु एउ तिजगु परिणवा पैसिक्खणु । जं जं काई विजयणहिं दीसाइ उका इव तं तं खणि णासह। अथिरु सच्चु भणु कहि रह कीरइ सो वि चित्तु विसयासइ होस् । वइसाणा इंधणतणपवणं ण समइ कंडु णक्वडयणे । भोएं इंदियतित्ति ण पूर बइ दुइ तिट्ठ मइ जूरइ ।। इय चितंतु णाहु संभाषित अमरमुणीसरेहिं बोलाविउ । चारु चारु पई जिणवर जाणिचं सासयविचिहि हियवउ आणिउं । पत्ता-ता धामीपवयं विकासनमाइन।
पुंसरीयमालाधर सोहर गयणंगणसरं ॥११॥ घत्ता-राज्यश्रीके अंगोंको मानते हुए उनके पचास हजार पूर्व और अट्ठाईस पूर्वांग समय बिलासपूर्वक बीत गया ॥१०॥
जब उनका इतना समय बीत गया, तो उन्होंने एक उल्काको गिरते हुए देखा । उसे देखकर जिननाय विचार करते हैं-यमसे युद्ध करते हुए कोई नहीं बचता, जनन-मरण और परिवर्तनके लक्षणवाला यह त्रिलोक प्रतिक्षण बदलता रहता है। नेत्रोंसे जो-जो कुछ भी दिखाई देता है, उल्काके समान वह एक क्षणमें नष्ट हो जाता है, जहां सब कुछ अस्थिर है, बताओ वहाँ कहाँ रति की जाये। फिर हृदय विषयको आशाके द्वारा अपहृत किया जाता है। आग ईन्धन. स्वरूप शरीर और हवासे, और खाज नाखूनोंसे खुजलानेसे नष्ट नहीं होती। भोगसे इन्द्रिय तृप्ति नहीं होती। दुष्ट तृष्णा बढ़ती है और मति पीड़ित होती है । इस प्रकार विचार करते हुए स्वामीको सम्भावना कर अमरमुनीश्वरों (लोकान्तिक देवों) ने आकर कहा-हे जिनवर ! आपने सुन्दर जाना और शाश्वत वृत्तियोंसे अपनेको मनुशासित किया।
घत्ता-सब इतने में ध्वजरूपी तरंगोंसे शोभित, विपुल पात्रों (पत्तों वाहनों) से आच्छादित पुण्डरीकों ( कमलों और छत्रों) की माला धारण करनेवाला बाकाश प्रांगणरूपी सरोवर शोभित हो उठा ॥१॥
९. A सिरिअंगयं । १०. Aपुबंगयं । ११. A सहस्सई। ११. १. A कालहु कालि ण वि को चुक्कह। २. A "मरण पार । ५. A परिक्स। ४. A कायम
जयणहं। ५.A कंडमणे । ६.A बोलावित।
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१४८
५
१०
महापुराण
१२
सुरदारचई सू पवित्र भावे तित्थं करु दिव्वं दुगुल्लयाई परिछे प्पियु महि रज्ज समपिवि राण गडगडतणाणाखयराभर तहिं मासिरि मासि सिसिरहु भरि कुलिकेस णिक्कुडिलें लुंचिषि जाइवि अमर पवरमयराल वासु पयासु करेपिणु
अवरहिं वासरि संतकसायच सलैयरु मुणिभिक्खद्दि दुक्क उ तहु तहि उप्परं अच्छेर उ
घत्ता - वित्थारितवसिहि सिहं ससरीरे विहु णिपिहं ॥ पडणं जिणकप्पयं ||१२||
इस कपयं
१३
खोरमा भरियई खीरहं । घणवा घणेण णं महिहरु । परमसिद्धसंत णवेष्पिणु । सूरप्पहसिवियहि आसीण । विसियgs गुणंतरि । सियैपाडिवर वरुणदिसि दिणयरि । घलिय ते नियसिर्दे अंचिवि । जयकारिउ विज्जाहरमालइ । थिउ नृवसेहसँ सहुं तत्र लेपि ।
[ ४७.१२.१
हामकासजैमससिसुच्छायण । पुष्कमित्तरायहु घरि थउ । पंचपorn मणी रहगारज ।
१२
देवव रोंके हाथोंसे नगाड़े बज उठे । क्षीर समुद्रसे जल भरा जाने लगा । इन्द्रने नमन किया, तीर्थंकरका भावसे अभिषेक किया, मानो मेघने महीधरका अभिषेक किया हो। दिवा वस्त्र पहनाकर, परम सिद्ध सन्ततिको प्रणाम कर, सुमतिको राज्य समर्पित कर राजा सूर्यप्रभा शित्रिका में बैठ गये । नृत्य करते हुए नाना विद्याधर और देव विकसित पुष्पोंसे युक्त पुष्पवन में पहुँचे । वहाँ मार्गशीर्ष शुक्लपक्षको प्रतिपदा के दिन, सूर्यके पश्चिम दिशा में पहुँचनेपर अपने घुँघराले बालों को उन्होंने निष्कपट भावोंसे उखाड़ डाला । इन्द्रने पूजा कर उन्हें क्षीरसागर में फेंक दिया। विद्याधर समूहने जय-जयकार किया। छठा उपवास कर एक हजार राजाओं के साथ तप ग्रहण कर स्थित हो गये ।
पत्ता - जिसमें तपरूपी अग्नि विस्तारित की गयी है, जो अपने ही शरीर में निष्प्रभ है, जिसमें रतिको संरचनाका परित्याग कर दिया गया है, ऐसे जिनाचरणको उन्होंने स्वीकार कर लिया ||१२||
१३
एक दूसरे दिन हास्य, काश, यश और चन्द्रमा के समान कान्तिवाले शान्तकषाय वह नगर में मुनिचर्या के लिए पहुँचे। वहां पुष्यमित्र राजाके घर ठहर गये। वहाँ उसे पांच सुन्दर
१२. १. A महण २ APT दुगूलबाई ३ A मायसिरमासि; P मागसिरि मासि । ४. A पवि P परिवा५, Pणिकुडिल्ले । ६. AP पषसह सें ।
१३. १, P°ससिजस ं । २. AP सयलय । ३ P मनोहरं ।
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१४९
४७.१४.७]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित चउवरिसइं गलियई छम्मत्थहु पायरुक्खतलि मुणियपयत्यहु । कत्तियमासि विसुद्धहि बीयहि दिवसक्खइ गिन्वाणपगीयहि । लोयालोयपलोयणदीवउ
जायउ देवहु अप्पसहावउ । केवलणाणु सो जि लइ भण्णइ अण्णे जीवहु कहिं परमुण्णइ ! जं बुखें सुषण जि पयासि जं विप्पेण बंभु मिसिहं । जंकउलें अबरु आहासिर जं सइवेण सिबत्तु समासिउँ। जं कविलें णिकिरिडं णिउत्तर णिग्गुणु णिचविसुद्ध अन्तर्ड। जं सुरगुरुणा णस्थि पउत्तर जं अणंतु अच्छइ अविइत्तई । तं खं देवं सुसिरु विसिटुत अप्पाणाउ विहिष्ण विदुर । पत्ता-एयाणेय विवाइणा पुर्पदंसजिणजोयणा ।।
जेउ कुसुमापिसकर्य पेहि णिहियं तेलोकायं ॥१॥
इंदण जलणेणे वरुणेण पवणेण। फणिणा कुबेरेण चंदेण सुरेण । दसदिसिहिं आएण सुरवरणिहारण । थोत्तं पदंतेण धुर जिणवरो तेण। तुहुं धोयरइरेणु तुहुँ कामदुधेणु । तुहूं बंधु हयदधु तुहं माय तुहुँ बप्पु ।
जे दुह पाविट्ठ णिकिटु जेड घिट्ट. आश्चर्य उत्पन्न हुए : जब चार वर्ष बोत गये, तो नागवृक्षके नोचे, पदार्थोको जाननेवाले छद्मस्थ देवको कार्तिक मामकी देवोंके द्वारा प्रगीत द्वितीयाके दिनका अन्त होनेपर लोकालोकके अवलोकनका दीप आत्मस्वभाव प्राप्त हो गया। लो, उसोको केवलज्ञान कहा जाता है, किसी दूसरे ज्ञानके
म उन्नति कहा? जिसे बदने शन्य प्रकाशित किया है. जिसे ब्राह्मणने ब्रह्मक रूपमें विशेष कथन किया है, जिस कोलने ( मीमांसक ) स्वर्ग कहा है, जिसे शैवने शिवत्व कहा है, जिसे कपिल ( सांख्य ) ने निष्क्रिय, निर्गुण, नित्य विशुद्ध और अकर्ता कहा है, जिसे चार्वाकने नास्ति (नहीं है) कहा है, और जो अनन्त और अविभक्त (अखण्डित) है, देवने उस अन्तःशून्य विशिष्ट अपनेको पृथक् करके देख लिया।
पत्ता--एकानेक विवादो पुष्पदन्त जिनयोगीने ( इस प्रकार ) सारे संसारको कामरूपी पिशाचको जीतनेके लिए रास्तेपर लगा दिया ॥१३॥
इन्द्र, अग्नि, वरुण, पवन, नागराज, कुबेर, चन्द्र, सूर्य और दसों दिशाओंसे आये सुरवरसमूहने स्तोत्र पढ़ते हुए जिनवरकी स्तुति को-"तुमने रतिरूपी रेणुको धो लिया है, तुम कामरूपी धनु हो, तुम हतदर्प बन्धु हो, तुम मा हो, तुम बाप हो। जो दुष्ट, पापिष्ठ, निकृष्ट, जड़ और ढीठ
४. AP कवलं । ५. A संखें । ६. P अक्कत्त । ७. A अप्पाणाउ विभिण्णजं; P अप्पसहावे जाएं।
८. AP पुप्फयंत । ९. P पहि णोय । १४. १. P adds after This: जमदिसिकुमारण; गैरइयभावेण । २. P जण घेटु ।
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महापुराण
[४७.१४.८
उम्मग्गि बट्टति महु मजु घोति । अलियं पर्यपंति कामेण पंति । परबटु णिहाळति पारद्धि खेलंत । लोहेणे भन्नति परहणुण वयति । रोसेस पति खग्गाई कढुति । जे मासु भवनति ते पई ण पेक्खंति । भूदा ण बंइंति णिच पि णिति । संचरइ जणु छम्मु पई मुइवि कहिं धम्मु ।
बडजणणजलसेउ पई मुइवि को देख। घसा-मिच्छापरिणामग्गई लम्ग घणतमदुग्धहे।
णिवडतं ण उवेक्खियं जगडिभं पहं रक्खिये ॥१४॥
१५
समवसरण लिए संदिर मान अहासी हुय गणहर तावहिं । पण्णारहसय वज्जियसंगह परमरिसिहि जाणियपुठवंगई । एकलक्खु सहुं पंचावण्णहिं सहसहिं पंचसईसंपण्णहि । सिक्खंयाहि णिम्माहियरईसह अट्टसाहस चउसय ओहीसह । सत्तसहस केवलणाणालई तेरहसहसई विकिरियालहं। भयसहास वयसय मणपजय णाणघारि दोसासय दुजय । वईतंडियपत्तरदाइहिं
रिदुसहसई रिदुसयई विवाइहिं । उन्मार्गपर चलते हैं, मधु और मद्य खाते हैं, झूठ बोलते हैं, कामसे कांपते हैं, परवधूको देखते हैं, शिकार खेलते हैं, लोभसे भग्न होते हैं, परधनको नहीं छोड़ते, क्रोधसे भड़कते हैं, तलवारे निकाल लेते हैं और जो मांस खाते हैं वे तुम्हें नहीं देख सकते। मूर्ख तुम्हारी वन्दना नहीं करते, नित्य तुम्हारी निन्दा करते हैं, जन क्षमा धारण करता है, आपको छोड़कर कहा धर्म है, संसाररूपी अलके लिए सेतु हो, तुम्हें छोड़कर कौन देव हो ?
पत्ता-मिथ्या परिणामका जिसमें आग्रह है ऐसे घनतमरूपी दुष्पथमें लगे हुए, गिरते हुए विश्वरूपो बालकको तुमने उपेक्षा नहीं को, उसको रक्षा को ॥१४॥
___ जैसे ही जिनवर समवसरण में विराजमान हुए, तो उनके अठासी गणधर हुए। परिग्रहसे रहित पूर्वांगोंको बाननेवाले पन्द्रह सो परममुनि, एक लाख पचपन हजार पाँच सी शिक्षक थे। कामदेवको नष्ट करनेवाले आठ हजार चार सौ अवधिज्ञानी थे। केवलज्ञानके धारो सात हजार थे, विक्रियाऋद्धिके धारक तेरह हार थे, सात हजार पांच सौ मनःपर्ययज्ञानके धारक थे।
३. P मोलति । ४. P reads a as b and basa। . A जणछम्मु P जहिं छम्मु । ६. P
दुप्पाहे । ७. A णिवतउ । १५.१. P adds after this : एए मुणि संजाया तावहि, इंदविसहरमणहर । २. P अट्ठासीस जाया
मणघर । ३. AP सिक्खुबाई । ४. AP बयतंडिय ।
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महाकवि पुष्पदन्त विरचित सहूं असीइससई णिरवनहं लक्खई तिणि पउचई अजह । दोषिण लक्ख पालियघरधम्मई मणुयई मणुइहिं पंच सुसोम्मई। अमरच्छरलाइं गयसंखई तिरियई पुणु कहियाई ससंखई। इय एत्तियलोएं संजुत्ता
मुषणत्तयराईवय मित्तह। महि विहरतहु धम्मु केहंतहु पुष्प॑दतदेवतु अरहतहु । अहचीसपुवंगविहीणल पुल्वहं एक्कु लक्खु तेहिं शीणउँ । पता-पर मुभिणमुखी फनिदेषासुरणरथुओ।
लंबियपाणि मणोहरे थिउ संमेयमहीहरे ॥१५||
आसमाणई पोमई गोत्तई करिवि वेयणीयाई णिहितई । दंडकवोडाजगजगपूरई विरधि मुकई तिपिण सरीरई। तेजेइओरालियकम्मइयई जाई विमुकई पुणु वि ण लइयई। उज्वेनिधि कड्ढिवि आउँचिवि जीवपएस सयलघण संचिति । चउसमयंतयालु थिउ देहाइ भवए सुक्कट्ठमिदिया। अपरण्इइ सहुं मुणिहि सहासे सिद्धउ जिणु जण जयजयघोसें। पुजिय तणु चविहहि मुरिदहिं बंदिउ इंदपडिदरिदहि ।।
गइ देवाहिदेवि अवधगह गउ सुरयणु णोसेसु वि सग्गहु । वितण्डावादियोंको प्रत्युत्तर देनेवाले वादो मुनि छह हजार छह सौ, तीन लाख अस्सी हजार निरवद्य आयिकाएं थीं, दो लाख गृहस्थ धर्मका पालन करनेवाले श्रावक थे और सुसौम्या पाँच लाख श्राविकाएं थीं। अमरों और अप्सराओंका कुल असंख्यात था.परन्तु तिथंच ससंख्य कहे गये हैं। इस प्रकार इन लोगोंसे संयुक्त तथा भुबनत्रयरूपी कमलके लिए सूर्यके समान अरहन्त पुष्पदन्तकी धरतीपर विहार और धर्मोपदेशका कथन करते हुए अट्ठाईस पूर्वाग रहित एक लाख पूर्व समय बीत गया।
पत्ता-मुनिसमूहसे सहित, नागदेव और असुरोंसे संस्तुत हाथ ऊँचा किये हुए वह सुन्दर सम्मेद शिखर पर्वतपर स्थित हो गये ॥१५||
१६ आयुकर्म, नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मका उन्होंने नाश कर दिया और दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपुरणको रचना कर उन्होंने तीनों शरीर छोड़ दिये। जब उन्होंने तैजस, औदारिक और कामेण शरीरको छोड़ दिया तो उन्हें दुबारा ग्रहण नहीं किया । एकत्रित, आकर्षित और संकोचित कर समस्त सघन जीवप्रदेशोंको संचित कर चार समयके अन्तराल (दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपुरण) तक, देहमें स्थित रहकर, भाद्रपदके शुक्लपक्षके उत्कृष्ट अष्टमीके दिन अपराल में एक हजार मुनियोंके साथ, लोगोंके जयघोष के साथ जिन सिद्ध हो गये। चार प्रकारके देवेन्दोंने उनके शरीरकी पूजा की । इन्द्र-प्रतीन्द्र-नरेन्द्रोंने वन्दना की । देवाधिदेवके मोक्ष जानेपर समस्त देवसमूह भो स्वर्ग चला गया। - -- --
५. A करत । ६. AP पुप्फत । ७. A तहो झीण; P परिवीणलं । ८. A मासमेत्त । १६. १. Pणामयं । २. A दंशकवाला जगजग; P दंडकबाडायरजग। ३. P तेजोरालियनकम्म ।
४. A जोनिमुक्कई; P जाएवि मुक्काई । ५. AP सिहि दिण्णा सिहिदहि ।।
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१५२
१०
महापुराण
ता--जिह भरंइस समीरिओ रिसद्देणंगयवयरिओ ॥ तिह महं तुह कहिओ इमो पुष्कदंत जिणपुंगमो ||१६||
[ ४७. १६९
इय महापुराणे विखट्टिमापुरिसगुणालंकारे महाकपुष्पदंतविरइए महामभ्यभरहाणुमणिए महाकध्ये पुतमिवाणगमणो नाम सचाळीसमो परिछेओ समतो ॥ ४७॥ ॥ जिर्ण पुष्यं तचरिये समतं ॥
पत्ता - जिस प्रकार ऋषभनाथने कामके यात्रु भरत से कहा था, उसी प्रकार जिनवर श्रेष्ठ पुष्पदन्तका यह चरित मैंने तुमसे कहा ||१६ ॥
इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषों के गुफाकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महाभमन्य मरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका पुष्पदन्त निर्वाणगमन ताकीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ ४७ ॥
नामका
६. P भर हो । ७. A पुप्फयत GP सत्तालोगयो । ९. AP omic the live t
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संधि ४८
उच्छिणियच्यिधम्मपत् ॥ सुणिसे शिवराय सीयलाइ तणिय कह ॥ ध्रुव ॥
१
जो परिपालियतिरयणो तिक्त्रं नारियदुवं तो परमागम कणकमलको साओ जो पहियासवदारओ णासिय णिश्यायारओ अमुविययओ जस्स पीस जणो जेव तेष उग्गयगयं
तं वीच्छं पूइयं तइ वि खलं स्वइ तावयं
एत्थ सह सीसया
पजुपाडियसुरयणो । जस्स वयं परदुषहूं | जेण कओ परमागमो । अविणस्सर सिरिसाहओ । गोणिग्घरदारओ | पोसियपंचायाओ । जो दाइ अल्लओ । बस एडिं णिज्जेइ यणो । धरियं जीवेणंगयं । गंधमविहिपूइयं । हो हो चत्तावयं । जर कुणति ण सीसया ।
प
१०
सन्धि ४८
श्री गौतम स्वामी कहते हैं - पूछने में चतुर तथा धर्मकी प्रभाको अपनो आंखों देखनेवाले हे श्रेणिकराजा, तुम शीतलनाथकी कथा सुनो।
१
में
जो तीन रत्नों (सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र) का पालन करनेवाले हैं, जिनके चरणोंसुर समूह प्रणत है, जिनका व्रत तीन तथा दुष्शपका निवारण करनेवाला है, तथा दूसरोंके लिए कठिन है, जो अत्यन्त सन्तुष्ट हैं, और श्रेष्ठ लक्ष्मी के कारण हैं, जिन्होंने परमागमोंकी रचना की है, जो स्वर्णकमलको कणिका के समान हैं, जो अविनश्वर श्रीको साधना करनेवाले हैं, जिन्होंने
are areatar दिया है, जो वस्त्रहीन और गृहद्वारसे रहित हैं, जिन्होंने नोच आवरणका नाश कर दिया है, जिन्होंने पांच माचारोंका परिपालन किया है, जिन्होंने स्त्रियोंके कटाक्षको उपेक्षा की है, तथा जो दयासे अत्यन्त आर्द्र हैं, जिनसे यति जन अत्यन्त आलोकित होते हैं, जिस प्रकार वृषभेन्द्रों द्वारा शकट ढोया जाता है, उसी प्रकार जीवों के द्वारा रोगोंसे युक्त शरीर ढोया जाता है, जो बीभत्स और दुर्गन्धयुक्त है, गन्धमाल्य विधिसे पवित्र होते हुए भी जो दुष्ट, नश्वर और मन्तापदायक है, जो आपत्तियोंसे रहित नहीं है ऐसे शरीर में जिसके शिष्य रति नहीं करते,
१. १. APA पालि । २. A कणकलर्स । ३. वणिया पहलओं । ४. A ग्यास Pय मास । ५. Aणिज्जिययणो; P णिज्जद्द अणो । ६. A जत्थ ।
२०
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[४८. १.१५
महापुराण जंदटुं सकाणणं महुसमम्मि व काणणं । वियसइ ससहररायं कमलं पिव रविभाहये । जो वणवासि चसी यल वयर्ण चंदणसीयल। जस्स पसाया सीयलं हवइ णविवि तं सीयलं । घत्ता-गुणभगुणीहि जो संथुख गुणगरुयगइ॥
दहमउ जिणणाहु है वि थुणविं सो दिवजइ ॥१||
उत्तुंगकोलखंडियकसेरु
पुक्खरवरदीवइ पुज्वमेरु। तहु पुज्वविदेहइ वहइ विमल णइ कीलमाणकारंडजुयल। खरदंडसंडदलछइयणीर डिंडीरपिंडपडुरियतीर । दरिसियपयंडसोंडाललील
लोलंतथलकल्लोलमाल । जुझंतचडुलकरिमयरणिलय परिभमियगहीरावत्तवलय । आसपखालियत साहसा जामेण सीय सीयल सगाह । दाहिणइ धणसंछैण्णसीम उवयंठि ताहि संठिय सुसीम ।
जसससिधवलियदिचकवालु तहि णयरिहि गरवइ पुहइपालु । जिन्हें देखकर देवेन्द्रका मुख उसी प्रकार विकसित हो जाता है, जिस प्रकार वसन्तकालके आनेपर कानन, और सूर्यको प्रभासे आहत होकर कमल खिल जाता है, जो बनमें निवास करते हैं, आत्माके वशीभूत हैं, जिनके बचन चन्द्रमाके समान शीतल हैं, जिन्हें नमस्कार कर मनुष्य शान्त हो जाता है
___ पत्ता-गुणभद्र जो आचार्यके गुणसे संस्तुत हैं, जो गुणोंसे महान् गतिशील हैं, ऐसे उन दसवें जिननाथ दिव्ययत्ति शीतलनाथको मैं प्रणाम करता हूँ ॥१६॥
जहाँ उन्नत सुअर जड़ोंको खण्डित करते हैं, पुष्करद्वीपमें ऐसा पूर्व सुमेरु पर्वत है। उसके पूर्वविदेहमें पवित्र सीता नामकी नदी बहती है, जिसमें हंसयुगल क्रीड़ा करता है, जिसका जल कमलसमूहसे आच्छादित है, फेनोंके समूहसे जिसके तट धवल हैं, जिसमें प्रचण्ड जलगजोंकी कीड़ा दिखाई देती है, जिसमें चंचल स्थूल लहरों की माला है, जो लड़ते हुए गजों और मगरोंका घर है, जिसमें गम्भीर जलावतोंके समूह परिभ्रमित हैं, जिसके तटवर्ती वृक्षोंकी शाखाओंको जलोंसे प्रक्षालित कर दिया है, और जो ग्राहोंसे युक्त है, ऐसी उस सीता नदीके दक्षिण तटपर धान्योंसे आच्छादित ऐसी सुसीमा नामकी नगरी स्थित है। उस नगरीका यशरूपी चन्द्रसे
-
-.
७. A विहस । ८. AP गुणगस्वमइ । ९. P हडं थुणामि सो । २. १. A उत्तंग; P उत्तुंग । २. "तडि साहिसाह । ३. A°सच्छष्ण ।
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-४८. २.२३]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित परिहातियतिवलिइ जणियसोह दावियरोमावलिअंकुरोह। घणथणहल कोंतलभसलसाम कयपत्तावलि अहिजणियराम । पियविडविवेढणुभासकाम कोमालिय सरस संदिपणकाम । णं पवरअणंगहु तणिय वेझि णं तासु जि केरी हत्थभलिं। सूहव सारंगसिलिंबयच्छि तहु वह देवि वसंतलचिछ । सा सुललियंगि पंचच पत्त . णीसास विवन्जिय पिहियणेत । अवलोयवि चिंतइ सामिसालु णिप्फलु मोहंधडं मोहजालु। मुय मेरी पिय पयडीकै पहि हसइ व दसणेहि णिसिकिरहि । तोडेविषणु णिब्भर पोहवासु अकहंति ढुक्क परजम्मवासु । अप्पणिय एक मई भणिय काई इह परियणसयणई जाइं जाई। संचियणियकम्मवसंगयाई जाहिति एंव सम्बाई ताई। एक्के मई जाएवढं णियाणि तो घरमइ जुजमि अरुणाणि । जं अच्छिवि पुणु वि विणासभात्र तं मुश्चइ एंव भणेवि राउ । धत्ता-कर देति विडेय कुंभिणि व्व तोसियजणहु ॥ .
कुंभिणि दोपवि चंदणामह गंदण ॥२॥ दिग्मण्डलको आलोकित करनेवाला पृथ्वोपाल नामका राजा था । (उसको मृगशावकको आँखोंके समान आँखोंवाली वसन्त लक्ष्मी नामको प्रिया थो,)जो परिखात्रय ( तीन खाइयों) के समान त्रियलिसे शोभावाली थी, जो रोमावलीके अंकूरसमूहवाली थी, जो सघन मानरूपी फलोंसे युक्त थी, जो कुन्तलरूपी भ्रमरोंसे सुन्दर थी, की गयी पत्र-रचनावलीसे जो अत्यन्त सौन्दर्य उत्पन्न करनेवाली थी। जिसमें प्रियरूपी वृक्षको घेरनेकी उत्कृष्ट शोभा और इच्छा थी, जो अत्यन्त कोमल, सरस और कामनाओंको पूर्ति करनेवाली थी ऐसी जो मानो प्रवर कामदेवकी लता है, जो मानो उसीके हाथको मल्लिका है, लेकिन सुन्दर अंगोंवाली यह मृत्युको प्राप्त हो गयी, नि:श्वाससे रहित उसकी आँखें बन्द हो गयीं। उसे देखकर वह स्वामोश्रेष्ठ विचार करता है कि मोहसे अन्धोका मोहजाल व्यर्थ है, मेरो मरी हुई प्रिया कोड़ाशून्य निकले हुए दांतोंसे जैसे हैम रही है, अपने परिपूर्ण स्नेहपाशको तोड़कर जैसे वह कुछ भी नहीं कहती हुई दूसरे जन्मवासमें पहुंध गयी है। मैंने इसे अपनी क्यों कहा? यहां जितने भी स्वजन और परिजन है, वे सब अपने संचित कर्मके वशीभूत होकर जायेंगे। जब अन्तमें मैं अकेला जाऊँगा, तो अच्छा है कि मैं अरहन्तके श्रेष्ठज्ञानमें अपनेको नियुक्त करूं। और जो विनाशभाव है उसे छोड़ देना चाहिए, यह कहकर वह राजा
पता- कर (सूड़ और कर ) देती हुई हथिनी के समान पृथ्वी लोगोंको सन्तुष्ट करनेवाले अपने चन्दन नामक पुत्रको देकर ( वह )--||२||
Y. A विरइयणायरणरमणणिरोह । ५. A अंकुशेह । ६. P°फुतलं । ७. P कपवत्तालि । ८.A पैठणम्भास; P°बेहणू। ९. A पयही किएहि । १०. A°णिवकम्म । ११. A विणासु भान; P विणा सिमाउ । १२. चंदणणामें।
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१५६
महापुराण
[ ४८.३.१
मुणिवा जायउ संसारकूलि आणंदमहामुणिपायमूलि । सीद्धरोमु गयसीहरोलि णिवसइ गिरिवरकुहरंतरालि । गुलै सपि दुधुरंगु तेलु मिथली मुंज भइ वैसिल्लु | पालेइ पारतिउ मेरुधीरु णवकोडिविसुद्धउ बंभचेरु। उवयरणहणि णिक्खेवणेसु परिहरइ दोसु रिसि भोयणेसु। जोयह तसथावर मग्गचरणि उच्चारखेलपरसावकरणि । तं जंपइ जेण ण पायबंधु संजमभारालंकरियखंधु । तवु करिवि तिवू णिम्मुक्ककामु । बंधेप्पिणु तं तित्थयरणामु। आराहण भयवइ संभरेवि सो अवसणु कयणिरसणु मरेवि । माणिक्ककडयचेंचझ्यबाहु संजाय आरणि अमरणाहु । वावीससमुइपेमाणियाउ तिरयणिसरी वपणेण सेउ । धत्ता-तहु पक्ख दुवोस अवहिये सासहु परिगणिय ॥
तइवरिसस हास आहारतरु मुणिभणिय ॥३॥
१.
-
Rayanrn.nnnn
संसारके तटस्वरूप आनन्द महामुनिके चरणमुल में जाकर मुनि हो गया। उसे जिसके रोम खड़े हो गये हैं ऐसा वह,गज और सिंहोंके शब्दोंवाले गिरिवरके कुहरोंके भीतर निवास करता है । गुड़-धी-दूध-दही-तेल तथा विकृतियाँ, मधु-मांस मद्य और नवनीत आदि वस्तुओंको आत्मवशो वह यति नहीं खाता । मोक्षार्थी और सुमेरुपर्वतके समान धीर वह नौ प्रकारसे विशुद्ध ब्रह्मचर्यका पालन करता है। उपकरणोंके ग्रहण करने और निक्षेपण तथा भोजनमें वह मुनि दोषोंका परिहार करता है। मार्गको चर्या में बोलने, थूकने और प्रस्रवण करनेमें स-स्थावरको देखकर चलता है, इस प्रकार बोलता है जिससे पापबन्ध नहीं होता। संयमके भारके लिए जो समर्थ आधारस्तम्भ है। कामसे मुक्त वह तीव्र तप तपकर, तीर्थकर नाम प्रकृतिका बन्ध कर भगवती अराधना कर दिगम्बर वह निराहार मरकर, जिसके बाहु माणिवपके केयूरोंसे शोभित है ! आरण स्वर्ग ऐसा इन्द्र हुआ। उसको आयु बाईस सागर प्रमाण थो, तीन हाथ उसका शरीर था, और उसका वर्ण श्वेत था।
घता-बाईस पक्षमें वह श्वास लेता था और तीन हजार वर्षमें आहार ग्रहण करता था जैसा मुनियों के द्वारा कहा गया है ॥३॥
३. १. A सीह न रोमगय । २.P गुहु । ३. A नेरंगु and gloss दधि; T परंगु दधि । ४. रसल्लु !
५. A पारस पारत्त: । ६. A गहण । ७. Pपस्सवणकरणि । ८. A तित्थु णिम्मुक्कं । ९. AP "काउं । १०. AP°णा । ११. P°पमाणुमाउ । १२. A सरीर । १३. A अविहिए ।
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-४८. ४. १५ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
णिरुवमसुइसंपावणखणेण रमणीरमणु वि सारइ मणेग। सो कहिं विण मेल्लइ सुक्कलेस मि पणव मदद पर । परियाणा पेच्छइ तमपहंतु अट्ठगुणसारु महिमा महतु। उर्दुमाससेसि जीवियपमाणि आघोसइ सयमहु उर्दुषिमाणि | भो गुज्मय बुध्यहि भमियमरहि किंबहुएं जंयूदीर्वेभरहि । मलेययदुमसुरहिस मलयदेसु जहिं गरहिं परिदिउ अमरवेसु । रइकाइयवकीलाकोच्छरास जहि कामिणीठ णं अच्छराउ । जहिं कामधेणुणि गोहणाई जहिं कप्परक्वेरिद्धई वणाई । जहिं णिचमेव मंगलणिणद्दु तहि पुरषरु णामें रायभद्दु। रणरंगतुंगमायंगसीह
दढरहु परिंदु जयजयसिरीहु । मुह यंदोहामियरुदचंद
महएवि तासु णामें सुणंद । विसहरवंदारयवंदवंदु
एयह गंवणु होसइ जिणिंदु । जज्जाहि तर्वि तुहुं करहि तेष संभवइ णर्यरु एक दिव्यु जेंव।
घत्ता-सा पासवणेण तं पट्टणु कंचगु घद्धिवं ॥
मणिकिरणकरालु सग्गखंड गावइ पडिर्ड ॥४॥
___ अनुपम सुखको संप्राप्तिके क्षणवाले मनसे वह स्त्रीरमण करता है, वह अपनी शुक्ल लेश्याका कभीका परित्याग कर चुका है, जिनको प्रणाम करता है और उनके चरणरूपो अक्षतोंको ग्रहण कस्ता है। तमप्रभा नरक तक वह देखता है और जानता है, आठ गुणोंसे युक्त और महिमामें महान् । उसके जोधन प्राणके छह माह शेष रहनेपर इन्द्र अपने ऋतु विमानमें कहता है-"हे कुबेर, जिसमें श्वापद परिभ्रमण करते हैं ऐसे जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें मलयवृक्षोंसे सुरभित मलयदेश है। जहाँ मनुष्योंने अमररूप बना रखा है। रतिकी केतवकोड़ामें दक्ष स्त्रियां ऐसी मालूम होती हैं, मानो अप्सराएं हों। जहाँ गोधन कामधेनुके समान हैं। जहां धन कल्पवृक्षोंसे सम्पन्न हैं। जहां मंगल शब्द प्रतिदिन होते हैं, वहाँ राजभद्र नामका नगर है। उसमें युद्धके रंगमें ऊँचे गज और सिंहोंके समाम तथा विषयलक्ष्मीके इच्छुक वृतरथ नामका राजा था। उसकी अपने मुखचन्द्रसे विशालचन्द्रको तिरस्कृत करनेवाली सुनन्दा नामकी महादेवो थी। नागराजों और देवोंके समहके द्वारा वन्दनीय जिनेन्द्र, इनके पुत्र होंगे। तुम जाओ और वहाँ इस प्रकार करो कि जिससे दिव्य घर और नगर उत्पन्न हो जायें।
पत्ता-तब कुबेरने स्वर्णमय नगरको रचना को, जैसे मणिकिरणोंसे उन्नत स्वर्गखण्ड गिर पड़ा हो ॥४॥ ४. १. A°रमण । २. AP उजुमास । ३. AP उडुविमाणि । ४. P जंबूदोवि मरहि । ५. AP मलयदम । ६. A कप्पणखणिजई । ७, मुहरदो । ८. P वाहं । ९. A णव । १.. AP कं पडिई।
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१५८
महापुराण
[४८. ५.१
जहि दोसइ तह सोवण्णभवणु जाह दीसह तहिं वर्णसुरहिपवणु। जहिं दोसइ तईि हरिणीलणीलु जाहिं दीसह तहिं वररमणिलीखें। जहिं दीसइ तहिं मंड, विचित्त जहिं दीसइ नहिं घुसिणावलित्तु । जहिं दीसाइ तहिं मुचावलिल्लु अहिं दीसइ तहिं णवतोरणिल्लु । जहिं दीसह तहि कप्पूररेणु जहिं दीसह तहिं गजियकरेणु । जहिं दीसइ तहिं थियकामघेणु जहि दोसइ तहिं वज्जतवेणु । जाहिं दीसह तहिं वीणारबालु जहिं दीसइ तहि अलिउलबमालु । जहिं दीसह तहि चलचिर्धचवलु जहिं वीसइ तहिं ससियंतधवलु ।
जाहिं दीसइ तर्हि विविहुपछवोह जहिं दीसइ तहिं कयरच्छसोहु । १० जहिं दीसह तहिं गलियमऊर जाहि दोसइ तहि सिरिविवफारु ।
घसा-जहिं दीसइ तेत्थु पुरब रु जणमणु राषइ ।
पिययमहि सरीरु जिह तिह चंगळ भावइ ।।१।।
तहिं विजयणदिरे णयंगि सियणेतिया णिएइ छेउओएरी
णिवणिहेलणे सुंदरे । रयणमंचए सुत्तिया । सिविणार ईमे सुंदरी।
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___ जहाँ दिखाई देता है वहाँ स्वर्णभवन है, जहाँ दिखाई देता है यहाँ वनका सुरभित पवन है। जहाँ दिखाई देता है हरे और नील मणियोंसे नील है, जहां दिखाई देता है वहाँ उत्तमस्त्रियोंकी लीला है, जहां दिखाई देता है वहां विचित्र मण्डप है, जहाँ दिखाई देता है वहीं केशरसे विलिप्त है, जी दिखाई देता है बड़ा मकावलिया है, जहां दिखाई देता है वहां न तोरण हैं. जहां दिखाई देता है कपूर की धूल है, जहां दिखाई देता है गरजते हुए हाथी हैं, जहां दिखाई देता है, वहाँ स्थित कामधेनुएँ हैं। जहां दिखाई देता है यहाँ बजते हुए वेणु हैं, जहां दिखाई देता है वीणाके शब्दका निनाद है. जहां दिखाई देता है वहां भ्रमरक्ल कलकल है, जहाँ दिखाई देता है वहाँ चंचल ध्वजाओंसे चपल हैं । जहाँ दिखाई देता है, वहाँ चन्द्रकान्तकी धवलता है। जहाँ दिखाई देता है वहाँ विविष उत्सवोंका समूह है । जहाँ दिखाई देता है, वहां की गयो रथ्या शोभा (मार्ग शोभा) है । जहाँ दिखाई देता है, वहाँ नाचते हुए मयूर हैं। जहां दिखाई देता है, वहाँ श्री और वैभवका विस्तार है।
पत्ता-अहाँ दिखाई देता है, वहाँ वह नगर जनमन-रंजन करता है। जिस प्रकार प्रियतमाका शरीर अच्छा लगता है, उसी प्रकार वह नगर अच्छा लगता है ।।५।।
वहाँ विजयसे आनन्दित होनेवाले राजाके सुन्दर भवन में रत्नमंचपर सोती हुई, नतांगो और श्वेतनेत्रवाली शोदरी वह सुन्दरो स्वप्न में यह देखती है, जो मदजल झर रहा है और जिसपर
५. १. AP गवं । २. P adda after this : जहि धोमा इ तहि खेयरह की लु, जहिं दौसइ तहिं सुरव
रहि मेल । ३. A मंडब । ४. P चलचिधु चवलु । ५. AP सिरिविविहफार | ६. १. AP विजयमंदिरे । २. A उओवरो; P तुच्छमओयरी । ३. AP इमं ।
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महाकवि पुष्पदन्त विरचित गयं गलियमयजलं भमियभिंगकोलाहलं । विसं रसियपेसलं खरखुरगखयभूयल। करालणाहभइरवं कयरवं च कंठीर। कुसेसणिवासिणि 'सिरिमुविंदसीमंतिथि। पसूयसयमालियं भमरपंतियाकालियं । विहुं विहियज्ञामिणिं खरयरं खचूडामणि । प्रसाण जुयलं चलं कुडजुयं ससंकामलं । सरोतहसरोवरं मयरमंदिरं गजिरं। मईदवरूढयं रणचित्तियं पीढयं । पुरंदरणिलणं भवणमुजलं भावणं ।
महारयणरासिय सिहिणमुरुसिहुब्भासियं । पत्ता-इय पेच्छिवि ताए रायह गपि समासियम् ॥
सिविणियफलु" तेण कंतहि कतै मासिउं ॥६॥
जस्स छत्तत्तय
जस्स लोयत्तयं। वहइ दासित्तणं कुणइ गुणकित्तणं । मणिमयरकंडलो जस्स आहंडलो। घिविवि णवकुवलयं णका कमकमलय। सो तुई तणुरुहो चंडि होही सुहो।
देवदेवो जिणो खंतिपोमिणिइणो । मंडराते हुए भ्रमरोंका कोलाहल हो रहा है, ऐसा मदगज, गर्जनामें बड़ा चतुर और तीव्र खुरोंके असभागसे भूतल खोदता वृषभ, विशाल नखोसे भयंकर, शब्द करता हमा सिंह, विष्णुको पत्नी और कमलमें निवास करनेवालो लक्ष्मी, भ्रपरपंक्तिसं शोभित पुप्पमाला, रात्रिको विहित करनेवाला चन्द्रमा, आकाशका चूडामणि सूर्य, मत्स्योंक। चंचल युग्म, चन्द्रमाकी तरह स्वच्छ कुम्भयुग्म, कमलोंका सरोवर, गरजता हुआ समुद्र सिंहोंपर आरूढ़, रत्ननिर्मित आसन ( सिंहासन ), इन्द्रका निकेतन, उज्ज्वल भावन-भवन ? ( यहाँ नाग लोकका उल्लेख नहीं है ); महारत्नराशि और प्रधुर ज्वालाओंसे भास्वर अग्नि ।
पत्ता-यह देखकर उसने जाकर राजासे निवेदन किया। उसने भी अपनी कान्ताको स्वप्नोंका फल बताया ||६||
हे सुन्दरी, जिनके तीन छत्र हैं, तथा त्रिलोक जिनका दासत्व वहन करता है और गुण कीर्तन करता है, मणिमय मकराकृति कुण्डलोंवाला इन्द्र, नवकमल अर्पित कर जिनके चरणकमलों की बन्दना करता है, ऐसे बह शुभ देव देव, शान्तिरूपी कमलिनीके लिए सूर्य, जिन तुम्हारे पुत्र होंगे । बुद्धि कान्ति श्री लक्ष्मी कौति ह्री, गर्भशोधन करनेवाली देवांगनाएं आयों मत्तगजगामिनी
४. Pणवासिणी । ५. A सिरि अविद । ६. P°सीमंतिणी । ७. AP भवर । ८.A मयंदसुर; P मइंदसिर । ९. AF रमणणिम्मियं । १०. P समासिउं 1 ११. AP सिविणयं ।
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महापुराण
[ ४८.७..बुद्धि कवी सिरी
लच्छि 'कित्ती हेरी। गमसुद्धीयरी
अमरवरसुंदरी। मत्तगयगामिणी
राइणो सामिणी। ताहि संसे दिया
तिस्थणाहं बिया। दुक्खपक्खक्खया
हेमवुट्टी कया। वित्तएणं सयं
जाप छम्मासयं । आइमासंतरे
किण्हएक्खंतरे। अटूमीवासरे
रविकिरणभासुरे। रिक्खर रूढए
उत्तरासाढए। माउयासंगओ
गम्भवासं गओ। तस्थ जंभारिणा
वेरिसंधारिणा। मणि
पुंजियं देपई। सोत्तको डीसमे
वारिहीणं गमे। जाणविद्धस यं
पल्लचोत्थंसयं। संजमे संमए
ण?ए धम्मए। पुप्फरतको
iTET परे। छोणमौलंकणे
बारसिल्ले दिणे। गंददेवीसुओ
विस्सजोए हुओ। तांव संतोसिओ
आगओ कोसिओ। अग्गि वाऊ"सही दंडधारोवाही। रिंछवाहो परो
वारुणासामरो। पोमसंखाहियो
सूलपाणी भयो। चमर यइरोयणो
भाणु मयलंछणो। सयल देवा रणे
तूसमाणा मणे । आगों तं पुरं
राइणो मंदिरं। राजाको स्वामिनी तीर्थंकरको माताको उन्होंने सेवा की। कुबेरने स्वयं दुखपक्षका नाश करनेवाली स्वर्णवृष्टि छह माह तक को। चैत्र माह के कृष्णपक्षके सूर्यको किरणों से आलोकित अष्टमीके दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्रके रूढ़ होनेपर, वह माताके उदरमें गर्भवासको प्राप्त हुए। उस अवसरपर शत्रुओं का संहार करनेवाले इन्द्रने स्वामीको मानकर दढ़रथ --तिकी पूजा की। नौ करोड़ प्रमाण सागर, समय बीतनेपर, तथा पल्यके चौधाई भाग तक (जन्मके पूर्व) ज्ञानका विध्वंस, संयम और सम्यक्त्व और धर्मका नाश होनेपर पुष्पदन्तके बाद माघ कृष्ण द्वादशीके दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्रके विश्वयोगमें नन्दादेवीको पुत्रकी उत्पत्ति हुई। इन्द्र अत्यन्त सन्तुष्ट होकर आया, अग्नि वायु और इन्द्रसे भयभीत यम रीछपर सवार एक और देव, वारुण सामर कुबेर शूलपाणि शिव चामर वैरोचन सूर्य और चन्द्र आदि सभी देवता मनमें सन्तुष्ट होकर, राजाके उस घर आये। ७. १. A कित्ति । २, A कति । ३. AP हिरी | ४. P भामिणी । ५. A कपाखंतरे । ६. AP पई।
७. AP पुन्जिओ दंपई । ८. A"विखंसिय। ९.A संयमे। १०. A छोलमालंधणे but records a Pin second hand : झोणमयलं ठणं इतिचापाठः । ११. सिहो। १२. A विहीं । १३. A वारुणो सामरो । १४.A आग तं परं ।
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-४८.८.१७]
महाकवि पुष्पवम्त विरचित पत्ता-उत्तुंगु सुवंसु फणयच्छवि गहभालियउ ।।
जिणमेरु सुरेहिं मेरुगिरिहि संचालिया ||
तम्मि सेलसिंगए
अंबुपरथरंग्गए। वंदिओ जसंसिओ
वजिणा णिवेसिओ। धम्मतित्थरायओ
दुक्खतोयपोयओ। सीयलेण सीयलो
पारिणा गुणामलो। सिंचिो महुच्छवे • देषदुंदुहीरवे। देवदित्तिपिंगलं
सबलोयमंगलं । गीय बालकदलं
चारु सच्छविच्छल। रायसमाणियं
जाइ ण्हाणवाणियं। रिगनानगरे
भइम्स कंदरे। कक्करे विलंरियं
चंचरीयचुंबियं । किंणरेहिं देदियं
दाणवाहिणदिर्य । संच्यं लयाहरे
णायसुंदरी सिरे। भगतोंडमंडणं
पावपंकखंडणं। झत्ति धावमाणय
धोयदंतिदाणयं। सित्तखेयरीयरं
अक्खकीलियाहरं। पत्ता-जंएव वहंतु भरइ सिहरिविवरंतरई॥
तं जिणण्हाणंबु हणज भवियजम्मवरई ।।८।।
पत्ता-जो ऊंचा है, सुवंशवाला और स्वर्ण आभावाला है, ग्रहोंसे घिरा हुआ है, ऐसे जिनश्रेष्ठको ग्रहण कर देवेन्द्र सुमेरुपर्वतके लिए चल पड़े।७|
वहाँ शैल शिखरके पाण्डुकशिलाके अग्रभागपर, यशसे अंकित वन्दनीय जिनवरको इन्द्र ने स्थापित कर दिया । देवताओंके नगाड़ोंकी ध्वनियोंसे युक्त महोत्सबमें धर्म तीर्थराज दुखरूपी जलके लिए जहाज स्वरूप शीतलनाथका शीतलजलसे अभिषेक किया गया। शरीरकी कान्तिसे पीला, सब लोगोंके लिए मंगलप्रद, जिसके द्वारा, नव अंकुर ले जा रहे हैं, ऐसा सुन्दर स्वच्छ और विरित तथा राजहंसोंसे सम्मानित, दिग्यवासोंसे सुन्दर, ऐसा महाभिषेकजल गिरि कन्दरामोंमें विलीन हो गया । भ्रमरोंके द्वारा चुम्बित, किन्नरोंके द्वारा वन्दनीय दानवोंके द्वारा अभिनन्दनीय लतागृहोंमें नागसुन्दरियोंके सिरोंपर च्युत, भग्नमुखोंके लिए अलकार स्वरूप, पापरूपी कीचड़को काटनेवाला, शीघ्र दौड़ता हुआ, हाथियोंके मदजलोंको धोनेवाला, विद्यारियोंके वरोंको अभिषिक्त करनेवाला इन्द्रियोंका कीड़ा घर।।
- घत्ता-जब इस प्रकार वह अभिषेक जल भरत क्षेत्र और पहाड़ोंके विवरों में बहता है तो वह सैकड़ों होनेवाले जन्मान्तरोंको नष्ट कर देता है ॥८॥ ८.१. A पत्थरंगए । २. P वैदि । ३. Aमविच्छल । ४. A म्हवणपाणिय; P वणवाणियं । ५.A संयुयं । ६. A अपिल'; P जक्ख; T अक्वं । ७. A जिणबरहाणषु ।
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१६२
महापुराण
[ ४८.९.१
तं सई हेट्ठामुहुँ जइ वि जाइ उद्धद्ध तो वि भन्वाई णेइ। सक्केण करिवि अहिसेयमदु आणि जिणपुंगमुं रायमदु । णिहियड महएविहि पाणिपोमि इंदिदिरु पप्फुझपोमि । वंदिवि कुमारु भावे विणाणि गउ सग्गावासहु कुलिसपाणि | जायष्ठ जुवाणु देवाहिदेउ कि वण्णमि रूवे मयरकेउ । जसु एक्कु वि देहावयउ णथि मेसैहु उवमिज्जइ केथ इस्थि । किं जिणहु अण्णु उवमाणु को वि कइयणु जंपइ धिहिमइ तो वि । हेमच्छवि संगरभीसणाई तणुमाणे गवई सरासणाई । पुठवह तरुण परिवडंति जा पंचवीससहसाइं जंति । फरिषसहविमाणावाहणेण तांबावेप्पिणु हरिवाहणेण । अहिमिचिवि देवहु पद्द बढ़ णारीगणणे सो वि बद्ध । महि माणंतड पुषहं गयाई पण्णाससहासई णिग्गयाई। तेणेहि दिणिकीलावणंति कीलंते णव कमलोयरंति । धत्ता-खरदंडकरंडि पिडियसणु करलालियर।
'गं सिरिताविच्छु मुख छचरणु णिहालियउ ॥९॥
यद्यपि वह स्वयं नीषा मुख करके जाता है, फिर भी भवों को ऊपरसे ऊपर ले जाता है। अभिषेक कल्याण करने के बाद इन्द्र उन्हें राजभष्ट नगर ले आया। उन्हें महादेवीके करकमलमें इस प्रकार दे दिया, मानो खिले हुए कमलपर भ्रमर हो। तीन ज्ञानके धारी कमारकी वन्दना कर इन्द्र अपने निवास स्वर्ग चला गया। देवाधिदेव युवक हो गये, रूप में कामदेवके समान उनका क्या वर्णन कही परन्तु कामको एक भी शरीरावयव नहीं है। मेषसे हाथीकी तुलना किस प्रकार को जाये ? क्या जिनका कोई दूसरा उपमान है ? फिर भी धृष्टमति कविजन तब भी उपमान कहता है। स्वर्णके समान कान्तिवाले वह शरीरके मानसे युद्ध में भयंकर नब्बे धनुष के बराबर थे। तरुणाई में जब पच्चीस हजार पूर्व वर्ष बीत गये, तो हाथी, बैल और विमानोंको वाहन बनानेवाले इन्द्रने याकर-अभिषेक कर उन्हें राजपट्ट बांध दिया। वह स्वयं भी भारी स्नेहमें बंध गये । इस प्रकार धरतीका उपभोग करते हुए उनके पचास हजार वर्ष बीत गये । एक दिन क्रोडावनमें कोड़ा करते हुए कमलके भीतर उन्होंने
घत्ता-कमल कोशमें करसे लालित और गोल शरीर मरा हुआ भ्रमर देखा मानो तमाल वृक्षका पुष्प हो ॥२॥
९. १. AP भवियाई । २. P पुंगवु । ३. A मसयतु । ४. A हसाई होति । ५. A "विवाणाचाहणेण ।
६. A माणततु । ७. A हयाई। ८. ताणेकरहि । ९. A तं सिरि ।
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-४८.१०.१४ ]
महाकवि पुष्पवास बिरचित
जं दिन मओ महुयरु सणालि ता चिं जिणु सिरिसबसाई हो विधिगत्थु धणु बरु कलत्तु स्वणि च खणि गायइ सरेहिं खपि द्विगु खणि विदति
सुकर सुहड हवं चाइ भोह हुर्ड्स चंग राव तु मर जहिं जहिं धप्पज्जइ तहिं जि बंधु सहुँ जाइ ण परियणसयण सत्थु भासंतई संजयसंम्मयाई अणुकूलितेहि तिलोयणाहु करिविप महित्र जेंत्र
१०
मयरंदालुद्ध आरणालि । अलिविहि होस अम्हारिसाई | जणु सयल मोहमहराइ मत्तु | खणि रोइ उ ताइ करेहिं । उद्यापणशु दमाई | हउं सूह एवं णिफणै जोइ । जोणीमुद्देसु संसरइ सरइ । अण्णाणण्णु उ यिइ अंधु । संसारिकासु वि को वि एत्थु । वा पाई सुरवर गुरुसयाई । तांत्राइव सामरु अमरणाहू जडु कइ किंकिरकइमि तेंव |
पत्ता- पियगोत्तद्दियत्तु पुणु पुणु हियव भावियष्ठ || संताणि सडिंभु रणाद्देण णिरूदियउ || १०||
१६३
१०
१०
जब उन्होंने नाल सहित कमलमें मकरन्द ( पराग ) के लोभी भ्रमरको मरा हुआ देखा तो जिन सोचने लगे, लक्ष्मीरूपी रसके लोभी हम लोगोंकी भी भ्रमर जैसो हालत होगी। हो-हो, धन, स्त्री और घरको धिक्कार, समस्तजन मोहरूपी मदिरासे मतदाला हो रहा है। वह ( जनसमूह ) क्षण में नाचने लगता है, क्षणमें स्वरोंसे गाने लगता है, क्षणमें रोता है और हाथोंसे अपने उरको पीटने लगता है | क्षणमें दरिद्र हो जाता है, और क्षण में वैभव में स्थित होकर अपने सिर ऊंचा कर गर्वसे चलता है । में सुकवि हूँ, में सुभट हूँ, में त्यागी हूँ, मैं भोगी है । मैं सुभग हूँ, मैं योगी हूँ। मैं अच्छा हूँ, यह कहता हुआ मृत्युको प्राप्त होता है, और यौनिके मुखों में रति पूर्वक भ्रमण करता है । जहाँ-जहाँ उत्पन्न होता है, वहां-वहां बन्धको प्राप्त होता है, अज्ञानसे आच्छादित यह अन्धा कुछ नहीं देखता। परिजन और स्वजनका समूह साथ नहीं जाता। संसार में यहाँ कोई Frater नहीं है । तब संयम और सम्यक्त्वकी घोषणा करते हुए लौकान्तिक देव वहाँ आये । उन्होंने त्रिलोकनाथको तपके लिए अनुकूलित किया । इतने में देवोंके साथ देवेन्द्र आ गया। उसने अभिषेक कर प्रभुकी जिस प्रकार पूजा की में जड़कवि उसका किस प्रकार वर्णन करूँ ।
पत्ता -- अपने गोत्र के हितका उन्होंने मनमें बार-बार विचार किया, और नरनाथने कुलपरम्परा में अपने पुत्रको स्थापित कर दिया || १० |
१०. १. A दिउ मनुयरु मज सणालि; P भुउ सुणालि । २. A उत्ताणणु जणु गग जाइ; P खणि उत्ताणनागण । ३. APविण्णु। ४. Aभति । ५. AP ण कोइ वि कासु । ६. संजयसंयमाई; P संजयसंगमाई । ७. A फिर कह कहनि 1
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१६४
५
१०
५
महापुराण
११
कंकहि सिवियहि चडिवि चलिउ ओणु सण महंतु माहम्मि मासि तिमिरेण कालि छोषषासु सैइ करेबि अवरहि दिणि णहयललग्ग सिंहद पत्र पनि गि ure परिहs ची घत्ता -
रंगरिदुर्षु घरइ पिणाच हुंकारु ण देश ण
पण गडइ ण दाइ ढकलद्दु सुरबहुरपण रइयाई जाई क वे पहणणडंभु बहु का वि भणइ ड चकपाणि नारायणु एहु ण होइ मात्र
[ ४८. ११. १
सुरयणु जयजय पभणंतु मिलिड | रियावरणई कम्मई खरंतु ।
मइ दिनि जायें वियालि । स रायसहा दिक्ख लेखि । भिक्खाइ परिणयरु | one as पत्ति पडिए । बहु का वि भइ देहि णारि । उ फणिकंकणु फुरिय करू ॥ चार गेयसरु ||११||
१२
बहु का वि भइ र पहु रुदु । वयणाई णत्थि चत्तारि ताई । बहु का विभs is हु बंभु । ण पजइराणच पाणहाणि । जामि विखाय भुषणभाइ ।
११
शुक नामकी शिविकामें चढ़कर वह चले। सुरजन जय-जय कहते हुए इकट्ठे हो गये । चारित्रावरणकर्मीका नाश करते हुए वह महान् सहेतुक उद्यानमें उतरे। माघ कृष्ण द्वादशीके दिन, सन्ध्शकालमें श्रद्धासे छठा उपवास कर एक हजार राजाओंके साथ दीक्षा लेकर दूसरे दिन जिसके अग्र शिखर आकाशसे लगे हुए हैं, ऐसे अरिष्टनगर में भिक्षा के लिए गये। ( उन्हें देखकर कोई वधू कहती है ) – कि इनका हृदय शून्यसे निर्मित नहीं है, ( यह शून्यवादी नहीं हैं ), यह अपने पात्रमें पड़े हुए पल (मांस) को नहीं खाते। रंगसे समृद्ध यह चीवर नहीं पहनते हैं ? कोई वधू कहती है कि यह युद्ध नहीं हैं। इनके पास तलवार नहीं है, यह कंकाल धारण करनेवाले नहीं
हैं, न इनके हाथ में कपाल है और न शरीरमें स्त्री है ।
बत्ता - यह पिनाक धारण नहीं करते, न नागोंका कंकण और स्फुरित हाथ है ? यह न हुकार देते हैं और न गीतस्वरका उच्चारण करते हैं ? ॥११॥
१२
न नृत्य करते हैं और ढक्का शब्दका प्रदर्शन करते हैं। कोई वधू कहती है कि यह रुद्र नहीं है। सुरवधू ( तिलोत्तमा अप्सरा ) के द्वारा जिनकी रचना की गयी है, ऐसे वे चार मुख इनके नहीं हैं, पशुवध अहंकारवाले वेदोंका कथन भी यह नहीं करते। कोई वधू कहती है कि यह ब्रह्मा नहीं हैं। कोई बघू कहती है कि यह चक्रपाणि (विष्णु) नहीं हैं-क्योंकि यह दानवोंके प्राणोंकी हानिका प्रयोग नहीं करते हैं, हे माँ, यह नारायण नहीं हैं, में इन्हें विख्यात विश्वबन्धु जानती
११. १. AP सुक्
। २. A ओयण्णु P अव ६. P फलु । ७, A णियपत्ति पनि । ८. A रिदु । १२. १. P । २. K प्राणहाणि । ३ AP जाणिषि ।
P बारहव । ४. A जाय। ५. P सबइ ।
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E५
-४८. १३.८]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित अरहंतु भडारउ दोसमुकु घरगंगणि पंगणि जाव ढुकु । अब्भागयवित्तिवियाणएण ताणविवि पुणव्वसुराणएण। तहु किउ भोयणु पासुयविहीइणिव संपीणिउ अक्खयणिहीह । णिवैसिरि कुसुमाई णिवाइयाई सुरणियरहि तूरई वाइयाई। पत्ता-संबच्छर तिपिण छम्मत्थु जे महि हिडियउ॥
विल्लई तलि देउ पाइचउक छडियउ ॥१२॥
तांवायउ सुरयणु करइ थोत्तु जइ तुहुँ गोवालु णियारिडु जइ पई कुडिलत्तणु मुक्कु ईस जइ तुहं संसारहु गिर विरत जइ तुहुँ मुक्कउ संगरगहण जइ तेई विद्धंसिउ सयलु कामु जइ तुहुँ सामिय संजमण्यासि तुह णाहासियई ण जइ पङति
संभरइ विरुद्ध जिणचरित्तु । तो काई णस्थि करि तज्म दंडु । तो काई तुहारा कुटिल केस । तो कि तेरैउ इह अहरु रतु । तो कि तुह तिजगपरिग्गहेण । तो किंतुहं पुणु संपण्णकामु। तो कि फैंमु कमलहु उपरि देसि । तो कियई चमरहं पति ।
है। इतने में दोषोंसे मुक्त भट्टारक अरहन्त घरोंके आंगन-आँगनमें पहुंचे। तब अभ्यागतको वृत्तिके जानकार राजा पुनर्वसुने प्रणाम कर प्रासुक विधिसे उन्हें भोजन कराया। राजा अक्षय निधिसे प्रसन्न हो गया । राजाके सिरपर कुसुम गिर गये । देवों के द्वारा नूय ( नगाड़े) बजाये गये।
पत्ता-तीन वर्ष तक वह छअस्य भावसे धरती पर घूमे फिर बेल वृक्षके नीचे स्वामी वह चार घातिया कर्मों के द्वारा छोड़ दिये गये ।।१२।।
तब देवसमूह आकर स्तुति करता है और विरुद्धरूपमें (विरोधाभास शैली) जिनचरित्रका स्मरण करता है, “यदि तुम अपने शव के लिए प्रमण्ड (कर्मरूपी शत्रुके लिए प्रचण्ड) गोपाल (ग्वाला, इन्द्रियों के संयमके पालक) हो, तो तुम्हारे हाथमें दण्ड क्यों नहीं है ? हे ईश, यदि तुमने कुटिलताको छोड़ दिया है, तो तुम्हारे केश कुटिल क्यों हैं ! यदि तुम संसारसे एकदम विरक्त हो, तो तुम्हारे अधर अधिक रक क्यों हैं ? यदि तुम परिग्रहके आग्रहसे मुक्त हो तो तुम्हें तीनों लोकोंके परिग्रह से क्या ? यदि तुमने समस्त कामको ध्वस्त कर दिया है, तो तुम सम्पन्न काम क्यों हो ? है स्वामी, यदि तुम संयमका प्रकाशन करनेवाले हो तो कमलोंके ऊपर अपने पैर क्यों रखते हो? हे नाथ, यदि तुम्हारे आश्रित लोगोंका पतन नहीं होता है, तो ये चमर तुम्हारे ऊपर क्यों
४. AP रायह घरपंगणि जाच डा। ५.AP फामुयं । ६. AP णिव । ७. AP णित्र । ८.A
"णियरें। ९, वेल्लिहि तलि । १३. १. P has befor: it : अप्पायज चलु जपपयक्खि, पूसह वदसि पढमिल्लपविण । २. गोवाल ।
३.AP तेर 3 महरग्गु रत्तु । ४.AP पई। ५. A तो पुणु किं तुह। ६. A P संपुष्णकाम् । ७. कम।
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१६६
१०
महापुराण
[४८. १३.५जे पई जि रउद्दई दूसियाइं तो आसणि कि सीहई थियाई। जा रयणई तुरु तिणि वि पियाई तो तुहुं किर णिरलंकार काई। धत्ता-थेणत्तु णिसिधु जई तुहे तो कैकेजितरु ।।
अच्छरकरसोह हरइ काई कयदलपसरु ।।१३।।
तहुं माणुसु मुवणि पसिधु जइ वि माणवियपयइ तुह पत्थि तइ वि । जइ कासु वि पई णड दंड कहिल तो कि छत्तत्तइ फुरइ अहिज | जइ रूसहि तुहुं सरमग्गणा तो किं ण देव कुसुमवणाहं । जइ वारिउ पई परि घाउ एंतु तो कि हम्मद दुंदुहि रसतु । जइ पई छडिय मंडलहु तत्ति तो कि पुणु भामंडलपवित्ति। कहिं ऍक्कदेसरहु तुह महेस केहिं बहुजणमासइ मिलिय भास । ण बियाणवि तेरउ दिवचार सोहम्माहिवइ सक्कुमार | इय दिदि योग र सनिपटा देषण सिढि णीसेस दिट्ठ । पत्ता-एयासी तासु जाया जाणियधम्मविहि ।।
गणहर गणणा गुरुयण गुरुमाणिकणिहि ॥१४॥ पहते हैं ? यदि रौद्र लोग तुम्हारे द्वारा दुषित कर दिये गये हैं, तो फिर तुम्हारे बासनमें सिंह क्यों हैं। यदि तुम्हें तोन (सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र) प्रिय हैं, तो तुम अत्यन्त निरलंकार क्यों हो?
पत्ता-पदि तुमने चोरीका निषेध किया है तो तुम्हारा अशोक वृक्ष अपने पसे फैलाकर अप्सराओंको शोभाका अपहरण क्यों करता है ||१३||
.
यद्यपि तुम विश्व में प्रसिद्ध मनुष्य हो, फिर तुम्हारी प्रकृति मानवीय प्रकृति नहीं है। यदि तुमने विश्वमें किसीके लिए दण्ड नहीं कहा, तुम्हारे छत्रत्रयमें वह अधिक क्यों चमकता है। यदि तुम कामदेवके बाणोंसे अप्रसन्न होते हो, तो है देव, पुष्पों की पूजासे तुम अप्रसन्न क्यों नहीं होते हो ? यदि तुमने दूसरेपर आघात करना मना कर दिया है तो बजते हुए नगाड़ोंपर आषात क्यों किया जाता है ? यदि तुमने मण्डलों (.देशों) में तृप्तिका परित्याग कर दिया है तो फिर तुममें भामण्डलोंको प्रवृत्ति क्यों है ? एक देश में उत्पन्न होनेवाले महेश, तुम कहाँ, और बहुजनोंको भाषासे मिली हुई तुम्हारी भाषा कहाँ ? हम तुम्हारे दिव्य आचरणको नहीं जानते।" सौषम और सानत्कुमार स्वाँके इन्द्र, इस प्रकार वन्दना कर दोनों बैठ गये। देव (शीतलनाथ) ने समस्त सृष्टिका कथन किया।
पत्ता-उनके धर्मविधिको जाननेवाले और गुरुरूपी माणिक्य निधिवाले महान इक्यासी गणोंके स्वामी गणधर हुए ॥१४||
८. A जड़; P जं। ९.AP तो तुह । १४. १. A माणसु । २. A P दॆतु । ३. A हम्मइ कि । ४. A एकादेस तुहह महेस; P एकस मर
सुई महेस । ५. A कि बहुजणभास; P कि बहुमणभासहि । ६. A P सणकुमारु ।
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महाकवि पुष्पदन्त विरचित
१६७
१५ महरिसिहि महाचरणायराई चनदहसय पुज्वंगाहराई। एक्कूणसहिसहसई सयाई दुइ सिक्खहुँ सिक्खोवहि रयाई। भयसहसई दोसय सावहीहिं पुणु सत्तसहासई केवलीहि । बारहसहसई वेवियाई इच्छियई सरूवई होति जाई । पंचेवं ताई णयसयजुयाई मणपज्जयर्ववई संथुयाई। सयसत्तपमाणुज्जोइयाई तह पंचसहासई वाइयाई । इय एक्कु लक्खु जायक्ष जईहिं लक्खाई तिण्णि वरसंजईहि । साव पर दो सुरमईहिं वनारि लक्ख जाहिं सावईहि। तहिं देवह बुजिलय केण संख संखेन तिरिय झ्यसंकख । भाभासुरु मन्वंभोयभाणु सर्ल्ड एत्तिएहिं महि विहरमाणु । सो पुथ्वसहासई पंचवीस अतिवरिसई उम्मोहेवि सीस । संमेयसेलि हल्लंततालि
सई भिक्खुसँहासे हरिणवालि । सतवप्पहावपरिवियलियासु थिउ देविसर्ग एक्कु मासु । पत्ता-आसोइ पवणि पुत्वासाढसिर्यहमिहि ॥
अवरहाइ सिद्ध थिउ मेई णियहि अटुमिहि ॥१५॥
महान् आचरणको धारण करनेवाले और पूर्वागधारी महर्षि चौदह सौ थे। शिक्षा-विधिमें रत शिक्षक उनसठ हजार दो सो, अवधिज्ञानी सात हजार दो सौ. केवलज्ञानी सात हजार, इच्छित रूप धारण करनेवाले विक्रिया ऋद्धि-धारक बारह हजार, मनःपर्ययज्ञानके धारक सात हजार पांच सौ, वादी मुनि पाच हजार सात सौ थे। इस प्रकार एक लाख भुनि थे। श्रेष्ठ संयमवाली आयिकाएं तीन लाख थीं। दो लाख श्रावक और चार लाख श्राविकाएं थीं। वहाँ देवोंकी संख्या कोन जान सका । शंका और आकांक्षासे रहित तिथंच संख्यात थे। प्रभासे भास्वर और भव्यरूपी कमलोंके लिए सूर्यके समान जिन, इन लोगोंके साथ परतीपर विहार करते हुए, तीन वर्ष कम, एक हजार पचीस वर्ष पूर्व तक मिथ्याष्टि शिष्योंको सम्बोधित कर, आन्दोलित ताल वृक्षोंवाले, और मृगोंका पालन करनेवाले वे सम्मेदशिखर पर्वतपर पहुंचे। एक हजार मुनिके साथ, अपने तपके प्रभावसे आशाओंको गलानेवाले वह, एक माहके लिए प्रतिमायोगमें स्थित हो गये।
___ पत्ता-आश्विन शुक्ला अष्टमीके दिन पूर्वाषाढ़ नक्षत्रमें अपराह्म के समय घे आठवी भूमि (सिद्धशिला) में जाकर स्थित हो गये ||१५||
१५.१. AP पुश्वगायरा । २. A सिक्खावा पियाई: P सिक्खापहि रियाई। ३.Aबारहसयाई। ४. A
पंखेव ताईवसंजयाई: PAसेव ताई वयसंजयाई। ५. Arcadoasband basan ६. A उम्मोहिम वि सीस । ७.A भिषखसहासें । ८. A सियछट्रिमिहि । ९. मेणिया।
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महापुराण
[ ४८. १६.१
वजट्टितुलाधणघडियगेहु सिहिदेवहिं दड्ड देवदेहु । अवरेकहिं फुल्लई घलियाई अपणा पर उगेशिया अवरेकहि किउ जयेणंदघोसु अण्णहिं णधि मणणयणतोसु । अवरेकाहिं थुउ संसारहारि अपणहिं हये अल्लारि पलह भेरि । अवरेकर्हि पैणमित्र मोक्खगामि अण्णहि वंदिय जिर्णसिद्धभूमि । अण्णहि अण्णण्णइं साहियाई वाहणई मेहवाहि वाहियाई। गय णियणिलयहु सुर विहवफार जिणगुणकहरंजियहिययसार । गयणयलि चैरंति चर्वति एव जगि कम्मबंधु को महई एंव। धत्ता-णिकिरिस करिवि मणवयणगई परिहरिवि ।।
थिउ सीयलसामि मोक्खमहापुरि पइसरिदि ॥१६।।
पसियउ परमेसरु परमेसमणु पुणु अक्खा गणहरु सेणियासु गयलेसि परिदिइ णाणसेसि तित्थंति तासु विच्छिण्णधम्मु क्णुि वत्तारयसोयारएहिं
अम्हेहं वि तहिं जि संभवउ गमणु । सम्मत्तरयणरुइसेणियासु । णिव्वाणु पराइड सीयलेसि । पसरिउ जणबह रयमइलु कम्मु । भवेहिं भवण्णववारएहि।
१६
ववर्षभनाराच संहमनसे गठित शरीरवाले देवके देहको अग्निकुमार देवोंने जला दिया । कुछ देवोंने फूलों की वर्षा की, कुछ और देवोंने काव्योंका उच्चारण किया। कुछ और देवोंने 'जय' और 'बढ़ो'का घोष किया । कुछ और देवोंने मन और नेत्रोंको आनन्द देनेवाला नृत्य किया। कुछ और देवोंने संसारका नाश करनेवाले उनकी स्तुति की। कुछ और देवोंने झल्लरी, पटव्ह और नगाड़ोंको बजाया। कुछ और देवोंने मोक्षगामी उन्हें प्रणाम किया, कुछ और देवोंने जिनसिद्ध भूमिको वन्दना की। दूसरोंने दूसरोंसे कुछ कुछ कहा और आकाशपथों वाहनोंको चलाया। वैभवके विस्तारसे युक्त तथा जिनके गुण-कथनसे अपने हृदयको रंजिल करनेवाले देव अपने-अपने विमानोंमें चले गये। वे आकाशतलमें चलते हैं और कहते हैं कि विश्व में कोन इस प्रकार कर्मोका नाश करता है।
पत्ता-मन, वचन और शरीरको छोड़कर और निष्क्रिय होकर शीतल स्वामी मोक्षरूपी महानगरी में प्रवेश करके स्थित हो गये ॥१६॥
परमेश्वर परमश्रमण प्रसन्न हो कि जिससे हमारा भी वहां गमन सम्भव हो। पुनः गौतम गणधर सम्यक्त्वरूपी रत्नको कान्तिपरम्परावाले राजा श्रेणिकसे कहते हैं, "लेश्यासे रहित, ज्ञानशेष शीतलनाथके निर्वाण प्राप्त कर लेने पर उनके तीर्थके अन्तमें वक्ताओं, श्रोताओं और संसार रूपी समुद्रसे तारनेवाले भव्योंके बिना, धर्मसे विच्छिन्न और पापसे मलिन कर्म फैल गया। जो
१६. ५. AP अवर्णविधीसु । २. A झल्लरि हम पहह । ३. AP कय बहुविधिहूइ । ४, AP डिणदेहभूइ ।
५. AP बहंति । ६. A मुथाह। १७. १. A परमसरणु । २. A अम्हई । ३. AP मवंतर।
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-४७. १८.१०]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित पुरगामणयरसोहाणिवेसि मलययसुरहिइ तहिं मलयदेसि । पडिवस्खलक्खसंजणियतासु भहिलपुरि सिरिमहावयासु । काले ते कुलगयणचंदु
घणरहु णामें जायज गरिंदु । णीहारसरिसजसविमलकति तह सञ्चकित्ति णामेण मंति। अत्थाणमज्झि सवविट्ठ राय एकहि दिणि दाणालाव जाय । पत्ता-आहास रद्दु भूरिसम्मु जिणधम्मचुउ । सालायणमुंदु णाम अणु कि जासु सुउ ॥१७॥
१८ गोदाणभूमिदाणंवराई कञ्चोलई थालई मणहराई। सोवण्णई रयणई अंबराई फलछेत्तई धवलहरई पुराई । हये गय रहवर पीणस्थणीउ कण्णा कलवीणालाविणीउ । वरदमपवित्तंकियफराह जो देइ णरेस दिएसराई। सो कणयविमार्हि विहलोत संप्राषमाण दिवु भोष । तं णिसुणवि पभणइ सञ्चकिचि कहि कामुउ कहिं परलोयवित्ति । कहि किंबह कहि अंबयफलाई कहिं खरयरसिल कहि सयदलाई। कहिं खीरु महुरू कहिं राइयाड
घंभणमईट कुविवेझ्याउ। . मगई मंचर वरभूमि मु मगाइ कुमारि मुंजइ सकामु ।
मुह बिभइ उयरु हणंतु रहा अण्णाणिउ भवसंसारि पड़ा। पुरों, गाँवों और नगरोंकी शोभाका निवेश है तथा मलयज सुरभिसे युक्त है, ऐसे मलय देशके भद्रिलपुर नगरमें लाखों प्रतिपक्षोंको संत्रास उत्पन्न करनेवालो लक्ष्मी और कल्याणका थर, अपने कुलरूपी गगनका चन्द्रमा धनरथ नामका राजा हुआ। उसका, नौहारके समान यश और विमलशान्ति वाला सत्यकीति नामक नया मन्त्री हुमा । एक दिन जब राजा अपने दरबारमें बैठा हुआ था, उसकी दानके बारे में बात चीत हुई।
पत्ता--जिन धर्मसे च्युत रौद्रभाव धारण करनेवाला भूरिशर्मा, और उसका शालायन मुण्ड नामका पुत्र, कहता है ॥१७॥
१८ गोदान भूमिदानादि, पानपात्र, सुन्दर थालियां, स्वणे, रत्न और वस्त्र, फल, क्षेत्र, पपल गृह और पुर, अश्व गज रथवर पोनस्तनी वीणाको तरह सुन्दर पालाप करनेवाली कन्याएँ, जो अपने श्रेष्ठ दर्भमुद्रिकासे अंकित्त हाथोंसे, हे राजन् ! ब्राह्मणेश्वरों को देता है, वह स्वर्णविमानोंसे विष्णुलोक जाता है और दिव्य भोगका आनन्द लेता है । यह सुनकर सत्यकीर्ति कहता है-'कहाँ कामुक, और कहाँ परलोक वृत्ति ? कहाँ नीम और कहां आम्रके फल ? कहाँ कठिन शिला, और कहाँ कमलदल ? कहाँ सुन्दर खोर, और कहाँ राजिका ? ब्राह्मणकी बुद्धि खोटे विवेकसे भरी हुई है । वह मैच, वरभूमि और सोना मांगता है, वह कुमारी मांगता है, और सकाम भोग करता है। पुत्रके मरने पर पेट पीटता हुआ रोता है और इस प्रकार अज्ञानी संसारमें भ्रमण करता है।
www.umrwar.
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४. AP तासु । १८. १. P गय हय । २. A लावणोउ । ३. AP णरेसु ! ४. AP संपावः। ५. AP मगह पर मंच
भूमि हेमू।
२२
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[४८. १८.११
महापुराण घत्ता-भक्खइ मृगमासु सुज्झाइ पिपलफंसणिण ||
णिउ गरयहु लोल णिग्घिणयंभणसासणिण ॥१८॥
अण्णाणिणि पसु पुगणेण रहिय बंधणताउणदुक्खेण गहिय । जा गाइ घरंति अमेज्झु स्वाइ सा कि संफासें सुद्धि देई। पाणिउ तणुसंग होइ मुत्तु सोत्तिय तं वुवइ किह पवित्तु । कयप्राणिवग्गणिप्राणियाइ कि एयै धुत्तकहाणियाए। जइ दुइ देश तो होउ चाइ कुच्छियदाण सरगहु ण जाइ। दिजइ सुपत्तु जाणिवि सणाणु सुय भेसह अभयाहारदाणु । भाविजइ जीव दयालु भाउ पुजिजा सामिस वीयराल । णियमिज्जइ कुवहि परंतु चित्तु जिज परंगुरका । धत्ता-जसु दिण्णइ दाणि होइ महंतु अणंतु फलु ।।
तं उत्तमु पत्तु पण वंवई परियलइ मलु ॥१५॥
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जे वजियपुत्तकलत्तणेह
दुद्धरमलपडलविलित्तदेह । अपरिग्गह जे गिरिगणणिलय भयलोह मोहमयमाणविलय । जे शिवडिय भन्बुद्धरणलील उबसग्गपरीसहसणसील |
पत्ता-वह पशुका मांस खाता है और पीपल वृक्षको छूनेसे अपनेको शुद्ध करता है । निर्दय ब्राह्मण-शासनके द्वारा लोग नरक में ले जाये जाते हैं ? ||१८||
१९ वह मात्र अज्ञानी और पुण्यसे रहित है। बन्धन ताड़न और दुःखसे गृहीत है। जो गाय जब चरती है तो अभक्ष्य खाती है, वह स्पर्शसे शुद्धि कैसे दे सकती है, शरीरके संगसे पानी मूत बन जाता है, फिर ब्राह्मण उसे ( मूतको ) पवित्र कैसे कहता है ? जिसमें प्राणीवर्गको निष्प्राण किया जाता है ऐसी इस धूतकथासे क्या ? यदि देव देता है, तो त्यागसे क्या? खोटे दानसे वह स्वर्ग नहीं जा सकता? ज्ञानपुर्वक सुपात्रको जानकर शास्त्र औषधि अभय और आहारदान देना चाहिए । जीवोंके प्रति दयाभावको भावना करनी चाहिए। वीतराग स्वामी की पूजा करनो चाहिए । कुपथमें जाते हुए मनको रोकना चाहिए । परधन और पर-त्रीका त्याग करना चाहिए।
पत्ता--जिसको दान देनेसे महान और अनन्त फल होता है, ऐसे उत्तम पात्रको प्रणाम करनेवालोंका मल दूर हो जाता है ||१९||
जो पुत्र और कलत्रके स्नेहसे रहित हैं, जो दुर्धर मल पटलसे अलिप्त देह हैं, परिग्रहसे रहित जो गहन गिरिरूपी घरवाले हैं, भय लोभ मोह मद और मानको नष्ट करनेवाले हैं, जो संसारमें गिरे हुए भव्योंका उद्धारलीला वाले हैं, उपसर्ग और परीसहको सहन करनेवाले हैं, जो
६. AP मिगमासु । ७, AP पिप्पल । १९. १. A अण्णाणि । २, A होइ । ३. AP क्रयपाणिवाणिपाणियाइ। ४. A एणइ । ५. A सुणाणु ।
६. A परहण । ७. पणवतहु ।
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-४८, २१.५]
महाकवि पुष्पवन्त विरचित
जे अरिबंध बहु मि समसहाव दिज्जइ जोग्गउ आहारु वाह सत्थे णाणु अण्णेण भोले अभयो हेर्हि परियल रोउ ता सालायण मुंडे उत्त विणु आगमेण किं तुहुँ पमाणु पडिउत्तर दिष्ण सावपण अम्हारडं सागु णत्थि बप्प राहु पैप तुह सुई
णिग्गंथ णिरंजण मुगावें । मज्झणि पट्ट मुणिवराहं । फलु दाणसूर व लहइ लोड | पण कथा विणिहाल दुक्खजोडें । दावहि तेरहं सिद्धंतसुत्तु / भाणवु पायमाणय सभाणु । इह सीयलपरमेसें गएण । जं च तं तुहुं चहि विप्प | दावहि दियवरदावियगई ।
घत्ता-ता कुणयरपण विध्वे जिणम णिरसियनं ॥ सई विरsवि क आणिवि रायहु दरिसियचं ॥२०॥
रइगाई ललियाई कब्वाई भणिऊण तवासराओ तहिं दुहिययाई गुरुदेव पडिकूलप्पण्णाबाई कय पियर मिससिय पैसुपेसिगासाएं गोदाणभूदाई
२१
देहीणे संदेहबुद्धी अणिऊण । गिद्धम्ममम्गन्मि कम्मेण निहियाई । वसुविचित्तमित्तभावाई | पेयले महुसोमबाणाहिलासाई । जिलाई पठाएँ ।
१७१
५
शत्रु और मित्रमें समान स्वभाववाले हैं, निर्ग्रन्थ निरंजन और गर्वसे मुक्त हैं, मध्याह्नमें आये हुए ऐसे मुनियोंको योग्य आहार देना चाहिए। शाखसे ज्ञान होता है, और अन्नसे मोग होता है । है राजन, दानशूर व्यक्ति संसारमें फल पाता है । अभय और औषधियोंसे रोग नष्ट होता है । और कभी भी वह दुःखका योग नहीं देखता । इसपर शालायन मुण्ड बोला- तुम अपना सिद्धान्त सूत्र बताओ, आगम के बिना तुम्हारा क्या प्रमाण ? मनुष्य तो प्राकृत मानव के समान है । तब उस श्रावकने प्रत्युत्तर दिया- परमेश्वर शीतलनाथके मोक्ष चले जाने पर हे सुभट, हमारा शासन नहीं है । विप्र, इसलिए तुम्हें जो कहना हो वह कहो । तब राजा घनरथ कहता है - जिसमें द्विजवरों की श्रेष्ठ गति बतायी गयी है, तुम अपने ऐसे शास्त्र बताओ ।
घता - तब कुनय में रत उसने जिनमतका निरसन किया। स्वयं काव्यकी रचना कर और लाकर उसने राजाको दिखा दिया ॥ २० ॥
२१
रचे हुए सुन्दर काव्य कहकर, शरीरधारियोंमें सन्देह उत्पन्न कर उस दिन से वहाँ दृष्ट हृदय कर्मके द्वारा धर्महोनमार्ग में लगा दिये गये । गुरुदेवको प्रतिकूल करने में जिन्हें अहंकार उत्पन्न हो गया है, जिनके सुविचित्र मिथ्यात्वभाव बढ़ रहे हैं, पितरोंके बहाने किये गये यज्ञमें जिन्होंने पशुओं की मांसपेशियोंको खाया है। जिनमें मधु और सोमपान करनेकी इच्छा तीव्रतम
४. A पडत ५, सोमपाणां । ६. उट्टियं । ७. AP बट्ठाई ।
Á
२०. १. AP गलियगाव । २. P पवणु P adds after thes : वलतुलिडं गाई लोकभव । २. K नृष । ४. Padds: पन्चेलिड पावद्द सरसु भो । ५. AP पपई |
२१. १. A बेण । २. A देवगुरुकुलणुपणगव्वाई; P देवदप विकूणनाथा । ३. A अमागासा |
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१७२
महापुराण
[ ४८. २१.६गुणवंतणिविर णियकुलमयंधाई दुग्गंधरसभरियणवदेहरधाई । मयहचट्टिरइं पाणियसपश्चाई हिंसाइ घडियाई पन्भट्ठसञ्चाई। धरियक्खनुसार मृगंचम्मकाई नागवंड कासा प्रवासाई । धणधरणिघरपणइणीमोहमूदाई छकम्मगंभीरजरकूवछूढाई। दुग्धोट्टदुप्पोसपोसणपयट्टाई सुयसत्यवित्थारविलसियमरहाई । आसमयावेसपसरियविडंबाई जीवति दीणाई बभणकुटुंबाई । घत्ता-यसीयलदेवि भरहि जाय परपत्तविहि ।।
__ संपीण विप्पु गुप्फदत पणवंत सिहि ।।२१।। इय महापुराणे तिसटिमहापुरिषगुमालंकार महाकइपुप्फर्यतविरहए महामन्यमरमाणुमणिनए महाफम्वे सीयलणादणिवाणयमणं णाम भट्टयोलीसमो परिच्छेओ समत्तो ॥४॥
___॥ संयलगोहचरिषं समतं ।
है । गोदान और भूदानमें जिनको तुष्णाएं बंधी हुई हैं। जो करका अगला भाग आये हुए कृष्ण की तरह दिखाई देते हैं, गुणवानों की निन्दा करनेवाले तथा अपने कुलके लिए जो मदान्ध हैं। जिनकी नवदेह दुर्गन्ध रससे भरित है। मृगकी हड्डियोंको चाटनेवाले, पानीसे पवित्र होनेवाले, हिंसासे रचित, सत्यसे भ्रष्ट, अक्षसूत्र धारण करनेवाले, मृगचर्मसे भूषित, पलाश दण्ड धारण करनेवाले, और गेरुए वस्त्र पहिननेवाले, धन भूमि घर और प्रणयिनोके मोहसे मूढ़ छह कर्म रूपी गम्भीर पुराने कूपमें पड़े हुए, मधु और मांसके पोषणमें लगे हुए-श्रुत शास्त्रोंके विस्तारमें विलसित अहंकारवाले ब्रह्मवारी गृहस्थ वानप्रस्थ और यतिके रूपमें जो लोकको प्रचित करनेवाले हैं, ऐसे दोन ब्राह्मण-कुल जोवित रहते हैं।
__ पत्ता-शीतलनाथके निर्वाण प्रांस कर लेने पर भरतक्षेत्रमें दूसरे पात्रोंकी विधि फैल गयी ( पुष्पदंत करि कहता है ) कि आगको प्रणाम करता हुआ विप्र प्रसन्न होता है ॥२१॥
इस प्रकार श्रेसठ महापुरुपोंके गुगालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विचित महाभम्य मरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका शीतनाथ निर्माण गमन माम का भडतामासों परिच्छेद समाप्त हुभा ॥१॥
८.A मयहुंडचंडिगई; P मयाहुबढिाई । ९. A मयचम्म'; P मिगचम्म । १०. दुग्धघोस । ११. AP आसवमयास । १२. A अटुतालीसमो । १३. AP omait the line 1
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संधि ४९
दहमउ गुरु मई तुह कहिउ देउ मोक्खमाणससरइंसु॥ अवरु वि सुणि सेणिय भणमि एयारहमउ जिणु सेयंसु ॥ध्रुवका
जासु ण मुका मार मगण जो जाणइ जीव गुण मम्गण । जेण ण खंडणु किट चारित्तहु तषपडभार णिचारित। जो ण वडिउ संसारसमुहह मुहिउ जेण तिलोउ समुहइ । अकयइ णिचइ पडिमारूवा जासु ण रमइ दिद्वितियेरूवइ । जो णाणे पेक्खइ णीसेसु वि पयजुयलइ णिवढइ जसु सेसु वि । जो सुझियमाहियम्महु विसहरू जो पंचिंदियविसहरविसहरू । जेण राज मेविय भुयंगय । जासु ण पत्तावलि षि मुरंगय । मालि ण दिज्जइ जसु विलक्षाउ जो अपणु तिहुर्याण तिल उल्लाउ।
सन्धि ४९ ( श्री गौतम गणधर कहते हैं )-"मैंने तुम्हें दसवें गुरु ( तीर्थकर ) शीतलनाथके विषयमें बताया कि जो मोक्षरूपी मानसरोवरके हंस हैं। हे श्रेणिक, मोर भी सुनो-में ग्यारहवें श्रेयांस जिनका कथन करता हूँ।"
जिसपर कामदेवने अपने तीर नहीं छोड़े, जो जीवके गुणस्थानों और मार्गणाओं को जानता है। जिसने चारित्रका खण्डन नहीं किया, तपके प्रभावसे जो शत्रभावसे रहित हैं, जो संसाररूपी समुद्र में नहीं गिरते, जिसने अपनी मद्रासे त्रिलोकको मुद्रित किया है। जिसको दृष्टि, अकृत्रिम नित्य प्रतिमारूप और स्त्रीरूपमें रमण नहीं करती, जो ज्ञानके द्वारा सब कुछ देख लेते हैं, जिनके चरण युगल में शेष संसार पड़ता है, जो पुण्यरूपी वृक्षके लिए मेघ हैं और पाँच इन्द्रियरूपी विषधरों के विषका अपहरण करनेवाले हैं, जिन्होंने रागरूपी विट को छोड़ दिया है, जिसपर टेदी पत्रावली
A has, at the beginning of this Samdhi, the following stanza -
सया सम्सो बेसो भूसणं सुद्धसील सुसंतुई चित्तं सम्पजीवेसु मेत्ती । महे दिवधा वाणी चारचारित्तभारो
अहो खण्डस्सेसो केण पुण्णण जाधी॥१॥ This stanza in found in P at the beginning of Samdhi L. K does not give it anywherer १. १. AP सुणु । २. र तृयरूवा । ३. P adds after this : पूरधिमुक्कर बंधविसे सु बि, सममगु
बहूधणेस गोसेमु वि. 1 ४. A महिसम्महु ।
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१७४
१५
जो परिहरण कयाइ वि कंकणु freचेलक जेण पडिवण्णचं तो विपरिहइ जो हि सु तदेवहु संचियसेयंस हु
सातमालतात रुसं कष्टि दे सिरिसंकुलु कलषषडियकलेषिं कयकलयलु aft खेमरु काईं वणिजइ स वायरंणि जैवर संधिज्जइ भडभडणि
महापुराण
वणवणु जे अत्यसमपणि जाई पर्यावर जण्णिौसिय पर मंडलवइ
[ ४९.१.११
or फंसइ सवित्त कं कणु । जइ वि चीक चंगडं पडिवण्णवं ।
पत्ता - पुणु अस्त्रमि तहु तणिय कह कित्ति वियंभव महुं जगमेहि ॥ पुखरवरदवंतरह सुरदिसि मेरुहि पुषविदेहि ||२१||
२
जो ढोयइ परि पिरु णिपणे हलु | यजुयल दिवि से सहु ।
सीयत रंगिणिपवरुत्तरतडि | वियसिय कमलको सरय परिमलु । दुमला सियफुलं धुलु | जहिं पिययमु पाएं कलहिन्न । तणु विरहेण ण वाहिर झिजइ । केसह बिाहरणि ।
इणि सावज्जपरिश्गहु | पासबद्ध णं घरमंडलवइ ।
भी नहीं है, जिसके भालपर तिलक नहीं दिया जाता, जो स्वयं त्रिभुवन में तिलक स्वरूप हैं, जो कभी भी कंकण नहीं पहनते, जिनका अपना चित्त जल और बीजका स्पर्श नहीं करता, जिन्होंने अचेलकत्व ( अपरिग्रहस्व ) स्वीकार कर लिया है, यद्यपि वस्त्र पटो ( रेशमी वस्त्र ) के समान रंगवाला है, तब भी वह नहीं पहनते । जो स्नेह रहित हैं, फिर भी निम्न ऊंच मनुष्यको (स्वर्गादि) फल देते हैं, कल्याणका संचय करनेवाले देव श्रेयांसके चरणोंको वन्दना कर ।
पत्ता - फिर में उनकी कथा कहता हूँ कि जिससे विश्वरूपी घरमें मेरी कीर्ति फैले । पुष्करवर द्वीपकी पूर्व दिशा में सुमेरपर्यंत के पूर्व विदेह में ||१||
२
सीता नदी साल तमाल और ताड़ वृक्षोंसे परिपूर्ण विशालतटपर देश-लक्ष्मीसे व्याप्त कच्छ देश है, जिसमें विकसित कमल-कोशोंका रजमल है । धान्य विशेषके वृक्षोंपर बैठे हुए गौरेयापक्षियोंका कफकल स्वर हो रहा है, जो वृक्षोंके फूलोंपर बैठे हुए भ्रमरोंसे चंचल हैं । उसमें क्षेमपुर नगर है। उसका क्या वर्णन किया जाय, जहाँ प्रियतमसे प्रणय में ही कलह किया जाता है। ( अन्यत्र कलह नहीं है) । जहाँ व्याकरण में ही सर ( स्वर और सर ) का संधान किया जाता है, अन्यत्र सका संधान नहीं किया जाता; जहाँ विरहते ही शरीर कृश होता है, रोगसे नहीं; जहां reath व्रण ही हैं, योद्धाओंकी भिड़न्तमें जहाँ व्रण नहीं होते । विम्बाधरोंके चूमने हो में जहां केशग्रहण होता है, अन्यत्र केशग्रहण नहीं होता है। जहां अर्थों और पदवाक्योंके समर्पण (सम्पादन) में पद विग्रह ( पदोंका विग्रह, प्रजाका विग्रह ) होता है, अन्यत्र आर्थिक लेन-देन में प्रजाकागड़ा नहीं होता, जहां जैनों में सावच्च परिग्रह नहीं होता, जहाँ शत्रुमण्डल के राजा इस प्रकार
५. AP ससि । ६. AP तो गवि । ७. A जह पिण्णेहलु ।
0
२. १. A वैसरिसंकुल । २. कलेवि; P फलंबि । ३. P पर । ४. A अर्याणि तल सावज्जपरिम्प P पद परसत्यहरणि कयविग्ग । ५. निसासिय ।
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-४९. ३.१०]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित जहि चोरारिमारिदालिब ई पासंडाई वि णस्थि रउद्दई। ताहि राणउ णलिणालयमाणणु गलिणप्पहु णामें णलिणाणणु । पत्ता भयभीयई महिणिवडियई जीर्य देव सविणउ अपंति ।।
जासु पयार्षे तावियई परणरणाहसयई कंपति ॥२॥
कलयलतचलफलकोइलगणि। तापणहि दिणि सहसंषयवणि । पेच्छिवि जिणु अणंतु वणवाले विण्णत्त सिरंगयमुयडालें । बहु तहिं तवसिहिङयवम्मीसरु गुणदेवहं भवदेवई ईसरु। परमप्पउ पसपण परमेसर आयट देई धम्मचकेसर। तं णिसुणेवि वेण वित्थंकर जाइवि वंदिउ दुरियनयंकह। बुझिवि धम्मु अहिंसालक्खणु चितिवि बंधमोक्खषिहिलक्खणु । देषि सुपुत्तु महिहिं परिरक्खणु सई रिसि तूयड राउ वियक्खणु । चरणमूलि जइवरहु अणंतहु चरइ मग्गि दुग्गमि अरहंतहु । पत्ता-णीलकिण्हलेसउ मयइ काउलेस दरें वरंतु
सुक्कलेस मुणिवत घरह भीमें तवता खिजंतु ॥३॥ संत्रस्त और पाशबद्ध हैं, मानो घरके कुत्ते हों । जहाँ चोर शत्रु मारी और दारिद्रय और भयंकर पाखण्डी नहीं है। उसमें लक्ष्मीका भोग करनेवाला और कमलके समान मुखवाला नलिनप्रभु नामका राजा था।
पत्ता-जिसके प्रतापसे सन्तप्त होकर, सैकड़ों शत्रुराजा काप उठते और भयभीत होकर धरतीपर गिरकर 'हे देव आपकी जय हो, विनयके साथ यह कहते हैं ।।२।।
इसनेमें एक दिन, जिसमें चंचल कोकिल-समूह कलकल कर रहा है, ऐसे सहस्राम्ब नामक वनमें अनन्त जिनको देखकर, वनपालने अपनी भुजारूपी डालें सिरसे लगाते हुए, उससे निवेदन किया, "हे देव ( उद्यानमें ) तपकी आगमें कामदेवको नष्ट करनेवाले गुणदेवों और विश्वदेवों के ईश्वर परमात्मा प्रसन्न परमेश्वर और धर्मचक्रेश्वर देव आये हुए हैं." यह सुनकर, उसने जाकर पापोंका नाश करनेवाले तीर्थकरकी वन्दना की। तथा अहिंसा लक्षणवाले धर्मको समझकर एवं बन्ध और मोक्षको विषि तथा लक्षणका विचार कर, अपने पुत्रको भूमिके रक्षण का भार सौंपकर, यह विचक्षण राजा स्वयं ऋषि हो गया। वह, मुनिवर अनन्तनाथके चरणमूलमें दुर्गम चर्यामार्गमें विचरण करने लगा।
पत्ता-वह कृष्ण और नोल लेश्या छोड़ देता है, कायक्लेशका दूरसे परित्याग करता है। वह मुनियर शुक्ल लेश्या धारण करता है और भीम तपतापमें वह अपनेको क्षीण करता है ॥३॥
६.A बीव । ३. १. A तावपणयदिणि । २. A सिरि गयं । ३. AP पमण । ४. AF देव । ५. AP मुघउ ।
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१७५
महापुराण
[४९.४.१
मंदरधीरु वीर दिहिपरियर इस्थिअस्थाणवणकरतरु । ण भणइ ण सुणइ णिप्पिहुँ गोरस एयारहवरंगसिरिधारस। कोहु लोहु माणु षि मुसुमूरह मायाभावु होंतु संचूर।। चक्खुसोत्तरसफासणघाणई जिणइ हणइ दुफियसंतागई। विहुणिवि षिष णिई सहे पणएं अप्प भूसह रिसि रिसिविण । ण सरह पुष्बकालेरइकीलणु ण करइ देतपतिएक्खालणु । णहरखंडणु सरूवरिपुंछणु करयलवट्टि सरीरणियच्छणु । इसण भसण भूभंगृ ससंसणु पाणिणंट परगुणविद्धसणु । साहिलासु सवियार दसणु णियडणिसण्णहरिणसंफंसणु । क्लरलोडि तणुमोहि ण इकछइ परमसाहु लिहियेष्ठ इव अफछ। पत्ता-बंधिवि तित्थयरत्त वहिं दसग सुद्धिा तोडिवि भंति ।।
अच्चुइ पुप्फुत्तरणिला जायउ सुरवरु ससहर कति ॥४|| आउ दुवीससमुपमाणई कोले गिलियई दुकामाई। तहु छम्मासु परिहिउ जइयहुं ___ अकालाइ जपरवाहु सुरवइ तइयई । जबुदीवि भरहि सोहर গৗগাথ।
धैर्य ही जिनका परिग्रह है ऐसी मैदराचलके समान धीर वीर निस्पृह एवं निष्पाप पह, सो भोजन नप और चौर्य कथाको न सुनते हैं और न कहते हैं, ग्यारह श्रेष्ठ श्रुतांगों की शोभाको पारण करनेवाले वह, कोष लोभ और मानको भी नष्ट कर देते हैं, पर श्रोत्र जिह्वा स्पर्श और प्राण इन्द्रियोंको जीत लेते हैं, और पापकी शृंखलाको नष्ट कर देते हैं। प्रणय के साथ, वह निद्राको भी नष्ट कर देते हैं, और वह मुनि ऋषिकी विनयसे स्वयंको विभूषित करते हैं, वह पूर्वकालकी रतिक्रीडाको याद नहीं करते, और न दन्तक्तिका प्रक्षालन करते है, नखका खण्डन, अपने स्वरूपका मार्जन, करतल रूपी वर्तिकासे शरीरको देखना, हंसना बोलना, भ्रूभंग : मा श्वास लेना, हाथ हिलाना, परगुणोंका नाश करना, अभिलाषापूर्वक और विकार साथ देखना, निकट वैठे हरिणोंका स्पर्श करमा, नख छोटे करना, शरीर मोड़ना, वह नहीं चाहते । परम साधु चित्रलिखितकी तरह, स्थित रहते हैं।
घता-वहीं, दर्शन विशुद्धिसे भ्रान्तिको नष्ट कर और तीर्थकर प्रकृतिका बंधकर, अचयत स्वर्गके पुष्पोत्तर विमानमें वह चन्द्रमाकी कान्तिवाले देव हो गये ॥४॥
उसकी आयु बाईस सागर पर्यन्त थी। समयके साथ नए होने पर उसका भी अन्त | पहुंचा। जब उसके छह माह शेष रह गये, तव इन्द्र कुवेरसे कहता है, 'जम्बूद्वोपके भरतक्षेत्रों ४. १. A इथितिणिय' and gloss अस्ति भोज्य; ? हत्यिसपणिय । २. A Pणिप्रि । ३. AP मोह। ४, P णिहें। ५. A वकालि । ६. P रिपेच्छणु । ७. पाणिगइ। ८. पिणहं
हरिणहं फसणु; P"णिसणहं णवि संघमण । ९. P लिहित हव । ५.१. AP'समाणई । ३. A कालि ।
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१७७
-४९. ६.८]
महाकषि पुष्पदन्त विरचित आइदेवकुलसंवबजायज विठु णाम राण: विक्खायठ । पंदादेवि तासु घरसामिणि कामसुइंकरि णं सुरकामिणि । तगुरु तेओहामियदिणयरु एचई दोहं वि होसइ जिणवर । ताहं सुरिई तुहूं करि भण्डारउं रयणफुरंतु णयह चबदार। धणएं पुरुं पविणिम्मिई सेहर्ड मणुयहि वण्णहुँ जाइ ण जेहई । धत्ता-ता णजइ दिणु णिच जहिं जा सरवरि कमलई वियसति ।।
वरमणिकिरणहि सोंतडिय उम्गय रवियर णड दीसंति ।।५।।
तहिं मयणाला 'सिरिअइसनराइ पच्लिमरयणिहि णिइंधेयइ । पुण्णचंदसोहियमुहयंदइ सिविणपति अवलोइय णंदद। अविरयगलियदाणधारालउ भमियसिलिम्मुद्दोलिसोंडाल। वालहिसण्हाककुखुरमणहरु सवरहेड रुइरंजियससहरु । कृडिलणहरु भइरवरंजेणरबु गिरिगुहणीहरंतु कंठीरवु । कण्णतालहृयमहुलिहविदेहि सिरि सरि सिंचिन्नति करिदहिं । मालाजुयलु भिंगपियकेसर मा मिसिम णु मासुरु णेसर।
कलमजुयलु णवक्रमलु सकोमलु मीणमिहुणु जलकीलाचंधलु । धन जन कण और गोधन और गुणोंसे प्रचुर सिंहपुरमें, आदिदेवको कुल परम्परामें उत्पन्न विष्णु नामका विख्यात राजा है। उसकी गृहस्वामिनो नन्दादेवी है । काममें शुभंकर वह सुरकामिनीकी तरह है। अपने तेजसे दिनकरको तिरस्कृत करनेवाले जिनवर इन दोनोंके पुत्र होंगे । इसलिए तुम शीन रत्नोंसे चमकता हुआ चारतारों वाला नगर बनाओ। कुबेरने इस प्रकारके नगरकी रचना की कि जिसका मनुष्यों के द्वारा वर्णन नहीं किया जा सकता है।
__ पत्ता--जहाँ सरोवरमें नित्य ही कमल खिलते हैं इसलिए दिन जान नहीं पड़ता, श्रेष्ठ मणिकिरणोंसे मिश्रित ऊगी हुई भी सूर्यकिरणें दिखायी नहीं देतीं ||५||
वहाँ श्री से अतिशय भरपूर रात्रिके अन्तिम प्रहरमें शयनतलपर नींदमें सोयी हुई, पूर्णचन्द्र के. समान शोभित मुखचन्द्रवाती नंदादेवी स्वप्नमाला देखती है। अविरत झरती हुई मदधारासे युक्त और भ्रमण करती हुई भ्रमरपंक्तिवाला महागज, पूँछ गलकम्बल ककुद और खुरोंसे सुन्दर और कान्तिसे चन्द्रमाको रंजित करनेवाला वृषभ, कुटिल नख और भयंकर गर्जन शब्दवाला पहाड़की गुफासे निकलता हमा सिंह, अपने कानों के तालोंसे मधुकर समूहको आहत करते हुए गजेन्द्रों द्वारा सिर पर अभिषिक श्री भ्रमर और पीली केशरसे युक्त मालायुगल, लक्ष्मी ? और रात्रिका मण्डन (चन्द्रमा), भास्वर सूर्य, कोमल नवकमलोंसे सहित कलशयुगल, जलक्रीड़ासे चंचल मीनयुगल, सरोवर, समुद्र,
३. AP संतर जामउ । ४. A पुरु दिणिम्मिउ । ५. A सरवरकमलई । ६.१, Aणिरु भइसक्ष्य। २.AP णिहंधा। ३.A सिविणयतह: T त पतिः । ४. AP अविरल ।
५.A भइरवर्भ जगरज । ६. A वैदहि । ७. A मिगु पिय । ८. A "मंडल । ९. AP कलसजमलु । १०. A मी गजुयल ।
२३
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महायुमण
[ ४९. ६.९सह सररासि चारुसीहासणु देवालउ फणिभवणु फणीसणु । १. माणिकोहु मोहमालाल
सिहि णहयलि जलंतु चलजालव । पत्ता-पद णिहालिवि चंदमुहि चंदकति सुहदसणपति ॥
जाइवि भासइ भूवइहि सुंदरि सुविहाणइ विहसति ||६||
महिवाइ मेहघोसु णिचप्फलु कहइ महासइहि सिविणयफलु । जसु आणइ हरि अच्छा गम्छा जो सयरायरू लोड णियच्छा। जो परु अप्पडं परहु पयास इ जासु दोसु तिलभेत्तु ण दीसइ । सासयसोकवसरोरुहछप्पड सो अरहंतु संतु परमप्पड । तेरइ गन्मइ अभाउ होस ता रोमंचिय णचिय मा सह। वुटु कुवेरु देवु णवणिहिहरु जा छम्मास तां चामीयरु । कंतिकित्तिसिरिहि रिदिहिबुद्धिउ । देविउ देविहि कियैतणुसुद्धि । आयउ जायउ जणउच्छाहल सग्गऊसचुउ अश्चयणाहला चित्तसुरासुरपंकयविदिहि
जेटहु मासह किण्हहि छट्रिहि । संवणि सुरिक्खह पच्छिमरतिहि । घिउ जयरंतरि पत्थिवपत्तिहि ।
जक्वणिहितइ दुक्खणिवारइ पुणु णवमांस सित्त वसुहारइ। सुन्दर सिंहासन, देवलोक, नागराजका नागलोक, मयूखमालासे युक्त माणिक्य-समूह, चंचल ज्वालामओं वाली आकाशमें जलती हुई आग।
पत्ता-चन्द्रमुखी और चन्द्रमाके समान कान्तिवाली और शुभ दन्तपक्तिवाली वह यह देखकर, दूसरे दिन सबेरे जाकर हंसनी हुई उन्हें राजाको बताती है ॥६॥
मेधके समान ध्वनिवाले निश्चल राजा उस महासतीको स्वप्नोंका फल बताते हैं कि जिसकी आज्ञासे इन्द्र बैठता और चलता है, जो सचराचर लोक देख लेते हैं, श्रेष्ठ जो स्वपरका प्रकाशन करते हैं, जिसके तिलके बराबर भी दोष दिखाई नहीं देता, जो शाश्वत मोक्षरूपो सरोवरके भ्रमर है वह अरहंत सन्त परमेश्वर तुम्हारे गर्भसे बालक होंगे। तब वह सती रोमांचित होकर नाच उठी । जब छह माह रह गये, तो नवनिधियोंको धारण करनेवाले कुबेरने स्वर्णवृष्टि की। देवीकी शरीर-शुद्धि करनेवाली कान्ति, कोति, श्री, ह्री, धुति और बुद्धि आदि देवियाँ आयीं। लोगोंमें उत्साह फैल गया । अच्युत स्वगंके स्वामी वह स्वर्गसे च्युत हए। ज्येष्ठमाहके कृष्णपक्षमें जिसने सुरासुरोंमें कमलवृष्टि की है ऐसो छठीके दिन, श्रवण नक्षत्रमें रात्रिके अन्तिम प्रहरमें राजाको पत्नीके उदरमें वे स्थित हो गये । यक्षके द्वारा की गयी दुःखका निवारण करने वाली धनकी धाराने फिर नो माह तक सिंचन किया।
११. A सिंहासणु । १२. A मोह मालालउ । ७. १. A फुबेरदेउ । २. A जाम । ३. AP कय । ४ AP जणि उच्छाहल । ५. A कण्मदिहि । ६. A
सवणसुरिकखाई । ७. APावमासु ।
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१७२
महाकवि पुष्पदन्त विरचित पत्ता छावहिलक्खछन्वीसहिं वि परिससहासहि रिद्धउँ ।।
सायरस छदिवि कोडि गय थक्कउ पुणु पोद्धउ ॥७॥
जइय€ वट्टइ णिन्वुइ सीयलि ट्ठव अरुधम्मु धरणीयलि। वइयतुं तिहि जाणहिं संजुत्तर पुम्बजम्मि भावियरयणतट । फैगुणि एयारहमे वासरि णिश्चमेव खिजंतइ ससहरि । विण्हेंजोइ उप्पण्णउ जोइल मायइ तारहिं णयणहि जोइप । आवेप्पिणु भत्तिइ तरुणीलहु
मेहलविरइयतारामालह । सिहरकुहरथियखगरामालहु
अमरवरेसे णित सुरसेलहु । णिहियड पावपर्डलणिपणासणि "पंडुसिलायलि पंचासासणि। उत्त मंत विहि सयल करेप्पिगु खीरंभोणिहिखीक लएप्पिणु । पत्ता-सायकुंभमयकुंभकर एंति गयणि णञ्चंति णवंति ।।
खीरवारिधारासहिं देवदेउ भावेण हवंति ॥८॥
सुरपेल्लिर णं डोल्लई मंदरु अलिझंकारई सरलई सदलई कलि कमलि आसीणई हंसई
कलसह सहसई लेइ पुरंद। कलसि कलसि संणिहियई कमलई। हंसई कयकलसरणिग्योसई ।
धत्ता-जब सौ सागर और छियासठ लाख छब्बीस हजार वर्ष कम एक सागर प्रमाण समय बीत गया, और जब आधापल्य समय रह गया ||७||
कि जब शीतलनाथ निर्वाणको प्राप्त हए थे और अहंतधर्म धरतीतल पर नष्ट हो गया था। तब तीन ज्ञानसे युक्त पूर्व जन्ममें रत्नत्रयको भावना करने वाले योगी श्रेयांस फागुन माह के कृष्ण पक्षकी एकादशी के दिन कि जब चन्द्रमा प्रतिदिन क्षोण होता जा रहा था, विष्णु योगमें उत्पन्न हए। उन्हें मां ने अपनी उज्ज्वल आँखोंसे देखा । भक्तिसे आकर इन्द्र उन्हें वृक्षोंसे नीले, जिसकी मेखला तारावलियोंसे शोभित है, जिसके शिखर-कुहरोंमें विद्याधर स्त्रियाँ स्थित हैं, ऐसे सुमेरुपर्वतको पारपटलको नष्ट करनेवाली पाण्डुकशिलाके सिंहासनपर उन्हें रख दिया। उक समस्त मन्त्रविधि पूरी कर, और क्षीरसमुद्रका जल लेकर ।
पत्ता-स्वर्णमय घड़े हायमें लिये हुए देव आते हैं, आकाशमें नाचते और प्रणाम करते हैं, क्षीर जलकी सैकड़ों धाराओंसे भावपूर्वक देवदेवका अभिषेक करते हैं ॥८॥
देवोंसे प्रेरित मन्दराचल मानो डगमगा उठता है। इन्द्र हजारों कलशोंको लेता है, प्रत्येक कलशपर भ्रमरोंसे संकृत सरल और सदल कमल रखे हुए हैं, कमल-कमलपर हंस बैठे हुए हैं, हंस
८.A सिह P सिद्धन । ९. A पुण्णट्टर । ८. १. A फगुणएमारहमइ। २. AP विडजोड; T विषहमोए ज्येष्ठानक्षत्रे। ३. AP°वलाय । ४. A
पावपाल । ५. A पंडसिलायकि । ६. A मंगल सासणि 1 १.१.P डोलइ ।
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महापुराण
. [ ४९,९. ४जे कलसर ते किर वम्महसर वम्महारि विवियणरामर । वम्महसरवरेहि जणु दारिउ जणवएषा हियवइ जिणु धारि। जिणु सिसु मयणहु अज्जु वि संकर तेण जि रइ थणजुयलु ण ढंकह । करइ कामु धणुगुणटंकारउ पसरइ अच्छरउलहं वियार । बहुएं से यंसेण णिच
सयमद्देण सेयंसु पत्तद। आणिवि पयरु समप्पिउ मायहि तणयालोयणवियसियछायहि । पणवेप्पिणु दुनियघणपवणड्ड गयठ पुलोमपिसुणु णियभवणहु। काले जतं वत्थुपमाण
वडिउ पुरि तइलोकहु राणउ । पत्ता-मच्छवि हि भडारहु जं दिट्ठउ तं जेय रहंति ।।
तासु असीइसरासणाई गणहर तणुपरिमाणु फहति ॥९||
एकवीसलक्खई बालतें
घल्लियाई वरिसह खेलतें । पुणु पुजिउ पोलोमीकंत
किउ रज्जाहिसेउ गुणवंते । रज्जु करंतहु कामरसद्द
दोचालीस लक्ख गलिय। एइस अवसर जायस जड्याहुं गाहें कीलोषणि तहि तझ्यहुँ । दिउ तंबिरपल्लवु चूयउ
मयणहुयासहु बीयउ हूयउ। ५ सो णं जालहिं जलइ णिरारित विरहीयणु ते ताविउ मारिष्ट । भी कलस्वरमें निर्घोष कर रहे हैं, उनके जो सुन्दर स्वर थे वे मानो कामदेवके तीर थे, जो मर्मका भेदन करनेवाले और मनुष्य और देवोंको विधारित करनेवाले थे। जब मामदेवके तीरोंने लोगोंको विदीर्ण कर दिया तो उन्होंने जिनको अपने हृदयमें धारण कर लिया। जिनदेव बालक हैं, तब भी वामदेव आज ही शंकित है, इसी कारण रति अपने स्तनयुगलको नहीं ढकतो। कामदेव अपने धनुषकी डोरीकी टंकार करता है, उससे अप्सराकुल में विकार फैल जाता है। अनेक कल्याणोंसे नियुक्त प्रभुको इन्द्रने श्रेयांस कहा । नगर में लाकर उसने, उन्हें पुत्रको देखने से जिनकी कान्ति विकसित हो गयी है, ऐसी मां को सौंप दिया। पापरूपी बादलोंके लिए पवन उनको प्रणाम कर इन्द्र अपने विमानमें चला गया । समय बीतनेपर, उपमानसे रहित त्रिलोकके राजा वह नगरमें बड़े हो गये।
घता-आदरणीय उनकी स्वर्णछविको जिसने देखा वह रह नहीं सका। गणधर उनके शरीरका प्रमाण अस्सी धनुष प्रमाण बताते हैं ।।९।।
खेल-खेलमें उनकी बाल्यावस्थाको इक्कीस लाख वर्ष आयु बीत गयो। फिर देवेन्द्रने उनको वन्दना को और गुणवान् उसने उनका राज्याभिषेक किया । राज्य करते हुए, कामरससे आई उनके बयालीस लाख वर्ष बीत गये। जब उनका यह अवसर आया तो स्वामीने क्रीडावनमें लाल-लाल पल्लवोंका आम्रवृक्ष इस प्रकार देखा, मानो वह कामरूपी अग्निका बीज हो। वह मानो ज्वालाओंसे जल रहा था, इसी कारण उसने विरहीजनको सन्तप्त ओर आहत
२. A किल से; P ते किल। 1. A°णिवियः। ४. पुलोमविमुण। ५, AP वत्युवमाणठ;
Tवत्यु अम्मोणउ । ६. Pतंतें अरहते । ७. P असीसरासणई। ८. Pकहते। १०. १. AP प्रणवते । २. AP पाहे कोलंत वणि तझ्यहु ।
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-४९. ११.८]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित पुणु कोइलु कलसः गजा णं वसंतपशु पउहाट बजइ । रुणुरुगंतु अप्पाणु ण चेयइ महुयरु महु पिएंवि णं गायइ । ता परमेसरु मणि मीमंसह अम्हार वणु अण्णु जि दीसइ । काले कइयवं अंकुरियर पल्लवियर कुसुमोलिहिं भरियउं। फलितं फलावलीहिं णं पणवह रही सयलहु लोयह परिणइ । परिणमंतु जगु णिविसु ण थक्का परिणामहु जडु जीउ ण चुकइ । धत्ता-जगु परिणामें दूसियत णिप्परिणाम सिद्ध परमेट्ठी ।।
हो हो अथिरेणेप्प महुँ णिरर्चल सेत्थु णिभिवि विट्ठी ॥१०॥
ता संपत तेत्थु सुरवरगुरु तेहिं तुरिउ पडिबोहित जगगुरु। सो आहेडलु तं सुरमंडलु
तं अच्छर उलु मणिमयकुंडलु । आयउ पुणु वि पहवणु किउं देवहु णिष्ट्रिय चरियावरणविलेबहु । विमलें सिवियाजाण जिगर पाहु मनोहर पंदणवणु गर । फगुणि कसणि एयारसिदियहइ । दियहादिवि अवरासासंगइ । सवणरिक्खि उपसमियकसायष्ठ भूबा मुकभूइभूभाय । उपवासढुवेण रिसि जायल सिद्धत्थर पुरु भिक्खहि आयउ ।
गंदाणरिंदें एंतु पडिलिट सुहर्षितु तह तेण पयच्छिउ। किया था। फिर कोयल कलकल शब्दमें गरज उठती है मानो वसन्त राजा अपना नगाड़ा बजा रहे हैं। भ्रमर गुनगुन करता हुआ, स्वयं नहीं चेतता, मानो वह मधु पीकर गा रहा है, तब परमेश्वर अपने मनमें विचार करते हैं कि हमारा वन तो आज दूसरा दिखाई दे रहा है। यह कालसे कंटकित और अंकुरित पल्लवित और पुष्पपंक्तियों से भरा हुआ है और फलकी कतारोंसे लदा हुमा मानो झुकता है, यही समस्त लोकको परिणति है। परिणमन करता हुआ यह विश्व एक क्षणके लिए नहीं सकता और परिणामसे यह जड़ जीव एक पलके लिए नहीं चूकता। ___पत्ता-यह विश्व परिणामसे दूषित हैं केवल सिद्ध परमेष्ठो परिणामसे रहित हैं । यह अस्थिरता रहे रहे, मैं अपनी निश्चल दृष्टिको वहीं अवरुद्ध करूंगा ।।१०||
PMHANIYAAN
११
सब इतने लोकान्तिक देव यहाँ आ गये। उन्होंने तुरन्त वहाँ विश्वगुरुको सम्बोधित किया। वही इन्द्र, वह पुरसमूह, वह मणिमय कुण्डलवाला अप्सरा कुल, वहाँ आया। चारित्रावरण कर्मके अवलेपको नष्ट करनेवाले देवका फिर अभिषेक किया गया। पवित्र शिविकायान में बैठकर देव निकले और स्वामी सुन्दर नन्दन वनमें पहुँचे । फागुन माहके कृष्णपक्षकी एकादशोके दिन, सूर्यके पश्चिम दिशामें प्रवेश करनेपर श्रवण नक्षत्र में, जो ऐश्वर्य और धरतीके भावसे मुक्त हैं, ऐसे वह उपशाम्तकषाय राजा दो उपवासोंके साथ मुनि हो गये। यह सिद्धार्थ नगरमें आहारके लिये गये ।
३. AP पिए । ४. P कंटइयउ कुरियन । ५, A परिणवतु । ६. AP परमेदिहि । ७. A होही ।
८.A णिच्चल तेसु णिभिवि विट्टिहि; P णिचलतेसु णिसभिवि दिट्टिहि । ११. १. A°वरण । २. AP विमलि । ३. A भूयई।
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१०
महापुराण
[४९.११.९दुइ वरिसई विहरेपिणु महियलि पुठिवल्लइ वणि तुबुरुतस्तलि । माइड मासह णिच्चंदइ दिणि छेइल्लइ सवणइ मयलंछणि | अनरण्हइ तिरत्तसजुत्तहु
अचलियपत्तलपविलणेत्तहु । धत्ता-संभूय केवलु तछ चिमलु णाणु सेण तेलोक्कु वि दिव॥
पत्त व सामर अमरवइ जिणु थुणंतु महु भावद घि8 ॥११॥
१२
तुहुँ जि देउ तुह णवइ पुरंदर तुहुँ थिरु सुह पीढुल्लर मंदरु। तुहूं तबुग्गु तुह बीहइ दिणयरु कंतिवंतु तुहूं तुइ ससि किंकरु । तुहें गहीर वरुणेणाणदित
तुहं अणिहणणि हि घणएं बंदिछ। तुहुँ रयतरुसिहि सिहिणा सेविड । तुहं जि मंति मंतीसहि भाविस । तुह पायग्गहि वाउ विलगड तो- वि ण तुहु पहु वाएं भग्गन । तुहं जमपासबसेण ण बदल जमु तुह सेवाविहिपडिबद्ध। तुहूं जि कालु कालहु कालुत्तर तुहं विवाह वाइहिं दिण्णुत्तरु । सन्वु वि जाणसि पेच्छसि जेण जि तुहुँ जि सम्वु सवाहिउ तेण जि | पत्ता-अङ्कपाडिहेरयसहिउ अट्टमहाधयतिसमेत ॥
समवसरणि थिन परमजिशु कह समयपयस्थहं भेउ ॥१२॥ नन्द राजाने उन्हें आते हुए देखा, उसने उन्हें विशुद्ध आहार दिया, दो वर्ष तक धरतीपर विहार कर पूर्वोक्त वनमें तुम्बर वृक्षके नीचे माघ कृष्ण अमावास्याके दिन, अपराह्य में श्रवण नक्षत्र में तीन रातके उपवाससे युक्त एवं अविचलित पलक विशाल नेत्रवाले।
पत्ता--उन्हें विमल केवलज्ञान उत्पन्न हो गया ! उससे उन्होंने तीनों लोकोंको देख लिया। इन्द्र देवों सहित आया। जिनको स्तुति करता हुआ वह ढीठ मुझे (कवि को) अच्छा लगता है ॥११॥
१२
देव तुम्ही हो, तुम्हें इन्द्र नमस्कार करता है, तुम स्थिर हो, तुम्हारा पीठ मन्दराचल है। तुम तपसे उग्र हो, तुमसे दिनकर डरता है, तुम कान्तिवान् हो, चन्द्रमा तुम्हारा किंकर है । वरुणके द्वारा आनन्दित तुम वरुण हो, तुम पापरूपी वृक्षोंके लिए अग्नि और अग्निके द्वारा सेवित हो, तुम्ही बृहस्पति हो, और वृहस्पतियोंके द्वारा भावित हो, वायु तुम्हारे पैरोंसे लगी हुई है, हे देव तब भी सुम वाए (वायु और वाद) से भग्न नहीं होते; तुम यमरूपी पाशसे आबद्ध नहीं हो, यम तुम्हारो सेवाविधिके लिए प्रतिबद्ध है, तुम्ही कालके लिए काल हो और कालसे श्रेष्ठ हो, वादियों के लिए उत्तर देनेवाले तुम विवादी हो, जिस कारणसे तुम सबको जानते और देखते हो, इसी कारण तुम सब, और सबसे अधिक हो।
पत्ता-आठ प्रातिहार्योसे युक्त आठ महाध्वजपंक्तियोंसे सहित, समवसरणमें स्थित परम जिन समस्त पदार्थोके भेदोंका कथन करते हैं ॥१२॥
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४. A omits तेण १५ १२. १. P मंदिरु । २. A तवगु; P सवंगू । ३. AP मंतु । ४. AP पढ़ तुहूं । ५. A समत्यु ।
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४२. १४. २]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
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कुंथुपमुह परणावियसुरवर तासु सद्विसत्तारह गणहर । रिसिहि धिणासियघोराणंगहं। तेरहसयई धरियपुवंगह। अडदोलई जि सहासई भिक्खुई दुसईए संजुत्तई सिक्खुई। लहसाहास अवहीपैरियाण तेत्तिय भणु मणपज्जवणाणहं । ते चिय पंचसयाहिय संतई केवलेधक्खुणिहालणवंतई। एयारहसहास वइकिरियई पंच वि वाइहिं बहुणयभरियहं । पयडियदुम्मेहवम्महमारिहिं संजमचारिणीहिं घरणारिहि । एक्कु लक्खु वीसेव सहासई दो लपवई साषयहं पयास । चहलक्खई देसम्पअधारिहिं माणवमाणिणी हि मणहारिहि । अमर असंख तिरिक्ख णिरिक्खिय सह संखाइ जिणिदें अक्खिय। एकवीस तहिं वरिसडे लक्खई बिहिं परिसहिं विरहियई ससोखंई । सुरवहरइयइ जणसुइसइइ महि विहरिवि अरहंतविहूइइ । घत्ता-गिरिसमधा मेहलाद लंबियकरबलु र जि मानु ।
जिह सो तिह तणु परिहरिवि अवरु वि संठिल मुणिहिं सहासु ।।१३।।
जीवेप्पिणु कयतिड्डयणहरिसह पहु सावणपुणियहि जणिहि
जिणु चउरासीलक्खई वरिसह । चदि परिविइ गपि धणिटुहि ।
जो सुरवरोंके द्वारा प्रणम्य हैं ऐसे कुंथु प्रमुख, उनके सत्तर गणधर थे, पोर कामदेवका नाश करनेवाले पूर्वांगोंको धारण करनेवाले तेरह सौ मुनि घे, अड़तालोस हजार दो सौ शिक्षक मुनि थे, अवधिज्ञानी छह हजार थे और इतने ही अर्थात छह हजार मनःपर्ययज्ञानी थे, केवल ज्ञानरूपी आँख से देखनेवाले केवलज्ञानी छह हजार पाँच सौ थे। विक्रिया-ऋद्धिको धारण करने. वाले ग्यारह हजार मुनि थे। पांच हजार बहुनयधारक वादो मुनि थे। प्रगट दुर्मद कामदेवका नाश करनेवाली संयमधारण करनेवाली आर्यिकाएँ एक लाख बीस हजार थीं। दो लाख श्रावक थे। देशनत पारण करनेवाली मनुष्योंके द्वारा मान्य सुन्दर भाविकाएँ चार लाख थीं । देव असंख्य थे और तिथंच संख्यात थे, ऐसा जिनेन्द्रने कथन किया है। दो वर्ष कम एक लाख इक्कीस वर्ष तक सुखपूर्वक, इन्द्र के द्वारा रचित जनके शुभ की सूचक अरहन्त को विभूतिके साथ परतीपर विचरण कर।
पत्ता-सम्मेदशिखरके कटिबन्धपर हाथ लम्धे कर एक माहके लिए जिस प्रकार वह उसी प्रकार दूसरे एक हजार मुनि अपने शरीरका परित्याग कर प्रतिमायोगमें स्थित हो गये ॥१३||
त्रिभुवनको हर्ष उत्पन्न करनेवाले चौरासी लाख वर्ष तक जीवित रहकर, श्रेयांस जिन, श्रावण शुक्ला को लोगोंको आनन्द देनेवाली पूर्णिमाके दिन चन्द्र के धनिष्ठा नक्षत्रमें स्थित होनेपर, १३. १. / अबवालसहासई भिक्या है । २. A दुइसाइसंजुत्तई । . AP परिमाणहं । ४. A केवलि सक्छ ।
५. A किरियह; P विकिरियह। ६. Aषामहं यम्मह। ७. AP संजमघारिणीहिं । ८. A समाखई।
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roga कम्म पडलपरिमुक देहपूज किये दसरायणेसें कलु विरसंतिहिं भाभेरिहि सिरंभ तिलोत्तमणारिहिं रुणायणिशंकारहि वफाई व वित्तई दिई दीवधू अपमाणई दीव धूमु जो गयणि व लग्गउ जिर्ण सेव पंकु पणासइ विषिणिसिद्धिं भचिअणुराएं
महापुराण
अट्टम धरणिवी खणि दुकउ । कर पंजलि ल्लियस यवतें । गच्चतिहिं गोरिहि गंधारिहि । सुरकामणिहिं विणवियारहिं ।
प्रणवं तहिं जलकुमारहिं । सीयलचंदजण व सितई । नीलीक अमरंगण जाणेहिं । ाई हुया सकलं विणिगगड | सध्वजं भासइ माय सरासर । जंतें जंपिष्ठ सुरसंघाएं ।
धत्ता-भरहि पण उद्धरिव विणिवा रेष्पिणु कुसमयकम् ॥ सेयं बहु सेयर कुंदपुष्पदंत जणधम्मु || १४ ||
[ ४९. १४. ३
महापुराणे विमिहारिपुकारे महाकपुष्यं तदिव
महामन्वभरखाणुभक्जिए
मद्दा संणिवाणगमर्ण णाम एक: पण्णासमो परिच्छेओ समती ॥ ९॥
१०
॥ सेयंस जिवरियं समयं ॥
कम्पटलसे परिमुक्त वह निवृत्त हो गये। एक क्षण में आठवीं भूमि पर जा पहुंचे। अपने हाथोसे जिसने शतपत्र फेंके हैं, ऐसे इन्द्रने उनकी देह पूजा की। सरस बजते हुए, भंभा भेरी आदि वाद्यों के साथ, नाचती हुई गोरी गांधारी उर्वशी रंभा तिलोत्तमा आदि स्त्रियोंको विकार उत्पन्न करनेवाली कामिनियों, तुम्बर और नारद को ध्वनियोंको शंकारोंके साथ, वहाँ प्रणाम करते हुए अग्निकुमार देवोंके द्वारा पुष्पांजलियाँ डाली गयीं और शोतल चन्दन से सिक्त, आकाश के प्रांगण में स्थित यानको नीला बनानेवाली दीप-धूप दो गयी। दीपका धुंआ आकाश में इस प्रकार लग गया, जैसा आका कलंक निकल गया हो। माता सरस्वतो ठोक ही कहती हैं कि जिनवरके शरीरको सेवा करनेसे पंक नष्ट हो जाता है, भक्ति के अनुरागसे मनुष्यकी सिद्धिको प्रणाम कर जाते हुए सुर
उक्त बात कही।
पत्ता -- खोटे सिद्धान्त और आचरणका निवारण कर, भरत क्षेत्रमें नष्टप्राय बहुश्रेयस्कर जिनधर्मका कुन्द पुष्पके ममान दाँतोंवाले श्रेयांस जिनने उद्वार किया ||१४|
इस प्रकार त्रसठ महापुरुषोंके गुणाकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामन्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का श्रेयांस निर्वा-गमन नामक उनचास परिच्छेद समाप्त हुआ ॥४५॥
१४. १. A २. P किय। ३. A उभसरंभ । ४ AP सहि संधुक्किय । ५. AP omit this line and the following ६. AP add after this : चित्त चंदणदणकट्टई जलियां गाइह अंगई दिट्टई । ७. AP गोल घूम गयणमणि लग्ट ८ A P जिणुं षणु । ९. A णिसिहि । १०. AP omit this line I
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संधि ५०
तहि सेयंसह तिथि देढमुयबलदपिट्ठहं ।। णिसुणहि सेणियराय रणु हयकंठतिविट्ठहं ॥ ध्रुवकं ॥
इह जंयूदीवि घरभरहखेत्ति मयमत्तमाहिसजुज्झवियमदि गोउलपयधाराधायपहिब पिच्चंतधण्णसंछण्णसीमि
चवलालिचंदणामोयवति । गजंतगामगोवालसहि। मणियमथियथद्धदहिह।। णिक णियडणियडसंकिणगामि |
सन्धि ५० "हे श्रेणिकराज, तुम श्री श्रेयांसके तीर्थकालमें अपने दृढ़ बाहुबलसे गर्योले अश्वग्रोव और त्रिपृष्ठका युद्ध सुनो।"
जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्रमें मगध देश है को चंचल भ्रमरोंके समान चन्दनवृक्षोंके आमोदसे युक्त है, जो मदमत्त भैंसोंके युद्धसे विदित है, जो गरजते हुए ग्रामगोपालोंके शब्दों से युक्त है, जहाँ गोकुलोंकी दुग्धधारासे पथिकजन सन्तुष्ट हैं, जिसमें मथानीसे गाढ़ा दही मथा जा रहा है, जिसकी सीमाएं पके हुए धान्योंसे आच्छादित हैं, जहां गांव पास-पास बसे हुए हैं, जिसमें जो रखानेवाली
Mss. A and have the following stanza at the beginning of this Samdhi:
भास्वानेककलावतोऽस्य च भवेद्यनाम तम्मङ्गलं सर्वस्यापि गुरुर्बुधः कविरयं चक्रे अयं व क्रमः। राहः केतुरये द्विषामिति दक्षत्साम्यं ग्रहाणां प्रभुः
संप्रत्योदयमातनोति भरतः सर्वस्य तेजोषिकः ॥ १।। K does not give it anywhere in addition, Phas also सया सन्तोसो भूसणं सुखसोलं etc. which in A is found at the begioning of IL for which see page 130. In addition, P has जगं रम्म हम्म दीवओ चन्दबिम्ब for which see page 165 of Vol. I. In addition, P has the following stanza :
दीनानाथपन सदाबहजन प्रोत्फुरलवल्लीवमं माभ्याखेटपुरं पुरंपरपुरीलीलाहरं सुन्दरम् । पारानाथनरेन्द्रकोपशिखिना दग्धं विदधप्रिय
क्वेदानी बसति करिष्यति पुनः षीपुष्पदन्तः कविः ।।१।। A gives this stanza at the beginning of LII. K does not give it anywhere १.१. AP विठभूय । २. AP चललकलि । ३. AP°जुझणविमहि । ४. AP मंचागामंपिह बहदहिए।
५. A fणयलणियल।
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१८६
महापुराण
[५०, १.७जववालिणि मोहिमगि पगसालिणिवडियविहंगि। सरिसरवरजलकल्लोलमालि सयदलणिलीणभसलउलणीलि । वसुमइमहिलासोहाणिदेसि कयुदुग्गहणिग्गष्ठि मगहदेसि । रायगिहणयरि पह विस्समूह तहु लहुयस भाइ विसाहभइ । पढमहु जइयो मृगणयण भज्ज बीयह लक्खण गामें मणोज्जे, पदरमियइ जइणिइ विस्सणं दि जणियच लक्खणा विसाइणंदि । सुय जाया बेणि वि गवजुवाण अच्छंति जाम सुहं मुंजमाण । ता राएं ससियरधवलदेहु गयणयलि पलोइसे सरयमेहु ।
घता-णं खलमित्तसणे सो सहसत्ति विलीण ॥ ___ उगु संसारु भर्णतु घिति चचकिउ राण ।।१।।
१५
जपा पहु जिणगुण संभरंतु सत्तंगरजसिरि परिहरंतु । जिहे णहर पवेणे एहु मेह णासेसह तिह कालेण देहु । होसंति सिविल संधिपएस होसंवि ईसहिमवण्ण केस ।
होसंति पयण मुहिरूवभंत होसंति इस्थ णित्थामवंत । ५ होसति सुणिव्यवसाय पाय मुहकुहरहु जिम्गेसइ ण वाय । (कृषक बालिका ) के शब्दसे हरिण मुग्ध है, जिसमें नवगन्धसे युक्त धान्योंपर पक्षी गिर रहे हैं, जो नदियों और सरोवरोंकी लहरोसे युक्त है, जो कमलोंमें व्याप्त भ्रमरकुलसे श्याम है, जो वसुमतीरूपी महिलाको शोभाका घर है, तथा जो दुष्टोंका निग्रह करनेवाला है, ऐसे मगध देशको राजगृह नगरीमें राजा विश्वभूति और उसका छोटा भाई विशाखभूति हैं। पहले को कमलनयनी जेनी पत्नी थी । दूसरे को लक्ष्मणा नामकी सुन्दर ली थी। पतिके द्वारा रमण की गयी पहली जैनो पत्नीने विश्वनन्दोको जन्म दिया, जबकि दूसरी लक्ष्मणाने विशाखनन्दीको। दोनोंके पुत्र नवयुवक हो गये । वे सुखपूर्वक भोग करते हुए रह रहे थे कि राजाने आकाशतलमें चन्द्रमाके समान सफेद शरीर शरद् मेघ देखा।
पत्ता-वह शीघ्न ही इस प्रकार विलीन हो गया, मानो खलजनका स्नेह हो, इस संसारको आग लगे-यह कहता हुआ राजा अपने मन में नौंक गया ॥शा
२
जिन भगवान्के गुणोंका स्मरण करता हुआ और सप्तांग राज्यश्रीका परिहार करता हुआ वह कहता है कि "जिस प्रकार पवनसे यह मेघ नष्ट हो गया, उसी प्रकार समयके साथ यह शरीर नाशको प्राप्त होगा। जोड़ोंके प्रदेश ढोले हो जायेंगे और बाल हंस तथा हिमकी तरह सफेद हो जायेंगे। नेत्र सुहृदोंके रूपको देखने में भ्रान्ति करेंगे। हाथ शक्तिसे रहित हो जायेंगे। पैर व्यवसायसे रहित होंगे। मुखरूपी कुहरसे वाणी नहीं निकलेगी। हे भाई, तुम राज करो, मैंने (यह) तुम्हें
६. A भसलोलिणीलिं । ७, AP मिगणयग। ८. P भज्जा । ९. P मणोजा। १०. A संचियषबलदेह। ११. A पकोयज । १२. P सिणेहु । १३, A वित्त चमक्किड। २.१.AP जिम । २. P पमणे । ३. A सिथिलि | ४. A णिगेस।
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१८७
-५०. ३.९]
महाकषि पुष्पदन्त विरचित तुहुं करहि रज्जु मई दिण्णु भाय रक्खेजसु णियकुलकित्तिछाय । ता थिउ संताणि विसाहभूइ णिग्गिवि गस काणणु विस्सा । महि विहवसार जरतणु गणेषि जोईसरु सिरिहर गुरु थुणेवि । सहूं भव्वणरिंदई विहिं सएहिं थिर्ड अप्पड महि वि महत्वएहिं । एत्तहि विसाहभई सुराउ . सो विस्सदि जुबराज जाउ ! पत्ता-गंदणवणि कीलंतु हा मुणाले घरिणिउ ॥
पसरियदीहकरग्गु मत्तउण करि करिणित ||
काहि वि मयर करइ तिल काहि वि वेशीहरि देश णिलउ । कवि सिंचिये जलगडूसएण। कवि जोयइ णवजोवणमएण। काहि वि कामु व कुसुमोबु धिवइ कवि पणय कुविय अणुणंतु गवइ । काहि वि करैलीलाकमलु हर कवि लेवि सरोवरणीरि तरह । छाइयससिसूरमऊहमालि
काहि विहिका णीलाइ तमालि । दोसइ का वि कररुह फुरंतु काइ वि करि धरियउ दर हसंतु। पारोहर कवि दोलायमाण अवलोइय वडजविखणिसमाण । कवि बंधिवि मोतियवामएण हय कुवलएण कयकामएण।
साहाररसिल्लाउं कणयवसु काहि वि तरुपल्लवु दिण्णु रत्तु । दिया, तुम अपने कुलकी कोसिछाया रखना।" विशाखभूति उसको राज्य परम्परामें बैठ गया। विश्वभूति घरसे निकलकर बनमें चला गया ! धरती और वैभव श्रेष्ठको जोर्ण तणकी तरह समझ कर वह योगीश्वर श्रीधर गुरुको स्तुति कर सैकड़ों भव्य राजाओंके साथ अपनेको महावतोंसे विभूषित कर स्थित हो गया। इधर विशाखभूति सुन्दर राजा हो गया तथा विश्वनन्दो युवराज हो गया।"
पत्ता-नन्दनवनमें कोड़ा करते हुए कभी वह पत्नीको मृणालसे मारता है, मानो मदमत्त गज अपनी फैली हुई सूइसे हथिनीको मार रहा हो ॥२॥
कभी मकरन्दसे तिलक करता, कभी लतागृहमें उसे बैठाता, कभी जलके कुल्लेसे उसे सींचता, कभी नवयौवनके मदसे उसे देखता, कभी काम के समान कुसुमके फूलोंको उसपर डालता, कभी प्रणयसे कुपित उसे मनाता हुआ नमस्कार करता। कभी लीला कमलका हरण करता, और कभी उसे लेकर सरोवरके तीरको पार करता। कभी, जिसने सूर्य और चन्द्रमाको किरणोंको आच्छादित कर लिया है ऐसे नीले तमाल वनमें छिप जाता है, कभी उसकी चमकती हुई अंगुलियां दिखाई देती हैं, कभी हाथसे पकड़कर कुछ मुसकराता है, कभी वह वटके प्रारोहों पर झूलती है, और वटवृक्षको यक्षिणीके समान दिखाई देती है. कभी काम कर लेने के बाद, मोतोको मालासे बांधकर कुवलयसे आहत करता है। कभी सहकारके रससे भाई कमलपत्र और कभी लाल वृक्षपत्र देता है।
५. A जिग्गवि । ६. A ठि। ७. A रज्जेहि विसाहभूई सरा; P एतहि बिसाइभू सुराः ।
८. P हण्णइ । ९. AP करि णं ।। ३.१. A काहि मि । २. AP सिंचइ। ३.AP जोश्य । ४. A करि लोला । ५. AP लेह ।
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[५०.३.१०
१.
महापुराण पत्ता-णं वणि लिणि दुरेहु अच्छइ णिच्च पइट्टर ।।
इय सो तेत्थु रवंतु लक्खणजाएं दिट्ठउ ।।३।।
तओ तं णियच्छेवि रापंगएणं वणुस्साहिलासं गहीरं गएणं । घरं गंपि सोगोमिणीमाणणेणं पिऊ पत्थिओ पुषणचंदाणणेणं । सया चायसंतोसियाणेययंदो जहिं कीलए णिचसो विस्मर्णदी। वणं देहि तं मज्झ रायाहिराया महामंतिसेणावईवंदपाया। ण देमि चि मा जंप णिब्भिपकणं अहं देव गच्छामि देसंतमण्णं । णरिदेण उत्तं वैणं देमि णं तुमं जाहि मा पुत्त उम्बिग्गठाणं । दुमते रमंतो मयच्छीण मारो। पुणो तेण कोकाधिओ सो कुमारो। खणेणेय पत्तो समित्तो गवंतो पिउवेण संबोहिमओ णायवंतो। मईमा हालेण दिन तुमं पस्थिवो तुझ रज रवणं । कुलीगा तुमं चेय मण्णंति सामि तुम थाहि सीहासणे मुंज भूमि । अहं जामि परचंतवासाइं घेतं बलुहामथामें रिऊ पुस्त हैं। तओ जंपियं तेण तं मज्झ पुजो तुम देव तायाउ आराइणिजो। थिराणं कराणं पयासेमि सत्ति अहं जामि गेण्हामि कूरारिविसि ।
घत्ता-मानो वनमें कर्मालनी और भ्रमर नित्य रूपसे प्रवेश करके स्थित हों । इस प्रकार रमण करते हुए उन्हें लक्ष्मणाके पुत्र विशाखनन्दीने देखा ॥३॥
उस समय उस राजपुत्रको देखकर उसके मनमें वनको गम्भीर अभिलाषा उत्पन्न हो गयी। घर जाकर लक्ष्मीके द्वारा मान्य और पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखवाले कुमारने अपने पितासे प्रार्थना की, "जिसने अपने त्यागसे अनेक चारणोंको सन्तुष्ट किया है, ऐसा विश्वनन्दी जहाँ नित्य क्रीड़ा करता है, महामन्त्री और सेनापति के द्वारा वन्दनीय चरण हे राजाधिराज, वह उपवन मुझे दीजिए, 'मैं नहीं देता हूँ', कानोंको भेदन करनेवाला ऐसा मत कहो (नहीं तो) है देव मैं देशान्तर चला जाऊँगा।" राजाने कहा, "मैं निश्चित रूपसे वन दूंगा। हे पुत्र, तुम खेद जनक स्थानको मत जाओ।" फिर उसने, भृगनयनियों के लिए कामदेवके समान, क्रीड़ा करते हुए कुमारको खोटे विचार से बुलाया। एक क्षण में अपने मित्रके साथ उपस्थित प्रणाम करते हुए न्यायवान उस पुत्रसे चाचाने कहा, "भाईके द्वारा स्नेहके कारण दिया गया यह सुन्दर राज्य तुम्हारा है । तुम राजा हो । कुलीन लोग तुम्हींको राजा मानते हैं। तुम सिंहासनपर बैठो और धरतीका भोग करो। मैं सीमान्तके निवासियोंको पकड़ने के लिए और सेनाको उद्दाम शक्तिसे, हे पुत्र, शत्रुका नाश करने के लिए जाता हूं।" तब उस कुमारने उससे कहा, "तुम मेरे पूज्य हो । हे देव, तुम तातके द्वारा आराधनीय थे। मैं अपने स्थिर हायोंकी शक्ति प्रकाशित करूंगा, में जाता हूँ और क्रूर राजाओंकी वृति ग्रहण करता हूँ।"
६. A लिगदुरेहु । ७. णिच्चु । ४. १. A माणिनीमाणणेणं । २, A वणे देहि। ३. A वरं देवि पूर्ण । ४. AP सिंहासणे । ५. A रिवं
पुत्त।
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-५०. ५. १४ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित धत्ता-एंव भणेवि कुमार अप्प विणएं भूसिवि ॥
गड एचंतनृवाह उवरि आय आरूसिवि ।।४।।
ता पहुणा पणयविमरणासु दिग्णउं गंदणवणु गंदणासु । पइसरहुं ण देतु' कयंतलीलु तेमॉरिस सुहिउजाणवालु । संग्राममहोवहिभीममयर आयण्णिवि पडियाइयउ इयरु । दवाहरधु रविणेत्तु
भासइ आरूसिवि जइणिपुत्तु । अईसंधिवि महुं चणु लइ जेंव थिरु एंवहिं भायर थाहि तेंव। वीसासिवि किं हम्मद पसुत्त किं पित्तिएण वसिर अजुत्तु । लक्खणहि सूगु भयभावडिउ तं पेच्छिवि दुडु कविष्टि चहिउ । माहिवलयविसट्टणतडयतु मर्जतहिं मूलहिं कउयडंत । विवरंतसप्पचोंभलललंतु उडुतहिं पक्विहिं चलवलंतु। उत्तुंगु अहंगु सुदुपिणरिक्खु उम्मूलिड रिजणा समलं रक्खु । अच्छोडा किर महिवोदि जाव णासंतु दिट्ठ पडिवम्खु ताव । भडु पवणगमणु मग्गाणुलग्गु । धरणासइ पलपसरियकरग्गु । पत्ता-पुणरवि दुग्गु भणेवि आसंधिवि थिउ वरिच।।
तेण मुट्ठिधारण खंमु सिलामउ चूरिड ॥५॥ पत्ता-कुमार इस प्रकार कहकर और अपनेको विनयसे भूषित कर, जबतक सीमान्त राजाओंपर कुद्ध होकर गया ।।४।।
nnnnnnamoryamnnarnniwww
तबतक राजाने प्रणयका नाश करने वाले अपने पुत्रको नन्दनवन दे दिया। नन्दनवन में प्रवेश नहीं देनेषाले तथा यमके समान लीलाबाले सुधी उद्यानपालको उसने मार डाला । (इतने में) संग्रामरूपी समुद्रका भयंकर मगर दूसरा (विश्वनन्दी) यह सुनकर वापस आ गया। अपने आधे ओठ चबाता हुआ लाल-लाल आँखोंवाले जैनी पुत्र (विश्वनन्दो) क्रोधमें आकर कहता है कि जिस प्रकार कपट करके तुमने मेरा वन ले लिया है, है भाई, वैसे ही तुम इस समय स्थिर हो जाओ। विश्वास देकर क्या सोते हुए भादमीको मारना चाहिए, चाचाने यह अनुचित काम कैसे किया ? लहमणाके पुत्रको भयके भावसे कम्पित देखकर वह दुष्ट कपित्य वृक्षपर चढ़ गया। धरतीवलयके धस्त होनेसे तड़तड़ करता हुआ, टूटती हुई शाखाओंसे कड़कड़ करता हुआ, बिलोंके भीतरके साँपोंको चोभल (१) (केंचुल ) से विलसित, उड़ते हुए पक्षियोंसे चंचल, ऊंचा अखण्ड और अत्यन्त दुर्दर्शनीय वृक्षको उसने शत्रु सहित उखाड़ दिया ! जबतक वह उसे धरतीपर पछाड़ता है तबतक उसे शत्रु भागता हुआ दिखाई दिया। वह दोर भी पवनगतिसे उसको पकड़ने को आशासे हाथमें फैली हुई चंचल तलवार लिये हुए मार्गमें उसका पीछा किया।
पत्ता-फिर भी दुर्ग समझकर, शत्रु उसका ( शिलाका ) सहारा लेकर बैठ गया। उसने मुट्ठीके आषातसे उस शिलातलको चूर-चूर कर दिया ॥५॥
६. APणवाह । ५.१. AP बैंति । २.ANT मारिज । ३. AP ददाहरोध। ४.A अहिसपिति । ५. A तब्यलंतु। ६. A
चोभल । ७. A उत्तंग।
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१९०
महापुराण
(५०.६.१
पुणु दलिइ खंभि परिगलियमाणु वणु मेल्लिवि हरिणु व धावमाणु । णीसासवेयवढियकिलेसु णीसस्थहत्य णिम्मुझकेसु । अवलोइविभाइपलायमाण करुणारसि था सुहडमाणु । पभणइ मा णासाहि आउ आउ
सहि अवसरि पत्तत्र सहि जिराव । जुवरायहु कह विसाहभूइ लइ लइ सुंदर तेरी विलूइ। इहु जान जाउ कि आयएण कि कुच्छियपुत्तें जायएण। सिलफोडणमुयमाइप्पदप्प असघिओ सिम समाइ बध । अइणिददिक्ख मई सरणु अजु परिपालहि तुई अप्पणउ रजु । पत्ता-बंधवहरकरीहि णिविण्णउ णि रिद्धिहि ॥
पुत्त परिच्छहि पट्ट हे लग्गमि तवसिद्धिहि ॥६॥
खगों मेहें किं णिज्जलेण मेहें'कामें कि जिरवेण्ड कन्वं णडेण किंणीरसेण
दचे भव्य किं णिवपण ५ तोणे कणिस किणिकण
तरुणा सरेण किं णिप्फलेण । मुणिणा कुलेण कि णित्तवेण । रज भोजे किं परवसेण। धम्में राएं किं णिहएण। चावें पुरिसें कि णिग्गुणेण ।
खम्भेके टूटनेपर, वन छोड़कर गलितमान हरिणके समान दौड़ते हुए, निश्वासके वेगसे जिसका क्लेश बढ़ रहा है, ऐसे शस्त्ररहित हाथवाले और मुक्तकेश भागते हुए भाई को देखकर वह सुभटसूर्य करुणा रसमें डूम गया। वह कहता है-हे भाई, मत भागो, आमो-आयो । उसी अवसरपर वहाँ राजा आया। विशाखभूति युवराजसे कहता है-“हे सुन्दर, तुम अपना ऐश्वर्य ले लो, यह पुत्र पुत्र क्यों हुआ? इस कुत्सित पुत्रके होने से क्या । शिला फोड़नेवालो. भुजाओंके दर्पवाले हे सुभट, क्षमा करो, तुम्हारे साथ कपट किया । आज मुझे जैन दीक्षा शरण है। तुम अपने राज्यका पालन करो।"
पत्ता-इस प्रकार भाइयों में शत्रता उत्पन्न करानेकाली राजाको ऋद्धिसे वह विरक्त हो गया। हे पुत्र, राज-पाट ग्रहण करो, मैं तपसिद्धिके मार्ग में लगूंगा ॥६॥
बिना पानीके मेव और खड्गसे क्या? निष्फल (फल और फलक) से रहित वृक्ष और फलसे क्या? द्रवण (क्षरण) रहित मेघ और कामसे क्या? तपसे रहित मुनि अथवा कुलसे क्या ? नीरस काव्य अथवा नटसे क्या? परवंश राज्य अथवा भोजनसे क्या? निचय (व्यय और व्रतसे रहित) द्रव्य अथवा भव्यसे क्या? निर्दय (दयारहित, क्रूर) धर्म और राजा से क्या! णिक्कण (अन्न और बाणसे रहित) बल और तरकस
६. १: A अणु । २, AP गोसासु । ३. AP हत्थु । ४. A रसथक्कल । ५. परकरीहे णिविण ।
६. K नृरिद्धिहि । ७. K हह । ७. १.A पेमें; Pपेमें। २.Pomits कि ।
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-५०,८.६]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित इङ णिग्गुणु अपर वि मझु तणय कवडेण जेहिं तुह भग्गु पणउ । वियसियपंकयसंणि मुझेण पखिजंपिखं जाणीतणुरुहेण । हो जोवणेण हो उवणेण हो परियणेण हो हो धणेण । हो पट्टणेण सुहवट्टणेण
हो सीमंविणिणघटणेण । सेहुँ सयणहिं जहि संभवइ यइरु पिसिय तहिं ण वसमि हवि सुइरु। १० महु जणणे दिण्णी तुज्झु पुहर जो तपाइ सो तुई करहि पिवइ । मुगु र सहि शिशु णिवसंति दियंवर विशि जेत्थु । पत्ता-तं णिसुणिवि राएण जर वि चित्ति अवहेरिउ ।।
तो वि परायइ कज्जि पुत्तु रजि वइसारित ७॥
वइसणइ बइठ्ठ विसाहदि सविसाहमह गउ विस्मणवि । संभइ सूरि पर्णविवि पवित्नु दोहिं वि पडिवण्णलं रिसिचरितु। चिरु कालु चरेप्पिणु चारु घरणु किन पित्तिएण संणासमरणु । छप्पण्णु महासुकाहिहाणि मणिमयविमाणि धयधुवमाणि । सहभूयभूरिभूसाबिहाणि सोलाइसमुदजीवियपमाणि!
परमंडलवश्वाहिणिहि छहड पत्तहि वि रायगिहणय लइउ । से क्या ? निर्गुण (गुण और डोरीसे रहित) चाप (धनुष) और पुरुषसे क्या ? एक तो मैं निर्गुण है, दूसरे कपटके कारण मेरा स्नेह तुमसे भंग हो गया है। तब कमलके समान, जिसका मुखकमल खिला हुआ है, ऐसे उस जेनीपुत्रने प्रत्युत्तर दिया, "यौवन रहे, उपवन रहे, परिजन रहे, घन रहे, नगर रहे, सुखवतन रहे, सीमन्तिनियोंके स्तनोंका संघर्ष रहे कि जिससे स्वपनोंके साथ वेर उत्पन्न होता है, हे चाचा, मैं वहां अधिक समय नहीं रहेगा। मेरे पिताने तुम्हें धरती प्रदान को है, तुम्हें जो अच्छा लगे तुम उसे करो, मैं तो अब वहीं जाऊंगा कि जहाँ विन्ध्याचल में दिगम्बर मुनि निवास करते हैं।
पत्ता-यह सुनकर राजाने यद्यपि अपने मनमें इसकी उपेक्षा की तो भी कार्य का पड़नेपर उसने पुत्रको राज्य में बैठा दिया |७||
विशाखनन्दी राज्यमें बैठा । विश्वनन्दो विशाखभूति सहित चला गया। सम्भूति मुनिको प्रणाम कर दोनोंने मुनिचरित ग्रहण कर लिया। बहुत समय तक सुन्दर परित्रका पालन कर चाचाने संन्यासमरण किया। वह ध्वजोंसे कम्पित महाक नामक मणिमय विमानमें उत्पन्न हुआ। अनेक भूषा-विधान उसे साथ-साथ उत्पन्न हुए। उसकी आयका प्रमाण सोलह सागर पर्यन्त था । शत्रुमण्डल के राजाकी सेनाके द्वारा आच्छादित राजगृह नगर भी यहाँ के लिया गया।
३. A कवरेण जेण । ४. A°समुहमुहेण । ५. P पणपणेण । १. A मा सयहि ज संभवा वहरु । ७. K नृवइ । ८. १. A वहसणे; P बहसेणइ । २. A पणवेवि वित्त ।
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१९२
१०
५
लक्खणणंदेणु हमसिरिविलामु surat बुद्धिसंधियमणेण
महापुराण
frs महुरहि जाइवि कयणिवासु ।
जीव कासु वि मंतिणेण ।
धत्ता - एत्थु ण किज्जइ दप्पु लच्छिण कासु वि सासैंय || जे गय गयखं हि ते पुणे पायहिं गये ||८||
मुणि विस्सदि ता वहिं जि कालि मञ्झन्हवेलि खरकिरणजालि । कंकालसेसु गयर हिमासु । अहिणवपसूयगिट्टि पिट्छु । वितु तेण पिसुणेण दिनु । बहुजम्मण मरणुकंठिएण । खंभ भग्गा करेण । पडिओ सिविइंडियमाणसिंगु । खद्धो समझ पावेण पाव ।
पत्ता- तं णिसुणिषि सवर्ण बद्धउं रोस नियाणएं ।
फयपक्खमासदीहोदवासु
तं पुरवर सो चरिहि पहु णिट्टाणिट्टिङ जइबर रिट्ठ बेसाउलि परिट्ठिएण वह सिङ साहु पन्थिनरेण
चिरु पंषहि गाइविट्टियंगु फिग्गुण निधिण दुज्जण सगाव
:
आगामिणि भवि तुझु हसियहु करमि समाण ||२९||
[ ५०.८.७
१०
नष्ट हो चुका है श्रीविलास जिसका ऐसा लक्ष्मणाका पुत्र मथुरा में घर बनाकर रहने लगा। जिसमें अनवरत बुद्धि सन्धानमें मन रहता है, ऐसा किसीका मन्त्रित्व करते हुए वह जीवित रहता है। धत्ता -- इस संसार में घमण्ड नहीं करना चाहिए क्योंकि लक्ष्मी किसी के पास शाश्वत नहीं रहती । जो कभी हाथी के कन्धों पर चलते हैं, वे फिर पैरों चलते हैं ॥८॥
३. A गंदण । ४. P सासया ५. AP ते पुरवि । ६. P गया ।
९. १. AP हि । २. रंक खंभ । ३. AP समर्पण 1
जिन्होंने एक पखवाड़ेका लम्बा उपवास किया है, जो कंकालशेष हैं, जिनका रुधिर और मांस जा चुका है ऐसे मुनि विश्वनन्दो, उसी समय सूर्यको प्रखर किरणोंसे युक्त मध्याह्न वेलामें उस नगर में चर्याके लिए प्रविष्ट हुए। उन्हें नयी प्रसूतवतो गायने गिरा दिया। तपस्यासे क्षीण छन मुनिवरको वेश्याके सोधतलपर बैठे हुए उस दुष्टने गिरते हुए देखा। अनेक जन्म और मरणोंके लिए उत्सुक उसने साधुका उपहास किया कि भूतकालमें राजाके रूपमें तुमने हायसे वृक्ष और मोंको नष्ट किया था। इस समय गायके द्वारा विखण्डित शरीर और खण्डित गर्षशिखर तुम पड़े हुए हो। हे निर्गुण, निचिन, दुर्जन, सगर्व पाप, तुम मेरे पापसे नष्ट हुए हो ।
घसा - यह सुनकर श्रमणने क्रोधसे यह निदान किया कि आगामी भनमें मैं तुम्हारी हंसीका समान फल बताऊंगा ||९||
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-५०.११.४]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
१९३
१०
कयपक्षक्खाणपयासणेण
तांवहि वि मरिवि संणासणेण। जहिं तायभाउ जायउ अदीगु एहु वि दूसहतषचरणखीणु । तहि देहमा कपि मणोहिरामि दछहजलणिहिबद्धाउधामि । उप्पण्णउ सल्लहियंतरंगु
कम्मेण ण किज्जइ कासु भंगु । ते बिपिण वि सुरवर बद्धणेह ते चिणि वि लायण्णंबुमेह । ते विणि वि णिच्चु जि सह वसंति ते चिण्णि वि तारतुसारकेति । ते बिणि विणं तिब्दसुओय ते बिणि वि फयकीलाविणोय । ते बिणि वि दिवि अच्छति जाव एतहि दि अवरु संभवइ ताय । णिवेएं. लइज विसाहणंदि जिणतवता तावेवि घोंदि । माणिकमऊहोहामियकि संभूयउ सो वि महंतसुकि। घत्ता-एयह दोह वि ताहं देवहं वियलियइरिसई ॥
थर आउपमाणु जझ्यहूं कावयवरिसई ॥६॥
वइयहुं वेयवारूद्वियाहि अलयाणयरिहि पहु मोरगीउ देव वि रणरंगि तसति जासु जो चिरु विसाइणदि त्ति भणित
तिजाहरउत्तरसेढियाहि । थिरथोरबाहु सलगी। णीलंजणपह महरवि तासु । सो ताइ पुत्तु हरिगीत जणिउ ।
१०
प्रत्याख्यानका प्रकाशन करनेवाले संन्याससे मृत्युको प्राप्त होकर, जहां उसका मदीन चाचा उत्पन्न हुआ था, असा तपश्चरणसे क्षीण वह भी शल्यको अपने मनमें धारण कर सोलह सागर आय प्रमाणवाले सुन्दर सोलहवें स्वर्गमें उत्पन्न हुआ। कर्मके द्वारा किसका नाश नहीं किया जाता। वे दोनों ही देव एक दूसरेके प्रति स्नेहसे प्रतिबद्ध थे। वे दोनों ही लावण्यरूपी जलके मेघ थे । वे दोनों ही प्रतिदिन साथ रहते थे। वे दोनों ही स्वच्छ तुषारकी तरह कान्तिवाले थे। वे दोनों हो सूर्य-चन्द्रमाके समान थे। वे दोनों ही क्रीडा विनोद करनेवाले थे। ये दोनों जबतक स्वर्गमें थे, यहां भी तबतक दूसरी घटना हो गयो । विशाखनन्दोको वैराग्य हो गया। वह भी जिनवरके तपतापसे तपकर माणिक्यको किरणों के समूहसे सूर्यको तिरस्कृत करनेवाले महाशुक्र स्वर्गमें देव हुआ।
धत्ता-इतने में इन दोनों देवोंका भी विगलित है हर्ष जिनमें ऐसे कई वर्षोंका आयु प्रमाण रह गया ॥१०॥
११
विजया, नामसे प्रसिद्ध विद्याधरोंकी उत्तरणिकी अलकापुरी नगरीमें स्थिर और स्थूल बाहु तथा सिंहके समान गरदनवाला मयूरोव नामका राजा हुआ। जिससे युद्ध में देव भी त्रस्त रहते हैं, ऐसे उसकी नीलांजन प्रभा नामकी महादेवी थी। जो पहले विशाखनन्दो कहा गया था,
१०. १. AP दहमि काप्प सुमणी । २. A सप्लातरंगु । ३. AP एत्तह वि । ११. १. ६ बेज्जाहर।
२५
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१९४
५
१०
५
जाएण तेण णवजवणेण पडिवक्खलक्ख व लदुम्मणे । अविलय णिलय कंपावणे स्वयरिदबिंदकंदावणेण सरणागयजणपपिंजरेण काणी नदीकुलदिहिकरेण
महापुराण
करलालियसिरिरामाथणेण ।
चंदबिभीसाबणेण । भूगरपुर संतावणे | करिणा इव दाणोलियकरेण । सुहवत्तणजियमणसियसरेण ।
पत्ता - आसग्गीदें तेण रिड हय हरिणा इव करि ॥ असिधार तासिवि गहिय तिखंड वसुंधरि ॥११॥
१२
उग्गपावरवियर करालु विद्धंसियवर सुह डावखु तिरथयर पवित्तियवित्थणिरहि बहुरमणिरमणसं पणविल पोयणपुरु सुरपुर सोहारि adming oयारि तहु पढमदेवि जयबह पण अण्णेक चारु विस्थिण्णरमण दोहिं विदीविय महि तिमिरजूर
[ ५०. ११.५
वसुम मुंजंतु पहु कालु । परिवडि सोपवावु । तापविलजंबूदीषभरहि । परिपालियधम्मि सुरम्मि विसइ । त िवस राहि दंडधारि । णामेण पयावर विजियारि ।
विवरविणिग्गय नायकण्ण ।
मृणयण सृगावइ मंदगमण | णिसि सिविणs दिट्ठा चंद्रसूर |
वह उसका अग्रीव नामसे पुत्र उत्पन्न हुआ जिसने अपने हाथसे लक्ष्मीरूपी रामाके स्तनोंका लालन किया है। जो प्रतिपक्ष लक्षसेनाका नाश करनेवाला है, जो पृथ्वीवलयरूपो घरको कंपाने वाला है, जो सूर्य-चन्द्र के बिम्बके समान भीषण है, जो विद्याधर राजाओंको रुलानेवाला है, जो मनुष्यों के नगरोंको सन्त्रास देनेवाला है, शरणागत मनुष्योंके लिए जो वञ्चपंजरके समान है, जो हाथी के समान दानसे ( मदजल और दान ) आर्द्रकर ( गोली सूंड अथवा हाथ ) है, जो कन्यापुत्रों और दीनकुलोंके लिए भाग्यविधाता है, जिसने अपने शुभ आचरणसे कामदेवके तीरोंको जीत लिया है 1
घता
- ऐसे उस अश्वग्रीवने उसी प्रकार शत्रुको नष्ट कर दिया है जिस प्रकार सिंह हाथी को नष्ट कर देता है। उसने अपनी तलवारकी धारसे सन्त्रस्त कर त्रिखण्ड धरती ले ली || ११ ॥
१२
उद्गत प्रताप जो सूर्य किरणोंकी तरह भयंकर है ऐसा वह लम्बे काल तक धरतीका भोग करता हुआ तथा श्रेष्ठ सुभटोंके अहंकारको नष्ट करनेवाला वह प्रतिवासुदेव बन गया। तब तीर्थंकरोंके द्वारा प्रवर्तित तीर्थोंसे जो पवित्र है, ऐसे विशाल जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र है । वहाँ जिसमें अनेक बी-पुरुष विषयोंसे परिपूर्ण हैं, और जिसने धर्मका परिपालन किया है, ऐसे सुन्दर देश में सुरपुरकी शोभाको धारण करनेवाला पोदनपुर नगर है । उसमें दण्डको धारण करनेवाला, भुवनका एकमात्र सिंह सबका उपकार करनेवाला और शत्रुविजेता प्रजापति नामका राजा था। उसकी प्रथम पत्नी प्रसन्न जयवती थी, जो मानो वित्ररसे निकली हुई नागकन्या थी । एक और दूसरी
२, AP add after this : पलमणिलजाला दुस्सहेण । ३. A करिणा विय ।
१२. १. AP जादि २. AP मगणयण मिगां ।
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५०. १२. १६]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित काधि जिनमुनयना ते दो वि देव देवासया। पित्तियभत्तिज्रय बद्धपणय संजाया सुंदर ताई तणय । जवाहि जाउ हिमैसियसरीरु बलेंदु बालु णं दुरहीरु । णारितणगुणवडियहि सईहि हुउ कण्हु जि कण्हु निगावईहि। जयवंतु एक्कु तर्हि विजड गणिर्ड बीयउ पुणु विठु तिषिदा भणिज । पत्ता-णि वि सह खेलंति मुयबलसियदिग्गय ।।
भरहदियंतपयासि "पुष्पदंत नग्गय ॥१२॥
इप महापुराणे विसटिमहापूरिसगुणालंकारे महाकापुष्यंतहिए महामसमरहाशुमपिणए महाकम्ये पकववासुदेवटप्पत्ती णाम
मण्णासमो परिच्छेत्री समतो ॥१०॥
अत्यन्त सुन्दर भृगनयनी, मन्दगामिनी सुन्दर मृगावती थी। दोनों ही मानो घरसोपर अन्धकारको नष्ट करनेवाली दीपिकाएं थीं। उन्होंने रात्रिमें स्वप्न में सूर्यको देखा । जहाँ सैकड़ों सुखोंका मोग किया है ऐसे देवायसे वे दोनों प्रणयबद्ध देव (चाचा और भतीजे) उनके सुन्दर पुत्र हए । जयवतीके हिमके समान सफेद शरीरवाला बालक बलभद्रं हुआ जो मानो बालचन्द्र था। तथा नारीत्वके गुणसमूहसे घटित सती मृगावतीसे कृष्ण कृष्ण हुए (श्याम वासुदेव हुए)। अयसे युक्त एकको वहाँ विजय कहा गया और दूसरेको विष्णु त्रिपृष्ठ ।
पत्ता-अपने बाहुबलसे दिग्गजोंको दूषित करनेवाले वे दोनों साथ-साथ खेलते थे, वे ऐसे लगते थे मानो दिगन्तको प्रकाशित करनेवाला नक्षत्रसमूह उत्पन्न हुआ हो ||१२||
इस प्रकार प्रेसठ महापुक्ष्योंके गुणालंका ने युक्त महापुराण, महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामन्य भरत द्वारा अनुमत महाका मे बळदेव
बासुदेव उत्पत्ति नाम का पचासवाँ परिष्येद समाप्त हुभा ॥५॥
३. A हिमसब । ४. AP इलएन । ५. A छुडहीर; P छुड्ड हीरु। ६. K मृणावईहि । ७. P विजउ । ८. A मणिउ । ९. A गणित । १.. P भूसिय । ११. AP पुष्फर्यंत ।
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संधि ५१
माणुसई गिलंतु भुयबलविकमसार ।। पंचाणणु भीमु मारिउ रायकुमार ॥ध्रुषको।
पायणिवायपणावियमहियल पंकयकुलिसकलसलक्खणधर पोरिसपवररयणरयणायर जायासीधणुतणु गुणमणिगिहि धवल कसण सविणयपीणियजण कायर्कतिधवलियकालियणह तेहिं बिहिहि" सो सहइ महीसंरु जावच्छह हरिवीदि णिसण्णउ सो पभणह चंगउ पालियपय
पविमलकमलालंकियउरयल । रायहंससेविय णं सुरसर । सम वढिय ते बिणि वि भायर । असिजालारालखलकुलसिहि । णावइ सरयसमय सावणघण । णं गंगाणा जउँणा जलवह । यिहि पक्वहिं णं पुण्णिमवासरु । देसमहंतउ ता अवइण्णउ | भोणियमउडकोडिलालियपय ।
१०
सन्धि ५१ बाहुबलके पराक्रममें श्रेष्ठ राजकुमार (छोटे भाई) ने मनुष्योंको खानेवाले (आदमखोर) भयंकर सिंहको मार दिया।
पैरोंके निपातसे जिन्होंने धरतीको हिला दिया है, जिनका उरतल पवित्र कमलोंसे अलंकृत है, जो कमल वस और कलशके लक्षणोंको धारण करनेवाले हैं, जो मानो मानसरोवरको तरह, राजहंसों (श्रेष्ठ राजाओं, श्रेष्ठ हंसोंसे सेवित है) जो पौषष रूपी श्रेष्ठ रनोंके समुद्र हैं, ऐसे वे दोनों बड़े भाई साथ-साथ बढ़ने लगे (बड़े होने लगे) । अस्सी धनुष प्रमाण शरोरवाले वे दोनों गुणसमूहके निधि थे। अपनी तलवाररूपी ज्वालासे वे, शत्रुकुलके लिए अग्निके समान थे। अपनी विनयसे लोगोंको प्रसन्न करनेवाले गोरे और श्याम, वे दोनों जैसे क्रमश: शरद् और श्रावण समपके मेष थे। अपने शरीर को कान्तिसे आकाशको धबल और श्याम बनानेवाले वे मानो गंगा नदो और यमुना नदीके जलपथ थे। उन दोनोंसे बह राजा ऐसा शोभित था मानो दो पक्षों (शुक्ल, कृष्णपक्ष) से युक्त पूर्णिमाका दिन हो । जब वह सिंहासनपर बैठा हुआ था कि एक मन्त्री उसके पास आया। वह बोला-“हे प्रजापालक, सब कुछ ठोक है, राजाओंके करोड़ों मुकुटोंसे लालितचरण हे देव, -
-- - A has, at the beginning of this Sandhi the stanza जग रम्म हम्मं etc. for which see foot-note on page 139. P and K do pot give this stanza here. १.१. AP'पणाभिय । २. AP सेविय सरवर । ३. A असिधाराकराल । ४. A जवणा । ५. AP
विहि मि । ६. A महीहरु ।
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-५१.२.१० ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
सेहोर रुजतु दुइ कंदमाणु खराभयवेविरमणु तं सुणिवि पडिलबइ पयावर
माणुसु चित्तालिहिण चुक्केछ । देवदेव खद्धव सयलु बि जणु । भो भो मंति चारु तेरी मद्द |
पत्ता- जो ण करइ राट पर्यादि रक्ख सो केउ || स्वर्ण णासिवि जाप संक्षाराएं जेह ||१||
जो गोबालु गाई उ पाइ eg महेली जो उ रक्खइ जो माला बेलि र पोसइ जो कह ण करइ मणहारिणि कड़ जो जब संजजण यागइ जो पहु यहि पीड पर फेडर जो संतु सी सई मारविं एंव भणेवि लेवि असि दारुगु ता पंजलियरु विजय पर्जपेई
आपसु देव हवं गच्छमि
२
सो जी दुद्ध ण शिहालइ । सुरयसोक्खु सो केहि किर चक्खड़ । सो सुन फ्लु केंद्र लसइ । सोच कर अॅप वह । सो जग्गणमत्त माणइ 1 सो अपणु अपाण पाडइ । देस पडिय मारि णीसारविं । रिंदु वारुणु । पर कुंचायी पद अज्जु मइंद पलड नियच्छमि ।
१९७
१५
१०
एक गरजता हुआ सिंह आता है, जो चित्रलिखित मनुष्यों तकको नहीं छोड़ता । विनाशके भयसे काँपते हुए मनवाले और रोते हुए सब लोगों को, हे देवदेव, उसने खा डाला है।" यह सुनकर राजा प्रजापति कहता है- "हे मन्त्री, तुम्हारी बुद्धि सुन्दर है ।"
पत्ता- "क्योंकि जो प्रजाकी रक्षा नहीं करता, वह राजा शीघ्र उसी प्रकार नष्ट हो जाता है कि जिस प्रकार संध्या राग नष्ट हो जाता है ||१||
२
जो गोपाल गायका पालन नहीं करता, वह जोते जी उसका दूध नहीं देख सकता, अपनो प्रिय पत्नीको जो रक्षा नहीं करता, वह सुरति कोड़ाका सुख कहाँ पा सकता है ? जो मालाकार ( माली ) लताका पोषण नहीं करता वह सुन्दर फूल और फल किस प्रकार पा सकता है, जो कवि सुन्दर कथा नहीं करता यह विचार करता हुआ भी अपनी हत्या करता है । जो मुनि संयम की मात्रा नहीं जानता, वह नंगा है, और नग्नस्वको ही सब कुछ मानता है। जो राजा प्रजाकी वेदना नष्ट नहीं करता वह अपनेसे अपनी हत्या करता है, इसलिए मैं स्वयं जाता हूँ और गरजते हुए सिंहको स्वयं मारता हूँ । देशमें आयी हुई मारीको बाहर निकालता है। यह कहकर और भयंकर तलवार लेकर क्रोधसे लाल-लाल राजा जब तक उठा, तबतक अंजली जोड़कर विजय बोला, "हे राजन्, आपके क्रुद्ध होनेसे जग कांप जायेगा ? आदेश दीजिए देव, में जाता हूँ ?
७. भुंजंतु 1 ८. P पक्कच । ९. P
थुक्कउ I
२. १. P गोवि । २. APफिर कह ३. P मालाया । ४. P सफुल्लु । ५. A अध्यक्ष अप्पावह ६. A संजमु जुत्ति; P संजमजत्ति । ७. 4 फेडइ । ८. A सो विरसंतु । ९. A पर्यपह १०. AP जमु 1
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१६८
महापुराण
[ ५१. २. ११पेसिउ जणणे चलिउ हलहरु ते सहुँ चलिउ भाइ दामोयरु। णरकवालकंकालगिरंतर
पत्ता केसरिगिरिफुहरंतर। पत्ता-भडरोलहु सीह कुंदच्छवि श्रद्धाइज ।।
भाइहिं आवंतु णं कयतजसु जोहडे ।।२।।
विक्खणक्खणिक्वषियमयगलो पयविलग्गमुत्ताहलुज्जलो । रससित्तकेसरसखालओ सिसुमियंकदाढाकरालओ। महिसमणुयपलकवलभोयणो सिहिफुलिंगपिंगलविलोयणो। कुडिललुलियलंगूलपिंधओ णासगहियपद्धिसुडगंधओ। फंठराणिइलियविकारी
एरिसो सरोसेण केसरी) पहुबलखमियवीरविकर्म आप देश किर सीरिणो कम। ताव तेण लड्डुपण भाइणा लोयजीवदाणेशदाइणा। विसतमालकालिंदिकंतियों करजवं पि वामेण पाणिणा । मर्यवइस्स धारयं बला बलं बेलिविरोहिणो कस्स मंगलं । उच्छलंतदंतावलीसियं
दाहिणेण हत्थेण णिश्यं । ताडिओ मुहे पाडिओहरी संसिओ महीसेहिं सो हरी ।
माइवेण कय णिव विदोहओ दबूढ़देहिदेषिवो है.ओ। आज मैं सिंहका प्रलय देखूगा।" पिताके द्वारा प्रेषित बलभद्र चला, उसके साथ भाई दामोदर चला । मनुष्योंके कपाल और हड्डियोंसे परिपूर्ण, सिंह को पर्वत गुफामें वे लोग पहुंचे।
पत्ता-स्वर्ण के समान कान्तिवाला सिंह योद्धाओंके हल्लेसे दौड़ा । दोनों भाइयोंने उसे आते हुए यम-भय की तरह देखा ॥२॥
.
...
.
--
जिसने अपने तीखे नखोंसे मदगजोंको आहत किया है, जो झरते हुए मोतियोंसे उज्ज्वल है, जो लाल और श्वेत अयालसे युक्त है, बालचन्द्र के समान वाढोंसे जो भयंकर है, महिष और मनुष्योंके मांसका जिसका भोजन है, बागके स्फुलिंगके समान जिसके नेत्र पीले हैं, जो टेढ़ी और पंचल पूछको पताकावाला है, जो प्रतिसुभट (शत्रु ) की गन्ष अपनी नाकसे ग्रहण करनेवाला है, अपने फण्ठके शन्दसे जिसने दिग्गजका शब्द नष्ट कर दिया है, इस प्रकारका वह सिंह क्रोषपूर्वक बहुबलसे वीरोंके पराक्रमको आक्रान्त करनेवाला अबतक श्रीबलभद्र के ऊपर पैर दे तबतक लोक जीवनदानमें एक मात्र दानी तथा विष तमाल और यमुनाके समान कान्तिवाले उस छोटे भाईने उस सिंहके दोनों पैर और अयाल बलपूर्वक पकड़ लिये । बलवानसे विरोध करनेवाले किसका मला हुआ है ? उछलती हुई बन्तावलीको सफेवीको उसने दायें हाथसे दलित कर दिया। मुखमें आहत किया। सिंह पीड़ित हो उठा । राजाओंने वासुदेवकी प्रशंसा की। इस प्रकार माधव, मे, जिसने राजासे विद्रोह किया है ऐसे दग्ध देहीके देह स्वरूप उस वृक्षको आहत कर दिया।
११. A कयंतजम; P कयतु जसु । १२. P जोविठ । ३. १. AP बहबलपकमिय। २. AP add after this : बाहुउचलतुलिय (A तुडिय ) दंतिणा, करमहंसुपविरायसुदरूपं, वामएण चल (A वल) चरणजुयलयं, सुहडसंगरुम्बूढमाणिणा । ३. AP करजुयं । ४. A मइवहस । ५. AP बलविरोहिणो। ६. AP विदोहरो । ७. A हो ।
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महाकवि पुष्पवन्त विरचित
पत्ता - जो पयसंता पलयसिहि व्व पलित्तर ॥ सो हिउ मयारि लोहियसलिलें सित्तड ||३||
X
५१.४.१४ ]
करतलपचूरियेदुग्धो सुरसीमंतिणिकामुकोयणु आया ते तं पुणरणि पोयणु पर्याहि पतऊहियवाएं पुच्चि दाणववइरिसें तं णिसुणेवि तेण अवगविण Tore सगुण संसइ लजाइ एंब ताई बहुसंपयसारा चविकहिं दिणि परमणहार 8 हरि विष्णु आयासें कंठ्य कडयम डकुंडलघरु वारवार महुं वयणु णिरिक्खड़
freबलु कसिवि सीसवट्टइ ! हिवि विजेयहि अवलोयणु । णं ससर दियर गयणंगणु | दोणि मेह णं संसाराएं । कि केसरिकिसोर पई मारिउ । नाविडं सीसु ण अप्पल वणिच । ऊगड गुणथुइ महरह मज्जइ । जंति दियह सुमणोरगारा । कंणवेत्तपाणि पडिहारउ । आउ एक्कु पुरिसु आयासें । वियामि किं सुरु किं णहरु । recording खइ |
घत्ता - जइ अवसर अस्थि त सो पइसारिजइ ।
जं भासह किंपि तं परेस णिणिज्जइ ||४||
१९९
ܐ
घसा - प्रजाका सन्तापकारी जो प्रलयकी अग्निकी तरह प्रज्वलित था वह मारा गया सिंह रक्तरूपी जलसे सिक हो उठा ||३||
४
हथेली के प्रहारसे हाथीके चूर कर लेनेपर, सिहरूपी कसोटीपर अपना बल कसकर, देवबालाओं को कामोत्कण्ठा उत्पन्न करनेवाला विजयलक्ष्मीका उत्पन्न कटाक्ष प्राप्त कर वे दोनों पोदनपुर नगर आ गये, मानो आकाश में सूर्य और चन्द्रमा आ गये हों। पैरोंपर गिरते हुए उन दोनोंका पिताने आलिंगन किया, मानो सन्ध्यारागने मेघका आलिंगन किया हो। फिर उससे दानवराजके शत्रुने पूछा कि तुमने सिंहके बच्चेको किस प्रकार मारा! यह सुनकर उसने उसकी उपेक्षा की, उसने सिर झुका दिया परन्तु अपना वर्णन नहीं किया ! महान् या भारी आदमी अपनी गुण प्रशंसासे लज्जित होता है, छोटा आदमी गुणस्तुतिको मदिरासे मतवाला हो जाता है । इस प्रकार प्रचुर सम्पत्ति से श्रेष्ठ तथा सुन्दर मनोरथोंसे परिपूर्ण उनके दिन बीतने लगे। इतने में एक दिन दूसरेके मनका हरण करनेवाला हाथ में स्वर्णदण्ड लिये हुए प्रतिहारी राजासे कहता है कि बिना feat area एक आदमी आकाशमागंसे आया है। कण्ठा कडेक, मुकुट और कुण्डल धारण किये हुए है, में नहीं जानता कि कोई नभचर है या देव । बार-बार मेरा मुख देखता है, और तुम्हारे चरणकमलको देखने की इच्छा करता है ।
घन्ता - यदि अवसर हो तो उसे प्रवेश दिया जाये, और यह जो कुछ भी कहता है, हे नरेश, उसे सुना जाये ॥१४॥
८. AP हिय ।
४. १. Aो । २. सजयलच्छि । ३. पत विजोहिय; P पडत विहिय; T अवगृहिय ब्रालिङ्गितौ । ४. AP “वेरिव । ५. A पसंसण लज्जइ । ६. करकमलो । ७. Pa
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२००
महापुराण
[५१. ५.१
महिणाहेण उसु पइसारहि पुरिसु संसामिकचरहसारहि। ता कणइल्ले आणिवि दापित खयरु णवंतु अजन्यु विहाविउ । बहु पणवंत णियडड आसणु दरिसिई मणिगणकिरणुभासणु। इद भणिवि जाणि मुहराएं पियवयणहिं संभासिउराएं। काहि होतत सुंदरणिकेयस
को तुहुँ कह सु कासु किं आयडे | अक्खड विर्ययर पालियनोणिहि रुपयगिरिवरदाहिणसेणिहि । णमिकुरणहयलयलय सरु रिद्धिद णं सयमेव सुरेसरु । रहणे उरपुरवरपरमेसर
देव जलेणजडि णाम खगेसरू । वाग्वेय पिययम लीलागइ अककित्ति तणुरुहुणं रइवह । धूय सयंपह किं वपिणाम् मुहससिजोण्हइ चंदु कि खिजइ । घत्ता-वहार भग्गु जाहि मझु किसु सोह॥
हपंतिपहाइ तारापति ण रेहइ ॥५॥
१०
६
करकमयलाई कुमारिहि रत्तई णादिहि जइ गंभीरिम दीसह भालवद पटटु व रइरायह
ताई कुमारसहासई रत्तई। ते मुंणिहि वि गंभीरिन पासइ । चिहुरकुडिलकोडिल्लु व आयहु ।
महीनाथने कहा कि अपने स्वामीके कार्यरूपी रथका निर्वाह करनेवाले उस पुरुषको भीतर प्रवेश दो। तब प्रतिहारीने उसे बुलाकर दिखाया। प्रणाम करता हुआ वह विद्याधर मुन्दर दिखाई देता था । प्रणाम करते हुए उसे मणिकरण-समूहसे आलोकित आसन पास हो दिखाया गया। इष्ट समझकर उसने मुखके भावसे जान लिया। राजाने प्रिय शब्दोंमें उससे बातचीत की कि तुम्हारा सुन्दर घर कहाँ है, तुम कौन हो, किसके हो। यहाँ क्यों आये ? विद्याधर कहता है कि धरतीका पालन करनेवाले विजया पर्वतको दक्षिण श्रेणी में है देव, ज्वलनजटो नामका राजा है, जो नमिकुलके आकाशमण्डलका सूर्य है, ऋद्धिमें जो मानो स्वयं इन्द्र है और रथनूपुर नगरका परमेश्वर है। लोलापूर्वक चलनेवाली उसकी वायुवेगा नामकी प्रियतमा है। और पुत्र अर्ककीति है जो मानो कामदेव है । उसकी कन्या स्वयंप्रभाका क्या वर्णन किया जाये ? वह अपने मुखरूपी चन्द्रमाको ज्योत्स्नासे जो चन्द्रमाको भी खिन्न कर देती है।
पत्ता-स्तनभारसे भग्न जिसका दुबला पतला मध्यभाग नखपंक्तिप्रभासे इस प्रकार शोभित है, मानो तारापंक्ति शोभित हो ॥५॥
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कुमारीके कररूपी कमल रक्त ( लाल ) हैं। उनसे हजारों कुमार अनुरक्त हैं । उसको नाभिमें जो गम्भीरता दिखाई देतो है, उससे मुनियोंकी भी गम्भीरता नष्ट हो जाती है। उसका ५. १. AP सुसामि । २. K पुरावयहि । ३. P कामु कहसु कहिं । ४. A वहयरु । ५. A जहणजहि ।
६. AP थणभार। ६. १. A? कमलयई । २. AP तहि । ३. A गंभीरिम । ४. A भालबद्ध पटु व; P भालवटु वटु व ।
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२०१
महाकवि पुष्यवात विरचित सुरणरविसहरहिययवियारा णयण विसिह णं तासु जि केरा । जाहिरूपसिरि ण परपराश्य सा फुल्छति वेल्लि जिह जोइय । ताएं धीय वीय चंदें बोल्लि सज्जणणयणाणंदें। दुम्मयमलकलंकपक्खालणि मंनिहिं अग्गइ मंतिणिद्देलणि । भो संभिण्ण णिसुयोइससुय भणु भगु कासु धरिणि होसइ सुय । भणु भणु भन्न मजझु भवियपई पई दिट्ठाई अणेयइ दिवई । देहदित्तिणितेइयचंबई
केवलणाणधेरई रिसिवंदई। ता संभिपणे भणि णिसामहि मई चिरु पुच्छिये संजय सावहि । दाहिणभरहि सुरम्मइ मंडाल घरसिहरालिंगियरषिमंडलि । बचा-पोयणपुरि राउ जसु जसु देवहि गिज्जइ।।
पालियसम्मत्तु जो जिणणय पडिवज ॥६॥
चिर पुरुएबहु दिग्गयगामिहि जो बाहुबलि पुत्तु जगसामिहि । भरहु जेण मुयदंडहिं भामिड जो जायज पंचमगागामिन । पुरिसपरंपराहि तहु जायउ णाम पयावइ जो विक्खायउ । जयंबद्ध तासदेवि गरुयारी
अवरमिगाव पाणपियारी। अचल पबलमुयतोलियगुरुगिरि ताई.बिहिं वि जाया हलहर हरि। ५ भालपट्ट कामदेवका पट्ट है । उसके बालोंका कुटिल कौटिल्य भो इसीका है। सुर-नर और विषधरोंके हृदयका विदारण करनेवाले उसके नेत्र भी कामदेवके हो तीर हैं। जिसकी रूपलक्ष्मी दूसरों के द्वारा पराजित नहीं है, वह खिली हुई लताके समान देखी जाती है, पितासे पुत्री ऐसी लगती है जैसे चन्द्रमासे द्वितीया । सज्जनोंके नेत्रोंको आनन्द देनेवाले राजाने दुर्मद-मल कलंकका प्रक्षालन करनेवाले मन्त्रणावरमें मन्त्रियोंसे कहा, "हे ज्योतिषशास्त्रका अध्ययन करने वाले संभिन्न ( मन्त्री ), बताबो-बताओ यह कन्या किसकी गृहिणी होगी। हे भव्य, तुम मेरा भवितव्य बताओ, तुमने अनेक दिग्य शरीरकी कान्तिसे चन्द्रमाको कान्तिहीन कर देनेवाले केवलज्ञानधारी ऋषिसमूह देखे हैं।" तब संभिन्न मन्त्रीने कहा "सुनाता है, मैंने बहुप्त पहले संजय नामक अवधिज्ञानी मुनिसे पूछा था । (और उन्होंने कहा था), दक्षिण भरतक्षेत्रके सुन्दर देशमें जिसमें कि गृहशिखरोंसे सूर्यमण्डल आलिगित है,
घसा-पोदनपुर नगरमें राजा है, जिसका यश देवोंके द्वारा गाया जाता है। सम्यक्त्वका पालन करनेवाला जो जिननयको स्वीकार करता है ।।६।।
प्राचीन समयमें पुरुदेवके दिग्गजगामी विश्वस्वामो ( ऋषभदेव ) का ओ बाहुबलिदेव पुत्र था, जिसके द्वारा भरतदेव अपने भुजदण्डोंके द्वारा घुमा दिया गया था, और जो मोक्षगामी हुए थे, उसीको पुरुष परम्परामें उत्पन्न प्रजापति के नामसे विख्यात राजा है। जयवती उसको बड़ी पत्नी है और दूसरी प्राणप्यारी मुगावती है। उन दोनोंसे, अपने प्रबल बाहुओंसे मन्दराचल
५. Aणवर पराश्य । ६.A णिसुणि जोइससुय; P गिसुणि जोइयसुय । ७. A जिसेयर। ८.A
परियरिसि । ९. AP पुन्छि । ७.१ AP सामिन । २. A जइवय । ३. K मृगावा प्राण ।
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महापुराण विजय तिविट्ट णाम णिहरैकर समरभारैकिणकसणियकंधर । एड्छ तुरंगगेलु रिउँ तष्टु केरल आसि विसाइणहि विवरेर । एत्थुप्पण्णउ पुण्ण विषाएं
मारेवउमिगइयहि जाएं। भुयहिं कोडिसिल संचालेवी वसुह तिखंड तेण पालेवी। परियणसयणहं तुहिजणेवी अण्णु तुहारी सुय परिणेवी। जैहयसै दिविजाहरराएं
पई होएक्वड तासु पसाएं। एव देव हियवाद संघाउ इंभिषणे संबंधु बियारिउ।
पत्ता-ता महुँ गाहेण बंधुसिणेहु गवेसिउ ॥
हणामें इंदु तुम्हहं दूयउ पेसिउ ||७||
अवरुचि पहु तेर पहुठाणउं अम्हार पाइयाणिवाणउं । रिसहहु कच्छमहाकच्छादिव जिह भरहहु षिविणमि खगाहिव । तिह सिहिजडि रविकित्ति तुदारा जिव सुहि जिंव पुणु पेसणगारा । तं णिसुणिवि णरवइ रोमंचिउ आणंद परिवार पणचित्र । सीरि पुण्ण सव्व पोमाइय हरिणा णियभुयदंड पलोइय ।
पुणु सो दूयउ पटुणा पुजिय ते ण वि तक्खणेण गर्न सजिल। को तौलनेवाले और अचल बलभद्र और नारायण उत्पन्न हुए हैं। विजय और विपृष्ठ नामके के कठोरकर और समरभार उठानेके कारण श्याम कन्धेवाले हैं। यह अश्वग्रीव तुम्हारा शत्रु है जो विपरीत करनेवाला विशाखनन्दी था। अपने पुण्यके विपाकसे वह यहाँ उत्पन्न हुआ है, जो मुगावतीके पुत्र (त्रिपृष्ठ) के द्वारा मारा जायेगा। वह अपने बाहुओंसे कोटिशिलाका संचालन करेगा, और उसके द्वारा त्रिखण्ड धरतीका पालन किया जायेगा। बह परिजन और स्वजनोंको सन्तोष देगा और तुम्हारी पुत्रीसे विवाह करेगा। उसके प्रसादसे तुम दोनों श्रेणियोंके विद्याधर राजा होगे।" इस प्रकार देवके हृदयमें यह संचारित किया, और फिर संभिन्नने सम्बन्धका विचार किया।
पत्ता-तब मेरे स्वामीने बन्धुके स्नेहकी खोज की और मैं इन्दु नामका दूत तुम्हारे पास भेजा गया ।
और भी हे प्रभु, तुम्हारा प्रभुस्थान है और हमारा पाइक ( पदाति सेवक ) के रूपमें निर्माण { रचना ) है । जिस प्रकार ऋषभनाथके कच्छ और महाकच्छ राजा थे, जिस प्रकार भरतके नमि और विनमि विद्याधर राजा थे, उसी प्रकार ज्वलनजटी और अर्ककीति तुम्हारे हैं। जिस प्रकार के सज्जन हैं उसी प्रकार आज्ञा करनेवाले हैं। यह सुनकर राजा रोमांचित हो गया। आनन्दसे परिवार नाच उठा । बलभद्रने सबकी प्रशंसा की । नारायण { त्रिपृष्ठ ) ने अपने भुजदण्डको देखा। राजाने उस दूतका आदर सत्कार किया। और उसने भी तस्काल अपने जाने
४. A fणदूर। ५. A "भारकसणंकियकंधर । ६A तुरंगकछु । ७. A omits रिच | ८. K
मृगवाह । ९. AP उभय । १०. AP सणेह। ८. १. APणमि । २. A पुण्णसत्ति; P पुण्ण सत्त । ३. A गठ; P समु ।
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-४१. ९, १२]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित भूगोयरहूं गयणु कहिं गोयरु इय चिंतिवि णरणाहिं सायरु । संताणागयपणयपयासउ तासु जि इस्थि दिण्णु संदेसच ।
पत्ता-बंग सुर सिझंति कामघेणु घरि दुब्भइ ।।
जं दूरु दुसज्झु तं जगि पुणे लम्भाइ ।।८।।
इंदुद्यवयणई आयण्णिवि बंधुसणेहु सहियवइ मपिणवि । सई तणएं तणयाइ पसण्णइ अहिणवमुग्गेमणोहरवण्णइ। ७द्धचलंतवमरवित्थारें विहधगहीर सहुं परिवार। ओसारियरवियरसंताहिं आवेप्पिणु विमाणजंपाहिं । महुरसवसहणुरुटियमहुयरि कीरकुररसिद्दिपियमाइविसरि। मंदर्मदमायंदावलिघणि पोयणपुरबाहिरणदणवाणि । जायचेयजडि पकाहिं वासरि थिउ विजापहावविरइयघरि । जिणपयपंक्यपणलियसीसह इंदें जाइवि कहिलं महीसहु । आयउ इट्ट सुटू उक्कठिउ त णिसुराणाय सहुँ सुयाह ण संठिल । पह मंडलियणिसे विउ चलिउ इयरेण वि खगदप्पु पमेल्लिस । अवरोप्परहुं वे चि गय संमुह णाइ तरंगिणिणाइ सुहारह ।
मिलिय बे वि दीहरपसरियकर बेणि वि सज्जण णं दिसकंजर। की तैयारी की। मनुष्यों के लिए आकाश किस प्रकार गम्य हो सकता है, यह विचार कर राजा प्रजापतिने सादर परम्परासे आगत प्रणयको प्रकाशित करनेवाला सन्वेश उसके हाथमें दिया।
पत्ता-विद्याधर और देव सिद्ध हो जाते हैं, कामधेनु घरमें दुहो जाती है, जो दूर और असाध्य है, वह विश्व में पुण्यसे पाया जा सकता है 10
इन्दु दूतके वचन सुनकर और अपने हृदयमें बन्धुके स्नेहको मानकर, अपने पुत्र और प्रसन्न अभिनय मृगके समान वर्णवाली कन्याके साथ जिसके ऊपर चलते हए चमरोंका विस्तार है, ऐसे वैभवसे गम्भीर परिवारके साथ, जिन्होंने सूर्यको किरणपरम्पराको हटा दिया है ऐसे विमान
और जंपानोंके द्वारा आकर, ज्वलनजटी विद्याधर, एक दिन, जिसमें मधुरसके वशसे मधुकर गुनगुन कर रहे हैं, जिसमें कोर कुरर मयूर और कोकिलोंका स्वर है, जो मन्द-मन्द आम्रवृक्षावलोसे सघन है, और जिसमें विद्याके प्रभावसे घर बना लिये गये हैं, ऐसे पोदनपुरके बाहर नन्दनवनमें ठहर गया। जिसने जिनपद-कमलोंमें अपना सिर नत किया है, ऐसे राजा प्रजापतिसे जाकर इन्ददतने कहा कि ( तम्हारा इष्ट अत्यन्त उत्कण्ठित होकर माया है। यह सुनकर, वह अपने पुत्रोंके साथ संस्थित नहीं रहा। अपनी मण्डलीसे सेवित राजा चला। दूसरेने भी अपना विद्याधर होनेका अहंकार छोड़ दिया। वे दोनों, एक दूसरेके सामने गये, मानो समुद्र और चन्द्रमा हों। अपने दोनों लम्बे हाथ फैलाकर वे मिले । वे दोनों ही सम्जन ये मानो दिग्गज हों।
४, खम्म मुर। ११. A मागमणोहर । २. A गुटियमवरि; । रगुरुटिय । ३. A fणसुपि सः ।
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[५१, ९.१३
महापुराण घत्ता-णियजणणविण्णु परियाणिवि भूभंग ॥
रायहु रवि कित्ति विउ पणाविवि अंग ॥९॥
हरिबलेहि ससुरउ जयकारिड तेण सिणेहसाहि वडारित। भुयभूसणकरमंजरिपिगि सालउ गाढंगाटु आलिंगिउ । हरिसंसुयजलेहि संसित्तउ सयल णिसण्ण सुमंतु पउत्तउ । दिणयर तबइ खवई जिणु कम्मई वम्महु सल्लइ वाणहिं वम्मई। सायक गिलइ सयलसरिसोत्तई __ ससहरु पीणइ जणवयणेत्तई। भंजणसत्ति महत समीरहु बलु अइअतुलु तिविट्ठकुमारह। एत्थु ण कि पि बप्प कोऊहलु णहूँ चवेडचप्पियकुंजरकुलु। एंव सीहु को करहिं णिपोलइ कोडिसिलायलु जइ संचालइ ।
तो जाणहुँ होसइ पुण्णाहिउ हरि हरिवंदियणाणिहिं साहिउ । १० आसग्गीवजीवरावणु धुळू माणेसइ तरणिहि जोवणु।
घत्ता-माहियर खरिद एह मत विरएप्पिणु ॥
___ जहिं तं सिलॅरण्णु तहिं गय कण्हु लएप्पिणु ॥१०॥ पत्ता-अपने पिताके द्वारा किये भ्रूभंगको जानकर अर्ककीतिने राजाको प्रणाम कर अपना सिर झुका लिया ॥९॥
१० __नारायणको सेनाने ससुरका जय-जयकार किया। उससे उनका स्नेहरूपी वृक्ष बढ़ गया । बाहुओंके आभूषगोंकी किरण-मंजरीसे पोले सालेका प्रगाढ़ आलिंगन कर लिया। हर्ष के आसुझों. के जलसे सींचे गये सब लोग बैठ गये । ( यह ) सुमन्त्र कहा गया कि दिनकर तपता है, जिन कर्मका नाश करते हैं, कामदेव, बाणोंसे मर्मको छेदता है। समुद्र, समस्त नदियोंके स्रोतोंको अपने में समो लेता है । चन्द्रमा जनपदके नेत्रोंको प्रसन्न करता है। पवन में बहुत बड़ी भजन शक्ति है, त्रिपुष्ठ कुमारमें अतुल बल है, हे सुभट, इसमें जरा भी कुतूहलकी बात नहीं। अपने नखोंको चपेटसे गजकुलको चोपनेवाले सिंहको कौन अपने हाथोंसे निष्पीडित कर सकता है ? यदि यह कोटिशिलातलको संचालित कर सकते हैं, तो हम लोग जानेंगे कि इन्द्रके द्वारा वन्दित ज्ञानियोंके द्वारा कथित नारायण पुण्याधिक होंगे। अश्वग्रीवके जीवको उड़ानेवाले यह निश्चयसे तरुणीके यौवन मानेंगे?
मसा-मनुष्य और विद्याधर यह मन्त्र रचकर, जहाँ वह शिलारत्न था वहाँ नारायणको लेकर गये ॥१०॥
१०.१.AP सणेह । २. A°पिंगउ ३, AP गाळु गाह्र । ४. सहो पवेर । ५. AP तो । ६. AP पाहिं।
७. Kधु । ८. P सिलरम्म ।
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महाकवि पुरुषवन्त विरचित
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११
गिद्ध अद्धजोयणविस्थिण्णी पाणावणतस्वरसंछपणी। जिष्णपयसेवा इच फलेभाइणि बहुमुणिलक्खमोक्खसुहदाइणि । पुण्ण पवित पावस्त्रयगारी दीसह सिल णं सिद्धिभडारी। कहिं वि दंतिदंतरगाह खंडिय सीहणहरचुयमोतियमंडिय । कहिं वि पलिप्पइ जालावलणे मिडिवाढाणिहसणरुइजलणे । कहिं वि जक्खिपयघुसिणं लिप्पैइ चकतजलधारइ धुप्पइ। कहिं वि णीलगलणियरहि गोलिय वर्णयवधूमधारें मइलिय । कहि वि फुरइ घणदिमिरविमुक्कहिं सपफडाकडप्पमाणिचाहिं । कहिं दि भमियमिगणाहिमओहें सुरहिय सेविय भमरसमूहें। कहि वि वियंभिय सुइसुहगौरव किंणरगेयवेणुवीणारवं । सा परियंचेप्पिणु अचेप्पिणु सिद्धसेस रापहि लएप्पिणु । घचा-पुणु भणित अणंतु पेक्खहुँ सिल अण्णावहि" ॥ हयकंठकयंतु होसि ण होसि वदावहि ॥११॥
१२ ता सिल बम्बायंतहु कण्हा दुजणदेहवियारणतण्हहु । पवरकरिकरायारहिं बाहिं पाहाणुट्टियभूसणरे हिं।
स्निग्ध आधे योजन विस्तीर्ण, तरह-तरह के वमवृक्षोंसे आच्छन्द, जिनपदकी सेवाके समान फलकी भाजन, अनेक लाखों मुनियोंको मोक्ष-सुख देनेवाली। पुण्यसे पवित्र और पापका क्षय करनेवाली । वह शिक्षा ऐसी दिखाई देती है मानो सिविरूपी भट्टारिका हो । कहींपर वह हाथियोंके दांतोंके अग्रभागसे खण्डित थी, कहींपर सिंहोंके नखोंसे च्युत मोतियोंसे अलंकृत पो। कहींपर ज्वालाके जलनेसे प्रज्वलित थी, कहींपर सुअरकी दालोंके संघर्षणसे उत्पन्न ज्यालासे, कहींपर यक्षिणीके पैरोंकी केशरसे रंजित है, और चन्द्रकान्त मणिको जलधारासे घुली हुई है, कहींपर मयूरोंके समूहसे नोलो, और दावाग्निके धुएंसे काली। कहींपर सघन अन्धकारसे मुक्त, सर्पके फनसमूहके माणिक्योंसे चमकती है। कहींपर घूमते हुए कस्तुरीमृगके मदसमूहसे सुरभित है और भ्रमर समूहसे सेवित है, कहींपर पवित्रता, सुख और गौरव फैल रहा है और किन्नरों के द्वारा गाये वेणु और वीणाके शब्द हैं। उसकी परिक्रमा और पूजा कर और राजाओंके द्वारा अक्षत लेकर
पत्ता-नारायणसे फिर कहा गया हम देखें, तुम शिला उठाओ और बताओ कि वह अश्वग्रीवके लिए यम होगी या नहीं होगी ? ||११॥
१२ जिसे दुर्जन देहके विदारणको तृष्णा है, ऐसे तथा शिलाको उठाते हुए कृष्णकी, प्रवर गजको सूड़के समान तथा पत्यरपर लिखी गयी भूषण-रेखाओंवाली बाहुओंसे हरिण उरतलपर गिर पड़े। ११.१ AP बमोयण । २. A फलुभाषिणि; P फलभाविणि । ३. AP°जलणें । ४. A लिपह । ५. A
णीलमणिणियरहिं । ६. P वणद। ७. AP मृगणाहि। ८. AP सुरहिपसेविय । १. A°गारउ । १०. वोणारत । ११. A चावहि; P ओचावहि । १२. A दाबइ।
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महापुराण
[५१.१२. ३उरय लि णिवडियाई सारंगई दसदिसि वहिवि गयाई विहंगई । पंतिणिषद्ध कसिणई अरुणाई णं रिउकामिणिकंठाहरणई। दिवई पायउलाई चलतई णं अरिअंतई लंबललतई। गेरुयवाणि विचलिख रत्तई हिर जाइ वइरिहि णिग्गतई। इंसपंति णहमंडलिया पाडेहभाला व माय३ । भमरामेलष्ठ णीलस लोला रोसहुयासधूमु ण घोला । दलियाई मलियई वेशीभवणई ___णावइ खलयणपट्टणभवणई। गट्ठई कीलासुरणिउरुंबई णिग्गयाई णं सत्तकुटुंबई। पत्ता-दंडकरेहि सिल फैण्हें उचाइय ||
पडिसत्तुधरिति हरिवि णाई दक्खालिय ॥१शा
१०
उन्नाइय सिल सोहइ तह करि अट्ठमभूमि व मुवणत्तय सिरि । जं चालिय सिल सिरिरमणीसें तं सो संथुउ जलणजबीस। संथुठ अवरु पयावा राई संथुम बहुम हिवइसंघाएं।
संथुड लंगलहररविकित्तिहिं संथुन सुरणरविसहरपत्तिाह । ५ एम्वहिं तुहुँ जि देव महिराणउ तुगु पुरिसु अगि गस्थि समाणत । विहंग उरकर दसों दिशाओं में भाग गये । पंक्तिबद्ध काले और लाल वे ऐसे मालूम होते थे मानो शत्रुकामिनियोंके कण्ठाभरण हों। चलते हुए नागकुल ऐसे दिखाई दिये, मानो शत्रुओंकी चंचल आते हों। गिरता हुआ लाल-लाल मेरूका जल ऐसा मालूम होता है मानो शत्रुका निकलता हुआ खून हो। हंसोंको कतार आकाशमण्डलमें उड़ती है मानो पत्र योद्धाओंकी अस्थिमाला हो, नीला भ्रमरसमूह इस प्रकार मँडराता है, मानो कोषल्पी आगका धुआं व्याप्त हो रहा हो। लताभवन चूर्ण-चूर्ण होकर मैले हो गये, मानो दुष्टजनोंके नगर और भवन हों। क्रीड़ासुरों के समूह इस प्रकार नष्ट हो गये मानी शत्रुओंके कुटुम्ब निकल पड़े हों।
घसा-कृष्णने अपने ऊँचे हाथोंसे शिलाको उठा लिया जैसे उसने प्रतिशत्रुकी धरतीका हरण कर दिखाया हो ॥१२॥
उठायी गयो शिला उसके हाथमें ऐसी दिखाई देती है जैसे भुवनत्रयके सिरपर मोक्षभूमि हो। अब लक्ष्मीरूपी रमणोके पति नारायणने शिलाको चलायमान कर दिया तो ज्वलनमटोने उनकी स्तुति की, बलभद्र और सूर्य के समान कीर्तिवाली सुर-नर और विषधरोंकी पंक्तिने स्तुति को-“हे देव, इस समय तुम्ही पृथ्वीके राजा हो, जगमें तुम्हारे समान दूसरा पुरुष नहीं है, तुम पुरुषोत्तम हो, तुम धरतीको धारण करनेवाले हो, गिरते हुए भाइयोंके लिए तुम आधारस्तम्भ हो,
१२. १. AP किसिणई । २. AP वाणिरु । ३. AP हिरु । ४. गावइ । ५. AP बहह । ६. AP
कण्हे ग्वालिय । १३. १. AP°विसहरपंतिहि ।
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५१. १४.८]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित तुई पुरुसोत्तम तुहुँ धरणाहरु णिवढंतह बंधहुं लग्गणतरु । तुई इक्खावंसबरवयव तुह पडिमल णस्थि तिहुवणि महु। साड्ड साहु तुद्द सोहइ विका अण्णहु एहन कासु परफ। एम भणतहं घोसगहीरई कउ कलयलु दिण्ण जयतूरई। परिमलबहलई वण्णविचित्तई अमरहिं पंजलिकुसुमई घिसई । चंडहिं भुयदंडात पहिमालय पण लिद माहवेण नहि धलिय । मालालकिड मधि पसत्थइ कालभदित्ति णाइ रिउमथइ । पत्चा-खगमहिवाणाह वणु मेल्झिवि पडिआइय ॥
हरिबलसंजुत्त पोयणणयह पराइय ॥१३॥
अहिवंदिय दहिअक्खयसेसह पुरि पइसंतहं ताई णरेसह । मंदिरि मंदिरि मंगलकलयलु णश्चइ कामिणि घुम्मइ महेलु । मंदिरि मंदिरि छबरंगावलि बझाइ वोरणु वित्तधयावलि । मंदिरि मंदिर कलस सउप्पल णिहिय अयणविलुलियपक्षबदल । ता तहिं जंप पुरणारीयणु सुड्यालोयणपयडियधणथणु । का वि भणइ बह राव पयावर एड खगाहिट रहणे उरवा। का वि भणह है सो संकरिसणु इलहरू इलि करंतु वि करिसणु ।
का षि भणइ इहु सो णारायणु जेण संयंपहाहि हित्त मणु । तुम इक्ष्वाकुकुलके श्रेष्ठ वषपट हो, तुम्हारे समान प्रतिभट त्रिभुवनमें नहीं है। साधु-साधु, तुम्हें पराक्रम शोभा देता है। और दूसरे किसका ऐसा पराकम हो सकता है ?" इस प्रकार कहते हुए उनका कलकल शब्द होने लगा, गम्भीर घोषतूर्य बजा दिये गये। परिमलोंसे प्रवुर रंगबिरंगी कुसुमाजलियाँ देवों द्वारा छोड़ी गयीं। प्रचण्ड बाहुदण्डों द्वारा प्रेरित उस शिलाको माधव (त्रिपृष्ठने) वहीं इस प्रकार रख दिया, मानो मालासे अंकित मुकुट और प्रशस्त शत्रु मस्तकपर मानो कालभक्तिःपता हो।
पत्ता-विद्याधरों और मनुष्योंके राजा वन छोड़कर वापस बा गये और त्रिपृष्ठकी सेनासे संयुक्त वे पोदनपुर पहुंचे ।।१३||
hary
दही, अक्षत और निर्माल्यसे नगरमें प्रवेश करते हुए उन नरेशोंकी अभिवन्दना की गयी। घर-घरमें मंगल कलकल होने लगता है। कामिनी नृत्य करती है । मृदंग बज उठता है। घर-घरमें षड्रंगावली होने लगती है, तोरण और रंगबिरंगी ध्वजमाला बोधी जाने लगती है। घर-घरमें, जिनके मुखपर पल्लवदल मदित हैं, ऐसे कमल सहित कलश रख दिये गये हैं। तब वहाँ, सुन्दरके अवलोकनमें जिसके सघन स्तन प्रकट हुए हैं, ऐसा पुरनारीजन कहता है। कोई कहती है कि यह राशा प्रजापति है। यह विद्याधर राजा रणनूपुरका स्वामी है, कोई कहती है, हे सखो, यह वह हलधर (बलभद्र) है जो कर्षण नहीं करते हुए भी हलधर (किसान) हैं । कोई कहती है कि यह कह
२.A हक्खाकवंस; Pइस्माययंस । ३. A परिषकम् । ४. फियमापसत्यह। १४. 1. A पुरपयसतह: P पुरि पपसंतहं । २. A मंदलु । ३. AP पढ़ । ४. AP अकरंतन करिसणु ।
५. P सयंपयाहि ।
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२००
महापुराण जेण सिलायलु णहि संचालित जेण जसेण गोत्तु खजालिन । १० दीसइवें वम्महु जेहत पर पुष्णहिं जइ लम्मा एहरु ।
घसा-तं पुरु पइसिवि विरझ्यपणयपसायहिं ॥
बडारिस गेहु खगवइमहिवराय हि ।।१४।।
बिहि बि विषाहु तेहिं पारख कस मंडर रयणंसुसिणिद्ध । खंभि खंभि पजलियपईवहि लंबियमोसियवामकलावहिं । पवणुद्ध्यचिंधपम्भारहि मरगयमालातोरणदारहिं । वजंतहिं पडुपडहिं संखहिं णाणावाइतेहिं असंखहिं। कामिणिकरयलपलियसेसहि दियवरदेवदिण्णसीसहिं । वियसियसयदलसरलदलच्छे णियमुहिवपछलेण सिरियच्छे । परिणिय सुंदरेण सा सुंदरि गठ घर जहिं शिवसइ जगकेसरि । राउ मऊरगीवणिवतणुरुह खयरमनसुबुंबियपयसररुहु।
श्रद्धचकिचकंकियकरयलु दभुयजुयअंदोलियपरबलु । १० भणिस तेण माहिकामिणिमाणेणु भुराणवर्णतवासिपंचाणु।
देव तुरंगगीय बुणिरेसिउं णिसुणि णिसुणि सिहिजडिणा बिलसिउँ । नारायण है कि जिसने स्वयंप्रभाके मनका हरण कर लिया है। जिसने शिलातलको आकाशमें घुमा दिया, जिसने अपने यशसे गोत्रको उज्ज्वल किया, जो रूपमें कामदेवके समान है, यदि पुण्योंसे इस प्रकारका पति पा लिया जाये।
__ पत्ता-उस नगरमें प्रवेश कर जिन्होंने प्रणय-प्रसार किया है ऐसे विद्याधर-राजा और मनुष्य-राजामें बहुत बड़ा स्नेह हो गया ॥१४॥
उन दोनोंने विवाह प्रारम्भ किया। उन्होंने रत्नकिरणोंसे स्निग्ष मण्डपकी रचना की। खम्भे-खम्भेपर प्रज्वलित प्रदीपों, लटकती हुई मुकामालाओंके समूहों, हवासे उड़ती हुई वषके प्रभारों, मरकत मालाओंके तोरणद्वारों, बजते हुए पडुपटहों-शस्त्रों और असंख्य नाना वाघों, कामिनियोंके करतलों द्वारा डाले गये निर्माल्यों, द्विषवर देवों के द्वारा दिये गये आशीर्वादों के साथ, जिनकी आँखें विकसित कमलके समान सरल हैं ऐसे, तथा अपने सुधीजनोंके प्रति वत्सल सुन्दर नारायणने उस सुन्दरीसे विवाह कर लिया और दूत वहाँ गया जहां विश्वकेशरी, मयूरप्रीव राजाका पुत्र, जिसके चरणकमल विद्याधरोंके मुकुटोंसे चुम्बित हैं, ऐसा चकसे अंकित करतलवाला और दृढ़ बाहुबलसे शत्रुसेनाको आन्दोलित करनेवाला अर्ध चक्रवर्ती राजा ( अत्यनीय ) रहता था। भूमिरूपी स्त्रीके द्वारा मान्य और संसाररूपी वनके भीतर निवास करनेवाले उससे उसने कहा, "हे देव अश्वग्रीव, ज्वलनबटीकी पण्डितों द्वारा निरस्त चेष्टा सुनिए। आप जैसे विद्यापर राजाको १५. १. A रयणंसुसमिद्धत; P रयणसुसमिझट । २. AP परणिय । ३. A माणण । ४. A पंचाणण ।
५. P तुईणिरसित।
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महाकवि पुष्पयन्त विरचित पई णयरणरणाहु पमाइवि पोयणेपुरवापुसा जाइवि। सामण्णहु वियलियाणणियरह कण्णारयण दिण्ण भूमियरह। पत्ता-अह सो सामण्णु भणहुँ ण जाइ खगाहिय ॥
जे मारिच सीहु चालिय सिल बसिफय णिष ॥१५॥
सं णिसुणिावे णरणाह विरुद्धस णं केसरि गयगंधषिलुद्धत। धगधगधगधगंतु चंचलसिंह घयधाराहि सित्तणं हुयबहु। रत्तणेत्तरहरावियबसदिसु पुप्फयंत णं फणि आसीविसु । णं जैउ तिहुयणगिलणकयायर परैसिरिहर असिवरपसरियकरु । पवइ सरोसु मिडिर्भसभीसणु करतलप्पताडियरयणासणु। अ जलगज हि मारिवि संगरि घिमि कयंतवणविवरंतरि । सहं जावाएं देंवि विसावलि मुक्खइ भग्गउ धर्वा पावर कलि । तहि अवसरि पालियनुषसासणु रायसहासहिं मगिर पेसणु | ते णउ पेसई सई संचालित पह हरिमस्समंति" बोलिस। जो मयवइजीविष्टं चहाला . कोलिसिलायलु जो संघरलइ।
सो सामण्णु ण होइ निरुत्ता तुम्हहुं अपणु जाहुंण जुस । छोड़कर तथा जाकर पोदनपुर नगरके राजाके अत्यन्त सामान्य, गुणसमूहसे रहित, पुत्रको मनुष्य होते हुए भी कन्यारत्न दे दिया।"
पत्ता-अथवा उस सामात्यहा हे राजन्, वर्णन नहीं किया जा सकता कि जिसने सिंहको मार डाला, शिलाको चला दिया और राजाको अपने वशमैं कर लिया ॥१५॥
__यह सुनकर नरनाथ (अश्वनीव ) विरुद्ध हो उठा मानो हाथी को गन्धका लोभी सिंह हो, धक-धक-धक जलती हुई चंचल शिखावाली, घृत पाराषोंसे सींची मयी मानो बाग हो, लाल-लाल नेत्रोंको कान्तिसे दसों दिशाओंको रेजित करनेवाला माशीविष, पुष्पके समान पतिवाला मानो नाग हो, जो मानो त्रिभुवनको निगलनेमें बादर रखनेवाला, दूसरेफी भोका अपहरण करनेवाला, असियरसे हाथ फैलाये हुए यम हो। कोषमें आकर भौंहोंसे मटोंके लिए भयंकर हाथके प्रहारसे सिंहासनको प्रताड़ित करनेवाला वह कहता है कि में आज युद्ध में ज्यान जटोको मारकर, यमके मुखविवरके भीतर हाल दूंगा और दामादके साथ उसको दिशावलि दूंगा। भूखसे नष्ट यम तृप्ति प्राप्त कर लेगा। उस अवसरपर नुपशासनका पालन करनेवाले उससे हजारों राजाओंने माज्ञा मांगी। परन्तु उसने नहीं भेजा, वह स्वयं चला। हरिएम मन्त्रीने उससे कहा कि जो सिंहके जीवका नाश करता है, जो कोटिशिलाको चलाता है, वह निश्चय ही सामान्य व्यक्ति नहीं है। इसलिए तुम्हें स्वयं जाना उचित नहीं है।
. AP पोयणपुरिबह । ७. P omits | १६. १. AP रत्तणेत्तु । २. AP अमु । ३. A सिरहर । ४. AP भिभियं । ५. P मयासण।
६. AP कयंवदंतवियरतरि । ७. AP वामाएं । ८. A पव; Pघड । ९. AP णिवसासणु । १०. AP पेसिय । ११. P हरिमंसुपुर्मतिहि बोलिर; P गरिमस्ससुमंतिहि बोभित ।
२७
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२१०
[५१. १६.१२
महापुराण पत्ता इयकठे इत्त विवस ण कि पि विवाएं ।।
कि सूरहु को वि वहिमु दीसह तेएं ॥१६॥
मझु वि पासिल को अगि सूरत को महिवइ बरवीरघियारच । रयणमाल बद्धी मंडलगलि ह अवगणिउ जाषि महियलि । जेण कण्ण दिण्णी भूगमणहं सो पइसरस सरणु सि हिपषणई । सो पासरच सरणु देविंदहु सो पइसरउ सरणु धरणिदछ। सोहउं कैद्धिवि अनुजि फाडमि वइपसपुरबरपंथें धामि । सवणायणियपावरस सिल पालिजह किं ण बलरें। सीह सीड सों सोसिज्जा एथहिं साहसेहिं लजिजइ। सरुणीमागणवाडयवंत किं वेहाविउ सो वरइत्तें। मणिकुंडलमंजियगंडयलई दोई वि तोडमि रणि सिरकमलई। एंव पवेषि धीर हुंकारिवि णिग्गउ मंतिमंतु अबहेरिवि । संदाणियविमाणपरिवाडिहिं परिवारिस विजाहरकोडिहिं । ओरंजंतिहिं आहषभेरिहिं सुम्यो पाइ रहि नारि । णं सायर मजायविमुकर महिहरमेहल भिवि थकाउ ।
पत्ता-अश्वग्रोव बोला, हे विद्वान्, विवादमें कुछ भी नहीं है, क्या तेजमें कोई भी सूर्यसे बड़ा दिखाई देता है ॥१६॥
मेरी तुलनामें संसारमें कौन बड़ा है ? कौन राजा वरवीरोंका विदारण करनेवाला है ? कुसेके गलेमें रत्नोंकी माला बांध दी गई, और मेरी उपेक्षा की गयी। धरतीसलपर जाकर जिसने भूमिपर चलनेवालोंके लिए कन्या दी है, वह आज पवन और आगमें प्रवेश करे, वह देवेन्द्रकी शरणमें जाये, वह धरणेन्द्रकी शरणमें प्रवेश करे, ससे में खींचकर आज ही फार डालूंगा और यमपुरके मार्गपर भेज दूंगा। जिसने अपने कानों में प्रावट-शब्द सुना है ऐसे बैलके द्वारा शिलाका संचालन क्यों न किया जाये.? सीह और सोधु (सिंह और मद्य ) का शोषण शोह (मद्यप और गज) के द्वारा किया जाता है, इन साहसोंके द्वारा लज्जा आती है, युवती मांगनेके लिए चापलूसी करनेवाले वरवत्तने इस प्रकारकी गर्जना क्यों की? जिसके गण्डतल मणिकुण्डलोंसे मण्डित हैं, ऐसे दोनों सिर-कमलोंको सोई गा। यह कहकर और हुँकारकर वह धीर मन्त्रीके मन्त्रकी अबहेलना करके गया। प्रदर्शन किया गया है विमानोंकी परम्पराका जिसमें ऐसी विद्याषरोंकी श्रेणियों के द्वारा वह घेर लिया गया । बजते हुए युद्धके नगाड़ोंके साथ, युगक्षयमें जैसे बजती हुई मारियों के साथ मानो समुद्र मर्यावाहीन हो उठा हो। और मानो महीपरकी मेखलाको रुख कर बैठ गया हो। १७. १. AP पासि । २. P को वि अगि । ३. A कामि । ४. AP विवाण । ५. A जुगलइ ।
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-५१. १७. १५ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित पत्ता-इह वाहिणभरहि वणि जलंततणुसार ॥
आवासि सेण्णु पुष्फदंतकरवारइ ॥१७॥
जय महाराणे तिसद्विमहापुरिसाणालंकारे महाकपुष्फर्यतविरहए महामध्यमरमाणु पबिप महाकम्मे विविट्ठसिंघमारणकोरिसिलुचापणं णाम एकवण्णासमो
परिलो समतो
घत्ता-इस प्रकार दक्षिण भरतक्षेत्रके वनमें जिसमें कि तणसमूह जल गया है, तथा सूर्यचन्द्रमाकी किरणोंको रोकनेवाले वनमें उसने सैन्यको ठहरा दिया ॥१७॥
इस प्रकार प्रेस महापुरुषों के गुणाकारों से युक्त महापुराणमै महाकवि पुष्पदन्त पारा विरचित पूर्व महामण्य भरत द्वारा भनुमत महाकाव्य में त्रिपुडके द्वारा सिंहमारण और कोटिशिक्षा उत्तासन नामक इक्यावनवा परिच्छेद
समास शुभा ॥५॥
षणकणसारा।
६. A जलतणकणसारह: P गाम ।
७. AP को सिलासंचालणं विविष्ट विराहरूस्लाणं
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संधि ५२
दलियारिंदकरि रूसिवि हरि खगकुलभवणपईबहु ॥ घिरमववादरवसु आलभूमिसु मिडिल गंपि हयगीवहु आधुवकां।
दुवई-खुहियगिविदेकिंकररवगजियगंधसिंधुरो॥
जाव तिखंडखोणिपरमेसरु चाङ्गिन तुरयकंधरो॥ तावसहि पोवणणामणयरि भूगोयरवइधरैवसियखयरि । पणवियसिरेण मउलियफरेण सिहिजहिहि सिट्ट जाइवि चरेण । भो"खगवई णिरु अण्णायपट्टि तुझुप्परि आयेउ चकवट्टि। आरुहब कण्णाकारणेण
जं एव समासिउ चारणेण । तं सुणिधि पसाव तेण भपिउ अम्हा सुई सन्तान मीहु ब्रेणिउ । १० सो उटिल एवहिं बलमहंतु धणुलंगूल सरणहरवंतु।
असिजीहारल्लवललललंतु मंतिजइ एवहिं सो जि मंतु | अवसमइ जेण सो कूरचित्तु ता सस्सुपण सहसति उत्सु ।
सन्धि ५२ शत्रुगजोंका नाश करनेवाले नारायण और बलभद्र पूर्वभवके वैरके वशीभूत होकर और बहाना पाकर कोधपूर्वक विद्याधरकुल वलयके प्रदीप अश्वग्रीवसे जाकर भिड़ गये ।
पत्ता-क्षुब्ध विद्याधरेन्द्र-समूहके अनुचरोंके शब्दसे जिसका गन्धहाथी गर्जित है, ऐसा त्रिखण्ड धरतीका स्वामी अश्वग्नीव जबतक चला
amarunawwama-
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तबतक, यहां जिसमें मानवराजाके घर विद्याधर बसे हुए हैं, ऐसे पोदनपुर नगर में सिरसे प्रणाम करते हुए और हाथ जोड़कर दूतने ज्वलनजटोसे जाकर कहा-“हे विद्याधरराज, अत्यन्त अन्यायो चक्रवर्ती राजा तुम्हारे ऊपर आया है। कन्याके कारण वह तुमसे क्षुब्ध है ।" जब दूतने इस प्रकार संक्षेपमें कथन किया तो उसने ( ज्वलनजटीने ) प्रजावतोसे कहा कि "हमने सुखसे सोते हुए सिंहको घायल कर दिया है, बलसे महान् इस समय धनुष जिसकी पूंछ है और जो तीररूपी नखोसे युक्त है, ऐसा वह अपनी तलवाररूपी जिह्वाको लपलपाता हुआ उठ खड़ा हुआ है, इस समय बहो मन्त्र करना चाहिए जिससे क्रूरचित्त वह शान्त हो जाये। आग वहीं
-....
.
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____A gives, at the beginning of this Sandhi, the stanza दीनानाथचनं etc. for which see page 139. P gives in at L. K does not girc it anywhere. १. १. AP° । २. AP सेंधुरो। ३. AP घरि वसि । ४. A सो खगवा । ५. अण्णायवति ।
६. A झावह । ५. A तं णिसुणि । ८.A सुहि । ९. A धुणिज; P पणि । १०. A सुम्मएण ।
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-५२.२.१०]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित तइ जलइ अलणु जहणस्थि वारि जइ णस्थि संति तो पडइ मारि 1 भो आणइ मरणु पहाणवइरु "भो एस्थु ण णिजइ कालु सुइरु। पहु लहु दीसइ जॅजेवि सामु दा लिहसिवि साराह पर देशा !
घत्ता-सज्जणु उवसमइ खलु कि खमइ बोझतहुँ"सुइमिट्ठल ।
घिन हुयेवह मिलिउं जललवजलिङ बप्प किंण पई दिट्टा ॥१॥
१५
दुवई-मित्त तिविधि रुद्वि गिरिधीर वि एंति ण वइरिणो रणं ।।
कि विसहति दंति हरिणाहि वखरकररुत्रियारणं ॥ जइयहं अहिवलयविलंबेमाण वणि अचाइय सिल इलसमीण। मई जाणिठं वइयहूं कैहि वि कालि देवहूं पेक्खंतहं भडवमालि। तोडेसइ यकंधरह सीसु
रत्तच्छिवत्तु भूभंगभीसु । को हालाहलु जीहाई कलइ को करयलेण हरिकुलिखें दलइ। को गयणि जंतु अहिमया खलइ को णियबलेण धरणियलु तुलइ । को कालु कयंसहु माणु मलइ को जलणि णिहित्तु वि जाहिं जलइ । को फणिवाइफणमणिणियरु भइ को पद्धिय विज्जु सीसेण धरह।
को भंडा सह महुं भायरेण तो जंपित मंति सायरेण । जलती है जहां पानी नहीं होता, जहाँ शान्ति नहीं होती तो वहाँ आपत्ति आती है, प्रधानका वैर मृत्युको लाता है। अरे, यहाँ बहुत समय नहीं बिताना चाहिए। हे प्रभु ! शीघ्र ही वह सामने दिखाई देगा।" (यह सुनकर) तब प्रथम राम (बलभद्र विजय) ने हँसकर कहा
पत्ता-सज्जन शान्त होता है, कानोको मीठा लगनेवाला बोलनेपर भी क्या दुष्ट क्षमा करता है? हे सुभट, आपसे मिला हुआ (जलता हुआ) और जलकणोंसे उत्तप्त, मिला हुआ घी क्या तुमने नहीं देखा ? ||१||
१०
है मित्र, त्रिपुष्ठके ऋत होनेपर भी पहाड़की तरह धीर वेरी रणमें नहीं आते । सिंहके द्वारा तीने नखोंसे विदारणका क्या गज उपहास करते हैं ? जब सर्पमण्डलसे अवलम्बित पृथ्वी जैसी शिलाको उसने उठाया था, तभी मैंने जान लिया था कि देवोंके देखते हुए, योद्धाओंके कोलाहट के बोच किसी भी समय वह अश्वग्रोवके लाल-लाल आंखोंवाले तथा भ्रूभंगसे भयंकर सिरको तोड़ेगा? विषको जोमसे कौन छूता है ? करतलसे इन्द्रके वनको कौन चूर-चूर कर सकता है। थाकाशामें जाते हुए सूर्यको कोन स्खलित कर सकता है ? कोन अपनी शक्तिसे पृथ्वोको तोल सकता है? कौन काल और यमके मानको मैला कर सकता है। कोन आगमें रखे जानेपर भी, नहीं जलता ? नागराजके फनके मणिसमूहका अपहरण कौन कर सकता है ? गिरती हुई बिजलीको कौन धारण कर सकता है ? मेरे भाईके साथ कौन युद्ध कर सकता है ? हब सागर मन्त्री बोला- "हे बलभद्र और चन्द्रमाके समान कान्तिवाले, आपने जैसा जो जाना है, उसमें जरा भी
११. AP घु। १२. A पढम् राम् । १३. A बोल्लंतहो । १४. A हवाहमिलिर; P यहि मिलिस। २.१.A "
विकमाणे । २. A समाणे । ३. AP सहि । ४. AP रसवितु । ५. A'कुडिसु । ६, A फणिवाइफणिमणु । ७. AF को ! ८.A मंतें सायरेण ।
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२१४
१५
१०
महापुराण
जं पई जाणिदं ति तं ण भवि । बसहु कुमारहु मंतसिक्ख । आसी सरतें तुरंतु । तो करइ पर मरणावया । ता ससुरएण उवएस दिष्णु । सत्तमदिणि कंपावित फणिदु । वरदाइणिउ हरिरामेहुं पणवंति ॥ रिउमेदूइ खणि आश्यव देहु नियम पभणंविउ ||२||
भोसीह तुहियरकंति लइ तो वि देव किज्जइ परिक्ख taraराई मणि संभरंतु जइ साहइ विज्जादेवयास विजासाइणविहिभेय भिष्णु fre झाणारूड हलि उबिंदु पत्ता - विज्जाजोइणि
३
दुबई - गारुडविज पुज्जे संसाहिय हरिणा भुवणखोहिणी ॥ अवर महंत सत्संधूरणि पैवर वि णाम रोहिणी ॥
खभणी
चलणिभैणी ।
जयपचारिणी
तिमिरकारिणी । रिमोहणी ।
सहाही
दिकामिणी |
गामिणी विवरवासिणी जलणवरिसिणी
गावासिणी ।
धरणिदौरणी
बंधमोयणी कोंतला छन्दस दिसी
[ ५२.२.११
सलिलसोसणी ।
कुडिलमारणी ।
विविहरूविणी ।
लोहसंखला |
कालरक्खसी ।
भ्रान्ति नहीं। तब भी हे देव, लो, परीक्षा कर लीजिए कुमारके लिए मन्त्रशिक्षाका उपदेश दीलिए वह तुरन्त सात रात तक बैठकर बीजाक्षरोंका ध्यान करता हुआ यदि विद्यादेविय सिद्ध कर लेता है, तो वह दूसरोंके लिए मरणरूपी आपत्ति कर सकता है।" तब ससुरने विद्यासाधन की विधि रहस्य से परिपूर्ण उपदेश उसे दिया। बलभद्र और नारायण ध्यानमें लोन होकर बैठ गये। सातवें दिन नागराज कम्पायमान हो उठा ।
पत्ता- वर देनेवाली विद्यारूपी योगिनियाँ बलभद्र और नारायण ( विजय और त्रिपृष्ठ ) को प्रणाम करती हुई शत्रु के लिए यमदूतीकी तरह, 'आदेश दो' कहती हुई आयीं ॥२॥
३
I
नारायणने संसारको क्षुब्ध करनेवाली पूज्य गारुड़ विद्या सिद्ध कर ली। एक और दूसरी महान् शत्रुको चूर करनेवाली रोहिणी नामको महान् विद्या सिद्ध कर ली । खड्गस्तम्भिनी, वननिशुमिनी, आकाशगामिनी, अन्धकारकारिणी, सिंहवाहिनी, बेरोमोहिनी, बेगगामिनी, दिव्यकामिनी विवरवासिनी, नागवासिनी, ज्वलनवर्षिणी, सलिलशोषिणी, भूमिविदारिणी, कुटिलमारिणी, बन्धमोचनी, विविधरूपिणी, मुक्तकुन्सला, लोहश्रृंखला, दसदिशा-आच्छादिनी,
९. AP सत्तरति । १० A हरियो । ११. Pो ।
३. १. A पुंज । २. A सयल महंत सत"; P सयलमहंतु सत्तु । ३ AP अवर वि । ४. AP बंमिणी । ५. AP सुभिणी ६, AP सोसिणी । ७. P दारिणी । ८AP विविकुंतला 1
3
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-५२.४.९]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित वयणपेसला
विजयमंगला। रिखमालिणी तिक्खलिणी। चदमउलिणी
सिद्धवालिणी। पिंगलोयणा
धुणियफणिफणा ।
चोरघोसिरी। भीरभसिरी
पलयदंसिरी। इय सणामहं
विणकामह। घचा-पंच समागयई विजई सयई वक्खति सवसित्तणु ॥
तोसियवासवहं पलकेसवहं परि करति दासितणु ॥३||
दुवई-विज्जागमणमुणिइ हरिपोरिसि पमरियसिरिविलासए ।
__ णिहय पयाणभेरि जगभहरव वियलिइ सर्यणसंसए ।। विज्जाहरमहिहरणाह बे वि जलणजलि पयावइ धुरि करेवि । चलियई सेण्णई रिचरणमणाई बलएवषासुएयहं वणाई। णहु कंपइ कंपंतहि धपहिं
महि हल्लइ गच्छंतहिं गएहिं । रह चिळवंत चल चिरंति पडिवक्खमरणु णं वजरंति। जाएं हरिखुरधूलीरएण
धूसरिउ सूर दूरंगरण । भडरोले सुत्तट्टि र कयंतु
छत्तहि संछण्णउ दहदियंत । जोइय जणेण परवीरजूर सोमुग्गदेह णं चंद सूर। कालराक्षसी, वचनपेशला, विजयमंगला, ऋक्षमालिनी, तीक्ष्णशूलिनी, चन्द्राच्छादिनी, सिद्धपालिनी, पिंगलोचना, फणीफणध्वननी, स्थविरा, स्थूलधरा, घोरघोषिणी, भीभीषिणी, प्रलयदशिनी इन नामोंवाली और कामनाओंको प्रदान करनेवाली
पत्ता-एक सौ पांच विद्याएं अपनी अधीनता उसके लिए दिखाती हैं। और इन्द्रोंको सन्तुष्ट करनेवाले बलभतू और नारायणके घर दासता करती हैं ॥३॥
Mamir
विद्याओंके आगमनसे नारायणका पौरुष ज्ञात होनेपर तथा लक्ष्मीका विलास फैछनेपर और स्वजनोंका संशय दूर होनेपर विश्वभयंकर प्रयाण-भेरी बजा दी गयी। दोनों विद्याधरराजा और महीधरराजा ज्वलनजटी और प्रजापतिको आगे कर शत्रुसे युद्ध करनेका मन रखनेवाली बलदेव और वासुदेवको सेनाएं चलीं। कांपती हुई ध्वजाओंसे आकाश कांप उठता है, गोंके चलनेपर धरती कांप उठती है। रथके चिक्कार करनेपर परती चीरकार कर उठती है, मानो शत्रुपक्षकी मुत्युको घोषित कर रहे हों। दूर तक गयी हुई, घोड़ोंके खुरोंको धूलिरजसे सूर्य धूसरित हो गया। योद्धाओंके शब्दसे सोया हुआ यम उठ बैठा। दसों दिशाएं छत्रोंसे आम्छन्न हो गयीं । शत्रुवोरोंको सतानेवाले उन्हें लोगोंने इस प्रकार देखा, मानो सौम्य और उग्रदेहवाले चन्द्र-सूर्य हों;
१. AP पोसिणी । १०. A विज्जई सयई। ४.१. Pगमणु मुणिइ । २. A सणसंसए । ३. A जरणनडि । ४. Pघर।
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१०
१५
महापुराण
[ ५२.४. १०
णं अट्टहास बहलंधयार
गच्छेतारणारूढ देद्द झल्लरिमुइंगकाइलरवेण कुसुमियपियालककोल एलि
उवसमरस सिंगारेभार । छलहर हरि णं सियअसियमेह | दिहिं गंपि सर्वरुच्छषेण । तहिक संदणावत्तसेलि ।
वत्ता - पवणचतियहिं घयपंतियहं पाहु णं उप्परि घुलियडं ॥ शियनृणदिहिं पिहुप कुडिद्दि खोणीय चित्तलिय ||४||
अरिपुरवरधरसं दिण्णडाडु आत्त जिणु वम्महसरेहिं आढच वज्जोएहि माणु आढत्त केसरि जंबुपहि आढत्तड गयबरु गद्दहिं आढत्तव रश्व इयदेहि भो देवदेव संधियसरेहिं
५
दुबई -- विचिणिचारचूयेचवचं पयचंदणबद्धकुंजरे ॥
frs पेडियल तुरंगहि लिहिलिने सयढावतगिरिवरे || जोएवि सिविरु णवघणसरेहि विणिवेष्पिणु चरणेरहिं । विज्जाहर भूयरभूमिणाहु ! आढत आहंडलु नरेहिं । आढत्तर तरुणिय किसाणु | आदत्त जैवं जीवियचुप । आवत्त मंतु गहिं । आढत्तर मोक्खु वि जंडतवेहिं । आदत्त तुहुं नियकिंकरेहिं ।
१०
मानो अट्टहास और सघन अन्धकार हों, मानो शान्तरस और शृंगारभार हो, चलते हुए गजोंपर आरूढ शरीर बलभद्र और नारायण ऐसे मालूम होते हैं, मानो सफेद और काले मेघ हों । मल्लरी मृदंग और काहलोंके शब्दोंसे और युद्ध के उत्साह के साथ कुछ दिनों तक चलकर वे, जिसमें प्रियाल अशोक और एला वृक्ष खिले हुए हैं, ऐसे स्यंदनावर्त पर्वतपर वे ठहर गये ।
धत्ता - हवासे चलती हुई ध्वजपंक्तियोंसे मानो ऊपर आकाश घूम उठा और नोचे नाचती हुई राजनर्तकियों और विशाल पटकुटियोंसे धरतीतल रंग-विरंगा हो उठा ॥४॥
५
जिसमें, चिचिणी चार मम्र घो चम्पक और चन्दन वृक्षोंसे हाथी बँधे हुए हैं और घोड़ोंके हिनहिनानेका शब्द हो रहा है, ऐसे शकटावर्त पहाड़पर शत्रुसेता ठहर गयी । नवघनके समान स्वरवाले वर मनुष्योंने शिविर देखकर प्रणामकर राजासे निवेदन किया- “जिसने शत्रु नगरोंके घरोंको आग लगा दी है और जो विद्याधर मनुष्यों की भूमियोंके स्वामी हैं, ऐसे है देवदेव, कामदेव के बाणोंने जिनवरको आक्रान्त किया है, मनुष्योंने इन्द्रको आक्रान्त किया है, जुगनुओंने सूर्यको आकान्त किया है, तरुसमूहने आगको आक्रान्त किया है, सियारोंने सिंहको आक्रान्त किया है, जोवनसे छत लोगोंने यमको आकान्त किया है, गधोंने गजवरको आकान्त किया है, ग्रहोंने मन्त्र के उद्गमको आकान्त किया है, कपटोंने कामदेवको आकान्त कर लिया है, जड़तपस्वियोंने मोक्षको माकान्त किया है, जिन्होंने अपने तीरोंका सन्धान कर लिया है ऐसे अपने ही अनुचरोंने तुम्हें
५, A सिगारहार ६, P राम । ७. AP णिवर्णाहिं ।
०
1.
५. १. A चास्य वास्तूयषय । २. A बिलतुरंग । ३. AP जमु 1४, A पतंग ५. AP कहहिं । ६. P अभवेह |
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-५२. ६. १० ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित रहणेउरवा परवइ सबंधु सहुं गंदणेण चंदाहिचिंधु । अण्णेक्कु पयावर पोयणेसु आउँदछु सुद्छु खयकालवेसु । अण्णेक्कु मुसलि तहिं कसणवासु अण्णु वि जो दिवस पीयवासु । कि अखमि पहुसांगत्यु सासु च वि संकाइ णवंति जासु । घत्ता--णिसुणिषि तुह् पलणु खलयणमलणु देवयार साहेपिणु ।।
वलइयधणुवलय णं खयजलय थिय महिरि आवेप्पिणु ॥५॥
दुवई-धवइ खगिदचंदु करवालविहंडियतुरयकरिसिरे ॥
रततरंतमत्तरयणीयरि णिहणविं रिठ रणारे ।। ता कहए मंति णामें विहार जगडिभा पवहिं तुह जि ताउ । जइ आणालंघणु फयट तेहि सुय दिण्ण पडिच्छिय पत्थिवेहिं । एहल आयाह णराहिवाई पेसिज्जउ दूयउ को वि ताई। सो दूयउ जो भासापवीणु सो दूय जो पंडित अदीषु । सो दूयड जो हिमाणि दाणि सो दूयउ जो मिर्यमहरवाणि । सो दूयउ जो गंभीरु धीर सो दूयउ जो जयवंतु सूरू। सो दूयट जो परचित्तलक्खु सो दूयउ जो पोसियसपक्खु ।
सो दूयच जो बुझियविसेसु सो दूयउ जो सुविसिट्ठवेसु । आक्रान्त किया है। रथनूपुरका स्वामी अपना बन्धु राजा ( ज्वलनजटी ), तथा पुत्रके साथ, चन्द्रमाके समान उज्ज्वल सर्पध्वजवाला एक दूसरा पोदनपुरका स्वामी प्रजापति क्षयकालके रूपमें तुमपर अत्यन्त क्रुद्ध है। एक ओर विजय बलभद्र नोलवस्त्रोंवाला है और दूसरा जो पोले यस्त्रोंवाला दिखाई देता है, मैं उसकी प्रभुसामर्थ्यका क्या वर्णन करूं ? देव भी शंकासे उसे नमन
पत्ता-तुम्हारे दुष्टजनोंका मर्दन करनेवाले प्रस्थानको सुनकर, विद्यादेवियोंको सिद्ध कर, जिन्होंने धनुषकी प्रत्यंचाओंको तान लिया है, ऐसे वे, मानो क्षयकालके मेघोंके समान पर्वतपर आकर ठहर गये हैं ||५||
तब विद्याधर राजा कहता है, जिसमें घोड़ों और हाथियों के सिर तलवारसे स्खण्डित होते हैं, तथा रक्त में निशाचर तैरते हैं, ऐसे युद्धप्रांगणमें, मैं शत्रको मारूंगा।" इसपर विधाता नामका मन्त्री कहता है, "इस समय विश्वरूपो बालकके तुम पिता हो, यदि जन राजाओंने आज्ञाका उल्लंघन किया है और दी हुई कन्याको स्वीकार कर लिया है, तो महाधिपोंका यही आचार है कि उनके पास कोई दूत भेजा जाये। दूत वह है जो भाषामें प्रवीण हो, वह दूत है जो विद्वान और अदीन हो, वह दूत है जो स्वाभिमानी और दानी है, वह दूत है जो मधुर वाणी बोलनेवाला है, वह दूत है जो गम्भीर और धोर है, वह दूत है जो नीतिवान् और शूर है। वह दूत है जो दूसरेके मनका ज्ञाता है, यह दूत है जो अपने पक्षका समर्थन करनेवाला है, वह दूत है जो विशेषको
७. A चंदाहचिधु; T चंदाहनिंबु चन्द्रमागरियाः । ८. A आरटु । ६. १. गिदबंडु । २. A fणहणिवि। ३. A मियमडुरवाणि । ४. A अभिमाणि पाणि । ५. A साद । ६. A सुबिसुद्धवेसु ।
२८
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२१८
१५
सो दूर जो कयसंधिणासु सो दूस जो णिविमंतु सोदू जो बहु सो उ जो रिडहिययस्लु शिवसंतगरूयतंधाररोलु पण वेषि तेणें पालियविसिट्
महापुराण
मार का चपिवि कवालु मा सरसयणीयलि सुबउ ताउ माउ रह चूरणणिहाड दीस मा सयण मरणे मारुहरु कालवेयालु पियव माकर मृगाव पुत्तदुक्खु
घता - दूरं वज्जरि पहु विष्फुरिव दिव्वपुरिसेर्गुणजागर ॥ गुणिहेस तु अणुहुंजि हुं पेक्खु णवेपिशु राण ||६||
जो वज्जरियसामु ।
सो दूयउ सो दूड जो कुलजाइर्वतु । सो दूर जो संगाचं |
सो दूत पेसिडरचलु | छवि गिरिगहणंतरालु अस्थाणि णिविरुतिविट्ठु दिनु
तं
I
दुबई- -जा मैग्गिय णिवेण खगसुंदरि सा तुह होइ सामिणी ॥ देवि खमंसणिज सा कामहि किं कामंध कामिणी ॥
ט
[ ५२.६.११
७८. P संगामि ७. १. A मयि खगेण णिवसुंदरि । ५. A छिउज। ६. AP हलहरु |
भक्तुम गिद्ध, भतजालु । मा पोयणपुरवरु खयद्दु जाव | भज्जंतु म चामरछत्त फेट | रसससमुहकंकाल से | मासूरकित्ति जमकरण वियव | मा हिज्जैन लहरेकपलवस्तु ।
जाननेवाला है, वह दूत है जो विशिष्ट वेशवाला है, वह दूत हैं जो सन्धान करना जानता है, वह दूत है जो 'साम'का कथन करनेवाला है, वह दूत है जिसने दण्डका उपदेश दिया हो, वह दूत है जो कुलीन और जातिवाला हो, वह दूत है जो युद्ध में प्रचण्ड हो, वह दूत है जो शत्रु के लिए हृदयका काँटा हो। ऐसा वह रत्नचूड़ नामका दूत भेजा गया। जिसमें निवास करते हुए स्कन्धावारका भयंकर शब्द है, ऐसे उस गिरिके गहन अन्तराल में जाकर उसने प्रजाका पालन करनेवाले दरबार में आसनपर बैठे हुए त्रिपृष्टको देखा ।
धत्ता- दूतने कहा - "हे प्रभु, विकसित दिव्य पुरुष के गुणगणके ज्ञाता गुणी व्यक्तिको ग्रहण करने में ओजस्वी तुम सुखका भोग करो और प्रणाम कर राजासे मिल लो || ६ ||
७
और जो राजा (अश्वग्रीय) ने विद्याधर सुन्दरी मांगी है, वह तुम्हारी स्वामिनी होती है। जो देवी तुम्हारे द्वारा नमन करने योग्य है, उस स्त्रीको हे कामान्ध तू क्यों चाहता है ? तुम्हारे सिरपर बैठकर न बोले, योद्धाओंके अतोंके जालको गीध न खायें, तुम्हारे पिता तीरोंके शयनीयतलपर न सोयें, पोदनपुर नगर क्षयको प्राप्त न हो, रथोंके चूर्ण होनेका शब्द न हो, चमर-छत्र और ध्वज नष्ट न हों, स्वजनोंके मरणका कारण रस और मज्जा के समुद्र में कंकाल सेतु दिखाई न दे, कालरूपी बेताल रुधिर न पियें, शूरको कीर्तिको यमके अनुचर न देखें। मृगावती पुत्रके दुःख
। ९. ते वि । १०. A पुरि । ११. AP गुणिगह णिज्जु । २. AP मरणमेव । ३. संगरसमुह । ४. APविगाय६ ।
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५२. ८. १० ]
महाकवि पुष्पबन्त विरचित पहृदोहबहलधूमोहमलिणि जलणजडि पडउ मा पलयजलणि । राया ढोयहि सा तुहुँ कुमारि मा इशारहि णियगोत्तमारि वत्ता-जाणियणयणिवहु कयवइरिचहु मंतबलु वि जो बुज्मइ ।
जेण तिखंडधर जिय ससुरणार तण समई को जुन्नइ ॥७॥
दुवई-म करि कुमार कि पि रोसुभडक्यणे बलिसमप्पणं ॥
करगयकणेयवलयपविलोयणि हो कि णियहि दप्पणं ।। तं सुणिवि भणि विट्ठरसवेण भो चार चारु भासिउं णिवेण । अण्णाणु हीणु मज्जायचत्तु मागंतु ण लज्जइ परकलत्तु । भरहहु लग्गिवि रिद्धीसमिद्ध रायर्सणु कुलि अहई पसिद्ध । सो घेई पुणे जायत विहिवसैण विडिव परणारीरइरसेण । संताणागय महुँ तणिय धरणि कि णक्खत्ते जाइ तवइ तरणि । दपिडु दुदु नृवणायभद्छु मरु मारिवि घिमि तुरंगकंछु । तं णिसुणिवि दूएं वुत्त एंव पाउसि कालबिणि रसइ जैव ।।
किं वरिसह मुवणु भरति तेव बोल्लंतु ण संकहि वप्प केव। को न करे, बलभद्रका कल्पवृक्ष नष्ट न हो, स्वामी द्रोहके प्रचुर अन्धकारके समूहसे मलिन प्रलयाग्निमें ज्वलनबटी न पड़े, इसलिए वह कुमारी तुम राजाके लिए दे दो, अपने गोत्र के लिए तुम मापत्तिका आह्वान मत करो।"
घसा-जिसने नयसमूहको जान लिया है, जिसने शत्र का वध किया है और जो मन्त्रबलको भी जानसा है, जिसने तीन खण्ड धरती जीत ली है, देवों और मनुष्यों सहित, उससे युद्ध कौन कर सकता है ||७||
"हे कुमार, क्रोधसे उद्भट मुखबाले उसके लिए बलि समर्पण मत करो, हाथमें स्थित कनकवलयको देख लेनेपर तुम दर्पण क्या ले जाते हो?" यह सुनकर बलभद्र ने कहा-"अरे, राजाने बहुत सुन्दर कहा । अज्ञानी नीच और मर्यादाहीन उसे, परस्त्रीको मांगते हुए, लज्जा नहीं आती । भरतसे लेकर ऋद्धिसे समृद्ध राज्यत्व हमारे कुलमें ही प्रसिद्ध रहा है। विधिके विधानसे, परनारीके रतिरसके कारण प्रवंचित वह ( अश्वग्रीव ) फिर उत्पन्न हुआ है। कुल परम्परासे धरती हमारी है । जबतक सूर्य तपता है, नक्षत्रोंसे क्या? दपिष्ठ दुष्ट और नृप न्यायसे भ्रष्ट अश्वग्रीवको में मारकर फेंक दूंगा।" यह सुनकर इतने इस प्रकार कहा, “पावस ऋतु में जिस प्रकार कादम्बिनी ( मेघमाला) गरजती है, क्या वह उसी प्रकार बरसकर विश्वको भर देती है। है सुभट, तुम्हें बोलते हुए संकोच क्यों नहीं हो रहा है ?
७. AP Tई सा । ८. A परा । ८.१.A रोसुरकरावयणायलिसमप्पणं; P रोसु मरवयणि । २. Pणगवलयं । ३. A विठ्ठर सवेण ।
४. A रयणतयकुलि । ५. AP पई, but Kई and glous पादपूरणायें। ६. AP जायउ पुण। ७. AP णिवणाय ।
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५
१०
महापुराण
[ ५२. ८. ११
घत्ता - अग्गढ़ घणर्थणिहिं सीमंतिणिहिं' रणु बोल्लंतहुं चंग ॥ अच्छउ असि अवरु पटुकरपहरु तुह ण सहड़े ललियंगडं ||८||
९.
दुबई -- भासइ विस्सेसेणु भो जाहि में जंपहि चष्फलं जणे ॥ तु पण महं पिदीसेसइ बाहुबलं रणंगणे ||
तं णिसुणिवि दूयउ ग तुरंतु गहु कहइ अक्षीणमाणु अणिव विसदृकंदोदृणेत्तु संघाण इच्छ गरुडकेट जिड़ सकs तिह विनाबले हिं तापमणइ पहु पीडियकिवाणु किंकर ति णत्थि छाय अविद्देयविहंडण करणु दोसु मदद मि अवलोय अवलोयणिय विज भडथडगय घडर ई सं प उण्णु
को गिजालमाला फुरंतु । परमेसर रिपोरिस णिहाणु । समप्प तं परिणितं फलन्तु । दीसइ भीसणु र्ण धूमके । frs मुसलाई सूलहिं सम्बलेहिं । पवहिं हउं सोहमि जुन्झमाणु । माको चि भणेसह हय बराय । erse लहुं रणरहसघोसु । एतहि विमृगवणंदणेण । पेसिय खंगपुंगव बंदणिज । आइय जोइवि पक्खिसेण्णु |
घत्ता - सघन स्तनोंवाली स्त्रियोंके सम्मुख युद्ध बोलते हुए अच्छा लगता है, तलवार रहे, स्वामीके कर का प्रहार तुम्हारा सुन्दर शरीर नहीं सहन कर सकता" ॥८॥
९
तब त्रिपृष्ठने कहा, "अरे तू जा, लोगोंको चपलता की बात मत कर । तुम्हारे राजा और मेरा बाहूबल युद्ध के आँगन में दिखाई देगा ।" यह सुनकर दूत क्रोधकी ज्वालमालासे तमतमाता हुआ तुरन्त गया। वह अश्वग्रीवसे कहता है कि शत्रु अधिक मानी और पौरुषका निधान है। अभिनव विकसित कमलके समान नेत्रोंवाला वह उस अपनी विवाहिता पत्नीको समर्पित नहीं करता। वह गरुड़ध्वजी सन्धि नहीं चाहता। वह भीषण दिखाई देता है, मानो धूमकेतु हो । जिस तरह सम्भव हो, उस प्रकार विद्याबलों, मूसलों, शूलों मोर सम्बलोंसे लड़िए । तब अपनी तलवारको पीड़ित करता हुआ राजा कहता है कि इस समय में युद्ध करता हुआ शोभित होता हूँ । अनुचरोंको मारने में कोई यश नहीं है, कोई यह नहीं कहे कि दीनहीनों को मार दिया गया । अविनीतोंको मारने में कोई दोष नहीं। शीघ्र ही युद्धका हर्षवर्धक घोष करो । दुर्दम दानवोंके दर्पको कुचलनेवाले मृगावतीके पुत्र ने भी यहाँपर, विद्याधर श्रेष्ठोंके द्वारा वन्दनीय अवलोकिनी विद्याको देखने के लिए प्रेषित किया। भडघटा, गजघटा और रथोंसे सम्पूर्ण प्रतिपक्ष सैन्य को देखनेके लिए वह आयी ।
ว
८. Aथणि 1 ९. A सोमसि । १०. AP सहे ।
९. १, AP बीससेणु हो । २. P
प ष्णु ।
३ AP मिगावई । ४. P खगपुंगम । ५. AP रहहए
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-५२. १०.१४ ] महाकवि पुष्पवन्त विरचित
पत्ता-कण्हहु देवयहि पुण्णागयहिं गुणपणामसंपण्णख ॥
सैत्ति अमोहमुहि तूसषियसुहि घणु सारंगु विइण्णउं ॥२॥
१०
दुबई-आणिवि सुरवरेहिं चिर रक्षित मंगलमुणिणिणाइओ।
नगर पंचय कोत्थरमणि असि हरिणो णिवेइओ ॥ अण्णु वि गय हय गेय दिण्ण तासु कोमुइ णामै दामोयरासु । बलपवाहु लैगलु मुसलु पारु । गय चंदिम जामें हथियार। दसैदिसवहधाइयकिरणजाल दिण्णी नरि घोला रयणमाल। कंचणकवयंकिड धवलदेहु नं संझाराएं सरयमेहु । गुणणविस सरासणु धरिउ केंव मुहिहि माइ सुकलतु जैव । सेयई धिंधई उप्परि चलंति गं किसिवेशिपालव ललंति । छत्तई णं जयजसससिपयाई णं गोमिणिपोमिणिकयाई ।। धरियई पाइलहिं पंडुराई विणिकारियदिवसाहिवकराई। दीहरदादावियवाणणेहि रहवा कढि उ पंचाणणेहिं । पक्वरिय सत्ति हिलिहिलिहिलंत केयसारिसेज गय गुलगुलंन । इणु हणु भर्णत मच्छरविमीस संणद्ध सुहल पणवियहलीस । रणतूरसहासई तोडियाई कुलगिरिवरसिहरईपाडियाई।
पत्ता-पुण्यसे आयो हुई देवियोंने प्रत्यंचाके नमनसे युक्त बलवान् धनुष और सज्जनोंको सन्तुष्ट करनेवाली अमोघमुखी शक्ति कृष्ण ( नारायण त्रिपुष्ठ ) को प्रदान की ॥१
देवोंने चिरकालसे सुरक्षित तथा मंगल ध्वनिसे निनादित पांचजन्य काख, कौस्तुम मणि और तलवार नारायणके लिए निवेदित की। और भी गदा, हाथी, घोड़े और कौमुदी नामका शस्त्र उन दामोदरके लिए दिया। जिसकी किरणोंका जाल दसों दिशाओंमें फैल रहा है ऐसी दी हुई रत्नमाला उनके उरपर पड़ी हुई है। सोनेके कवचसे अंकित धवल शरीर वह ऐसे मालूम होते हैं, मानो सन्ध्यारागसे शरद् भेष शोभित हो । प्रत्यंचासे झुका हुआ धनुष उन्होंने इस प्रकार रखा, मानो जैसे मुट्ठीसे सुकलत्रको माप लिया हो । श्वेत चिल उनके ऊपर चलते हैं, मानो कीर्तिरूपी लताके पत्ते शोभित हो । जययशरूपी चन्द्र के स्थानभूत छत्र ऐसे मालूम होते हैं मानो पृथ्वी. रूपी लक्ष्मीके कमल हों; सूर्यको किरणोंका निवारण करनेवाले उन सफेद छचोंको अनुरोंने उठा लिया। लम्बी दाढ़ोंसे विकट मुखवाले सिहोंने रपवरोंको खींच लिया। कवच पहने हुए सप्ताश्व हिनहिना उठे, पर्याणसे सज्जित गज विधालने लगे। मस्सरसे भरे हुए और 'मारो-मारों कहते हुए तथा जिन्होंने बलभद्रको प्रणाम किया है, ऐसे योद्धा तैयार होने लगे। युद्धके हजारों नगाड़े मजाये जाने लगे तथा कुलगिरियोंके शिखर टूटकर गिरने लगे।
६.AP संपुग्णन । ७. AP सत्तियमोहमुहि । १०. १. A हसरह विपण । २. AP चंदियणाम । ३. A इविहहरवाहियP दहदिसिवाणाय । ४. "
गुणणमित । ५.AP कम सज्ज ठारि । ६. Pारियाई।
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२२२
महापुराण
[५२. १०.१५घत्ता-मोजावलिमुहलि रंजियभसलि अरिकरिंदपसरियकरि ।।
अविरंयगलियमा हरि मत्तगइ चलिए सीहु णं महिहरि ॥१०॥
दुवई-थको धयवडम्मि पक्खुम्गयपवणुइवियपडिणियो।
पलचंचेलेचुचुखियचंदघरो लगाहियो ।। संणद्ध पयावइ दोहबाहु खसितकिदर गं बरस शिपा। उचारिवि जिणवरणाममंतु संणाहु लइउ मणि जिगिजिगंतु । हुयवहजलि हुयवहफुरणतिव्वु तहु वणुरुड भुयबलगहियगन्यु । पहरणई लेतु रणदारुणाई दिव्याय वारुणाई। संचोइउ कंजर गन्जमाणु
णउ गेण्डा दिएणलं देहताणु । "णिञ्चिञ्चु, रोमंचएण
कंपाविय रिस,कंपियधरण। भडु को वि ण खग्गहु देश हत्थु परपहरणटैणि सया समत्थु । १० भडु को वि ण लावह घुसिणु अंगि रावसँइ तणु रिहिरु अंगि ।
पत्ता-इरिसें को वि णरु थिरथोरकरु धणुहरु जं जं णावइ ।।
पीडिउं कहयडेइ मोडिवि पडइ तं तं थावहुं णावद ॥१९॥ घता-जो गलेके आभूषणसे मुखर है, जिसपर भ्रमर गूंज रहे हैं, शत्रु गजवरपर जिसको सूड प्रसरित है, जिससे अविरत मदजल गिर रहा है। ऐसे मत्त गजपर नारायण त्रिपृष्ठ चढ़ गया मानो सिंह पहाइपर चढ़ गया हो ॥१०॥
जिसके पखोंसे उत्पन्न पवनसे शत्रुनृप उड़ चुके हैं, जिसने अपने चंचल मुखसे सूर्य और चन्द्रमाके विमानोंको छू लिया है, ऐसा गरुड़ ध्वजपटपर स्थित हो गया। दीर्घ बाँहोंवाला प्रजापति तैयार होने लगा मानो तलवाररूपी बिजली धारण करनेवाला प्रलय मेघ हो। जिनवरके नामरूपी मन्त्रका मनमें उच्चारण कर जिगजिगाता हमा ( चमकता हुआ) कवच ले लिया। अग्निके स्फुरणके समान तीव्र ज्वलनजटी, अपने बाहुबल में गर्व रखनेवाले उसके पुत्र अर्ककोतिने युबमें दारुण दिव्य वायव्य और वरुण, अस ले लिये । उसने गरजते हुए हाथीको प्रेरित किया। उसने दिया गया देहत्राण ( कवच ) नहीं पहना । नित्य ऊंचे रहनेवाले रोमांच और कांपते हुए ध्वजसे उसने शत्रुको कैंपा दिया। कोई योद्धा तलवारपर हाथ नहीं देता, क्यों वह शत्रुके हथियार छीनने में सवा समर्थ रहता है। कोई सुभट अपने शरीरपर केशर नहीं लगाता, वह युद्धमें शत्रुके खूनसे अपने शरीरको रंजित करेगा।
पत्ता-कोई मनुष्य हर्षसे धनुषको धारण करनेवाले अपने स्थिर और स्थूल हाथको जिसजिसपर धनुष झुकाता है वह पीड़ित होकर कड़कड़ कर उठता है, टूटकर गिर पड़ता है, वह शफि सहन नहीं कर पाता ||११ ___५. A रंजियभसलि । ८, AP अविरल । ११.१.AP चलषिय । २.A चंदरकवरी। ३. A उपचाइवि। ४.AP वायब्बई ।
1. A णिवेम रोम; P णिनिय सररोम°T णिच्चिच्च निरन्तरम् । ६. AP"हरणु सया। ७. AP कावेसह । ८. Pषणहरु । ९. A करपलह । १०, पामह।
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महाकवि पुष्पवत विरचित
१२
दुबई - विसिमि सुबु भणइ लइ गच्छमि दारियकरिवरिंदहो || काई सरासणेण किं स्वरों महं रणवणि मदहो ||
- ५२.१२.१६ 1
भ को विं भणइ जइ जाइ जीड rs को fare रिटं एंतु चंड भदु को षि भइ पविलं बियंति भडको विभाग हलि दे णु भडको विभइ कि करहि हासु भ को विभ ज मुंडु पकड़ भक्षु पिहि सरेसु वज्जर कामि as को fares असि घेणुयाह को विभहलि छिष्णु वि को वि सरासणदोसु हर भ को विबद्धोणीरजुयलु भडु को वि भइ कलहंसवाणि
भ
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तो जाउ थाड छुड पहुपयाठ ।
खंड
म अज्जु करे मई हिंदोळे तिति । सुइदेई दिन पाणदाणु | णिग्गवि सिरेण रिणु पत्थिवासु । तो महुं ठंड जि रिवं इणवि णढइ । हरणदिक्खि सरु मोक्खगामि । जसदुबु लेभि णरसंधुयाहिं । पान पराइसिस सरपत्त उज्जय करिवि धर । f गर्भवसमुद्ध्यपक्खपडलु । महुं हुं जि सक्खि सोहग्गखाणि ।
।
धत्ता -- परवल अभिडिवि रिसिर खुडिषि जइ ण देमि रायहु सिरि ॥ १५ तो दुनियहरणु जिणतव चरणु घरविं घोरु पइसिवि गिरि || १२ ||
१०
૨
कोई सुभट हँसकर कहता है कि लो, में जाता है। जिसने करिवरेन्द्रोंको विदारित किया है, ऐसे मुझ मृगेन्द्रको युद्धरूपी वनमें धनुष और तलवारसे क्या ? कोई योद्धा कहता है कि यदि जीव जाता है तो जाये, यदि प्रभुका प्रताप स्थिर रहता है। कोई सुभट कहता है, मैं आज आते हुए प्रचण्ड शत्रुको खण्ड-खण्ड कर दूँगा । कोई सुभट कहता है कि जिसमें माँतें लटक रही हैं, ऐसे हाथीके दोतवर में झूलूंगा । कोई सुभट कहता है- सखी, जल्दी स्नान दो। मैं पवित्र शरीरसे प्राणवान दूंगा ? कोई सुभट कहता है कि तुम हंसी क्यों करती हो, मैं अपने सिरसे राजाके ऋणका शोधन करूंगा । कोई सुभट कहता है कि यदि मेरा सिर गिर जाता है, तो मेरा धड़ हो शत्रुको मारकर नाचेगा । कोई काभी सुभट अपनी प्रियासे यह सरस बात कहता है कि में युद्धमें दीक्षित मोक्षगामी सर ( स्मर और सीर ) हूँ। कोई सुभट कहता है कि मैं लोगों के द्वारा संस्तुत असि रूपी धेतुका ( छुरी ) से यशरूपी दूध लूंगा । कोई सुभट कहता है कि हे सखी, यदि मैं छिन्न भी हो जाता हूँ तब भी मेरा पैर शत्रुके सम्मुख पड़ेगा। कोई सुभट अपने धनुषका दोष दूर करता है, और तीरोंके पत्रोंको सीधा करके धारण करता है। बंधि लिया है तूणीरयुगल जिसने, ऐसा कोई सुभट ऐसा जान पड़ता है, मानो गरुडको दोनों पक्षपटल निकल आये हों । कोई योद्धा कहता है कि हे कलहंसके समान बोलनेवाली और सौभाग्यको खान, तुम मेरी गवाह हो ।
१२. १. P करेम्वल । २. P हिंदोलिब्वर । ६. A सरिसु । ७. APरिस
|
धत्ता - पाशुसेनासेभिकर, शत्रुशिर काटकर यदि में राजाकी लक्ष्मी नहीं देता, तो में घोर वनमें प्रवेश कर पापको हरण करनेवाले जिनवरका तपश्चरण करूंगा || १२ ||
३ AP सुइदेह । ४ A P पाणदाणु । ५ AP मुंडु 1 AP गरुड़ 1
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महापुराण
[ ५२. १३.१
दुवई-लुहि लोयणाई मुद्धि मा रोवहि हलि भत्तारवछले ॥
___ संवि तुइ हयारिफरिमोत्तियकंठिय कंठकंदले ॥ पंडिविविट्टणिव्वाहणाई संणज्यतह बिहिं साहणाई। बहु कास वि देण दहियविलट अहिलसह परिहहिरेण तिलक । बहु कासु वि घिवइ ण अक्खयाउ खलैवइ करिमोत्तिय अक्खया । बहु कासु वि करहण धूषधूमु मग्गइ पदिसुहडमसाणधूमु । बहु कासु वि गप्पा कुसुममाल इकछह ले लति पिसुणतमाल । वहु कासु वि ण थवा हस्थि इत्यु तुह लमाउ गर्ये घडणारिहत्थु । बहु को षि ण मुणइ सुमंगलाई वहु कासु वि णड दावइ पईयु भो कंत तुहं जि कुलहरपईवु । बहु कासु वि पारंभइ ण णट्ट संचितह सत्तुकथंधण? । वाहु का वि ण जोयह कि सिरी पिययमु जोएवड जयसिरीइ । घता-बहु पभणइ भणमि इडं पई गणमि तो तुई महुँ थण पेमहि ।।
भगइ णिययबलि जाइ भष्ठतुमुलि खग्गु लेवि रित पेन्झहि ।।१३।।
१०
दुवईवालालंधि करिवि जुज्मेजस विसरिसवीरगोंदले ॥
अरिकरिबरालि निगुरेजा कुम्मसले ।
हे मुग्धे, आँखें पोंछ लो, रोओ मत । हे पतिप्रिया सखी, मैं मारे गये शगतके मोतियों की कण्ठमाला तुम्हारे गलेमें बांधूंगा। इस प्रकार वासुदेव और प्रतिवासुदेवका निर्वाह करनेवाली तैयार होती हुई सेनाओंमें से बधू किसीको दहीका तिलक नहीं देती, वह शत्रुके रक्तसे तिलककी इच्छा करती है। वर्ध किसीके ऊपर अक्षत नहीं डालती, वह गजमुक्तारूपी अक्षतोंकी आभेलापा करती है, वधू किसी के लिए धूपका धुओं नहीं करती, वह शत्रु सुभटोंके मरघटका धुआँ माँगती है। वधू किसीके लिए सुमनमाला आत नहीं करती, वह दुष्टोंकी आँतोंकी झूलती हुई माला चाहती है। वधू किसीका भी हाध नहीं पकड़ती है, उस नारी के हाथ तो तुम्हारे लिए घड़े गये हैं। कोई बधु मंगलोंका उच्चारण नहीं करती, वह शत्रुओं के सिररूपी मंगलोंकी अपेक्षा करती है। वधू किसी को दीपक नहीं दिखाती (वह कहती है: हे स्वामी, तुम्हीं कुलघरके प्रदीप हो। किसी की वधू नृत्य प्रारम्भ नहीं करती, यह शत्रुके धड़के नृत्यकी चिन्ता करती है। कोई बधु देखती तक नहीं है कि श्रीसे क्या, प्रियतम विजयलक्ष्मीके द्वारा देखा जायेगा ?
पत्ता-बघू कहती है कि अपनी सेना नष्ट होनेपर यदि तुम सैनिकों की भीड़में तलवार लेकर शत्रुको पीड़ित करते हो, तो मैं कहती हूं कि मैं तुम्हें मानती हूँ और तुम मेरे स्तनोंको पोड़ित कर सकते हो ॥१३॥
१४ असामान्य वोरोंके उस युसमें तुम खूब भिड़कर युद्ध करना। शत्रुगजके दौतरूपी मूसलपर १३. १. P पडिविधु । २, AP कलह but K खलपर and gloss अभिलपति । ३. A ललंत । ४. A
गयधरि । ५. AP कासु विणकुणह मंगलाई।
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-५२. १५.२]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
कुंजरघघल्लियमुहब डाई वंसग्गविलेत्रियधयवडाई। कुंकुमचंदणचचियमुयाई परिहियमणिकंचणकचुयाई । करलुहियगहियबहुपहरणाई णियसामिज्ञि णिच्छयमणाई । काणीणवीणढोइयधणाई
भडकलयलबहिरियतिहुवणाई । विलुलंतचिमणेत्तंचलाई अहिणंदियकलसजलुप्पलाई। घलपरणचारचालियधराई डोल्लावियगिरिविवरंतराई। ढलह लियघुलियवरविसहराई भयतसिररसियपणवणयराई। झलझ लियवलियंसायरअलाई जलजलियकालकोवाणलाई। पयहयरयछाइयणहंसराई
अणलस्सियहिमयरणियराई। करिवाहणाई सपैसाहणाई हरिहरिगीवाहिवसाहणाई। आयई अण्णपणहु संमुहाई असिदाढालई अवमुहाई। घत्ता-संचोइयगयई वाहियाह्यई रणरसरिसषिसट्टइं ।।
दूराझियमयई उभियधयई बे वि बलई अभिट्टई ॥१४॥
१५
दुवई-वेणि वि दुद्धराइं दुणिरिक्खई कयणियपहुपणामई ।।
कपणाहरणकरणरणलग्गई जयसिरिंगहणकामई ।। पैर देकर कुम्भमण्डलपर पैर रखना। जिसमें हस्तिघटापर मुखपट डाल दिये गये हैं मानो बाँसोंके अग्रभागपर ध्वजपट अवलम्बित हैं, भुजाएं केशर और चन्दनसे चर्चित हैं, जिन्होंने मणियों और सोनेके कंचुक पहन रखे हैं, जिन्होंने साफ किये हुए बहुत-से हथियार हाथमें ले रखे हैं, अपने स्वामीके कार्य में जो निश्चितमन हैं, जिनमें कानीनों और दीनोंको धन दिया गया है, जिन्होंने योद्धाओं को कलकल ध्वनिसे त्रिभुवनको बहरा कर दिया है, जिनमें चित और नेत्रांचल पदित है, और कलश जल तथा कमल अभिनन्दित है, चंचल धरणोंके संचरणसे धरती चलायमान कर दी गयी है, पहाड़ोंके विवरान्तोंको हिला दिया गया है, जिनमें बड़े-बड़े सांप गिरकर चक्राकार घूम रहे हैं, भयसे त्रस्त धनवनचर चिल्ला रहे हैं, समुद्रका जल झलझलाकर मुड़ रहा है, कालरूपी कोपाग्नि प्रज्वलित हो उठी है, पैरोंसे आहत धूलसे आकाशका भाग आच्छादित है और जिसमें सूर्य और चन्द्रमा दिखाई नहीं दे रहे हैं, जिनमें प्रसाधनोंसे सहित हाथियोंके वाहन हैं, ऐसे नारायण और अश्वग्रीव राजाके सैन्य एक दूसरेके आमने-सामने आ गये जो मानो तलवाररूपो दाढ़ोंसे यममुखों के समान थे।
पत्ता-गज चला दिये गये, अश्व हांक दिये गये, उत्साह और हर्षसे विशिष्ट, भयको दूरसे ही मुक ध्वज ऊपर उठाये हुए दोनों सैन्य आपसमें भिड़ गये ।।१४।।
दोनों ही दुर्धर दुर्दर्शनीय और अपने स्वामीको प्रणाम करनेवाले थे, कन्याके अपहरण १४. १. A अणिज्य । २. AP हलहलिय । ३. AP भयरसियतसिय। ४. AP लिय'। ५. ।
सुपसाहणाई। ६, आयहिं । ७. AP दाका इव । ८, AP उममुहाई। १५. १. AP'रणि लगई।
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२२६
महापुराण
[ ५२. १५.३णरचरणचारचारियगयाई हरिखरखुरवडणुग्गयरयाई। अभिडिय सुहड गय कायराई रवपूरियदिसगयणंतराई । वावल्लभल्लनससलियाई
सोणियजलधारारेल्लियाई। लुलियंतकोतभिण्णोयराई
करवालखलणखणखणसराई । चलेमुकचकदारियाई
ल उद्धीहयचूरियरहधुराई। णिवतछत्तधययामराई शिवकॅडयमनडमणिपिंजराई । फयखगविमाणसंघट्टपाई किकिणिमालादलबट्टणाई। विज्ञाहरविजावारणाई
सरपूरियमारियवारणाई । जंपाणकवाडविहट्टणाई
मंडलियमाणणिल्लोट्टणाई । मना- निष्णादिंगणाई कमलाबाई दंतपंतिदट्ठोदई ॥
लुचियकोतलेई बिगिण वि बलई जिह मिहणई तिह दिट्ठई ॥१५||
...move-
-
दुवई-तो हरिगीवरायसेणावइ धूमेसिहो पधाइओ।
सिरिहरिमस्सुवीरसहिउ हरिसेणे जगे ण माइओ ।। तेण घाइयं
महि णिवाइयं । विलुलियतयं
पडियदंतयं। पद्दरजज्जरं
लग्गभयजरं। करनेके युद्ध में लगे हुए, और विजयश्रीको पाने की कामनावाले थे। जिसमें मनुष्योंके चरणोंके संधारसे गज चलाये जा रहे हैं, जिसमें घोड़ोंके तीव्र खुरोंके पतनसे धूल उड़ रही है । सुभट आपसमें भिड़ गये, और कायर भाग गये। शब्दोंसे दिशाएँ और गगनांतर भर गये। जो वाचल्ल, भाले और झसोंसे पीड़ित हैं, रक्तरूपी जलधाराओंसे सराबोर हैं, जिनमें मात कटी हुई हैं, और भालोंसे पेट फाड़ दिये गये हैं, लाठियोंके प्रहारोंसे रथधुराएँ चकनाचूर कर दो गयी हैं, जिनमें छत्रध्वज और चमरोंका पतन हो रहा है, जो राजाओंके कटक और मुकुटमणियोंसे पोले हैं, जो विद्याधर विमानोंसे टकरानेवाले हैं, जिनमें किकिणियां और मालाएं चकनाचूर हो रही हैं। विद्याषरोंके द्वारा विद्याओंका निवारण किया जा रहा है, तोरोंसे पूरित महागज मारे जा रहे हैं, जंपाणोंके किवाड़ नष्ट कर दिये गये हैं, और माण्डलीक राजाओंका मान नष्ट हो रहा है।
पत्ता-जिन्होंने एक दूसरेको आलिंगन दिया है, एक दूसरेके शरीरोंपर घाव किये हैं, जो दांतोंकी पंक्तियों से अपने ओंठ चबा रहे हैं, बाल नोंच रहे हैं, ऐसे दोनों सैन्य उसी प्रकार लड़ रहे हैं जिस प्रकार मिथुन ॥१५॥
१६
तब राजा अश्वग्रीवका सेनापति धूमशिाल दौड़ा। श्रीहरिश्मथ नामक वीरसे सहित वह हर्षके कारण संसारमें नहीं समा सका। उसने आघात किया। धरतीपर गिरा दिया, बाँखें छिन्न
२. खुरखणणु । ३. A भल्लसरसल्लियाई; P भल्लरससल्लियाई । ४. A कंवभिग्यो । ५. A
वरमुक । ६. 2 लउश्यियचूरी रह । ७. K नृर्ष । ८. A विनाकारणई । ९. AP कुत । १६. १. A ता ह्यगोव; P तो हयगाव । २. A धूमसिहौवषामो । ३. AP मस्सुवीररससहिउ ।
४. A हरिसे जगे ण माइनो।
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-५२. १६. २६]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित दारिओयरं
ठिणगलसि। रत्ततंविरं
चम्मलंबिर । विहि विणिंदिरं
कलुणकंदिरं। चित्तचामरं
तुट्टपरखरं। फुट्टमवलं
मुक्ककोवलं। विहुरबंभलं
णिगय अलं 1 बद्धमच्छर
तोसियल। कडुयजपिरं
धारकपिरं। हंबणश्चिरं
कुंतखंचिरं। भडवियारणं
कुंभिदारणं । भिडियवारणं
सिरणिलूरणं । सुहडकलयलं
गहियाहुलहुलं । चम्मभिंदिरं
गछिदिरं। कवयसंजुयं
णयवि संजुयं । सुरपसंसिरं
धुणियंगसिर । भगारवर
पडियह यत्ररं। खग्गवणेखणं
दारुण रेणं । पत्रिखसंकुल
रक्खसाउलं।
पिणछत्तयं । पत्ता--माहव बलवइणा कारणरणा णिययसेणु साहारिलं ।
कुलु विहि विडियउं दिसिविडिय पुत्तण व उद्घारि ॥१६॥
दंतिदंत
भिन्न हो गयीं। दांत गिर पड़े ( टूट गये ) । लोग प्रहारसे जर्जर हो उठे, भयज्वरसे पीड़ित पेट फाड़ दिया गया; गले और सिर काट दिये गये। रन से लाल हो उठे, चमें लटक गये, विषिकी निन्दा करने लगे, करुण विलाप होने लगा, चमर फेंक दिये गये, कवच टूटने लगे, मृदङ्ग फूल गये, वेश बिखर गये, कसे विह्वल सैन्य निकल पड़ा। ईर्ष्या करनेवाला, अप्सराओंको सन्तुष्ट करनेवाला, कटु बोलनेवाला, धैर्यको कानेवाला, धड़ों को नचानेवाला, भालोंको खींचनेवाला, योद्धाओंका विदारक, हाथियोंको विदीर्ण करनेवाला, गजोंसे लड़नेवाला, सिरोंको काटनेवाला, सुभटोंके कलकलसे युक्त, शूलोंको हाथों में लेनेवाला, चर्मका भेदन करनेवाला, शरीरको छेदनेवाला, कवचसे सहित, देवोंसे प्रशंसित, छिन्न गज सिरवाला, भग्नरथवरोंवाला, घिरे हुए अश्ववरों साहित, तलवारोंसे खनखनाता हुआ, पक्षियों से संकुल, सक्षसोंसे आकुल, गजदंतोंसे युक्त छिन्नछत्र दारुण रण देखकर।
घत्ता-युद्ध से रति करनेवाले माधबके सेनापतिने अपने सैन्यको ढाढस बंधाया, जैसे भाग्यसे प्रबंचित और दिशाओं में विभक्त कुटुम्बका पुत्रने उद्धार किया हो ||१६||
५. P वम्मलंबिरं । ६. भिगमं । A K write in margin the portion beginning wich बद्ध मच्छर •down to छत्तयं । ७. Pधीक कपिरं । ८. P कुंतविरं। ९.A णिनि गयसिरं । १०. AP रहमरं। ११. A भग्गाखणखणं; P खासणसणं । १२. P धणं । १३. P देंतितयं । १४. A डिण्णठिण्णय; P adds विहरविमल, भम्पयं च (?) लें।
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२२८
महापुराण
[५२. १७.१
१७
दुवई-भीमपरक्कमेण भीमेण वि णासियभीमवइरिणा॥
पश्चारिय भिडंत भड बेमिया वि सुरवहुहिययहारिणी ।। हरिमस काई पई मंतु दिदा किमगि पारदरय एषु । हकारिउ किं णियपाणणासु एव हि पइसेसहु सरणु कासु। कुद्धाइ तिविति भुवणेकसीहि तडितरलवीहकरवालजीहि । खा धूमसिह भासिउ सरोसु घरदासि हरतहुं कवणु दोसु । पहिलई. पहुणा मुत्ती मण पच्छाइ तुम्हई दिण्णी अणेण । सिहिजहिणा सामिविरोधणेण कि एएं जडसंबोणेण । दरिसाव मि तुइ जमरायथत्ति लइ पहर पहरु अइ अस्थि सति । ताबे वि लग्ग ते सेण्णणाह बेणि वि सुरकरिकरसरिसबाह । बेणि वि चालियदिवशवाल बेणि वि जयकारियसामिसाल। बेपिण वि उग्गामियचावदंड बेण्णि वि आमेजियकुलिस कंड। बाणेहिं बाण णालि खलंति ते णिहसणसह हुयवह जलंति । पुणु भीमें मुक्कउ अद्धयंदु
धूमसिहह णं अट्ठमउ चंदु । १५ रिनदेह मेहि सो पइसरंतु दिउ सुहिणयणहु तमु करंतु ।
घत्ता-मारिवि धूमसिंह खयकालणिहु खणि हरिमस्सु णिहत्त ।।
___णवर करंतु कलि भड देत बलि असणियोसु संपत्तउ ।।१७|
भीम पराक्रमवाले, तथा भयंकर शत्रुओंको न करनेवाले, तथा सुरवधुओंके हृदयमा अपहरण करनेवाले भीमने लड़ते हुए दोनों सुभटोंको पुकारा, "हे हरिश्मश्रु, जुमने यह कौन-सा मन्त्र देखा? तुमने इष्ट परस्त्रीरत्न क्यों मांगा ? अपने प्राणों के नाथको तुमने क्यों पुकारा ? इस समय तुम, भुवनके एकमात्र सिंह, बिजलीके समान लम्बी करबालरूपी जोभवाले त्रिपृष्ठवे कुद्ध होनेपर किसकी शरण में जाओगे?" लम्ब धुमशिखने गुस्से में आकर कहा, कि गृहदासोके अपहरणमें मया दोष? पहले राजाने इसका मन चाहा उपभोग किया। फिर उसने यह तुम्हें प्रदान की। स्वामी विरोधी ज्वलनजटीके द्वारा इस मूर्खतापूर्ण सम्बोधनसे क्या? मैं तुम्हें यमराजको स्थिरता दिखाऊँगा, यदि तुममें शक्ति हो तो शीन्न प्रहार करो," तब दोनों सेनापति आपस में लड़ गये । वे दोनों ही हाथोकी सूहके समान बाहुवाले घे, वे दोनों ही दिक्चक्ररूपी मण्डलको घलानेवाले थे, दोनों अपने स्वामी श्रेष्ठको जय बोल रहे थे; दोनोंने ही अपने चापदण्ड उठा लिये थे, दोनों ही वचतीर छोड़ रहे थे। आकाशमें तीरोंसे तोर स्खलित हो रहे थे, उनके संघर्षणसे उत्पन्न आग जल रही पी, फिर भीमने अपना अर्धेदु तीर फेंका, जो मानो धूमशिखके लिए आठवां चन्न हो, शत्रुके शरीरकी मेधामें प्रवेश करता हुआ वह, सुधीजनोंके नेत्रों में अन्धकार उत्पन्न कर रहा था।
पत्ता-धूमक्षिसको मारकर, एक क्षणमें क्षयकाल के समान हरिश्मश्रुको आहत कर दिया। तब केवल अशनिवेग युद्ध करता हुआ और सुभटोंकी दिशा बलि देता हुआ वहाँ पहुँचा ।।१७।। १७. १. A "वहरिणो । २. A हारिणो । ३. A P हरिमस्सु । ४. पर व्यं । ५. K प्राणणासु ।
६. A तर । ७. A gणंसहं । ८. A P पहिलो पहुणा । ९. A तं णिहसिवि गर हवयह । १०. AP निहित्त।
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-५२. १८. १९ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
दुवई-सो जियसत्तु णाम धरणीसे जममुहकुहरि ढोइओ। सरविसहरणिरधु वरपरिमेलु चंदणत व जोइओ॥
तओ पणेसो समुप्पण्णरोसो। महेणं महतो णहतं पिइंतो। कराइड्डेचावो महाभीमभावो। सदप्पं चवतो सँरोहं सर्वतो। धए णिल्लुणंतो गईदे हणतो। हुए कप्परंतो णरे चप्परंतो। जवेणं चरंवो रणे वावरतो। पर णिशिवेणं जपणं णिवेणं । खुरुप्पेण भिण्णो कयंतस्स दिण्णो। जयस्सावलुद्धो जमो णं विरुद्धो। रक्षारिमद्दो पहू खेरिदो। पियारत्तचित्तो सर्य प्रति पत्तो। मरद्धयचिंधो सतीणीरेखंधा। विसांलग्गकित्ती सहिं अककित्ती।
थिओ अंतराले भडाणं वमाले | पत्ता--तेण ससामियॉ गयगामियहु रूसिवि दिण्णा उत्तरु॥
देव पराइयहि कारणि नृयहि किं आढत्तउ संगरु ॥१८॥
१८
भूमिके स्वामीने जितशत्रु उसे यमके मुखरूपी कुहर में डाल दिया। सररूपी विषधरोंसे निएद्ध, श्रेष्ठ परिमलवाला वह चन्दन वृक्ष के समान दिखाई दिया। उस समय उत्पन्न हुआ है क्रोध जिसे ऐसा इन्द्रसे भी महान अकम्पन नामका राजा आकाशको आच्छादित करता हुआ, हाथ में धनुष खींचता हुआ महाभयंकर भाववाला, सदर्प बोलता हुआ, तीरसमूह गिराता हुआ, वजोंको काटता हुआ, हाथियोंको मारता हुआ, अश्वोंको काटता हुआ, मनुष्यों को पराजित करता हुआ, वेगसे चलता हुआ, युद्ध में व्यापार करता हुआ (आया )। परन्तु उसे जय नामक कठोर राजाने खुरपेसे काट डाला और यमको दे दिया। मानो यशका लोभी यम हो विरुद्ध हो उठा हो । भयंकर शत्रुओंका मर्दन करनेवाला राजा, प्रिया में अनुरक्त चित्त विद्याधरेन्द्र राजा ( अश्वग्रीव ) स्वयं शीघ्र पहुंचा | तब जिसका ध्वजचिह्न हवामें उड़ रहा है, जिसके कन्धे तूणीर सहित हैं, जिसको कीर्ति दिशाओंसे जा लगी है, ऐसा अर्ककीति वहां योद्धाओंके कोलाहलपूर्ण अन्तरालमें स्थित हो गया।
धत्ता-उसने गजगामी अपने स्वामीको उत्तर दिया कि हे देव, परायी स्त्रोके कारण आपने युद्ध क्यों प्रारम्भ किया ? ||१८|| १८. १. A P°णिरुद्ध । २. A"परिमल । ३. 4P कराई। ४. AP सरीसं वहतो। ५. A omits
this foot. । ६. P जमो णाविरुद्धो। ७. P सतोणीरकंधो । ८. AP तिथहे ।
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२३०
५
१०
१५
रे
ता भणिउ समरभरघुरमुरण कित्ति गुरुखवंत हताएं अवरु विपदं सदस्य हुलाउ हुणियपरिहवासु ता रवि कित्तिदीवियदियंत खगणाद्दहु खंडिउ चावदंड असरासणु शत्ति लेखि चूडामणि पाडित विष्फुरंतु मरुयचलंत चलमयर केउ बंध ठीण संतु बाणु रक्खयब पायइराणएण
महापुराण
१९
दुवई - लजिज्जइ रणेण पित्ते दुज्जसमलिणकारिणा ।। ओस जाहि राय किं एवं घुरिसगुणोहहारिणा || जनपदेवी | जणि केव विपिड घवंतु । जं आणलंघणु कडं बप्प सस तेरी पुणु म हर कासु । fuese arriधैत । गुणवंतु तो वि किन खंडेखंड | रायण वासु बाधि 1
पालि विडिय रवि तवंतु । दावंतरि थक् कार्मदेउ । तेणककित्ति "मारिज्जमाणु । विवेचिणए । is a viगु ।
fire
मेहें पच्छाइरणं दिसु । सिहिजडणा णिजिव चंदमउलि ।
रिणा तास कुरंगु ससिसेइरेण पहु पोयणेसु अंतर इस तिगु तिसूलि
[ ५२. १९. १
१९
अपयश और मलिनता के कारणभूत तेज रहित युद्ध से तुम्हें लज्जित होना चाहिए । हे राजन् तुम हट जाओ। पुरुषके गुणसमूहका अपहरण करनेवाले इस युद्ध से क्या ? तब यह सुनकर, युद्धका भार उठाने में समर्थभुज नीलांजना और प्रभादेवीके पुत्रने कहा, "हें महान शिक्षावाले अकोर्ति, प्रिय बोलनेवाले तुम्हें लज्जा क्यों नहीं आती ? हें सुभट, तुम्हारे पिता और तुमने जो घमण्डपूर्वक आज्ञाका उल्लंघन किया है, उससे अपने पराभवसे आहत हुआ हूँ । तुम्हारी. बहन फिर किसका मन अपहरण करती है। तब अर्कको तिने दिशाओंको दीपित करनेवाले धधक करते हुए तीर छोड़े।" उसने विद्याधर राजाके धनुषको खण्डित कर दिया। गुणवान् ( छोरी सहित ) भी उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। तब राजाने शीघ्र एक और धनुष ले लिया, और तीरसे आहत कर चमकता हुआ चूड़ामणि इस प्रकार गिरा दिया, मानो आकाशतल में तपता हुआ सूर्य हो । जिसका वासे चलता हुआ चंचल मकरध्वज है, ऐसा कामदेव इसने में बीच में आकर स्थित हो गया । लक्ष्य बांधता हुआ, सरसन्धान करता हुआ, उसके द्वारा मारा जाता हुआ अर्ककीर्ति धनुर्वेद के विवेकको जाननेवाले प्रजापति राजाके द्वारा ऐसे बचा लिया गया, मानो सिंहके द्वारा त्रस्त हरिण बचा किया गया हो। उसने कामदेवको पराङ्मुख कर दिया। चन्द्रशेखरने पोदनपुर राजाको उसी प्रकार घेर लिया जिस प्रकार मेघने सूर्यको आच्छादित कर लिया हो । ज्वलनजदीने भीतर प्रवेश कर त्रिनयन त्रिशूलधारी चन्द्रशेखर को जीत लिया ।
०
१९. १. AP धूरभुण । २. A दियंति । ३. 4 षगंति । ४. AP खंड खंड । ५ AP बाणेह हणेवि । 4. A aguafrafc31 9. A reads a asb and b as a 1. ८. AP काम । ९. A बंधंतु तो 1 १०. P पारिज्जमाणु । ११. AP णासि । १२. A
उपारद्धि गरुड मणं
।
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महाकवि पुष्पवन्त विरचित
73
घसा - किंकरु" हयगलहु पालियछलहु को कहि विणमाइ ॥ कूरगड अवरु खयरु उठाइ ||१९||
नाणीलरहु
२०
दुबई - पण चावपाणि रे खिहिखहि जं पई दुकायं कटं ॥ दं हयगीव देवपयपंकयदोहफलं समागयं || हो कि बोलमि मौरम चल्लमि । एंव चवेष्पिणु विहुणु ।
-१२.२०१८ ]
आउछु दाइ किंकर किंकरि
खरखुरम्यधरि यादणि
चप्पिणि लग्गइ
थामेँ वग्गइ
पइस दूसइ
हिंसइ तास
दुइ हाइ
रिव पचारइ खलइ निवारइ
करिकरच 'डिि
दंताद विहि रकिलिविडहिं |
धाव पाव |
कुंजरि कुंजरि । हरिवरि हरिवरि । संदणि संदणि ।
रंगइ णिग्गइ |
भंडषु मग्गइ ।
जै रूस |
दीसइ णास | फोकर थकइ ।
चूर जूरइ ।
दाइ मारइ | लालपिंडिहि ।
कताकतिहि ।
२३१
ܐ
१५
धत्ता-तब छलका कपट करनेवाले अश्वग्रोवका ( एक और ) अनुचर क्रोधसे कहीं नहीं जा सका । नामसे नीलरथ वह मानो क्रूर ग्रह हो, एक और विद्याधर दौड़ा ||१९||
२०
हाथ में धनुष लिये हुए वह कहता है- "है अवलन जटी, सुने जो पाप किया है, अश्वग्रोव देवके चरणकमलों द्रोहका वह फल तेरे पास आ गया है। अरे में बोलता क्या हूँ, मैं मारता हूँ, फेंकता हूँ" यह कहकर अपने बाहु ठोंककर वह आयुध दिखाता है, दौड़ता है, उछलता है। अनुचर अनुचरपर, गज गजपर, तीव्र खुरोंसे क्षय धारण करनेवाले अश्ववर अश्ववरपर नेत्रोंके लिए आनन्ददायक स्यन्दन स्यन्दनपर । चाँप कर लगता है, चलता है, निकलता है, स्थैर्य से क्रुद्ध होता है, युद्ध मांगता है, प्रवेश करता है, दूषित करता है, गरजता है, रूठता है, हिंसा करता है, त्रस्त करता है, दिखाई देता है, छिप जाता है, कठिन काम करता है, हकारता है, पुकारता है, ठहरता है, शत्रुको ललकारता है, चूर-चूर करता है, पीड़ित करता है, स्खलित करता है निवारण करता है, विदीर्ण करता है, भारता है, हाथोकी सूँड़के समान प्रचण्ड, गजमुखोंके अग्रिमकाष्ठों, दांतों,
१३. A किकर ।
२०. १. AP बुकियं । २. AP भारिवि । ३ A भंजइ । ४. A गायभुवड | ५. A किलिवदिहि | ६. AP add after this : दंडाडिहि ।
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महापुराण
[५२. २०. १९केसाकेसि हिं
पासपासिहि। उचलाउद लिहि
मुसलामुसलिहिं 1 इय सो जुजिझल
भीमुहलज्झिउ । दुबुहिस
ता बलहरें। अरिहकारिज
वाचे पेरिए। सो वि पराइड
चावविराइल । णं णवजलहरु
विद्धष्ट हलहरु। तेण उरस्थलि
अद्वियकलयलि। कंपियणियबलि
हरिसियपरबलि। बाहुसहाएं
जयथइजाएं। सीरें ताहिम
उद्ध जि फाडिउ । पणीलरबाहिति
हई कइ जयरधि । धत्ता-णाणाणहयरहि संधियसरहिं सहयहि सगयहिं सरहिं ।।
वेदिउ जिन्वहरु दूसइपास कई चिरंगयपमुर्ति !!२!!
.
.......
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दुवई-मायासाहणाई मयतह माणियपहुपसायहं ।।
एकें हलहरेण रणि जित्तई सत्तसयाई रायहं ॥ सुंयरिवि पगुदिपणी तुप्पैधार केण वि विसहिय रिउखग्गधार ।
सिरु छिण्ण णिगय रत्तधार गय एंव बप्प धाराइ धार । ५ केण वि सुंयरिवि पहुअग्गेविंडु इच्छिर पडतु णियमासपिंडु ।
केण वि सुर्यरिवि पहुचीर रम्मु मण्णिज लंबतु सदेह चम्मु । भालों, मनुष्यकी भुजाओं-भुजाओं ( मह किलिविडिहिं), बालो-बालों, नागपाशों-नागपाशों, उपलउपलों, मूसल-मूसलोंसे, भयरहितमुख वह नीलरथ इस प्रकार लड़ा। दुन्दुभि-शब्दले बलमनने शत्रुको ललकारा । देवसे प्रेरित और धनुषसे शोभित वह भी आ गया। उसने हलधरको उरस्थलमें विद्ध कर दिया, जैसे नवजलपर हो । कल-कल होने लगा। अपनी सेना काप उठी । शत्रुसेना हर्षित हो उठी । तब जिसकी बाहु सहायक है, ऐसे बयावती के पुत्रने हलसे ताड़ित कर उसे आषा फार दिया। इस प्रकार नीलरथाधिपके आहत होनेपर और जय शब्द करनेपर
धत्ता-अपने सरोका सन्धान किये हुए अश्वों, गजों और रयोंके साथ चित्रांगद प्रमुख नाना विद्याधरोंने असह्य प्रसारवाले सैन्य और बलभद्रको घेर लिया ||२०||
२१
अकेले बलभद्रने मापाची सेनाधाले, अहंकारी प्रभुका प्रसाद माननेवाले सात सौ राजाओं को युद्ध में जीत लिया। प्रभुके द्वारा दी गयी धीको धाराको याद कर किसीने शत्रुको खड्गधाराको सहन कर लिया । सिर छिन्न हो गया। रक्तकी धारा बह निकली। कितने ही बेचारे भट धारा-धारामें हो चले गये। किसीने प्रभुके प्रथम आहारपिम्हको समझकर गिरते हुए अपने ही
७. A भीउहझिङ । ८. सयहिं । ९. A पलनिसंगय । २१. १. P°साहणेहि । २. A सुमरिवि; P सुअरिवि । ३. A रूपधार। ४. A सुअरित; P सुपरिपि ।
५. AP अग्गपिंडु । ६. A सुमरियि; P सुअरिवि ।
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- १२. २२.६
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
वय
केण वि सुयरिषि पहुदिष्णु गाउँ hor त्रिसुरिवि पहुचामराई हुभिर व hora सुरिषिपत्तछाहि वि" सुमरिवि पत्थि पसाउ विरिवि पहुपालियाई दुबइरिभग्गणविहन्तु कासु विरणमंदिरं मिणीइ
५०
वत्ता - कासु वि सिरकमलु ओदलु गिद्ध सचंचु चाल ।। परितोसि जण महिवइरिणहु णं भोलषणु विहालह ॥ २१ ॥ २२
दुबई- -ता सहस ति पत्तु हरिकंधरु पमणइ तसियवासवो ॥ भो भो कह कह कर्हि अच्छ सो महु वहरि केसवो ॥ ता उत्तु कण्हेण भो मेइणीराय सोई रिक केसवो एहि विष्णाय । जाणिजए अज्ज दोन्हं पि रूसेवि को हइ सिरु लुइ रणरंग पइसेवि । कुद्धेन सिरिकुणी पुर्णय देण अलयावरीसेण खयरणरिंदेश | संगामरामारइच्छाणिउत्ते तं सुणिवि पडिलविर्ड सिहिगीवपुरोण |
छेड्डि णियजीवियभूयगणं । सहियई पक्खिक्खं तराई । केण वि पडिवणचं बाणस्यणु । आसंघिय घणसर पुंखथाहि । चक्र अरिवीरपहारसा | मयगलकुंभयलाई फालियाई । भलारजं धीरजं रायरतु ।
13
हियaj लक्ष्य सिवकामिणी ।
२३३
ܐ
१५
मांस की इच्छा की। किसोने सुन्दर प्रभु वस्त्रको चिन्ता कर लटकते हुए अपने ही देहचको बहुत माना । किसीने स्वामीके द्वारा दिये गये गाँवको याद कर अपने जीवन और इन्द्रियोंका गांव छोड़ दिया। किलोने स्वामीके चमरोंको याद कर पक्षियोंके पक्षान्तरोंकी सराहना की। प्रभुकै पुण्यसे भरे हुए मुखको टेढ़ा कर किसीने बाणोंका शयन स्वीकार कर लिया। किसीने स्वामीकी छत्रच्छायाकी याद कर सघन तीरोंकी पुंख छायाका आश्रय ले लिया। किसीने राजा के प्रसादकी याद कर शत्रुके वीर प्रहारके स्वादको चख लिया। किसीने प्रभुके द्वारा पालित और स्फारित मंगल गोंके कुम्भस्थलोंकी याद कर दुर्निवार शत्रुके तीरोंसे विभक्त राजामें अनुरक्त धैर्यको अच्छा समझा। किसीके हृदयको रणरूपी मन्दिरको स्वामिनी शिवा (गालिनी) रूपी कामिनीने ले लिया । धत्ता- किसी के सिररूपी कमल और ओष्ठपुटरूपी दलको गोध अपनी चोंच से चालित करता है, मानो जनों को परितोषित करनेवाले राजाके ऋण के मूल्यको देख रहा है ||२१||
२२
तब सहसा अश्वनीय यहाँ पहुँचता है, और इन्द्रको सतानेवाला वह कहता है कि और बताओ- बताओ, वह वह मेरा दुश्मन नारायण कहाँ है ? तब नारायणने कहा, 'हे पृथ्वीराज, वह मैं तुम्हारा शत्रु केशव हूँ। हें न्यायहीन, आज पह जाना जायेगा कि हम दोनोंके रूठनेपर कौन युद्ध रंग में प्रवेश कर मारता है और सिर काटता है ?' तब लक्ष्मीरूपी कुमुदिनीके पूर्ण चन्द्र अलकापुरीके स्वामी विद्याधर राजा, संग्रामरूपी स्त्रीसे रमणको इच्छा रखनेवाले मयूरग्रोव
०
७. A गाठ; P ८९. A गाव: Pगामु । १०. A सुर्धारिस P सुअरिवि । ११. पालिया । १२. A सामिनी । १३. A कामिणीहि । १४. A
२२. १. AP पुण्ण इंद्रेण ।
३०
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२६४
महापुराण
[ ५२. २२.७
कपणामुहालोयसुहदिपणराएण भग्गो सि किं मित्त वरश्त्तवारण । रत्तो सि कि मूढ गयणयरवालाहि भोसरसु मा पडसु खग्गम्गिजालाहि । णषकंदकालिदिभसलडलकालेण कोवामणच्छेण भंगुरियभालेण । जम्मंतराबद्धबइराणयघेण पहिउत्तु पडिकण्हु चलगलचिंधेण । परदविणपरधरणिपरधरिणिकंखाइ डिओ सि पाविट्ठ किं चोरसिक्खाइ । एवं पजपंत कंपवियमहिवह। करिदंतपरिहटमुयदंडसुपचट्ठ। दप्पिट्ट णिक राह दवोह भडजेह ते वे वि अभिट्ठ वईकुंठहयकंठ । ते बे वि मणिमडकुंडलसुसोहिल्ल तेचे वि कोदंडमंडलविलासिल्ल। ते व वि णं सोइ लंबावयलंगूल ते बविणे लग्ग संत सद्दूल । ते थे वि विसविसम ते बे वि तडितरल ते बे वि मरुचवल ते बे वि कुलधवल 1 धत्ता-बेणि वि दाणणिहि सिरितोसविहि मयपरवस उज्झियभय ।।
बेणि वि दीहकर गंभीरसर रणि लम्ग'ण दिग्गय ॥२२॥
दुवई-बेणि वि अच्छरच्छिविच्छोहेणियच्छियबद्धमच्छरा ।।
बेणि विर्ण जलंतपलयाणल बेण्णि विणं सणिकछरा || पुत्र ( अश्वग्रीव) ने कहा कि हे मित्र, जिसमें कन्याके मुखालोकसे शुभ राग दिया गया है, ऐसी अभिनव धरकी बातसे क्या तुम भग्न हो गये हो ? हे मूर्ख, विद्याधर बालामें तुम क्यों अनुरक्त हुए, तुम हट जाओ, तुम खड्गरूपी आगकी ज्वालामें मत पड़ो। ( इसपर ) श्रावण मेघ, यमुना और भ्रमरकुलके समान कृष्ण, तथा क्रोधसे अक्षण आँखोंवाले, टेढ़े भालवाले, तथा जन्मान्तरके बंधे हुए बैरके अनुबन्धसे युक्त और चंचल गरुडध्वजवाले नारायण त्रिपृष्ठने प्रतिकृष्ण (अश्वग्रोव)से कहा-"दूसरेके धन-धरती और स्त्रीको आकांक्षा है जिसमें, ऐसी चोरशिक्षा द्वारा हे पापिष्ठ, तू क्यों प्रतारित है ?" यह कहते हुए चोर महीपष्ठको. ऑपाते हए हाथोके दांतोंसे संघर्षित भुजदण्डोंसे प्रवल दर्पसे भरे हुए अत्यन्त कुद्ध, ओठ चबाते हुए योद्धाओंमें बड़े वे दोनों प्रति. नारायण अश्वनोबसे भिड़ गये। वे दोनों ही मणिमय मुकुट और कुण्डलोंसे शोभित थे, वे दोनों हो धनुषमण्डलसे विलास करनेवाले थे। ये दोनों ही मानो लम्बो पूंछवाले सिंह थे। वे दोनों ही इस प्रकार युद्ध में लग गये मानो गरजते हुए सिंह हों, वे दोनों विषसे विषम और बिजलीकी तरह तरल थे, वे दोनों ही कुलधवल थे।
पत्ता-वे दोनों ही दानको निधि, श्री और सन्तोषके विधाता, मदके वशीभूत और भयसे रहित थे। वे दोनों ही लम्बे हाथवाले गम्भीरस्वर रणमें इस प्रकार भिड़ गये मानो दिग्गज हो ॥२२॥
वे दोनों ही देवांगनाओंके नेत्रोंको चपलताको देखनेके लिए ईर्ष्या धारण करनेवाले थे । वे २, A कहो महा । ३. P गयणयलपालाहि । ४. AP बंधेण । ५. A पडिलविउ । ६. कंपश्य महिपष्ट। ५. A पविष्ट। ८. वस्त । .A राजंतसद्दल । १०. A दोहरकर ।
११. A सग्ग । २३. १. P"विच्छोहा णियच्छिय ।
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- ५२. २४.५]
महाकवि पुरुषवम्त विरचित रिउणा ण णिविड
कण्हेण पट्टषित। जहिं सप्पु तहिं गरुलु जहि अग्गि नहिं सलिलु । जहि सिद्दरि तहिं कुलिखें अहि तुरट तहिं महिसु । जहि विडदि तहिं जलणु जहिं मेहु तर्हि पवणु। जहिं रत्ति नहिं दिया जहिं सीहु तहि सरहु । जाहिं कालु सोंडालु तहिं कुडिलु दाढालु। केसरि पवित्थरइ
णहरेहि उत्थरइ। जहिं भीम वेयालु
तहि मंतु असरालु । जुजेवि कोवेण
गोविंददेवेषण । रिउणो णिहित्ता
विज्जाव जित्ताउ। जुज्मेषि भूवेहिं
पखिवखरूवेहि। घत्ता-बहुरूविणिए सुरका मिणिप खगवद भणि ण सक्कमि ।।
हलहरसिरिहर पहरणकरहं माणु मलंतु चवकमि ॥२३॥
दुवई-जंपिउं हयगलेम कि के वि तिहुयणि धोरु हीरए ।।
महुँ शियबाहुदंडपिपर पई किलर का की। सेणेष भणेप्पिाणु मुक्छ सत्ति मेहे चलविज्जु व धगधगंति । गयणयलि एंति उरयलि घुलंति चल पलयकालजाल व जलंति ।
विष्फुरिय धरिय दामोयरेण संकेयागय पारि व गरे । दोनों हो जलती हुई प्रलयाग्नि थे । वे दोनों हो मानो शनिश्चर थे। नारायण त्रिपृष्ठने जो तीर प्रेषित किया, शत्रु उसे नष्ट नहीं कर सका । जहाँ साँप है, वहां विष है, जहां आग है, वहां जल है, जहाँ पर्वत है, वहां वन है, जहाँ अश्व है, वहाँ महिष है, जहाँ वृक्ष है, वहां आग है, जहां मेघ है, वहां पवन है, जहां रात है, वहाँ दिन है, जहां सिंह है, वहाँ श्वापद है, जहां मतवाला कृष्णगज है, वहाँ क्रूर दाढ़ोत्राला सिंह फेरता है और नखोसे उछलता है। जहां भोम वेताल है वहाँ विशाल मन्त्र है। क्रोध युक गोविन्द देव ( त्रिपृष्ठ ) ने शत्रुके द्वारा फेंकी गयी विद्याको, प्रतिपक्षल्प ( अश्वप्रोवरूप ) राजाओंसे युद्ध कर जोत लिग ।
घना-देवविधा बहुरूपिणीने विद्याधर राजासे कहा कि हाथमें अस्खा लेनेवाले बलभद्र और नारायण ( विजय और त्रिपुष्ठ) का मैं कुछ नहीं कर सकती, जनवा मान मर्दन करते हुए चौंकती हूँ ॥२३॥
अश्वनीव ने कहा, "क्या त्रिभुवन में किसीके द्वारा धैर्यका अपहरण किया जा सकता है, मेरे बाहुरूपी दण्डको स्थिर सहचरो तुम्हारे द्वारा यह क्या किया जा रहा है ?" उसने यह कहकर शक्ति छोड़ी जो मेधके द्वारा चंचल बिजलीकी तरह धकधक करती हुई, आकाशतलमें आती हुई उरतलपर व्याप्त होतो हुई, चंचल प्रलयकालकी ज्वालाकी तरह जलती हुई, विस्फुरित बह,
२. A कुहिनु । ३. A कोलु। ४. AP कुखिल । ५. A मंति। ६. 4 जुझेवि; P जं जं वि। ७. P ____ has पृणु before बहु । ८. AP मलंति चम।। २४. १. P°सहयरए अरि काई । २. AP पति । ३. AP°जालेव पउंति ।
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२३६
महापुराण
[ १२. २४. ६
चंदणचचियकुसुमंचियंगु परिमलमिलतगुमुगुमियभिंगु । अगमिउ णाई जंगखइ खयक पुणु पडिववस्खें करि लेवि घछ । बोझियल पयावइपुत्तु एम्व एवहिं पड़ गउ रक्खंति देव । गोवालबाल अविवेयभाव दे देहि कण्ण मा महि पोव । इय भणिचि तेण घल्लित रहंगु तं पेक्निवि केण पदिण्णु भंगु । तं देषि पयाहिण पहयतासु चडियउ दाहिणकरि केसवासु । गहराहियदिवायरलील बहइ णं हरिसुहमहिरहकुसुमु सहइ । आयासहु णिवडिड पुप्फवासु रिड कण्डि पवोल्लिउ सो सहासु । संभ मुहूं जिगरावरणु अहवा लैइ महुं पइसरहि सरणु । ता भणइ सुघडु रणरंगढुक्कु हर्ष मण्णमि एवं कुलालचछ । घत्ता-पई पुणु मणि गणितं घंगउ भणि भिक्खागयहु ससंकह ।।
तिव्व छुहामणु गरुयउं गहणु तिलखलखंडु वि रंकहु ॥२४||
१५
दुवई-अज वि सिसुमयच्छि महु अप्पिवि करि घणपणाइसंधणं ।।
मा पावहि कुमार तरुणणि ताडणमरणयंधणं ।। असहंतेणं रिउणा दिपणं ससवणसूलं दुध्ययणं । का क्यणं उसियाहरयं भूभंगुरतविरणयणं ।
wwwmAh.
दामोदरके द्वारा उसी प्रकार पकड़ ली गयी, जिस प्रकार संकेतसे आयी हुई श्री मनुष्यके द्वारा पकड़ ली जाती है । तब शत्रुने हाथमें चक्र उठा लिया, जो चन्दनसे चचित बोर फूलोंसे अचित था, जिसके सौरभसे मिलकर भ्रमर गुनगुना रहे थे, जो ऐसा लगता जैसे विश्वके क्षयके लिए प्रलय सूर्य हो । और उसने प्रजापति के पुत्रसे कहा-"इस समय देव भी तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते। हे अविचारशील गोपाल बालक, कन्या दे दे, हे पाप, स्वयं मत मर ।" यह कहकर उसने चक्र छोड़ दिया । उसे देखकर किसने खण्डन नहीं दिया ( कोन आहत नहीं हुआ), वह चक्र त्रासको आहत करनेवाले केशव ( त्रिपृष्ठ ) के हाथपर प्रदक्षिणा देकर चढ़ गया। वह राहुसे ग्रस्त सूर्यको लीलाको धारण करता है, मानो नारायणके सुखरूपी कल्पवृक्ष के कुसुमकी तरह शोभित है, आकाशसे पुष्पवर्षा हुई। कृष्ण ( त्रिपृष्ठ )ने हैसीपूर्वक शत्रु ( अश्वग्रोव ) से कहा, तुम या तो जिनवरनाथके चरणोंका स्मरण करो, अथवा लो मेरी शरण में आओ। तब युद्ध उत्साह से भरा हुआ वह सुभट कहता है, मैं इसे कुम्हारका चक्र मानता हूँ।
पत्ता-तुमने इसे मणि समझ लिया, ठीक ही कहा है कि भिक्षाके लिए आये हुए सशंक दरिद्र व्यक्तिके लिए भूखका नाश करनेवाला तिलखलका टुकड़ा भी भारी और दुर्लभ होता है ॥२४॥
आज भी तुम शिशुभृगनयनी मुझे सौंपकर प्रगाढ स्नेह सन्धि कर लो। हे कुमार, तुम तारुण्य (यौवन) में ताडन-मरण और बन्धनको प्राप्त मत करो। इस प्रकार शत्रुके द्वारा दिये गये,
४. A जुगखयस्वयंकु; जुगल ह न यक्कु । ५. A जाव । ६. A पहयामु; P पहपयासु । ७. A लह । २५. १. AP पणयसंघणं ।
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-५२. २५. २२]
महाकाय पुष्प विरचितः हरिणा दित्त वित्तं चकं सहसाराधाराजलियं हयगलालकंदलयं दलिय बहलं कीलालं गलियं । कुंडलकिरणं फुरियकवोलं के कृभिणिवलयइ पडियं णं सरसं तामरसं सदलं कालमरालाहिवखुडियं । कामिणिकारणि कलह समत्ती परणरकरसरहयगतो आसग्गीवो विय लियजीवो सत्तमणैरयं तं पतो। णहयरविसहरमहिमणुएहिं सामि भणेपिणु संगहिओ जयजयरवरिउ भुवणेहि हरि हलहरसहिओ महिओ। हिंडिवि दाहिणभरह तिखंडे परवइ सवसं कोण जिओ मागहदेवो परतणुणामो अवि य पहासो तेण जिओ। दिणयरकित्ति हुयवहज डिणा हलिणा तस्स पयावरणा बद्धो पट्टो विउले भाले मंगलविलसियजणरइणा। परपयावाकंपियमुवणो असिवरदसियकूरैमई णिय कुर्लकुवलयकुवलयबंधू जाओ कण्हो चकवई। बहसेढीणं रायं कार्ड जलणजईि ससुरं खयरं
आओ गुरुवर्णपणवियसीसो पुणरवि तं पोयणणयरं। धत्ता-लइ दीस पवरु एउ वि अवरु णिच्छयणियमणि उत्तरं ||
इह सुपुरिसचरिउं बहुगुणमरिउ जगि आत्तु समत्तउं ||२५|| अपने कानोंके लिए त्रिशूलके समान दुर्वचनों को सहन नहीं करते हुए, तथा अपना मुख दंशिताधरों एवं भौंहोंसे भंगुर और लाल आँखोंवाला कर नारायण दोन हजारों आराओंको धाराओंसे प्रज्वलित चक्र छोड़ दिया। अश्वग्रीवका गला और कपाल कट गया। प्रचुर रक्त बह गया। कुण्डलको किरणोंवाला स्फुरित कपोलवाला उसका मस्तक भूमण्डलपर इस प्रकार गिर पड़ा मानो कालरूपी हंसराजके द्वारा तोड़ा गया सदल सरस रक्तकमल हो । स्त्रीके लिए कलहसे मत माला, शत्रु मनुष्यके हाथके चक्रसे आहत, नष्टजोव अश्वग्रीव सातवें नरक गया। विद्याधरों, नागों और मनुष्योंने स्वामी कहकर उस ( त्रिपृष्ठ ) को स्वीकार कर किया। विश्वोंने जयजय शब्दसे पूरित तथा बलभद्र सहित हरिको पुजा की । दक्षिण भरतखण्ड में भ्रमण कर उसने किस राजाको अपने वश में नहीं किया ? वरतनु नामका मागधदेव और प्रभासको भो उसने जीत लिया। दिनकरके समान कीर्तिवाले ज्वलनजटो, बलभद्र और प्रजापति तथा जिसमें मंगलके कारण लोगोंकी रति विलसित है ऐसे अर्ककोतिने उसके विशाल भालपर पट्ट बांध दिया। जिसके प्रचुर प्रतापसे भुवन प्रकम्पित है, जिसके असिवरले क्रूरमति दूषित कर दिया है, जो अपने कुलरूपी कुमुद और पुथ्वीमण्डलका बन्धु है, ऐसा वह त्रिपृष्ठ चक्रवर्ती हो गया। अपने ससुर विद्याधर ज्वलनजटीको विजयार्धको दोनों श्रेणियोंका राजा बनाकर गुरुजनोंके प्रति अपना सिर झुकानेवाला वह फिर उस पोदननगर पहुंचा।
पत्ता-लो यह दूसरी बात भी महान दिखाई देती है कि निश्चयरूपसे अपने मन में कहा गया बहुगुणोंसे भरित जगमें आदृत सुपुरुष-चरित समाप्त हो गया ॥२५॥
२. A पितं विसं चित्त। ३. P कलह। ४. A णरए तं पसो। ५. AP पूरिय। ६. A पर । ७. रगई; P करमई। ८. AP णिय कुलणहपल । ९. A राउं काउं। १०.A पणमिय ।।
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२३८
५
१०
१५
महापुराण
२६
दुबई - मगहर भद्दलक्खणायारह महललग्गकुंभ ।। दोचालीसक्ख मायंग अरिक रिवरणिसुंभ ॥ पायाहु कोडिउ तेतियाउ । वकोडिन जाइतुरंगमाहं ।
मह अटू महासईए । सोलह सहास सीमंतिणीहि । सोलइ सहास गौड्यवराई । सोलह सहास खेडादिवाहं । पणास सहस दोणामुहाई ।
नेव महस संवाहा | वसुसम सहास जक्खामराई | पण्णास णिउत्तई तिणि स्यई ।
दुई दुगाँई । किं अक्खमि संपय वप्प तासु । जा हरणाहरु हुइय मारि ।
पत्ता - तहि परमेस रिहि रइरससरिहि हरिणा हरिसरवण्णा ||
तेत्तिय रह रणभरजोतियाउ
जलथल गयणंतर जंगमाई जंभारिपीलुलीलाई पिरुपी पीचरुण्यथणीहि
सोलह सास देत राहूं सोलह सहास घरि पस्थिवाहूं हाच सहाम मेच्छाहवाह सहस रपट्टणाएँ छत्तीस सहस साहित्य पुराह पचंतनिवास शिवइ येई गिरितरुजलवाहिणि संगमाई
गामहं कोडिङ अडदाल जासु जा णाम सर्यपह इट्टणारि
[ ५२. २६. १
पहिलउ सिरिविजन बीउ विजउ तनय दोणि उपपणा || २६॥
२६
जो सुन्दर भद्रलक्षण धारण करनेवाले हैं, जिनके कुम्भस्थल आकाशतलसे लगते हैं, और जो शत्रुगजों का नाश करनेवाले हैं, ऐसे दो लाख चालीस हजार हाथी उसके पास थे। उतने ही युद्धभार में जोते हुए रथ थे। पैदल सैनिक भी उतने ही करोड़ थे । जल, थल और आकाश में चलतेवाले नौ करोड़ घोड़े थे। ऐरावतकी चालकी तरह चलनेवाली आठ महासती देवियां थीं । अत्यन्त स्थूल कर उन्नत स्तनोंवाली सोलह हजार स्त्रियाँ थीं। सोलह हजार देशान्तर, सोलह हजार नाटकवर, सोलह हजार गृह पार्थिव ? सोलह खेड | धिपति, नौ हजार म्लेच्छ राजा, पचास हजार द्रोणमुख, चौबीस हजार उत्तम पट्टन, सास हजार संवाहत, छत्तीस हजार और यक्ष अमरोंके आठ हजार नगर कहे गये हैं। तीन सौ पचास सीमान्त राजा उसके प्रति नत थे। गिरितरुओं और नदियोंसे युक्त चौदह दुर्गम यन दुर्ग थे। जिसके पास एक करोड़ मड़तालीस गांव थे, मैं अकिंचन कवि उसका क्या वर्णन करूं ? जो उसकी स्वयंप्रभा नामको प्रिय पत्नी यो, यह विद्याधरोंके लिए मारी सिद्ध हुई ।
घत्ता - रतिरूपी रसकी नदी उस परमेश्वरीसे हर्षसे सुन्दर हरि ( त्रिपृष्ठ ) को दो पुत्र उत्पन्न हुए - पहला श्रीविजय और दूसरा विजय || २६ ||
२६. १. A यर । २. जब मणियत आई । ३. वराहं । ४ AP सहो । ५. A शिवह नियई । ६. A संगमाहं । ७. दुग्गमाहं ।
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-५२. २७. १५ ]
महाकवि पुष्पान्त विरचित
२३९
दुवई-ता सिहिजडि सपुतु परिपुच्छिवि हरि हलहर पयावई ।।
गढ रहणेउरम्मि दढे जिणगुणसुमरणसमियदुम्मई ॥ सो तहिं ए एत्यु वसति जांव बहुकालहिं जहणरु ढुक्कु ताप । सो पुछिरितारण कुसलु मे र जिणएयपोममसलु । असहायसहेजस सञ्चसंधु खयराहिउ गुणि महु परमबंधु । तं सुणिवि तेण खयरेण उत्त मेल्लिषि खगणिवपसर तु ।। थित धरिवि पंचपरमेट्ठिसेव महिवह ससुरस पावइड देव । एयइं अयण आयपिणयाई सजणचरिथई मणि मण्णियाई । ता एण सहहि संसं णियाई इंदियसुहाई अवगणियाई। सणएण फ्यावइपत्थिवेण आखच्छिय तणुगह छे वि तेण । अणुहुत्तई इच्छिउँ पुससोक्खु एंवहिं संसाइमि परममोक्खु । लइ जामि रष्णु पावज लेमि वयसंजर्मेभारह खंधु वेमि। हरिहलहरमउहणिरुद्धपाए । पस्थित थिउ फेंक वि गाहिं ताउ । जिम्मुकमाणमायामपहि
गरणाहहं सहुं सत्तहिं सएहिं । परिसेसिवि मंदिरमोहवासु पर लाई पासि पिहियासषासु ।
तब ज्वलनजटी अपने पुत्र नारायण, बलभद्र और प्रजापतिसे पूछकर, जिनके गुणोंके स्मरणसे जिसकी दुर्मति शान्त हो गयी है, ऐसा वह राजा अपने रथनूपुर नगर पला गया। जब वह वहाँ और ये यहां इस प्रकार रह रहे थे तो बहुत समयके बाद एक विद्याधर वहाँ बाया। नारायणके पिताने उससे कुशल समाचार पूछा कि जिनवरके चरणकमलोंका भ्रमर असहायोंको सहायता करनेवाला, सत्यप्रतिज्ञ, गुणी विद्याधर राजा मेरा श्रेष्ठ बन्धु सुक्षसे तो है। यह सुनकर उस विद्याधरने कहा कि विद्याधरराज और चक्रेश्वरत्व छोड़कर पंचपरमेष्ठीकी स्थिर सेवा स्वीकार फर वह ससुर राजा है देव, प्रवजित हो गये हैं। राजाने ये वचन सुने और सजनके परित्रोंको उसने माना। उसने सभामें इसकी प्रशंसा की तथा इन्द्रिय सुखोंकी निन्दा की। उस न्यायशील राजा प्रजापतिने अपने दोनों पुत्रोंसे पूछा कि मैंने इच्छित पुत्र सुखका अनुभव कर लिया है, इस समय मब परम सुखकी साधना करूंगा। लो में प्रवज्या लेकर वनमें जाता है। तथा व्रत और संयमके भारको मैं अपना कन्धा दूंगा। बलभद्र और नारायणके मुकुटोंसे जिसके पैर अवकट हैं, ऐसा वह राजा और पिता किसी भी प्रकार का नहीं। मान-माया और मदसे रहित सात सौ राजाओंके साथ घरके मोहवासका परित्याग कर उसने पिहितात्रय मुनिके पास व्रत ग्रहण कर लिया।
२७.१. APणय । २, A सुह मच्छह । ३. A रणि । ४. AP संजमु ।
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२४०
महापुराण
[ ५२. २७. १६घत्ता-थिउ परिहरिवि जणु पेयसेवि वणु णिश्चमेव णिञ्चलमइ ।।
अट्ठ वि णि«णिवि' कम्मई जिणिवि गउ सिवपयहु पयावइ ॥२७॥
दुवई-एतहि णिसियषिसमअसिधारातासियणरवरिंदहो ।
परासीदि लक्ख गय वरिसहं तहि पुरवरि उबिंदहो। दीहासीचावपमाणगत्तु
अण्णहिं दिणि भोयसुई अतित्तु । णिद्धम्मचित्तु पिल्लुत्तणाणु वड्दतमहतरउदझाणु। जिह सुत्तउ तेंव जि कण्हलेसु मुल कण्हु ज मह किर को ण वेसु । उप्पणउ तमतमपहि तमोहि पंचविहदीढ्दुसाहदुहोहि । सेत्तीससमुहपमाणु आठ
पंचसयसरासणतुंगकाउ। जायउ णारच णारयहं गम्मु भणु कवणु ण मारइ भीमकम् । संई रुयइ सयपह कत कंत अतलबल देव हयगलकयंत । बहुहि णिहालहि सुहिमुहाई दीहइ णिदइ सुत्तो सि काई। बलएवाहु धाधारणरण
लोय वि रयति कारुण्णएण । णिसुणेवि सावयणामयाई णिज्झाइवि जिणपयर्पकयाई। पियविरहयवह पइसरति वारवि सयंपह अणुमत ।
धत्ता-लोगोंका परित्याग कर निश्चल और निश्चित मति वन में प्रवेश कर प्रजापति आठों ही कर्मों को नष्ट कर और जीतकर शिवपदको प्राप्त हुआ ॥२७॥
यहाँपर पैनी और विषम असिंधारासे जिसने नरवर राजाओंको अस्त किया है, ऐसे उस उपेन्द्र त्रिपुष्टके उस नगरमें चौरासी लाख वर्ष बीत गये । उसके शरीरका प्रमाण अस्सी धनुष था। एक दिन वह भोगसुखसे अतृप्त हो उठा, धर्मसे रहित चित्त और ज्ञानसे लुप्त उसका रौद्रध्यान निरन्तर बढ़ रहा था। जैसे ही वह सोया वैसे ही कृष्णलेश्यावाला वह कृष्ण (नारायण त्रिपुष्ठ ) मर गया। यमका द्वेष्य कौन नहीं होता। वह पाँच प्रकारके दोघं दुखोंके समूह अन्धकारसे भरे तमतमप्रभा नगरमें उत्पन्न हुमा ! उसको आयु तैंतोस सागर प्रमाण थी। पांच सौ धनुष प्रमाण ऊँचा उसका शरीर था। नारकियोंके लिए गम्य वह नारको हुआ। बताओ भीमकर्म किसको नहीं मारता । स्वयंप्रभा स्वयं, 'प्रिय-प्रिय' कहकर रोती है कि हे अतुलबल देव, अश्वनीव ! उठोउठो सुधीजनोंके मुखोंको देखो, तुम लम्बो नीदमें क्यों सोये हुए हो ? बलभद्र के पहाड़ मारकर रोनेसे करुणाके कारण लोग भी रो पड़ते हैं। फिर साघु वचनामतको सुनकर जिनवरके चरणकमलोंका पान कर प्रिय विरहके कारण आगमें प्रवेश करती हुई तथा अनुशरण ( पति के बाद
५. AP पासरिवि वणु। ६. A णि?विचि ।। २८.१. AP परासी वि। २. AP बडतरबद्दमहतमाणि । ३. P को ण दोसु । ४, A विहपंचदोह
५. AP कैम ण मार । ६. A संख्याह । ७. P पियविरहएं।
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-५२. २८. १७ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित सिरिविजयदु बंधिवि रायपट्ट दणु रायसहासहिं सहु पयट्ट। गुरु करिवि महारिसि कणय कुंमु ता चिष्ण सीरिं रईणिसुंमु । घत्ता-ना मोक्खहु विजउ जिणधम्मधर सेएं भरष्ट्र भडारच ॥
सोसियमोहरसु सुवर्णतजसु पुप्फयंतसरवारउ ॥२८॥
हय महापुराणे सिसटिमहापुरिसगुणालंकारे महामस्वमरहाणुमजिए महाकपुष्फयंतषिराए महाकम्वे विजयतिक्टुिहमगीयकहतर
गाम दुबमासमो परिच्छे जो समतो ॥१२॥
मरण) करती हुई स्वयंप्रभाको मनाकर, श्रीविजयको राजपट्ट बांधकर, एक हजार राजाओंके साथ वह वनमें चला गया। रतिका नाश करनेवाले महाऋषि कनककुम्भको अपना गुरु बनाकर बलभद्रने तप ले लिया।
पत्ता-जिनधर्म दृढ़ तेजसे नक्षत्रोंको हकनेवाला, मादरणीय मोहरसका शोषण करनेवाला, भुवनको सीमाओं तक यशवाला, कामदेवके बाणोंका नाश करनेवाला विजय मोक्षके लिए गया ॥२८॥
इस प्रकार प्रेसठ महापुरुषों के प्रणाकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामण्य मरत द्वारा भनुमत इस महाकाम्य में
बावनवा परिच्छेद समाप्त हुआ ॥५in
___
८. A सीरें। ९. AP रयाणसुंभु । १०, A जिणधम्मरको ।
सात . सामना
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संधि ५३
पणविवि देवहु णेयंदणिउंजियदिहिहि ॥ वासवपुञ्जहु सिरिवासुपुजपरमेट्रिहि ॥ ध्रुषकं ।।
जो कमाणसयालयो हरिणवंदपहआसणो कणयरकविलणिवारणो दुविहकम्मकयणिज्जरो जो णिण्णासियभयारो जैस्स अणंस पीरियं जो ण महइ दियवारियं सुचं जस्स ण मंसए अरइयरइणियाणओ बारहमो तिस्थकरो जो अम्मंबुदिपोयओ बुल्झियवस्थुवियप्पयं भणिमो तस्स महाकई
मायाभावसयालओ। कुणयकुडंगहुयासणो। अजुणवारिणिवारणो। सुहयावयवो णिज्जरो। वाणालो जिणकुंजरो। अवि गैहणइ णियवहरियं । मज्जे जेण ण ईरियं । पाए जस्स णमंसए । भैसकेऊ णिन्वाणओ। पणयाण सिथंकरो। घसिकयहरिकरिपोयो। तंणमि परमप्पयं। चितेण तवं कह।
सन्धि ५३ जिनकी दृष्टि एकान्तमें नियुक्त नहीं है, और जो इन्द्र के द्वारा पूज्य हैं, ऐसे श्री वासुपूज्य देवको में प्रणाम करता हूँ।
जो कल्याण परम्पराओं के शोभन पर हैं, जिनमें मायाभाव सदाके लिए लय हो गया है, जिनके आसनमें सिंह है, कुनयरूपी वृक्षोंके लिए जो अग्नि हैं, जो कगयर और कपिलका निवारण करनेवाले और श्वेत छत्रको धारण करनेवाले हैं, जिन्होंने दो प्रकारके कर्मोंकी निर्जरा की है, जो सुन्दर शरीरावयववाले और जरासे रहित हैं, जिन्होंने भयरूपी ज्वरका नाश कर दिया है, जो वानके घर और श्रेष्ठ जिन हैं, जिनके पास अनन्तवीर्य है, फिर भी जो अपने शत्रुका हनन नहीं करते, जो ब्राह्मणोंके वेदोंका सम्मान नहीं करते, जिनका सिद्धान्त न मदिरामें है बोर न मांसमें, जिसने रतिसुखको रचना नहीं की है, जो बाण रहित है, ऐसा कामदेव जिनके चरणोंमें नमस्कार करता है, जो प्रणतोंके लिए सीर्थ बनानेवाले हैं, जो बारहवें तीर्थकर हैं, जो जन्मरूपी समुद्र के लिए जहाज हैं, जिन्होंने अश्व-गजादिके समूहको वशमें कर लिया है, जिन्होंने पदार्थोंके भेदको
१. १. भवजरो । २. AF जस्साणंतं । ३. A णिहणइ । ४. AP सकेओ ।
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२४३
-५३. २. १३
महावि पुष्पदन्त विरचित कुलबलजाईसामयं मोत्तं जम्म सामयं । काउं देह स्वामयं
जिह लद्धं मोक्खामयं । घसा-सिह इज भासमि सुणि सेणिय किं सिरिगावे ।।
जिणजिस गावि ५ पार्वे ॥१॥
पुक्खरखरदीवद्धए
मणुउत्तरगिरिरुद्धए। वडसरायसुरदारुणो
इंददिसासियमेकणो। पुष्वविदेहे जरुई पीणियखगडेलसंतई। तत्थै वारिमंथरगई सोया णाम महागाई। पायबसुरहिसमीरए तीए दाहिणतीरप । संतोसियणरवरमई
परदेसो वच्छावई। घरसिरकयणड्साइयं उच्छवपडाणिणाइयं । धुयधयमालाराइयं रयणरं रयणाइयं । तहिं राओ पङमुसरो जो सीलेण जगुत्तरो। देवी सरस मयच्छिया प्यामेणं धणलच्छिया। छोण्हं अणियाणंगओ दीहो कालो णिग्गओ। तलतमालतालीघणे
आलीणो पुरजववणे। सन्तुमिससमचित्तओ अनहो तित्थपवत्तओ। समझ लिया है, ऐसे उन परमात्माको में नमस्कार करता हूँ। उनको महाकथाको मैं कहता हूँ कि किस प्रकार उन्होंने तप स्वीकार किया। किस प्रकार कुल-बल-जाति और लक्ष्मीके मद और व्याधिसहित जन्मको छोड़कर और शरीरको कृश बनाकर मोक्षरूपी अमृत उन्होंने प्रार किया।
पत्ता- उस प्रकार मैं कहता हूँ, हे श्रेणिक ! लक्ष्मोके गर्वसे क्या, जिनके गुणोंका चिन्तन करनेसे चाण्डाल भी पापसे मुक्त होता है ॥१॥
मानुषोत्तर पवंतसे अवरुद्ध पुष्कराध द्वीप है। जिसके तटपर देवदारु वृक्ष उगे हुए है ऐसे पूर्वदिशामें आश्रित पूर्वमेरुके पूर्व विदेहमें लोगोंको अच्छी लगनेवाली, पक्षिकुलको परम्पराको सन्तुष्ट करनेवाली, जलसे मन्द-मन्द बहनेवाली सोता नामकी नदी है। उसके वृक्षोंसे सुरमित पवनवाले, दक्षिण सीरपर नरश्रेष्ठोंको मतिको सन्तुष्ट करनेवाला वत्सकावती वेश है । उसमें रत्नपुर नामका नगर है, जो गहरूपी सिरोंसे आकाशका आस्वाद करनेवाला है, जिसमें सत्सव नगाड़ोंका शब्द हो रहा है, जो हिलती हुई पताकाओंसे शोभित है और रत्नोंसे विजटित है। उसमें पयोत्तर नामका राजा था ओ शीलमें विश्वमें श्रेष्ठ था। मृगके समान नेत्रवाली उसको धनलक्ष्मी नामको देवी थी। कामदेवको जाननेवाले उनका बहुत-सा समय बीत गया । तल, तमाल और साली वृक्षोंसे सघन नगर-उपवनमें विराजमान, शत्रु और मित्र में समान चित्त रखनेवाले तीर्थ
२. १० जणएँ । २. A अगसहसंतई । ३. AP तेत्यु। ४. P तहिं मि राउ पलमुत्तरो।
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२४४
१५
२०
धम्मसलिलसिंचियधरो गुणवत्युविय दाउ परिपालयखमं सहणिवेहिं साहियमणो जाओ राओ मुनिवरो चरइ त सो जैरिसं पत्ता - णिरु पिपिहमइ परमेसरु
माणसे असकाई
बुझि सुयंगथाई इंडिया पीडिऊण अजिऊण चारु चितु भाषिऊण संतणा
महापुराण
महिओ ते जुगंध । scrore froदेओ । धमित्तस्स कुलकमं । सममणियतणकंचणो | गिरिगणे लंबियकरो । को किर वण्णइ तेरिसं । पंथहु लागउ ||
जिह देहें रिसि चितेण वि तिह सो जग्गड ॥ २ ॥
उज्झऊण खाणु पाणु णिग्गओ सरीरयाउ जम्मसायरे परंतु चंद्रकेत कति सुकि सोलसण्णवपमाउ
३
पंच पंच एकाई । तोचि नियंगयाई |
दुक्कियाई साडिऊण | तिथणाणामु गोत्तु । झाइऊण धम्मझायु । ते मुक्कु झति पाणु | रईसरीरया | दुखविन्मेघडंतु | जायओ महंत सुधि । पोमलेसु सुब्भते ।
५. A देहेण । ३. १ A वाविओ ।
१०
प्रवर्तक धर्मरूपी जलसे धरतीको सिंचित करनेवाले अरहन्त युगन्धरको उसने पूजा की। पदार्थके भेदको उसने समझा । उसे निर्वेद उत्पन्न हो गया। जिसमें पृथ्वीका परिपालन किया जाता है, ऐसी कुलपरम्परा ( कुलराज्य ) अपने पुत्र ( धनमित्र ) को देकर, राजाओं के साथ अपने मनको साधते हुए, तृण और स्वर्णको समान मानते हुए वह राजा मुनिवर हो गया। गहन वनमें अपने हाथ लम्बे कर वह जिस प्रकारके तपका आचरण करता है, उसका देसा वर्णन कौन कर सकता है ?
मार्गपर लग गये। जिस प्रकार वह
पत्ता -- अत्यन्त निस्पृह-मति वह परमेश्वर अपने शरीर से ऋषि ( नंगे ) थे उसी प्रकार मनसे भो ॥२॥
[ ५३.२.१४
३
अचिन्तित पांच पापों और इन्द्रियोंको एक किया सन्तप्त किया । इन्द्रियोंको पीड़ित कर, दुष्कृतों को नष्ट कर
।
श्रुतांगों को समझा। अपने अंगों को सुन्दर विचित्र तीर्थंकर नामका गोत्र
अजित कर, अपने मनमें ज्ञानको भावना कर, धर्मध्यानका ध्यान कर, खान-पान छोड़कर उसने शीघ्र प्राणोंका त्याग कर दिया। शरीरसे इस प्रकार निकला मानो रतिरूपी नदोके वेग से निकला हो । जन्मरूपी सागर में पड़ता हुआ, दुःखोंके विलास में होता हुआ, चन्द्रकान्तकी कान्तिके समान सफेद महाशुक विमानमें उत्पन्न हुआ। सोलह सागर प्रमाण आयुवाले उसकी पद्मलेश्या थी, और वह
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-५३. ४. १३ ]
महाफवि पुष्पदन्त विरचित हारबोरसोङ्माणु
अट्ठअद्धहत्यमाणु । अट्ठअट्ठपक्खेसासु
पुण्णाचंदसंणिहासु। चोत्यभूयलंतलक
सहायकामसोक्ख । घत्ता-सोलहसहसई गय वरिसह एकसु मुंजइ ।।
जो सो सुरवरु चुहहियवउ किं णड रंजः ॥३॥
लेसमासजीवियम्मि जवणाहु भासुरेण जंबुदीनि माणुभासि दोक्खलक्खलोट्टणम्मि अस्थि दवपुजरात सम्स पत्ति कामवित्ति ताई होईदिदियारि जाहि देवै सोक्खजुत्ति णिम्मियं पुरं वरेहि केजछण्णवावियाहिं फुलगुंछवाछएहि तीरिणीतलायरहि इटिंटचचरेहि
दियपुंगमे थियम्मि। बोलिओ सुरेसरेण। भारहम्मि संगदेमि। चंपणामपट्टणम्मि। सत्तुसीसदिण्णपाठ। वनदा जयावइ ति। अंगओ अहम्महारि। ता धणाहिवेण शत्ति। मोत्तिएहिं कन्चुरेहि । दीहियाहि खाइयाहि । कूवरहिं कच्छए हिं। चित्तदारभायएहि । गामगोहदुश्चरेहिं।
शुभ्र तेजवाला था। हार-डोरसे शोभित चार हाथ प्रमाण शरीर, आठ-आठ पक्षमें श्वास लेनेवाला और पूर्णचन्द्रके समान मुखवाला। चौथी नरकभूमिके अन्त तक देखनेवाला ( अवधिज्ञानसे ); उसे शब्दमासे कामसुख मिल जाता था।
__ पत्ता-जो, जब सोलह हजार वर्ष निकल जाते तो एक बार भोजन करता, वह देववर पण्डितोंके हृदयका रंजन क्यों नहीं करता ? ॥३॥
जब दिव्यशरीरमें स्थित उसका छह माह जीवन शेष रह गया, तो भास्वर देवेन्द्रनाथने यक्षनाथसे कहा कि 'सूर्यसे प्रकाशित जम्बूद्वीपके भारतमें अंगदेशके लाखों दुःखोंको नष्ट करनेवाले चम्पा नामक नगरमें शत्रुओंके सिरपर पैर रखनेवाला सुपूज्य नामका राजा है, उसकी पत्नी (प्रिया) जयावती कामवृत्ति है। उन दोनोंके इन्द्रियोंका शत्रु और अधर्मका हरण करनेवाला पत्र होगा। इसलिए सुखयुक्तिवाले हे देव, तुम जाओ।' तब कुबेरने शीघ्र जाकर श्रेष्ठ चित्र-विचित्र मोतियोंसे नगरकी रचना की । कमलोंसे आच्छादित वापियों, लम्बी-लम्बी खाइयों, फूलों के गुच्छेवाले वृक्षों, कूपों, कच्छों (कछारों), नदियों, तालाबों, चित्रित द्वारभागों, बाजारों, द्यूतगृहों, चौराहों, ग्राम्य
२. P परखमासु ! ४. १. जंबुदीयमाणुभासि । २. A होहि इंदियारि; P होहिदिदियारि। ३. A देहि सोक्स । ४. AP
फुल्लगोच्छ।
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[ ५३. ४. १४
महापुराण दोहरत्थमग्गएहिं
वोममग्गलग्गहि। धूवगंधसुंदरेहि
सत्तभूमिमंदिरेहि। वत्ता-एह सोइ जे पुरु तहिं घरि सुहं सुवइ ।।
सिविणयसंतइ पविलोक्य पंकयणेत्ता ॥ ४॥
हत्थि दाणवारिवारिसमत्तछप्पओ गोवई विसाणघायभम्गसालिवपओ । केसरी मर्यधगंधकंभिकभदारणोणक्खजोण्हियामिलंतमोत्तियंसुवारणो। हंसकामिणीहि सेवियारविदवासिरी पुंडरीयवामणेहि सिंचिया महासिरी। पारियायपोमपोंमलं परायसंमुयं मत्तभिंगसंगय ललंतमालियाजुयं । णालियंधयारओ वरों विहायरीवई कंजबंधयो सरम्मि दिण्णपोमिणीरई। पेमै भला चला गिरंतर वियारिणो । फीलमाणया महासरंतरे विसारिणो । वारिवारपूरियं सरोव्हेहिं अंधियं कुंभजुम्म पवित्तचंदणेण चश्चियं । पंकयायरो चलतलच्छिणेउरारको णोरघुम्मिरो तरंगभंगुरो महण्णवो।
सीहमडियासणं रणवकिंकिणीसरं इंदमंदिरं वरं महाफणीसिणो घरं । १० पुजओ मणीण दिचिरजियावणीयलो धूमचत्तओ पलित्तजी सिहाचलोणलो।
प्रमुखों के लिए चलने में कठिन लम्बी गलियों और मार्गों और आकाशमार्गसे लगे हुए धूप-गन्धसे सुन्दर सातभूमिवाले घरोंसे
घत्ता-वह नगर शोभित था। वहाँ घरमें सुखसे सोती हुई कमलनयनी जयावती स्वप्नमाला देखती है। ॥४॥
मदजलके प्रवाहमें अनुरक्त मत्त भ्रमर जिसपर हैं, ऐसा हाथी जिसने सींगोंके आधातसे क्षेत्रखण्डको खोद डाला है, ऐसा गोपति (बैल); मदान्ध गन्ध गजके कुम्भस्थलका विदारण करनेवाला तथा नखोंकी ज्योतिसे मिलती हुई मोतियोंकी किरणोंका निवारण करनेवाला सिंह, हंसिनियोंके द्वारा सेवित, कमलोंमें निवास करनेवाली, पुण्डरीक और वामन दिग्गजों के द्वारा अभिषिक्त महालक्ष्मी; पारिजात और कमलोंसे मिश्रित, परागको भूमि, मतवाले भ्रमरोंसे युक्त विलसित पुष्पमाला युग्म, जिसने अन्धकारका नाश किया है ऐसा श्रेष्ठ चन्द्रमा, सरोवरमें जिसने कमलिनियोंको कान्ति दी है ऐसा कमलबन्धु ( सूर्य }; प्रेमसे विह्वल, चंचल निरन्तर विवरण करनेवाली क्रीड़ा करती हुई महासरोवरमें मछलियाँ जलसमूहसे पूरित, कमलोंसे अंचित, पवित्र बन्दनसे चर्षित कुम्भयुगल; जिसमें गलती हुई लक्ष्मोके नूपुरोंका शब्द हो रहा है ऐसा सरोवर तरंगोंसे भंगुर और जलसे पालोडित समुत्र सिंहोंसे अलंकृत आसन ( सिंहासन ); जिसमें किकिणियोंका स्वर है ऐसा इन्द्रविमान और महानागका श्रेष्ठ घर । जिसने अपनी दीप्तिसे भवनीसलको रंजित किया है ऐसा मणियोंका समूह; घूमसे रहित, शिखामोंसे चंचल प्रदीत आग।
५. AP वोमक्षामलम्गएहि । ६. A सुहि सुतइ । ५. 1. Aरंतमत्त । २. A हिमाहियो णिसावई । ३. A पिमबिमला। ४. AP तारधारिपूरियं ।
५. A सीहवीडियं रणतः।
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-५३.७.३]
२४७
महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता--सिविणय जोइवि विहणियणाहहु भासि ।।
तेण वि तप्फेलु णिचप्फलु तहि सवएसिः ।।५।।
णाणचक्खुणा जो णिरिक्लए जो जयं असेसं पि रक्खए । पोसए पिए दुवसामिए सुंदरी हले मझखामिए । सो तुमम्मि होही जिणेसरो भवजीवराईवणेसरो। संशपेसिया दावया सिरी कति किचि बुद्धी सई हिरी। आगया घरं देहसोहणं ताहि तम्मि विस्सा कयं घणं । तिपिण तिणि मासे धणी असो वुटओ सुर्वणंभपाउसो । मेहजाललीलापयासए पावणम्मि आसाढमासए 1 छहए दिणे किण्हपक्खए तित्थणाहसंखम्मि रिक्खए । चरणकमलजुयणवियपण्णओ गम्भकंजकोसे जिसण्णाओ।
पुणु पयस्थलममासमेरओ णिच सपा कणयं कुबेरओ। घत्ता-चउसंखाहिइ जलणिहिपण्णासइ ढलियइ ॥
पल्लहु तिजइ भायम्मि धम्मि परिगलियइ॥ ६ ॥
गइ सेयंसइ मासइ फरगुणि कंपियतिहुवणि
सिवसरहंसइ । पक्व तमघाणि | चउदहमि दिणि |
धत्ता-स्वप्नोंको देखकर देवीने अपने स्वामीसे कहा और उसने भी उसे उसका नित्यफलवाला-फल बताया ।।५।।
जो झानरूपी आँखसे देखते हैं, जो अशेष जगकी रक्षा करते हैं, हे दूबकी तरह श्यामांगी, कृशोदरी सुन्दरी, पोषण देनेवाली प्रिये, ऐसे वह भव्य जीवरूपी कमलोंके सूर्य जिनेश्वर तुममें उत्पन्न होंगे। इन्द्र के द्वारा प्रेषित देवियां श्री, कान्ति, कीर्ति, बुद्धि, सती और हो घर आयीं, और उन्होंने उसका उसी समय खूब देह शोधन किया। मेघजालको लीलाको प्रकाशित करनेवाले, पवित्र आषाढ़ माहके कृष्णपक्षके छठीके दिन, चौबीसवें शतभिषा नक्षत्र में जिनके चरणकमल युगलको नाग प्रणाम करता है, ऐसे वह गर्भरूपो कमलकोशमें स्थित हो गये। फिरसे कुबेरने नौ माहको अवधि तक नित्य धनकी वर्षा की।
पत्ता-यौवन सागर समय बीतनेपर, अन्तिम पल्पके तोसरे सागरमें धर्मका उच्छेद होने पर-॥६॥
शिवरूपी सरोवरके हंस श्रेयांसके चले जानेपर, फागुन माहके कृष्णपक्षमें, जिसमें त्रिभुवन
६. तं फलु णिच्यफल । ६. १. A सुवणंबुपाउसो । २. A कण्हपक्खए । ७. १. P सिवभर ।
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२४६
[५३.७.४
महापुराण दुरियविओयह वारुणजोय।। . उप्पण्णो इणु पारहमो जिणु। हरिसोल्जियमणु पत्तो सुरयणु चंपावर णविऊणं घेरं । णिज्जियसयदलि जणणीकरयलि। बुद्धिणिसुंभयं मायाडिंभयं। गहिऊणं पहुं रइभिसिणीविहूं। सकेणं तउ कुंभणिउं गाउ। लगगणमेरुणो सिहरं मेरुणो। गंतुं गयमलि
पंडुसिलायलि। घत्ता-गाह श्वेप्पिणु जियतारहारणीहारहिं ।
हघिउ सुरिंदहिं घडवियलियचंदिरधारहिं ॥ ७ ॥
पुजिवि बंदिवि तिजगगुरुणिवराणियहि खेयर विसहर सुरेरमणिसमाणियहि । तणयालोयणतुद्विय हि तुच्छोयरिहि आणिवि देख समप्पियउ करि मायरिहि । इंदें रुंदाणंदवसु तिह णचियर्ड जिह महिचलणे फणिउलु विभियकुंचियां ।
पण विधि परमं परमपरं हि पलियधो सहूं परिवार सग्गवई सुरलोउ गओ। ५ अण्णहु पासि ण सत्थविही कथइ सुणइ सबट कल सलक्षणउ अप्पणु मुणइ । कम्पित है, ऐसे चतुर्दशीके दिन, पापसे विमुक्त चारणयोगमें बारहवें जिनवर ( सूर्य ) उत्पन्न हुए। हर्षसे उल्लसित मन देवसमूह वहां पहुंचा, और चम्पापुर वर तथा घरको प्रणाम कर कमलकुलको जीतनेवाले जननीके करतलमें, बुद्धिको भ्रममें डालनेवाले मायावी बालकको रखकर, रतिरूपी फलिनीके लिए सूर्य प्रभुको लेकर, इन्द्र 'कुं कहकर गजको प्रेरित कर आकाशको छूनेवाले सुमेरु पर्वतके शिखरपर जानेके लिए चला । मलरहित पाण्डुक शिलातलपर--
पत्ता-स्थामीको स्थापित कर, स्वच्छ हार और नोहारोंको जीतनेवाली घड़ोंसे गिरती हुई चाँदनीके समान धाराओंसे सुरेन्द्रोंने उनका अभिषेक किया ॥७॥
उनकी पूजा और वन्दना कर; त्रिजगके श्रेष्ठ राजाकी रानो, विद्याधर, विषषर और देवत्रियोंके द्वारा सम्माननीय पत्रको देखकर सन्तुष्ट होनेवाली कृशोदरी माताके हाथमें लाकर देवको दे दिया। इन्द्रने विशाल आनन्दके वशीभूत होकर इस प्रकार नृत्य किया, कि जिससे धरती कांपनेके कारण नागकुल विस्मयसे संकुचित हो गया। परमश्रेष्ठ जिनको प्रणाम कर, चंचल वज स्वर्गपति ( इन्द्र ) अपने परिवारके साथ इन्द्रलोक चला गया। वह किसी दूसरेके पास कहीं भी
२. A पुरयरें । ३. A परे । Y, A तं भणिो ; P कुं भणियो। ५. A गयगले । 4. A has in
before णाह। ८. १. A सुररमणी'; सुरवररमणी । २. A छउओरिहि; P तुच्छरोयरिहि । ३. AP विभय ।
४. A णहचलिय ।
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-५३.९.८] महाकवि पुष्पदन्त विरचित
२४९ वरिसि विसुद्धबुद्धिसहिद हयदुट्ठमइ सावयसोलि परिट्ठियउ गम्भट्ठमइ । काले बढ़तहु गुणेहिं जाणियमणुहि जायइ माणु सरासणई सत्तरि तणुहि । कुंअरतें परमेसरहो कीलाणिरय अट्ठारह संबच्छरई तह लक्ख गर्य । धत्ता-णवघुसिणछवि करणुज्झियणाणपहायर ॥
णिव कुलमहिहरे उम्गंडणं बालदिवायरु ॥ ८ ॥
एकहि दिणि णिवेगल भासद तल कमि जेण गा वि संमारि असारि ण संसरमि । लोयंतियसुरवंदहि लहु संबोहियउ माणवदाणवदेवहि ह विवि पसाहिय उ । फुझियफलियमहीकहरंजियसडयणहु सिवियाजाणारूद उ गउ मणहरवणहु । कयचउरथु मज्झत्थु महत्थु महंतमइ मणपजवपरियाणियमाणुसमणविगइ । फग्गुणि कसणि चतहसिदिणि विरएं लइउ संयभिसहइ सायपहाइ सो सई पावडर। ५ तेण सम संसारह णिविण्णई वरई सयई णिवहं पावश्यइं छह छाहत्तरई । तिक्खु चरितु चरते पाउ गलस्थियां मोहसमुदु रजद्द सुर्दुम्मर मंथियउ।
कामह पंच वि चंडई कंडई खंछियई इंदियदुर्द्धकुटुंबई मुणिणा दंडियई। शास्त्रविधि नहीं सुनते, लक्षण सहित समस्त कलाओंका स्वयं विचार करते हैं । गर्भसे आठवें वर्ष में विशुद्ध शुद्ध बुद्धिसे सहित, दुष्ट बुद्धिका नाश करनेवाले वह श्रायकपर्ममें दीक्षित हुए। समयक साथ गुणोंसे बढ़ते हुए, मनःपर्ययज्ञानको जाननेवाला उनका शरीर सत्तर धनुषके मानका हो गया । उन परमेश्वरके कौमार्य में कोड़ामें रत अठारह लाख वर्ष बीत गये।
पत्ता नवकेशरके समान छविवाले, तथा इन्द्रियोंसे रहित ज्ञानरूपी सूर्यवाले वह, हे राजन् ( श्रेणिक), कुलरूपी पर्वतपर मानो बाल दिवाकरके रूपमें उत्पन्न हुए ||८||
एक दिन विरक्त होकर वह कहते हैं कि मैं तप करूंगा जिससे मैं इस असार संसारमें संसरण न करूं । लोकान्तिक देवोंने तत्काल सम्बोषित किया और मानवों तथा दानव देवोंने अभिषेक कर उनका प्रसाधन किया। शिविकायानपर आरूढ़ होकर जहाँ पष्पित और फलित वृक्षोंपर गुंजन करते हुए भ्रमर हैं, ऐसे मनोहर उद्यान में बह गये। जिन्होंने मनःपर्ययज्ञानसे मनुष्य
और श्रमणकी चेष्टाओंको जान लिया है, ऐसे महार्थ मध्यस्थ और महामति, एक उपवास कर फागुन माहके कृष्णा चतुर्दशीके दिन, विरक्ति से परिपूर्ण, उन्होंने सायंकाल शतभिषा नक्षत्रों प्रवज्या ले लो। उनके साथ संसारसे विरक्त छह सौ छिहत्तर राजाओंने दोशा ग्रहण कर लो । तीव्र तपका आचरण करते हुए उन्होंने पापको नष्ट कर दिया, और अत्यन्त दुर्मद भयंकर मोहसमुद्रका मन्यन फर डाला । कामके पांचों प्रचण्ड तारोंको उन्होंने नष्ट कर दिया। मुनिने दुष्ट
१. A बटुंते । ६. A इमरत्तै; P कुवरलें । ७. AP गिरया । ८. AP गया। ९. A णं उन्ग । ९. १. Aण पइसरमि । २. A सिबियाणाणा हवस । ३. P माणविगइ । ४. A फगुणकसणणजद्दसिदिण।
५. AP सविसाहह । ६. A परई। ७. छाईतर । ८. A सुसंमुह । ९. P"कुटुंबई ।
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२५०
१०
[ ५३.९.९
19
सुधरेपिमणपुरवरु थविज
दिपाया एप्पिणु रिउछु' विविधं । fareer चोर कुहिणिउ दूसियड रथणत्तयमाभारें लोच पयासियड | धत्ता - बीयर वासरि पइसरिषि महाणयरंतरि ॥ कारण परिपरि परि ॥ ९ ॥
आवंतु भडारउ भावियज मंदिर सहसा वित्थरि थिङ एक्कू वरिसु रिसि तिव्वतवि गिद्धाडियमाडियमोहरह माम्म सुद्धबीयहि बलिउ वासिएण वासरि गमिइ पुल्लि वणि चवच वलि णियगोमणिगारव संखरव महिविवर गयण वण सम्म घर १० बिज्जाहर औश्य कुसुमकर
महापुराण
१०
सुंदरराएं पारावियत । पंचविहु विभि अच्छरिडं । जिल्लरियभव संभेष विभवि ।
हरि बिसाइणस्वसगइ | artisten विणिद्दलिय । दिraft वरुणदिसि संकमिइ । उपाय णाणु कलि । घंटारय हरिरव पडहरव । ft घाय आइय बहु अमर । भूगोयर कंपाविय सघर ।
घता - तं परमप्पडं लटियक्त्व रवि से सहि ॥ बंद सुरवर णाणाहियोत्तसहा सहि ॥ १०॥
इन्द्रियरूपी कुटुम्बको दण्डित किया तथा अच्छी तरह सोते हुए मनरूपी पुरवरको पकड़कर स्थापित किया । धैर्यरूपी प्राकारको रचना कर शत्रुबलको खण्डित किया। विषयकषायरूपी चोरोंकी गलीको दूषित कर दिया, रत्नत्रयकी प्रभाके भारसे लोकको प्रकाशित कर दिया । धत्ता- दूसरे दिन महानगर के भीतर प्रवेश कर वह यतीश्वर आहारके लिए घर-घर परिभ्रमण करते हैं ||९||
१०
सुन्दर राजाने आते हुए आदरणीयकी पूजा की और पारणा करायो । उसके प्रासाद में शीघ्र ही पांच प्रकारके विस्तृत आश्चयं उत्पन्न हुए। वह महामुनि एक वर्ष तक जिसमें संसार में जन्म लेनेकी सम्पत्ति नष्ट हो गयी है, ऐसे तीव्रतपमें स्थित रहे। जिन्होंने मोहरज उखाड़कर नष्ट कर दिया है ऐसे, वह माघ माह के शुक्लपक्ष द्वितीयाके दिन विशाखा नक्षत्र में चार घन घातिया कमका नाश कर देते हैं । उपवाससे दिन बितानेपर और सूर्यके पश्चिम दिशामें ढलनेपर, घव और आम्रवृक्षोंसे चंचल पूर्वोक्त उद्यानमें कदम्ब वृक्षके नीचे ज्ञान उत्पन्न हो गया । अपनी लक्ष्मीके गौरवसे युक्त शंखशब्द, घण्टाशब्द, हरिशब्द और पटह शब्द, धरतीके विवरों, गगन, वन, स्वर्ग और घरोंमें फैल गये । बहुतसे देव माकाशमें दौड़े और वहाँ आये। हाथमें कुसुम लेकर विद्याधर आये | पृथ्वी सहित भूगोचर काँप उठे ।
पत्ता - सुन्दर अक्षरोंसे जिन्होंने विशेषता प्राप्त की है, ऐसे नानाविध स्तोत्रोंसे इन्द्र उन परमात्माकी बन्दना करता है || १०||
१०. P पावा । ११. रिउदलु
१०. १. A पराविव । २. P दिवि । ३ A वासवदिति । ४. P चवभूपवलि । ५. P बप । ६. AP आइय घाइये । ७. AP विज्बाहर बियसियकुसुमकर । ८ A लहि सहि
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-५३. ११.१५ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
११
जीह समीर भोयणडं surt इच्छित गेयरसु फासु वि मसण महइ ताई मणेण जि पव
परियवि विहसुहालस कुप्प तप्पड़ णीससइ
णाणाजन्महिं आइय उ कुलबलविद्दवगवगहिउ
उम्मग्गेण जि संचरइ
हुतिय अन्मुद्धरण
तु जिण गुणमाणिक्कणिहि
तु जणभणवेयालहरु
जो पई पणव सुद्धमई
दिट्ठि वि महिलालोयणडं ।
नासु गुणाहि गंधवसु । करणई पंच जीउ वहइ | विसय उपरि परिवइ । मोहमइरमयपरबसउ |
११. १. A अटुव । ५. Padds
दइ रडई गायइ हसइ । पैपिसाएं छाइय | गुरुणकहियसीलरहिउ | पण भडारा संभरइ |
तु जि देव विवस सरणु ।
ह।
अच्चयसुहहलनियसतरु । सो पाई वाणगई ।
पत्ता - बाईसरिवइ रिदुस डिसमंजसु गणहर ॥ बारहसयमय पुगधारि तहु मुणिवर || ११|
२५१
१०
१५
११
"जीभ भोजनको इच्छा करती है, दृष्टि बोको देखना चाहती है, कानोंके द्वारा गीत-रस चाहा जाता है, नाक गुणोंसे अधिक गन्धके अधीन होती है, स्पर्श भी मृदु शय्याओंको महत्व देता है, इस प्रकार पाँच इन्द्रियोंको जीव धारण करता है । मनके द्वारा उनको प्रेरित करता है, और विषयों में उन्हें प्रवृत्त करता है, प्रसरित बहुसुखोंमें वह (जीव ) आसक होता है, तथा मोहरूपी मदिरा मदके अधीन हो जाता है। वह क्रुद्ध होता है, सन्तप्त होता है, निःश्वास लेता है, व्याकुल होता है, रोता है, गाता है, हँसता है, नाना जन्मोंमें आया हुआ ( यह जीव ) मोहरूपी पिशाचसे अभिभूत होता है । कुल बल और वैभव के अहंकारसे गृहीत गुरुजनोंके द्वारा कहे गये शोलसे रहित वह बोटे मार्ग से ही चलता है । हे आदरणीय, वह तुम्हारा स्मरण नहीं करता। आप त्रिभुवनका उद्धार करनेवाले हैं, हे देव, आप ही विद्वानों की शरण हैं, हे जिन, आप गुणरूपी माणिक्योंकी निधि हैं, आप भयानक पापरूपी कान्तार के लिए आग हैं, आप जनमनके अन्धकारको दूर करनेवाले हैं, आप अच्युत सुखरूपी फलके लिए कल्पवृक्ष हैं, जो शुद्धमति तुम्हें प्रणाम करता है, वह निर्वाणगति प्राप्त करता है ।"
।
घसा - जिनके छियासठ गणधर थे और बारह सौ पूर्वागके धारी मुनिवर थे ॥ ११॥
२. A मेहरम P मोहमद्दरामय । ३. A पेमविसाएं। ४. वेयणहरु after पावई ।
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२५२
महापुराण
[ ५३.१२.१
पंचतीस चउसहसई दुइसय सिक्खयहं पंचसहस जलणिहिसय सावहिभिक्खु यह। छहसहास सावण्हुहु दह वेउन्वियहं लेसासमई सहासई मणपज्जयवियहं । सायरसहसई दोसय बाइहिं णयधरहं एंव होति बाह्त्तरिसाहसई जइवरहं।
एकु लक्खु छहसहसई संजमधारिणिहिं लक्ख प्यारि समासिय घरवयचारिणिहि । ५ दोण्णि लक्ख गुणवंत संतहं सावयह संखेजउ गणु घोसिउ काणणसावयई। जिणवरक्यणणिहालणपिहराभवावयह संख णहिट नहिं आगहं देवर देवियह। चउपपणास जि लक्खई वरिसविहीणाई वरिसह विहरिवि महियलि भवसमरीणाई। हरिकयकणयकुसेसयउयरिविइण्णपङ संबोहेप्पिणु भगवई चंपाणयरु गल। .
धत्ता-णिज्जियणियरिउ परधम्मचकि मुणिराण ।
पलियंकासणु अंतिमझाणम्मि णिलीउ ॥१२॥
भवय ससंयभिसहहि सेयचसिहि तिषिण वि अंगईगलियई तासु महारिसिहि । अवरहइ च उणवइहिं रिसिहिं सभेउ जिणु जायउ सिद्ध भडारड बवगयजम्मरिणु । सछि अम्गिकुमारहिं जयजयकारियउं अंगु अणंगीहूयहु नहु सकारियउ । आहेडलधणुमंडलमंडियघणघणइ कहइ पुरंदरु वह जंतु णहंगण।
उनतालीस हजार दो सौ शिक्षक मुनि थे। पांच हजार चार सौ अवधिज्ञानी मुनिवर थे। छह हजार केवलज्ञानी और दस हजार विक्रियाऋद्धिके धारी मुनि थे। छह हजार मनःपर्ययज्ञानी, चार हजार दो सौ वादीश्वर मुनि थे। इस प्रकार ( उनके साथ ) बहत्तर हजार मुनिवर थे। एक लाख छह हजार संयम धारण करनेवाली आयिकाएं थीं। गहस्थ धर्मका पालन करनेवाली श्राविकाएं चार लाख थीं। गुणवान श्रावक दो लाख थे। व्रतसहित तिर्यंच संख्यात कहे गये हैं। जिनवरके मुखको देखने मात्रसे जिन्होंने संसारकी आपत्तियोंका नाश किया है ऐसे वहाँ आनेवाले देवी-देवताओंकी संख्या नहीं थी। एक वर्ष कम चौवन लाख संसारश्रमसे हीन वर्षों तक धरतीतलपर विहार कर, इन्द्र के द्वारा रचित स्वर्णकमलके ऊपर पैर देकर चलनेवाले वह भव्योंका सम्बोषन करनेके लिए चम्पानगर गये।
पत्ता-जिन्होंने अपने शत्रुको जीत लिया है, ऐसे श्रेष्ठ धर्मचक्रवर्ती मुनिराज पर्यकासनमें स्थित अन्तिम ध्यानमें लीन हो गये ।१२।।
भाद्र शुक्ला चतुर्दशोके दिन उन महाऋषिके तीनों ही शरीर गल गये। अपराहमें चौरानबे मुनियोंके साथ, जन्मरूपी ऋणसे रहित आदरणीय वह जिन सिद्ध हो गये । इन्द्र और अग्निकुमार देवोंने उन्हें जयजयकार किया, अनंगीभूत हुए उनके शरीरका दाह-संस्कार कर दिया गया। इन्द्रधनुष मण्डलसे मेषवाले आकाश के प्रांगणमें जाता हुआ इन्द्र देवोंसे कहता है कि प्रभु १२. १, A गुण । २. A भयावहहं । ३. P देवयहं । ४. APमाणे । १३. १. A सविसाहहे कसणं; ? सुविसाहहे कसण; K records a pes in AP | २. P महासिहि ।
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- ५३. १३. १० ]
महाकवि पुष्पवन्त विरचित
पहु बाहसरि यच्छरलक्खई अच्छिवर म मर को पंडियपंडियचरमैरणु हवं वि एवं संचितमि जइ गरभवु लहमि अप्पर में चोप तं छिण्णवं करमि
२५३
एहिं यः विष पर निययि । ५ जेण ण पुणु बि पयइ बहुभवसंभैरणु । तो खरतवमंधाणें कम्मदद्दिवं महमि । वासुपूज्जपरमेहिहि मग्गे संचरमि ।
घचा-भरह होत जिणच रियई तियस संधिवि ॥ हरि साहु हि पुप्फत धिवि ॥१३॥
इति महापुराणे सिट्टिमा पुरिस गुणालंकारे महामष्यभरहाणुमणिए महाकइपुण्यंविरह महाकच्ये वासुपूज्य जिम्वाणगम
नाम विषण्णासमो परिच्छेओ समतो ॥५३०
बहत्तर लाख वर्ष रहे, इस समय जाकर वह मुक्त हुए, तुमने यह नहीं देखा। इस प्रकार पण्डितों में महापण्डित मरण कौन मरता है कि जिससे दुबारा जीव संसारकी अनेक जन्म-परम्परा में नहीं पड़ता। मैं भी यही सोचता हूँ कि यदि मैं मनुष्य जन्म पा सकूं तो तीव्रतपरूपी मथानीसे कर्मरूपी दहीका मन्थन करूंगा, और ज्ञानसे जो आत्मा तथा स्निग्धत्व ( रागतस्थ ) है उसे छिन्न करूँगा, तथा वासुपूज्य परमेष्ठी के मार्गपर चलूँगा ।
१०
धत्ता - इस प्रकार भरतसे लेकर जिनचरितोंको इन्द्रसे कहकर इन्द्र आकाशमें नक्षत्रोंको लांघकर स्वर्गं चला गया ||१३||
इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमै महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभम्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य में वासुपूज्य निर्वाण मन नामका तिरेपन परिच्छेद समाप्त हुआ ५३
१. P मरणें । ४, P संसरणे । ५. A णा । ६, A omit- पहि
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५
१०
संधि ५४
सिरिवासुपूज्जजिणतित्थि तर्हि चिरपरिहव आठहु ॥ करि लुद्ध णं हरि हरिवरहु सारउ भिडिव दुषि
लक्ष्
Ratiyar जहिं कामिणि चामरु संचाल जहि भूसणमणिकिरणाबलिय ताई अत्थाणि णिसण्णउ राण ता संपत्तष्ठ चरु सुमरंगिय भत्त वित्त गोमहिसीपचरs
सुहि गुणवि से सतोसियम तासु बेस पायें गुणमंजरि ag वाहि मई विदुषं जेहसं
॥ध्रुवक
दुबई - इह दीवम्मि भरहि वरविंझपुरम्मि महारिमारणो ॥ reas firefa विंझो श्ष पालियमत्तवारणो ॥
जहिं कपूररेणु णहु धवल । जहिं देवं वत् परिवोलइ । दसविसासु बहुवण घुलियाडं । इंद दिखर्गिस माण | सो पण पयजुयपणमिय सिरु | पत्थु जि भरइखेति कणयउरई । जाहि किं ण सुसेणु महीषइ । सरकुसुममय मंजरि । सिरंभहं दुकर तेहउं ।
सन्धि ५४
श्री वासुपूज्य तीर्थकाल में पूर्वजन्मके पराभवसे क्रुद्ध हरिवर द्विपृष्ठसे तारक भिड़ गया, मानो क्षुब्ध सिंह गजवरसे भिड़ गया हो ।
इस जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्र में श्रेष्ठ विन्ध्यनगर में बड़े-बड़े शत्रुओं को मारनेवाला विन्ध्यशक्ति नामका राजा था जो विन्ध्याचलके समान बड़े-बड़े मतवाले हाथियोंका पालन करनेवाला था । जहाँ कस्तूरी शरीरको मलिन करती है ( वहाँके लोगोंका चरित्र मलिन नहीं होता ), जहाँ कपूरकी धूल आकाशको धवल बनाती है, जहाँ स्त्री चामर ढोरती है, जहाँ देवांग वस्त्र पहने जाते हैं, जहाँ भूषणमणियोंकी रंग-बिरंगी किरणावलियाँ दसों दिशाओं में व्याप्त हैं, वहां दरबारमें इन्द्रनागेन्द्र और विद्याधरेन्द्रके समान राजा बैठा हुआ था। वहाँ अत्यन्त मधुर वाणीत्राला द्रुत पहुँचा । दोनोंके चरणोंमें प्रणाम करते हुए उसने कहा- "अन्न-धन- गाय और भैंसोंसे प्रचुर इस भरत क्षेत्र कनकपुर है। अपने गुणविशेषसे सन्तुष्टमति सुधी राजा सुषेणको क्या तुम नहीं जानते ? उसकी गुणमंजरी नामकी वेश्या है, जो मानो कामदेवरूपी आम्रवृक्षको कुसुममय मंजरी है । उसका जैसा रूप मैंने देखा है, वैसा रूप उशो और रम्भा के लिए भी कठिन है ?
१. १. AP मलाई । २. AP खफदि । ३ P
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-५४. २. १२]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित पत्ता-ण मयफळंकपडले मलिणु ण घरह खयर्वकत्तणु ।।
मुंह सुद्धहि च समु भणमि जइ वो कवेणु कइसणु ।।१।।
दुवई-मसकरिदमवलीलागह णरमणणलिणगोमिणी ।।
किं वण्णमि गरिंद सा कामिणि कामिणियेणसिरोमणी ।। दिस विबाहररंगें राषद करमहपंति पईवाहिं दीवइ । कुंचियकेसह कंदिइ काला माणिणि माणवमयरमासह। सुललियवाणि व सुकाहि केरी जहिं दोसइ तहिं सा भखारी। पढइ चार पोसियपत्यावर गायइ सुंदरि कण्णसुहावर । णवइ बहुरसभावणिसत्तई सा जइ लहहि कह व मई वुत्त । तो संसारख पेई फलु लद्धछ । सयलु वि तिहुषणु तुझु जि सिद्ध। ससिजोण्हाहीणे कि गयणे णासाविरहिपण किं वयणे । लवणजुत्ति वियलेण व भोल्ने वाइ विवज्जियण कि रज। घत्ता-तं णिसुणिवि राएं मंतिवरु देषि उवायणु पेसियध ॥
घरु जाइदि तेण सुसेणपहु पियवायइ संभासियत ||२||
पत्ता-वह मुगलांछनके पटलसे मालन नहीं होती, वह आय और वकताका धारण नहीं करती, फिर भी यदि मैं उस मुग्धाके मुखको चन्द्रमाके समान म्हता हूँ तो इसमें कौन-सा कवित्व है ? |शा
मतवाले करीन्द्रकी मन्दलीलाके समान गतिवाली वह कामिनी मनुष्यके मनरूपी कमलकी शोभा और कामिनी-जन की शिरोमणि है। उसका क्या वर्णन करू ? उसके बिम्बाषरोंके रंगसे दिशा अनुरंजित होती है, नख पंक्तिके प्रदीपोंसे आलोकित होती है, धुंधराले बालोंको कान्तिसे काली होती है। वह मानवरूपी मधुकरोंकी मालासे मानिनी है, वह सुकविको सुन्दर पाणीके समान है, वह जहाँ-जहां दिखाई देती है वहीं कल्याणमयो है। वह सुन्दर सुभाषित युक्तियोंको पढ़ती है, वह सुन्दरी कानोंको सुहावना लगनेवाला पाती है। अनेक रसों घोर भावोंसे परिपूर्ण नस्य करती है। यदि उसे तुम किसी प्रकार पा सकते हो, तो मैं कहता है कि तुमने संसारका फल पा लिया और समस्त त्रिभुवन सिद्ध हो गया। चन्द्रमाकी ज्योत्स्नासे रहित आकाशले क्या ? नाकसे रहित मुखसे क्या? लवणयुक्तिसे रहित भोजनसे क्या? इसी प्रकार उस सुन्दरीसे रहित राज्यसे क्या ?"
पत्ता-यह सुनकर, राजाने मन्त्रीवरको उपहार देकर भेजा। उसने घर जाकर प्रियवाणीमें राणा सुषेणसे सम्भाषण किया ||२||
४. AP महं। ५. AP कमणु । २. १, AP कामिणिजणं । २. AP फल पई । ३. AP पेसिट । ४. AP संभासिन ।
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महापुराण
दुवई जो तुह विंझसत्ति सो दोहं मि भेउ ण लक्खिओ भए ।
इह कलोलणिवहु इहु जलणिहि केण वित्तओ जए । एक जीत विहिणा गंभीरई पर रइयई भिण्णाई सरीरई। जराहु केरस तं तुम्हारळ
तेरस तं वासु जि केर। पत्थु ण किन्जेइ चितु अधीर इणिबंधणु बंधुहि सार। णिगवयारु तं णासइ सुंदरि देहि समित्तहु तुहुँ गुणमंजरि । ता पहुणा यह णिकमच्छित एहर बंधु पप्प कहिं अच्छि । घेरि सीमंतिणीउ जो मग्गइ अबसे सोधणपाणड लग्गइ। परिसियरइरसकरणालिंगण जाहिण दूये देमि पणथंगण | तें बयणे पुरु गपि तुरंतर णियकुलसामिदि कहा महंतर । इंसान नदीमारवारिणि देव पदे मुसेणु विलासिणि | घसा-आयाणवि दयाई जंपियई ग्रेड चिराणन मंजिवि ।।
अभिट्टु सुसेणड्ड विंझपुरणरषद सीह व संजिवि ॥३॥
दुषई बेण्णि विवरणरेहिं संचालिय वेणि वि ते महायला ॥
__वरणारीकएण गणियारिरथा इव भिखिय मयगला ॥
"जो तुम हो, वही विन्ध्यवाक्ति है दोनोंमें मैंने कोई भेद नहीं देखा ? यह लहरोंका समूह है और यह जलनिधि है, जगमें कोन उसे विभक्त कर सकता है ? एक ही जीव है, परन्तु विधाताने गम्भीर विभिन्न शरीरोंकी रचना की है। जो उसका है, वह तुम्हारा है और जो तुम्हारा है, वह उसीका है। इसमें किसी प्रकार अपने चित्तको अधीर नहीं बनाना चाहिए । बन्धुओंका स्नेह निबन्धन ही सार है। अनुपकार उस स्नेहका नाश कर देता है। इसलिए सुन्दरो गुणमंजरी तुम अपने मित्रके लिए वे दो।" तब रामा सुषेणने दूसको भत्र्सना को-"हे सुभट, यह बन्धु कहाँ है, जो घरकी स्त्री मांगता है, वह अवश्य हो ( बाबमें ) धन और प्राणोंसे भी लग सकता है। जिसने रति-रस उत्पन्न करनेवाले आलिंगनोंको प्रदर्शित किया है, ऐसी प्रणयांगना नहीं दूंगा, ) दूत, तुम जाओ।" इन वचनोंसे दूत शीन नगर जाकर अपने स्वामीसे कहता है कि हे देव, हंस-वंश और वीणाके शब्दके समान बोलनेवाली विलासिनी गुणमंजरीको सुषेण नहीं देता है।
पत्ता-दूसोंके कथनोंको सुनकर और अपने पुराने स्नेहको भंग कर विन्ध्यपुरका राजा सिंहके समान गरजकर सुषेणसे मिड़ गया ॥३॥
दोनों ही दूत पुरुषोंसे संचालित थे । वे दोनों ही महाबल थे। श्रेष्ठ नारीके लिए हथिनीमें ३. १. A परस्य । २. AP कीरा । ३. Pयबहे । ४. A घरसी मंसिणि । ५. AR देमि पूय । ४. १. संचारिया ।
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-५४. ५.७]
महाकवि पुष्पचन्त विराजत दोडं वि साहणाई आल गई चालियचकई तोलियखमाई । खलियरहंगई मलियतुरंगई दलियधुरग्गई दूसियमगई। मोडियदंडई लुयधयसंडई खंडियमुंडई णधियरंबई । जूरियपतई चूरिय छत्तई
दारियगनई जिग्गयरत्तई। लूरियताण यजंपाणई
उड्डियप्राणई कय सिरदाणई। हुंकारंतई हकारंतई
उरगयकोतई बललुलियंतई। मग्गणभिषण तिलु तिलु छिण्णई सेयवसिण्णई रसकिलिण्णई। विरसु चवंतई वम्मु छिवंताई संक मुयंतई संकुषितई। इस्थिणिसुंभई फाडियकुंभई जोहणिरंभई जयजसुलंभई । पत्ता-ता सरिवि सुसेणे सरिउबले सरहिं णिरंतर भिण्णउं।
जमदूयह भूयहं भुक्खियह णाइ दिसाबलि दिण्ण ||४||
दुवई-ताव सुसेणमुकषाणावलि विडियणिविडायघडं ।।
हरिसंचलणदलणणिदुरखुरफोडियधवलधयवई ॥ छवियकिवाणु
गलियाहिमाणु । संवतकेसु
जणजणियहासु। पत्तावमाणु
दिसि धावमाणु । धयछत्तछण्णु
पेच्छवि संसेणु । पडिभड़कयंतु
धाइ तुरंतु।
अनुरक्त मतवाले हाथियों के समान भिड़ गये । दोनोंको सेनाएं भिड़ गयों, चक्र चलाती हुई और खड्ग तोलती हुई । चक्र स्खलित हो गये, अश्व दलित होने लगे। धुराग्रभाग चूर-चूर होने लगे। मार्ग दूषित होने लगे । दण्ड मुड़ने लगे। श्वजसमूह कटने लगे। मुण्ड कटने लगे। षड़ नाचने लगे। वाहन पोड़ित हो उठे। छय चूर-चूर हो गये। शरीर विदीर्ण हो गये, रक्त बह निकला। बश्व और जंपाण प्राण (कवच) रहित हो गये। प्राण उड़ने लगे। सिरोंका दान किया जाने लगा। हुंकारते हुए, हंकारते हुए भाले उर में घुसने लगे, चंचल आते लुढ़कने लगीं। तीरोंसे छिन्न-भिन्न होकर तिल-तिल कटने लगा। पसीनेसे भीग गये, रक्तसे लिप्त हो गये । विरस बोलते हुए, कवच छेदते हुए, शंका छोड़ते हुए, अस्त्र ग्रहण करते हुए, हाथियोंको नष्ट करते हुए, कुम्भस्थलोंको फाड़ते हुए, योद्धाओंको रोकते हुए, जय और यशको पाते हुए।
पत्ता-तब सुषेणने तोरोंसे शत्रुसेनाको लगातार छिन्न-भिन्न कर दिया, म्मनो उसने भूखे यमदूतों और भूतोंको दिशाबलि दो हो ।। ४ ॥
सबतक सुषेणफे द्वारा छोड़ो गयो बाणावलोसे सधन गजघटा विघटित हो गई। यश्वोंके संचालन और दलनके कारण कठोर खुरोंसे धवल ध्वजपट फाड़ दिये गये। जिसने तलवार छोर दी है, जिसका अभिमान खण्डित हो चुका है, केश बिखर चुके हैं, जिसने लोगोंमें हास्य उत्पन्न
२.AP जोणिसुभई । ३. AP जयजसलेभई; P adds aftr this: किसिविर्यभर । ४. AP बल १. १.AP वलण । २. AP फालिय । ३. A ससेणु ।
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[५४. ६.८
महापुराण 'बलपबलसत्ति
भजु विझसत्ति । रिउ भणि तेण
रे रे णिहीण । दे देहि णारि
मा गिलउ मारि । सहुँ परियण
पई रणि खणेण । तं सुणधि सत्तु
इयरेण वुत्तु । गुणिहियबाणि मई जीवमाणि । को रमइ तहणि
कमि पैडिय हरणि । जो हरिहि हर
सो झ त्ति मरइ । इय जपमाण
बेणि बि समाण। विधति वीर
पुलइयसरीर। फणिवइपमाण
बाणेहिं बाण । णहि पडिखलंति उत्साहि पंडति । धय जिल्लुणंति
सारहि हणंति । हय कप्परति
पुणु चपरंति। हणु हणु भणंति
अंगाई वर्णति । सहसा मिलंति
विहडेवि जंति । पडिवलिवि एंति थिर गिरि व थंति । ता गयविलासु विशाहिवासु । घत्ता-संधाणु ण लक्खहुँ सकियउं चक्लसरावलि देतह ॥
__ गउ णासवि तासु सुसेणु रणि णं पम्मट्ठ अरहतहु ।।५।।
किया है, जो वाहनों से अप्रमाण है, दिशामें दौड़ रहा है, जिसके ध्वजछत्र छिन्न हो चुके हैं, ऐसा अपना सैन्य देखकर शत्रुयोद्धाके लिए कृतान्त तथा बलसे प्रबल शक्तिवाला विन्ध्यशक्ति तुरन्त वोड़ा । उसने शत्रु सुषेणसे कहा, "रे नीच, नारी दे दे, तुझे परिजनोंके साथ एक क्षणमें कहीं मारि मस्सा ले।" यह सुनकर दूसरेने कहा, "जिसको डोरीपर बाण है, ऐसे मेरे जीवित रहते हए कौन उस रमणीका भोग कर सकता है, जो पेरोंपर पड़ी हुई हरिणीको सिंहसे छीनता है, वह शीघ्र ही मुत्युको प्राप्त होता है।" इस प्रकार कहते हुए वे दोनों ही समान ( योद्धा) पुलकित शरीर होकर एक दूसरेको बेधते हैं। नागराजके समान बाणोंसे बाण आकाशमें स्खलित होते हैं, छत्रोंसे छत्र गिर पड़ते हैं, ध्वज कट जाते हैं, सारथि मारे जाते हैं, अश्व काटे जाते हैं, पुनः आक्रमण किये जाते हैं, मारो-भारो कहते हैं, अंगोंको घायल करते हैं, सहसा मिलते हैं और विघटित होकर जाते है । मुड़कर बाते हैं, स्थिर गिरिके समान स्थिर होते हैं । गत विलास होकर
घत्ता-सन्धानको लक्षित करने में समर्थ नहीं हो सका। चंचल तोरोंकी आवली देते हए उससे युद्ध में सुषेण उसी प्रकार नष्ट हो गया, जिस प्रकार अरहन्त देवसे कामदेव नष्ट हो जाता है।॥५॥
४. AP बडिय । ५. P हरिणि । ६. AP पमाणु । रोसे जलंति । ९. A छति ।
७. AP बाणु । ८. P adds after this:
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-५४. ६, १६]
महाकवि पुष्पवन्त विरचित
दुवई-बंधुधिओयसोयमलिणाणण पइपरिहवविवेइया ।
तेण णिवेण धरिय गुणमंजरि गुणमहुयरणिसेविया ॥ इहे वरभरहखेति विक्खायउ खत्तियधम्मधुरंधर जायउ। मित्तु सुसेणड्ड संतोसियमणु राउ महापुरि मारुयसंवणु। णिसुणेप्पिणु णियटु पलाण हिमहयकमलसर व विहाण घणरणामहु वसुमेश देप्पिणु कोड लोहु मठ मोहु मुएप्पिणु । सुव्वयजिणइ पासि व लेपिणु मुठ कालें संणासु करेप्पिणु । प्राणयकपि स सो हूयन । वीससमुदजीवि पररूवात नाम जि गरुहि पामि उससतें दुद्धरु संजमभारु वस्त। बारविहतवतावणक्षीण बद्ध णियाणु अणेण सुसेणे। मेरुतुंगमाणुण्णइ ढालिय जंण मझु माणिणि चहालिय । जइ तवतरुवरहलु पासमि तो तं पुरिमैजम्मि मारेसमि । एंव सरंतु सरंतु जि णिद्वित सकलुसमा संलेहणि संठिउ । वरवंदारयवंदविणूयर
'तेत्थु जि सग्गि सो वि संभूयउ । धत्ता-रमणीयहि मंदरमेहलहिणीलिरुम्मिगिरिकंदरि ।।
गयणयलि सयंभूरसणजलि ते रमंति सरिसरवरि ॥६॥
बन्धु-वियोगके शोकसे मलिनमुखी और पत्तिके पराभवसे कम्पित तथा गुणरूपी मधुकरोंसे सेवित गुणमंजरीको उस विन्ध्यशक्ति राजाने पकड़ लिया। इस श्रेष्ठ भरत क्षेत्रमें क्षात्रधर्ममें धुरन्धर और विख्यात, सन्तोषित मन, सुषेणका मित्र, महापुरीका राजा मारतस्यन्दन था। वह अपने मित्रका पलायन सुनकर हिमसे आहत कमल सरोवरके समान खिन्न हो गया। धनरथ नामक अपने पुत्रको धरतो देकर क्रोध, लोभ, मद, मोहको छोड़कर, सुव्रत जिनके पास व्रत ग्रहण कर, समय आनेपर संन्यासके साथ मरकर, यह प्राणत स्वर्गमें इन्द्र हुआ । सुन्दर रूपवाला बीस सागर पर्यन्त जीनेवाला। उसीके गुरुके पास उपशान्तभाव धारण करते हुए, कठोर संयमभावका आचरण करते हुए बारह प्रकारके तप-तापसे अत्यन्त क्षीण इस सुषेणने यह निदान बांधा कि "जिसने मेरी सुमेरुपर्वतके समान ऊंचे मानवाली उन्नतिका पतन किया और पत्नीका अपहरण किया, यदि मैं तपरूपी वृक्षका फल पाऊं, तो मैं अगले जन्म में उसको मारूंगा।" यह स्मरण करते-करते वह निष्ठामें लग गया। सकलुषमति वह संलेखनामें स्थित हो गया। श्रेष्ठ देवोंके समूहके द्वारा संस्तुत वह भी उसी स्वर्गमें उत्पन्न हुआ।
धत्ता--रमणोय मन्दराचलको मेखला और नीलरुक्मी पर्वतको कन्दरा, आकाशतल, स्वयम्भूरमण समुद्र के जल और सरित सरोवरमें वे दोनों कोड़ा करने लगे ॥६॥
६. १. APइप। २. AP पाणयं । ३. AP सम्गि । ४. AP पावेसमि। ५. A परिसु । ६. AP
तेत्यु वि सो सम्मि संभयठ ।
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महापुराण
[५४.७.१
दुवई-बिणि वि सह वसंति विहरंति वि विलुलियफुसुमसेहरा ।।
विपिण वि परममित्त ते सुरवर सुररमणीमणोहरा ॥ एत्तहि चिन संसोरु भमेपिणु विज्ञसत्ति जिलिंगु लएप्पिणु । तेरहदिस चारित्तु घरेप्पिणु णिरसणधिहिमग्गेण मरेप्पिणु। मछरकारयलवालियचामत जायच दिबदेहु मप्पामरु । वह ताहं विहिं मि दिवि जाइयई संखसमाउसु संठिच तश्यहुँ । अंबुद्दीवि छुहेपंकियगोरु भरहि भोयवड्ढणु णामें पुरु । तहि सिरिमाण राणउ सिरिहर सिरिमइदेविसिहिणसंगयकरु । विझपुराहिड सग्गाहु आयउ एयह बिर्हि मि पुतु संजाय । जर्यामरिसोमंतिणिभत्तारउ जसससककिरणावलितारर । कोक्कि सो णियताएं तारन वसिकयसम्वदेसतार। तारयताराणाहे चित्तई ___ असिकरेण रितिमिरई जित्तई। पत्ता-मंडलियह मयमा प्पिय सिरि पाडिवि समसुत्ती॥
तिहिं खंडहिं मंडिय मेइणिय चप्पिवि दासि व भुत्ती ॥७॥
दुवई-अप्पण्डिहयपथावकंपाधियसयलदिसाविहायए ।।
सपवणतरणिवरुणवइसवणभयंकर तम्मि जायए ! तावेत्तहि बहसोक्खपवदृणि इह, भारहि दारावपट्टणि ।
जिनका कुसुम-शेखर ( कामदेव ) आन्दोलित है ऐसे वे दोनों साथ रहते हैं । वे दोनों ही परममित्र सुरस्त्रियोंके लिए सुन्दर हैं। यहाँ विन्ध्यशक्ति भी बहुत समय तक संसारमें भ्रमण कर और जिनदोक्षा धारण कर, तेरह प्रकारके चारित्र को पाल कर, अनशन विधिसे मरकर जिसपर अमराओं के हाथोंसे चमर ढोरे जा रहे हैं ऐसे दिव्य शरीरवाला कल्पामर हुआ । जब वे दोनों देव यहां थे, तभी समान संख्याको आयुवाला वह वहाँ रहा। जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्रमें चूनेसे पुता है गोपुर जिसका ऐसा भोगवद्धन नामका नगर था। उसमें लक्ष्मीको माननेवाला श्रोधर नामका राणा था जिसके हाथ अपनी श्रीमती नामकी देवीके स्तनोंपर रहते थे। विध्यशक्ति राजा स्वर्गसे च्युत हो इन दोनोंका पुत्र हो गया। जयश्री सीमन्तिनी के स्वामी यशरूपी चन्द्रमाको किरणाबलासे स्वच्छ उसे पिताने तारक कहकर पुकारा। तारकरूपी चन्द्रमाके असिरूपी हाथसे आहत शत्रुरूपी अन्धकार जीत लिया गया।
- पत्ता--मद और माहात्म्यसे युक्त माण्डलोक राजाओंके सिरपर वन गिराकर तीन खण्डोंसे अलंकात धरतोको चांपकर वह दासी की तरह उसका भोग करने लगा ।।७।।
अपने अप्रतिहत प्रतापसे समस्त दिशा-विभागों को कंपानेवाले तथा परन सहित सूर्य, वरुण और वैश्रव के समान भयंकर उसके उत्तम हा चुरुनेपर, यहां भारतमें अनेक सुखों का प्रवर्तन
७. १. AP संसार । २, AP छुहपंक्य । ३. AP बिहं मि 1 ४. A सबसुत्ती ।
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५४. ९.४ ]
महाकवि पुष्पवन्तविरचित
खलखत्तियबलदपविणासणु । भे राहि बंभपयासणु । तासु सुहद्द सुहद्दणिसेणी ।
दस सयबरु अवरु वि सियदिणयरु । पाणइंदु जणिय माय । बीउ उववादेवि दढमुउ । केलास नीलमणिमहिहर ।
पढमजिणेसरवंस विसनु रिजछयग्गसिप्पीरहुया सणु मंदगमण वीणारव वाणी
४
सिfore ताइ दिनु संपयहरु आसि बाहु जो सो आय अणु से अचल दुविट्ठणाम ते सुंदर धवलच एक एकु अलिकालउ एक सिरिमाणणु
सरधुङ
एक चंदु णं एक दिवायरु
--
घता ते बेण्णि विभायर भुषणरवि जोइवि रोसविमीसिउ ।। महाहहु जावि तारयहु बहु चरेहिं आहासिकं ॥ ८ ॥
९
दुबई - सियकसणपक्ख इलिसिरिथेषु बेणि वि वळसाला ॥ दाराव इरिंदवत गिरिवरेधरणभुयबला || दो भि सिद्धई दिई चावई । बिज्जादेवि पेसणयरियर |
इषसभहाभंगुरभावई दोहिं म य रयणविष्फुरियड
एक्क सुसीलु एक्कु दुबीउ ।
एकु सुभीमु एक सोमाणणु । हरु एकु एक्क दामोयरु |
२६१
५
१०
१५
करनेवाली द्वारावती नगरीमें, प्रथम जिनेश्वर आदिनाथके वंशका भूषण, दुष्ट क्षत्रियोंके बलदर्पका नाश करनेवाला, छह प्रकार शत्रुरूपी तिनकोंके लिए अग्नि, ब्रह्मको प्रकाशित करनेवाला ब्रह्म नामका राजा था । उसकी मंदगामिनी, वीणाक्रे शब्द के समान बोलनेवाली, कल्याणोंकी नर्शनी सुभद्रा नामकी देवी थी । स्वप्न में उसने सम्पत्तिको धारण करनेवाला सूर्य और चन्द्रमा देखा । उसका जो वायुरथ प्राणत इन्द्र था उसे इस मौने पुत्रके रूपमें जन्म दिया । सुषेण भी स्वर्गसे युत होकर, उपमा (उषा) देवीसे दूसरा दृढभुज पुत्र हुआ। अचल मोर द्विपृष्ठ नामक वे दोनों सुन्दर ऐसे आन पढ़ते थे मानो कैलास और नीलमणि पहाड़ हों। एक गोरा था और एक भ्रमरकी तरह काला था । एक सुशील था और एक खोटी लोलावाला था। एक भारी था और एक लक्ष्मीको मानने वाला था। एक भीम था और एक सुन्दर मुखवाला था। एक चन्द्रमा था और एक दिवाकर था। एक बलभद्र था और एक दामोदर था ।
धत्ता - विश्वरवि और क्रोषसे मिश्रित उन दोनों भाइयोंको देखकर घरोंने जाकर उस महीनाथ तारकसे कहा ॥८॥
" बलभद्र और नारायण दोनों मानो श्वेत और कृष्णपक्ष तथा धवल और श्याम हैं । द्वारावती-नरेन्द्रके वे श्रेष्ठपुत्र गिरिवरको धारण करनेमें समर्थ बाहुबलवाले हैं। उन दोनोंको
८. १. P भू । २. AP दिट्टु साह । ३ AP संपययरु । ४ A सुणसूणु । ५. AP बीउ वायादेवि । ६. K. दुस्खील but correctrs it to दुल्लीलज ।
१. १. P रिरिहर । २.
"वरण I
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२६२
महापुराण
[५४.९.५लंगलमुसलसंखकर दुद्धर ते भिडंति जहिं केसरिकंधर । तहि थरहरइ मरइ रिहण सरह । करु असिवरहु कया वि ण पसरह । अण्णु वि अस्थि वरिजूरावणु गंधहस्थि भावइ अरावणु। ताई लील दीसइ विवरेरी
उ गणंति ते आण तुहारी। भग्गा सई सुहडत्तणवाएं तं आयपिणधि जंपिड राएं । संगरु करिवि हरमि करिरयणई गलियंसुयई सुहद्दहि णयणई। लुह उ भुइयपुत्तधिओएं उज्झउ सोसिउ दूसहसोएं। मई बिरुद्धि जगि को वि ण जीवद जै वि मरणु समरंगणि पावइ ।
घत्ता-महुँ कमकमलाई ण संभरइ जो रायत्तणु मगाइ । __ सो ससयेण परियणपरियरिउ जमपुरपंथें लागइ ।।९।।
दुवई-इय गजंतु राउ णिजमंतिहि बोलिट हो ण जुञ्जए ।
. किं कलहेण तव पडिवक्खहू महिवइ दूत दिज्जए ।। सो गंधपीलु
सुरर्दविसोलु। सिद्धाई जाई
रयणाई ताई। सो दिवु संखु
तं धणु असंखु । जइ तुज्झु देति
पेसणु करंति। तो ते जियनि
नो सनि।
-
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-
-.
-
--
-
-
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-
--
यमको भौंहोंके भंगुरभाववाले दिव्य धनुष सिद्ध हैं। दोनोंके पास रत्नोंसे स्फुरित गदा है और आज्ञा माननेवाली देवियां हैं। दोनोंके हाथमें हल-मूसल और शंख हैं, दोनों कठोर हैं। सिंहके समान कन्धेनाले ने दोनों जहाँ लड़ते हैं वहीं शत्रु घरी जाता है, मर जाता है, सामना नहीं कर पाता। असिवरपर उनका हाथ कभी नहीं जाता। एक और उनके पास शत्रुओंको सतानेवाला गन्धहस्ती है, जो मानो ऐरावत है। उनकी लीला तुम्हारे विरुद्ध दिखाई देती है, वे तुम्हारी आज्ञाकी परवाह नहीं करते। अपने सुभटत्वको वासे वे स्वयं भग्न हैं !" यह सुनकर राजाने कहा, "मैं युद्ध करके गजरलोंका हरण करूंगा।" सुभद्राके गलिताश्र नेत्रोंको ब्रह्मा पोंछे, मृतपुत्रके वियोगसे वह जले, और असाह्य शोकसे शोषित हो । मेरे विरुद्ध होनेपर संसारमें कोई जीवित नहीं रहता, यम भो युद्ध में मुझसे मृत्युको प्राप्त होता है।
. धत्ता-जो मेरे चरणकमलोंको याद नहीं करता और राजत्व चाहता है वह स्वजनों सहित परिजनों से घिरा हुआ यमपुरके रास्ते लगता है ॥९॥
इस प्रकार गरजते हुए राजासे मन्त्रियोंने कहा-"यह युक्त नहीं है; कलहसे क्या ? शत्रुओंके पास दूतको भेज दीजिए। ऐरावतके शोलवाला वह गन्धहस्ति, और जितने रलसिद्ध हुए हैं वे, वह दिव्य शंख, वह असंख्य धन, यदि वे तुम्हें देते हैं और आज्ञा मानते हैं, तभी वे जीवित रहते
३. A हरेदि; P हरेमि । ४. P जमु । ५. A सौ सयणसपरियण'; ' सो समणपरियणं । १०. १. AP णियमंतिहि । २, AP गंधिपीलु । ३. AP लीलु ।
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- १४.११.३]
'तो दिष्णु दूर दारावईसु जापचि तेण
कुलकुमुय चंदु
दूषण उत्त भुचवलविसालु संभरहि देउ
गिरितुंगमाणु भडवर रिट्ठ मेल्लिव दुआलि नुहई पिण
खयरिंद जासु इति सेव
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
कलाणभूत |
भीमारिभीसु । मलियकरेण ।
fage afg |
सुमंत
।
कुलसामिसालु । रायाहिरात | वाराहिहाणु । तु भो दुहि । मा करहि रौलि | सह सामिण |
तडु कवणु मल्लु किरिंदु पत्ता-तामणि दुबिट्टे
वच्चति पासु । असितलिय देव |
मुइरोससल्लु ।
रिंदु | पण सामि महारस हलहरु | अणहु सामण्ण माणूसह ह होसनि किं किंकरु ||१०||
११
दुबई - जो मई भाइ भि' पर दुम्भइ दूयय तासु सीसयं ॥ तोरिणि तडत्ति मणिकुंडल मंडियगंडएसयं ॥ कायर्कतिओहामियस सहरु तहि अवसर भासइ जिम्वाहरु ।
पत्ता - तब द्विष्टने क्रुद्ध होते हुए कहा, "मेरे स्वामी बलभद्र हैं। सामान्य मनुष्यका अनुचर हो सकता हूँ ? ||१०||
२६३
१०
४५. सुणि । ६. AP मेलहि । ७ राि
११. १. AP
१५
हैं नहीं तो मारे जाते हैं।" तब उसने कल्याणभूति नामक दूतको भीम शत्रुओंके लिए भयंकर द्वारावती राजाके पास भेजा। उसने जाकर और अपने दोनों हाथ जोड़कर अपने कुलरूपी कुमुदके चन्द्र उपेन्द्रसे भेंट की । दूत बोला, "आप मन्त्रसूत्र सुनिए। हे देव, बाहुबल से विशाल कुलस्वामीश्रेष्ठ गिरिके समान उन्नतवान तारक नामके राजाधिराजकी आप याद करें और योद्धावरोंमें श्रेष्ठ हे द्विपृष्ठ, तुम भी खोटी चाल छोड़कर पृथ्वीके प्रिय स्वामीके साथ झगड़ा मत करो। विद्याधरराजा, जिसका सामोप्य चाहते हैं, जिसकी तलवारसे त्रस्त देव उसकी सेवाको. इच्छा करते हैं, उसका प्रतिमल्ल कौन है? तुम क्रोध की शल्य छोड़ दो। करियर ले जाकर तुम राजाको प्रणाम करो। "
२०
क्या मैं किसी दूसरे
११
जो मुझे भृत्य कहता है, है दृत, वह मेरा दुश्मन है; में युद्ध में मणिकुण्डलोंसे मण्डितगण्ड देशवाले उसके सिरको तड़ करके तोड़ डालूँगा।" अपनी शरीरकान्ति से चन्द्रमाको पराजित करनेवाले
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२६४
་
५
महापुराण
पहणरुवखराइस छष्ण उं लंबललंतचिंधकोमलदलु करिगिरिवर लोहियजलणिज्झरु सुहसंग डिपिएहसुंगड दूय राजइ मग्गइ कुंजरू विसीह सरकलहं इहु वारणु वहु जीविवारगु
विका मिणिवडज किखरवण्णवं । चलचामरहंसावलिअ बिरलु । उग्गयचित्तछेत्तइंदीवर ।
तो
गयणविलग्गतसस्थलु । पइसउ सो समरवणंतरु | तहिं उ चुकाइ कविक्खहूं । भयगार वण्डलवियारणु । महुं एहउ मणि भावइ ॥
हरि वारयसरह कमि पडित अचल चलंतु ण जीवइ ||११||
१२
धत्ता -- तं णिसुणिवि दूएं जंपियें
[ ५४.११.४
दुवई - जासु तसं ति ऐति पणवंति थुणंति वि देवदानवा || लसुण गणु किं पितुम्हारिस विबल वरायमाणवा ॥ तो कण्हें जंपि पेसुणडं जाहि दूध मा जंपहि सुण्णरं । तं सुणिवि दूध णिगड गड कहइ ससामिहिं जब अप्पर गड | बिधि र कर तंत्रच्छिहिं करवालु णिरिक्खड़ | सेवण करइ सो पई मण्ण णियसंमुई सिरिस्इि सण्णइ । भण भय से वसि होस मि चा देति करि वरु ढोएसभि
"
बलभद्र उस अवसरपर कहते हैं, "हे दूत, जो प्रहरणरूपो वृक्षराजियोंसे माच्छन्न है, नृपकामिनियोंरूपी वट-यक्षिणियों से सुन्दर है, जिसपर लम्बे और हिलते हुए ध्वजरूपी कोमल पत्ते हैं, जिसपर अविरल चलचामरोंकी हंसावली रहती है, जिसमें रक्तरूपी जलका निर्झर है, उठे हुए विचित्र छत्ररूपी कमल हैं; जो सुमोको प्रतिरूपी साँपों से बीभत्स है, जिसका सुन्दर वंशस्थल आकाशको छूता है, ऐसे हाथीको यदि हे दूत, वह राजा मांगता है तो उसे तुम समरपी मतान्तरमें भेज दो। क्रुद्ध विपृष्टरूपी सिंहके तीररूपी शत्रुओंको लुप्त करनेवाले बाणों से वह नहीं चूकेगा। यह चारण (गज ) उसके जीवनका वारण करनेवाला है, भयकारक और वक्षस्थलका निवारण करनेवाला है ।"
यत्ता - यह सुनकर दूतने कहा, "मेरे मन में यह आता है कि नारायण, तारकरूपी श्वापदके चरणोंमें पड़ा हुआ, अचल, चलता हुआ जीवित नहीं रहेंगा" || ११ ||
१२
देव और दानव जिससे त्रस्त होते हैं, आते हैं, प्रणाम करते हैं और स्तुति करते हैं, उसको कोई भी नहीं पकड़ सकता। तुम जैसे बलहीन बेचारे मानवोंकी क्या ?" यह सुनकर नारायणने कठोर बात कही कि "है दूत, व्यर्थ बकवास मत करो, तुम जाओ।" यह सुनकर दूत निकलकर चला गया। उसने अपने स्वामीसे कहा कि वह अपना हाथी नहीं देता। दुष्ट और कोठ द्विपृष्ठ
की आकांक्षा रखता है, अपनी लाल-लाल आँखोंसे तलवारको देखता है, न वह तुम्हारी सेवा करता है और न तुम्हें मानता है; अपने सामने श्रीरूपी पुंश्चलीका सम्मान करता है, मदके वशमें
२.
३ AP लक्कु । ४, P जंपितं । १२. १. तो । २. AP दूच गउ णिग्गव । ६. A छ ।
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२६५
-५४, १३.८ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित दंतमुसलजुयले पेल्लावमि एम हस्थि हर तहु रणि दावमि । रायत्तणु महुं पुणु संकरिसणु अह व करइ पियवंभु सुदरिसणु । अण्णु राज जइ होइ कुसुंभा अपणु राउ संझापारंभइ । अण्णु राज अहरहतंयोलें अण्णु राम लिंदमि करवालें । हएं किं घेप्पमि अपणे राएं ता पडिजंपिङ सारयराएं। धत्ता-हरिकरिभलोहियकयछडइ दृय ण बडिमें बोल्लमि ||
रणरंगि दुविट्ठहु अट्ठियई पिट्ट करेप्पिणु घल्लमि ॥१२॥
दुबई-एम भणंतु चलिउ हयगयरहणरभरणेमियधरयलो ।।
यसंगामतूरबाहिरिय दिसबहलुच्छलियफलयलो। हरिखुरखयधूलीरयछाइषु दस दिसु खंधावारुण माइल | थिउ वारावइणियडउ जावहिं णिग्गय सज्जणहरिमल तावहिं । सकरि सगरुडचिंध रहसुब्भउ सहरि गिरिदधीर सुमहाभड । गयमलधवलकमलकललणिह कायतेयणिज्जियखयसिडिसिह । खयरणरामरसेवियपयजुय दंतिदताणम्मूलणखममुय।
रयणमालकोत्थुइजलयरधर सीरसरासणसुरपहरणकर । होकर यह नहीं कहता कि मैं वशमें हो जाऊँगा, हाथमें धनुष लेकर हाथी के ऊपर पहुंचूंगा। दाँतके समान मूसलयुगलसे उसे प्रेरित करूंगा, इस प्रकार मैं उसे युद्ध में हाथी दिखाऊँगा । राज्यत्व तो केवल मेरा बलभद्र करेगा, अथवा फिर सुदर्शनीय प्रिय ब्रह्म करेगा । यदि कुसुम्भ वृक्षमें दूसरा राग ( रंग ) होता है, यदि सन्ध्याके प्रारम्भमें दूसरा राग होता है, यदि पान खाने से अधरोपर दूसरा राग होता है। इसी प्रकार यदि मेरा अन्य राग ( राजा ) होता है तो मैं तलवारसे उसे काट दूंगा। क्या में दूसरे राजाके द्वारा ग्रहण किया जाऊँगा?" तब तारक राजा कहता है
पत्ता-"हे दुत, मैं बड़ी बात तो नहीं करता, परन्तु जिसमें घोड़ा, हाथी और योद्धाओंके द्वारा लाल-लाल छटा की गयी है, ऐसे रण रंगों में द्विपृष्ठकी हड्डियोंको पोसकर फेंक दूंगा" ||१||
इस प्रकार कहता हुआ जिसने घोड़ा, हाथी, रथ और मनुष्यों के भारसे धरतीको नमित कर दिया है, ऐसा वह चला। युद्धके नगाड़ों के आहत होनेपर दिशाओंको अत्यन्त बहिरा बनाता हुआ कलकल शब्द होने लगा। धोड़ों के खुरोंसे आहन धूलरजसे आच्छादित सैन्य दसों दिशाओंमें कहीं भी नहीं समा सका । जबतक वह द्वारावतीके निकट ठहरता है, तबतक सज्जन नारायणका सैन्य बाहर निकला, हाथियों, गरुड़ध्वज चिह्नोंके साथ और हर्षसे उद्भट; और अश्वों के साथ । गिरीन्द्र के समान धीर मलरहित घवल कमल और काजलके समान, शरीरकी कान्तिमे प्रलयाग्नि को माझाओंको जोतनेवाले, जिनके पैर विद्याधर, नर और देवों द्वारा पूजित हैं, जो महागजों के दांतोंको उखाड़ने में सक्षम बाहुओंवाले हैं; जो रत्नमाला, कौस्तुभ और शंख को धारण करनेवाले
४. AP पिउबंभु । ५. AP विगणामि | ६. A तारायराए । ७. AP वहिन । १३.१. APए,विर्य । २. A समहाभ ।
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महापुराण
५४. १३.९भहसुभैइ उवायाणदण
दुद्दमदाणववंदै विमण। जिह जिह तारएण अवलोइय तिह तिह मइ विभयवहि ढोइय । बलपच्भारें मेइणि हल्लाइ
विसहरु तसेइ रसइ विसु मेलाइ । पत्ता-करिकारणि तारयमाहवई सेण्णई संमुहूं ठुकाई ।
लग्गई पालपाइकमुह मुकदकाललाई ।।१३।।
दुवई-दसविसिषहपयासिजसलुद्धई मुहमरुभमियभेमरयं ।।
धणुगुणमुझमंदसरजालई कयसुरणियरडमेरयं ।। जायघायलोहियभारियंगई आइरंगरंगततुरंगई। भडताडियपाउियमायंगई झसतिसुलकरबालपसँगई। वजमुट्टिफोडियसीसकई ___णीसारियमस्थयमस्थिक्कई । दंडद लियवियलियपासुलियई धलियाई बल्ललियई पडिबलियई। पिससेभसोणियजलपहायई असिमिहसणसि हिसिहवसु आयई। मोडियकलियलकोप्परठाणई विडियदेहसंधिसंठाणई। संघारियसामंतसहासई
मयमंडलियम उहभाभासई। १० परिपोसियसिवायसगिद्धई सिरिमहिरामारमणपलुद्धई । हैं; जो हल, धनुष तथा देव-अस्त्र जिनके हायमें हैं, दुर्दम दानवसमूहका दमन करनेवाले हैं, ऐसे कल्याणी सुभद्रा और उषाके पुत्रोंको जैसे-जैसे तारकने देखा, वैसे-वैसे उसकी मति आश्चर्यपथमें चकरा गयो । सेनाके भारसे धरती हिल उठती है, विषधर अस्त होता है, चिल्लाता है और विष छोड़ता है।
धत्ता-हाथी के लिए तारक और माधवकी सेनाएं आमने-सामने पहुंचीं। प्रगल्भ भृत्यों के मुखसे बोले गये कारने और ललकारनेके शब्दोंसे युक्त वे दोनों लड़ने लगी ||१३||
जो दसों दिशापथों में प्रकाशित यशकी लोभी हैं, जो मुखको हवासे भ्रमरोंको उड़ा रही हैं, जो धनुष-डोरोसे मन्द सरजाल छोड़ रही हैं, जिन्होंने देवसमूहके साथ युद्ध किया है, जिनके अंग यावसे उत्पन्न रकसे भरे हुए हैं, जिसमें अश्व युद्धके उत्साहमें चल रहे हैं, योद्धामोंसे ताड़ित गज गिर रहे हैं, जो झस-त्रिशूल और करवालसे युक्त हैं, जिनमें वज्रमुट्टियोंसे शिरस्त्राण तोड़े जा रहे हैं, जहाँ मस्तकोंसे मस्तक निकाले जा रहे हैं, जहाँ दण्डसे दोलत और विगलित पसुरियां चलती हैं, गीली होती हैं और मुड़ती हैं। पित्त, श्लेष्मा और शोणित जलमें स्नात वे तलवारोंकी रगड़से उत्पन्न अग्निको ज्वालाके वशीभूत हो गयी हैं। जिनके कटितल और हाथका माभागस्थान मुड़ गया है, वेहके सन्धिस्थान विघटित हो गये है, सामन्तोंके सहायक मारे जा चुके हैं, जो मरे हुए माण्डलीक राजाओंके मुकूटोंको कान्तिसे भास्वर हैं, जिन्होंने शृंगाल-वायस और गिद्धोंको सन्तुष्ट किया है, जो लक्ष्मी, मही और स्त्रीके रमणके लोभी हैं । __, AP°सुमहावाया । ४. AP°विद । ५. AP रसइ समा। १४. १. AP भमरई । २. APइमरई । ३. A कडपल । ४. A मुर्य ।
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२६७
-५४. १५. १४ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित पत्ता-अरिरुहिरतोयतण्हायतणु पविखहिं पक्वझडप्पियाई ॥
उम्मुच्छिल को वि महासुइडु लम्गत वइरिहिं विप्पियउं ॥१४॥
१५
दुबई-परिफुटकरलगलियमयधारालालम्भमलसरप !
को वि करिंददेवजुयसयणइ सुत्तर मरणणिहए ।। लद्धवीरभंडणमहोमिसे
घारचंचुमक्खियणरामिसे । उच्छलतवीसदवसारसे
कालयरक्खसमहाणसे। पहरभगागयभीरमाणुसे
हम्ममाणभउभमियतामसे। पुत्ववइरसंबंधदारुणे
वणगलंतवणवणारुणे। खयररायसंघायमारणे
तारएण हरि कोकिओ रणे । कंतदंतगिरिभितिदारुणो जेम अप्प दिण्णो ण वारणो। यंधुकपणकदुयं सुविष्पियं जेम दूधपुरओ पयंपियं । अज्जु बाल फि व जुझसे संतमंतिमंत ण त्रुझसे। धरणिणाहजयलच्छिधारिणा भणिच महिवई दाणवारिणा। दीपए पंचभूयह ण लज्जसे मम पुरो तुम फाई गजसे। रायबायगव्वेण वग्गसे
पैरहणाई फि मुक्ख मग्गसे। इय भणेवि मुका तिणा सरा पुंखलग्गहुंकारवरसरा।
पत्ता-शत्रुके रुधिररूपी जलसे आशरीर, पक्षियों के द्वारा पंखोंसे आक्रान्त तया शत्रुओंसे बुरी तरह लड़ता हुआ कोई सुभट मूच्छित हो गया ||१४||
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स्पष्ट रूपसे गण्डस्थलसे झरती हुई मदधाराकी लालसासे जिसमें भ्रमरशब्द हो रहा है, ऐसे नीदमें कोई सुभट हाथीदांतोंकी शय्यापर सो गया। जिसमें वीरों के युद्धका बहाना ढूंढ लिया गया है, जिसमें गोषोंकी चोंचोंसे मनुष्यों का मांस खाया जा रहा है, जिसमें वीसद ? वसा
और रस उछल रहा है, जो कालदूत रूपी महाराक्षसका रसोईघर है, जिसमें प्रहारसे भग्न होकर भोरु मनुष्य चले गये हैं, आक्रमण करते हुए योद्धा रोद्रभावसे घूम रहे हैं, जो पूर्व वैरके सम्बन्धसे अस्पन्त दारुण है, जिसमें घावोंसे रक्तरूपी जल बह रहा है, जिसमें विद्याधर राजाओंके समूहको हिंसा की जा रही है, ऐसे युद्ध में तारकने हरि (द्विपृष्ठ) को ललकारा, "हे सुभट, अपने कान्तदांतोंसे पहारकी दोवारके भेदन में दारुण मज तुमने जिस प्रकार नहीं दिया, तथा जिस प्रकार तुमने भाईके कानोंको कटु लगनेवाले अप्रिय कथन इतके सामने किया; हे मूर्ख, उसी प्रकार तुम क्या नहीं युद्ध करते, शान्तिके मन्त्रिमन्त्रको क्यों नहीं समझते ?" तब पृथ्वीनाथकी विजयलक्ष्मीको धारण करनेवाले दानवोंके शत्रु (द्विपृष्ठ) ने राजासे कहा, "हे दोन, पांच महाभूतोंसे शर्म नहीं आती, तुम मेरे सामने क्यों गरजते हो । राज्यरूपी बातके गर्बसे तुम घमण्ड करते हो। रे मूर्ख, तुम पराया धन क्यों मांगते हो ?" यह कहकर उसने पुंखके साथ जिसमें हुंकारका स्वरवर लगा हुआ है ऐसे १५. १. AP पडिकार; K पडिकरि but eorrects it to परिपुर । २. AP महारसे । ३. AP "रसा
यसे । ४. AP"माणसे । ५. A दारणो । ६. Aण 1. AP तेम । ८. AP पहरणाई;K पहरणाई but corrects it to परहणाई।
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५४. १५. १५
२६८
महापुराण १५ एतं वारपणं वियारिया
वइरिवाण बाणेहिं पारिया। णाई गाय णापहि कयफणा __ लोहबंत पिसुण व णिग्गुणा । घत्ता-पडिकण्हें कण्हहु पट्टविउ अलयहउ उहामउ ।।
अइदीहरु कालड पंचफडु भीयरु मारणकामः ।।१५।।
दुवई-सो गरुडेण हणेवि खणि घेल्लिर पडिबलजलणवारिणा ।।
मायातिमिरपडलु ता पेसिउ तह हुंकरिवि वइरिणा ॥ संक्खिलक्खखयंकाल हरिणा णासि रवियरजालें । इय दिव्वापंतिउ टिपण बहुयन लक्खकोडिसयगपणा । पुणु बहुरूधिणिविजपहावे जुज्झिउ पडिहरि कुडिलसहावे । सा वि पणट्ट जणणपुण्णे सिरिमइतणएं अंजण यणे । लेवि च करि भामिवि वुत्तई देहि हस्थि मा मरहि णिकत्तई । ता पहिलविय उपायापुत कि ससहरु जिप्पा णक्खत्त ।
जहण धरमि रहंगु सई हत्थे तो पइसमि हुयबहु परमत्थें । १० मरु को मरइ संढ तुह घाएं मुकु च तो तारयराएं । तीर छोड़े। आते हुए उन तीरोंको तारकने विदारित कर दिया। शत्रुके बाणोंका उसने बाणोंसे निवारण कर दिया, जैसे नागोंके द्वारा फन उठाये हुए नाग हों। वे तीर लोहवन्त ( लोहेसे बने, लोभयुक्त ) और दुष्टकी तरह, निर्गुण ( डोरो रहित-गुणरहित थे)।
धत्ता–प्रतिकृष्ण तारकने द्विपृष्टके ऊपर उद्दाम अत्यन्त दीर्घ काला पांच फनका भयंकर मारनेकी इच्छावाला जलसर्प फेंका ॥१५||
१६
उसे द्विपृष्टने शत्रुबलको ज्वालाके लिए जलके समान गरुड़ वाणसे एक क्षणमें नष्ट कर दिया। तब दुश्मनने हुंकार करते हुए उसके ऊपर मायावी ( कृत्रिम ) अन्धकारका पटल फेंका। उसे भी विपक्ष के लक्ष्यके लिए क्षयकालके समान सूर्यकिरण जालसे नारायणने नष्ट कर दिया। इस प्रकार सैकड़ों लाख करोड़से मुणित बहुत-सी दिव्य आयुधपंक्तियाँ छिन्न हो गयों। फिर प्रतिनारायण बहुरूपिणी विद्याके प्रभावसे और अपने कुटिल स्वभावसे लड़ता रहा। वह विद्या मी जनार्दनके पुण्य और श्यामवर्ण श्रीमतीके पुत्र द्वारा नष्ट कर दो गयी। तब उसने अपना चक्र हायमें लेकर और घुमाकर कहा कि "हाथी दे दो, निश्चय हो तुम मत मरो।" इसपर द्विपृष्ठने प्रत्युत्तर दिया, "क्या नक्षत्रके द्वारा चन्द्रमा जीता जा सकता है। यदि मैं तुम्हारे चक्रको अपने हाथमें ग्रहण नहीं करता, तो मैं वास्तवमें अग्निमें प्रवेश करूँगा । मूर्ख नपुंसक, तुम्हारे आघातसे कौन मरता है।" तब तारक राजाने चक्र छोड़ा।
९. A एंति । १०. P लोहवंता। १६. १. A सो पहिलउ । २. A तहि पेसिङ । ३.
हुववहि ।
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महाकवि पुष्पवन्त विरचित
धत्ता- रक्त पियवइणिव्भग्रहं पक्षरणेहि पहरं तरं ॥
-५४. १७.१२]
तं आयउ सयलाई पस्थिवद्दं स ति घरंत घरंत ||१६||
१७
दुबई - देवासुरण रिंद फणिखे यरकिंणरदष्पहारयं ॥ मुकारि माणिक्षमऊविराइयारयं ॥
बार कर ि
हिं तु सरणु कहिं के। अणुहि संपयगरुयारी । मंडखंड भिक्ख पावेपिणु । ति तुहुं पण रहूंगे हरिसि वासु होइथि गरुड विहि । अप्पर बार बारु किं वण्णहि । महं अग्गइ भडवाएं भजहि ।
भाणुबिंबु णं किरणहिं जेलि
वरिवि तेण करि जंपिडं एह करहि र बल केरी
तापडिस चब विह से प्पिगु जिह यह संतो से देसिड राहु होइन हथि पत्थरु होवि मेरु व मण्णहि रे गोबालबाल जड लाहि
लगाइ
घत्ता-लइ रक्खउ तेरव सीरहरु एहिं मारमि लग्गड ||
किं चुकइ काणणि केसरिहि दिट्टपथि गिब्बैंडिड मरे ॥१७॥
२६९
पत्ता - अपने स्वामीको निर्भय बनानेवाले रक्षकोंके अस्त्रोंसे प्रहार करते हुए और समस्त राजाओंके पकड़ते हुए भी वह चक्र आया ||१६||
१७
देव, असुर, नरेन्द्र, नाग, विद्याधर और किन्नरोंका दर्प हरण करनेवाला, विश्वको आलोकित करनेवाला, माणिक्य किरणोंसे शोभित आराओंवाला, किरणोंसे विजड़ित सूर्यनिम्बके समान वह चक्र वासुदेवके हाथके निकट आकर ठहर गया। उसने उसे हाथमें लेकर यह कहा कि "बताओ इस समय तुम्हारी पारण कौन है ? तुम बलभद्रकी आज्ञा मानो और अपनी भारी सम्पत्तिका भोग करो।" तब प्रतिशत्रु तारक हँसकर कहता है, "अपूपखण्ड मोखमें पाकर देशी आदमी जैसे सन्तोष से नाच उठता है, वैसे हो तुम इस चक्रसे प्रसन्न हो रहे हो, गधे होकर तुम सिंहसे लड़ते हो । कौआ होकर गरुड़से युद्ध करते हो, पत्थर होकर अपनेको मेरा समझते हो, अपने आपको रोको-रोको, स्वयंका क्या वर्णन करते हो ? रे-रे ग्वाल बच्चे, शर्म नहीं आती। मेरे आने सुभट हवा भन्न करना चाहता है ।
पत्ता- ले तू अपने बलभद्रको बचा, इस समय लड़ते हुए उसे मारता हूँ। क्या जंगलमें सिंहके दृष्टिपथ में आया हुआ भूग बच सकता है ?" ॥१७॥
१७. १. A फलियउ । २. A भिक्खु । २. P रहसि ४, AP हि । ५. AP विडिव । ६. AP
गड ।
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२७०
: . सापुराण . . [ ५४. १८. १
१८ दुवई-एव भणेवि धीरु विसविसमविसण्णवणिसियअसिवरं ।।
अरिकरिकुंभकलियधवलुज्जलमोत्तियपंनिदंतुरं ।। थक्क करयलेण उम्गामिवि ता सिरिरमणे णयलि भामिवि | मुकु चक्कु ढुक्कड रिजर्फराहु णावइ अत्थसिहरिउवठहु । जाइचि दिणयरविंबु णिमण्णउं लोहियलित्तउं लोहियवण्णउं । ससयणसडयणदिण्णसुहेलिहि फुल्लु गाई हरिसाहसवेल्लिहि। इसियपुसियैपरणरयइरायहु पडिड सीसु तारग्रणरणाहहु । खमों बसिकिउ लोउ असेसु वि मागहु वरतणु जितु पहासु वि । जिह महि सिद्धी अद्ध तिषिट्ठहु निह हूई णिवैरिद्धि दुविहहु । उत्तंगतें धणु सो सत्तरि जीवि वरिसलक्ख वाहत्तरि ।। पावै पाविउ सत्तमु महियलु तहि अबसरि णिर्यमणि चिंतइ बलु । जहिं पबिफेसउ तहिं गज केसव काले णडियउ णिवडइ वासवु । एम भणेप्पिणु पासि तिगुत्तहु बई लइयउं समत्थु” समचित्तहु ।। बहुरिसिवंर्दै समउ समाहिउ केवलणाणसिरीइ 'पैसाहित ।
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इस प्रकार कहकर वह धीर विषके समान विषम जलयाले, समुद्र के समान पैनी और शत्रुगसे स्खलित धवल उज्ज्वल मोतियोंकी पंक्तिकी दांतोंवाली तलवार हाथमें उठाकर स्थित हो गया। इतने में नारायणने आकाशमें धुमाकर चक्र छोड़ा। वह शत्रुकण्ठपर इस प्रकार पहुंचा, मानो जैसे अस्ताचलके निकट जाकर दिनकरका बिम्ब निमग्न हो गया हो, लोहित ( लालिमा
और रक्त.) से लिप्त लाल-लाल रंगका । जैसे वह स्त्रकीय जनरूपी भ्रमरोंको सुख देनेवालो नारायणके साहसरूपी लताका फूल हो, जिसने शत्रुराजाओंका उपहास और नाश किया है, ऐसे तारक राजाफा सिर गिर पड़ा । नारायणने तलवारसे अशेष लोगोंको अपने वश में कर लिया, उसने मागध, वरतणु और प्रभासको भी जीत लिया। जिस प्रकार त्रिपृष्ठ के लिए आधी धरती सिस हुई थी, उतनी ही नुप ऋद्धि रिपृष्ठकी भी हुई। ऊंचाईमें वह सत्तर धनुष था और उसका जीवन बहत्तर लाख वर्षका था। पापसे उसे सातये नरक जाना पड़ा। उस अवसर बलभद्र अपने में विचार करते हैं कि जहाँ नारायण गया, वहीं प्रतिनारायण गया। कालसे प्रतारित इन्द्रका भी पतन होता है। यह कहकर उसने समचित्त त्रिगुप्त मुनिके पास समर्थ व्रत ग्रहण कर लिया। बहुत-से मुनिसमूहके साथ सावधान वह केवलज्ञानरूपी लक्ष्मोसे प्रसाधित हो गया ।
१८. १. AP°गलिय । २. A णं रवि अस्य । ३. A णिवण । ४. P हसिज पुसिय । ५. A पुसि ।
६. Aणिव पति पुट्टिह। ७. AP उत्तुंगत्तें। ८. AP पिता णियमणि बलु । ... K प्रत। १०, A समतु णिचित्तह । ११. AP°रिसिविहिं । १२. P पहासित।
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महाकवि पुष्पदन्त विरचित
घत्ता — गड मोक्खहु अचलु अर्कपेमेह भरणरेसरवं दिव ।। जोइस विमाणवासिय पचर "पुप्फदं तस्य बंदि ||१८||
- ५४.१८.१६]
इय महापुराणे विषद्विमहापुरिसगुणालंकारे महाभय्वमरहाणु पक्षिषु महाकइयंत विरइए महाकवे अहिताश्यक हंसरं णाम चडवण्यासमो परिच्छेम समत्तो ॥ ५४
इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभव्य मस्त द्वारा अनुमत महाकाव्यका अचक द्विपृष्ठ तारक कथाम्तर नामका चौवनयाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥५४॥
२७१
पत्ता - अकम्पित बुद्धि भरतेश्वरके द्वारा वन्दित अचल मोक्षके लिए गया, ज्योतिष विमानों में निवास करनेवाले प्रवक्षत्रों द्वारा
॥
१३ A अपणु । १४. A पुष्कर्यंत 1
१५
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संधि ५५
तषसिरिराइयहु मुणिझाइयहु सयमहमहिययावह ॥ दिवि कमजमलु णिजियकमलु विमलहु विमलसहावहु ॥ध्रुवकं।
णरडलमाहिलं नेण विरह सन्थं सारं जस्स गई तहसमोई काउं समय पत्ता परयं मुषणमहीस पई परिहीणं णारयविवरे णासई गरयं ण हु उलुहते देव पाटो
वजियमहिलं । सोदिर। षयणसारं। हिंसाडेउं । वढियमोई। मयमाणमयं । जे ताणरयं । कह लहिही सं। जिण पडिही । णविए विवरें। जणियंगरयं । सरणमहं ते । तं मह इटो।
१५
सन्धि ५५ जो तपरूपी लक्ष्मीसे शोभित हैं, मुनियोंके द्वारा जिनका ध्यान किया गया है, जिनका प्रताप इन्द्र के द्वारा पूजित है, जो विमल स्वभाववाले हैं, ऐसे विमलनाथके कमलोंको पराजित करनेवाले चरणकमलों को मैं वन्दना करता हूँ।
जिन्होंने नरकुलोंको पृथ्वी प्रदान की है, जो महिलासे रहित हैं और जिन्होंने भोगसे विरहित परमार्थभूत सार्थक वचनांशवाले शास्त्रकी रचना की है। जो हिंसाके कारणभूत समतासमूहके नाशक मोहवर्धक शास्त्रको ग्रहण कर तथा मान और मद बढ़ानेवाले शास्त्रको रचना कर उसमें अनुरक्त होते हैं, वे नरकको प्राप्त होते हैं। जो विश्व, बुद्धिविहीन है वह सुख कैसे प्राप्त कर सकता है। हे जिन, आपसे रहित यह विश्व निश्चित रूपसे नरकमें पड़ेगा, गरुड़के द्वारा कामभावको उत्पन्न करनेवाला विष ध्वस्त नहीं किया जा सकता। उल्लुओंके हन्ता को ओंके निकट मेरी शरण नहीं है। हे देव, में तुम्हारी शरणमें हूँ, वही मुझे इष्ट है । गृहेन्द्रोंको त्रस्त करनेवाला महेन्द्र
१.१. A सिरिरायह । २. AP पहावह र पहावह but corrects it to पयावहु । ३. AP "जुवल ।
४. जे साणगं; P जेत्ताणरयं । ५. A मट्स ।
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– १५.२८ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
करइ सुवार्य । जस्स महिंदो ।
णविडं विमलं |
यशुवा वसिय हिंदो
तं गुणविमलं मोहंगं भणिमो सरसं घत्ता--तेरहमद अवरु जणसंतियर सुतेर्गोफ सोमालइ ॥ अचमि रहिय खयविरहियद जिणु कल्बुप्पलमालइ ||१||
२
धाasis परिभमियहरि तहि विदेह तरंतकरि तहि दाणिकूलि कलंबहरि फलरेंस वह रुक्ख सोक्खलयरि पहुप से परमारमणु कयलीदलवीयणसीयर मंदाणि चालियकुसुमरइ गधीरधम्मेणिहि
तरस कहंगे | वारियरसं ।
पुषामरगिरिगंभीरदरि । सीय णायें अस्थि सरि । गवसत्तच्छ्रयछाइयमिद्दिरि । रम्यवइदेसि महाणयरि ।
जोवणु रमणीमणदमणु ।
विसिय सरसरसीयरड़ | अण्णा दिणि वणि पीड़ंकरइ । पायंतिय सम्बर्गुत्तमुणिहि ।
२७३
२०
4
जिन विमलनाथ की इस प्रकार शोभन स्तुति वचनोंकी रचना करता है, ऐसे गुणोंसे पवित्र उनको मैं नमन करता हूँ। तथा मोहको नष्ट करनेवाले, सरस परन्तु काम सुस्रसे रहित उनके कथांगका कथन करता है ।
पत्ता - नशान्तिके विधाता तेरहवें जिनवर विमलनाथको में कवि पुष्पदन्त मनुष्योंका हित करनेवाली सुन्दरतम उक्तियोंसे रचित, क्षयसे रहित काव्यरूपी कमलमाला अर्चना करना है ॥१॥
जिसमें सूर्य परिभ्रमण करता है ऐसे बात कीखण्ड में पूर्व सुमेरपर्वतको गम्भीर घाटी है । उसके पूर्वविदेह में, जिसमें गज तेरते हैं ऐसो सोता नाम की नदी है। उसके दक्षिण किनारेपर कदम्ब वृक्षोंको धारण करनेवाला जिसमें नव सप्तपर्णी वृक्षोंसे सूर्य माच्छादित है और जो फलरसके प्रवाहवाले वृक्षोंके कारण सुखदायक है ऐसे रम्यकवती देशमें महानगरी है। उसमें राजा पद्मसेन था । लक्ष्मीसे रमण करनेवाला वह नवयुवक और रमणियोंके मनका दमन करनेवाला था । एक दूसरे दिन, जो कदली वृक्षोंके पत्तोके पंखोंसे शीतल है जिसमें सरोवरोंके शीतल जलकण दिशाओं में उड़ रहे हैं, जिसमें मन्द पवनसे कुसुमपराग आन्दोलित हैं, ऐसे पीतंकर नामके वनमें, जिनके मुखसे घीर धर्मध्वति निकल रही है ऐसे सर्वगुप्ति नामके मुनिके चरणों में अपने पुत्र
६. AP गुंफसी मालह; T गफ ।
०
२. १. AP अवरविदेहि । २. AP सीबोया । ३. P मिहरि । ४ A रिसबहुभव सोमलसरि रस बहूक्लोक् सर 1५, P धम्पु झणिसि । ६. A सब्गुतिं ।
३५
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२७४
१०
५
१०
संपers पमणाहु करिवि reas रिसिदिres दिक्खिय
महापुराण
सुभिववासकिलेसहरु मुमुक्काहरु बिसुद्ध मह अट्ठारह जल हिपेमा उधरु मास एक सो सस वणवस संवर जावजण महिता पाणगई ते दीहु कालु दिवि संचरि हुँ पढमिंदे लक्खियजं
इह भर खेति कंपिल्लपुरि
आरंभडंभविहि परिरिवि । ture अंगई सिक्खियद ।
पत्ता-मलु उड्डाविय समु भावियत्र पंकय सेर्णे घणघणु ॥ पक्खि व पंजरइ दुक्किय विरइ धम्मज्झाणि धरिउँ म ||२||
३
[ ५५. २. ९ -
आवनिवि तित्थयरत्तयन ।
हुन सहसार सहसा रषइ । चरणिसरीरु अरोयजरु | परमी वर मणेण सइ । सुहुं जगह णिएवि मुहुं अच्छरहं । तहु गुण किं चण्ड़ खंडकर | जयहुं अयनंतर वरिजं । सहसति कुबेर अक्खियजं । पुरुदेववंसि विन्हवियेसुरि । पं विहिप कमविति कय ।
कयता राहु घरज
घन्ता - ताहं महागुणहं वेणि वि जण होसइ भवणि भंडार || अट्ठारहहं शियदोस स्वयगार || ३ ||
कम्ममोर
नाथको सम्पत्ति स्थानवर नियुक्त कर आरम्भ और दम्भकी विधिको छोड़कर स्थित हो गया। मुनिदोक्षासे दोक्षित उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया ।
यत्ता - पद्मसेनने मलका नाश किया, समताका सघन चिन्तन किया। पिंजड़े में स्थित पक्षीकी तरह पाप से विरत धर्मध्यानमें उसने मन लगाया ॥२॥
३
संसारवासके क्लेशको दूर करनेवाले पुण्य और तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध कर निराहार विशुद्धमति वह मर गया तथा सहस्रार स्वर्ग में इन्द्र हुआ। उसको आयु अट्ठारह समुद्र प्रमाण यो । ज्वर और रोगसे रहित उसका चार हाथ शरीर था। नौ माह में एक बार वह साँस लेता । अट्ठारह हजार वर्ष में मनसे परमाणुओं का भोजन करता, अप्सराओंका मुख देखनेसे उसे सुख उत्पन्न हो जाता। जहाँ तक अंजनाभूमि ( नरकभूमि ) है वहाँ तक उसके ज्ञानको गति है। यह खण्डकवि पुष्पदन्त उसके गुणोंका क्या वर्णन करता है। वह लम्बे समय तक स्वर्ग में संचार करता रहा। जब उसके छह माह शेष बचे तब प्रथम स्वर्गके इन्द्रने जान लिया और अचानक कुवेरसे कहा, "इस भरत क्षेत्र के कापिल्य नगर में देवोंको विस्मित करनेवाले पुरुदेव वंशमें कृतवर्मा नामका राजा है, उसकी गृहिणी जया है जो मानो विधाताने कामदेवको वृत्ति बनायी हो ।
पत्ता- महागुणवाले उन दोनोंके घरमें आदरणीय जिन उत्पन्न होंगे, कमौके मनोरथों और अट्ठारह अपने दोषोंका क्षय करनेवाले ॥३॥
७. AP परियत ।
३. १. P " जलहिपरमाउँ । २. A उरण | ३. A परमाणुवरसुमणेण । ४ A सहस । ५. Ad ६.AP विभइयर । ७. AP दोहं मि
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-५५, ५.५]
महाकवि पुष्पवास विरचित
जक्खाहित तुरियर्ड जाहि तुहं करि पुरु घेरि चिंति भोयसुहं । ता पुरवर णिहिता विहिउं। णं सगखंडु धरणिहि णिहिउँ । दहिकुट्टिमयलजियसरयघणु गयणग्गलग्गमणिमयभवणु । वणरुक्खराइसुरहियपवणु वणरासररयफलहंसगणु । सयणागमहरिसियपरयणु रयर्णसुजालजियसियसधणु । धणु दिजइ जहिं बहुदेसियह सियरहियह णिवपदासियहं । सियसिहरबद्धधयपाउलिलं पाडलपूर्यफलदुमललिऊँ। ललियंगपसाहियकामियणु कामियणपरोप्परविष्णमणु । पत्ता-णरणियराउलइ तहिं राउलइ जयदेविड सुहसुत्तइ ।।
सिविणावलि णिसिहि उग्गयदि सिहि दोसइ कोमलगत्तइ ॥४॥
१०
करि दाणजलोलकवोलयल पंचाणणु रुइहयहारमणि दुइ सुमणालउ मालउ स्त्रयलि तिमि दीपिणे रमत तरंत जलि को कलस ससलिल सकमल सदल
देतु बसहु जियवासहधालु। अरविंदणिलय माहवरमणि । हिमयर अहिमयरुग्गय विउलि। संणि हिय मणोरम धरणियलि | णलिणालय मयरालय विमल ।
हे यक्षराज, तुम शीघ्र जाओ और धरतीपर नगर और चिन्तित सुख उत्पन्न करो।" तब कुबेरनाथने पुरवरकी रचना की मानो स्वर्गखण्डको ही धरतीपर रख दिया गया हो। जिसमें स्फटिक मणियोंके तल द्वारा शरद् मेघ जीत लिया गया था, जिसके मणिमय भवन गगनतलको छूते थे, जहाँ बनवृक्षराजिसे पवन सुरभित था, जिसके कमलसरोवरों में कलहंससमूह रत हैं, जहां स्वजनोंके आगमसे प्रचुर जन प्रसन्न होते हैं, जहां रत्नोंके किरणजालसे देवोंका धन जीत लिया गया है, जहाँ बहुत-से देशो लोगों तथा धन रहित नित्य प्रवासियोंको धन दिया जाता है, जहाँ श्रीशिखरों पर रंगबिरंगी पताकाएँ हैं, जो पाटल पूगफल ( सुपाड़ो) वृक्षोंसे सुन्दर है, जहां कामिनीधन सुन्दर अंगोंसे प्रसाषित हैं, जहां कामी लोग एक दुसरे पर मन देते हैं
पत्ता-मनुष्य समूहसे संकुल उस राजकुलमें सुखसे सोयी हुई कोमल देहवाली जयदेवी प्रभातके समय रात्रिमें स्वप्न देखती है ||४||
मदजलसे आई कपोलतलवाला हाथी, बेलोंका बल जीतनेवाला गरजता हुआ हाथी, अपनी कान्तिसे हारमणिको तिरस्कृत करनेवाला सिंह, कमलघरवाली लक्ष्मी, आकाशतलमें दो पुष्पमालाएँ, आकाशमें उगे हुए चन्द्रमा और सूर्य, जलमें तैरती और क्रीड़ा करती हुई दो मछलियां, दल, कमल और जलसे सहित धरतीपर रखे हुए सुन्दर दो कलश, स्वच्छ सरोवर और समुद्र,
४. १. AP घर । २. A चितियभोयसुई। ३. A सिरिरयवसईसगणु । ४.AP तहि । ५. A पासक
पूईफल । ६. AP सुई सुत्तए । ५.१. A डिंकंतु । २. दोषण । ३. AP तरंत रमंस । ४. P लस सलिल ।
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२०६
१०
ર
आसंदी हरिणरायारिय णाइणिगिश्चंत गेयमुकु मणिरासि सिहाहिं फुरंतु सिद्दि
महापुराण
पय पुंडरी यजुयणैविचसुरु मयरद्धयधय जिल्लूरण दाए जिम्मsas जयदेवहि देहु पसंसियड छम्मासु मधाराधरहिं जेट्ठहु मासड्डु तमदसमिदिणि रयणेहिं सुरेहिं संधुचरि हिलसस विकलं पयडिय जयहुँ सायरसम तीस गय पण मिरि कंचचूलाल हरि
अमरिंदवसहिपहपरियरिय | बाईबहुकेर छु । सिविणोलि निहालिय दिष्णदिहि |
धत्ता-सा सीमंतिणिय पीणत्थनिय दंसणु दश्यहु भासइ ॥ देवे राहिवर पडिबुद्धमइ तं फलु ताहि समास ||५||
६
अरहंतु अनंतु तिलोयगुरु । परमेसरि होस तु तणच । प्रत्यंतर आयद अच्छर । भादो हिंसिथठ । वरिसिट अक्खहिं णं जलद्दरहिं । उत्तरभवइ हिमकिरणि । after for समोयरिङ । नवमास पुणु वि वसु विडिय । मिच्छते दूसिय सयल पय । frogs बारहम तित्थयरि । तयहुं कयवम्म वणइ घरि ।
[ ५५.५.६
सिहके द्वारा धारण की गयी बैठक ( सिंहासन ), प्रभासे आलोकित देवविमान, नागिनीके द्वारा गाये गये गोतसे मुखर नागका भवनतल, रत्नराशि और ज्वालाओंसे जलती हुई आग। इस प्रकार भाग्यशाली स्वप्नावली देखी।
बता - पीनस्तनोंवाली वह सीमन्तिनी अपने पति से कहती है । प्रतिबुद्धमति नरराज देव उसका फल उसे बताते हैं ॥५॥
जिनके चरणकमलों में देव नमन करते हैं ऐसा अरहन्त अनन्त त्रिलोकगुरु कामदेवका नाश करनेवाला पुत्र, हे परमेश्वरी, तुम्हारे उत्पन्न होगा। इसी बीच इन्द्र के आदेशसे मत्सरसे रहित अप्सराएँ वहीं बायीं । उन्होंने जयादेवीकी प्रशंसा की और गर्भाशय के दोषको दूर किया । जलषरोंकी भाँति यक्षोंने छह माह तक स्वर्णमेघों की वर्षा की। ज्येष्ठ माह्के शुक्ल पक्षको दसमोके दिन, उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में चन्द्रमाके रहनेपर, रश्नों और देवों द्वारा संस्तुत चरित्र, देव हाथो के रूपमें गर्भ में अवतरित हुए। ( कुबेरने) निषिकलशों में अपना विक्रम प्रकट किया और नौ माह तक और धन की वर्षा हुई। जब बारहवें तीर्थंकरके निर्वाण कर लेनेपर तीस सागर, प्रमाण समय बीत गया तब समस्त प्रजा मिथ्यात्व से दूषित हो गयो । एक पल्य पर्यन्त धर्मके नष्ट होनेपर कृतवर्माक स्वर्णशिखरोंसे मेघों को छूने वाले घरमें तब
५. Pवाद ।
१. १. APमि । २. A कलसविमुक्त । १. A धम्मवरि ।
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२७७
-५५.७.१३]
मामलि गुपदन्त दिवस पत्ता-माहवउत्थिहि वैउिढयससिहि सिवजोयइ जिणु जायन ।।
संदणहयगयहि लंबियधहिं चउदिसु सुरयणु आइउ ।।६।।
मायासिसु मायहि ढोइयउ सके जिणधयणु पलोइयत । कर मललिवि पणविवि परमपर पुणु भत्तिइ लेविणु तित्थयरु । करि पेझिल चलिए गयणयलि पडुपडभेरिढकामुह लि। लंघेविण रविससिमंडलई णं णहयललच्छिहि कुंडलई । गउ तेत्तहिं जेत्तहिं पंडुसिल णिरु णिम्मल णावइ सिद्धइल । मंदरगिरिसिरि विरहवणु तहु देवेहिं पुजिय दिव्वतणु । पंहुरि ससहरकररासिहरि
आणेपिणु णिहियउ जणणिघरि । सिसु संसिवि जय चिरु सुकयतद गय णविवि णायदु णायभव । कालेण पवढिउ जिणु तरुणु गरुयारउ हूयड सहिधणु। सइंसट्टत्तरमियलक्खणई बहु दिई बहुयई वेजणई। वणेण वि सहइ सुखण्णणिहु हो कि महं वणिजइ अरिहु । परमेसाहु माणियबालवय वरिसह पण्णारह लक्ख गय । पुणु सयमण पणविवि पद्दविल रायत्तणि तिजगराउ थविउ ।
पत्ता-माघशुक्ला चतुर्थी के दिन शिवयोगमें जिनका जन्म हुआ। अपने लम्बे ध्वजों तथा रथों और गजोंके द्वारा चारों दिशाओंसे देव आये ॥६॥
इन्द्रने मायावी बालक माताको दे दिया और जिनवरका मुख देखा। हाथ जोड़कर, परमश्रेष्ठको प्रणाम कर फिर भक्तिसे तीर्थंकरको लेकर, वह हाथोको प्रेरित कर, पटु-पटह-भेरी और ढक्काओंसे मुखर आकाशमें चला। आकाशरूपी लक्ष्मीके कुण्डलोंके समान सूर्यचन्द्रको लांधकर वह वहां गया जहां पाण्डुक शिला थो, अत्यन्त निर्मल जैसे सिद्धशिला हो। मन्दराचल पर्वतके शिखरपर अभिषेक किया गया । देवोंने उनके दिव्य तनकी पूजा की। चन्द्रमाको किरणराशिका हरण करनेवाले माताके धवल घरमें लाकर उनको स्थापित कर दिया। "हे सुकृततप, चिरकाल तक तुम्हारी जय हो" इस प्रकार शिशुको प्रशंसा कर देवता लोग अपने-अपने स्वोंमें चले गये। समयके साथ जिन भगवान बढ़ने लगे। तरुण जिन साठ पनुष प्रमाण हो गये। एक हजार आठ लक्षण और बहुत-से व्यंजन ( सूक्ष्म चिह्न) उनके शरीरपर दिखाई दिये। वर्णमें वह स्वर्णके समान शोभित थे । अरे मैं अरहन्तका क्या वर्णन करू। परमेश्वरके द्वारा भुक्त बालकपनकी बायु पन्द्रह लाख वर्ष बीत गयी। पुनः इन्द्रने प्रणाम कर उनका अभिषेक किया और उन्हें
. A°चउद्दसहिP चयिसिइ । ५. AP बद्रिय । ७. १. P भत्ति । २. देव । ३. AP जणणिहरि; Kजणणिकरे but corrccts it to जणिधार ।
Y. A जिण तणु । ५. A अट्ठोत्तरसमिय; P सत्तरसभियं । ६. A तह णवसमसंखई; P तह तवसयसंखहं ।
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२७८
महापुराण
[५५.७.१४परिसह वसिहूई दिण्णकरा तिउणियदलक्खई मुत्त धर।। १५ धत्ता-तुहिणविणिग्गमणि महुआगमणि तीरोसरियजलालउ ।
रविकिरणहिं इणिवि हिमकण धुणिवि गिंमें जित्तु सियालउ ||७||
अवलोइवि सो दलवट्टियउ कालेण कालु पक्षट्टियउ। पहु चिंतइ अणुदिणु परिणव जणु तो दि ण मुंजइ धम्ममइ । चिरु चिनु दुचितहु णीणियां दिवि दिवभोयसुहं माणियउं । पुणु जीविउ जम्मणु आणिय तिहि णाणहि तिहुवणु जाणियउं । इंदिग्रवसेण ण विवेश्य
हा मई विण अप चेइयर्ड। धर्णपुसकलतहि मोहियउ मयरद्धयबाणहिं जोहियउ। अच्छइ ण णियच्छमि कि पि किई अण्णमणु आपणु अण्णागु जिह। ता संवोहिउ लोयंतिहि
अहिसित्तर सुरवरपंतियाहि । किउ देवयत्तसिवियारु णु गउ म ति सहेडयणाम वणु। घत्ता-माहचउत्थियहि ससहरसियहि छौबीसमि णवत्तइ ।।
सहुँ सहसें णिवह इच्छियसिवह थिउ जिणु जईण चरित्तइ ॥८॥ राज्यगद्दी ( राज्यत्व ) पर स्थापित किया। तीनगुना दस-अर्थात् तीस लाख वर्ष उन्होंने धरतीका भांग किया।
___घत्ता-हेमन्तके निर्गमन और वसन्तके आगमन पर ग्रीष्म-ऋतु में सूर्यकिरणोंसे हिमकणों. को नष्ट कर जिसके तोरसे जल समूह हट गया है ऐसे शीतकालको जीत लिया ||७||
उस ( शीतकाल ) को ध्वस्त देखकर प्रभु विचार करते हैं कि "कालके द्वारा काल बदल दिया गया । मनुष्य प्रतिदिन बदलता रहता है फिर भी वह धर्ममतिसे युक्त नहीं होता। पहले मैंने चित्तको दुराचरणसे निकाला था, तथा स्वगंमें दिव्यभोगोंका उपभोग किया। फिर जोवन जन्मको प्राप्त हुआ। ज्ञान से त्रिभुवनको जान लिया। लेकिन इन्द्रियोंके वशीभूत होकर मैंने विवेकसे काम नहीं लिया। हा, मैंने स्वयंको नहीं चेताया। मैं धन, पुत्र और कलत्र में मोहित हुँ, कामदेवके बाणोंके द्वारा देखा गया है। किसी भी वस्तुको मैं किसी प्रकार विद्यमान (स्थिर ) नहीं देखता हूँ। अज्ञानीके समान भ्रान्त चित्त मैं अन्य है।" तब लौकान्तिक देवोंने सम्बोधित किया और देवोंकी पंक्तियोंने अभिषेक किया। उन्होंने देवदत्ता नामक शिविकापर आरोहण किया और वह शीघ्र ही सहेतुक नामक उद्यानमें पहुंचे।
घत्ता-माघशुक्ला चतुर्थीके दिन छब्बीसवें उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में शिवकी इच्छा रखनेवाले एक हजार राजाओंके साथ वह जिन जैनचरित्रसे स्थित हो गये ।।८।।
७. A तौरोसरिन । ८. १. AP परिणामइ । २.AP घम्मे मह । ३. AP घणमित्त । ४. A किहा । ५. A जिहा । ६. A
बाबीसमि and gloss श्रवणनक्षत्र। ७. Aजाचारित्ता।
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-१५.१०.३]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
२७२
सहि दिणि जयवेइ वदासियन मणपतवणणे भूमिगत । बीयइ दिणि आयत गंदईन fदेण णमंसिउ पुरिसंपुरु। शाणाणलहुयवम्मीसरहु
आहार दिण्णु परमेसरहु । मणिपुजें ढंकिज तासु गिह तहिं चोजु वियंभि पंचविहु । छउँमत्थे मेइणियलु भमिवि संघच्छर तेण तिणि गमिवि । दिखावणि जंबूरक्खयलि माइम्मि मासि ससियरधदलि। छहइ दिणि दिवसभाइ अवरि छवीसमि जायइ उडुपवरि। देवें केवलु उपाइयर्ड
तियसउलु ण कत्थई माइयां । गयणग्गलम्गमाणिकसिद्ध
संपत्तष दद्दविहु अट्ठविहु । छाइयण मंडल पंचविड सोलह विहु तेत्थु वि तंतिविछ। घत्ता-थुणा सुराहिवइ कुसुमई धिवइ अरुहहु 'उप्परि पायहं ।।
जिण तुहुँ गयमलिणि हियवयणलिणि वसहि रिसिहि इयरॉयह ॥९॥
बत्तीसह इंदह तुहं हियह तुहं चंदु ण चंदु विमलवाहणु तुहुँ सरहि ण सरहि वि खारजहु
तुई संसेविउ सासयसियह । तुहं सूरु ण सूरु वि णिहष्णु । तुई हरु णउ हरु वि पमंत्तु गहु।
उसी दिन जगत्पतिने उपवास किया और मनःपर्ययज्ञानसे विभूषित हो गये। दूसरे दिन वह नन्दपुर गांव आये। उन श्रेष्ठ पुरुषको नन्दने नमस्कार किया। ध्यानको अग्निमें कामदेवको भस्म करनेवाले परमेश्वरको उन्होंने आहार दिया। रलसमूहसे उसका घर आच्छादित हो गया। वहां पांच आश्चर्य प्रकट हुए। छद्मस्थ रूपमें धरतीमें विहार कर उन्होंने तीन साल बिता दिये । माघ शुक्ला षष्टीके दिन, दीक्षावनमें ही जम्बूवृक्षके नीचे दिनके अन्तिम भाममें, छब्बीसवें उत्तराभाद्र नक्षत्रमें देवको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। देवकुल कहीं भी नहीं समा सका। जिनके माणिस्यों की शिखाएं आकाशतलको छू रही हैं, ऐसे आठ प्रकार और दस प्रकारके देव आये। और आकाशमण्डलको आच्छादित करनेवाले पांच, सोलह और तीन प्रकारके देव वहाँ आये।
पत्ता-देवेन्द्र स्तुति करता है, और अरहन्तके चरणोंके ऊपर पुष्प वर्षा करता है कि "हे जिन, तुम मुनियोंके द्वारा रागको नष्ट करनेवालोंके मलसे रहित हृदयरूपी कमलमें बसते हो" ॥२॥
१०
तुम बत्तीसों इन्द्रोंके हृदयमें हो, तुम शाश्वत श्रीके द्वारा सेवित हो, तुम चन्द्र हो, चन्द्रमा विमलवाहनवाला नहीं है । तुम सूर्य हो, जलनेवाला सूर्य सूर्य नहीं । तुम समुद्र हो, खारे जलबाला
सम्मत्थे । ५.A बावीसमि: P छावी
५.I.AP जहवाइ । २. AP दिउम1 ३.AP परिसवरू । ४.
समि । ६. AP छान महमंडल । ७. A गयरामहं । १०.१.A पमत्तगई।
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२८०
महापुराण
[ ५१. १०.४पई एहउ तेहल जंकह मि तं हर बुहलोइ हासु लहमि। जहिं अच्छा तिजग परिटियल।
जें रुद्धरं णिश्चलु संठियक्ष । संचलइ जेणे जे परिव
जै णिशमेव चेयण वहह । जं वरणगंधरसफासधक
जं अवर वि काइं वि चह अचर। पई दिइ दीसइ सयलु तुदृइ दढमोहलोङ् णियलु । पई दिट्ट मुच्चइ चगइहि
पहु होइ जीउ पंचमगइहि । तुह सुहि संपावइ परमु सुर्ख वहरियड णिरंतर तिन्वु दुहुँ । तुहुं पुणु दोहं मि मज्झत्थमणु इर्य भोज़ सहियवद धरइ जणु । पत्ता-चेईहरवणहिं बहुतोरणहि धयपतिहि पिहिये ।।
परिहागोरहिं सालहि सरहिं समवसरण किल सकें॥१०॥
१०
११
तहिं जाया णीसरंतझुणिहिं पपणास पंच गणहरमुणिहिं। गजंतमेहगंभीरसर
एयारहसयमिय पुम्वधर । छत्तीससहस पुणु पंचसय तीसुत्तर सिक्खुये मुणियणय ।
चत्तारि सहस अडसयवरह अणगारह सव्वाबहिहरह। ५ पणसइसई अवह वि पंचसय घोसति साहु संजय विमय ।
केवलिहिं रिसिहि मणपायहं वसहसई वेउवणवयहं। समुद्र समुद्र नहीं है । तुम शिव हो, नृत्य करनेवाला और प्रमत्त शिव शिव नहीं है। उनको जो तुम जैसा मैं कहता हूँ तो मैं पण्डित समाजमें हास्यका पात्र बनता है। जहां त्रिलोक प्रतिष्ठित है। जिसके द्वारा वह रुख और निश्चल रूपसे संस्थित है, जिससे चलता है और परिणमन करता है, जिससे नित्यरूपसे वह चेतनाको धारण करता है। जो वर्ण-गन्ध-स्पर्श और रूपको धारण करता है; और भी जो दूसरा चर-अचर है, तुम्हें देखनेपर वह समस्त दिखाई देता है, और दृढ़ मोह श्रृंखलाएं टूट जाती हैं। तुम्हें देखनेसे जीव चार गतियोंसे छूट जाता है, हे स्वामी, मुझे पांचवीं गति प्राप्त हो। तुम्हारा सुधि परम सुख प्राप्त करता है, और तुम्हारा शत्रु निरन्तर तीव्रतम दुःख प्राप्त करता है। लेकिन तुम दोनोंके प्रति मध्यस्थ मन रहते हो, लोग अपने हृदयमें इस आश्चर्यको धारण करते हैं।
धत्ता-सूर्यको ढकनेवाले इन्द्रने चैत्यगृहयनों, बहुतोरणों, ध्वजपक्तियों, परिखा और गोपरों, शालाओं और सरोवरोंके द्वारा समवसरणको रचना की ॥१०॥
___ वहाँ उनके जिनसे ध्यान खिर रही है, ऐसे पचपन गणधर मुनि हुए। गरजते हुए मेघके समान गम्भीर ध्वनिवाले ग्यारह सो पूर्वधारी, छत्तीस हजार पांच सौ तीस शिक्षक मुनि । चार हजार आठ सौ पूर्ण अवधिज्ञानवाले मुनि, पांच हजार पांच सौ साधु संयत विमद केवलज्ञानी कहे जाते हैं। पाँच हजार पाँच सौ मनःपर्ययजानी थे। नौ हजार विक्रिया-ऋद्धि धारण करनेवाले
२. A जेण जे परि । ३. A परिउ ण णिरं । ४. । इह । ". A पिहियकहिं । ६. A सक्किहिं । ११.१.A सिखिय ।
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-५५. ११. १४ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित सहसाई तिणि लेसासयई वाइहिं विद्धसियपरममई। संजइयतुं लक्खु तिसहससहि सावयह लक्खजुयलाई कहिलं । परियाणियजिणगुणपरिणहि इनारि लकरत महु सावयादि । तियसेहि असंखहि वंदियाल संखेजतिरियअहिणंदिया। तिवरिसरहियई णडियच्छरहं पण्णारह लक्वई संवच्छरह। महि हिडिवि लोयति मिरु लुहिवि संमेयह सिहर समारुछिवि । पत्ता-आसाहमिहि कसणहि तमिहि परमप्पउ णिशालु हुई।
भरहमहीवइहिं फणिसुरवइहिं विमैलु पुप्फदतहिं थुई ॥११
इवि महापुराणे तिसहिमहापुरिसगुणालंकारे महाकहपुरफर्षतविरहए महामन्वभरहाणुमण्णिए महाकावे विमलणाहणियाणामर्ण
णाम पंचधण्णासमो परिच्छेभो समतो ॥५५॥
थे। तीन हजार छह सौ परमतका. विध्वंस करनेवाले वादी मुनि थे। एक लाख तीन हजार सयमको धारण करनेवाली आयिकाएं थीं। दो लाख श्रावक कहे गये हैं। जिनवरके गुणोंको परिणतिको जाननेवाली चार लाख श्राविकाएं थीं। असंख्यात देवोंके द्वारा वह वन्दनीय थे। और संख्यात तियंचसमूह द्वारा वह अभिनन्दनीय थे। तीन वर्षे रहित, डियग्छर ( जिनमें अप्सराएं नत्य कर रही हैं. या जो अप्सराओंको वंचित करनेवाली हैं?) पन्द्रह लाख वर्षे धरतीपर परिभ्रमण कर लोकान्धकार नष्ट कर सम्मेद शिखरपर आरूढ़ होकर
धत्ता-आषाढ़ माहके कृष्णपक्षको अष्टमीके दिन, ( उत्तराषाढ़ नक्षत्र में ) भरतको भूमिके राजाओं, नागराजाओं, देवेन्द्रों और नक्षत्रों द्वारा स्तुत कह विमल निष्कल परमात्मा हो गये ॥११॥
इस प्रकार प्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त, महापुराण, महाकवि पुष्पदन्त द्वारा रश्चित एवं महामम्ब मरवद्वारा अनुमत महाकाव्य में विमलनाथ निर्वाण
गमन नामका पचपनवा परिच्छेद समाह हुभा ॥५५॥
२. AP इवउ । ३. विमल । ४. AP यय। ५. A पंचा।
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५
१०
संधि ५६
सुरवंद विमलजिदि तिरिथ भीमु पालियन्त्रलु ॥
रणि अभिडियष्ट अमरिसि चडिड मडुहि सयंभु महाबलु || ध्रुबकं ।
१
दुवई - अवरविदेहि जंबुदीवासिह सिरिउरि पिसुणदुमणो ॥ मित्तमित्तो इष मियकुलकमलभूसणो ॥ ख स लोड of पुर्णिमिंदु | पणइणि मुगु अण्णहु पासि जाइ । कुलभवणि कुल कललु करंति । सव्वस्सु पयच्छइ पुरिसु जेव । माया ण्णु आस बेंति । वा जाम उयरपूरणु हंति । तरु षि पछि सायमरणु । मयगंधवसिं भ्रमरेण हत्थि । रंभास दुद्ध करण |
महिष सो चित नियमणि णरवरिंदु धणु सुरधणु जिह्न तिह थिरुण ठाइ भायर विभायहु अचयरति किंकर चयम्मु रति तेव पोसति नियंति सिसु हवंति भणि बंधव बंधव भणति सिरिलंपडु घरवावहरणु जगि कासु वि को विण एत्थु अस्थि गाइ षि सेविज्जइ वच्छपण
देवों द्वारा वन्द्य विमलनाथ के अमर्षसे भरकर युद्धमें मघुसे भिड़ गये।
सन्धि ५६
तीर्थंकालमें संग्राम प्रिय भोम और महाबली स्वयंभू
१
जम्बूद्वीप में स्थित अपर विदेहके श्रीपुर नगर में दुष्टोंके लिए दुषण नन्दीमित्र नामका राजा था जो मित्रके समान और अपने कुलरूपी कमलका भूषण था। वह श्रेष्ठ राजा अपने मनमें सोचता है कि विनाशकाछ में समस्तलोक मानो पूर्णचन्द्र के समान है। जिस प्रकार इन्द्रधनुष, उसी प्रकार धन स्थिर नहीं रहता, कामिनी भी दूसरेके पास चली जाती है, भाई अपने भाईका अनादर करते हैं और कुलभवनमें अपने ही कुलसे कलह करते हैं। अनुचर इस प्रकार चापलूसी करते हैं कि जिससे पुरुष (मालिक) सब कुछ उन्हें दे डालता है। माताएँ आशासे बच्चे को देखती हैं, स्नान कराती हैं, पोषण करती हैं और अपना दूध पिलाती हैं। बहनें तभी तक भाई-भाई करती हैं कि जबतक उनकी उदरपूति होती रहती है। लक्ष्मीका लम्पट पुत्र भी घर के धनका अपहरण और पिता मरणको इच्छा करता है। इस संसार में किसीका कोई नहीं है । जैसे मदगन्धके वश से भ्रमरके द्वारा हाथोकी और रंभाते हुए बछड़े के द्वारा दूषके लिए गायकी सेवा
१. १. A omits रणि । २. A पुण्णमिषु । ३. A कुल भवणु कलकलयल; P कुलभवणि कुलहरुलयलु । ४. A सुसंहति । ५. P साथ
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-५६. २.१०]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित जणु इच्छइ सयलु सकत्रकरणु जीवहु पुणु जिणषरधम्मु सरणु । घन्ता-ईय बोल्लिवि रंज पमेल्लिवि सोसियभीममवपणउ ।।
जियकामहु सुन्वयणामहु पासि तेण लइयउं बउ ।।१।।
दुवई-जायउ सो मरेवि संणासे वम्महजलणपावसो॥
पंचागुत्तरम्मि तेत्तीसमहोब हिदीहासो ।। भासइ गोत्तमु णियगोत्तसूरु पंचिदियेरिसंगामसूरु। सुणि सेणिय कह मि मणोहिरामु पइ पड़ वसंति पुरणंगरगामु । गोजूहचिण्णसुहरियतणालु इह मरहि देसु णामें कुणालु । तहिं सावत्थी पुरि वसणहेज णिवसइ णरिंदु णाम सुकेउ । अवर वि बलि तेत्थु जि अक्खकील पारद्ध बिहिं मि तयारलील । चरैगमणछेजकडूद्वणपवंचु वरघायदायघरहरणसंधु । जाणिषि रेवति किर वे वि जाम एक उद्दि णियरज्जु दाम ।
हारंवउ सपुरु सकोसु देसु थिल एका कामासु । की जाती है इसी प्रकार सब लोग अपने कामको इच्छा करते हैं। केवल जिनवरधर्म हो जोवकी शरण है।
पत्ता-यह कहकर और राज्य छोड़कर उसने कामको जीतनेवाले सुव्रत नामक मुनिके पास भीषण संसाररूपी समुद्रको जीतनेवाला क्त ग्रहण कर लिया ||१||
कामरूपी ज्वालाके लिए पावसके समान वह संन्यासपूर्वक मरकर पांचवें अनुत्तर विमानमें तैंतीस सागर प्रमाण लम्बी आयुवाला देव हुआ। गौतम मुनि कहते हैं-अपने गोषके लिए सूर्य, पाँच इन्द्रियोंरूपी शत्रुके लिए शूर हे श्रेणिक, में सुन्दर कथा कहता हूँ, सुनो। इस भरत देशमें कुणाल नामका देश है, जहाँ पग-पगपर पुर, नगर और ग्राम हैं। जहां गायोंका झुण्ड सुरभित तृणोंका आस्वाद लेता है। वहाँ श्रावस्तो पुरी है। उसमें जुआ आदि खेलनेवाला सुकेतु नामका राजा रहता था। एक और जुआ खेलने वाला बलि नामका मनुष्य था। दोनोंने पासे खेलना शुरू किया। चर (दूसरेको मोट मारना), गमन ( अपनी गोटकी रक्षा करते हुए, दूसरेके घरसे अपने घरमें ले आना), छज्ज (छेद) दूसरेकी मोट मारना, कड्ढन प्रवंच (दूसरोसे बचाकर अपनी गोट ले आना), उत्तम घात और दाय? देना, घरहरण (दो-तीन गोटोंसे दूसरेके घरको स्वीकार कर लेना, संच ( दूसरेकी गोटके प्रवेशको रोकना) आदिको जानकर वे लोग तबतक खेले कि जबतक एकने अपना राज्य खो दिया। सुकेतु अपना पुर, कोश और देश हारकर अकेला दोनरूपमें रह गया। - - ----
६. Psa { ७. AP मेइणि मेल्लिवि । ८, A सोसीय। २.१. AP पाउसो। २. AP जो इंदिय । ३, A सेणि कहमि । ४. A णयर। ५. Aसुरहिय ।
१. A भरहदेसि । ७. P वरगमण । ८.A बरदायघाय; P परदायघाय। ९. P रमति । १०.A के हि।
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२८४
[५६. २.११
महापुराण पत्ता- हय गय णड संदण धय एक जि बसणे णडियज ।
वारंवहं गुरुहुं महतहं रायविलासह पडियउ ||२||
दुवई-जे ण करधि देवरभासि दुरगजपसा
ते णिवासंति एम्व हिवरा मुवि दुजसमसिमलीमसा ।। मायाविणीइ विभमहरीइ सेज्जातंबोलसुहं करीइ । आजाणुषिलंबियसाडिया वरै खजउ माणक चेडियाइ । णीसेससोक्खणिद्धाडियाइ खणि खणि आयइ ण पराडियाइ । जूएण ण कासु वि कुसलु एत्थु गड सो सुकेउ होइवि अवधु । वंदेवि सुदसणु मुवत्थु
णाोणालोइयसयलवत्थु । तज प्पिणु थिउ लंबंतहत्थु चिंतवइ अट्टझाणेण गत्थु । जइ अस्थि फलु वि तवतिञ्चकम्मि तो मारेसमि आगमियजम्भि । पाडेसमि मत्थइ तासु बज्जु बलि जेण महारउ जित्तु रज्जु । इय संभरंतु संणासणेण
मुउ जाय उ भूसिउ भूसणेण । लंतवि सुरु सुक्कियसोहमाणु चडेदहसमुइजीवियपमाणु। घत्ताणीसंगें' जिणवरलिंगे बलि देवत्त लहेप्पिणु ।।
असराले जंतें काले सुरणिलयाव चवेपिणु ||३|| पत्ता-न उसके पास अश्व-गज थे और न स्यन्दन-ध्वज । वह अकेला था । महान् गुरुओंके मना करनेपर भी उसका राज्यविलाससे पतन हो गया ||२||
RamnMAAN
दुर्दमनीय अहंकारके वशीभूत होकर जो देव और गुरुका कथन नहीं करते, संसारमें अपयशरूपी स्याहीसे मैले उन राजाओंका पतन हो जाता है। मायासे विनीत, विभ्रमको धारण करनेवाली शय्या और ताम्बूल लिये अत्यन्त शुभंकरी, घुटनों तक लटकती हुई साड़ीवालो दासीके द्वारा मनुष्य खा लिया जाये, यह अच्छा है, परन्तु क्षण-क्षणमें इस बराटिका ( कौड़ी ) के द्वारा नहीं। इस संसारमें जुएमें किसीको कुशलता नहीं है। वह सुकेतु निर्वस्त्र होकर चला गया। दिगम्बर तथा जिन्होंने ज्ञानसे समस्त वस्तुओं को देख लिया है, ऐसे सुदर्शन मुनिकी वन्दना कर तप ग्रहण कर, हाथ लम्बे कर बातध्यानसे ग्रस्त वह विचार करता है कि यदि तपके तीव्रकमका कुछ भी फल है तो मैं आगामी जन्ममें उस बलिको मारूंगा, उसके मस्तकपर वज्र गिराऊंगा, कि जिसने मेरा राज्य जीत लिया है। इस प्रकार स्मरण करता हुआ वह संन्याससे मर गया और भूषणोंसे अलंकृत तथा पुण्योंसे शोभमान वह लान्तव देव हुआ चौदह समुद्र पर्यन्त जीवनके प्रमाणवाला।
पत्ता--अनासंग जिनबर दीक्षासे देवत्व पाकर बलि भी प्रचुर समय बीतनेपर देवविमानसे च्युत होकर--॥३॥ ३. १. AP°गुरुजपिउं । २. P"पिडग्रियं । ३. P वरि । ४. A' मुमकु वत्थु । ५. AP बोस ।
६. AP पाणु । ७. F गोसम्रौ ।
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महाकवि पुष्पवन्त विरचित
४
सो ताई बिहिं मि दिग्गयणिणार सुब जायच मयरद्वय समाणु तिसयल महिणिज्जिय तेण कब तहि कालि गहीर समुदु महवि तासु णामें सुद पिढमइ जणिय पढमपुत्तु बीइ लव रिद्धिज ते बेणि वि धम्मसंयंभुणाम ते बेणि वि रामसुसामदेह ते वे वि सिद्धविनास मत्थ ते व विणिग्गय मलविलेव
दुबई -- इह भरहम्मि रयणपुरि णरवइ णामें समर केसरी ॥ fotoपावसंणिझुण घरिणी तस्स सुंदरी ॥ लक्खल कियदिव्वकाउ | माणं वग्गमि भाणु मिडिधारिणि घरदासि जेंव । दारावइपुरवरि राउ रुदु । अण्क्क पुहइ पुद्दइ व्व भद्द | अहमदु देव सो मंदिमित्तु । संजय गंदणु सो सुकेठ । ते बेणि विससिरविसरिसधाम । ते बेणि षि गरुणिबद्धणेह । ते वे वि दिव्वपहरणविद्दत्थ । सीरासुरः ।
ते
धत्ता - गुणवं वहिं तेहि सुपुत्तहिं दोहिं मि उचालियन कुलु || पतहिं यणि वहिं णं ससिसूरहिं महियलु || ४ ||
–५६ ५. २ ]
*
दुबई - बेणि वि ते महंत बलवंत महाजस घोयदसदिसा ॥ विमदगरुडवाहिणिव वे वि अतिसाहसा ||
४
२८५
५
१०
१५
इस भारत के रत्नपुर नगर में समरकेशरी नामका राजा हुआ। उसको वीणाके सुन्दर आलापके समान सुन्दर ध्वनिवाली सुन्दरो गृहिणी थी। वह (बलि) उन दोनोंका दिग्गजके समान निनादवाला लाखों लक्षणोंसे अंकित दिव्य शरीर, कामदेवके समान सुन्दर मधू नामका पुत्र हुआ मानो सूर्य उगा हो । तीन खण्ड धरतीको उसने इस प्रकार जीत लिया जैसे वह निषिघट धारण करनेवाली गृहदासी हो । उसो समय द्वारावती में गाम्भीर्य में समुद्र के समान रुद्र राजा हुआ । उसकी सुभद्रा नामकी महादेवी थी, एक और पृथ्वी देवी थी जो पृथ्वीकी तरह कल्याणी थी । वहाँ पहली से वह तदिमित्र अहमिन्द्र देव पहला पुत्र हुआ, दूसरीका वह सुकेतु ऋद्धिका हेतु लान्तवदेवसे च्युत होकर पुत्र हुआ। वे दोनों क्रमश: धर्म और स्वयम्भू नामबाले थे। वे दोनों हो चन्द्रमा और सूर्यके समान शरोरवाले थे। वे दोनों हो राम और श्यामके समान देहवाले थे । वे दोनों ही भारी स्नेहसे निबद्ध थे। वे दोनों ही सिद्धविद्या में समर्थ और दिव्यास्त्र प्रहारमें कुशल थे। वे दोनों ही मलविलेपसे विनिर्गत थे। वे दोनों ही बलभद्र और वासुदेव थे ।
पत्ता- उन दोनों गुणवान् सुपुत्रोंने कुलको उज्ज्वल कर दिया, मानो आकाशम जात हुए प्रभासे युक्त चन्द्र-सूर्यने धरतीतलको आलोकित कर दिया हो ॥४॥
५
ये दोनों ही महान् बलवान् महायशस्वी और दसों दिशाओंको घोनेवाले थे। दोनों ही गज ४. १, AP | २. AP सुभ । ३ लंडविच । ४. AP पवईत हि ।
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२८६
५
१०
५
महापुराण
जयसिरिरामाच ठिएण जणविभयभायुपाययेण अवलोइड चिंघचलंत मयरु पुच्छि से मंति मणु कासु सिमिक दुब्व सण विसेस कर्यंत एण रमणीय पैस पुराहि वेण भीएण देव परिहरिदि दप्पु मायंग तुरय मणि विश्व चीरु असिकरकिंकरर विखज्नमाणु
घत्ता -- विहसंतें भणिचं अनंतें म पेक्त
तामं वृत्त भो कुमार महुराउ भणहि महुघोट्ट काई भयवंत रेसर मिलि बहिय
घरसत्तमभूमि परिणि । ऐकहिं वासरि नारायणेण । पुरवादिति सा ates भूसणरुइरहिय तिमिल । तं णिसुणिवि वुत्तु महंतएण । मंडलियएं ससिसोमें णिवेण । मरणाहहु पेसियर कप्पु |
कडित्तयद्दारिहरु । ओच्छ पत्थु णिबद्धठाणु पालियेचाउण्णहु || जाइ कप्पु किं अण्णहु ||५॥
६
दुबई - जिम लंगलि गरिंदु जिम पुणु हउं पुद्दविहि अवरु को पहू || छिउ घिमि कुद्धकालामणि विक महू व सो महू ॥ किं गजस किर परतत्तियार |
[ ५६.५३
हा ण बियाणहि तुहुं तहु क्याई । महि जेण विखंड बलेश गहिय ।
और गरुड़ सेना के अधिपति थे । उन दोनोंका साहस अचिन्तनीय था। विजय श्रीरूपी रमणीके लिए उत्कण्डित घरकी सातवीं भूमिपर बैठे हुए, जिसे लोगों में विस्मयका भाव उत्पन्न करनेकी इच्छा हुई है, ऐसे नारायणने एक दिन नगरके बाहर जिसमें ध्वजसमूह हिल रहा है, ऐसा तम्बुओं का समूह देखा । उसने अपने मन्त्री से पूछा कि यह किसका शिविर है कि जो भूषणों की कान्तिसे अन्धकार रहित है। यह सुनकर दुर्व्यसन विशेष के लिए यमके समान मन्त्रीने कहा कि रमणीक प्रदेशके अधिपति शशिसोम नामक भयभीत मण्डलोक राजाने हे देव, दर्प छोड़कर मधु राजा के लिए 'कर' मेजा है। गज, तुरग, मणि, दिव्य वस्त्र, कंकण, कटिसूत्र और सुन्दर हार । जिनके हाथों में तलवारें हैं, ऐसे अनुचरोंके द्वारा रक्षित वह शिविर अपना स्थान बनाकर ठहरा हुआ है।
घत्ता - तब नारायणने हँसते हुए कहा - "चातुर्वर्ण्यंका पालन करनेवाले मेरे जीवित रहते और देखते हुए क्या किसी दूसरे के लिए कर जा रहा है ? ||५||
६
जिस प्रकार हलधर राजा है और जिस प्रकार में राजा है, उसी प्रकार पृथ्वीपर और कौन राजा है ? मैं निश्चय हो उस मधुको पके हुए मधुको तरह कुछ कालके मुखमें फेंक दूंगा ।" इसपर मन्त्री बोला - "दूसरोंकी तृप्ति करनेवाले है कुमार, आप क्यों गरजते हैं ? तुम राजा मधुको मधुका घूँट क्यों कहते हो ? अफसोस है आप उसके किये हुएको नहीं जानते ? उसने मदवाले सारे
५. १, AP एवम् वियहि । २. A सुमति । ३ AP रमणीयवेस । ४. A बाय ५. A परिवाि within the margin,
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महाकवि पुष्पदन्त विरचित
-५६. ७.९ ]
निनिय विवाहर जक्ख जेण तं निणिचि णोलणियासमेन मह भाइहि रणि देव वि अदेव पुरिसंतरु ण मुहि णिविवेय रणिहणि जिविससिसोममंति संधिवि संधिवि णं विझति । सोबहार बरबसह सरह । घत्ता - आहरणई पसरियकिरण कण्ड्डु अग्गर घित्तई ॥ पडित्तई वणविचित्तई णं रिउअंतरं पित्तई ||६||
आणि मायंग तुरंग करह
७
वेंत
दुबई -- सतिसोमे देवजं पेखि हि तुझ दन्यु इणिसुणवि चरत्रयणात वयगु पवित्र नओहरु गड तुरंतु किं भगव वसुमरणाहमाणु किं खलिड गयfण दिणयरु भमंतु हा दे विबुद्धि धगधगधगंतु कि तोडि केसरिकेसरग्गु . आभा परिहरहि दो
आवि को जुज्झइ समउं तेण । पविणु दिष्णु संकरिसणेण । तु वह अरिव मध्प केंद्र । ता पेसिय किंकर उगतेय |
बेल्हा ॥ रुद्द सुरण राहणा || किरा मुहु रत्ततैयणु । धरणीतणय वज्जर संतु । किं हित्तु हे आगच्छमाणु । आमंति किं मुक्खिस कयंतु । उम्मलिहि अंगार्लरणिहित्तु । किं मआिण पसरु भग्गु । वह ससामिहि सव्यु कोसु ।
२८७
राजाओं को समाप्त कर दिया, और जिसने बलपूर्वक तोन खण्ड धरती जीत ली है, उससे युद्ध में कौन लड़ सकता है ?" यह सुनकर नोलवस्त्रोंवाले बलभद्रने उत्तर दिया- "मेरे भाईके लिए युद्धमें देव भी अदेव है । हे सुभट, तुम शत्रुवरका किस प्रकार वर्णन करते हो । ऐ निर्विचार, तुम पुरुषान्तरको मत गिन्दो ।" तब उम्र तेजवाले अनुचर भेज दिये गये । रणमें शशिसोम मन्त्रीको मारकर जीतकर विन्ध्यदन्तिकी तरह रौंधकर और बांधकर हाथी, घोड़े, सुरंग, ऊँट, स्वर्णहार, 8 वृषभ और सरभ ले आये गये ।
の
१०
धत्ता - जिनकी किरणें प्रसारित हो रही हैं ऐसे आभरणों को कृष्ण के आगे डाल दिया गया, जो मानो रंगोंसे विचित्र शत्रुके नेत्र, या उसकी आतें या पित्त हों ॥६॥
६. १. A गोलणिवासणेण; P पोलनियंसणेण । २. A सोवष्णभार ।
७. १. AP खलु दुक्ख । २. AP आएं। ३. रत्तणयणु । ४. A इंगाल ।
"शशिसोमने जो कुछ भेजा था आता हुआ वह सब तुम्हारा ब्ररुप हे देव, खलोंको दुःख देनेवाले रुद्रपुत्र राजा (स्वयंभूने ) छोन लिया ।" इस प्रकार दूतके मुखसे वचन सुनकर राजा (मधु ) ने मुख और आंखें लाल कर लीं। उसने दूत भेजा। वह तुरन्त गया। और पृथ्वीदेवी के पुत्रसे वह मन्त्रको बात कहता है, "तुमने धरती के स्वामोके मानको भंग क्यों किया ? आते हुए धनको तुमने क्यों छीना ? आकाश में भ्रमण करते हुए दिनकरको स्खलित क्यों किया ? तुमने भूखे कृतान्तको आमन्त्रित क्यों किया? हे निर्बुद्धि, तूने धकषक जलते हुए अंगारे को कटिवस्त्र में क्यों रख लिया ? तुमने सिंहके अयालके अग्रभागको क्यों तोड़ा ? तुमने राजाकी आशा के प्रसारको
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१८८
१०
महापुराण
[५६. ८. १०ता चवइ उविदुप्पण्णरोसु दक्खालमि तद् असिवर विकोसु । जइ लोहिल णस पायमि पिसाय तो छित्ता लइ मई धम्मपाय ! का दूयहु मुहे गीसारय पाय जिह जंपइ तिह को धिवइ धाय । घत्ता-कहजोग्गइ महिलहुं अमगइ सयलु वि गजइ णिययघरि ।
जससंगहि जीविणिग्गहि विरल पहरइ संगरि ॥७)
दुबई-एम्न चवंतु दूल गज रायहु कहिया तेण वइयरी ।।
देव ण देइ कप्पु वसुहासुट गलगज्जइ भयंकरो ।। ता वासुपचस्स
पडिवासुएक्स्स। दुंदुहिणिणायाई रणभूमिआयाई। संणाबद्धाई
गिद्दयई कुद्धाई। सेण्णाई जुझंति वीरेहिं रुझंति। खग्गेहि छिजति कौतेहि भिजति । वम्माइं लुम्मति रत्तेण तिम्मति । चम्माई फुटृति अट्टियई तु ति । चूदाई विडंति मंडलिय णिवति । अंतेहिं गुप्पंति
खेयर समापति । वढंससमरट्टि
गयतसंघटि। गरुलेस महुराय उक्खिर णाराय।
चिरवइरियालग्ग धणुधेयकयमग्ग। क्यों रोका? युदभावके दोषको छोड़ो, अपने स्वामीके सब धनको भेज दो।" तब उत्पन्न रोष नारायण कहता है-"मैं उसे कोश ( म्यान ) रहित तलवार दिखाऊंगा, यदि मैंने उस लोभी पिशाचका पतन नहीं किया, तो लो मैंने बलभद्र धर्मके पैर छुए ?" इसपर दूतके मुखसे यह बात निकली कि जिस प्रकार कोई बात करता है, उस प्रकार वह आघात कहीं दे पाता है ?
पत्ता-कथाके योगमें { प्रसंगमें ) अपने घरमें महिलाओं के आगे सभी गरजते हैं। लेकिन जिसमें यशका संग्रह और जीवनका निग्रह है, ऐसे युद्ध में विरला ही प्रहार कर पाता है |
mmamarimmmmmm
इस प्रकार कहता हुआ दूत चला गया। उसने सारा वृत्तान्त राजासे कहा कि हे देव, वह कर नहीं देता । पृथ्वीरानीका बेटा भयंकर गरज रहा है । तब वासुदेव और प्रतिवासुदेवकी सेनाएँ बामने-सामने आ गयीं। उनमें नगाड़ोंको ध्वनि हो रही थी, दोनों युद्धभूमिमें उपस्थित थीं, अवचोंसे सन्नद्ध थी, निर्दय और क्रुद्ध थीं। सेनाएं लड़ती हैं, वोरोंके द्वारा अवरुद्ध कर लो जाती हैं, खड्गोंसे खण्डित होती हैं, भालोंसे भिदती हैं, कवच लुप्त होते हैं, रक्तसे आर्द्र होते हैं, चर्म फूटता है, हड्डियां टूटती है, व्यूह विघटित होते हैं, मण्डलाकार सेनाएँ गिरती है, मौतोंसे उलझते हैं, विद्याधर समर्पण करते हैं । जिसमें गजदन्तोंका संघटन है, ऐसे उस बढ़ते हुए समरमें, जो ८. १. AP तुटृति । R. AP फुटुंति ।
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महाकवि पुष्पदन्त विरचित पंचाससरहेहि
मायंगसीहेहि। फणिपविखरापहि
मेहेहि. वारहिं । पहरंति ते थे वि ता च करि लेवि।
महणा पजंपियां किं दक्षिणु महुँ हिय। पत्ता--कि धम्मै गयभउम्में जो पहरणु णायेक्खइ॥
मई कुद्ध जयसिरिलुद्धइ एमहिं को पई रक्खइ दा
दुवई-ता दामोदरेण रिट दुछित धम्मपहाणुओरिणा ॥
एण रहंगरण दारेवडं तुहुँ मई कित्तिकारिणा । वं मुणिवि
भुय धुणिधि । मणहरिहि
सुंदरहि। विसयण
कयवयण-। विणुएण
तणुएण । खयकरणु
रहधरणु । रणि मुकु
खणि दुछ। णहि चलिखें
जैलजलिउं। समिया
करि था। अहिणबहु
केसवहु। तं धरिवि
छलु भरिवि। दीहरेण
मच्छरेण । विफुरिवि
हुंकरिवि । माहवेण
घणरण। अरिभणिउं।
तणु गणि
चिरकालीन वैरसे लिप्त है, और जिन्होंने धनुर्वेदमें प्रवृत्ति प्राप्त की है, ऐसे गरुडेश और मधुराजने तीर फेंके । सिंह-सरभ तीरों, गन-सिंह तीरों, नाग- तोरों और मेघ वायु तीरोंसे वे दोनों प्रहार करते हैं। इतने में चक्र हाथमें लेकर मधु बोला-तुमने मेरे धनका अपहरण क्यों किया ?
धत्ता-जो अस्त्रको नहीं देखता, उस धर्म और गजयोद्धा कमसे क्या ? यशरूपी श्रीके लोभी मेरे कुछ होनेपर इस समय कौन तुम्हारी रक्षा करता है ? ||८||
तब दामोदरने दुश्मनको फटकारा कि धर्मपथका अनुकरण करनेवाले और कोतिकारी इस चक्रसे मैं तुम्हें मारूगा ? यह सुनकर, अपनी भुजाएं ठोककर, मनहरी–सुन्दरीके पुत्र, विद्वज्जनों द्वारा शब्दोंसे संस्तुत मधुने विनाश करनेवाला चक्र छोड़ा। यह एक क्षणमें पहुँचा। आकाशमें चला चमकता हुआ। शान्त सूर्यकी तरह अभिनव केशवके हाथमें स्थित हो गया। उसे धारण कर, साहस कर, भारो मत्सरके साथ विस्फुरित होकर, हुंकार कर, मेषके समान शब्दवाले माधव ९. १. दामोयरेण । २. P°पहाणुरायणा । ३. A जले जालित ।
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माताराण
रे पाव
करि सेव।
छलु मुइवि।
पई कालु
दाढालु। सेवंतु
घोरंतु। हर्स विड
अटुषित। कंडुइवि ओसरहि
मा माहि। घणघण
काणणा। पइसरिवि
जिणु सरिवि । वैट धरहि
तब करहि। तापवर
पकवान सुरकर
दालिद । डिंभस्स
छुहियस्स। को कहूँ
आणंदु। मणि जणा
दिहि कुण। सयडंगु
तुहं तुंगु।
मुपर्दछ। सकयस्थ
दिव्यत्य। मरहणमि
सिरु लुणमि। घत्ता-ता चः महुमहमु महुवच्छत्थलु छिण्ण ।।
करतंचे णे रविबिंब काल अन्भु विहिण्णउं ।
मई चंई
दुवई-पत्रउ म मरिवि समरंगणि तमतमोमवसुमई ।।
___ जायउ अवचकि लच्छीहले मुवणि सयंभु महिवई ।। स्वयम्भूने उच्चे तिनका समझा, और दुश्मनसे कहा-रे पापो, दुःखका हरण करनेवाले बलभद्रकी सेवा कर। दाहोंवाले घोर फालकी सेवा करते हुए तुमपर वह कुल हो उठे हैं, अतः छल छोड़. कर और सन्तुष्ट होकर हट जाओ-मरो मत । सघन वनमें प्रवेश कर जिनकी शरणमें व्रत धारण करो और तप करो। तर चक्रवर्ती कहता है-हे भयंकर कंगाल ! क्या चन्द्रमा भूखे बालकको • मनमें मानन्द देता है ? धीरज उत्पन्न करता है? तुम्हारा ऊंचा चक्र है, मेरा प्रचण्ड भुजदण्ड है, कृतार्थ और दिव्यार्थवाला । मगर, मैं मारता हूँ, सिर काटता हूँ।
__ पत्ता-नारायणके द्वारा मुक्त चक्रने मधुका वक्षःस्थल इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर दिया मानो बारक्त किरणोंवाले सूर्यबिम्बने काले बादलको छिन्न-भिन्न कर दिया हो ॥९॥
समरांगणमें मृत्युको प्राप्त कर तमतमप्रभा नामको नरकभूमिमें पहुँचा। तथा राजा स्वयम्भू ४. AP पिठ । ५. A कंडएवि । १. APTE | ७, कुंदु । ८, A मंड। ९. A दं। १०.१. Pणाभि । २. P लच्छीहल ।
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-५६.१०.१५]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित जलकोलइ वणकीलाइ रमंतु अंगाई कुसुमसयण धिवतु ।। भंडारषत्थुसारई णियंत
मायंगतुरंगसमानहंतु। घवघवघवंतु चलणेवराई मार्णतु पारुअंतेउराई। आसतु कामि गं अमर गंधि मुख हुन अंतिमणरयंतरंधि । णिक्सेप्पिणु पुईजणगिगन्मि हा हा सईभु पहिओ सि सुम्भि । सम्मत्तति मिच्छत्तविरह मई मायरम्मि जिणधम्मणिरह । बुद्धो सि ण कम्महु अस्थि मल्लु किं बद्ध आसि णियाणसह । इय एव धम्मु बिरपवि सोस गंदण समप्पिवि सिरिषिहोउ । भारपिछवि परियण सर्यणु लोस दुजोस व मेशिवि दिवभोट । पणवेवि विमलवाहणु जिणिंदु बहुरायहिं सहुँ हुयश्च मुणिंदु । पावेप्पिणु करणविहीणणाणु भन्यणि णिजिर्षि धम्मदाणु । पत्ता-भरहेसह पढमणरेस: जिह सिंह धम्मु वि ददभुत ॥
गस मोक्साहु सासयसोक्खहु पुष्पदंतगणसंथुर ॥१॥
उप महापुराणे विसद्विमहापुरिसाणाकारे महाकापुप्फयंतविरहप महामवरणमिणए महारो भागमाकांवर
काम छप्पनासमो परिच्छे पो समत्तो ॥१५॥
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विश्वमें लक्ष्मीको धारण करनेवाला अर्षचक्रवर्ती हो गया। जलकोड़ा और बनकोड़ामें रमण करते हए, कुसुमोंके शयनतलोंपर अंगोंका निक्षेप करते हुए, भाण्डारकी श्रेष्ठ वस्तुएं देखते हुए, हाथियों और घोड़ोंपर चढ़ते हुए, चंचल नूपुरोंको छम-छम बजाते हुए, सुन्दर अन्तःपुरोंको मानते हुए वह काममें उसी प्रकार भासक्त हो गया मानो गन्धमें भ्रमर हो । मरकर वह अन्तिम नरकमें उत्पन्न हुवा। माता पृथ्वीके गर्भ में रहकर हाहा, स्वयम्भू श्वभ्र नरकमें गया। मेरे भाई, सम्यकदृष्टि, मिथ्यात्वसे विरत और जिनधर्ममें निरत होते हुए भी मैंने जान लिया कि कर्मस शक्तिशाली कोई नहीं है। उसने निदान शल्य क्यों बाषा था? इस प्रकार धर्म बल भद्रः शोक कर तथा अपने पत्र को प्रीविभोग समर्पित कर, स्वजन और परिजनोंसे पूछकर, खोटे ग्रहों की तरह दिव्यभोगको छोड़कर, विमलवाहन जिनेन्द्रको प्रणाम कर अनेक राजाओंके साथ वह मुमि हो गया । और इन्द्रियोंसे विहीन सान पाकर, भव्यजनोंमें धर्मदानका प्रयोग कर
पत्ता-जिस प्रकार प्रयम नरेश्वर भरतेश्वर उसी प्रकार दृढभुज धर्म बलभद भी नक्षत्रगम द्वारा संस्तुस पाश्वत सुखवाले मोक्षके लिए गया ॥१०॥
इस प्रकार सठ महापुरुषोंकि गुणाकारोंसे पुक महापुराणमें महाकषि पुष्पदम्त द्वारा रचित पूर्व महामन मरस हारा मनुमन महाकाम्पमें धर्म-स्वयम्भू-मधु
कमान्तर नामका एप्पनाँ परिच्छेद समाप्त हुभा ॥५६॥
२. A°वंतपल । ४. AP सराई । ५. AP माणंतु सुहयते । १. AP सयल । ७. A भव्ययण । ८. AP Regiaनि १. पुष्पर्यत । १०. A महुमहकहतर।
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संधि ५७
पुणु भाइ गोत्तम सेणियहु दुद्धर दुक्ख किलेस मह || सिरिबिमलणाहजिणगणहरई मंदर मेरुहुं तणिय कह ॥ध्रुवकं ।
जंबूदीवs अरविदेहव मंदचूयव विविणिचार देसुगंधमा लिपि जाणिजइ भमरहिं वियलंत महु पिज्जइ जहिं माहिसु सरसलिल अंतरि अहिणवपलव बेलीभवणइ गंधसालिपरिमल दिस वासइ निवि छेत्तवालिणि मुख जहिं कूरकरंब
दहि
मानव मिहुयषड् दियणेहइ । सीओ यात्ततीरs | गाइ कंगुणि जहि चिजइ । पक्खिहि कलरवु जाई विरहज्जइ । हाइपरपंकयरयपिंजरि । गोव सुबंति पुष्कपत्थरणइ । पूस कं धुणंतु जहिं वासइ । जहिं पंथिय चवंति सरसुाउं । पवई पवहि जिम्मइ अंयंत्र ।
पता - तहिं देसि रवण्णु सुवण्णमउ णविलग्ग मंदिर सिहरू ॥ परिहापायारहिं परियरिक्ष वीयसोत णामें जयरु || १ ||
५
१०
सन्धि ५७
पुन: श्री गौतम, श्रेणिकसे श्री विमलनाथ जिनके गणधरों- - मन्दर और मेरुकी दुर्धर दुखोंको नष्ट करनेवाली कथा कहते हैं ।
१
जम्बूद्वीप में जहाँ मानव जोड़ोंका स्नेह बढ़ रहा है, जहाँ मन्द आम्र चव दिचिणी और चारके वृक्ष हैं, ऐसे अपरविदेहमें सीता नदीके उत्तर तटपर गन्धमालिनी देश जाना जाता है । जहाँ गायोंके द्वारा कंग और कणिश ( अनाज ) खाया जाता है । भ्रमरोंके द्वारा झरता हुआ मद पिया जाता है, और पक्षियोंके द्वारा कलरव किया जाता है। जहाँ महिषगण प्रचुर पंकजरजसे विजरित सरोवरोंके जल में नहाता है। अभिनव पल्लव और लताओंके भवनों में ग्वाले पुष्पशय्याओंपर सोते हैं । गन्धसे श्रेष्ठ पराग जहाँ दसों दिशाओंको सुवासित करता है। जहाँ सुआ 'के' शब्द कहता हुआ निवास करता है। जहाँ क्षेत्रकी रक्षा करनेवाली कृषक बालिकाओंके मुख देखकर पथिक मधुर और सरप गीत गान करते हैं । जहाँ भातसे मिला हुआ अत्यन्त खट्टा दही प्रत्येक प्याऊ पर खाया जाता है !
घत्ता — उस देश में सुन्दर स्वर्णमय मन्दिर शिखरोंसे आकाशको छूनेवाला तथा परिक्षाओं और प्राकारोंसे घिरा हुआ वीतशोक नामका नगर है ॥१॥
१. १. AP चुयचविं । २. A गंधुमणि । ३. A पूसउ कण चुर्णतुः P पूस कणु तु ।
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महाकवि पुष्पवन्त विरचित
२
रायमहारसि सुकवियारव जाइ जणि साधण्णी णिव सह गेद्दिणि भव्य सव्वसिरिणामें संजयंतु अणेक जयंत सारस मिणसरालवणंतरि ए दिणि दक्खवियरहंतहु धम्मु अहिंसा तु सुणेपिणु जयंतभासनिपु तेतिवि वेिषं लइय आमेलिषणियसुल लियजाया इय तव विहिहि णिति किर के बलु
सो सुयणायाणाय विचारत । ras वइजयंतु तर्हि णिवसह । सुय उप्पण्णा सुपरिणामें । अणि जसलिय तिजेयत्तड । णासियसोय असोयवणंतरि । पयजुषं दिवि अरहंतहु । मुणिग्गथैवेपिशु । संत महि देषिणु । लिदिवि मोहलोहदुइ ।
पिड पुत्तय तिणि मि रिसि जाया aoda aurors afs केवलु ।
-
घात आय देवहु फणिवरहि रूकु णिहालिवि हिययहरु || ज्झिाय लुद्ध जयंतु मुणि जइ फलु देसइ सुतबतक ||२|
-५७. ३.३ ]
तो मन् वि एहउँ लाएणडं
एव नियाणणिचं घेणबंध मुख जयंतु संपत्त कालइ
होज्जड भवि सोहग्गाइ
जणु तिहिं सलाह सलु विखद्धट । जायद विसरिंदु पायालाइ |
२
उसमें विकारोंसे मुक्त, राजाओं में प्रधान, शास्त्र तथा न्याय-अन्यायका विचार करनेवाला राजा वैजयन्त निवास करता है। जिस सतीने उसे जन्म दिया, वह धन्य है । उसकी भव्य सर्वश्री नामकी गृहिणी थी। शुभ परिणामसे उसके दो पुत्र उत्पन्न हुए, संजयन्त और जयन्त, जो अपने अनाहत यशसे तीनों लोकोंको धवलित करनेवाले थे । एक दिन जिसमें सारस दम्पतिका शब्दरूपी जल है, ऐसे अशोक वनमें, अन्तरायका अन्त दिखानेवाले अरहन्तके, शोकको नष्ट करनेवाले पदयुगलकी वन्दना कर, अहिंसामय धर्मं सुनकर अपने हृदयको मुनिमार्ग में लगाकर, संजयन्तके यत्र वैजयन्तको बुलाकर उसे धरती देकर वे तीनों (पिता वैजयन्त, संजयन्त और जयन्त ) वैराग्यको प्राप्त हुए। मोह-लोभरूपी दुर्लताको काटनेके लिए अपनी सुन्दर परिनयाँ छोड़कर पिता और दोनों पुत्र तीनों ही मुनि हो गये। कितने लोग ऐसे हैं कि जो तपके द्वारा बलको प्राप्त होते हैं। वहीं पिताको केवलज्ञान प्राप्त हो गया ।
२.१.AP विजयं । २. A जिणमग्नि । ३. सुणेपिणु सुष्ठु नोवा ।
५. A बहं ।
०
३. १. AP
२९३
घत्ता- वहाँ आये हुए देव, नागराजका सुन्दर रूप देखकर लोभी जयन्त मुनि अपने मनमें विचार करता है कि ( उसका ) सुतपरूपी वृक्ष यदि फल देता है - ॥२॥
३
तो वह आगामी जन्ममें मेरा सौभाग्यसे व्याप्त ऐसा लावण्य हो। इस प्रकार निदानके बन्धनसे बँधा हुआ मनुष्य तीनों शल्योंसे विनाशको प्राप्त होता है। समय
पूरा होनेपर जयन्त
४. AP दुरुलिय
|
१०
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२९४
महापुराण जेण वएण मोक्खु पाविना ते संसार केंच मग्गिजइ। मोहें मोहित लोन ण याणा काणणि कार्याणतिय वीणा । सवाल किं मोत्ति बुझाइ मिच्छाइद्विहि दिट्ठि ण सुन्नइ । आहिंडतेसरहपंचाणणि
तावेकहि दिणि भीसणकाणणि । णिज्जियराएं वन्जियकाएं संजयंतु थिट पडिमाजोएं। पत्ता-मुणिमारस धीरउ दुइरिसु दूसहु गुणसणिहियसरु ।
णियभामइ सामहरामियउ णं रइराम कुसुमसरु ॥३॥
णायलि विजदादु विजाहरु विहरइ असिवर वसुणंदयकर । सुरहरू रिसिहि उपरि ण पयट्टइ। दुजणमणु वर्ग जाव विसदृ । ताव तेण अवलोइउं माहियलु दिटु मुणिवरु मेरु व णिषलु । सुमरिवि पुज्यवइस मुइ ढोइल विजासामत्थेणुचाइन। आणि तुंगसाहिसंधायद भारहवरिसंपुष्वदिसिभाया । हरिव करिव चामीयरवह कुसुमव वि चंडवा।। एयर मिलियट जहिं तहिं पेलिउ पंचमहासरिसंगमि घल्लिर । देसु असेसु तेण संचालिस अच्छद पत्थु एक्कु मलमलित।
जग्गड णिग्घिणु वसणोवायउ तुम्हई रक्खसु भक्खहुं आयत । मरकर पाताल लोको विषधरराज होता है । जिस व्रतसे मोक्ष पाया जा सकता है, उससे संसार क्यों मांगा जाता है ? इस बातको मोहसे मोहित जन नहीं जानता। जंगलमें भील गुंजाकी प्रार्थना करता है, क्या वह मोतीको समझता है? मिथ्यादष्टिके लिए दुष्टि नहीं दिखाई देती। जिसमें सरभ और सिंह भ्रमण करते हैं, ऐसे भयंकर जंगल में एक दिन, जिसमें रागको जीत लिया गया है और शरीरका त्याग कर दिया गया है ऐसे प्रतिमायोगमें संजयन्त मुनि स्थित थे।
पत्ता-मुनिको मारनेवाला धीर, दुदर्शनीय, असत्य डोरोपर तीर चढ़ाये हुए, अपनी पत्नी श्यामासे इस प्रकार रमण करता हुवा मानो काम रतिके साथ रमण कर रहा हो ।।३।।
जिसके हाथमें वसुनन्दक नामकी श्रेष्ठ तलवार है, ऐसा विद्युदंष्ट्र विद्याधर आकाशतलमें बिहार कर रहा था। उसका देव-विमान मुनिके ऊपर नहीं आ सका। दुर्जनके मनकी तरह जबतक उनका विमान विषटित नहीं हमा, तबतक उसने धरतोतलको देखा, उसने मेरुके समान, मुनिवरको अपल देखा । अपने पूर्व बेरको याद कर उसने विद्याको सामय॑से उसे उठा लिया तथा बाहोंपर धारण कर लिया और उसे. जो ऊँचे-ऊंचे वृक्षोंसे आच्छादित है, भारतवर्ष के ऐसे पूर्वदिशा भागमें जहां हरिवती, करीवतो, चामीकरवती, कुसुमवतो और चण्डवेगा नदियां मिलती हैं, वहीं फेंक दिया और इस प्रकार पांच महानदियोंके संगमपर डाल दिया तथा अशेष देशमें यह धात फैला दी कि यहाँ एक मलसे मैला निर्दय दुःखजनक नंगा राक्षस तुम लोगोंको खानेके लिए
२. A कायाणगिय । ३. A मिछाहिहिहि । ४. P बाहिति सरह । ४. १.A विज्दाछु । २. AP जाय ण । ३. A परिसिं पुरुच । ४. A कुसुमबई व पाण; Pकुसुमवार विघानियागइ । ५. A जहि एयर मिलियन वहि पेल्लिन । ६. AP एक्कु एत्थु ।
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महाकवि पुष्पवन्त विरचित
- १७.५,११]
तुम्ह
बुद्धि विवरष्ट
ता मर्याहिं मुजिंदु कयरोसहि
कुह जइ मंतु महारउ । ता िवलहि दंडर्स हा सहि ।
साहु भीम उवसग्गु सप्पिणु गड तहिं हं गए पुणरवि पावक माणिक ताई मि जणु पहरणु किं धार स देवहिं भवभावणिसुंभह आर सो जयंत बरेजंगष्ट फुकाडावियण चंदे मानवणिवहु णिबद्धर णायि अबहिं तु द वियारहि चक्खयखग्र्गे मच्छरगाढ़ परिणयहिं सहूं थरहरिय
ता-थिरु सत्तु मितु समभावि थिउ सुझाणसंरुद्धमणु ॥ सो खबर " खवयसेहिहि षडिउ तिणु वि ण मण्ण निययतणु || ४ ||
२९५
१०
५
ति कलेवर णिबंधु मेल्लेष्पिणुं । मुणिवरील तिअगि को पावइ । सेनापति ण कोड़ें। जडु अणु अप्पाणखं मारइ । तहिं ठिकाणपुरपारंभइ । पेच्छिषि चिरबंधुहि पढियंग । रूपिणु खणि धरणिंदें । fefits णीससंतु कसचायहिं । अम्हई काई भडारा मारहि । एवं सog बिलसिवं तडिदाढें । ताणासंतु सत्तु सो धरियर |
१०
आया है | यदि तुम हमारी बात मानते हो तो दुर्मुख, दुष्टबुद्धि, विपरीत इसे मार डालो | तब क्रोध करते हुए मनुष्योंने उन मुनीन्द्रको पत्थरों और हजारों बण्टोंसे ताड़ित किया ।
सा- वह मुनि शत्रु-मित्रमें समभाव रखकर स्थित हो गये । शुक्लध्यान में उन्होंने अपना मन संरुद्ध कर लिया। उस क्षपणक ( मुनि) ने क्षपणक श्रेणीपर चढ़कर अपने शरीरको तिनकेके भी बराबर नहीं समझा ॥४॥
५
वह महासाधु उपसर्गेको सहनकर, तीन शरीरके निबन्धनको छोड़कर वहाँ चले गये, जहाँ जीव फिर लौटकर नहीं आता। तीनों लोकोंमें मुनिवरकी लीलाको कौन पा सकता है ? शत्रुसमूहके द्वारा मारे जाते हुए भी जो कभी भी कोधके द्वारा अभिभूत नहीं होते ऐसे मुनियोंके ऊपर जन हथियार क्यों उठाता है ? वह मूर्ख अपनेसे अपनेको मारता है । वहाँ देवोंके साथ संसारके भावका नाश करनेवाली निर्वाणपूजा प्रारम्भ की गयी। वह जयन्त धरणेन्द्र भी व माया | अपने चिर शरीरको पड़ा हुआ देखकर, फूत्कारसे जिसने आकाशके चन्द्रमाको उड़ा दिया है, ऐसे धरणेन्द्रने एक क्षणमें क्रुद्ध होकर नागोंसे मानव समूहको बांध लिया और श्वास ऐसे हुए उन्हें कशाघातोंसे मार डाला। दूसरोंने कहा- हे धरणेन्द्र, विचार करिये। हे आवरणीय, आप हमें क्यों मारते हैं? जिसने तलवार उठा रखी है तथा जिसमें प्रगाढ़ मत्सर है, ऐसे विद्युष्ट्र ने यह सब चेष्टा की है।" लब परिजनों और स्वजनों के साथ थर-थर काँपते और भागते हुए शत्रुको उसने पकड़ लिया ।
७. PAAP थिउ । १०. AP खयगसे विहि ।
५. १ A मपि । २. AP जसो गड पुणु णाव । ३. A मोहें । ४. AP बम्यानं अप्पु ५, AP उरजंग | ६. A वणि हव ।
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२९६
५
ܐ
पत्ता - f आइच्य पहा
महापुराण
fees समुद्दजलि ता फणिवर दुम्मिय डियर ।। सुरवरिण करुर्ण करेपिणु पत्थियल ||५||
६
नायराय पहएं किं आएं मुइमुइ किं फिर कलुस सहार्वे एत्थु ण को विबंधु उ वरिष्ठ जेण सुसीलवंतु संताषिउ किर मुणि तवदुखि तणु तावइ इहु हिंसइइ धम्म पयट्टर तं णिसुविसु मेल्लेप्पि दारणमारणविहिविच्छिण्णउं
लज्जिज्जइहिएण वराएं । पावयम्मु सई खज्जड पावें । पिसुणु ण होइ एहु अक्यारित । मोक्खु तुहार भारु पाचिउ ।
[ ५७.५.१२
किउ तं त शिरु भावई । चजम्मंरु दोहं वि वट्ट । aas अहीसरु सिरु बिरुणेष्पिणु । भणु हि बिर्हि मि हरु संपेपण ।
पत्ता- तणिसुनिषि दरंदरसिदसदिसिइ जंगु धवल करइ । कह देवदिवायराहु फणिहि बहुरस भावहिं वज्जरइ ||६||
७
सीह से सीउर महीवइ । रामयेत्तत देवि सलखण |
मारहगोत्तखेत्तरखणव इ सयलका विष्णाणवियक्खण
बत्ता --- हाथ बाँधकर धरणेन्द्र पोड़ित हृदय उस विद्याधरको जबतक समुद्रजलमें फेंके, तबतक आदित्यप्रभ नामक सुरवरने करुणा करके उससे प्रार्थना की ॥५॥
६
" हे नागराज, इसको मारनेसे क्या ? इस बेचारेको मारनेसे आपको लज्जा आनी चाहिए। इसे छोड़ो, कलुषित परिणामसे क्या ? वह पापकर्मा स्वयं अपने पावसे खाया जायेगा। इस संसार में न तो कोई भाई है और न कोई शत्रु । फिर यह दुष्ट नहीं है । यह उपकारी है कि जिसने सुशीलवन्तको सताया और उससे तुम्हारा भाई मोक्ष पा गया ? मुनि तपके दुःखसे अपने शरीरको स्वयं तपाते हैं, यदि कोई दूसरा दुःख पहुँचाता है तो वह उन्हें अच्छा लगता है। यह हिंसा करता है और यह (मुनि) धर्ममें प्रवर्तन करता है। लेकिन देहत्याग द्वारा जन्मान्तर दोनोंका होता है।" यह सुनकर और क्रोध छोड़कर नागराज सिर हिलाकर कहता है-छेदन, मारण और भाग्यसे विछोह करानेवाला यह वैर दोनोंमें किस प्रकार हुआ ।
पत्ता - यह सुनकर अपने दाँतोंकी दोशिसे वह जगको धवल करते हैं और आदित्यप्रभ देवकी कथा अनेक रसभावसे नागराजको बताते है ||६||
67
सिंहपुर में भरतके गोत्र और क्षेत्रका रक्षणपति राजा सिहसेन था। उसकी समस्त कलाओं
७. AP बाइच्चपहा हे। ८. करुणु करण P
1
६. १. P चज त देहविषदृद्द । २. A उप्पण्णवं 1 ३ AP दरवरिमिय । ४. A देवदिवायक तहो;
P देउ दिवायरा |
७. १. AP भारहखेति खेत्तं । २. A रामदत्त ।
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-५७.८.६]
महाकषि पुष्पदन्त विरचित पदमु मंति सिरिभूइ विणीयर सैन घोसु अवरु वि तहिं बीयउ । विहसियसरलसरोरुहणेत्तष पउमसंडपुरि सेटि सुदत्तउ । तहु गेहि णिहि सुमित्तहि हयड भद्दमित्त सिसु णिरुवमरूबर । हिंडते जाएण जुवाणे
देसंतक लंधिवि पहरीण। तेण किरणसंताणसिणिद्ध रयणदीवि वररयणई लद्धई। देसिएण सीहरि वसंते
सुद्धसहावे बहुगुणवंतें। तकरभीएं रुइविच्छिण्णई सञ्चघोस मंतिहि करि दिण्णइं । पत्ता-पाउ अपपणु पुणरवि णियघरहु लेवि सहायसमागयउ ।।
जा मग्गइ रयणई णिहियाई ताव लुद्ध लोहें हयउ ।।७।।
पर
देण संति तासु पियरयणई वाणवर घरि धार फुडु पुकार - पुच्छिउ रोएं कालउ तंबर दीणु स्यंत णि जि दीसद घोसहि सञ्चयोस किं जुत्त हर वि तुहं वि जइ चोर णिसत्तउ
णाई विरत्तउ विडयणु णयणई। खलु लन्छीमपण अवहेरइ । हित्तउ काई वत्युणिउबर । पई दूसइ अण्णाउ परोसइ । ता विहसेप्पिणु बिप्पे चुत्तई। जणणि गिलाइ जइ डिभर सुत्तर ।
और विज्ञानोंमें विलक्षण और अच्छे लक्षणोंवाली रामदत्ता नाम की देवी थी । उसका प्रथम मन्त्री विनीत श्रीभूति था और दूसरा सत्यघोष था। सरल कमलसमूहका उपहास करनेवाले नेत्रोंवाला सुदत्त पद्मखण्ड पुरीका सेठ था। उसकी गृहिणी सुमित्रासे अनुपम रूपवाला भद्रमित्र नामक बालक हुआ। युवक होनेपर घूमते हुए देशान्तरको लांघकर पथ से थके हुए उसने रत्नदीपमें किरणपरम्परासे स्निग्ध उत्तम रत्न प्राप्त किये। सिंहपुरमें निवास करते हुए दूसरे देशसे आये हुए गुणवान् और शुद्ध स्वभाववाले उसने चोरोंके भयसे कान्तिसे चमकते हुए वे रत्न सत्यघोष मन्त्रीके हाथमें दे दिये।
पत्ता-वह स्वयं चला गया और अपने घरसे सहायक लेकर आ गया। और अबतक वह रखे हुए रत्नोंकी याचना करता है तबतक वह लोभी सत्यघोष लोभसे आहत हो गया ॥७
__ मन्त्री उसके प्रिय रत्नोंको नहीं देता, जैसे विरक्त विटजन अपने नेत्र नहीं देता। यह वणिकवर घर-घर जाकर ओर-जोरसे पुकारता, लेकिन लक्ष्मीके मदसे वह उसकी उपेक्षा कर देता। एक दिन राजाने पूछा कि इसके काले नीले रत्नोंका समूह क्यों हर लिया गया है ? यह दोन नित्य रोता हुआ दिखाई देता है। यह तुम्हें दोष लगाता है और अन्यायको घोषणा करता है। बताओ सत्यघोष कि ठीक बात क्या है ? कि यह सुनकर ब्राह्मण मन्त्रीने हंसते हुए कहा-यदि मैं और तुम दोनों निश्चित रूपसे चोर हैं और यदि मो अपने सोते हुए बच्चेको स्वयं खा लेती है तो
३. A सो चिय सच्चघोस पुणु भणियउ; P सोत्तिय सम्मषोसु नहिं भणियन । ४. AP विपसिय
Kदियसिय but corrects it to विहसिय। ५, AP सणिदई। ८.१.A वणि बरु पुंडरीउ पुकारइ । २. AP राएं वणिज चवंतड । ३. P तो।
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१०
4
१०
महापुराण
तो कि जिया को वि सुवणंतरि हिंडइ दव्वपिसाएं मुत्तष यह चोरु चिततें गहिय
तारापण वितं सद्दद्दियसं
पत्ता - बणि डिभस है। सहि परियरिउ भ्रमइ णयरि परिमुकसह ॥ आरड करुणु रुणमणि घिर
चमिति !
म दिहित सीलविसुद्धइ परचणगुणतयचितहिं रिट्टाणु दोणु दालिदिउ हू पित ण को वि आयण्णइ णि तु मंदिर चोरहूं उप एम चवेणु सुंदरु विहियचं पर्याहि परंतु संतु इकारिष्ट दोहिं भि अक्खजूड पारद्ध मज् जाइ णीसेस देस हु चामीयर सोहा सोहिल हि बिष्ण वि एयई भूसियगत्तई महियंगुलिया बज्जुज्जेलियइ
एहु लय चोरेहिं वर्णतरि । जंप जं जि तं जि अवचित्तव ।
९
तामहपवित्र तु विरुद्धइ । मeिases भामिज धुत्तहिं । अप्पणु as वि होइ सोइदिउ । रा विणिवयणु ण मण्णइ ।
पासालउ पासि संनिहियउ । आज महंतु तहिं जि वइसारिउ । देवि भझ उत्तर लद्धरं । तुन्भु वि "सुत दिवस | अरु वि मुर्देइ मणितेइल हि । रायाणिय छइल्लइ जित्तई । वीय सहुं अंगुत्थलियइ ।
[ ५७.८७
क्या कोई इस संसार में जीवित रह सकता है ? यह वनके भीतर चोरोंके द्वारा लूट लिया गया है और द्रव्यपिशाचसे सताया हुआ यहाँ घूमता है। वह जो कुछ भी कहता है वह उद्घान्त चित्तका कथन है। विचार करते हुए राजाने इसे सुन्दर समझ लिया और उसका विश्वास कर लिया ।
पता - हजारों बालकोंसे घिरा हुआ उन्मुक्त स्वरवाला वह वणिक् नगर में घूमता फिरता । सूर्योदय होनेपर राजाके घर के निकट पेपर चढ़कर वह करुण स्वरमें चिल्लाता ||८||
९
तब भाग्यशालिनी शीलसे विशुद्ध महीदेवीने कुपित होकर मुझसे कहा, "दूसरों को ठगने के गुण दत्तचित्त धूर्तोंके द्वारा राजाकी बुद्धि घुमा दी जाती है। जो निरुद्यम, दीन और दरिद्र है चाहे वह खुद कितना ही स्नेहयुक्त हो उसके कहेको कोई नहीं सुनता। राजा भी निर्धन के वचनको नहीं मानता। हे राजन्, तुम्हारे घर में चोरोंकी उन्नति है ।" यह सुनकर उसने एक सुन्दर बात की। वह धूतफलकके पास बैठ गयी। पैरोंपर पड़ते हुए उसने मन्त्रीको पुकारा और आये हुए मन्त्रीको उसने वहीं बैठा लिया। दोनोंने अक्षद्यूत प्रारम्भ किया । देवीने भी भला उत्तर पा लिया कि मेरे समस्त देश और तुम्हारे द्विजवर वेशके जनेऊ और स्वर्णशोभासे शोभित मणिते असे युक्त अंगूठीका खेल ( जुआ ) होगा । शरीरको भूषित करनेवाली ये दोनों चीजें चतुर रानीने जीस - बिजलीकी तरह चमकती हुई बहुमूल्य अँगूठीके साथ जनेऊ ।
४. A omits बि । ५. A चोर । ६. AP चित्तं । ७. A सहासि । ८. AP णिवघरि पियडवं । ९. १. २. A adds this line in second hand; P omits it ३ AP fज । ४. AP मुहि । ५.AP विज्जुज्ज लियद्द; but gloss in T होरवीच्या ।
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-५७. १०. १४ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-तं णिउणमईहि समप्पियर्ड धाइहि हियवर्ड हरिसियलं ।।
अहिणाणु महामंतिहिं तणउ भंडायारिहि दरिसियउं ॥५॥
पप्फुल्लियसुवत्तसयवत्तइ चिंधु पदसिवि बुत्त धुसह । अच्छइ गुरु राउलि अवलोयहि भदमित्तमाणिकाई ढोयहि । तो कोसाहिवेण सामुग्गड अप्पिन धाइहिं वत्थुसमुग्गट 1 गया लेपि सनि देतात अच्छइ सणिर्वणिवाणी जेतहि । जूयपवंचु पहुहि बजरियर वसुविसेमु कुडिले अवहरियड । ताराएं पायावलिजठियई अपणई रयणई तहि तोतढियई। पबिहारें आहूयल वणिवरु लाइ णियमाणिकई पसरहि करु । मणि रिदै वणिउ णिरिक्खा णियधणु किंण को वि ओलक्खा । लइयज तेत्थु तेण पियमणिगणु जिड़ मणिगणु तिह णरणाहु मणु । दिपण पुरमहल्लसे द्वित्तणु पाइ को ण सुइत कित्तणु । मंतिणिरिकु दुछु अवमाणहु कंसथालि खाषाविस छाड्छ । सीसि तीस खरटकरचाहिं ताडित मल्लहिं कुंचियकायहि । पत्ता-कसपहरपरंपरसुढियतणु चरवेयणवड्डियजर ।।
मुट रायहु उप्परि कुवियमणु हुड वसुवासह विसेटर ॥१०॥ पत्ता-वे चीजें उसने अपनी निपुणमति धायको सौंप दी। वह मनमें हषित हुई । महामन्त्रीको इन पहचानोंको में भण्डारीको दिखाऊंगी ।।९||
खिले हुए मुखकमलवाली उस धूर्ताने पहचान बनाकर कहा कि "गुरु राजकुलमें हैं, (यह) देखो और भदमित्रके माणिक्य दे दो।" तब कोषके अध्यक्षने रत्नोंसे परिपूर्ण पिटारा उसे दे दिया । वह उसे लेकर एक क्षणमें वहाँ गयो जहां उसके राजाकी रानी थी। उसने जुएका प्रपंच राजाको बसाया और कुटिलतासे अपहृत किया गया धन भी। तब राजाने किरणावलिसे बिजड़ित और दूसरे रस्न उसमें मिला दिये। प्रतिहारने वणिकवर को बुलाया। "को अपने रत्न ले लो।" राजाने कहा। वणिक् उन्हें देखने लगा। अपने धनको कौन नहीं पहचानता। उसने वहां अपने मणिगण ले लिये। जिस प्रकार उसने अपना मणिगण ले लिया, उसी प्रकार उसने राजाका मन भी जीत लिया। उसने उसे नगरके महाधेष्ठीका पद दिया। पवित्रतासे संसार में कोन नहीं कोसि पाता? चोर मन्त्री अपमानको प्राप्त हुआ। काँसेको थाली में उसे गोबर खिलाया गया। संकुचित शरीर मल्लोंके तीन टक्करके आघातोंसे तीस बार सिरपर उसे ताड़ित किया गया ।
पत्ता-कोड़ोंके आघातको परम्परासे शून्यशरीर तथा अत्यधिक वेदनासे जिसे ज्वर बढ़ रहा है ऐसा वह सत्यघोष मन्त्री राजाके प्रति कुपित मन होकर भाण्डागारमें सौप हुआ ॥१०॥
६. A महिवशहिमयउं । ७. P भहापारिहे। १०. १. P हो । २. A सापगत; P सामनाउ | ३. P लेपिण संस्खणि । ४, P मणिवइराणी । ५. P adds
dि after देण। ६. A पायद को ण सइत्तें; P पावह कि ण सुइत्तें। ७. A सीस तीस बरकर; P सीसि तीस खरडकर । ८. A वणवेयण'; Pषणवेयण । ९. A विसहरु ।
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३००
महापुराण
११
णं जमपासणं जमदूयउ । घणणिहि कलस व लक्ष्यणियतणु । कोइलभसलकसणु मरुभोयणु । दीहरु कालु जावई गच्छ तित्तणु मिलहु दिष्णवं । धम्मणाममुणिवरपयजुयतलि । भद्दमित्तु जिणवर क्विंकित | गणि सुमितविधि खद्ध । मयत्रइसेणहु जायउ णंदणु । पुण्यंत अणुउपयासि । णं पुण्णम रैविससिहि पसाहिय । दविणागार नियंतु णरेसरु | मंतिवर बद्धवहरु हुए सप्पु घरि ॥ सिविक भीणिण णउलीयर करेषि करि ||११||
५
भीमु अगंधणकुलि संभूयउ सिसुखसिसरिसेवि समदाढाणणु कज्जलैक हलतं बिरलोयणु
फुफरंतु दुम्मुहु अहि अच्छ तारापण रिद्धिपरिक्षण्णउं असणवणंतरि कंतारायलि सुणिवि धम्मु संसार संकित णियजणणिइ छुहियइ चवलद्ध उ भरिषि महाबलु पडिबलमहणु १० सी चंदु पहिलारच भासित रामयत्त बिहिं पुत्तहिं राहिय soft दिणि कुलकमल दिशेस द
धत्ता - जो सबघोसु चिरु
[ ५७.११.१
११
गंधण कुल में पैदा हुआ भीम वह मानो यमका पाश या दूत था । उसका मुख शिशुचन्द्रमाके समान और विषम दाढ़ोंवाला था। धन और निधिकलशोंसे अपने शरीरको लपेटे हुए था। उसके नेत्र कज्जलके समान काले और लाल-लाल थे। वह कोयल- भ्रमर के समान श्याम था । हवा उसका भोजन था । वह दुर्मुख सांप फूत्कार करता हुआ वहाँ रहता है । उसका लम्बा समय वहाँ बीत जाता है । राजाके द्वारा ऋद्धिसे परिपूर्ण मन्त्रिपद धर्मिल ब्राह्मणको दिया गया। असना नामक वन में विमल कान्तार पर्वतपर धर्म नामक मुनिवरके चरणकमलोंके तलमें धर्म सुनकर भद्रमित्र संसार से शंकित होकर जिनवरको दीक्षा में दीक्षित हो गया । वह अपनो भूखी मां सुमित्रा वाषिन द्वारा पा लिया गया और वह उसे खा गयी। वह मरकर सिहसेनका शत्रुसेनाका मर्दन करनेवाला महाबली पुत्र हुआ । उसमें सिंहचन्द्र पहला कहा गया और दूसरा पूर्णचन्द्र उसका अनुज प्रकाशित हुआ। मां रामदत्ता अपने दोनों पुत्रोंसे शोभित थी, मानो पूर्णिमा सूर्य और चन्द्रमासे प्रसाषित थी। किसी दूसरे दिन कुलकमलका सूर्य अपना कोशालय देख रहा था ।
पत्ता - जो सत्यघोष प्राचीन मन्त्रीवर वैर बांधकर घरमें साँप हुआ था, भोषण, उसने रूठकर और हाथ में नकुलीकरण कर उसे काट खाया ॥ ११ ॥
११. १. P सरिक्ष विसदाढा । २. A कज्जलकण्हिरतंबिरी; P कज्जलकज्जलतंबिर । ३. A " दग्धिणिखाउ । ४. P सीचं । ५, AP पुण्णचं | ६. AP ससिरविहि । ७. APणियत्तु । ८. Pतं सिवि । ९ APकिल ।
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-५७. १३.४ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
३०१
मुउ सल्लाइवणि जायच करिवर असणियोसु णामें दीहरकरु । गयर ससामिमरणि कुज्झते मंतसारु सयलु वि बुझते। गारुडदंडपण गारडिएं
फणि आवाहिय मच्छरचैडिएं । भणिर काई महूं वयणु णियच्छहु दीर्दू घरेप्पिणु णिलयहु गच्छतु । ता पइसरिवि जैलणि अहि णिगय अकयदोस जे ते सयल वि गय । पञ्चारियड इयरु मतीसें। राज महार भक्खिवि रोसें। एवाहि एम काई अच्छिजह जिम सिहि खवइ जिम विसु छिज्जेइ । ता चिंता कुंभीणसु णियमणि अम्हइं जाया गोत्ति अगंधणि । अग्गिल्लिर विसु केम गिलिजइ कुलसामत्यु केम मइलिज्जइ । धत्ता-मरणि वि संपण्णइ गहयगरु कुलछलु माणु ण मेल्लिय ॥ जालावलिजलियइ विसहरिण अप्प हुयवहि धल्लियउ ॥१२॥
१३ अट्टझाणमेरट्टे सो मुल
कालवर्णतार हुयड चमरीमउ । खंति हिरण्णवई वणि बंदिदि दुकिड पुणु पुणु णिदिवि गरहिवि । रामयत्त पियदुक्खें भगदी पंचमहश्वयंचरियहि लग्गी। सिंहचंदु चिरु रच करेप्पिणु पुरु धरित्ति णियभायदु देपिणु ।
१०
वह मरकर सल्लकीवन में करिवर हुआ, बशनिघोष नामका लम्बी सूंडवाला । अपने स्वामोके मरनेसे ऋद्ध होकर और समस्त मन्त्र रहस्य जानते हए मारुडदण्ड नामक गारुडीने मत्सरसे भरकर सोका आह्वान किया ( बुलाया) और कहा, "मेरा मुख क्या देखते हो, दीप धारण कर घरसे चले जाओ।" तब आगमें प्रवेश करते हुए सभी सांप चले गये, जिन्होंने दोष नहीं किया था वे सभी गये । तब मन्त्रीशने कहा, "तुमने क्रोधसे हमारे राजाको काट खाया । अब इस समय तुम्हें क्यों यहां रहना चाहिए, जिस तरह भाग क्षय करती है उसी प्रकार विष भी क्षीण करता है।" इसपर वह सांप अपने मन में सोचता है कि हम अगन्धन फुलमें उत्पन्न हुए हैं । उगले हुए विषको हम किस प्रकार खा सकते हैं? अपने कुल-सामध्यको क्यों, किस प्रकार मलिन करें?
पत्ता-मृत्युको प्राप्त होनेपर भी उसने महान् कुलगर्व और मान नहीं छोड़ा। सांपने अपने आपको ज्वालावलीसे जलती हुई आगमें डाल दिया ।।१२।।
मार्तध्यानसे मरकर वह साप कालवनमें चमरीमृग पैदा हुमा । प्रियके विरहसे भग्न होकर रामदत्ता वनमें हिरण्यवती नामको मायिकाको वन्दना कर और पापको बार-बार निन्दा और गीं कर पांच महाव्रतोंकी चर्या में लग गयी। सिंहचन्द्र भी चिरकाल तक राज्य कर और फिर १२. १. A गाडियह । २. A बडिपा । ३. A विन्दु धरैषिणः । P दीन फरेपिणु। ४. P लिणि ।
५. A चिजह । ६. AP गिलियज । ७. AP ते मरणे वि होतए गत्यपरु कुलुच्छलु । १३. १. A जमाणमरणेण में सो मुझ । २. AP गहिवि गिदिषि । ३. AP सोहचंदु ।
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३०२
महापुराण
[५७.१३.५पुण्णचंदु भयवंतु णवेप्पिणु पवरदियंघरविसि लएप्पिणु । जायज इंदियदप्पवियारणु मणपज्जयणाणित जहचारणु । रामयत्तदेवी मणोहरि
दिट्ठउ काणणि ललियलयाइरि। बदिव वंदणिज्जु णियमायइ पुणु आवच्छिउ सुमेहुरवायइ। कुच्छि सलक्खण एक महारी तुहुँ जणिओ सि जाइ भषवइरी। अज्ज वि अच्छइ काई रमारउ धम्मु ण गेहद भाई तुहारउ । तं णिसुणेप्पिणु भणइ भडारउ णिसुणहि ससयणभववित्थार । धा-कोसलषिसयंतरि धणभरिट वुड्ढगाउं वइपरियरिउ ।
वहिं आसिमिायणु विप्पयर महुरइ बंभणोइ धैरिउ ।।१३।।
सज्जणमोह णि णाव वारुणि धीय विहि मि उप्पणी वारणि । मरिवि मयायणु पुरि साकेयह अइबलणामणरिदणिकेयइ। सुईदेति हि गम्भि समारान परिम वि थीलिंगचहु आयट । धीय हिरण्णवइ त्ति य जायउ भुचणि वियंभइ कम्मविवायउ | पोयणपुरवरि रूपरवपणी
पुषणयंदणरणाहहु दिण्णी । जा चिरु महुर सा जि तुहुं हुई रामयत्त दोहं मि सिरिदूई । भद्दमिच सुज तुह उप्पण्णउ सीहइंदुहाई हिं भिषण ।
वारुणि पुण्णर्यदु जाणिज्जसु अम्मिइ मोहु हवंतु खमिज्जसु । धरती अपने भाइयोंको देकर ज्ञानवान् पूर्णचन्द्रकी वन्दना कर, प्रवर दिगम्बर दीक्षा ग्रहण कर, इन्द्रियोंके दर्पका विदारण करनेवाला मनःपर्ययज्ञानी और आकाशचारी हो गया। रामदत्ता देवीने सुन्दर ललित लतागृहमें उसे देखा । उनको अपनी माताने वन्दनीय उनको वन्दना की और अत्यन्त मधुर वाणीमें पूछा, "हमारी कोख से एक तुम सुलक्षण हुए थे, जो संसारका शत्रु हो गया। लेकिन तुम्हारा भाई ( पूर्णचन्द्र ) आज भी लक्ष्मी में अनुरक्त है। तुम्हारा भाई धर्म ग्रहण क्यों नहीं करता?" यह सुनकर वह आदरणीय कहते हैं कि अपने जनका भव विस्तार सुनो।
पत्ता-कोशल देशमें वृत्तिसे घिरा हुआ धनसे भरा हुआ वृद्ध गांव है। उसमें मुगायन नामका ब्राह्मण है, जो मधुरा नामको ब्राह्मणोके द्वारा वरित था ॥१३॥
conosna
उन दोनोंके वारुणी नाम की कन्या उत्पन्न हुई जो सज्जनों को मोहनेवाली जैसे वारुणो (सुरा) थी। वह विप्रवर मृगायण मरकर, साकेत नगरी में अतिबल नामक राजाके घरमें सुमति . देवीके गर्भ में आया। वह पुरुष होते हुए भी स्त्रीलिंगमें आया। वह हिरण्यवती नामकी कन्याके रूपमें विख्यात हुआ । कर्मका विपाक संसारको बढ़ाता है। रूपसे सुन्दर यह पोदनपुरमें पूर्णचन्द्र नामक नरनाषको दी गयो । जो पहले मधुरा धी बही तुम इस समय रामदत्ता हुई हो, तुम दोनों हो लक्ष्मीको दूती हो । भद्र मित्र तुम्हारा पुत्र उत्पन्न हुआ और स्नेहसे भिन्न मैं सिंहचन्द्र हूँ।
४. A एपिणु । ५. A समहर । ६. AP मिगावणु । ७. AP बरिउ । १४. १. P मियागण । २. AP सुम्मइदेविहि । ३. A पोलिगि तह । ४. ५ पुण्ण ईद । ५. AP सोहचंदीर
६. AP खवेज्जसु।
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३०३
-५७. १५.९]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित पुण्णचंदु जो पोयणसामिल भदबाहुगुरुणा उवसामि। जो तुह अब तुज्जु गुरु जापस पहुं पिसी जि सुरभुजियपायउ । ताड महारत कंतु तुहारउ जायर याणि वारणु दुवारउ । कूरतिरियजम्में संमोहित इणणकामु सो मई संबोहिउ । धत्ता-ओसरु गयवर मयर्रयममर मा दूसह दुक्किड करहि ॥
किं णिहणहि गंदणु अप्पणवं सीइयंदु गड संभरहि ।।१४।।
१५
ता जाईभैर जायउ कुंजरू दुद्धरु गिरिवरगेहयपिंजरु। शायइ इहु रिसि तणुरुड मेरत हर्ष जायस वणि करि विवरेर । जो चिरु मुंजंतउ रस णव णव सो एहि भक्खमि वरुपाव। जो चिरु सेर्वत वरणारिउ तहु एवहिं दुकलं गणियारठ। जो चिरु चंदणकुंकुमलिसउ सो एहि कमि पंगुत्तठ । जो चिरु सुहं सोवंवउ तूलिहि सो विहिं हर्ड लोलमि धूलिहि । जो चिक देतउ दाणु सुदीणहं सो एवहिं महुयरसंताणहं। जो चिर जाणंतत्र छग्गुण्ण तें किह पुत्त णिहणु पडिषण्णर्ड | उजर देव एय सिरियत्तणु
ता मई भणि मुणेप्पिणु नहु मणु । वारुणिको तुम पूर्णचन्द्र जानोगी। हे मां, होते हुए मोहको आप क्षमा कीजिए । पूर्णचन्द्र जो पोवनपुरका स्वामी था, उसे भद्रबाहु गुरुने शान्त कर दिया है। तुम्हारे जो पिता तुम्हारे गुरु है देवोंके द्वारा पूज्यपाद वह मेरे भी गुरु हैं। मेरे पिता तुम्हारे स्वामी हैं। वह वनमें दुरि वारण हुए हैं। कर तिर्यंच जन्मसे मोहित मारने की कामनावाले उसे मैंने सम्बोधित किया है
पत्ता-जिसके मदमें भ्रमररत हैं, ऐसे हे गजवर, दूर हटो, तुम असह्य पाप मत करो। तुम अपने पुत्रको क्यों मारते हो? क्या तुम सिंहचन्द्रको याद नहीं करते ? ||१४||
१५
तब गिरिवरको गेरुसे पीले कुंजरको जाति स्मरण हो गया कि यह मेरा पुत्र मुनि होकर ध्यान करता है, मैं वनमें विपरीत गज हुआ हूँ, जो पहले मैं नव-नवका भोग करता था, यह में अब इस समय वृक्षके पत्ते खा रहा हूँ। जो पहले उत्तम नारियोंका सेवन करता था,उसके पास इस समय हुपिनी पहुंची है । जो पहले चन्दन और कुंकुमसे लिप्त होता था, वह इस समय में कीचड़ में फंसा हुआ हूँ। जो पहले रुईपर सुखसे सोता था, वह मैं इस समय धूल में लोटता हूँ। जो पहले अत्यन्त दीनोंको दान देता था, वह मैं इस समय मधुकर सन्तानको दान (मदजल) देता है। जो में पहले षड्गुण राजनीति जानता था, हे पुत्र, उसने इस निर्धनस्वको कैसे स्वीकार कर लिया : हे देव. इस स्त्रीत्वमें आग लगे। तब मैंने उसके मनको जानकर कहा
७. AP पुज्जियसुरपायउ । ८. A मयरसभमर । १५. १. A पाईसक; न जाएभरूKजाईस but corrects it to हाइंभह । २. P amits this line.
३. A P भुंजंतउ । ४. A तुमहि । ५.A कमहि । ६. A सो एमहि लोलिवितणु P सो एमहि लोलेमि तणु । ५. A तं हि णिहणु पुत्त पडि; P तें किह णिहण पुत्त पाई। ८. A बज्मा व एक Pाउ एक देव ।
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३०४
१०
महापुराण
[५७. १५. १०घता-मा णिहणहि पडिकरि गिरितरु वि जीव णिहालिदि पर धिवहि ॥
गय भक्खहि शिवडियदुमदलई परकलुसि पाणिउ पियहि ॥१५।।
१६
मारतत्र वि अण्णु मा मारहिं अप्पउ संसारह उत्तारहि । ता कुभत्यलणवियमुर्णिदें थिस व पालि तेण गई। बंभचेक दिढ़ णिशलु घरियर्ड जिणपायारविंदु संभरिया। खविउ कलेवर कायकिलेस परियटुंत कालविसेसे। केसरितीरिणित.गड जइय खुसउ दुइमि कमि तझ्यहुँ । णरि चमरिजम्मंतरमुकें पिसुण अवरभवंतरदु के। कुंमारोहणु करिवि सदप्पे भविश्वर गयवइ कुकुडसा । मुन हुउ उसमेण सोक्खापहि सहसारइ सुरभवणि रविप्पहि । सिरिहरु देउ काई वणिज्जइ एह जाणिवि धम्मु जि किज्जइ । हुउ धम्मिलु वाणरु रोसुक्कडु मारि तेण रणे सो कुछडु। णियपावें पंकापहि पत्ता
अण्णु वि एव जि जाइ पमतच । घत्ता-जणु जिणवरक्यणु ण पत्तियइ खाइ मासु मारिवि पसु ।
संतावइ साहु समंजस वि णिवाइ गरइ सकम्मवसु ॥१६||
घता-तुम प्रतिगजको मत मारो, गिरिता और जीवको भी देखकर पैर रखो। हे गज, गिरे हुए द्रुमदलोंको खा लो और दूसरोंके द्वारा कलुषित पानी पिओ ॥१५||
दूसरेके मारने पर भी तुम मत मारो, संसारसे अपना उद्धार करो। तब जिसने अपने कुम्भस्थलसे मुनीन्द्रको नमस्कार किया है, ऐसे उस गजने स्थिर व्रतका पालन किया। उसने दृढ़ ब्रह्मचर्यको धारण कर लिया और जिनवरके चरणकमलोंका स्मरण किया। कायक्लेशसे अपने शरोरको क्षीण कर डाला। समयविशेष आनेपर जब वह केशरी नदोके तटपर गया तो दुर्दम कीचड़में फंस गया 1 चमरीमृग जन्मान्तरसे मुज, दूसरे जन्ममें पहुंचे हुए दुष्ट कुक्कुट सर्पने कुम्भपर चढ़कर गजपतिको काट खाया। मरकर वह उपशम भावसे, जो सुखोंको सीमा है, रविके समान जिसकी प्रभा है ऐसे सहस्रार स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। उस श्रीधर देवका क्या वर्णन किया जाये, यह जानकर हमें धर्म करना चाहिए। धमिल वानर हुआ और उसने युद्ध में क्रोधसे उत्कट उस सर्पको मार डाला । अपने पापसे वह पंकप्रभा नरक में पहुँचा । दूसरा प्रमत्त जीव भी इसो प्रकार जाता है।
धत्ता-लोग जिनवरके बचनका विश्वास नहीं करते, पशु मारकर मांस खाते हैं। योग्य साधुको सताते हैं और अपने कर्म के वश नरकमें जाते हैं ॥१६||
१६. १. AP तो। २. AP व । ३. AP विरु । ४. तडु गउ । ५. APणकर । ६. A दमसमेण |
Aदि। 1. A मारिज रणि तेण सो; P"मारित तेण रणि सो।
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-५७. १८.२]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
३०५
गयमोत्तियई दंतजुयसहियई वणि सिगालभिल्ले संगडियई। पणिय सत्थवाहु हिमपण्णई पुरसेटिहि षणमित्त दिण्णई। सीहसेणतणयहु असधाम
शामिण वि सणाक्षिण मई ! कारिय तेण तमीयरकंतिहि णियमंचयह पाय गयदंतहिं । णियसीमंतिणियेहि लहरिद्धई मोत्तियाई कोडग्गि णिबद्धई। हो केत्तिउ संसारु कहिज्जा जं विर्ततहं मह दुम्मिज्जा। मोहमहंतह णिहर मुत्तर
अच्छइ सुहि णं मुर्छिस सुचः । जाहि अम्मि तुह क्यणे जग्गइ। पुण्णेयंदु जिणधम्म लग्गइ । णियणंदणमुणिवरवयणुल्लउ । तं आयणिवि सवणमुहिल्लह । गय मायरि नहिं जहिं तं पट्टणु जहिं सो राणज वइरिविहट्टणु । धत्ता-पणवंतह पुतहु परियणहु अज्जैइ सुमहुल साहिय८ ॥
जिह राएं जाएं मयगलिण णिज्जणु गहणु पसाहियां ॥१७॥
१८
जंधणमिर्स आणि आयउ तं दियमुसलजुवलु तहु केरउ
पल्लंकहं पयजोग्गर जायउ । मुत्ताहलणिठलंबर सारठ।
१७
वनमें शृगाल नामक भीलने दोनों दांतोंके साथ गजमोतियोंका संग्रह कर लिया और वणिक् सार्थवाह नगर सेठ धनमित्रको सफेद रंगके मोती और हाथीदांत दे दिये। घनमित्रने भो वे सिंहचन्द्रके पुत्र यशके घर पूर्णचन्द्रको दे दिये । उसने भी चन्द्रमाके समान कान्तिवाले गजदन्तोंसे अपने पलंगके पाये बनवा लिये तथा कान्तिसे समज मोतियोंको अपनी पत्नीके गलेमें लगा दिये। अरे संसारका कितना कथन किया जाये ? जिसका चिन्तन करते हुए बुद्धि पोहित हो उठती है? मोहको महान निद्रासे भुक सुषोजन स्थित है, मानो मूर्षिछत या सोया हुआ हो। हे मां, तुम जाओ। तुम्हारे दयनोंसे पूर्णचन्द्र जागेगा और जिनधर्मसे लगेगा। अपने पुत्र मुनिवरके कानोंको सुखद लगनेवाले वचन सुनकर वह माता वहाँ गयो जहाँ वह नगर था और जहाँ शत्रुओं का नाश करनेवाला बह राजा था।
पत्ता-प्रणाम करते हुए पुत्र और परिजनसे आर्यिकाने सुमधुर वाणीमें कहा कि किस प्रकार राजाने मैगल गजके रूपमें गहन वनका सेवन किया ॥१७॥
१८ जो धनमित्रने लाकर दिया और जो पलंगके पाये बने वह हाथोके दोनों दांतस्पी मूसल हैं तथा श्रेष्ठ मुक्ताफल समूह उसका (गजका ) है जिसे तुम प्रणयिनीके गले में देखते हो। हे पुत्र, सुम श्रावक व्रतोंका पालन करो। हे पुत्र, यह संसार बड़ा विचित्र है। हे पुत्र, राजा भी कर्मरत १७. १. AP सिंगाल भिल्लें गहियई । २. A °सीमंतिणिपहपरिवहं । ३. AP कंगि । ४. A भूमिछपसुत्ता।
५, A पृष्ण इंदु । ६. A अज्जिए । ७. A णिज्जगहणू।
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३०६
महापुराण
[ ५७. १८.३पणइणिकंठेइ णिहिर णिहालहि पुत्तय सावयवय परिपालहि । पुत्तय णिरु विचित्तु संसार पुत्तय पहु वि होइ कम्मारउ | ता हियवट पिणे भिण्णई दंतिदंतु अवरुं डिवि रुग्णउं । पुते परिवारेण वि सोइट कुसमर्हि अंचिति हुयत्रापि होइउ । उवसमेण हूई पविमलमद थिउ घरि धम्मणिर सो णरवइ । रामयत्त सणियाण मरेप्पिणु कप्पु महंतु सुक्कु पावेप्पिणु । घत्ता-मंदारदामसोहियमबद्ध रयणाहरणषियारधरं ॥
सा हुई रविसंणिहणिलइ रविभाभासुरु सुरपवरु ।।१८।।
पुणु फणिरायहु गुज्झु ण रक्खड आइशाहु कईतरु अक्खइ। काले जंते सुकिय लीला
वरवेकलियविमाणि विसालइ | पुण्णयंदु पुण्ण उप्पण्ण
वेरुलियप्पहु तहिं संपण्णउ । विसमविसमसरवाण णिवारिवि दसणणाणचरित्तई धारिधि । संभूयल संतहि हिरवाहि सीहचंदु उपरिमगेवजहि । इह रययायलि दाहिणसे ढिहि धरणितिलँयपुर रूढउ रूढिहि । पइ अइथेट पुरधि सुलक्षण रामयत्त जो चिर सेवियवण ।
सा सग्गास ढलिय पंकयकर सुय उप्पण्णी णामें सिरिहर । होता है । तब पूर्णचन्द्रका हृदय अपने पिताके स्नेहसे भर गया। वह उन हाथीदांतोंका आलिंगन कर खूब रोया । पुत्र और परिवारने इस प्रकार शोक मनाया तथा फूलोंसे उनकी पूजा कर उन्हें आगमें डाल दिया। उपशम मावसे उसकी बुद्धि निर्मल हो गयी। राजा अपने ही घरमें धर्ममें स्थित हो गया (धर्मका पाचरण करने लगा), रामदत्ता निदानपूर्वक मरकर महान् शुक्र स्वर्गमें गयी।
___ पत्ता-सूर्यके समान देवविमानमें* जिसका मुकुट मन्दार पुष्पमालासे शोभित है, जो रलाभरणोंका विचार करता है, तथा सूर्यको आमाकी तरह भास्वर है, ऐसा देववर हुई ॥१८॥
वह दिवाकर देव धरणेन्द्रसे फिर भी छिपा नहीं रखता और उससे कथान्तर कहता हैसमय बीतनेपर, जिसमें पुण्यलीला है, ऐसे विशाल वैदुर्य विमानमें वह पूर्णचन्द्र अपने पुण्यसे देव उत्पन्न हुमा । कामदेवके विषम राणोंका निवारण कर तथा दर्शन, ज्ञान और चारित्रको धारण फर, सिंहचन्द्र शान्त निष्पाप उपरि प्रेवेयकमें उत्पन्न हुआ। इस भरतक्षेत्रके विजया पर्वतकी वक्षिण श्रेणीमें परम्परासे धरणीतिलकपुर नगर है। उसका राजा अतिवेग और रानी सुलक्षणा थी। पहले जिसने वनमें साधना की थी, ऐसी जो रामवत्ता थी, वह स्वर्गसे च्युत होकर कोमल १८. १. A कठहो । २. A पियगेहें 1.1 A परधम्मि गिरउ । ४. AP°वियारहरु । ५. A रविभाभासुर ___P रविभामासुर । १९. 1. A"क्मिाणषिसाला । २. A पुषणहंदु । ३. P हि बि संपण्णव । ४. AP तिलयपुरि । ५. A जा
सेषिय चिर पण | * भास्कर विमानमें ।
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महाकवि पुष्पदन्त विरचित
अलयाणा वढिय कामट्टू । पत्ता-सो पुण्यं दिवि देवसुद्धं माणिवि हविहलत्तणकं । free afterएं विडियउ पुणु पत्तष्ठ महिलखणडं ||१२||
- ५७ २०.१२]
दिण्णी पिणा दरिसियणामनु
२
दरिसियराएं हुई बुहहर दिणी ताएं कामात सीसे करि सिरिहरु भणियड सिवे दणु संमार्णिवि औदरिसेण पासि यदहु
यहुँ सिरिजसह विणीयs मुचिरणारविंदमइयहि पवणुधूयध बलधय मालडं थावरजंगमविरइयमेत्तिइ तहिं हरिचंद महार पेक्खिवि
पत्ता - सो आयहिं सिरिहरजसहरहिं दोहिं वि गिरिगरयंगु गुणि || गुहकुहरि णिण्णु णिरिक्खियल पलियकेण णिसण्णु मुनि ||२०||
सिरिहराहि सुय णामें जसहर । दिreरापुरि सूरासहु । जो लो एयहिं बोहिं मि जणियउ । सिर ढोइवि सिरिकलसहिं ण्हाणिनि । लक्ष्यस व जइहु मुणियंदछु । पावट वहिं मायाधीवड | पासु वसतियाहि गुणमइयहि । सिद्धसिहरु णामेण जिणालउं । किरण गणत्ति | fre अप्पर रिसिदिक्खर दिक्खिवि ।
३०७
१०
५
१०
करवाली श्रीधरा नामको कन्या हुई। पिताने उसे, जिसकी कामनाएं बढ़ी हुईं हैं ऐसे अलकापुरी के राजाको दे दिया |
धत्ता - वह पूर्णचन्द्र स्वर्ग में देवसुख मानकर, च्युत होकर अपने कर्मविपाकसे जिसने दारिद्रयको नष्ट कर दिया है, ऐसे स्त्रीत्वको पुनः प्राप्त हुआ ||१९||
६. विश्वविद्दत्तणवं ।
२०. १. Pसिर २ A आदरसेण । ३. P हृदं । ४. AP मुणिचंद ५. A कुहरणिसण्णु ।
२०
यह राजा दर्शकसे श्रीधरा रानीको दुःखहरण करनेवाली यशोधरा नामको कन्या हुई । वह सूर्याभपुर (पुष्करपुर ) के काममें आसकल राजा सूर्यावर्त को दी गयी। जो सिंहसेन (राजा) श्रीधर कहा गया, वह इन दोनोंसे रश्मिवेग नामका पुत्र हुआ। रश्मिवेगका सम्मान कर, उसे सिरपर उठाकर एवं श्रीकलशोंसे अभिषेक कर राजा दर्शकने द्वन्द्वोंका नाश करनेवाले मुनिचन्द्रके पास जब संन्यास ले लिया, तो माँ और बेटी विनीता श्रीधरा और यशोधराने भी मुनियों के चरणारविन्दमें जिनकी बुद्धि तीव्र है, ऐसी गुणमतो वसन्तिका आर्यिकाके पास प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। जिसपर पवन धवल ध्वजमालाएं आन्दोलित हैं ऐसा सिद्ध शिखर नामका जिनालय था । स्थावर और जंगम प्राणियों के प्रति जिसमें मित्रताका भाव है ऐसी वन्दनाभक्ति के लिए रश्मिवेग वहाँ गया। वहीं आदरणीय हरिश्चन्दको देखकर वह स्वयं मुनिदीक्षा लेकर स्थित हो गया ।
पत्ता - गिरिको तरह अत्यन्त ऊंचे तथा पर्यकासन में आसीन गिरिगुहा में बैठे हुए उन मुनिको इन दोनों श्रीधरा और यशोधराने देखा ||२०||
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३०८
५
१०
पचच्छिउ
बंदिवि खरतवतायें खीण छड कम ता सो तंब चूल फणिणारठ दीहुकाल संसद सरेपिणु जायव अजय बिसमखयालइ मुहविससिहि मैकियसारंगड फर्णेताडण फोडियधरणीयलु वश्वसदंषु चंडु अवलोइवि मरणि विधीरण ण मुई अहिणा ददावहिं द्दिलियई मणिवासविसेसव रिट्ठ
महापुराण
२१
।
ताच तासु विड़ जासी रयणत्तयहु कुसलु फुड पुच्छिउ । णरयहु पीसरेवि हिंसार । अण्णाई अंगाई धरेष्पिणु । फुल्लिय चलकलंबत मालइ । मोडिय बियिविहंग | वयणरंधलियवर्णमयगलु । खणि आहारु सरीरुपमाइवि । विणि वि पाय थिरु थई । कसमसंति चावतें गिलियई । actors मरेकाविट्ठछ ।
५७.२१.१
पत्ता- तर्हि रुययविमाणि मणोरमणि जायउ अमर कप || सो अजय चोत्थइ णरय बिलि विडिङ मुणिवररवहु ||२१||
२२ यवंतहु अचराइयरायहु ।
चक्कर जयलच्छिसद्दायहु
२१
"
तीव्र तपतापसे क्षीण उन सुनिकी वन्दना कर वे उसके निकट बैठ गयीं। शीघ्र ही उसने 'कर्मक्षय हो' ये शब्द कहे तथा रत्नत्रयको कुशलताका प्रश्न पूछा। तब वह हिसारत नारको कुक्कुट सर्प नरकसे निकलकर लम्बे समय तक संसार में परिभ्रमण कर भिन्न-भिन्न शरीरको धारण करता हुआ, जिसमें बकुल-कदम्ब और तमाल वृक्ष खिले हुए हैं ऐसे विषम क्षयकाल वनमें अजगर हो गया। जिसने अपने मुखको विषज्वालासे हरिणोंको काला कर दिया है, जिसने वृrist मोड़ दिया और पक्षियों को उड़ा दिया है, अपने फनोंकी मारसे धरणीतलको फोड़ दिया है, जिसने अपने मुखरन्ध्र में बनके मैगल गजोंको डाल लिया है। ऐसे यमके दण्डकी तरह प्रचण्ड उसे देखकर तथा एक क्षणमें शरीरके आहारको कल्पना कर, परन्तु उन लोगोंने मरणमें भी धीरत्वको नहीं छोड़ा। वे तीनों संन्यास लेकर स्थित हो गये। अजगरने अपनी मजबूत दाढ़ोंसे उन्हें निर्दलित कर दिया और कसमसाते हुए उन्हें चबाकर निगल लिया। वे लोग हेमनिवास विशेषसे वरिष्ठ कापिस्थ स्वर्गेमें मरकर उत्पन्न हुए ।
घसा- वहाँ सुन्दर रूप्यक विमानमें सूर्यप्रभ देव हुआ। मुनिवरका वध करनेवाला वह अजगर चौथे नरक में गया ॥ २१ ॥
२२
जिन भगवान् के गुणगणका स्मरण करता हुआ वह सिचन्द्र श्रेष्ठ उपरमत्रैवेयकसे भवतरित २१. १. AP बलु । २. P संसारि । ३. APसि हिसिहहयता रंगउ । ४. A फलताडर्ण' ५. P " वणरपल । ६. A मुषक | ७. P पवई पपई । ८. A चक्कछ । ९Aई। १०. अमरवरं कपड़
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- ५७.२३.५ J
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
आय जिणगुणणु सुयरंतउ सीह चंदु र्ण हुए कुसुमाच्छु चिमा त पियरायाणी ताई बिहिं मिणं पुण्णविहै । यड जो चित्र रस्सिवेष्ट अजय रहुड में वजाउछु जयलंपडु पुहईतिलइ जयरि रवितेयहु सिरिहर का विट्ठहु पन्भट्ठी दिण्णी कुलिसाउ
हें
पवरुवरिमवाहि होत । सुंदरिदेविहि सुच चकाच मयरद्धयबाणणिसेणी ।
अप्पहु सुर सगुरुहु जायड | एहु जिसो गरंजम्मसमागड | समरंगणि पल्हत्थियगयघडु | पियकारिणिदश्यहु मइवेयहु | रणमा सुय हूई दिट्ठी ।
कावा ।
बाकीत पेम्मपरव्वसहं ताई तेत्थु पयँडियपण्ड || सा जसहर सग्गहु ओयरिवि रचणावहु हुई तण ||२२||
२३
पहियासउ णवेवि अवराइड रन्जु करेवि सुइरु चकाहु तेण कय भीसणु बम्म हरणु दूरुझिय पर महिला पर धणु सारिति अनंतउ
त घरंतु संततु पराइ । गड ताहू जि सरणु वियसियमुहू | चरमदेहु जाणs विविहरणु । सिरि भुंजिमि सिउ पविपहरणु । बहु पासि पुक्तिच !
३०९
५
होकर चक्रपुरमें विजयरूपी लक्ष्मी के सहायक न्यायवान् अपराजित राजाकी पत्नी सुन्दरी देवीका चक्रायुध नामका पुत्र हुआ, जो मानो कामदेव था । चित्रमाला उसकी प्रिय रानो थी, जो मानो कामदेव के बाणोंकी नसेनी थी। उन दोनोंसे सूर्यप्रभ देव पुण्यविभागको तरह उत्पन्न हुआ। तथा अजगरसे ग्राहत जो पुराना रश्मिवेग था, वही मनुष्य जन्ममें आया हुआ विजयका लम्पट वज्रायुष है, जो युद्धके प्रांगण में गजघटाको धराशायी कर देता है। जिसका तेज सूर्यके समान है ऐसे प्रियकारिणी के पति मतिवेगसे पृथ्वीतिलक नगर में कापिष्ठ स्वर्गसे च्युत होकर श्रीधरा रमाला नामको कन्या होते हुए देखी गयो । वह वज्रायुधको दी गयी। फिर कालप्रवाहके बनेपर
पत्ता - जिसने विनय प्रकट को है, ऐसी वह यशोधरा स्वर्गसे अवतरित होकर क्रीड़ा करते हुए ओर प्रेमके वशीभूत उन दोनों (वज्रायुध और रत्नमाला ) के रत्नायुष नामसे उत्पन्न हुई ||२२||
२३
अपराजित पिहितास्रवको नमस्कार कर तपका आचरण करते हुए शान्तिको प्राप्त हुए । चक्रायुध भी बहुत समय तक वहाँ राज्य कर विकसित मुख वह भी अपने पिताकी शरण में चला गया। उसने भीषण तप किया। चरम शरीरी वह चारित्रको जानता था। जिसने परस्त्रो और परधन छोड़ दिया है ऐसे वज्रायुध भी उतनी ही लक्ष्मीका भोगकर तथा दर्शन-ज्ञान और
२२. १. A गुणगुण । २ A पुष्णनिहायत । ३. A एहु जो षो । ४.. AP परजम्मि समाग ५ AP पिवकार । ६. P सणा । ७. A पर्यालयपणत । २३. १. A तित्तिउ; P
०
२. P सिहं तव ।
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२१०
महापुराण
[ ५७. २३. ६.
खवह पुराइउ कम्मु गयालसु तहु सुउ रयणाउहु रइलालसु। माणइ सोक्खु ण तिप्पह भोएं णं मयरहरू तरंगिणितोएं । जायवेउ णं तरुपमारे
अइरारिउ वित्थरइ क्यिारे । घत्ता-अण्णहि दिणि पवरूजाणरि गिरिसरिखेत्तविहूसियउ ॥
__ सिरिवजदंतमुणिणा जणहु तिहयणमाणु पयासियल |२३॥
विजयतुममें कुंभीसा णि कल्लाणाकारि जलहरसरू । सं णिसुणिवि मुणिभासिर कंखइ दिण्णु वि मासगासु ण वि भक्खर । मंतिविग्ज आउछह राण मह बेरमु कि विदाणन । ताव तेचि अवलोइस जाइवि लक्खिर तणु गुणदोस पैलोइवि । जंगलकालु णिबद्ध ढोइर पयघियकर पिडु संजोइ । मो कवलि र करिणा कर दत वजदंतु पुच्छि उ महिवंत । मात्यात वंदिवि मुणिपुंगमु मासु ण खाइ कई तंबेरमु । कहइ महारिसि जियवम्मीसक पत्थु भरहि छत्तरि परेसा । पायभइ णामें णं वम्महुँ
सइदेवीवइ गावइ सयमुहूं । १० पत्ता-पौड़करु पुत्त प्रसिद्ध जइ मंसिवि जाणि चित्तम ।।
कमला इव कमला तासु पिय तगुरुहु ताहं विचित्तमइ ॥२४॥ बारिसे अभ्रान्त पुत्र भी पिता पास दीक्षित हो गया। आलस्यसे रहित पूर्वाजित कर्मको वह नष्ट करता है, उसका रतिको लालसा रखनेवाला पुत्र रत्नायुध खूब सुख मानता है, भोगसे तृप्त नहीं होता, जैसे समुद्र नदियों के जलसे तृप्त नहीं होता, जैसे वृक्षसमूहसे आग अत्यन्त उद्दीप्त होकर फैल जाती है।
___ चना- एक दूसरे दिन प्रवर उद्यानगृहमें श्री वज्रदन्त मुनिने गिरि, नदी और क्षेत्रसे विभूषित त्रिभुवन-विभाग लोगोंको बताया ॥२३॥
२४
राजाका विजयमेघ नामका जो कल्याणकारी और मेवके समान स्वरवाला गजराज था, यह सुनकर मुनि के कथनको चाहने लगता है और दिये हुए मांसके कौरको नहीं खाता । राजा मन्त्रियों और वैद्योंसे पूछता है कि मेरा हाथी दुबला क्यों हो गया है। तब उन लोगोंने जाकर देखा और गुणदाप देखकर उसको परीक्षा की। उसे बंधा हुआ मांसका कौर नहीं दिया गया, दूध, धो और भातका आहार दिया गया । ऐई देते ठुए हाथीने उसे खा लिया। राजाने सिरसे प्रणाम करते हुए मुनिश्रेष्ठ वनदन्त से पूछा कि यह हाथी मांस क्यों नहीं खाता 1 कामदेवको जीतनेवाले महामुनि कहते हैं, इस भरतक्षेत्र के छत्रपुर में प्रीतिभद्र नामका राजा था, जो मानो कामदेव था। (वह बैसा ही था) जैसे इन्द्राणीका पति इन्द्र ।
पत्ता-जगमें उसका प्रीतिकर नामका प्रसिद्ध पुत्र था और मन्त्री भो चित्रमति था। उसकी पत्नी कमला कमला ( लक्ष्मी ) के समान थी। उन दोनोंका पुत्र विचित्रमति था ॥२४॥
३, A मयहरु । ४ AP अवह दिगि । २४. १. A णवकहलाण । २. पलोयदि P पला इदि । ३. A पीइभदः । पाइभद्द ।
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-५७, २६.३ ]
महाकवि पुष्पवन्त विरचित
२५
धम्मु अहिंसि आयष्णिवि । पीइंकेरु विचितमह बिणि वि । सत्तभूमिसबालिसेछु । णिज्जियणियजीहिंदियचेदृहु ! वेण्ण वि वडिय हुड जि घरणि । ते घीसे वेस पत्थिय । थिय भंडारा विगय बलेष्पिणु । किं जीवितमुनिदा विरहिउँ । कि आया से ण गहियेष्ठ गासड ।
धीर धम्मरु सिरिगुरु मणिवि डिजिवित तिणि षि रिसिव लेपि सकियहु खीरें रिद्धि उप्पण्णी जे हु चंदसूर गाव गणंगणि बहुववाणमुणिपंथिय था भणतिया पणवेधपणु कामिणीइ अप्पाणड गरहि पुच्छर लहुयच साहु ससंसउ
घसा - गुरु अक्खड़ महुमासासियहं णिपि कयपरलोय किसि । कामणिहिं दिष्णु वि पिंडु ण लैति रिसि ||२५||
rafts राय
२६
तहि विचित्तमइ सुमरेड रामहि मणसरोहें दियवडं भिण्णे सहा हु मे
मंदिरु
गीओलंबिय मोत्तियदामहि । जंत हुंकार सुण्ण ं । इंदीरा इंदिदिरु |
३११
4
१०
२५
धीर धर्मरुचि श्री गुरुको मानकर तथा अहिंसा लक्षण धर्म सुनकर, मनमें तीन गुतियाँ स्वीकार कर, प्रीतिकर और विचित्रमति दोनों भुनिदीक्षा लेकर, सात भूमिवाले प्रासादों से युक्त साकेत नगर के लिए गये। अपनी जिल्ह्वेन्द्रियको चेशको जीतनेवाले जेठे ( प्रीतिकर ) को क्षीणास्रव ऋद्धि उत्पन्न हुई । उन दोनोंने घर के आंगन में उसी प्रकार प्रवेश किया, जैसे सूर्य-चन्द्रने आकाशमें प्रवेश किया हो। अनेक उपवासोंसे क्षीण उन मुनिमानियोंको बुद्धिसेना नामकी वेश्याने, 'ठहरिए' कहते हुए और प्रणाम करते हुए प्रार्थना की। परन्तु आदरणीय ये मुड़कर ठहरे नहीं चले गये । उस वेश्याने अपनी निन्दा की कि मुनिदानके बिना जीवनसे क्या ? छोटे साघुसे उसने अपने संशयकी बात पूछी कि वे क्यों आये और बाहार नहीं लिया 1
पत्ता - गुरु कहते हैं— 'मधुमांस खानेवालोंसे विरक्त तथा परलोककी खेती करनेवाले मुनि अविनीत राजाओं की स्त्रियोंके द्वारा दिये गये बाहारको ग्रहण नहीं करते" ॥२५॥
२६
जिसकी गर्दनपर मोतियों की माला अवलम्बित है ऐसी उस रामा (वेश्या) को विचित्रमति याद करता है । कामके तीरोंसें उसका हृदय विदीर्ण हो गया। बोलनेवालोंसे खाली हुंकार कर
२५. १. AP समिदिउ पंच घरेणु बिणि वि; A adds a new line after this : पीईरु विचित्तम बेष्णि fa in second hand २ A रिसि गयवद । ३. A खोरिद्धि । ४. AP पंगणि । ५. A ते विसणीय; P तेथेसिणोय। ६. A कि आयहो घरे गहिउ ण गासउ; P कि आहे घरे गहिय जगास | T supports the reading of K | २६. १. सुर २.AP छिण्ण । ३ AP मेल्लिवितहि ।
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३१२
महापुराण
[५७. २६.४[संगणेवण पावरणि दिख सो पडिगाहिर गणियइ । दिण्णड तासु भोज्जु जे चंग विडसाइहि संपीणित अंगई । सरसवथणु तहिं तेण णि उंजिउं दह परियधष्णु जं पुंजिय। रत्त मुणेवि ताइ अवहेरिस णारिहिं मुषणि कोण फिर मारिख। तो गुणवंतु नाम गाँयत्तणु जाम ण लगाइ मणसियमग्गणु | णिग्गड गड परिहेप्पिणु राग्लु विसयालुल जायस आउलु ! पत्ता-पलपाएं जाएं मिट्रएंण सूयारत णिवमणि चडिउ ।।
कय कामिणि दविणे तेण वस रिसि चारित्ता परिवडिउ ॥२६॥
मरिवि तुहार उजायन कुंजर मह भासंतह विदुषणपंजरु। एह एवहिं जाट जाइभर
तुटुं वि बप्प अप्पाणउ संभरु । ता रयणाउहेण णियतणयहु रज्जु समप्पिर पयडियपणयहु । तासु जि गुरुहि पासि त चिण्णसं तहु मायाइ त जि पडिवण्णउं । विणि वि संतई मायापुत्तई अबुइ अणिमिसत्तु संपत्तई। अजयर पंकप्पहरणयंत ___णीसरियन कह कह व कयंतहु। दारुणभिल्लाहु सुउ अइदाणु मंगिहि सवरिहि हुन करिमारणु ।
तेण पियंगुम्गि अवलोइड तष्ठ तवंतु बजाउहु घाइउ । देता। अपने मित्रको छोड़कर वह उसके घर गया, मानो भ्रमर कमलपर गया हो। शिशुमगनयनी स्यूल स्तनोंवाली उस वेश्याने उसकी वन्दना को, पड़गाहा और जो अच्छा भोजन था वह उस साधुको दिया । उस कपटो साधुका शरीर पीड़ित हो उठा। उसने उससे सरस शब्दोंमें बात की और जो संचित चारित्र धन था उसे खाक कर दिया। उसे अनुरक्त देखकर वेश्याने उसकी उपेक्षा को । स्त्रियोंके द्वारा संसारमें कौन नहीं मारा जाता? मनुष्य तभी सक गुणवान है और उसका बड़प्पन है कि जबतक उसे कामदेषके बाण नहीं लगते । वस्त्र पहनकर वह निकल गया और राजकुलके लिए गया । विषयोंका लोभी वह माकुल हो उठा।
पता-मोठा मांस पकानेके कारण यह रसोइया राजाके मन में चढ़ गया। धन देकर उस वेश्याको वशमें कर लिया, और वह मुनि चारित्रसे भ्रष्ट हो गया ॥२६॥
२७ वह मर कर तुम्हारा हाथी हुआ। मेरे द्वारा त्रिलोकका ढांचा बताये जानेपर इसको इस समय जाति स्मरण हुआ है । हे सुभट, तुम भी अपनी याद करो। तब विनय प्रकट करनेवाले अपने पुत्रको रत्नायुषने राज्य सौंप दिया, और उन्हीं गुरुके पास तप ग्रहण कर लिया। उसकी माताने भो तप प्रहण कर लिया। दोनों शान्त माता और पुत्र अपलकमात्रमें अच्युत स्वर्ग पहुँच गये। अजगर भी पंकप्रभा नरकमें युद्ध करते हुए, नरकभवका अन्त करते हुए दारुण भोल और मैगी भीलनीसे हायियोंको मारनेवाला अत्यन्त भयानक पुत्र हुआ। उसने प्रियंगु द्रुमके नीचे तप
४. AP"मिगणयण । ५. APषणिइ । ६. A ताइ । ७. AP मुख्यत्तणु । ८. A सिट्ठएण। २७. १. APT बाईसक । २. A रयणाहिवेण । ३. AP पासु । ४, AP बजगरु ।
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-4७.२८. १२ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित मुउ सम्वत्थ सिद्धि संपत्तउ सवत वि पावै णरइ णिहित्तछ । सत्चमि वमतमयहि भीसावणि पंचपयारदुषस्वदरिसावणि । पत्ता-धावइसंडा सुरवरदिसहि मेरुहि परविदेहि सरइ ।।
गंधिजदेसि उन्झारिहि णरवइ अरुहदासु बसह ॥२७॥
कामहुयासहुणे कालंबिणि सुन्वय णामें तासु णियबिणि। अवेर वि तह जिणयत्त घरेसरि । अमरमहामयरहरहु णं सरि। अच्चुयचुय तेएं णं दिणयर रयणमाल रयणावह सुरवर । बिहिं वि बेण्णि संजणिय तणूरुह विजय विहीसण णवपंकयमुह । ते बेणि मि णं छणससिसायर ते बेण्णि वि बलकेसव भायर । बीयहु णरयह गयष्ट विहीसणु दुद्धरु तउ करेवि संकरिसणु। लंतवि जायत देउ महामह आइचाह ह जि सो मुछ्याह । सम्ममासासगिला
मई नवोदित यह णिग्गड ! जंबुदीवएरावयउज्झहि
सिरिवम्महु सीमहि तणुमज्झहि । सो केसवु दुई मुंजिचि आयउ लछिछधामु णामें सुख जायउ। रिसिहि विणासियवम्महलीला चिरु पाषइयर पासि सुसीलहु ।
पत्त भकप्पि मेझिवि तणु अट्ठगुणट्टिकंतु देवत्तणु । करते हुए बतायुषको देखा और उसे मार डाला। वह भरकर सर्वार्थसिद्धि पहुंचे। वह भील भी मरकर, भयंकर पांच प्रकारके दुःखोंका प्रदर्शन करनेवाले तमसमप्रभा नामक सातवे नरकमें डाल दिया गया।
पत्ता-घातकोखण्ड में पूर्वदिशा, सुमेरुपर्वतके अपर विदेहमें गन्धिल देशको अयोध्या नगरीमें भोगयुक्त राजा अहंदास रहता था ॥२७।।
२८ कामदेवकी अग्निको शान्त करनेवाली मेषमालाके समान उसकी सुनता नामकी पत्नी थी और भी उसको जिनदत्ता नामको गहेश्वरी थी, जो मानो क्षीरसमुद्र के लिए नदी हो। अच्युत स्वर्गसे च्युत होकर और तेजमें मानो दिवाकरके समान रत्नमाल और रत्नायुष सुरवर भाग्यसे दोनोंके पुत्र हुए-नवकमलके समान मुखवाले विजय और विभीषण नामसे | वे दोनों ही पूर्णचन्द्रमा और समुद्र थे, वे दोनों हो बलभद्र और नारायण थे। विभीषण दूसरे नरफ गया और बलभद्र दुर्धर तपकर महाआदरणीय लान्तब देव हुआ । सुखावह बहो में आदित्य नामका देव हूँ। मेरे द्वारा सम्बोषित होनेपर सम्यग्दर्शनके शासन में लगकर वह नरकसे निकला और जम्बूद्वोपके ऐरावतक्षेत्रको अयोध्या नगरी में वह केशव दुःख भोगकर आया और श्रीवर्माको कृशोदरी पत्नी सीमासे श्रीधर नामका पुत्र हुआ। कामदेवकी लीलाका नाश करनेवाले सुशील मुनिके पास उसने दीक्षा ली । और शरीर छोड़कर ब्रह्म स्वर्गमें आठ गुणोंमें निष्ठा करनेवाले देवत्वको प्राप्त हुआ।
२८. १. AF सुवस्य । २. AP अवरु वि । ३. A गंदण ससिसायर ।
४०
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महापुराण
[ ५७. २८.१३__ पत्ता-वजाउछ सम्वत्थह पविवि संजयंतु जिणतवि णिरउ ॥
तुहुं हुष्ट जयंतु बंभाउ चुर रिसि णियाणसल्लेण मुउ ॥२८||
कायराज जाओ सि भयंकर । इयरु वि पाउ मुर्णिदखयंकर ! अहमणिबद्धाउसु अगार अहि य उ अंतिममहिणारउ । पुणु वालयपहि बालु णिमण्णउ दुक्खपरंपराइ अण्ण । तसथाघरतिरिक्खभवआलइ णियडिउ हिंडमाणु गयकालइ । पविउलअइरावइ जइती
भूयरमणि काण णि गंभीरइ । गोसिंगें घरिणिहि संखिणियहि संखुर्भड समुहसंखिणियहि । तावसेण संजणियउ तावसु पंचहयासणु सहइ सतामसु । दिवतिलेयपुरि खेयरराणउ जोइवि जंतउ सकसमाणउ । णाम सुमालि णिबंध णिबद्ध अपणाणे नियतवाहलु लद्धउ | खगधरणीहरि उत्तरसे णिहि णयलवल्लहपुरि सुहाजोणिहि । विज्जदादु खगु पिय विज्जुप्पट मुहससियरधवलियदसहिसिवह । ताहं बिहि मि हियइच्छियरूवार हरिसिंगु मुव सुट संभूयः । विजानु णामें दढयरमुउ जगदूयाणुरूल भडसथुन । छत्ता-इदु भाई तुहारउ गहययर मेरधीरु परिचसभउ ||
एसम्मानरत इरिश परसेगर मोमवाम ॥२९॥
पत्ता-वज्रायुध सर्वार्थसिदिसे च्युत होकर जिनतपमें निरत संजयन्त हुमा । और ब्रह्म स्वर्गसे च्युत होकर तुम निदान शल्यसे मरकर जयन्त हुए ||२८॥
मुनिका घात करनेवाला दुसरा भी भयंकर नागराज हुआ, पापकर्मसे आयु बाँधनेवाला, पाप करनेवाला नाम ( सत्यघोष ) सातवें नरकमें उत्पन्न हुआ। फिर दुःख परम्परासे विदारित वह मूर्ख बालुकाप्रभ नरकमें निमग्न हुआ। प्रस, स्थावर और तिर्यचोंकी अन्मपरम्पराके जालमें पड़ा हुआ वह घूमता रहा । समय बीतनेपर विशाल ऐरावती नदोके किनारे भूतरमण नामक गम्भीर जंगलमें गोशृंग तपस्वीकी भाग्यहीन शंखिका पत्नीसे मृगशंख नामका तपस्वी हुआ। सतामस वह पंचाग्नि तप सहन करता है। दिव्य तिलकपुरमें इन्द्रके समान जाते हुए सुमालि नामक विद्याधरको देखकर उसने निदान बांधा और उम अज्ञानीने अपने तपका फल पा लिया । विजयाध पर्वतकी सुखयौन उत्तर श्रेणी में विद्युदंष्ट्र विद्याधर और उसकी प्रिया विद्युत्प्रभा थी, जो अपने मुखरूपी चन्द्रमासे दसों दिशापथ धवलित करती थी। वह मृगशृंग मरकर उन दोनोंसे मनचाहे रूपवाला पुत्र हुआ। विद्युदंष्ट्र नामका दृढ़तर बाहुओंबाला, योद्धाओंके द्वारा संस्तुत और यमदूत्तके समान
घता-यह महान् मेरुके समान धौर और परित्यक्त-भय तुम्हारा भाई, पूर्वजन्मके शत्रु इसके द्वारा आहत होकर-परमेश्वर होकर मोक्ष गया है ॥२९॥ २९. १. A अहमु । २. P वालय' । ३. A भयजालह । ४. A हरिणसिंगु हूय उ तपसिणियहि; P संखु व
भव समुहस'पणियहि । ५. A "पुरखेयर । ६. A वाजदाहु । ७. A विजप्पह । ८. विज्जुदाढु 1
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-१५. ३०.१४ )
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
३१५
एहउ भवसंबंधु वियारिउ एत्थु केण किर को उ मारिठ। भ करहि तुहूं जिणधम्मविरुद्ध णियमहि हियवउ रोसाइद्धउं । तं णिसुणिघि पडिजंपइ उरयरु तुह वयणेण ण मारमि खेयर ।। पई जिणमग्गु मझु बजरियर भवकदमि पडंतु उद्धरियज । वह वि साहु उवसर्गणिभणु लइ कीरइ खलदप्पणिसुंभणु । एयड कुलि सिजमंतु म विजउ पुरिसह दुद्धरविदुरसहेजलं। णारिहि सिम्झिहिंति णियमाला संजयंतपतिमापयमल। मागहमंडलकुवलयचंह इंदभूद पुणु कहइ गरिदहु। हिरिबंधणि पयणियस्वयरिंदहु णामु करिधि हिरिमंतु गिरिंदड्ड । मुइवि णित्रद्धवहरबंदिग्गहु लहु णीसल्लु चविवि सपरिगहु । गउ फणि संजयंतु मुणि वंदिवि रविआहट सुरवरु अहिणदिदि । सुरु जाइवि सुहि संठिउ लतवि आउमाणि बोलीणि सउच्छवि । धमा-इइ भरह खेसि उत्तरमहुरि पुरि अर्णतवीरिज णिवइ ।।
लायण्णरूवसोहगणिहि गारि मेरुमालिणिय सइ ॥३०॥
३०
यह संसार-सम्बन्ध विदारित हो गया । यहाँ किसके द्वारा कौन नहीं मारा गया ! इसलिए तुम जिनधर्मके विरुद्ध आचरण मत करो, रोषसे भरे हुए अपने मनका नियमन करो। यह सुनकर अजगर उत्तर देता है कि तुम्हारे शब्दोंसे में इस विद्याधरको नहीं मारूंगा 1 तुमने मुझे जिनमार्ग बताया है। संसारको कीचड़में डूबते हुए मेरा उद्धार किया है। तो मो उपसर्गका रोकना जरूरी है । लो, इस दुष्टके दर्पका विनाश किया जाता है। इसके कुलमें विद्या सिद्ध नहीं होगी। इसके कुछमें लोगोंको कठोर दुःख सहन करना होगा । परन्तु स्त्रियाँ नियमके घर संजयन्त मुनिकी प्रतिमाके चरणोंमें विद्या सिद्ध करेंगी। मागषरूपी मण्डलके कुलचन्द्र इन्द्रभूति गणधर पुनः राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि विद्याधरोंको लज्जाके बन्धनमें रखनेके कारण, पहाड़का नाम होमन्त रखकर तथा धांधे हुए शत्रुसमूहके बंधनोंको मुक्त कर, तुम निःशल्य रहो-यह कहकर अपने परिग्रहके साथ संजयन्त मुनिको वन्दना कर, दिवाकर देवका अभिनन्दन कर धरणेन्द्र चला गया। सज्जन देव जाकर लान्तथ स्वर्गमें स्थित हो गया। उत्सवोंके साथ आयुका मान समाप्त होनेपर
पत्ता-इस भरतक्षेत्रको उत्तर मथुरा नगरीमें अनन्तवीर्य राजा था, उसकी लावण्यरूप और सौभाग्यकी निधि मेरमालिनी नामकी सती स्त्री थी ।।३०।।
३०. १. AP नवसाग । २. AP°दपर्णागसुंभणि । ३. A सिज्जंतु | A ४. दुबरु विहर ; P दुरि विहरि ।
५, A हरिवणि पलिय'; P हिरिबद्धणि पयलिय ।
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३६
महापुराण
[ ५७.१.१
2
आइचाहु मोहमयमद्दणु हूयल मेरुणामु बहु अंदणु। णियकुलसंतइबेलिवराहें अमयवईहि तेण गरणाहे। हुल सपुग्णविहवेणुदामें
धरणु चविवि सुर मंदरु णामें। आयपणह विरएप्पिणु अंजलि एयह सयलहं भगमि भवावलि । सीइसेणु करि सिरिहरु सुरवरु रस्सिबेठ रवितेड वरामक। वजाउहु अहमिदु पियार संजयंतु दय करउ भडारड । महुर रामदत्त वि जाणिज्जा भक्खराहु पुणु देस भणिजइ । सिरिहर पुणु वसुसमदिवि अणिमिसु रयणमाल अञ्चुयसुरु सहरिसु । पुणु विजेयंकु धि आइचाहट जाउ मेरु पुणु मुणिगणणा। वाणि छणबिहु वेरुलियप्पहु जसहर काविहइ रूय॑प्पहु। रयणाहु अनुयउ विहीसणु सकरवसुमडणारउ भीसणु । सिरिधामठ सुठे बंभणिवासर णिउ जयंतु फणिवइविवरासर। पुणु मैदरणिगणसंजुत्तर सिरिभूइ वि फणि चमरि पवुत्तर । पत्ता-कुक्कुडफणि चोत्थयणरयरुहु अजयर पंकप्पहदुहित ॥
समरुझाड सत्समपुहविभत अहि पुणु सथैलदुक्खगहिउ ॥३१॥
मोहमदका मर्दन करनेवाला दिवाकर नामका देव उसका मेरु नामका पुत्र हुवा। और वह धरणेन्द्र ज्युत्त होकर अमृतवती रानीसे, अपनी कुलसन्ततिरूपी लताके श्रेष्ठ वर तथा सम्पूर्ण वैभवसे उद्दाम उस राजाका मन्दर नामका पुत्र हुआ। ( आप लोग) अंजलि जोड़कर इन सबकी भवावलिको सुनिए । सिंहसेन हाथी, श्रीधर सुरवर, रश्मिवेग अर्कप्रभघदेव (रवितेज), २वायुष सर्वार्थसिद्धि में प्यारा अहमेन्द्र और संजयन्त आदरणीय ( गणधर ) दया करें। मधुराको रामदप्ता जाना जाये, फिर उसे भास्कर देव कहा जाता है, फिर श्रीधरा, फिर पाठवें स्वर्गमें देक, रस्नमाला सहलार स्वर्गमें अच्युतदेव, विजयसे युक्त वीतभय और आदित्यप्रभ देव, तथा मेरु नामका गणधरोंका स्वामी हुआ। वारुणीका जीव, पूर्णचन्द्र वैडूर्यदेव यशोधरा, कापिष्ठ स्वर्गमें रुचकप्रभ रत्नायुध अच्युत विभीषण, दूसरी शर्करा भूमिका भीषण नारकी, श्रीधर्मा, ब्रह्मस्वर्गका देव, जयन्त, विवरों में आश्रित रहनेवाला धरणेन्द्र, फिर गुणियोंके गणोंसे संयुक्त मन्दर गणषर हुआ। श्रीभूति भी (सत्यघोष) सर्प चमर कहा गया ।
पत्ता-कुक्कुट सर्प, चौथे नरकका नारकी, अजगर, पंकप्रभानरकका नारकी, शवर, सासर्वे नरकका नारकी, सांप, फिर समस्त दुःखोंको नण करनेवाला ॥३१॥ -.- -. २१. १. AP अणमिसु । २. A विजयंतु वि । ३. A बेरुविय । ४. A भूयप्पह । ५. AP सुरु । ६. A
मंदरमुणिगण; P मंदरि मुणिगण । ७. A पस्या गरइ पुर। ८. A सम्वपुरन ।
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-५८. ३२.१०]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
३१७
हिंडिवि भवसंसारि परत्वसु पच्छइ हरिणसिंगु हुउ तावसु । विजदाद मुणिमारणदुजणु हो डल्झाउ दुकम्मवियंभणु । भदमितु पुणु केसरिससहरु पुणरवि उपरिमगेयजामा बकाबहु सासयगईगामिड देउ समाहि मधु रिसिसौमेिड । णविवि विमलवाणु तिथंकर तेरहमत परमेहि सुईकरु। गणहर गैणु परिपालिविणीरय मोक्खहू बे वि मेक मंदर गय । महु पसियतु वेंतु गुणदित्तई सुद्धइंदसणणाणपरिसई ।। निक्षल होउ फुरियणविमला भति भवंतयारिफमकमला। पत्ता-कह णिसुणिवि मेरुति मंधरह विभिय भरणराहिवइ ।।
थिय मिणवरपयसंणिहियमा पुर्यतकरसरिसरह ॥३२॥
इय महापुराणे तिसहि महापुरिसगुणालंकारे महामन्धमरहाणुमणिए महाकापुरफर्यतविरइए महाकावे संजयंतमेसर्मदरकहवर
णाम सस वेगासमो परिच्छे भी समतो ..
३२ फिर परवश समस्त संसारमें परिभ्रमण कर बावमें मगधंग तापस हमा। फिर मुनियों को मारनेवाला दुर्जन विद्युत्दंष्ट्र हमा। अरे, दुष्कर्मके विस्तारमें भाग लगे। भद्रमित्र (सेठ) सिंहचन्द्र, फिर उपरिमवेयकका देव, फिर शाश्वतगतिगामी चक्रायुष ऋषिस्वामी देव मुझे समाधि प्रदान करें। शुभ करनेवाले परमेष्ठी तेरहवें तीर्थकर विमलनाथको प्रणाम कर, गणघर गुणका परिपालन कर निष्पाप मेरु और मन्दर दोनों मोक्ष चले गये। वे मुझपर प्रसन्न हों, तथा गुणोंसे प्रदीप्त शुद्ध दर्शन, ज्ञान और चारित्र मुझे दें। स्फुरित आकाशके समान निर्मल तथा संसारका अन्त करनेवाले उनके चरणकमलों में मेरी निश्चल भक्ति हो।
पत्ता-मेह और मन्दरकी कहानी सुनकर भरत रामा विस्मित हुए। नक्षत्रोंकी किरणोंके समान कान्तिवाले तथा जिनवरके चरणकमलोंमें अपनी बुद्धि रखनेवाले वह स्थित रह गये ॥३२॥
इस प्रकार प्रेसठ महापुरुषोंके गुणाकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामण्य भरत द्वारा भमुमत महाकापका संजबन मेक
मन्दर कथान्तर मामका सत्तावनयाँ परिच्छेद समाप्त हुभा ॥५॥
३२. १. A°संसार । २. A°सिंगसुउ। ३. AP विज्जुदा मुणिमारणु। ४. A सासयगय । ५. "
मासिक.। ६. A गुण । ७. A पिभित । ८. AP पुष्पदंत । ९. A कहतरमग्णणं । १. AP सत्तावण्णा ।
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संधि ५८
जेणे कम्मविमुक जगु सेहत लक्खिं ।।। फयदहिं हरिहरबंभहिं जे जम्मि वि ण सिक्खि ॥ध्रुवक।
जो ण महइ जीवहं सासणासु सुल्झाइ सम्मत्त खाइपण जायंदणमंसिराहादशा जम्मतरि भावियभाषणासु समदिद्विदिकंधणतणासु णार्णवणिवेसियतिहुवणासु उभियसियायवतत्तयासु पवयणपारियपेसियसुरासु
जे होते मेल्लइ सासणासु। थुब्वइ देवोहे खाइएण। त जिचादवभासासणासु। संखोहियवितरभावणासु । तवजलणददुक्कियतणासु । दिहिवपरिरक्स्त्रियवयवणासु । एकाहियवरवत्तत्तयासु। कमकमलणेषियदेवासुरासु ।
सन्धि ५८ कर्मसे विमुक जिस एकने उस वैसे संसारको देख लिया कि जिसे ( देखना) दम्भ करनेवाले विष्णु, शिव और ब्रह्मा जन्म लेकर भी उसे देखना नहीं सीख सके ।
जो जीवोंके प्राणोंका नाश नहीं चाहता, परन्तु जिसके होने से जीव लक्ष्मी और चंचलता छोड़ देता है, उसे क्षायिक-सम्यक्त्व दिखाई देने लगता है। आकाशसे आकर देवता जिसको स्तुति करते हैं, जिनका शासन नागेन्द्र के द्वारा नमनीय है, जिनके शब्द सर्वभाषात्मक होते हैं, जिन्होंने जन्मान्तरमें सोलह भावनाओं का चिन्तन किया है, जिन्होंने व्यन्तर और भवनवासी देवोंको क्षुब्ध किया है, जो अपनी सम्यक् दृष्टिसे स्वर्ण और तुणको समान समझते हैं, जिन्होंने सपको आगमें दुष्कृतरूपी तृणोंको जला दिया है, जिनके ज्ञानमें तीनों लोक निवेशित हैं, जिन्होंने धैर्यरूपी बागड़से प्रतरूपी वनकी रक्षा की है, जिनके ऊपर श्वेत पासपत्र उठे हुए हैं, जो एकसे अधिक वरवासासे माशाओंको तृप्त करनेवाले हैं, जिन्होंने अपने प्रवचनोंसे मांस-मदिराके सेवनका निषेक किया है, जिनके चरण-कमलोंमें देव और असुर नमन करते हैं। A has, at the beginning of this samdhi, the following stanza:
संजुडियजाणुकोप्परगोधाकस्विघणाययो ।
अणहवा वेरियं तुजम जे पावर लेहो दुपखं ।। १ ।। P and K do not give it anywhere १. १. Pमक्सिय । २. APण वि सिक्वि । ३ P सिविनयउं । ४. A देवहि; P देवोहिं । ५. AP
णाद । ६. A जम्मंतरमिय । ७. PT णागति णिवे। ८. PT पेसीसुरासु । ९. APणमिम् ।
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३१९
-५८.२.१३ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-हयधंसह गुणवंतहु अणिमिसकेउकयंतहु ।।
'भेयर्वतहु अरहतहु पणविधि पयई अणंतहुं ॥१||
पुणु कहामि कहाण कामहारि तहु केरळ सासयसोक्खकारि । धादइसंडहु पच्छिम दिसाइ वित्थिर्णि मेरुपुषिल्लभाई। परिहापाणियपरिभेमियमयरि मणितोरणवंदि अरिद्वयरि । पउमावल्लहु पउमरहु राव तह एकु दिर्षसु जायक विराउ | आणियसंमाणियबुजणाइ णीणियअवमाणियसजणाई। अविणीयइ धणमयषभलाइ पवणाहयतणजललषचलाइ। बहुकवाणिविडणिवरंजियाइ भंगुरभावेणं लेजियाइ। महिवालरिकइ एयइ खलाइ मणवारणबंधणसंखलाइ। बद्ध हवं णिवसमि एत्थु काई अणुसरमि सत्ततचाई साई। सिरि ढोर्यमि तणयह घणरहान संसार सरणु ष को वि फासु । इय चितिवि पासि सयंपहासु वउ लक्ष्य छिदिवि मोहपासु । छत्ता-अविहंगई धरिवि सुर्यगई एयारह जिणदिट्टई।।
फयवसणइं इंदियपिसुणई जिणिवि पंच दपिट्टई ।।२।। पत्ता-ऐसे अन्धकारको नष्ट करनेवाले, गुणवान्, कामके लिए यम, ज्ञानवान् अनन्तनाथ अरहन्तके चरणोंको प्रणाम करता हूँ ||१||
और फिर कामको नाश करनेवाली उनकी शाश्वत सुख देनेवाली कथाको कहता हूँ। घातकीखण्डकी पश्चिम दिशामें विस्तीर्ण मेरुके पूर्वभागमें अरिष्ठ नगर है, जिसके परिखाजलमें मगर परिभ्रमण करते हैं और जो मणितोरणोंसे युक्त है। उसमें पपादेवीका प्रिय राजा पपरप था। उसे एक दिन विराग हो गया। जिसमें दुर्जनोंको लाया और सम्मानित किया जाता है, तथा सज्जनोंको निकाला और अपमानित किया जाता है, जो बविनीत और धनके मदसे विह्वल है, जो पवनसे आहत तण और जलकणोंको तरह चंचल है, जो अत्यन्त कपटपूर्ण दृढविटोंसे राजाका रंजन करती है, जो अपने कुटिलभावसे दासीके समान है, मनरूपी हाथोकी बोधने के लिए श्रृंखलाके समान है, ऐसी इस दुष्ट राज्यलक्ष्मोसे बंधा हुआ मैं यहां क्यों निवास करता है। मैं उन सात तत्वोंका अनुसरण करता है। अपने पुत्र धनरयको वह लक्ष्मी देता है। संसारमें कोई किसीकी शरण नहीं है। यह विचार कर उसने स्वयंप्रभ मुनिके पास जाकर मोहरूपी बन्धनको काटनेके लिए व्रत ग्रहण कर लिया।
पत्ता-जिनके द्वारा उपदिष्ट ग्यारह अलांगोंको धारण कर और दुःख उत्पन्न करनेवाले दपिष्ठ इन्द्रियरूपो दुष्यों को जोतकर-॥२॥
१०. A भषमता गुण । ११. A हयवंतह मर। २. 1. AP पावहारि । २. A विधिण्णमे । ३. A मावि । ४..A पाणि । ५. P परिसमिय ।
६. AP दिवसि । ७. A कवडणि विडमइ रजियाइ; P कवडगिविरंजिया । ८. P डोइवि।
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५
१०
बंधिषि तित्यं करणोमगोत्तु सो संदणु णरवरिंदु बावीसमहोदहिपरिमियाड पुष्कं तरपवर विमाणवासि बावीस पक्वहि कहिं वि ससइ जाणवि तेत्तियहिं जि वच्छहिं rastr रूविषथारु धाम किं वण्णमि सुरवंड सुकलेसु अहं तयहुं धम्मोचयारि इह भरहखेति साकेयणाहु
कुरारकालु पत्ता- लहु एयहुं दिणयरसेयहुं करहि धणय पुरवरु बरु ।। तं इच्छिवि सिरिण परिच्छिवि चलित जक्खु पंजलियरु ||३||
૪
उeft केण कहिं वि पीय कत्थs हरिणीलमणीहिं काल
३
संणासे मुजइवह पवित्तु । सोलह दिवि व सुरिंदु | रिद्धपाणिपरमाणु काउ | तणुतेओहामियदुद्धरासि । हियण देव आहारु गसइ | सेविज अमरहिं अच्छ रेहिं । पेच्छ छट्ट परयंतु जा । व जीवित थिष्ट छम्माससेसु । बज्जरह कुबेर कुलिसधारि । पहु सीसे थिरथरबाहु | जयसामासुंदरिसामिसालु |
कत्थइ ससियंत जलेहिं सीय । महिलि विडिय मेहमाल ।
३
तीर्थंकर नाम गोत्रका बन्ध कर वह पवित्र मुनिवर मृत्युको प्राप्त हुए । यह पद्मरथ श्रेष्ठ राजा सोलहवें स्वर्ग में राजा हुआ। उसकी आयु बाईस सागर प्रमाण थी। साढ़े तीन हाथ ऊँचा उसका शरीर था। वह पुष्पोत्तर विमानका निवासी था, अपने शरीरके तेजसे दुग्धराशिको तिरस्कृत करनेवाला था । बाईस पक्षमें कभी सांस लेता था और उतने ही वर्षों में जानकर मनसे वह देव बहार ग्रहण करता था। वह देवों और अप्सराओंके द्वारा सेवतीय था । अवधिज्ञानके द्वारा छठे नरकके अन्त तक जहाँ तक रूपका विस्तार है, वहाँ तक वह देखता था । शुक्ललेश्यावाले उस देववरका में क्या वर्णन करूँ ? जब उसका जीवन छह मास शेष रह गया तो धर्मका उपकार करनेवाला इन्द्र कुबेरसे कहता है कि इस भरतक्षेत्रके अयोध्या नगर में स्थिर और स्थूल बाहुवाला साकेतका राजा सिंहसेन है । वह इक्ष्वाकुवंशीय क्रूर शत्रुके लिए कालके समान, जयश्यामा सुन्दरीका स्वामी श्रेष्ठ है ।
पत्ता - दिनकर के समान तेजवाले इनके लिए हे कुबेर, तुम पुरवर और घर बनाओ । उसे अपने सिरसे चाहकर और स्वीकार कर कुबेर हाथ जोड़कर चला ॥३॥
४
वह अयोध्या नगरी कहीं स्वर्णसे पोली और कहीं चन्द्रकान्त मणियोंसे शोतल है। कहीं
४. १. AP कणयं ।
३. १. A
Pणाचं २. AP मुखउ । ३. A तिकरखपाणिपरिमाणकाउ; P तिकस्यणियपरिमाणकाउ । ४. AP पुप्फुतरं । ५. APविवाण । ६ उ वियाह । ७, A जाम ।
८. ताम ।
0
९. A जीवित । १०.
सर ।
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-१८, ५.८ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
कत्थइ थिय मरगय फोमराय कत्थइ हल्लइ चिंधेहि चलेहि गायइ भमरहिं रुणुरुणंति पुरि अक्खर खुत्तर कामबाणु जा मिम्मिय पालिय निधि देण तरीसह पियगेहिणीह हिमहासकासकासवासि
णं आंडलधणुदंडछाय । viras कामिणि करयलेहि । पारावयास णं कर्णति । दरिसर व कुसुमधूलीवियाणु । साम वणिजइजिडेण । सोहग्गमद्दाजलवाहिणीइ । नियंति तलिमप्पएसि ।
धत्ता - सुहुँ सुत्त पुण्णवित्तइ स्यणिहि पच्छिमजामई ॥ अबलोइय मणि पोमाइय सिविणावलि जयसामइ ||४||
करडगलियमयधारओ वसहो सहासोड़िओ विहिणहरुक्केर ओ पंकसरसामिणी
गुगुगुमंतमहुयरचलं पुण्णो लच्छिसहायरो कीलाए उडणा वयणसमयि सयदला
**
करिं गिरिभित्तिविवारओ । खुरलंगूरपसाहिओ | विमसीह किसोरओ । चरण्डविया गोमिणी ।
दामजुयं सुपरिमलं | गयउ दिवारो । सरभमिरा पाढीणया । कलसा दोणि समंगला |
३२१
५
१०
२. A बँधे । ३. । कुति । ४. P उ । ५ A सुहसुत । ५. १. AP विसमउ |
૪૨
५
हरे और नो मणियोंसे काली है, मानो धरतीपर मेघमाला आ पड़ी हो। कहीं मरकत और पद्मरागमणि थे, मानो इन्द्रधनुष के दण्डको कान्ति हो । कहींपर चंचल व्वजोंसे आन्दोलित थी, मानो कामिनी अपने चंचल हाथोंसे नाच रही हो, मानो गुनगुनाते हुए भ्रमरोंके बहाने गा रही हो, मानो कबूतरोंके शब्दोंसे शब्द कर रही हो, मानो वह नगरी लगे हुए कामबाणको बता रही हो, मानो कुसुम परागके विज्ञानको दिखा रही हो। जिसका निर्माण निधिकलशोंकी रक्षा करनेवाले कुबेरने किया हो, उसका वर्णन मुझ जैसे जड़ कविके द्वारा कैसे किया जा सकता है ? सौभाग्य-महाजलको नदी, उस नगरीके राजा को प्रिय गृहिणी, हिम हास कांस के समान पलंगपर निद्रा में ऊँधती हुई
1
पत्ता - पुण्य से पवित्र उसने सुखसे सोती हुई रात्रि अन्तिम प्रहर में स्वप्नावली देखी और मन प्रसन्न हुई ||४||
५
गण्डस्थल से मद झरता हुआ और गिरिभित्तिका विदारण करनेवाला गज, गल कम्बल से शोभित ओर खुर तथा पूँछसे प्रसाधित वृषभ, वज्र के समान नखोंके समूहवाला विषम सिंह किशोर, नवकमलोंके सरोवरको स्वामिनी और गजवरोंके द्वारा अभिषिक्त लक्ष्मी, जो गुनगुन करते भ्रमरोंसे चंचल है ऐसा शुभररिमलवाला मालायुग्म, पूर्ण लक्ष्मीसहोदर ( चन्द्रमा), आकाश में उगा हुआ सूर्य कीड़ा में उड़ता हुआ और जलमें घूमनेवाला मत्स्ययुगल 1
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३२२
[५८. ५.९
महापुराण वियसियतामरसायरो
मयरकरिल्लो सायरो। गरूयं गयरिउआसणं
सुरसउहं तमणासणं। णिद्धं णायणिहेलणं
काओयरकयकोलणं । दिसिवहपत्तमऊडओ
चंचिररयणसमूहओ। पसरियजालाणियकरो
विमलो मारुयसहयरो। घसा-फलु बालहि सिक्षिणयमालहि घुफ्छंतिहि धवलच्छिहि ।।
पइ भासइ तणुरुहु होसह तिजगणाहु तुह कुच्छिहि ॥५॥
राय घर सयमहपेसणेण कंचीणिबद्धकिकिणिसणेण । आगय सिटि हिरि निहि कति दुद्धि गिर इन जबसायहि मासुद्धि । माणिकिरणपसरियवियार छम्मास पडिय घरि कणयधार । कत्तियपडिश्यदिणि चंदेसुकि रेवइणक्रवत्ति मलोहमुक्ति। गयरूवें गंगापंडुरेण
कयसुकयमहीरहफलभरेण । अब इण्णु सुराहिउ गम्भवासि चउभेयदेवपुजाणिवासि । अहिसित्तई मायापियरयाई मंगलकलसहि जिणगुणरयाई । तिहुवणवइगुरुहि गुरुत्तणेण ___ समलंकियाई सुपहत्तणेण । घना-णचंतहिं मउ गायतहिं करयतूरणिणायहिं !
घरपंगणु दिसि गयणंगणु छायन अमरणिकायहिं ॥६|| जिनके मुखोंपर कमल समर्पित हैं ऐसे मंगल सहित दो कलश, विकसित कमलयाला सरोवर; मगररूपी हाथियोंसे भरा समुद्र । भारी सिंहासन, अन्धकारको नष्ट करनेवाला सुरविमान, स्निग्ध नागभवन कि जिसमें सांप कोड़ा कर रहे हैं, जिसकी किरणें दिशापथोंमें व्याप्त हो रही हैं ऐसा रंग-बिरंगा रत्नसमूह । जिसका ज्वाला समूह फैल रहा है ऐसा विमल अनल ।।
पत्ता-स्वप्नमालाके फलको पूछनेवाली धवलाक्षिणी बालासे पति कहता है कि तुम्हारो कोखसे त्रिजगस्वामी पुत्र होगा ||५||
इन्द्र की आज्ञासे करधनीमें बंधे हुए किकिणियोंके शब्दोंके साथ श्री, ह्री, ति, कान्ति और बुद्धि वेवियां आयीं और उन्होंने जयश्यामाको गर्भशुद्धि की। माणिक्य किरणों से जिसका विकार प्रसरित हो रहा है, ऐसी स्वर्णधारा छह माह तक घरमें बरसी। कार्तिक कृष्णा प्रतिपदाके दिन, मल समूहसे मुक्त रेवती नक्षत्र में गंगाके समान सफेद गजरूप में, किये गये पुण्यरूपी वृक्षके फलके भारके कारण वह सुरराज, चार प्रकारके देवोंके पूजा-निवास उस गर्भवासमें आया। जिनवरके गुणोंमें रक्त माता-पिताका मंगल कलशोंसे अभिषेक किया गया। तथा त्रिभुवनपतिके पिताको गुरुत्व और सुप्रभुत्वसे अलंकृत किया गया।
पत्ता-नाचते हुए, कोमल गाते हुए, हाथोंसे बजाये गये तूयों के निनादोंवाले अमरनिकायोंसे गृह-प्रांगण, दिशाएं और आकाशरूपी प्रांगण बाच्छादित हो गया ॥६॥
२. P पिटुं णाय । ३. P सहोयरी। ६.१. A अयसामहो । २. A चंदमुक्कि । ३. AP पुजापवेसे ।
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-५८. ८.६]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
३२३
पुणु वसुवरिसणविहवें गयाई सत्तरई दोषिण वासरसयाई । गइ विमेलरिसीसरि दोहराई जझ्यहं गयाई पावसायराइं। जइयतुं अंतिमपल्लहु तिपाय गय णियणासियधम्मछाय । तइयहुँ भवभूरहसत्तहेइ
ताणत्तयधारि महाविवेद । जेट्ठहु मासह तमकसैणपक्खि बारहमइ दिणि णासियविवक्खि सापगड शिधसमिसासु सुरवरसंछणु णहंतरालु। दावियसुरकामिणिणहलीलु अर्बयरिवि अमरवइ पडिषि पीलु | परियचिवि त पुरवर विसालु जगणिहि करि देटिपणु कवडयालु । घसा-उत्तुंगहु रुम्ममयंगहु सूयरखद्धकसेरूहि ।
गउ सुंदरु वेउ पुरंदरु णाहु लएप्पिणु मेरुहि ||७||
भावालड णश्चंतहिं णडेहि स्त्रीरोयखीरधाराघडेहिं । अहिसिच भडारउ भावणेहिं वणेसुरवरेहिं जोइसगणेहि । वइमाणिएहि वीणाहरेहि गाय बंदिउ मरलियारेहिं । भूसिउ परिहाविउ असहु संतु णाणे अणंतु कोकिउ अणंतु । आणेपिणु पुणु पुरअरु पसण्णु देविद देविहि वेव दिण्णु । पणविवि सुरबइ गड णियविमाणु बढ्इ सिसु णं सिसुसेयभाणु ।
पुनः धनको वर्षाके वैभवसे नौ माह बीतनेपर, जब विमल ऋषीश्वरको (निर्वाण प्राप्त हुए) नो सागर समुद्र समय हो गया और जब अन्तिम पल्यके भी जिसमें निर्दया ( हिंसा ) के द्वारा धर्मको छाया नष्ट हो गयी है, ऐसे अन्तिम भागमें संसाररूपी वृक्षके लिए माग, तीन ज्ञानके पारी और महाविवेकशील त्रिभुवन श्रेष्ठ, ज्येष्ठ शुक्लाको निर्विन द्वादशीके दिन उत्पन्न हए । आकाशका अन्तराल सुरषरोंसे आम्छन्न हो गया । जिसने देवकामिनियोंकी नृत्य-लीलाका प्रदर्शन किया है, ऐसा इन्द्र ऐरावतपर चढ़कर और नीचे आकर उस विशाल पुरवरको प्रदक्षिणा कर, मायावी बालक माताको देकर
पत्ता-और स्वामीको लेकर, “जिसमें सुअरों द्वारा अलकंक ( कसेरू) खाया जाता है, ऐसे ऊँचे स्वर्णमय सुमेरु पर्वतपर गया ॥७॥
भावपूर्ण नृत्य करते हुए नटों और क्षीरोदकके क्षोरधारा-घटोंके द्वारा भवनवासी देवों, व्यन्तर देवों, ज्योतिषदेवों, वैमानिकदेवों और वीणा धारण करनेवालों ( किन्नरों ) ने हाथ जोड़े हुए अभिषेक किया, गाया और वन्दना की । शान्त अरहन्तको भूषित किया और वस्त्र पहनाये। हानसे अनन्त होनेके कारण उनका नाम अनन्त रखा गया। पुनः नगरमें आकर देवेन्द्रने ७. १. P विमलि रिसों । २. A भूमहछत्तहेछ । ३. A कसिणं । ४. AP अवयरिउ । ५. A वडवाहु ।
६. A भम्ममयंगः । ८.१. Pomits वर्ण ।
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३२४
महापुराण
[५८.८.७जोण्हालउ णिहिलकलाख लेंतु मुहदसणु कुवलयदिहि करंतु। कामग्गितापवित्थर इरंतु अफलंकु अखंड पसणेकंतु | घत्ता-जिणु परिसई कयजणहरिसह माणियइच्छियसोक्खई ।।
जेहिं कुर्वरतणि थिन सिसुकीलणि तहि सत्तद्ध जि लक्खईदा
पुणु नहु का पची मयणताउ सिरि मुच्छिय चमरहिं दिण्णु पाउ | सिंचिय अहिसेयघडंबुपहि सचेयण कय मइवरणेहि। जट्ठिय लहु सत्संगई धुणंति अरि सुहि मार्शत्थु वि मणि मुणति । णियपरियणणिवसणु संघरंति मिलियह मैडलियहं मणु हरति । अवलोइय णाहहु खेर्ड देति अच्छचलि विचलि लीलाइ वसति । पुजि सूइड इंदाइएहिं
सीसेण पमंसिउ दाइरहिं । मुंअंतह संपयसुहसयाई
पणदहसमाहं लक्खई गयाई। पण्णाससरासँण देह तुगु
तवणीय वण्गु ण णवपयंगु । जाणामहिवालयकुलसमरिंग सो रयणिहि थिउ अत्थाणमग्गि । पत्ता-तहिं राएं भषियसहाएं चक्क पडंति णिरिक्खिय ।।
गय चंचल जिह सा सयदल सिह णररिद्धि वि लक्खिय ॥९॥ प्रसन्म देवको माताके लिए दे दिया। इन्द्र प्रणाम करके अपने विमानमें चला गया। बालक इस प्रकार बढ़ने लगा मानो ज्योत्स्नाना पर वर्ष लाग्ने प्रहण करता हुआ शुभदर्शन कुवलय (पृथ्वीमण्डल-कुमुद समूह ) को सौभाग्य देता हुआ बालचन्द्र हो । कामाग्निके तापका विस्तार करते हुए अकलंक अखण्ड एवं प्रसन्नकान्त
घता-जिनभगवान् लोगोंको हर्ष प्रदान करते, इच्छित सुखोंको भोगते तथा शिशुक्रीड़ा करते हुए जब कुमारावस्थामें रह रहे थे तो साढ़े सात लाख वर्ष बीत गये ||८||
फिर उनके लिए प्राप्त राजलक्ष्मी मदनसे तापको प्राप्त हुई। मूच्छित उसे चमरोंसे हवा दी गयी, अभिषेकके षटजलोंसे उसे अभिषिक्त किया गया, मन्त्रीवरोंके द्वारा सचेत किया गया। वह शीच उठी ( राज्यलक्ष्मी ) और अपने सात अंगोंको ( स्वामी अभास्यादि ) को धुनती है, शत्रु, सुधी और मध्यस्थका अपने मनमें ध्यान करती है, अपने परिजनरूपी वस्त्रका संवरण करती है, मिले हुए माण्डलीक राजाओंका मनहरण करती है, देखनेपर जो खेद देती है, ऐसी यह उन स्वामोके वक्षस्थलपर निवास करती है, उस सुभगकी इन्द्रादिकोंने पूजा की तथा देवोंने नमस्कार किया। इस प्रकार सम्पत्तिके सैकड़ों सुख भोगते हुए उनके पन्द्रह लाख वर्ष बीत गये । उनका शरीर पचास धनुष ऊंचा था। स्वर्णके समान रंगवाले मानो नवसूर्य हों। जो नाना प्रकारके राबाभोंके कुलोंसे परिपूर्ण हैं, ऐसे दरबार में रात्रिके समय वह बेठे हुए थे।
पत्ता-वहां भव्यसहाय राजा अनन्तने एक टूटते हुए तारेको देखा। जिस प्रकार वह चंचल तारा सो टुकड़े होकर चला गया, उसी प्रकार उन्होंने मनुष्यके वैभवको देखा ॥२॥
२. P पसण्णु केतु । ३. A omita अहिं । ४. AP कुमरत्तणि । ९.१. AP महि । २. AP वरणरेहिं । ३. A मनत्थई । ४. P सरासणु ।
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-५८.११.४ ]
महाकषि पुष्पदन्त विरचित
३२५
ता तणुरुइरंजियछणससीहि संबोहिउ दिव्यमहारिसीहि । पहवणाइ पोमासंगमेहि कहाणु कय सुरपुंगमेहिं । अप्पिवि अणंत विजयहु सधामु णीसेसु रेज्जु धणु साहिरामु । भहरज्जुणिकिकिणिर्लबमाणु आरूढउ सायरदेस जाणु। छट्टेण जेट्टमासतरालि
बारसिधासरि णित्तारवालि । वरुणासा(लिइ खरंसुजालि उजाणि सहेजइ घणतमालि । पहु पंचमुहि सिरि लोउ देवि सहसेण णिवह सहुँ दिक्ख लेवि । बीयइ दिणि दिणयरफरफुरति हिंडतु देउ उज्झाररति । राए विसाहभूर आशु
जनक निपारिक महीमहंतु। दिण्णउ त तहु आहारवाणु पंचविहु वियंभिउ चोजठाणु। घत्ता-णियमत्थहु दसदिसिवत्थह खरतवचरणसमत्थहु ॥
दुइ अद्दई दुरियविमइई गयई तासु छम्मत्थहु ॥१०॥
मासम्मि पहिला महुपमत्ति पुग्विलाइ धणि आसत्थमूलि संभूय लोयालोयगामि आश्य बत्तीस वि सुरवरिंद
णिचंदइ दिणि मासंतपत्ति। पंचमउ गाणु ह्यघाइमूलि । थिउ अमहावत्थ हि भुवणसामि । गह तारा रिक्ख खरंसु चंद ।
तब जिन्होंने अपने शरीरको कान्तियोंसे पूर्णचन्द्रको रंजित किया है ऐसे दिव्य-महाऋषियों ( लौकान्तिक देषों ) ने उन्हें सम्बोधित किया। लक्ष्मी सहित देवश्रेष्ठोंने अभिषेक कर दीक्षा कल्याणक किया। अनन्तविजयके लिए अपना घर, समस्त राज्य और सुन्दर घन देकर, मधुर ध्वनिवाली किकिणियोंसे शोभित सागरदत्ता नामकी शिविकामें चढ़कर ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशीके दिन ( जबकि चन्द्रमा उदित नहीं हुआ था), सूर्यके पश्चिम दिशामें कलनेपर, सहेतुक उपवनमें पांच मुट्टियोंसे केश लौंच कर एक हजार राजाओंके साथ स्वामीने दोसा ले लो। दिनकरकी किरणों से चमकते हुए दूसरे दिन अयोध्या नगरीमें विहार करते हुए धरतीमें पूज्य अनन्तनाथको राजा विशाखभूतिने जयजयकार कर रोक लिया। उसने उन्हें आहार दान दिया। वहाँ पांच आश्चर्यके स्थान हुए।
पत्ता-नियमोंमें स्थित दिगम्बर तीनतर तप करने में समर्थ और छमस्थ उनके पापोंको नाश करनेवाले उनके दो वर्ष बीत गये ॥१०॥
मधुसे प्रमद चेत्रकृष्ण अमावस्याके ( चन्द्रविहीन ) दिन पूर्वोक्त वन ( सहेतुफवन ) में अश्वस्थ वृक्षके नीचे चार घातिया कोका नाश करनेपर उन्हें पांचवा ज्ञान उत्पन्न हुआ। वह लोकालोकको देखनेवाले हो गये तथा भुवनस्वामी अर्हत्-अवस्थामें स्थित हो गये । बत्तीसों १०. १. AP देसु । २. A धणसाहिराम । ३. AP सायरपतु । ४. AP °फुसिह । ५. A विसाइभूई;
P वसाहभूए । ६. A तं तह । ७. AP चोज्जु ।
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३२६ ५
महापुराण
[५८.११.५तडि मेह सुवण्ण दिस ग्गिणाय मरु जलणिहि थणियासुरणिहाय । किंणर किंपुरिस महोरगाय गंधव्य जक्ख रक्खस पिसाय । संपच भूय भत्तिल्लभाव
सयल वि थुर्णति जय देव देव । जय जय सामासुय जय अणंत जय मिहिरमहा हिय गुणमहंत । जय जणणमिणमयरहरसेउ जय सिव सासयसिबलपिछ हेउ । पत्ता-जिणणामें भधिपणामें पावमातरु भाइ॥
गयगम्यहं सव्वहं भन्वहं भावसुद्धि संपन्जा ॥११॥
अंसरियर्ड जे महिसुरहरेहि जं सहमण याणि जगि परेहिं। जं केण वि णज दिट्ठवं सुदूर्ग तं पई पयडिज तुहूं भाषसूरु । धणपुत्तकलत्तई अहिलसति भोयासइ तावस तउ करंति । तुहं पुणु संसारु जि संपुंसंतु संचरहि महाणि परिउं संतु । दिणि अच्छइ घरि वावारली णिसि सोवइ जणु समदुक्खरीणु । तुहं पुणु रिसि अहणिसु जग्गमाणु दीसहि परिमुकपमायहाणु । बाहिरतवेण पइं अंदरंगु
रक्खि णीसेसु वि मुइवि संग। तक्ताबें पई तावि णियंगु विवियउ पई दुइमु अणंगु । सुरवरेन्द्र उसमें आये। ग्रह, तारा, नक्षत्र, सूर्य और चन्द्रमा भी, विद्युत, मेघ, यक्ष, दिग्गज, पवन, समुद्र, गरजता हुआ असुर-समूह, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और पिशाच और भक्तिभावसे भरे भूत वहां पहुंचे। सभी देव स्तुति करते हैं, "हे देव ! आपकी जय हो। हे श्यामपुत्र अनन्त, आपकी जय हो। सूर्यसे भी अधिक तेजवाले और गुणोंसे महान् आपकी जय हो। हे जन्म-मृत्यु के समुद्र के लिए सेतुके समान आपको जय हो । हे शाश्वत मोक्षरूपी लक्ष्मीके कारण आपकी जेय हो।
पत्ता-भक्तिसे प्रणम्य जिननामके द्वारा पापरूपी वृक्ष खण्डित हो जाता है और गर्वसे रहित समस्त भव्योंकी भावशुद्धि हो जाती है ॥११॥
१२
जो धरती और देव विमानों से अन्तहित है, जो सूक्ष्म है और जगमें दूसरोंके द्वारा नहीं जाना जाता, जो इतना दूर है कि किसीने नहीं देखा, उसे हे भावसूर्य, तुमने प्रकट कर दिया । तापस लोक धन, पुत्र और कलत्रकी इच्छा करते हैं और भोगको आशासे तप करते हैं, लेकिन आप संसारका सम्मान करते हुए चलते हैं। हे महामुनि, आप शान्त चारित्रका आचरण करते हैं। जन दिनमें धरमें व्यापारमें लीन रहता है, और रात्रिमें श्रमके कष्टसे थककर सो जाता है। आप ऋषि हैं, आप दिनरात जागते रहते हैं और प्रमादके स्थानसे आप मुक्त दिखाई देते हैं। समस्त परिग्रहको छोड़कर आपने बाह्य तपसे अन्तरंगकी रक्षा को है । तपतापसे आपने अपने शरीरको तपाया है और आपने दुर्दम कामदेवका दमन किया है। ११.१. A भतिल्लभाय । २. P"णिहल । ३. AP जयलच्छि । ४. P महाभव । ५. A भंजह । ६. AP ___ भम्वहं सम्वहं। १२.१. 2 सुहम् । २. A सदू । ३. A संफुसंतु। ४. AP महामुणि सच्चरितु । ५. A अहणिति ।
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३२७
-५८. १३, १३ ] महाकवि पुष्पदन्त विरक्षित
धत्त]--अणुसकुलु हत्ययहाभलु जि तिs दिलु गिरिविखउ ।
मयमसदं भयणासप्तई विडवणु पहुं पई रक्खि ।।१२।।
णिम्मुक्कसाय जिणेसरासु जाया गणहर पण्णास तासु । पुवंगधराह.सहासु वुत्तु तं तिउणउं पाइहिं दुसयजुत्त । चालीससहस एक्कूण भणमि | पंच जि सयाई भिक्खुयेहं गणमि । अत्तारि सहस तिपिण जि सयाई । अवहीहराई पालियक्याई।
यसहसई केषलदसणाई मणपज्जवणाणमहागुणाई । तेत्तियई जि मयविदावणाह वसुसमयई सिद्धविठठवणाहं । अदेव सहासई एक्कु लक्खु संजमधारिहि सपणोणचक्खु । सावयह लक्ख दो चट भणंति सावइहिं महाका किर गणंति । गवसंख तियेसगण बंदणिज्ज संखेन तिरिक्त णमंसणिज्ज । संमेयहु सिहरु समारुहेवि छेइल्लु माणु दढयर धरेवि।। विच्छिण्णउं किरियाजालु सयलु ओसारिवि वेउ तिदेहणियलु । गल मोक्खहु अमवासाणिसियहि गुरुजोयम्भासे तहिं जि दियहि । रिदुसमसाहसाई सउत्तराई सिद्धाई रिसिहि पणमामि ताई।
पत्ता-अणओंसे व्याप्त यह समस्त संसार हे प्रभ, आपने जिस प्रकार हाथपर रखा हा आँवला, उसी प्रकार समस्त संसारको देखा है और मदमत्त तथा काममें आसक्त त्रिभुवनकी रक्षा की है ॥१२॥
१३
उन जिनेश्वरके कषायसे रहित पचास गणधर थे। पूर्वागधारी एक हजार कहे गये हैं, तीन हजार दो सौ वादी कहे गये हैं। उनतालीस हजार पांच सौ भिक्षुक थे, चार हजार तीन सौ व्रतोंका पालन करनेवाले अवधिज्ञानधारी थे। केवलज्ञानी पाच हजार, मनःपर्ययज्ञानी महागुणसे युक्त पांच हजार । विक्रियाऋद्धिसे सिद्ध मुनि आठ हजार थे। संयम धारण करनेवाली और ज्ञाननेत्र आयिकाएं एक लाख आठ हजार थीं। महाकवि श्रावक दो लाख गिनते हैं और धाविकाएँ चार लाख। वन्दनीय देवगण असंख्यात था और नमन करने योग्य तियन संख्यात थे। सम्मेद शिखरपर आरोहण कर तथा दृढ़तासे अन्तिम ध्यान धारण कर उन्होंने समस्त क्रिया-जालको विच्छिन्न कर दिया। देव तीन शरीरोंकी श्रृंखलाको हटाकर, चैत्र कृष्णा अमावस्याके दिन, गुरुयोगमें छह हजार एक सौ मुनियोंके साथ सिद्धिको प्राप्त हुए, मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ।
६. A इत्यातला । ७. AP सयछु । ८, AP पई पह। १३. १. A सहासेवकूण । २. AP सिक्खुबह । ३. वसुसहस सिद्ध; P वसुसहसई सिद्ध । ४. AP "वेउ.
स्वणाह। ५. A सणाणचक्षु । ६. P onits गण । ७. A अमवासहो णिसाहे; P अमयासाणिसोहि । ८. सदुत्तराई।
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३२८
महापुराण
[५८..१३. १४.
घत्ता-तमहाराह जलणकुमारोह जिससफारिस __णीसलहिं पल्लियफुल्लहिं अमरिंदर्हि जयकारिस ||१३||
संपण्णदुवालसतवविध पुणु भासइ गणहरू इंदभूइ। अवरु वि समदमसंजमपसस्थि वित्त अणंतजिणणाहति स्थि । मुप्पहपुरिसुत्तमगुणणिहाणु सुणि मागहेसह रिबलपुराणु । पंचसयधणुण्णयमणुयदेहि
इह जंबुदीवि सुरदिसिविदेहि । उत्तंगु काउ दिण्णायणाउ गंदररि महाबलु णाम राउ | पयपालहु अरिहहु पय णवैथि रिसि जायज तणयहु रज्जु देवि । मई णउ गद्धी सल्लें अणेण तणुचाउ करिवि सल्लेहणेण । उप्पण्णउ कयद है षिइवियप्पि सुर सहसारइ सहसारकप्पि । अहारहसायरपरिमियाउ किंवपणमि सुरवरू सुद्धभाउ | घत्ता-इह भारहि पयडियसुहवाहि पोयणपुरि चिरु होवउ ॥
वसुसेणउत्तियमणयेणउ णरवइ वइरिकयंत ॥१४॥
१.
पत्ता-तमका नाश करनेवाले अग्निकुमार देवोंने जिन शरीरका संस्कार किया। निःशल्प तथा पुष्पवर्षा करते हुए देवोंने उनका जय-जयकार किया ॥१३॥
सम्पूर्ण द्वादश प्रकारके तपकी विभूति इन्द्रभूति गणधर कहते हैं, शम-दम और संयमसे प्रशस्त अनन्तनाथ तीर्थंकरके तीर्थमें एक और वृत्तान्त हुआ। सुप्रभ और पुरुषोत्तमके गुणसमूहसे युक्त, नारायण और बलभद्रका पुराण हे मागधेश, सुनो। इस जम्बूद्वीपमें जहां मनुष्यके शरीरको ऊँचाई पांच सौ धनुष है ऐसे पूर्वविदेहके नन्दपुरमें दिग्गजको तरह नादवाला उत्तुंग शरीर महाबल नामका राजा था। वह प्रजापाल (नामक) अहत्के परणोंमें प्रणाम कर, अपने पुत्रको राज्य देकर मुनि हो गया । किसी भी प्रकार ( किसी भी मूल्पपर ) उसने मतिको शल्यसे अवरुद्ध नहीं होने दिया। सल्लेखनाके द्वारा शरीरका त्याग कर, जिसमें दस प्रकारके कल्पवृक्ष हैं, ऐसे सहस्रार स्वर्ग में देव हुआ। उसको आयु अठारह सागर प्रमाण यो। उस सुखभाक्याले देवका में क्या वर्णन करूं?
पत्ता-इस भारतवर्ष में, पहले जिसमें शुभपथ प्रकट है ऐसा पोदनपुर नगर था। उसमें स्त्रीके मनको चुरानेवाला और शत्रुओंके लिए यमके समान राजा था ॥१४॥
-.
९. A सक्कारिख । १४. १. P has before this: जिणतणु पणवैप्पिणु गज सुरिंदु, धरणेदु परिषु खगिदु चंदु; K gives ___it in margin in second hand । २. A संपुष्णु । ३. AP उत्तुंग काठ । ४. AT मइ गावद।
५. AP दहविवियणि । ६. र तृयमण ।
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-५८. १६.३]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
३२०
१५
मुहइंदोहामियसरयचंद महएवि तासु णामेण गंद। रइरहसपसाहियजोवणाई __ अच्छंति जाम बिण्णि वि जणाई। तामायठ जियपडिवक्खेदंड णामेण चंडसासणु पयंहु । अपरावयकरथिरथोरबाहु राण उ सुहडग्गैणि मलयणाहु । वसुसेणे माण्णउ परममितु राहु कतहि लग्गउ तासु चित्तु। अवलोइवि गंदाहि पार वयणु विडु जूरह बोहल्लंतक्यणु । अवलोइवि णंदहि खीणु मझु विडु कुप्पइ तप्पा हिययमझु । विड सह९ ण सकिन मयणयाणु अवहरिवि णंद गउ णिया ठाणु । वसुसेणे दइयषिओइएण असमर्थे विहि णित्तेइएण | बर्ड लइउ पासि गासियसरासु सेयंसणामजोईसरासु। अप्पट इंडिच छंडिस ण माणु संमोहजणणु बद्धउं णियाणु । पत्ता-सवचरणहु खंचियकरणहु ६ फलु एति मग्गमि ॥
परयारिउ सो खलु वइरिउ मारिवि परभवि वग्गमि ।।१५||
तह रहिरवारिधाराइ जेव इय बंधिवि दुट्ट णियाणसल्लु संभूयउ तहिं सहसारसगि
परिहवपडु धोवमि होउ तेव । मुउ सो काले मोहबुगिल्लु । जिणतबह लेण माणियसमग्गि ।
अपने मुखचन्द्रसे शरदचन्द्रको पराजित करनेवाली उसकी नन्दा नामकी महादेवी थी। जिनका यौवन रतिरससे प्रसाधित है, ऐसे वे दोनों जबतक वहां थे तब जिसने शत्रुपक्षके दण्डको जीत लिया है, ऐसा चण्डशासन नामका राजा आया। ऐरावतको सूड़के समान स्थिर और स्थूल हाथोंवाला तथा सुभटोंमें अग्रणी वह मलय देशका राजा था। वसुषेणने उसे अपना मित्र मान लिया। उसकी पत्नी से उसका चित्त लग गया। नन्दाका सुन्दर मुख देखकर अवनतमुख वह दुष्ट पीडित हो उठता है। मन्दाका क्षीण मध्य भाग देखकर, उसके हृदयका मध्यभाग द्ध और सन्तप्त होता है। यह विट कामबाणको सहन करने में समर्थ नहीं हो सका, वह ( चण्ड) नन्दाका अपहरण कर अपने स्थानपर चला गश। पत्नोस वियुक्तं, असमर्थ और भाग्यसे निस्तेज बसुपेणने कामदेवका नाश करने वाले श्रेयांस नामका योगोश्वर के पास व्रत ग्रहण कर लिया। अपनेको दण्डित किया । परन्तु मान नहीं छोड़ा। उसने मोह उत्पन्न करनेवाला निदान बांधा।
__घत्ता-'इन्द्रियों को दमित करनेवाले तपश्चरणका मैं इतना ही फल मांगता हूँ कि दूसरे जन्ममें परस्त्रोका अपहरण करने वाले उसे मारकर मैं नृत्य करू।" ॥१५॥
१६
जिस प्रकार उसको रक्तरूपी जलधारामे मैं अपने पराभवके पटको धो सकूँ, वैसे ही वह दुष्ट यह निदान-शल्य बांधकर और मोहमस्त होकर समय आनेपर मर गया। जिन तपके १५. १. AP मुहयंदा । २. A पडिबक्सबंदुः पहिवक्सदंदु । ३. A चंडयासणपयंडु । ४. A मुहडम्गामि ।
५. AP सूरइ । ६. A मोहल्लं भवयणु ; P उल्लुल्लवयणु । ७. A सहिषि । ८. ब्रउ । १६. १. A मोहंघगिल्लु Init T मोहजलाः ।
४२
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३३० .
महापुराण
[५८.१६.४तहिं विदउ तेण महाबलेण देवेण भवजणवच्छलेण । बद्धउ सणेहु कीलाविसालु सहवासें दोहिं मि गलिउ कालु । तहिं कालि सहिवि णाणाकिलेसु परिभमियि चंडसासणु भवेसु । इह भारहि कासीणामदेसि वाणैरसिपुरि वरि घरणिवेसि । पुह ईसरु तहिं णामें विलासु गुणवश्णामें महाषि तासु । एयह दोई मि लक्वणणिउत्तु महुँसूयणु णामें जान पुत्तु । घत्ता-रणि मिलियई परमंडलियहं भुयबलु पबलु विजित्तउं ।
ते सुह्यरु रुप्पयगिरिवरु धरिवि महीयलु भुत्तउं ॥१६॥
अदि शशिमा साई मिष्टियाई । तहु भुजंतहु लाछीविलासु दारावइपुरि णं दससयक्खु
सह जयवइ अवर वि अस्थि बीय ___ कालेण मुवणि किर को ण गसिट
पढमाइ महाबलु पुत्त जणि सुप्पड पुरिसुत्तमु णामधारि ते अधिण वि पंगुरकसणवण्ण
जहिं वरिससयाई जि संठियाई । तहि अवसरि सुणि अवर वि पयासु । सोमप्पड पडणवपंचमचक्खु । लहुई पणइणि मामेण सीय । सुरवरु सहसारविर्माणल्हासिउ । बीयेइ जो चिर वसुसेणु भणिउ । ते बेणि वि हलहरदाणवारि । ते बेषिण वि एणयपुर्णधण्ण ।
फलस्वरूप वह मान्य सामग्रोसे युक्त सहस्रार स्वर्गमें उत्पन्न हुआ। वहां उसे भव्य जनोंके लिए वत्सल महाबल देवने देखा। उसका स्नेह हो गया। इस प्रकार साथ-साथ रहते हुए कोडासे विशाल उनका समय बीत गया। उसो समय नाना स्लेशोंको सहन कर और जन्म-जन्मान्तरोंमें भ्रमण कर चण्डशासन राजा इस भारतके काशी नामक देशके, जिसमें सुन्दर घरोंकी रचना है, ऐसे वाराणसी नगरमें विलास नामका राजा था और उसकी गुणवती नामको पत्नी थी । इन दोनोंके लक्षणोंसे परिपूर्ण मधुसूदन नामका पुत्र हुआ।
वत्ता-युद्ध में आये हुए शत्रुराजाओंके प्रबल भुजबलको उसने जीत लिया। उसने शुभकर विजया गिरिवरको अपने अधीन कर धरतीतलका भोग किया ॥१६॥
वहां लाखों वर्ष ऐसे बीत जाते हैं कि जैसे सैकड़ों वर्ष बीते हों। वहाँ उसके लक्ष्मीविलासका भोग करते हुए उस अवसरपर दूसरा प्रकाश ( महिमा या प्रसंग) सुनिए । द्वारावती नगरी में नवकमलके समान आँखोंवाला सोमप्रम नामका राजा था जो मानो इन्द्र था। उसकी जयावतो और दूसरी छोटी सीता नामको प्रणयिनी थी। इस संसारमें समयके द्वारा कौन नहीं ग्रस्त होता? वह सुरवर सहस्रार विमानसे च्युत होकर पहली रानी ( जयावती ) से महाबल नामका पुत्र हुआ। दूसरीसे जो वसुषेण नामका राजा था, वह सुप्रभ नामका पारी पुरुषोत्तम
२. A देसु । ३. A पुरवरवरविसे सु; परिषरवरविसे सु । ४. AP महसूपणु । ५. A तं सुइया । १७. १. AP तहि । २. AP अवस। ३.Pण पउम। ४, AP विवाण । ५. P बीयत ।
६. AP पुण्णवण ।
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- ५८. १८.१२]
महाकवि पुष्पवन्त बिरचित
ते बेणि वि खयराम रहं पुज ।
- हरिकंधर धवलधुरंधर जोइवि कलहपियारs || महरा दायिधायहु जाइवि अक्खड़ णार ||१७||
१८
ते वेणि वि साहियसिद्धषिज
घसा
भो भो महसूयण सुम्रीह सुंदर सोमपदेइजाय दारावरपुरवर दोणि भाय णं तुहिणंजणमहिर महंत पणास सरासणदेहमाण तर्हि कालेस लोणउ भइ एम्ब st to a मई जीवमाणि आपणु दुम्मियमणेण पडवक्पससिय विषमासु भणिष्टं भो भो लहु देहि कम्पु
समरंगणि को तुह लुइइ लीह । म दिवा सुणि रायाहिराय । लक्कु विपा वार्ड छ । frर ती रिस खावंत | संगाम रंगणिध्वूढमाण | भो सुप्पर महिब तुहं जि देव । को जीवन गुणसंणियिषाणि । दादू दिष्णु महसूयणेण । गतासु पासि पुरिसुतमासु । aferreray किं किर करहि दप्पु ।
घत्ता - पढ महि कलि अवगण्णहि करि उचरं महु फेरउं ॥ महसूयणि भिडिय महारणिण रैमइ खग्गु तुहार ||१८||
३३१
१०
५
१८. १. A लड् । २. AP वीरिसाउअंत । K but corrects it to रमई 1
१०
हुआ। वे दोनों क्रमशः बलभद्र और नारायण थे। वे दोनों हो धवल और कृष्ण वर्णके थे, वे दोनों ही उन्नत पुण्यरूपी धान्यवाले थे । उन दोनोंने विधाऐं सिद्ध की थीं। वे दोनों ही विद्याधरों और अमरोंके द्वारा पूज्य थे ।
1
घता - वृषभके समान कन्धोंवाले और धवल घुरन्धर उन दोनोंको देखकर कलहप्रिय नारद जाकर आघात करनेवाले धरतीके राजासे कहता है ||१७||
१८
"हे सुभटोंमें सिंह मधुसूदन, युद्धके प्रांगण में तुम्हारी रेखा कौन पोंछ सकता है ? हे राजाधिराज, सुनिए - सुन्दर, सोमप्रभके शरीरसे उत्पन्न द्वारापुरी में मैंने वो भाई देखे हैं। उनकी कातिको इन्द्र भी नहीं पा सकता मानो वे महाद हिम और नीलांजनके पहाड़ हैं, स्थिर गोर तीस ला वर्षकी आयुवाले हैं, उनके शरीरका प्रमाण पचास धनुष है, दोनों समरके प्रांगण में निर्वाह करनेवाले हैं।" तब उनमें जो श्याम वर्णका सुप्रभ नामका (पुत्र) राजासे कहता है कि तुम्हीं एकमात्र देव हो, मेरे जीते हुए दूसरा कौन राजा हो सकता है ? मेरो प्रत्यचापर बाण चढ़ाने पर कौन जीवित रह सकता है तब क्रुद्ध होकर मधुसूदनने पीड़ित मन होकर अपना दूत भेजा। जिसने शत्रुकी विक्रमाशाको संशय में डाल दिया है, ऐसे उस पुरुषश्रेष्ठके पास गया और बोला, "अरे-अरे, शीघ्र कर दो। हे अज्ञानी, तुम घमण्ड क्यों करते हो ।
धत्ता- तुम राजाको मानो, कलहकी उपेक्षा करो, मेरा कहा हुआ करो । मधुसूदन के महायुद्ध में लड़ते समय तुम्हारा खड्ग नहीं ठहरेगा ॥ १८ ॥
३. AP का । ४. AP दूमियं । ५. A परध;
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३३२
महापुराण
[ ५८. १९.१
तं णिणिवि भासइ सीरधारि भो दूय म कोकड गौत्तमारि। अम्हारउ करु ममगइ अयाणु किं ण मरइ रणि सो हम्ममाणु । अम्हारट करु सहुं धणेहरेण अम्हारज कर सहुं असिवरेण । अम्हार करु चढेग गुनाइ अम्हारउ कहतहु जीउ हरइ। अम्हारउ करु तहु कालवासु जिणु मेल्लिवि अम्हइं भिन्च कासु । तं सुणिवि महंतज गज तुरंतु विष्णवइ ससामिहि पय मंतु। ण समिच्छ संधि ण देइ दन्वु पर चवइ रामु केसउ सगन्छ । तं णिसुणिवि मणि उपएण्ण खेरि य रसमसंति संणाहभेरि। संणद्ध मुद्दड हणु हणु भणंति 8ोट्ट रुटु दहमुय धुणंति । आरोहचरणचोइयमयंग
धीरासंवारवाहियतुरंग। धाइय रद्देवर धयधुवमाण गयणयलि ण माश्य खगरिमाण । णिग्गउ आरूसिवि राज जाम चरपुरिसहिं कहिय हरिहि ताम । आयत रिज हय दुंदुहिणिणाउ थि उ रणभूमिहि पड्डियकसाच । धत्ता-तं णिसुणिवि णियमुय धुंणिवि केसर जंपइ कुद्धष्ट ।
मरु मारमि पलउ समारमि रिउ बहुकालहुं लद्धल ॥१९।।
यह सुनकर बलभद्र कहते हैं, "हे दूत, अपने कुलका नाश करनेवाली बात मत करो। हे अजान, जो हमसे कर मांगता हैवह मारे जानेपर युद्धमें क्यों नहीं मरता ! हमारा 'कर' धनुर्धरके साथ, हमारा कर असिवरके साथ, हमारा हाथ चक्रके साथ स्फुरित होता है, हमारा कर उसके जीवका अपहरण करता है, हमारा हाथ उसके लिए कालपाश है, जिनवरको छोड़कर हम ओर किसके दास हो सकते हैं ?" यह सुनकर दूत तुरन्त गया और अपने स्वामीके चरणों में प्रणाम करता हुआ निवेदन करता है-'हे देव, न तो वह सन्धिको इच्छा करता है और न धन देता है, परन्तु राम, केशव सगर्व केवल बकवास करता है। यह सुनकर उसके मन में वेर उत्पन्न हो गया। घोड़े हिनहिना उठे। मेरी बज उठी। सुभट तैयार होने लगे, मारो मारो कहने लगे, मोठ चबाते हुए अपने दृढ़ बाहु घुनने लगे। महायतके पैरोंसे हाथो प्रेरित हो उठे। धीर घुड़सवार घोड़ोंको हांकने लगे। ध्वजोसे प्रकम्पित रथ दौड़ने लगे, आकाश-तल में विद्याधरोंके विमान नहीं समा सके। जबतक राम ( बलभद्र महाबल ) निकलते हैं तबतक दूत पुरुषोंने नारायणसे कहा कि दुन्दुभिनिनादके साय शत्रु आया है और बढ़े हुए क्रोधसे युद्धभूमिमें ठहरा है।
पत्ता-यह सुनकर अपने बाहु ठोंकते हुए नारायण क्रुद्ध होकर सुप्रभसे कहता है, लो मारता हूँ, प्रलय मचाता हूँ। बहुत समय के बाद दुश्मन मिला है ।।१९।।
१९. १. AP सो रणि । २, AP धणहरेण । ३. AP भुयबलि । ४. P घारासवार । ५. A रह रणिधयं ।
६. AP साहिउं। ७. AP विडणिवि ।
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- ५८. २१.४ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
२०
मिका घेत त्रिदिवार उतेय ! मज्जयविवज्जियf समुह । धूलीयकविलवण्णु । महि षजधष्टिय विइडिवि ण जाइ । यह थरहर सरह । सुपहूई भूयई चियाई । आलाई तासिय दिग्गयाएं | सुसुमूरियचूरियभडथडाई ।
हरिवाहिणिखगबाहिरि रह सुरय दुश्य गरेश्वरचर चलचभरछत्तधयछण्णसेण्णु दसदिर्विभरि ण कहि मिसाइ फणि तेण भरेण ण केमँ मरइ रोणकर मंचियाई बिणि मि सेन समुह ा गयाई जयगोमिणिमेइणिलंबाई
घत्ता- - पिट्टई बेणि मि विट्टई सेण्णई समरि भिडंतई | हललई सेकर बालहिं परंताई पतई ||२०||
१०
परासवारवेढियरहोहि जोई विलिय मंडलियम उडि free | वोहणीडि मीठामहग्घजुज्झं तवीरि
२१
रहसंक विडियविविइजोहि । मच्छलंतमणि किरणविद्धि । णीबाहिरू सुरवरसमीहि । बोरंगगलिय कीलालणीरि ।
३३३
१०
२०
नारायणकी सेवा और विद्याधरकी सेनाके साथ धवल और श्याम रंगवाले वे चले । रथतुरंग-गज-नरवरोंसे भयंकर वह सैन्य ऐसा मालूम होता, मानो मर्यादासे रहित समुद्र हो । चंचल चमर त्रध्वजसे आच्छन्न तथा उड़ती हुई धूलिरजसे कपिलवर्ण सेना दसों दिशाओं में फैलती
कहीं भी नहीं समा सकी। वज्रसे रचितके समान भूमि किसी प्रकार विघटित नहीं हो रही और इसलिए उसके भारसे किसी प्रकार मरता नहीं, कांपते हुए फनोंके समूहसे वह घर पर कविता हुआ चलता है | मनुष्योंके भोजन के लिए बहुतसे भूत नाच उठे। दोनों ही सैन्य आमनेसामने आ गये और दिग्गजोंको पीड़ित करते हुए एक दूसरेसे भिड़ गये। दोनों विजयरूपी लक्ष्मी और परीलम्पट थे, दोनों मट समूहको मसलने और घूरित करनेवाले थे ।
ता- दोनों सैन्य दर्पसे भरे हुए युद्ध में लड़ते हुए, हल- मूसल-सप और करवालोंसे प्रहार करते और गिरते हुए दिखाई दे रहे थे ||२०||
२१
जिसमें बड़े-बड़े घुड़सवारोंसे रथोंके समूह घिरे हुए हैं, रथों ऐसा जमघट है, जिसमें विविध योद्धा गिर रहे हैं, जिसमें योद्धाओं के पैरोंसे माण्डलीक राजाओंके मुकुट नष्ट हो रहे हैं, जो मुकुटोंसे उछलती हुई मणि किरणसे विनष्ट है, जिसमें नष्ट कपालोंके समूहके घर हैं, और बुद्धिसे युक्त देववर बैठे हुए हैं, जिसमें ऐश्वर्य और बुद्धिसे महान वीर
और उनपर लक्ष्मी
युद्ध कर रहे हैं और
२०. १. AP गरवरउछ । २. AP मज्जायमुषक णं बल समुद्द। ३. A सेण्ण । ४. A ली। ५. A वष्ण । ६. A दिसव । ७. AP कहू व ८. A वर्ग but corrects it to पर in second hand. ९. P समुहं गया । १०. A हमलिहि । ११. AP परकरवाल २१. १. Aो
।
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३३४
महापुराण
[ ५८. २१.५णीरेनहसममुहर्पकरण पंकयणा हे दप्पकरण । कयहलणित्तेइयकयखलेण खलु दुच्छिउँ दुहमभुयबलेण । घलएबहु पइसर सरणु अज्जु अज वि णउ प्यासइ मित्तकज्जु । कन्जु बि मई अक्खिउ तुझु सारु सारुह मुइ अवरु वि हथियारु । आरुहसु म जमसासणु अजाण आणेण जाहि मुकाहिमाण | माणहि मा महुं रणि वाणविहि विट्ठि वै भीसण तुह हणइ तुट्ठि । घसा-पडिकण्हें भणि संतण्हें फलव जिउ कि गजहि ।
धनुदंडे डिभैय कंडे रे कुमार मई तज्जहि ।।२१।।
naha
AARTA
दे देहि कापु किं जंपिएण्ण
दुण्णयवंते सुइविप्पिएण । तुहुँ फिकर हडं तुहुं परभणाहु ___ कि बद्धउ विलु पहुत्तगाह । इय भणिवि विसमभडधाक्षणी जुझिाउ विजइ बहुरूपिणी । सीयासुएण भग्गइ अणी
बहुरूपिणि जिय पडिरूपिणीह। ता रिउणा घजिउ फुरियधार रहचरणु चवेलु सहसौरफारु । गिरिधरणियलयघालणबलेण तं हरिणा धरियउ करयलेण । सोहर तेगा जिस्मान णवमेह व रविणा णित्तलेणे । णियरूवपरजियणिसणेण
अलियंजणसामें पत्तलेण। वीरोंके शरीरोंसे रक्तको जलधारा बह रही है, ऐसे उस युद्ध में कमलके समान मुखवाले, दसे अंकित, जिसने हलसे खलको निस्तेज कर दिया है, ऐसे दुर्दम बाइबलवाले दुष्टको पंकजनाभने खूब भत्र्सना की और कहा-'अरे तुम बलदेवकी शरणमें चले जाओ, मित्रके कामको तुम आज भी नष्ट मत करो। मैंने तुमसे सारको बात कह दी है । तुम उसे करो। दूसरा हथियार छोड़ दो, हे अजान, तू यमके शासनपर अधिरोहण क्यों करते हो अभिमानसे मुक्त होकर तुम यानसे जायो, युद्धमें मेरी बाणवृष्टिको मत मानो, वह वर्षाकी तरह भोषण तुम्हारे आनन्दको नष्ट कर देगी?"
पत्ता-सतृष्ण प्रतिकृष्णने कहा, "बिना फलके तुम क्यों गरजते हो, हे बालक कुमार, तुम धनुषदण्ड और बाणसे मुझे धमकाते हो |२१||
२२
तुम कर दो, दुविनीत और कानों के लिए अप्रिय कहने से क्या ? तुम मेरे अनुचर हो, मैं तुम्हारा परम स्वामी हूँ। तुमने विफल प्रभुत्व यश क्यों बाँधा ?" यह कहकर विषम योद्धाओंको मारनेवाली बहरूपिणी विद्यासे यह लड़ा। सीतापुत्र नारायणके द्वारा सैन्यके नष्ट होनेपर प्रति बहुरूपिणी विद्याके द्वारा बहुरूपिणी विधा जीत ली गयी। तब शत्रुने चमकती हुई धारवाला चपल हजारों आराओंबाला चक्र छोड़ा। पहाड़ और पृथ्वीमण्डलको चलानेके बलयाले हरि (सुप्रभ) ने करतलसे उसे धारण कर लिया; उस निर्मल चकसे वह ऐसा शोभित होता है जैसे निर्दोष सूर्यसे नवमेघ शोभित हो । अपने रूपसे मनुष्यत्वको पराजित करनेवाले भ्रमर और
२. AP दोन्छिन। ३. A वि। ४. AP सयण्हें । ५. AP डिभियकड़े २२.१. A बहुरूपिणि । २. वरण । ३. AP सहसास फारु । ४. AP णित्तण । ५. A omita Ba |
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-५८. २३.८]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित पुणु भणिस वारि रे सुप्पहासु करि केर म जाहि फर्यतवासु । पालियतिखंडमंडियधरेण पंडिजपि पखिदामोयरेण | तुहूं सुप्पड बिपिण वि मझु दास को गन्यु रहंग रे हयास । सरसलिलि रहंगसयाई अस्थि कि तेहिं धरिजइ मत्तहस्थि । मरु मरु मारतहु णस्थि खेव संभरहि को विणियइदेउ । पत्ता-असमिच्छिवि पुणु णिन्भेष्टिछषि चक्के रिडसिक तोडिस ।।
परिए पर रणवरुहलु साडित ॥२२॥
N
महिरक्खसि खद्धणिमासखंड पुरिसुत्तमेण मुत्ती तिखंड । पत्थिव पसु गिलइ ण कहिं मि धाइ ओहच्छ केण वि सह ण जाइ। कालेण कण्हु गउ अवहिठाणु हलिणा चिंतिउ रिसिणाहणाणु । णिन्टुषियकुंतलु करिविसीसु जायउ सोमप्पहुगुरुहि सीसु । परिसेसिवि भवसंसरणवित्ति थिच भूसिवि मोक्खमहापरित्ति । जहिं भुक्खु णस्थि आहारवगु जहिं णि ण मंदिरु सयणेवग्य। जहि कामिणि कामु ण रोसु तोसु जहिं दीसइ एक्कु वि. पाहि दोसु ।
जाहि वाहि ण विज्जु ण मलु ण पहाणु जहि अप्पे अप्पडं जाणमाणु । अंजनसे श्याम दुबले-पतले बलभद्रने शत्रुसे कहा, "हे सुप्रभास, सेवा करना स्वीकार कर लो, यमदासके लिए मत जा।" तब तीन खण्डोंसे अलंकृत धरतीका पालन करनेवाले प्रतिनारायण मधुसूदनने कहा-"तुम और सुप्रभ दोनों मेरे दास हो । हे हताश, चक्रका क्या गर्व करता है ? पानीमें सैकड़ों रथोग ( चक्रवाक ) होते हैं, क्या उनसे मतवाला हाथी पकड़ा जा सकता है ? मरमर, अब तुझे मारने में देर नहीं है, अपने किसी इष्टदेवको याद कर ले।"
पत्ता--इस प्रकार नहीं चाहते हुए भी उसने शत्रुको ललकारकर चक्रसे उसका सिर तोड़ दिया मानो प्रशंसा प्राप्त करनेवाले हरिरूपो हंसने रणरूपी वृक्षके फलको तोड़ दिया हो ||२२||
२३ जिसने मनुष्यमांसका खण्ड खाया है, ऐसी धरतीरूपी राक्षसीका पुरुषोत्तमने भोग किया। वह राजा और पशुको निगल जाती है, कहीं भी नहीं जातो। यहीं रहती है, किसीके साथ नहीं जाती । समय के साथ नारायण सुप्रभ सासवें नरक गया। बलभदने ऋषभनाथके ज्ञानका चिन्तन किया। अपने सिरको बालोंसे रहित कर सोमप्रभ मुनिका शिष्य हो गया। संसारमें भ्रमण करनेको वृत्ति को नष्ट कर मोक्षरूपो महाभूमिको भूषित कर स्थित हो गया। जहाँ भूख नहीं है, न आहारवर्ग है, जहाँ न निद्रा है, न पर है और न स्वजन समूह है । जहां न कामिनी है, न काम है, न रोष है और न तोष है । जहाँ एक भी दोष दिखाई नहीं देता। जहा न व्याधि है, न विद्या
६. AP°मंडलवरेण । ७. A तो जपि पछिPा पिलं पहिं । ८. A मह भारतह । ९. AP
णिमछिवि । १०. Pणं णवसररुह पाडिउ । २६. १. AP have before this: बहुपाउ करिवि बहुमोयसत्त, तमतमि पत्तउ पब्लिछिकंतु । २. AP
सयणमग्गु । ३. AP प्रपा अप्पठं जायमाणु ।
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१०
महापुराण
[ ५८. २३. ९इच्छा पेच्छा णीसेसु ताम विहुयणु अर्णतु आयासु जाम । संतेण समियफुलाउहेण । चश्थेणं तेण सीराउहेण। पचा-बषगयरइ भरहेरावइ जंणरेहिं आराहिर्ड ॥
सिद्धः सिवसुई लद्धउं पुप्फदंतजिणसाह ।।२।।
इस महापुराणे तिसहिमहापरिसगुणालंकारे महाभयभरहाणुमण्णिए महाकपुष्फयतविरइए
महाकम्वे अर्णतणाहपहपुरिसुतममासूयणकाईतरं णाम ___ भटेवणासमो परिच्छेत्रो समतो n५५
Marvvvveramm
है, न मल है और न स्नान, जहाँ यात्माके द्वारा आत्माको जाना जाता है। यह समस्त विश्वको वहाँ तक इच्छा करता है और देखता है, जहाँ तक अनन्स त्रिभुवन और बाकाश है। शान्त कामदेवका शमन करनेवाले इन चौथे बलभद्रने
घसा-रतिसे रहित भरतश्रेष्ठकी जो मनुष्यों के द्वारा आराधना की जाती है, पुष्पदन्त जिनके द्वारा वह कषित सिंह शिवमुख उन्होंने प्रत किया ।।२६||
इस प्रकार प्रेसठ महापुरुषों के गुणाकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त वारा चित एवं महामन्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य में भनन्तनाथ सुप्रभ पुरुषोत्तम भौर मधुसूदन कयान्तर नामका भावनपाँ
परिच्छेद समाप्त हुआ ॥an
AP घोरपेण ।
७.AP तं व सिवसुह सिद्ध।
Y. AP बाद। ५. A पुल्लारण । ८. AP परिसोत्तम । ९. AP अट्ठावण्णा ।
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संधि ५९
जिणु धम्मु भडार विहुवणसारउ मई जडेण किं गज्जइ । चवलुलियायरु भरियन सायम किं फुडुवेण मविजइ धुवक।।
लच्छीरामालिंगियवच्छ दिवझुणिं छत्तत्तयवंत भामंडलरुइणिजियचंद अमरमुक्कुसुमंजलिषासं बुद्धं बहुसंबोहियसुरवं परकंठीरवपीढासळ पंचिंदियभडसंगरसूरं
सुपणयसिरिबन्छ। कंतं मयतं । भवकुमुयचदं । देवं दिव्वास। जयदुंदुहिसुरवं। मीसंसारूढं। भुवणणलिणसूरं।
Rav....
wiven
सन्धि ५९ त्रिभुवनमें श्रेष्ठ आदरणीय जिनधर्मका मुझ जड़के द्वारा क्या वर्णन किया जाये ? चंचल लहरोंका समूह सागर क्या कुतुपसे मापा जा सकता है ?
जिनका वक्षःस्थल लक्ष्मीरूपी रमणीके द्वारा आलिगित है, जो अशोक वृक्षके समान उन्नत हैं, जो दिव्यध्वनि और तीन छत्रोंसे युक्त हैं, जो ज्ञानवान् और सुन्दर हैं, जिन्होंने भामण्डल को कान्तिसे चन्द्रमाको जीत लिया है, जो भव्यरूपी कुमुदों के लिए चन्द्रमाके समान हैं, जिनपर देवेन्दोंने कुसुमालियोंकी वर्षा की है, जो देव दिगम्बर बुद्ध हैं, जिनका शब्द ( दिव्यध्वनि ) अनेक जनोंको सम्बोधित करनेवाला है, जो जय दुन्दुभिके शब्दसे युक्त हैं, जो सिंहासनपर मारूढ़ हैं, जो मीमांसा में प्रसिद्ध हैं, जो पंचेन्द्रिय योद्धाओंसे संग्राम करनेमें शूर हैं, जो विश्वरूरी कमलके
All Mss., A, K and P, have, at the begioning of this sampdhi, the following stanza:
अत्र प्राकृतलक्षणानि सकला नीतिः स्थितिश्छन्दसामर्यालंकृतयो रसान विविधास्तत्वार्थनिीतयः । कि चाम्यद्यविहास्ति जैनचरिते नाम्यत्र तद्विद्यते
द्वावेतो भरतेगपुरवशनी सिद्ध ययोरीदृशम् ॥ १ ॥ K reads ते पार्थनिर्णीतयः for तस्वार्थ ; देवेती for द्वावेतो, and भारतास्य for भरते; P reads देवेशी भरते तु पुष्प । K has a gloss on वेवेती as देवत्वं इती प्राप्ती येवेतो। १. १. A जिणधम्मु । २. P किं तं ।
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३३८
१०
१५
महापुराण
मंदरद्दिवीरं सवरहियं दूरुझियमायाविरहस एयायवियप विषायं पापमपाषाण दिसिणा सिवदुण्णयसारंग बहुबहु वम्मद्दधम्मं भणिमो तर चरितं चिंतं
घस्ता - जिह अक्खड़ गोत्तमु उत्तम णित्तभु सत्तमु से जियरायडु || दुयिहरु कमि कईत भरहु भन्वसई यहु ॥ १॥
ति
२
धादवड पुण्वदिसायल पुण्वविदेहव सीवीरिणदणितीरइ वच्छयदेस सुपसाहियसि बुहयण वच्छलु शिवसेइ केहर रयणसमागमि गिलियउ छणससि अमपिसाएं ५ चिति यिमणि सच्छ्रसद्दा वियलिय मी पुसे०र्वेद कूरकर्यतें
मग
रायरोसरहिये । मुणिमणसरसं । मोहमेवायं ।
|
भगवा सुसारंग ।
मिणं धम्मं ।
रंजियपरचिन्तं ।
[५९.१.१०..
अंकुरपल्लबसहियपायवि माहवगेह | चाएं भोएं विइवें रूबे बम्म जेहउ | पुरिहि सुसीमहि दुसरहु राणड जयसिरिसेसह खीरामेलड णावर णाएं दिन राएं । अमयकलायरु जेम णिसायरु गसिड विडप्पं । fadna कार का जियंतें ।
लिए सूर्य, मन्दराचलके समान घीर, शवरहित ( स्व-परसे रहित, शवर के हितस्वरूप ) हैं, जो राग - रोषसे रहित हैं, जिन्होंने माया और विरहके अंशोंको दूर कर दिया है, जो मुनियोंके मनसरोवर के लिए हंस हैं, जो एक-अनेक विकल्पोंसे विवाद करनेवाले हैं, जो मोहरूपी मेधके लिए पवन के समान हैं, जिन्होंने देवोंको अपने चरणकमलोंपर झुकाया है, जो उन्नतग्रीव हैं, जिन्होंने दिशाकोंसे दुर्नयरूपी हरिणोंको भगा दिया है, जिन्होंने द्रव्यके अनुरागको नष्ट कर दिया है, जिन्होंने तपकी ज्वाला में कामदेवको बाहत कर दिया है, ऐसे धर्मनाथको प्रणाम कर, उनके परचित्तोंको रंजित करनेवाले विचित्र चरित्रको कहता हूँ ।
बत्ता - जिस प्रकार उत्तम तमरहित और प्रशस्त गौतम गणधर राजा श्रेणिकसे कहते हैं, उसी प्रकार में पापको हरनेवाला कथान्तर भव्योंके सहायक भरतसे कहता है ॥१॥
२
धातकीखण्ड के पूर्व मेरुतक्रमें पूर्वविदेहमें, जो वृक्षों, अंकुरों और पल्लवोंसे शोभित है, जिसमें धनपतियोंके घर हैं, ऐसे सीता नदीके दक्षिण तटपर स्थित वत्सदेशकी सुसीमा नगरी में राजा दशरथ था। जिसका सिर विजयीको पुष्पमालासे प्रसाधित है, ऐसा पण्डितजनोंके प्रति वत्सलभाव रखनेवाला वह राजा इस प्रकार निवास करता था, मानो त्याग भोग वैभव और रूप में कामदेव हो । निशाका आगमन होनेपर बादलरूपी पिशाच ( राहु ) के द्वारा निगला गया पूर्णचन्द्रमा राजाने इस प्रकार देखा, मानो नागके द्वारा क्षीरसमुद्र निगल लिया गया हो ? स्वच्छस्वभाव और विगलित गर्व उस राजाने अपने मनमें विचार किया कि "जिस प्रकार राहूने
२.AP विकणं । ४. Pomits बिसं । ९. A कहवि । ६. P समाय । २. १. A सिरि । २. P वि स । ३. A गव । ४. A पुसेउ |
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-५९. ३. २] महाकवि पुष्पदन्त विरचित
३३९ एव चवेपिणु रजि थवेप्पिणु अइरह पदणु संगु मुएप्पिणु गउ तल लेप्पिणु णिम्माणुसु वणु । पढिउ सुवंगई सोश्यारह णि?इ शिज्जिवि तिहुवणस्त्रोहणु तित्थयरतणु पुण्णु समजिवि । पाव विणासे मुख संणासें गड सव्वत्य जगि णड काई मि चींसह दुग्गमु धम्मसमस्थाह । जं तसणाडिहि लहुयस गरुयड काई वि अच्छा त णियणाणे एक करंग जाणइ पेच्छइ। १० सो विहिं तीसहि पक्वहिं गलियहिं सासु पउजइ तेत्तियवरिससहासहिं संखइ झीणइ भुंजइ । सुलेसु ससिसुकवण्णु सुई णिप्पडियारउ किं वषिणआइ इंदु चंदु अहमिदु भखारच।। तेणे तितीससमुहमाणु परमासु मुस्ता परियाणिव सव्वार से सम्मासु निरुत्तउं । पेसणु पढमें सयमहिण जक्खिबहु सिहं कुरु कुरु जिणपुजाविहाणु परमागमि दिट्टई ।
घता-सुणि जंयूदीय ससिरविदीवइ भरहखेति जणपरइ ॥ १५
महोउ गरेसर सुरकरिकरकरु अस्थि अवरख रयप्पर ।।
-
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पुरंघि सस्त सुप्पहा सई अर्णगमापहा।
जणेदिही जिणेसरं रईणिसादिणेसरं। अमृत के समान फिरणोंवाले चन्द्रमाको ग्रसित कर लिया, दुष्ट यमके द्वारा उसी प्रकार जीव पकड़ लिया जायेगा और नष्ट कर दिया जायेगा. अतः वतरहित शरीरसे जीतेसे क्या ?" यह कहकर
और राज्यमें पुत्र अतिरषको स्थापित कर, परिग्रह छोड़कर तथा तप ग्रहण कर वहां गया, जहाँ निर्जन वन था। उसने ग्यारह श्रुतांगोंका अध्ययन किया और निष्ठापूर्वक ध्यान कर त्रिभुवनको क्षुब्ध करनेवाला तीर्थकरत्वका पुण्य अर्जित कर, पापको नाश कर तथा संन्याससे मरकर सर्वार्थ सिद्धि में गया। धर्मसे समर्थ जीवके लिए संसारमें कुछ मो दुर्गम दिखाई नहीं देता। असनाड़ी में जो भी लघु और भारी हैं, उसे वह अपने एक शानसे हस्तगतके समान जानता और देखता है। यह वहाँ (सर्वार्थसिद्धिमें तैतीस पक्ष गलने पर सांस लेता है, उतने ही हजार वर्ष अर्थात् तेंतीस हजार वर्षों की संख्या क्षीण होनेपर आहार ग्रहण करता है, शुक्ललेश्यासे युक्त चन्द्रमा और शुभके रंगवाला पवित्र निष्पीड़ाकारक इन्द्रचन्द्र उस आदरणीयका क्या वर्णन किया जाये ? उसने वहाँ तेतीस सागर प्रमण आयुका भोग किया। यह जानकर कि निश्चयसे छह माह आयु शेष बची है, प्रथम सौधर्म इन्द्रने कुबेरको आदेश दिया-"परमागममें देखे गये जिनपूजा विधानको करिए।
घसा-हे पक्ष सुनो, सूर्यचन्द्रमाके दीप जम्बूद्वीपके जनप्रधुर भरतक्षेत्रके रत्नपुरमें ऐरावतकी सूरके समान हायोंवाला राजा भातु है ।।२।।
उसकी रानी सुप्रभा सती कामश्रीके समान है। वह, रतिरूपी निशाके लिए सूर्यके समान
५. AP read this line as पठिउ सुर्यगई सो अविहंगहं पयारह पुणुः P adds after this: परिवि सुहंगई बहधम्मंगई सोसिरि णियतण; AP adds after this : छत्तोस वि गुणसहिए तवगिट्ठर (A तवणिविएं मिज्जिवि । ६. P एक । ७. A सो खेतीसहि । ८. A सुई । ९. A तिणि तेत्तीस । १०. A पुण जंबू; P मुणि मं । ११. नजणे पतरह; K जणपवरह but corrects
it to जणपउरह । १२. A मेहराउ; P महाराठ। ३. १ AP नही।
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૪૦
ܕ
पुरं चिद्धतोरण करेहि तं सहा तुम मंसि सुराद्दिषं पपिय
महापुराण
घरं सारणं । कुलकमागयं इमं | तो गओ घणी सुवं ।
अणेयखाइयाजलं ।
अपोसवण्णासाह अय के छा अणेयवादावर्ण अणेयसुंदरायणं कथं पुरं महासर
तै चिराय मंदिरं ।
घसा - तहिं पच्छिमरयणिहि सुत्तइ सर्याणिहि दीसह देवि कुंजरू || सुबइ पंचाणु विष्फुरियाणणु मयमारणइपंज ||३||
४
अव व सिरिवामहं दिट्टिहि सोम्मई ढोश्य
हि पंडुरतं ससिरविधिई जोइयई । दुइ मीण रईणड दुइ मंगलवड सरयसक
जलजिहि अलभीसणु सेहीरासणु सकघर | उरगिंद गिलणु णाणामणिगणु खत्त सिड
Metrootss af संभाइ भणिउ पहु । मई विट्ठा सिविर्णय सोलह सिविजय तु सुडुं
२. P सम्म । ३. A हिरा ।
४. १. AP जव । २ AP सुविणय ।
अमणट्टार्स ! अयतूरणाइयं ।
[ ५९. ३. ३
यस्वर्ण | अयतित्थपाषणं ।
जिनेश्वरको जन्म देगी। अतः तोरणोंसे निबद्ध नगर और योग्य छत्रों सहित घर तुम वहाँ इस प्रकार बनाओ कि जिस प्रकार कुलकमागत हो ।" तब देवेन्द्रको नमस्कार कर उस समय कुबर मनुष्यलोकके लिए गया । उसने महासरोवरसे युक्त नगर और राजभवन बनाया, जो नवसुवर्णसे पीला था, जिसमें अनेक खाइयोंका जल था, जिसमें अनेक रंगके परकोटे थे, अनेक नृत्यशालाएँ थीं, जो अनेक पताकाओं से आच्छादित था, अनेक तूयसे निनादित था, अनेक द्वारों और दावण ( पशुओं को बांधने की रस्सी ) से युक्त था, जिसमें अनेक सुन्दर बाजार थे जो अनेक तीर्थोंसे पवित्र था ।
घत्ता -- वहीं शय्या पर सोती हुई देवो रात्रिके अन्तिम प्रहरमें देखती है- हाथी, बैल, विस्फारित मुलवाला तथा हरिणोंके मारने से पीले नखोंवाला सिंह ||३||
४
और भी दृष्टि के लिए सौम्य श्रीमालाएं देखीं, आकाश में सफेद और लाल चन्द्रमा तथा सूर्यके बिम्ब देखे । रतिमें नृत्य करते हुए दो मीन, दो मंगलकलश, शरद्का सरोवर, जलसे भयंकर समुद्र, सिंहासन, इन्द्रधर ( देव विमान ), नागभवन, नाना रत्नराशि, अग्नि । उस मुग्धाने स्वप्नोंको देखा, मनमें उनका सम्मान किया और अपने स्वामीसे कहा कि मैंने सोलह स्वप्न
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-५९.३.२६)
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
फलु ताह भडारा णरवरसारा कहहि तहुं । पइ कंतहि अक्खाइ गुज्झु ण रक्खइ मुयणगुरु
तुह होसइ तगुरुहुणवसरसह मुहु गुणपउरु । तं णिसुणिवि राणी णं सहसाणी घणरविण
णञ्चइ सिंगार रसविस्थारें णवणविण । हेमुज्जलभित्तिहिं जग्गयदित्तिहिं जियतवणि
बोलाविये अयणई पडियई रयणई णिवभवणि । वसाहइ मासइ तेरसिदिवसइ स सिधवलि
थिद गम्भि जिणेसह अहममरेसरु गलियमलि । रेवइणक्खत्तइ गविउ पवित्तइ सुरवरहि.
आयहिं दिहिकतिहि सिरिहिरिकिचिहि अच्छरहि । चउसायरमेत्तइ सिद्धि अणंतइ मयमहणु
लिमाल पहावा गइ णिहणु । माह म्मि रवण्णइ धर्णपउपणइ जणियसुहि
___ ओसोकणसंकुलि णवतणकोमलि तुहिणवहि । सियपक्खहु अवसरि तेरसिवासरि दिण्णदिहि
___ उप्पण्णड जगगुरु सिरिसेवियउस पाणणिहि । गुरुजोइ सुरिंदहिं हविउ फणिदहि, सुरगिरिहि
आणिधि पियवाइहि अपिर मायहि सुंदरिहि ।
देखे हैं, हे नरवर श्रेष्ठ आप उनके फल बतायें। पति अपनी कान्तासे कहता है, वह कुछ भी छिपाकर नहीं रखेगा, तुम्हारा गणोंसे प्रवर, नवकमलमख पुत्र विश्वगुरू होगा। यह सुनकर रानी नवश्रृंगार और रसविस्तारसे इस प्रकार नृत्य करतो है, मानो मेघध्वनिसे मयूरो नाच उठो हो । स्वर्णके समान उज्ज्वल भित्तियोंके समान निकलती हुई किरणों के द्वारा एक अयन ( छह माह ) बीतनेपर स्वर्णके जीतनेवाले राजाके भवनमें रत्नोंकी वर्षा हुई। वैशाख माहके शुक्ल पक्षको तेरसके दिन वह महमेन्द्र जिनेश्वर मलसे रहित गर्भ में रेवती नक्षत्र में आकर स्थित हो गया है। धृति-कान्ति-श्रो-हो-कोति आदि अप्सराओंने उन्हें नमन किया। अनन्त भगवान्के सिद्ध होनेपर चार सागर प्रमाण समय बीतने और अन्तिम पल्यके आधे समयके धर्म विशुद्धिसे रहित होनेपर, धान्यसे प्रपूर्ण, सुख उत्पन्न करनेवाले ओसकणोंसे व्याप्त, नवतुणोंसे कोमल तथा हिमपथसे युक्त माघ शुक्ला त्रयोदशीके दिन पुष्य नक्षत्र में भाग्यविधाता विश्वगुरु तथा लक्ष्मोके द्वारा जिनका वक्ष सेवित है ऐसे ज्ञाननिधि उत्पन्न हुए, देवेन्द्रों और नागेन्द्रोंने सुमेर
३. A णवससमुह । ४. A सहस्रीणी; P सहसाणी । ५. F वोल्लाविय । ६, A अमिदिवसः । ७. AP णकवि । ८. A धम्मपउपणइ । ९. P सा । १०. A गुहेजोय ।
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३४२
३०
१०
१५
महापुराण
गड सक्कु सुहम्मद्द पणविवि धम्महू पाइसिरु बड्ढइ परमेसर रूवें जियसरु महुरगिरु । धत्ता -- पणयालाई जुवाई गरु वणु तुंगतें ॥ लोक सारे अरुकुमारें जणु रंजिउ धणु देतें ॥४॥
ताव कुरत्तणे
लक्खजुय संजय वच्छेर विसेसह विरइयदिओ
पहाणओ
वयसमो लक्खई दिमाकतिया
अवलोइया
सई जि उम्मोहिओ
कुसुमहत्या हरिहि अहिसिंचिओ सिहरलिहियंवरं सिविधमारोहि मंदिरा णिग्गओ माहि तेरह मए
देवकय कित्तणे | अद्धलक्खं गये । अच्छरसुरेई । जस विविकंदओ | जाओ राणओ ।
या कसोक्खा | उक्त विडंतिया | विहिणिया |
षि संबोओि |
दिव्वरिसिसत्थहिं | दिओ अंविओ | णाययतं वरं । षम्म जोहि । मालवणमुवगओ । दियहि सँभियंकर |
[ ५९. ३,२७
पर्वतपर अभिषेक किया, और लाकर प्रिय शब्दोंसे सुन्दरी माताको सौंप दिया। प्रणत शिर इन्द्र धर्मनाथको प्रणाम कर सोधर्म स्वर्ग चला गया। अपने रूपसे कामदेवको जीतनेवाले मधुरवाणी परमेश्वर रूपमें बढ़ने लगे ।
धत्ता--उनका शरीर ऊंचाई और गुरुत्वमें सरल पैंतालीस धनुष था । त्रैलोक्यमें श्रेष्ठ महंत कुमारने धन देकर लोगोंका रंजन किया ||४|
५
जिसका देवोंने कीर्तन किया है ऐसे कौमार्यकालके दो लाख पचास हजार विशेष वर्ष उनके बीत गये । अप्सराओं और इन्द्रोंने जिनके आनन्दको रचना की है, जो यशरूपी वृक्षके अंकुर है, इन्द्रके द्वारा जिनका अभिषेक किया गया है, ऐसे वह राजा हो गये। सुख उत्पन्न करनेवाले उनके पाँच लाख वर्ष बीत गये । उन्होंने चन्द्रमा के समान कान्तिवाली, वैराग्य उत्पन्न करनेवाली एक गिरती हुई उल्का देखी। वह स्वयं ही विरक्त हो गये, फिर भी उन्हें श्रेष्ठ कुसुम जिनके हाथ में हैं, ऐसे दिव्य मुनिसमूहों के द्वारा सम्बोधित किया गया। वह देवेन्द्रोंके द्वारा अभिसिंचित और अचित हुए। अपने शिखरसे आकाशको छूनेवाली श्रेष्ठ नागदत्ता
११. AP पणयसि । १२. A सचावहं ।
०
५. १. AP कुमरलने । २. P बिसेसेहि । २. P सुरेसेहि । ४. AP विरयाणंदओ । ५. A वयसमलबाई मधुमखहं । ६. A नवकुसुमं । ७. A समर्थक |
P
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महाकवि पुष्पदन्त विरचित पूसि सायण्हए रहिउ रइतण्हए। छहउबवासओ करिवि णिहिवासओ। णिवसहससंजुओ मुणिवरिंदो हुओ। खतिर्कतापिओ तुरियणाणकिओ। पुरि अरविचिसए 'पाडलीउत्तए। भमिड पिंडस्टिओ विणयणविओ थिओ। धण्णसेणालए
ढोइयं कालए। भोयणं''फासुयं सम्वदोसच्चुयं । जायपंचन्मयं दाणममरत्थुयं ।
सहइ तवतावर्ण करइ गुणभावणं । पत्ता-उवसंतइ मच्छरि गइ संवच्छरि खाइयभावहु भाइल ।।
फुल्तपियालउं तुंगतमाल तं सालवणु पराइउ ||५||
तहिं सत्तच्छयतरुहि तलि खगडलमहुलि। छट्टषवासालकिय
अविसंकिया। पूसरिक्खि छणससिदिवसि हइ कम्मरसि। अवरहा हूयउ सयलु
केवलु विमलु। आयल तुरिय सतियसयणु दससयणयणु। शिविकामें बैठकर, कामको जीतकर घरसे निकल गये और शालवनमें पहुंचे। माघ शुक्ला प्रयोदशीके दिन सायंकाल पुष्यनक्षत्रमें रतिकी तृष्णासे रहित कर्मको सामथ्र्यका नाश कर, छठा उपवास कर एक हजार राजाओंके साथ दोक्षित हो गये। क्षान्तिरूपो कान्तिके प्रिय चार जानोंसे अंकित वह घरोंसे विचित्र पाटलिपुत्र नगरमें आहारके लिए घूमे। शिष्टतासे नम्र वह राजा धन्यषेणके प्रासादमें पहुँचे। उस अवसरपर उन्हें प्रासुक तथा सब प्रकारके दोषोंसे च्युत भोजन दिया गया। पांच प्रकारके आश्चर्य हुए। वह दान देवोंके द्वारा संस्तुत था। वह तपसे सन्तप्त उनकी श्रद्धा करता, गुणोंकी भावना करता है।।
पत्ता-ईभिाव समाप्त होने और एक साल बीतने में वह क्षायिक भावपर स्थित हो गये। जिसमें प्रियाल वृक्ष खिले हुए हैं और जिसमें ऊंचे-ऊँचे तमालवृक्ष हैं, ऐसे शालवनमें यह पहुंचे ॥५॥
वहाँ पक्षि-समूहसे मुखरित सप्तपर्ण वृक्षके नीचे, छठे उपवाससे शोभित, विशंकाओंसे रहित, पूष शुक्ल पूर्णिमाके विन, कर्मकी सामर्थ्य नष्ट होनेपर अपराहमें विमल समस्त केवलज्ञान
4. A पिलिपासयो। ९. A पुरघर । १०. AP पाञ्जलीयुत्तए । ११. AP पासुयं ।। १. १. AP मुहलि । २. AP add after this: देवे सयरायर मुणिलं, अगु जाणियां (A omits
जगु जाणियठं ); खणि जाश्य (A जाइयउ ) देवागमणु, छह ( A सुण्णय ) गयणुः गाणाविहहि पहाइयहि, अपराइयहि; संथुउ देउ सुरासुरहिं, मलियारहि; K gives these lines but scores them off. ३. A तुरिन ।
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महापुराण
[ ५९. ६. ६थुणइ थुणंतु गहीरझुणि
जय परममुणि । धम्म ण णयलि गिरिगुहिलि । ण धरणियलि। धम्मु ण पहाणि ण प्राणि तुहुँ जि धम्मु जिणधम्ममा कयजीवदउ। णरयपडतह दिण्णु करु
तुहुं दुरियहरू। हेम तुहं संकर परमपरु
तुहूं तित्थयरू। बुद्ध सिद्ध तुहुं मैह सरणु
यजरमरणु। जिह मणु धावइ णारियणि लत्तुंगणि।
जिह मगु धायइ भवणि धणि णियबंधुयाणि । १५ तिह जइ धावइ सुद पयह
गयभवभयहं । तो संसारि संसरइ
ण हवाइ मर। जाइ जीउ तिहुवणसिरह
तहु सिवपुरहु। एम्ब थुणेवि पुरंदरिण
धोणासरिण। समवसरणु णिम्मि उ विउलु तहिं जीवउलु । धम्मचक्कपहुंणा जिपिण
संबोहिया। २० इंदियविसयकसायवसु
सुणिरोहियर। पत्ता-तहु वजियछम्महु देवहु धम्म तवभरधरदढयरभुय ।।
चालीस मणोहर जाया गणहर बिहिं गणणाहहिं संजय ॥६॥ उत्पन्न हो गया । इन्द्र तुरन्त देवजनोंके साथ आया । स्तुति करते हुए गम्भीर ध्वनि वह कहता है-"हे परममुनि, तुम्हारी जय हो। धर्म न तो आकाशतलमें है और न गिरिगुहामें। धर्मन स्नानमें है और न पशुओंके खानेमें, और न मदिरा पीने में | जीवदया करनेवाले जिनधर्ममय साप धर्म है, नरकमें गिरते हुएके लिए तुमने अपना हाथ दिया है, तुम पापका हरण करनेवाले हो, तुम शिव-शंकर और परमश्रेष्ठ हो। तुम तीर्थकर हो; तुम बुद्ध-सिद्ध मेरी शरण हो, ज़रा और मृत्युका नाश करनेवाले हो। जिस प्रकार मन ऊँचे स्तनोंवाली स्त्रियों में जाता है, जिस प्रकार मन दौड़ता है, भवन-धन और अपने बन्धुजनमें उसी प्रकार यदि वह भवभयसे रहित तुम्हारे चरणों में दोड़े तो वह संसारमें परिभ्रमण न करे, न पैदा हो और न मृत्युको प्राप्त हो,
और जीव त्रिभुवनके सिरपर स्थित शिवपुरमें जाता है।" वीणाके स्वरमें इस प्रकार जिनकी स्तुति कर इन्द्रने विशाल समवसरणकी रचना की। उसमें धर्मचकके स्वामी जिनभगवान्ने जीवकुलको सम्बोधित किया। इन्द्रियों और कषायोंकी अधीनताका उन्होंने विरोध किया ।
___घता-वहाँ उनके छह मदोंसे रहित, धर्मनाथ देवके तपका भार उठानेमें बढ़तर भुजावाले, विभिन्न गणनाथोंसे युक्त चालीस सुन्दर गणधर हुए ॥६॥
४. A पपुवहणे । ५. P hay तुई before हरु । ६. A मह सुमणु । ७. F omits this life. ८. A घावह भदणि वणिः P घावह णियभवणि धणि । ९. P तिथि।
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-५९.८.१]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
णवसयई पुरुवपारयरिसिहि संदरिसियमोक्खमग्गदिसिहि । चालीससहास सससयई। सिक्खंयह णमंसियगुरुपयई। निसुलर तिथि सारूई परहं __ अच हिमहं संजममरधरहं। घउसहस पंचसय केवलिहि मणपज्जयाई तई मणबलिहिं। भयसहसई विकिरियाइयह दोसहसई वसुलयवाइयह। सहसाई सहि चउसयजुयई अजियहं मोहवासहु चुयई। दोलक्खई भणियई सावयाई दुगुणाइंसियह पालियबयाई । गिव्याण मिलिय संखारहिय संखेज तिरिक्ख दिक्खसहिय । पणवंति जासु को तेण सई उवमिजइ हूई चित महुँ। गिंभागमि अहणवुत्तरहि
सह जइसरहि कयसंवरहि । चोथिइ पच्छिमपहरइ णिसिहि संमेयसिहरि अरिहहु रिसिहि । संपण्णी धम्महु परमगइ महुं देव भडारण सुद्धमइ। पत्ता-वंदारयवंदहु देहु जिणिदह पुजिषि हयभवपासह ॥
पहजियरविमंडलु गउ आईडलु गय अवर वि णियवासहु ॥७ धम्मवारिविहरणथोहित्थे अस्सि परमधम्मजिणतित्थे ।
पूर्वागोंमें पारंगत और मोक्षमार्गकी दिशा बतानेवाले मुनि नौ सौ थे। जिन्होंने अपने गुरुपदोंको नमस्कार किया है, ऐसे शिक्षक चालीस हजार सात सौ थे। संयमके भारको धारण करनेवाले शेष अवधिज्ञानी तीन हजार छह सौ। केवलज्ञानी चार हजार पाँच सो। मनःपर्यय ज्ञानधारी मुनि भी चार हजार पाँच सौ। विकिया-ऋद्धिधारी सात हजार थे। वादी मुनि दो हजार आठ सौ। मोहवाससे रहित आर्यिकाएं साठ हजार चार सौ। धायक दो लाख और व्रतोंका पालन करनेवाली श्राविकाएं चार लाख। देवता वहाँ संख्यारहित सम्मिलित हुए। दीक्षा सहित संख्यात तिथंच प्रणाम करते हैं। मुझे यह चिन्ता है कि उनकी उपमा किससे दी जाये? प्रोष्मकाल आनेपर संवर धारण करनेवाले आठ सौ नौ मुनियों के साथ (ज्येष्ठ शुक्ला) चतुर्थीके दिन रात्रिके अन्तिम प्रहरमें अरहन्त मुनिको सम्मेद शिखरपर धर्मकी परमगति (मोक्ष) प्राप्त हुई। मादरणीय वह मुझे शुभमति प्रदान करें।
पत्ता-जिन्होंने जन्मपाशको नष्ट कर दिया है ऐसे देवोंके द्वारा बन्दनीय जिनेन्द्रको पूजा कर प्रभासे रविमण्डलको जीतनेवाला इन्द्र तथा दूसरे भी देव अपने-अपने निवासके लिए चले गये ॥७॥
धर्मरूपी जलमें विहार करने के लिए बहाजके समान परम धर्मनाथके इस तीर्थमें हे
७. १. P भिक्षुयह। २. A जिह केवलहिं । ३. AP तियह । ४. AP जासु सो केण सहं। ५. A __बट्टणवघुत्तरहि । ६. A देवजिणिदछ । ८. १. A अस्स ।
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३४६
महापुराण
[५९८.२सेणिय हलहरचकहराणं णिसुणहि परियं णरपवराणं । णवसासंचियवसुमइवेहे
जंबूदीवे अवरविदेहे। णिवसइ पारवा परदुषिसहो वीयसोयणयरे णरवेसहो। सो संसारजायणिवेयर दमवरपासे मुद्धिर्समेयस । काउं तवचरणं जिणदिढ बिसभिगो शानिg| पत्तो गिरसणविहिणा सग तं सहसारं मोयसमगे। अट्ठारहजलणिहिपरिमाणे सस्सेयारहमे बोलीणे। जझ्या तझ्या इह रोयगिहे णयरे घरसिरणश्चियबरिहे। णाम सुमित्तो अप्पटिमल्लो दुजणहियउप्पाइयसलो। जुज्झे सो मुयबलमयमलो रायसीहराएण णिहित्तो। ताम तेण परिमलिथणेते परिभवदुक्खपरंपरछिमें। धत्ता-णियराजु मुएप्पिणु राणयहु देप्पिणु जुण्ण तणु व गणेप्पिणु ।।
चिण्णजंबई दूसह कयवम्महबहु कण्हसूरि पण प्पिणु ८॥
ranrammarnmarrrrrrrAmarakArAmrannientre
णवर पमाएं माणकसाएं। भीमें रुद्ध हियवर कुद्ध। खरतवशीण सासु अयोण । पत्थइ तवलु होजच मुयबलु।
आगामिणि भवि भरवि रउरवि । श्रेणिक, हलधर और चक्रवर्ती नरश्रेष्ठोंका चरित्र सुनो। जिसकी भूमिरूपी देह नवधान्योस अंचित है, ऐसे जम्बूद्वीपके अपर विदेहके वीतशोक नगरमें शत्रुको सहन नहीं कर सकनेवाला राजा नरवृषभ निवास करता था.। संसारसे वैराग्य उत्पन्न होनेपर शुद्धि सहित पह दमवर मुनिके पास, जिसमें केवालोंचकी निष्ठाको सहन किया जाता है, ऐसा जिनके द्वारा उपदिष्ट तपको कर उसने अनशन विधिके मार्गसे भोगसे परिपूर्ण सहस्रार स्वर्ग प्राप्त किया। उसकी अठारह सागर प्रमाण आयुमें-से जब ग्यारह सागर आयु निकल गयी तो जिसके गृहशिखरोंपर मयूर नृत्य करते हैं, ऐसे राजगृह नगरमें अप्रतिमल्ल और दुर्जनोंके हृदयमें शल्प उत्पन्न करनेवाला सुमित्र नामका राजा हुआ। भुजबलसे प्रमत्त वह युद्ध में राजसिंह राजाके द्वारा पराजित कर दिया गया । तब पराभवको दुःख-परम्परासे अभिभूत अपनी आंखें बन्द किये हुए वह
पत्ता-अपना राज्य छोड़कर और पुत्रके लिए देकर जीर्ण तृणकी तरह समझकर जिन्होंने कामदेवका नाश कर दिया है, ऐसे कृष्णमूरि मुनिको प्रणाम कर उसने असह्य व्रत स्वीकार कर लिया ||८||
परन्तु नहीं, वह भीषण मान फषायसे रुद्ध अपने हृदयमें क्रुद्ध हो उठा। अत्यन्त तपसे क्षोण वह अज्ञानी साधु यह तपफल मांगता है कि आगामी भवमें मेरा ऐसा बाहुबल हो, जिससे
२. Pणरवासहो। ३. P संसारह जाय । ४. सम्मेमठ । ५, A रायहरे। .A पठ; P सन | ९. १. AP अजाण । २. AF भटमणि ।
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-५९. १०.४]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित जेण बियारमि सो रिस मारमि। इथ गिझाइवि देहु पमाइषि । सझकिलेसें मुल संणासें। थिई सुरविंदर हु माहिदइ। जाउ मणोरमि अणुवमतगुरमि। आउअपिंप रुस । जहिं जिणगीयई अच्छरगीयई। जहिं सवणिज्नई सुइरमणिजई।
जित्तव राउ सुमित्तउ। सो पस्थिवहरि णं मत्तउ करि। हिंडिवि भवषणि विहुरावलिघणि । फलियधरायलिइह कुरुजंगलि । पंदुरगोरि हूयट गयउरि ।
राउ कुसीलभ सो महुकीलन । पत्ता-करयलकरवाल मिडिकराल पुहइ तिखंड पसाहिय ।।
मंडलिय मउद्धर जेम धुरंधर तेम तेण घरि वाहिय ।।२।।
रज्जु कसिणसुहसार अणेहुत्तिहिं णिय
, कइयइ वरिसई जव्यहुँ तहु जीविउ थिय है । तइयहं खगरणाहहु सीहसेणणिवहु ।
इक्वाहि सुपसिद्धह इह भरहन्भयतु । मैं भटकोलाहलसे भयंकर युद्ध में विदीर्ण कर शत्रुको नष्ट कर सकूँ, यह ध्यान कर और अपना शरीर छोड़कर, शल्यके क्लेश और संन्याससे मरकर वह देवसमूहवाले माहेन्द्र स्वर्गमें उत्पन्न
आ। वह सन्दर अनुपम तारुणमें जन्मा। उसकी अनिन्द्य आय सात सागर प्रमाण थी। जहाँ जिनवरसे सम्बन्धित गीत और अप्सराओंके सुचिर मनोज्ञ गीत सुनाई देते हैं। और जिसने पहले राजा सुमित्रको जीता था, वह श्रेष्ठ राजा राजसिंह मानो मत्तगज हो । कष्टोंसे भरपूर संसाररूपी वनमें भ्रमणकर, जिसमें स्फटिकका धरातल है, ऐसे कुरुजांगल में सफेद गोपुरोंवाले गजपुर ( हस्तिनापुर ) में खोटी चेष्टावाला मधुकीड़ नामका राजा हुआ।
पत्ता-जिसको भृकुटियां भयंकर हैं ऐसे उसने हाथमें तलवार लेकर तीन खण धरती सिद्ध कर ली। मदसे उद्धत माण्डलीक राजाओंको वह बैलोंकी तरह अपने घर हाक लाया ॥॥
समस्त सुखोंसे श्रेष्ठ राज्यका अनुभोग किया और जब उसका जीवन कुछ वर्षोंका रह गया तभी खगपुरके स्वामी इक्ष्वाकुकुलके सुप्रसिद्ध भरतराजाके अंकुर सिंहसेन राजाको
३. A पिय । ४. P जिणगेहई । ५. A अच्छरिगीयई । ६. A तिखंड चाहिय । ७. AP मजाघर । १०. १. A कसण । २. AP अणुइंजिधि । ३. A गोवरणाहह; K गोउर but corrects it to
लगवर।
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महापुराण
[५९. १०.५विजयादेविहि गब्भइ मुप्पण्णउ धवलु
__सो णरर्वसहबरामरु भुयजुयबैलपबलु | सुहिहिं सुदसणु कोक्किउ कुलसरहसवरु
तहि अवसरि माहिदहु णिवडिड सई इयरु । अहरयिंवरणिजियणवधिविषयहि
सो सुमित्तु सु जायज उयरइ अंबियहि । पुरिससीहु इक्कारित लहुयस बंधवहिं
- पह पमाणु संपत्तउ थणयथर्णधुहिं । ते वेण्णि वि ससियरहिमफजलगरलणिह
बेणि वि ते सुरगिरिवरसंपिहमाणसिह । बेणि वि ते पल केसव वासवविहियभय
ते बिणि विणि सिरमणिकिरणारुणियपय । ते विणि मि संसेषिय विज्जाजोइणिहिं।
___ समलंकिय हरिवाहिणिगारलवाहि णिहिं । ते तेहा"आयणिवि परसिरिअसणउ
. महुकीलड आगढउ रणि जुझणमणउ । पेसियदूएंजाइवि बोलिय रायसुय
किं तुम्बई ण कयाइ वि एही बत्त सुय । घत्ता-खोणीयलपालहु जो महुफीलहु कप्पु देव सो जीवह।।
हलहर सुहभायण सुणि णारायण अवरु जमाणणु पावइ ।।१०॥ विजयादेवीके गर्भसे वह धवल बाहुबलसे प्रबल देव उत्पन्न हुआ। सुधीजनोंने कुलरूपी सरोवरके हंस उसे सुदर्शन कहकर पुकारा। उसी अवसरपर माहेन्द्र स्वर्गसे अवतरित दूसरा देव, स्वयं जिसने अधरबिम्बोंको कान्तिसे नव रविबिम्बोंको जीत लिया है, ऐसो अम्बिका नामकी दूसरी रानीके उदरसे वह सुमित्र पुत्र हुआ 1 छोटे भाइयोंने पुरुषसिंह कहकर पुकारा। वह प्रभु शीघ्र बालकों और तरुणोंमें प्रामाणिकताको प्राप्त हो गये। वे दोनों ही चन्द्रमा, हिम, काजल और गरलके समान रंगवाले थे। वे दोनों ही सुमेरपर्वतके समान मानसे श्रेष्ठ थे । इन्द्रको भय उत्पन्न करनेवाले वे दोनों बलभद्र और नारायण थे। जिनके पैर राजाओंके शिरोमणिकी किरणोंसे अरुण हैं, ऐसे थे। वे दोनों ही विद्याओं और योगिनियों के द्वारा सेवित थे। वे दोनों हरिवाहिनी और गरुड़वाहिनियोंसे अलंकृत थे। उनको इस प्रकारका सुनकर दूसरेकी लक्ष्मीके प्रति असहिष्णु युद्धको इच्छा करनेवाला मवृक्रीड़ युद्ध में क्रुद्ध हो उठा। उसके द्वारा भेजे गये इतने राजपुत्रोंसे जाकर कहा
घत्ता-हे शुभभाजन हलधर और नारायण सुनिए, जो राजा मधुक्रोडको कर देगा वही जोयित रहेगा। दूसरा यमाननको प्राप्त करेगा ॥१०॥
४. A गरवसतु । ५. A TRलबलु । ६. A fणवरित सो इयवरु । ७. P अवरह । ८. A पणययणचुहि; Pषणयषण्णधुति । ९. AP वेणि मि ते। १०. नृवं । ११. AP सहा । १२. AP बोल्लिय जाइवि । १३. AP णिसुणि गरायण ।
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-५१.१२.२]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
११
गोविंदो। माणमहतो भणइ हसंतो। मुवि जो मंदो भैई सच्छंदो। मग्गैइ कप्पं तमहं भर्प। करमि अदप्पं किं माइप्पं । अस्थि पराणं खग्गकराणं । दोण्णयमुकं
मोत्तणेक। लंगलपाणि को पहु दाणिं । मई जीवंत वइरिकयंत । वयणं चंडं तं सोऊणं
चार अदीणं । विगओ दूओ हरिसियभूओ। कुंजरगइणो तेण सवइणो। कहिया वत्ता कुरु रणजता। ण करइ संधी लच्छिपुरंधी
लोलो रामो कण्हो भीमो। यत्ता-तक्खणि संणद्धठ अभियधुयघउ रोस कहिं वि ण माइच ॥
इयतूरगहीरें सहुं परिवार महुकीडङ उद्धाइउ ॥११॥
रमणीदमणई जूरियसयणई
रिउआगमणई। णिसुणिवि वयणई।
MANN
तब जिसने राजाओंको नष्ट किया है ऐसा वह मानसे महान् गोविन्द हंसता हुआ कहता है-इस धरतीपर जो मूर्ख और स्वच्छन्द मुझसे कर मांगता है मैं उसको भस्म करता हूँ और दर्पहीन बनाता हूँ। जिनके हाथमें तलवार है, ऐसे शत्रुओंका क्या माहात्म्य ! दुर्नयसे रहित एकमात्र बलभद्रको छोड़कर इस समय कोन स्वामी है ? शत्रुओंके लिए कृतान्त मेरे जीते हुए । कानोंके लिए तीरके समान उन सुन्दर अदीन प्रचण्ड वचनोंको सुनकर जिसको भुजा हर्षित है, ऐसा वह दूत चला गया। हाथीके समान चलनेवाले अपने स्वामीसे उसने यह बात कही कि युद्ध के लिए प्रस्थान कोजिए। हे देव, बह सन्धि नहीं करता, लक्ष्मी और इन्द्राणी स्त्रियों के लिए चंचल कृष्ण बहुत भयंकर है।
पत्ता-मधुकीड़ तत्काल सन्नद्ध हो गया, आन्दोलित ध्वज वह कहीं भी नहीं समा सका। बजते हुए नगाड़ों और परिवार के साथ मधुक्रीड़ दौड़ा ॥११॥
१२
स्त्रियोंका दमन करनेवाले शत्रुआगमन और स्वजनोंको सतानेवाले वचनोंको सुनकर, ११. १. A तो । २, ममद सईदो । ३. A मंगह। ४. A कवणाजुत्ता । ५. AP महकोलउ ।
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३५०
५
१०
१५
ओईयभुयबल झरि वजइ संचल्लिय चमु
खाई
भडकवण
कडव
पहरणसंकि
सुरवरदारुणि देवियारणि
चुयजंपाणइ
कुरधार
धाइयमाणइ रुहिर झलझलि मारियवाणि
महापुराण
दे देहि क परं गिलेड अजु वा भणितं तेण
णिग्गय हरि बल ।
दुहि गज्जइ । महिविभमु |
सेण्णई लग्गई ।
मोडियसंदणि |
तोडिययगुडि ।
विडाविघडि |
कोषाणि |
खेयरमारणि ।
स्वयि विवाण | पेटका !
ताण |
रवर गोंदल |
तहिं इसिविरणि ।
चता-पडिसन्तुं वुत्तरं एवं अजुत्तरं जं मई सहुं रणि जुज्झहि ॥ तहुँ भिच कुलीगड हुई तुह राणड एत्तिउं कज्जु ण बुज्झहि ||१२||
[ ५९.१२. ३
१३
मा कालसप्पु । अहुँजि रज्जु । दामोयरेण |
1
अपना बाहुबल देखते हुए नारायणकी सेना निकली। झल्लरी बज उठी, दुन्दुभि गरजी ! सेनाने कूच किया। मतिभ्रम होने लगा। तलवार उठाये हुए सेनाएँ भिड़ गयीं। जिसमें योद्धाओं का कचूमर हो रहा है, रथ मोड़े जा रहे हैं, ध्वजपट फाड़े जा रहे हैं, हाथियों के कवच तोड़े जा रहे हैं, हथियारों का जमघट हो रहा है, गजघटा विघटित हो रही है, जो सुरवरोंसे भयंकर हैं, नवकोपसे अरुण है, जो शरीरका विदारण करनेवाला और विद्याधरोंको मारनेवाला है, जिसमें जवान व्युत हो रहे हैं, विमान स्खलित हो रहे हैं, पृथ्वी की धूलसे अन्धकार हो रहा है, जिसमें धनुषकी टंकार हो रही है, बाण दोड़ रहे हैं. शरीरके कवच काटे जा रहे हैं, रुधिर चमक रहा है, नरवरों की मुठभेड़ (संग्राम) हो रही है, जिसमें राज मारे जा रहे हैं, ऐसे उस रणमें प्रवेश कर
बत्ता - प्रतिशत्रुने कहा, "यह अनुचित है कि जो तुम मेरे साथ युद्ध में लड़ते हो। तुम भृत्य हो, में कुलीन । मैं तुम्हारा राजा हूँ, तुम इतना काम भी नहीं समझते ॥ १२॥
I
१३
तुम कर दे दो, कहीं तुम्हें आज कालसर्प न निगल ले। तुम राज्यका भोग करो।" तब
१२. १, A जोवि । २. "AP मणि । ३. Pपडियं । ४. P गुडि । ५ AP अलिझंकार | ६. A ताण | ७, A पडिलें ।
१३. १. P गिल ।
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-५९. १३. २३ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित को पत्थु सामि कहु वणिय भूमि । कुलभूसणम्मि सिरिसासणन्मि। भणु लिहिय कासु बलु जासु तासु । इय बजरंत अमरिसफुरंत। आउहई लेवि अभिट्ट चे वि। ते चरणरिंद पडिहरिविंद। कयरोलिया दाढालिया। पिंगच्छियाउ बीइच्छयाउ। फणिकंकणाउ लबियथणा। उक्केसियाउ रिपेसियाउ। गरूपिण सुरजागिणी। कण्हे हयाउ णासिवि गया। पणिक्षिण करिठरणिवेण। चालिदि गुरुकु उम्मुकु चक्कु । आरालिफुरि कण्हेण धरि । दाहिणकरेण णं गहवरेण । कसणेण तंबु वभाणुबिंबु ।
पुणु भणि पिसुणु महुकील णिसुणु । धत्ता-रे रे रिकुंजर दढदोहरकर सीरिहि सरणु पदुक्कहि ।।
एवहिं असिजीहहु महुं परसीइङ कमि पडियज कहिं घुक्काहि ।।१३।। उस दामोदरने कहा- "यहां कौन स्वामी है, और किसकी भूमि है ? बताओ कुलभूषण किसके श्री शासनमें धरती लिखी हुई है ? जिसके पास बल है, धरती उसको। ( जिसको लाठी उसकी भैंस)," यह कहते हुए तथा अमर्षसे विस्फुरित होते हुए नारायण और प्रतिनारायण वे दोनों श्रेष्ठ नर हथियार लेकर लड़ने लगे । जिसने भयंकर शब्द किया है, जो दाढ़ोंसे युक्त है, जो पीली और भयंकर अखिोंवाली, नागों, वलय पहने हुए लम्बे स्तनोंवाली तथा उठे हुए बालोंवाली। शत्रुके द्वारा प्रेषित, ऐसी वह बहुरूपिणी देवविद्या कामिनी, नारायणके द्वारा आहत होकर भाग गयी। तब शत्रुके लिए निर्दय, गजपुरनरेश मधुकोड़ने चलाकर भारी चक्र छोड़ा। आराओंसे स्फुरित उस चक्रको कृष्णने अपने दायें हाथसे इस प्रकार पकड़ लिया मानो काले ग्रहबरने (राहुने ) लाल-लाल नव-भानुबिम्ब पकड़ लिया हो ! नारायणने कहा--"हे दुष्ट मधुकोड, सुन।
पत्ता-हे दृढ़कर शत्रुगज, तुम बलभद्रको शरणमें आ जाओ। इस समय तलवार जिसको जीभ है, ऐसे मुझ जैसे नरसिंह के चरणोंमें पड़े हुए तुम फैसे बच सकते हो" ३१३||
२.A अमरिसु । ३. AP बीहच्छियाउ । ४. A उनकोसियाठ 1 ५. AP परि मुक्कु । ६. P वर स्रोहह । ७. A कमपडिय।
A
warwwwmnnnnnnnn.
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३५२
इय भविसयडंग अणेण पमें लिय दो वि पंचचालीस गुण्णय देहधर ते लहररिराणा मंगलभासिणिइ
१०
महापुराण
१४
चलु वइरिहि विलु वियरिषि घक्लियउं । हुँ दलक्ख वरिस थिय मुंअंत घर । वीर ने वि आलिंगिय विजयविलासिणिइ | रउरवि रणरवि विडित सत्तममहिविषरि । धम्म सर पर रामु सुदंसण । परवसद्धाहारहिं विलवणणीरसहि । कम्मकंदु पिल्लूरिवि मुणिगुणभावर्णाहि । णिकेसायणीरायहु गत सो चिलहू । फणिकिंणर विवाहरगणगंधयेधुर ।
काले मुसुमुति पुरिससीहु गहिरि ५ भाइपेउ सकारिवि सीह सेणतण
छट्ठमउवासहिं दसमदुवालसहि eraमूल हि सय रविचरतावणहिं भुवणत्तयसिद्दरमाहु मोक्खहु निकलहु मुणिणिंदु आहास गोत्तमु विप्पसुट
पत्ता- सविपदि घुगु काहि परि
॥
संगाम समरथ तय उत्थई मधेसणाइकुमारहं ॥ १४ ॥ १५
[५९.१४.१
पडवर हुई विडिइ तमतमधरणियलि गिद्धखमणुअंतर वित्तइ भडतुमुलि ।
૪
1
यह कहकर नारायणने चक्र चला दिया, तथा शत्रुके विशाल उरतलको भेदकर डाल दिया । पैंतालीस धनुष ऊँचे शरीर धारण करनेवाले वे दोनों ही ( नारायण और बलभद्र ) सुखपूर्वक दस लाख वर्षों तक धरतीका भोग करते रहे। वे दोनों हो बलभद्र और नारायण राजा मंगल-भाषिणी (सरस्वती) तथा विजयविलासिनी ( विजयलक्ष्मी ) के द्वारा आलिंगित थे क्षयकालके द्वारा मसला गया पुरुषसंह गम्भीर भयंकर तथा युद्धके कोलाहल से परिपूर्ण सातवें नरकके बिल में गया। सिंहसेनके पुत्र ( बलभद्र ) ले भाईके शवका संस्कार कर राम सुदर्शन ( बलभद्र ) धर्मनाथकी शरण में चले गये। छह, आठ दस और बारह उपवासों, नमक रहित दूसरोंके द्वारा दिये गये आहारों, वृक्षोंके मूल पथपर शयनों, सूर्यकिरणोंके तपनों और मुनिगणकी भावनाओंके द्वारा कर्मरूपी अंकुरको नष्ट कर वह भुवनश्रय के शिखर के अग्रभाग में स्थित, निष्पाप, कषाय और रागसे रहित और शरीर रहित मोक्षके लिए चले गये। मुनिगणनाथ विप्र, पुत्र, नाग, किन्नर, विद्याधरगण और गन्धर्वोके द्वारा संस्तुत गौतम कहते हैं
घत्ता - "हे मगधराजा, तुम संग्राम में समर्थ तीसरे और चौथे चक्र के स्वामी मघवा और सनत्कुमारके चरितको सुनो और फिर विश्वास करो" ||१४||
१५
प्रतिशत्रु ( प्रतिनारायण मधुकोड़) के मारे जाने और तमतमप्रभा धरणीतलमें पतन होनेपर, जिसमें गिद्धोंके द्वारा मनुष्यकी अतें खायी गयी हैं, ऐसी भटभिड़न्त समाप्त होनेपर भयंकर
१४. १. A देहवर । २. A सुहृदई । ३. 4 हरिणामि । ४. A रणयविणिवडिल । ५. A माई । ६. A पिकसाठी सुदंसणु णिञ्चल । ७. A गणिमुनि । ८. AP बिज्जाहरवरं । ९. P १०. P मघवा सणकुमार हूँ ।
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-५९, १५. २२ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित
दामोयरि गइ गरयह भीमरहंगकरि
. मारवियारणिवारइ णिव्वुइ सीरंधरि । दोहकाल वोलीणइ णरणियरामहरि
धम्मणाहतित्वंतरि बयणसंतियरि। सुणि जे जाया भारहि भासुरचनषद
बेषिण सयलपलपालय जिणकमणिहियमइ । एत्थु खेत्ति महिमडलि णयरि विचितपरि
___ मोरकीरकुरराउलि सीमारामसरि । तिथि वासुपुजेसह दुद्धर षय धरिवि
__णरषइ णामें राणउ दुकर तउ करिवि । हुउ मज्झिमगेवजहि अहममराहिवा
जिणधम्में पाविजइ सासयसोक्खगइ । कवणु गहणु देवसणु परियत्सणसहि
एउ बप्प मई जाणिउं लोपहिं वि कहिलं । सत्तबीससायरखइ जाय मरणु सुरि
___ सजहावलिसिहरुम्भडि सिरिसाफेयपुरि । इह सुमित्तणरणाहह सुहिसंमाणियहि
इंसवंसकलसरहि भहाराणियहि । मघउ णाम हूय उ सुन सुयणाणंदयरु
असियरपसमियरिउतमु भमिल गप दिवसयस।
चक्रको हाथमें रखनेवाले नारायणके नरक जानेपर, कामदेवके विकारका निवारण करनेवाले बलभद्र के निर्वाण प्राप्त कर लेनेपर, नरसमूहकी आयुफा क्षय करनेवाले तथा बुधजनोंको शान्ति प्रदान करनेवाले धर्मनायके तीर्थकालका लम्बा समय बीसनेपर भारतमें जो चक्रवर्ती हुए उन्हें सुनो। ये दोनों ही धरतीका पालन करनेवाले और जिनवरके चरणोंमें अपनी मति रखते थे। इसी भरत क्षेत्रके महीमण्डलमें विचित्र घरोंकी नगरी थी जो मोर, कीर और कुरर पक्षियोंके शब्दोंसे व्याप्त और सीमोधानों तथा नदियोंसे युक्त थी। वासुपूज्यके तीर्घकालमें नरपति नामका राजा कठोर व्रत धारण कर और दुष्कर तप कर मध्यम प्रैवेयक विमानमें अहमेन्द्र देव हुआ। जिनधर्मसे शाश्वत सुख गति पायी जा सकती है, फिर परिवर्तनशील देवस्वको ग्रहण करनेसे क्या? इस बातको मैं बेचारा जानता हूँ और लोगोंने भी यही कहा है। सत्ताईस सागर समय बीतनेपर देवकी मृत्यु हुई । सौषावलियोंके शिखरोंसे उद्भट श्री साकेतपुरीमें राजा सुमित्रकी सज्जनोंके द्वारा सम्माननीय, हंसकुलके शब्दवाली भद्रा नामको रानीसे सुजनोंको आनन्द देनेपाला मघवा नामका पुत्र हुआ। वह अपनी तलवाररूपी किरणसे शत्रुरूपो अन्धकारको शान्त करनेवाला घूमता हुआ नव दिनकर था।
१५. १. AP सीरहरि । २. A दीहमालु; P दोहकालि । ३. P"णिस्याउँ । ४. A धम्मवेवहित्यकरि;
P धम्मदेवतियसरि । ५. APइलवालय । ६. A विचित्तयार। ७. Pणामे। ८. P भमित वि दिवसयक।
४५
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३५४
महापुराण
[ ५९. १५. २३धत्ता-जिउ मागहुँ वरतणु सुरखेयरगणु गेट्टमालितुहिणामरु ॥
"वसिकिय मंदाइणि साहिवि मेइणि पुणरत्रि आयउ णिययघरु ॥१५॥
दोचालीससद्धधणुतुगं
कणयवि पं मंदिरसिंग। अंगं तम्स सुलक्खणवंत कामिणिमणसंखोहणवतं । पंचलखवारिसह बद्धाउ
णि सिद्धसमीहियधाउ । दिव्वकामभोएं भोत्तर्ण
चक्कपट्टिरिदि मोत्तणं । पियमित्तहु पुत्तह दाऊणं सच जिणतचं जाऊणं । मणहरउजाणं गंतुणं
अभयघोसदेवं थोत्तर्ण । गहिच दिक्खं सहिर दुक्खं जिणि तण्हं णिदं मुक्खें। मघवंतो पयणयमघवंतो
रयपरिचत्तो मोक्त्रं पत्तो। धत्ता-जहिं कामु ण कामिणि दिणु णड जामिणि ताराणाहु ण णेसरु ॥
जहिं वसाह ण सजणु भसइ ण दुजगु तहि थि उ मघत्रमसिरु ॥१६।।
कालें जैसे अवरु जिह
जिनु उप्पण्णउ कहामि विह । चिंधचीरचुंबियखयलि
इह विणीयपुरि छुइधवलि । घत्ता-उसने मागध बरतनुको जीत लिया। देव-विद्याधर-गण, नृत्यमाल और हेमन्तकुमारको जीत लिया। मन्दाकिनोको अपने वश में कर लिया। इस प्रकार धरतीको सिद्ध कर वह पुनः अपने घर आ गया ॥१५॥
उसका शरीर साढ़े चालीस धनुष कंच! था, स्वर्णको छविवाला, मानो मन्दराचलका शिखर हो । उसका शरीर सुन्दर तथा अच्छे लक्षणोंसे युक्त था, यह कामिनोके मनको क्षुब्ध करनेवाला था। उसकी आयु पाँच लाख वर्ष की थी और तनिधानरूप स्वर्णादि धातुएं उसे नित्यरूपसे सिद्ध थीं। दिव्य कामभोग भोगकर, चक्रवर्तीको ऋषिको छोड़कर, अपने पुत्र प्रियमित्रको देकर, समस्त जिनतस्वको जानकर, मनहर उद्यान में जाकर, अभयघोष देवकी स्तुति कर उसने दीक्षा ले ली, दुःख सहा, तृष्णा, निद्रा और भूख जीत ली। जिसके चरणों में इन्द्र प्रणत है, ऐसा मघवा चक्रवर्ती कर्मरजसे परित्यक्त होकर मोक्ष गया।
पत्ता-जहाँ न काम है और न कामिनी। न दिन है और न यामिनी । न चन्द्रमा है और न सूर्य । जहाँ न दुर्जन रहता है, और न सज्जन बोलता है। मघवा महेश्वर वहाँ निवास करता है ।।१६||
१७ समय बीतनेपर जिस प्रकार एक और राजा हुआ, मैं उसी प्रकार उसकी कथा कहता है।
. ९. A मागहवर । १०. मालिच तुहिणामरु । ११. AP वसिकय । १६. १. A मंदरसिंग; P मंदर सिंग । २. A रिवी मोसूर्ण । ३. प्रियमित्त । १७. १. नूव; P णिज ।
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-५९. १८.४]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित सुरवसणहदिणयरत
धीरउ पयपालणणिरउ । पहु अगंतवीरित वसइ
बहु महऐवी घरिणि सह। हरि करि विसवा कुमुयपिर जोइवि सिविणय गैलिपहिउ । अधुयकप्पड ओरित
सुरेसिसु व्यरि ताइ धरिउ । किणरवीणारवट्झुणित
पुणु णवमासहिं संजणि । विरइयणामकरणवि हिडिं सणकुमार कोकिउ सुहिहिं। तेण समुहणियंसणिय
चउदहरयणविहसणिय। घणणंदणवणकोंतलिये
गंगाजलचेलंचलिय। बहुणरिंदकोहावणिय
गरुयगिरिंदसिहरणिय । छक्खंड वि महि जित्त किह णिहिघडधारिणि दासि जिह । पुव्वणियधणुतुंगयरु
विष्णि लक्ख दरिसाउधरू। घत्ता-बत्तीससहासाहि मउडविहूसहिं परणाहहिं पणविजइ ॥
जो सयलमहीसरु परपरमेसरु तासु काई वणिजइ ॥१७॥
रंभापारंभियतंडषद अस्थाणि परिदिउ सकु जहि भो अस्थि णस्थि किं सुइयरटु तं णिसुणिचि भणइ सुराहिवड
तावेकहिं दिणि मणिमंडवइ । आलाष जाय सुरवरहिं तहिं । भरखोइ रूउ कासु वि णरहु ।
वाचकवर
जिसके ध्वजपटोंसे आकाश चुम्बित है, ऐसे चूनेसे सफेद विनीतपुरमें सूर्यवंशरूपी आकाशका दिनकर, धीर, प्रजापालनमें लीन राजा अनन्तवीर्य निवास करता था। उसकी गृहिणी महादेवी सती थी। स्वप्नमें सिंह, गज, बैल, चन्द्रमा और सूर्य देखकर उसने अच्युत स्वर्गसे अवतरित देवशिशुको अपने उदरमें धारण किया। और फिर नौ माहमें किन्नरोंके वीणारवसे ध्वनित पुत्रको उसने जन्म दिया । नामकरण-विधि करनेवाले सुधियों ने उसे सनत्कुमार कहकर पुकारा। उसने, समुद्र जिसका वसन है, चौदह रत्न जिसके विभूषण हैं, सघन नन्दनवन जिसके कुन्तल हैं, गंगाजल जिसका वस्त्रांचल है, जो अनेक राजाओंको कुतूहल उत्पन्न करनेवाली है, भारी गिरीन्द्र शिखर, जिसके स्तन हैं, ऐसी छह खण्ड धरतो उसने इस तरह जीत ली मानो निधिघट धारण करनेवाली गृहदासी हो। उसका शरीर पूर्वोक्त धनुषों ( साढ़े चालीस धनुष ) के बराबर ऊंचा था । वह तीन लाख वर्षे मायुको धारण करनेवाला था।
पत्ता-वह मुकुट धारण करनेवाले बत्तीस हजार राजाओंके द्वारा प्रणाम किया जाता था। जो समस्त महीश्वर और मनुष्य परमेश्वर था, उसका क्या वर्णन किया जाये ? ॥१७॥
एक दिन मणिमण्डपमें जब रम्भा अप्सरा ताण्डव नृत्य कर रही थी और इन्द्र दरबारमें बैठा हुवा था, तब देवदरोंमें आपस में बातचीत हुई कि "अरे क्या किसो भी शुभकर मनुष्यका नरलोकमें सुन्दर रूप है या नहीं है ?" यह सुनकर इन्द्र कहता है कि "इस समय जो चक्रवर्ती हैं,
२. महदेवी । ३. Pणलिमिहिन । ४. A अवयरित। ५. P सुरु सिमु । ६. AP कोतलिया । ७. AP लिया 1 ८.A कोडावणिया; P कोड्डावाणया । ९. AP यणिया।
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३५६ महापुराण
[ ५९. १८.५सुरणरकामिणियणणलिभरवि सो सणकुमार कि टिकवि । माणुसु गस्थि रूउज्जलाई जेणेहाउं भासिई मोफलें। ता झ ति समागय तियस तहिं अच्छइ वसुहेसरु भवणि जहिं । अवलोइथि गरवइ सुरवरहिं । अहिणंदिर विहुणियसिरकरहिं । रूवें तेल्लोकरूवविजन
एहल सुरिंदु दुकर हवाइ 1 जिणणाहु वि जहिं संसइ चईइ तहि अवरु रूट किर कहिं घडइ । पत्ता-पयडेवि सरूवई सोम्मसहावई विह सिवि देवहिं भासिउ ।।
जइ मरणु णे होतउ तो पजत्तउ एउ जि रूउ सुहासिउँ ।।१८।।
ता जरमरणसेह आयपिणवि मण्णिवि तणु व महियर्ल । देवकुमारणामे सुइ अपिवि सतुरंग समयगलं ॥१॥ णिञ्चतिगुत्तिगुत्तसिवगुत्तमहामुणिपायपंकयं । तेणासंघिऊण पखालिय बहुभधपावपंकयं ।।२।। गहियं वीरपुरिसचरियं चित्तं तडिदंडचंचलं । रुद्धं चडकुसुमसरकडाडबर'डमरांवमल ।।३।। ससिडिंडीरपिंडपंडुरयरहिमपडछश्य देयं ।
वसियं बाहिरम्मि परिसेसियघरगुरणणेयं ॥४॥ सुर-नर-कामिनियोंके नेत्ररूपी कमलोंके लिए सूर्यके समान उस सनत्कुमारको देखा या नहीं।" तब रूपसे सुन्दर मनुष्य है या नहीं, स्वच्छन्द रूपसे जिन देवोंने यह कहा था, वे शीघ्र वहाँ आये जहाँ अपने भवन में वह पृथ्वीश्वर था। सुरखरोंने उसे देखा, और अपने सिर और हाथ हिलाते हुए उसका अभिनन्दन किया। रूपसे त्रिलोकके रूपकी विजयमें यह देवेन्द्रके लिए दुष्कर होगा, इसके रूपको देखकर जिनेन्द्रके रूपमें सन्देह होने लगता है तब वहाँ दूसरा रूप कहाँ गढ़ा जा सकता है ?
_पत्ता-तब अपने सौम्य-स्वभाव रूपको प्रकट करते हुए देवोंने हंसकर कहा कि यदि मरण न हो, तो यह सराहनीय रूप पर्याप्त है ।।१८॥
तब जरा और मरण शब्द सुनकर और महीतलको तृणके समान समझकर, देवकुमार नामके पुत्रको अश्व और मैगल सहित धरती देकर, नित्य तीन गुप्तियोंसे गुप्त शिवगुप्त महामुनिके चरणकमलोंकी शरणमें जाकर उसने अनेक जन्मके पापोंका प्रक्षालन किया तथा वीर पुरुषके चरितको स्वीकार कर लिया, बिजलीकी सरह चंचल तथा प्रचण्ड कामके बाणोंके आडम्बरके भयसे विह्वल चित्तको रोक लिया। चन्द्र फेन समूहबत् अति धवलवर्ण हिम पटलकी कान्तिके
१८.१. Pणेपि । २. A णयत्यि। ३. A वडा। . AP सौम । ५. Aण इंतउ ता; Pण ह तज तो। १९. ". AP°मरणघोसु । २. AP अप्पवि । ३. A "कबर । ४. A पंडुरपरहिम ।
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महाकवि पुष्पदन्त विरचित
'चलतडयडियपडियसोयामणिता हैणविहडियाबलं । वहियं पावसम्म वणतरुतलि विसरिसजलझलझलं ||५|| महिरविडकयविलबिलयलसिलायल टिहियाणं । सूरस्स हिम्मुद्देण सूरेण वरेण विमुकराइ ||६|| सो गंभारवि किरणकला वर्खर वियंभियं । दुद्दको मोहदढलोहमयं पियलं णिसुंभिर्य ||७|| सहसा विसयलसय रायर केवल निमललोयणो । देउ कुमार जइ सुहमइ जोयउ सो णिरंजणो ||८|| पत्ता - महलिङ "मुक्खाको ! भराइदिहं चरिउं अणिदहं पुष्यंतु जइ घोसइ ॥ १९ ॥
-५९ १९ १८ ]
इय महापुराणे विलद्विमहापुरिल गुणालंकारे महापुष्यंसविर महामन्यमरहाणुमणिए महाकब्बे धम्मपरमेहिणपुरिस सोहमहुकीकथमवत्र सणककुमारकइंतरं णाम एककुणस हिमो परिच्छे समतो ॥५९॥
३५७
इस प्रकार प्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त, महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा रचित एवं महामन्य मरत द्वारा अनुमत महाकाव्य में धर्मनाथ परमेष्ठी सुदर्शन पुरुषसिंह मधुश्री, मघवा और सनरकुमार ध्यान्तर नामका उनसठयाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ ५९ ॥
१०
समान देवाले वह घर और वस्त्रका मोह छोड़कर बाहर निवास करने लगे । पावस ऋतु में वह वनवृक्ष के नीचे, चंचल तड़-तड़ कर गिरती हुई बिजलीसे जिसका माल विघटित है, ऐसी असामान्य जलधाराको सहन करते हैं। जिसने महीधरोंके विकट कदकोंके समान विपुलसे बिलतर शिलातलपर अपना शरीर रखा है, ऐसे रागसे मुक्त उस श्रेष्ठ वीरने सूर्यके सम्मुख होकर, ग्रीष्मकालकी रविकिरण-समूहके प्रखर विस्तारको सहकर, दुर्दम क्रोध मोह और दृढ़ लोभमय शृंखलाको नष्ट कर दिया। जिससे सकल सचराचर देख लिया जाता है ऐसे केवलज्ञानरूपी नेत्रवाला शुभमति यह सनत्कुमार निरंजन देव हो गया ।
१५
धता - मूर्खता और कवि की धृष्टता से मलिन कविका पोषण क्यों किया जाता है कि regorea कवि अनिन्द्य भरत आदिका चरित घोषित करता है || १२ ||
५.
०
८. A खरं वियंभियं । ९. AP जाओ। १०. AP मुखसें ।
विणण-विडिया | ६. AP°वियल" | ७. A सूर शिहिपुण; P सूरराहिमुद्देण ।
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५
१०
दुपसरणिवारओ मोहमहारिउमाओ
पंचमचकहरो रईसो सोहम परमेट्टि पसण्णो तत्तसमुज्जलकं चणवण्णो केवलमामयमेो भूणभारविवचिकपण जोकराव लितो भन्तजगत्तिहरो भयवंतो फुजियकोमलपंकयवन्तो संतिय भुवणुत्तमसत्तो
संधि ६०
बत्ता - सी भवसायरतारओ किश्त पयास मि
जो दीणे किवारओ ॥ जो सासयसित्रमाओ ॥ध्रुव की
१
जेण णिओ समणं ण रईसो । सुत्तणिसे हिय पेसिपसण्णो । जायणि उत्तचविष्णो । समूह हो । गणचियखेरकण्णो । संतसहावी किंतो । जो गिरिधीरो णां भयवंत। कुतित्थ सुतिस्थपचन्तो । यो परिरक्खियसन्ती । विवि संतिभंडारओ ॥ वासु जि चरित्रं समासमि ||१||
सन्धि ६०
जो पाप के प्रसारका निवारण करनेवाले और दोनों में कृपारत हैं। जो मोहरूपी महाशत्रुका नाश करनेवाले और शाश्वत शिवलक्ष्मीमें रत हैं ।
१
जो पाँचवें चक्रवर्ती हैं, मनुष्योंके ईश जिन्होंने कामको अपने मनके पास नहीं फटकने दिया, जो प्रसन्न सोलहवें तीर्थंकर हैं। जिन्होंने अपने सूत्रों (सिद्धान्तों ) से मदिरा और मांसका निषेध किया है, जो तत्त्व से समुज्ज्वल और स्वर्ण वर्णवाले हैं, जिन्होंने चारों वर्णोंको न्यायमें नियुक्त किया है, जो केवलज्ञानरूपी महामेचजलवाले हैं, जिनके द्वारा भव्यजनोंकी मेधा (बुद्धि) का निरूपण किया गया है, जिनके कान भूषणोंके भारसे विवजित हैं, जिनके प्रांगण में विद्याधरकन्याएँ नृत्य करती हैं, जो पूर्ण चन्द्रकी किरणावली के समान सुन्दर हैं, जो भक्तजनों की पीड़ा दूर करनेवाले हैं, जो ज्ञानवान् हैं, जो पर्वतकी तरह धीर हैं, जो भययुक्त नहीं हैं; जिनका मूख खिले हुए कोमल कमलके समान है, जो कुतीर्थों को ध्वस्त करनेवाले और सुतीर्थों का प्रवर्तन करनेवाले हैं, जो शान्ति करनेवाले और भुवनमें सर्वश्रेष्ठ है, जो दयामें वृद्ध और प्राणियोंकी रक्षा करनेवाले हैं।
घत्ता - - ऐसे भवसमुद्रसे तारनेवाले शान्ति भट्टारकको प्रणाम कर, अपने सुकवित्वका प्रकाशन करता हूँ और उनके चरितका संक्षेपमें कथन करता हूँ ||१||
१. १. A छ ।
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-१०.३.३]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
३५९
जंबूदीवि भरहि विजयाचलु अहिणवचंदणचंपयपरिमलु । जहि सुरणारिहिं गेयपवीणहिं सकै सुम्मद वजंतहि वीणहि । जहिं रिसिबसइ अछिसु अहंस जसु मेहल सेविमान से । जहिं जं भूसिज्जइ सरकंक णिम्मलु तं वण्णिाइ के के। जहि केवलि णिचाणपयं गड जहिं मणियरहि ण विट्ठ पयंगत । फलिहसिलायलि जहिं मार्यहिं मैंई दिजइ जोइयणिययंगहि । दाहिणसे ढिहि तहि रहणेर पुरु णारियणरणियपयणेकरु । सेत्थु जलणजडि णिवसइ खगवा विणेओणयसिरु णारइ खगवाह । णियजसेण कतहु चंदाहहु तिलयणयरणाहहु चंदाहहु । तासु सुहददेवि पियराणी of आसीस पुवपियराणी। घता-ताई बिहि मि सुय हूई णं रहणाहहु दुई।
वाग्वेय सा एयदु दिणी विणयरसेयहु ।।२।।
सिहिजेडिणामह जयसिरिधामहु अक्ककित्ति सुट जायउ केहल अवर वि चंदसरीरइ णं पह
रूउहामहु णिज्जियकामहु। खतधम्मु णरवैसें जेहड। चप्पणी सुय णाम सर्यपह ।।
जम्बूद्वोपके भरतक्षेत्रमें अभिनव चन्दन और चम्पक परिमलसे युक्त विजया नामका पर्वत है जहाँ गीतमें प्रवीण सुरनारियों और बजती हुई वीणाका स्वर सुना जाता है। जहाँ ऋषियोंकी बस्ती है और जो पापांशसे अछूता है, जिसकी मेखला हंसके द्वारा सेवित है। जहाँ जो जल जलघकसे भूषित हैं. निर्मल उस जलका मैं क्या वर्णन करूं? जहां केवलियोंने निर्वाण प्राप्त किया। जहाँ मणिकिरणों के कारण सूर्य दिखाई नहीं देता। जिन्होंने अपने शरीरका प्रतिबिम्ब देखा है,ऐसे हाथो जहाँ स्फटिक शिलाओंपर अपना मुंह देखते हैं। उस पर्वतकी दक्षिण श्रेणोमें रथनूपुर नगर है, जिसमें नारीजनोंके नूपुरोंको रुनझुन सुनाई देती है। उसमें ज्वलनजदी नामका विद्याधर निवास करता था। अपने यशसे कान्त चन्द्र के समान आभावाले तिलकनगरके राजा चन्द्रामको सुभद्रादेवी नामकी प्रिय रानी थी, जो मानो पूर्वजोंका आशीर्वाद थी।
पत्ता-उन दोनों के एक पुत्री हुई जो मानो कामदेवकी दुती थी। वह वायुवेगा (कन्या) दिनकरके समान तेजवाले इसे ( ज्वलनजटो ) को दी गयी ||२||
विजयश्रीके घर कामको जोतनेवाले और रूपमें उत्कट ज्वलनजटीका अर्फकोति नामका ऐसा पुत्र हुआ, जो मनुष्यके रूपमें जैसे छानधर्म हो। और भी उसे चन्द्रमाके शरीरसे प्रभाके
२. १. A सुरु। २. 4 सरु कके। ३. A मणिणियरहि। ४. AP महुँ । ५. A णारीयणं । ६. A
विणउण्णय । २. १. A सिहजर्षि । २. A वोदामह ।
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३६०
महापुराण
[६०.३.४देसि सुरम्मा पंकयणेत्तहु पोयणणयरि पयावइपुत्तहु । विजयाणुयह महाहवपवलहु कोडिसिलासंचालणधवलहु । मुसुमूरियकंठीरवकंठहु
दिण्णी पढमहु हरिहि तिषिदुह । जणि ताइ सिसु सिरिविजयंकर विजयभद्दु कतीइ ससंक। उत्तरसेदिहि वसियंतेसरि पुरि सुरिंदकंतारि सुगोधरि । धत्ता-परिहायलयसुदुम्मामि रयणदीषणासियवमि !
पंचषण्णधयसोहणि देवदेविमणमोहणि ॥३॥
खयर मेहवाणु पीणस्थाणि णाम मेहमालिणि तटु पणइणि । जुइमाला णामें सुय वल्लाह ढोइय रविकितिहि परदुमह । परिणिय पुत्तु तेण तहि जायज अमियतेच णामें विक्खायल। धीय सुतार सारवरलोयण सुंदरि मुणिहि वि कामुकोयण । ताएं पोढत्तणि कयपणयहु दिण्णी सिरिविजयह ससतणयहु । अमियतेच भल्लारंउ भावित जुइवह सुय कण्हे परिणाविउ । मुत्तसं तेण णिबद्ध णियाण पत्सउ काल अवै हियठाणउ | सिरि सिरिविजयहु देवि हियसे कामभोयपरिभारविरतं ।
विजएं सई लइयर आयपिणवि वित्तु कलत्तु वि तिणेसमु मणिवि । समान स्वयंप्रभा नाम: मन्या हुई। सुजा शाके भोजपुर नगरमें कमलके समान नेत्रोंवाले, प्रजापतिके पुत्र विजयके छोटे भाई महायुद्धोंमें प्रबल, कोटिशिला संचालनमें श्रेष्ठ सिंहोंको गरदनोंको मरोड़नेवाले प्रथम नारायण त्रिपृष्ठको वह कन्या दो गयी । उससे श्रीविषयांक पुत्र उत्पन्न हुआ। और कान्तिमें चन्द्रमाके समान दूसरा विजयभद्र । विजयाई पर्वतकी उत्तर श्रेणीमें जिसमें अन्तःपुर हैं, ऐसा सुन्दर गोपुरवाला सुरेन्द्रकान्तार नगर है।
पत्ता-जो परिखा वलयसे अत्यन्त दुर्गम है, जिसमें रत्तद्वीपोंसे अन्धकार नष्ट हो गया है, जो पंचरंगे ध्वजोंसे शोभित है तथा देव और देवियों का मन मुग्ध कर लेता है ||३||
mmarAAA
उसमें मेघवाहन नामका विद्याधर राजा था। उसको प्रिय गृहिणी पीन स्तनोंवाली मेघमालिनी थी । उसको ज्योतिर्माला नामकी प्रिय पुत्री थी, शत्रुओंके लिए दुर्लभ जो अर्ककीर्तिके लिए दी गई। उसने उससे विवाह कर लिया। वहाँ अमिततेज नामका पुत्र हुआ। स्वच्छ और श्रेष्ठ आँखोंवाली सुतार नामक कन्या हुई। वह सुन्दरी मुनियोंको भी कामकुतूहल उत्पन्न करनेवाली थी। प्रौढ़ होनेपर पिताने प्रणय करनेवाले अपनी बहन के लड़के श्रोविजयको उसे दे दिया। अमिततेज बहुत भला था । नारायणने ज्योतिप्रभा उसे ब्याह दी। इस प्रकार उसने अपने बांधे हुए निदानका भोग किया, और समय आनेपर नरकभूमिमें पहुंचा। कामभोगके परिभारसे विरक्त हृदय विजयने लक्ष्मो श्रीविजयको देकर तप ले लिया है, यह सुनकर धन और
३. A देससुरम्मइ । ४. १. AP तेग पुत्तु । २. AP णिबद्ध । ३. A अबहियट्ठाणउ; P अवहिट्टाणिउ । ४. P वर । ५. AP
विगस।
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३६१
-६०.४.१०]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित अभियतेउ णियरजि थवेप्पिणु भत्तिइ तउ तिब्वयरु तवेप्पिणु । अचकित्ति जइवह गउ मोक्खह मुक्का भवसंसरणहु दुक्खहु। विजयभद्दु सिरिविजयह मच्छो जिवित अमियतेट णिरु णेइलु । पाहुबगमणागमणपवाई
जाइ कालु बंधुहं उच्छाहें।। घत्ता-जा तावेक्कु सुसोतिर तहिं आयउ णिम्मित्तिये ॥
सत्तमि दिणि जे होसह तं सिरिविजय घोसाइ ।।४।।
अरिपुरवरणिवसावयवाहहु । तडि णिव उसइ पोयणणाहहु । तडयउंति सिरि द्रत्ति भयंकर सहसा दहविहपाणखयंकरि । विजयभद्दु पभणइ रे बभण णिय सज्जणहिययणिसुंभण । जइ राय सिरि विज्जु पडेसइ तो तुहुँ सिरि भणु किं णिवडेसइ । सं आयण्णिवि तणुविच्छायहु दियवरु आहासइ जुबराया। पत्थिव महु मत्थइ मलमुबई णिवडिहिंति णाणामाणिकई । मरणषयणवाएं विहाण
तहि अवसरि सई पुफछह राणउ ! को तुहूं कासु पासि कहि सिक्खिउ केमे भविस्सु बप्प पई लक्खिउ । अक्खइ सुत्तकंछ पुह ईसहु
इ.उं पटवश्यउ समहलीसहु। गउ विहरंतु देसि पुरु कुंडलु ६ महिणारिहि परिहिट कुंडलु । कलत्रको तुणके समान समझकर, अमिततेजको अपने राज्य में स्थापित कर, भकिसे तीव्रतम तप सपकर यतिपति अर्ककीर्ति मोक्ष गया और इस प्रकार संसारके दुःखसे दूर हो गया । जिस प्रकार श्रीविजयका प्रिय विजयभद्र, उसी प्रकार और स्नेही अमिततेज, उपहारोंके आने-जानेके प्रवाह और उत्साहसे दोनों बन्धुओंका जब समय बीतने लगा
पत्ता--तब एक ज्योतिषी ब्राह्मण वहाँ आया, और सात दिन बाद जो होनेवाला था, वह उसने श्रीविजयको बताया ||४||
"शत्रुनगरके राजारूपी श्वापदके लिए व्याषा पोदनपुरनरेशके सिरपर तड़तड़ करती हुई शीघ्र और अचानक दसों प्राणोंका अन्त करनेवाली भयंकर बिजली गिरेगी।" इसपर विजयभद्र कहता है-“हे निर्दय, सज्जनोंके हुदयको चूर-चूर करनेवाले ब्राह्मण, यदि राजाके सिरपर पांच गिरेगा, तो तू बता तेरे सिरपर क्या गिरेगा?" यह सुनकर द्विजवर शरीरसे कान्तिहीन युवराजसे कहता है-'हे राजन, मेरे सिरपर मलसे रहित नाना मणि गिरेंगे।' उस अवमरपर मरण शब्दको हवासे शुक राजा स्वयं पूछता है-"तुम कौन हो, किसके पास तुमने कहा यह सीखा है? हे सुभट, तुमने किस प्रकार भविष्य देख लिया ?" ब्राह्मण राजासे कहता है कि "बलभद्रके साय में प्रवजित हुआ था। देशमें विहार करते हुए मैं कुण्डलपुर पहुंचा, जो ऐसा लगता था
६.AP मित्तिः । ५. १. A सिरि दुत्ति; P सिरि दत्ति। २. प्राण । ३. APायह। ४. AP किर। ५. P केम
इह भविस्सु ।
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३६२
५.
१०
महापुराण
दूसह विसेय परीसहभग्गड धत्ता- - अंतरिक्खसुणिमित्त भउमुवि खेपमाणउं
सरु गंभीर इयरु चलक्खि लक्खणाई कमलाई पसत्थई क्खामि जंजिह सिविणंतरु तं सिक्खिवि अट्ठपया र डं he frog पुरोहित सुरगुरु दिवि आयउ पोमिणिखेडहु सोमसम्म णिजणणीभायरु मेलावि हवं ते ससुरयदिष्णु दव्बु भुंजंत हर्ज पर केवल पढमि णिमित्त मामसमपि कंचणु गिट्टिउ महुं कडिल लग्ग कोबीण
दुहियहि
[ ६०.१.११
काई मि जीवियवित्तिहि लग्गष्ठ । सिक्खिल गणक्खत्तई ॥
अंग अंगणिवाणडं ||५||
६
जणु पुणु तिलया सिक्खिव । जामि भूय छिपणे वत्थई । पावर जेण सुहासु परवरु | इय पहउ निमित्त सवियारवं । तासु विसीसु विसार महुं गुरु । फलिहालंकि कुलिसकवाडछु । मई दिव तहिं कयपरमायरु । लोमोज नियहि सहर मुहियहि । दोहं मि गलिउ कालु कीलंत । किंपि बि शिवण समज्जमि वित्तरं । वरि दारिद्दु परिट्ठित । तो वि भामिकासु वि दी।
ण
मानो महीरूपो नारीने कुण्डल पहन लिया हो । असह्य विषय परिषद्ले भग्न होकर में किसी प्रकार fontवृत्ति लग गया ।
पत्ता- मैंने अन्तरिक्ष-निमित्त विद्या सोखी और ग्रह-नक्षत्रोंकी विद्या सीखी। क्षेत्र प्रमाण सहित भूमिश्रिद्य अंगको रचनासे सम्बन्धित अंग-निमित्त सोखा ॥५॥
६
और दूसरा गम्भीर स्वर निमित्त सीखा, तिल आदिके द्वारा व्यंजन निमित्त सीखा। कमलादि प्रशस्त लक्षण निमित्त सीखा। चूहों मादिके द्वारा काटे गये वस्त्रोंसे सम्बन्धित छिन्न निमित्त मैं जानता हूँ। स्वप्नान्तरमें जो जैसा है उसका व्याख्यान करता हूँ कि जिससे नरवरको शुभाशुभ फल प्राप्त होते हैं। इस प्रकार इन विचारपूर्ण आठ प्रकारके निमित्तोंको सीखकर, सिंहरथ के पुरोहित बृहस्पति, उनका शिष्य विशारद मेरा गुरु है। उनकी वन्दना कर, स्फटिकमणियोंसे अलंकृत वज्र किवाड़ वाले पपिनीखेट नगरसे आया हूँ । सोमशर्मा मेरी माँका भाई है, अत्यन्त आदर करनेवाले उससे में मिला। उसने अपनी कन्या हिरण्यलोमासे मेरा मिलाप करवा दिया (विवाह कर दिया ) । ससुरका दिया हुआ बन खाते हुए और कीड़ा करते हुए हम दोनों का समय बीत गया। मैं केवल निमित्तशास्त्रका अध्ययन करता रहता, मैं बिलकुल भी धनका अर्जन नहीं करता । ससुर के द्वारा दिया गया धन नष्ट हो गया और घरमें भयंकर दारिद्रय प्रवेश कर लिया। मेरो कमरमें केवल लँगोटो बची। तब भो में किसीसे दोन वचन नहीं कहता था |
६. APबिसहपरोस ।
६. १. A fas; P छित्तई । २. P हियहि । ३. A लोमंजशियहि । ४. AP ससपर । ५. A
सुमुर ।
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३६३
-६०. ७. १२ ]
महाकषि पुष्पदन्त विरचित पत्ता-परिणिइ पसरियदुक्खा महुँ उज्झतहु मुस्खइ ।
भुंजहि भणिवि विसाला पित्त पराडय थालइ ॥६॥
तुह महुं वइवें दिण्ण बंभणु पत्तिउं तेरर अच्छा कुलहणु। उजंउ करहि ण भरहि कुटुंबलं । लोयणजुयलु करिवि आयंच। एम जाम धरणीइ पबोलि उ । ता महुं हियवर णं झसंसलिउ । अइणियडर्स जि अलणु पजालिन । इंध इंधणु केण वि चालिउ । तक्खणि सिहिफुलिंगु नच्छलियउ आविवि जर्लयरि गरयइ घिवियउं। ५ इ थिउ तं जोयतु सइत्तउ ता कंतइ सिरि सलिलिं सित्तम । उत्तरु महुँ ण लिलपतिहि मैई सर विह सिवि भासि पत्तिहि । जं इंगालड पहिउ घरीलइ तं तडि पंडिही पोयणपालइ । जं पई पाणिएण अहिसिंघिउ तं जाणहि हर रयणहि अंचित । सा" जंपइ पइ बुद्धिहि भुल्लर चप्फलु' झंखइ चंदगहिल्लउ । पत्ता-उज्झणिझुणपिङ महरू वि कपणह विपि ॥
परु जणवाल कि वुचई कुलघरणिहि वि ण ससाइ ॥७॥ पत्ता-जिसका दुःख बढ़ रहा है ऐसी गृहिणीने भूखसे जलते हुए मुझपर, 'खा लो' कहकर बड़ी-सी थालीमें कोड़ियां डाल दी" ||६||
देवने सुम जैसा ब्राह्मण मुझे दिया। तुम्हारा कुल धन इतना ही है, उयम कर अपने कुटुम्बका पालन नहीं करते हो-अपनी दोनों आंखें लाल-लाल करते हुए जब इस प्रकार स्त्रीने कहा तो मेरा हृदय प्रज्वलित हो उठा। मेरे अत्यन्त निकट जलती हुई आग थी। किसीने चूल्हेमें आग पला दी। तत्क्षण आगको चिनगारो उचटी और आकर विशाल कौडीपर गिर पड़ी। मैं सावधान होकर उसे देखता हुआ स्थित था। सब पत्नीने सिरपर उसे सींच दिया। (बोली) "बोलते हुए मुझे तुम उत्तर नहीं दोगे।" सब मैंने थोड़ा हैसते हुए पत्नीसे कहा-"कोडोपर जो अंगारा पड़ा है वह पोदनपुरके राजापर बिजली गिरेगी और जो तुमने पानीसे उसे सींचा है, उससे तुम यह जानो कि मैं रत्नोंसे अंचित होऊंगा?' वह बोलो---"पति बुद्धिसे भोला है, चन्द्रमासे अभिभूत ( पागल ) वह मिथ्याभाषासे सन्तप्त होता है।
घत्ता-निर्धन व्यक्तिके द्वारा कहे हएको आग लग जाये, मधुर होते हुए भी { कथन ) कानोंके लिए बुरा लगता है, दूसरे लोग क्या कहेंगे, खुद कुलीन गृहिणीको गरीब ( पति ) की बात अच्छी नहीं लगती" ||७H
७. १. AP उज्जम् । २.PRससिल्लि । ३. AP पजालिन । ४. AP क्या पालयरि । ५. A &
जोयतु । ६. A omics this foot, | ७. P वराडा। ८. P तडि परिहीसी। ९. AP जाणमि | १०. A सह जंपह; P स वि जंपर। ११. बिप्पलु । १२. AP रुप ।
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३६४
महापुराण
[६०.८.१
इय चिंतंतु घरहु णीसरियउ णाम अमोहजीह ओहेच्छमि जइ चुकइ नृवं केवलिदिट्टर सउणु मडारा सञ्च सुचा तं तहु भणित चित्ति समाइउ भगइ सुबुद्धि कुलिसमंजूसहि वसहि गराहिव मन्झि समुदहु चवह सुमाइ पइसहि परदुश्चरि मइसायरु भासइ ण तसिजा जे लिहियउं तं अग्गइ थक्कर घसा-सुरमरि हथिरथि
धरियणराहिवमुई
हउं तुम्हार पुरि अवयरियड । पट्टणणाहहु पलउ जियच्छमि । तो जाणहि चुकद मई सिट्टई। करु पडियार जेम तुई रुबाइ । राएं मंतिहि ययगु पलोइउ । आयससंस्खलवलयविह्नसहि । जेणुव्वरसि सदेह विमबहु । रुप्पयगिरिवरगुह षिवरंतरि। परवाइ जिणवरिंदु सुमरिजा। जमकरणहु मरणहु को चुकाह । कारवाया ।। भासिउं बुद्धिसमुहें ।।८।।
१.
विवरि णिहित्तेउ वित्त पहाणउ गेहि जयंतीपंतिहिं चेविड अच्छइ तीहि वि संझहिं पहायउ
सुणि महिवइ दिद्रुतकहाणउ । सीहउरइ सिरिरामासे विइ । खलु इपिठ्ठ सोमु परिवाइउ।
यह विचार करते हुए घरसे निकल पड़ा और मैं तुम्हारी नगरीमें आया। मेरा नाम अमोघबिह्व है। मैं यहाँ रहता हूँ और नगरके राजाका नाश (प्रल 2 ) देखता हूँ। हे राजन्, यदि केवलज्ञानीका कहा चूक सकता है, तो समझ लीजिए कि मेरा कहा भी चूक जायेगा। हे आदरणीय, स्वप्न सच्चा कहा जाता है, तुम्हें जैसा ठीक लगे वैसा प्रतिकार कर लीजिए । तब उसका कहा राजाके चित्तमें समा गया। उसने मन्त्रीका मुख देखा । सुबुद्धि मन्त्री कहता है-"हे राजन्, तुम लोहेको शृंखलाओंके समूहसे अलंकृत वज्रमंजूषामें स्थित होकर समुद्र के भीतर रहो जिससे तुम अपनी देहके विनाशसे बच सको।" सुमति नामका मन्त्री कहता है कि "दूसरों के लिए दुर्गम विजयाई पर्वतकी गुफाके विवरके भीतर प्रवेश करो।" मतिसागर मन्त्री कहता है-"हे राजन, आपको पीडित नहीं होना चाहिए और जिनवरका स्मरण करना चाहिए। जी लिखा हुबा है, वह आगे आयेगा । यमकरण और मरणसे कौन बचता है ?"
पत्ता-सुमेरु पर्वतके समान स्थिर चित्त, तथा जिसने प्रभुको रक्षाका प्रयरन किया है और जिसने राजा को मुद्राको धारण किया है ऐसे मतिसागर मन्त्रीने कहा
"हे राजन्, विवरमें निहित मुख्य वृत्तान्तको दृष्टान्त-कथानकके रूपमें सुनिए-वबपंक्तियोंसे प्रकम्पित तथा लक्ष्मीरूपी रमणीसे सेवित सिंहपुर में सोमशर्मा नामका अत्यन्त दुष्ट ८. १.AP जा अच्छमि । २. AP णिव । ३, AP करि । ४. AP जेणुव्यरहि । ९. १. A णिहित्तह। २. AP सोम्मु परिवायन ।
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-६०. १०.५]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित समयंतरपरियारणि जाए सो जिणदासे जित्तु विवाए। दुष्परिणाम मुउ कयमायउ तहिं जि महिसु सैविसाणड जायउ । णासास विधिवि साहिउ लोएं लोणु भरेपिणु वाहिन | काले जंतें जायउ दुष्पलु एम जीउ भुंजा दुधियफलु । गलियसत्ति सो णिवडियि थकड णायरणरणिउरुब मुकाज । को वि ण विणु ण पाणि दावह रूसिवि से रिह णियमणि भाव । जझ्यहं हा बलवंतस होता जश्यहुं वलइड भारु पहंत । तझ्यहुँ सयल देति महुँ भोयणु अज ण केण वि फिर अवलोयणु । कसमसत्ति देतेहि बलेवर्ड पुरयणु मई कश्यतुं वि गिलिम्बई । पत्ता-इय भरंतु माहिंदउ दुमाइलीदछ ।
मरिवि भरेग सतामसु हुन तहि पिउवणि रक्खसु ॥९॥
तेस्थु जि पुरि अण्णायविहूसिउ कुंभु णाम राणड मंसासिल । तेण सयलु काणणमिगु खड हरिणु ससउ सारंगु ण लद्धव । चिवह सूयारउ णिस मिक्किा विणु मासेण ण भुंजा ध्रुवु नवु । वणयरू णस्थि केत्थु पावमि पलु आहिंडवि मसाणधरणीयलु।
आणि घल्लियडिंभयजंगलु जीहालोलहं पेठ जि मंगलु। और घमण्डी परिव्राजक अपने घरमें तीन सन्ध्याओंमें स्नान करता हुआ रहता था। जिसमें पास्त्रान्तरोंपर विचार है, ऐसे विवाद में यह जिनदासके द्वारा जीत लिया गया। वह मायावी दुष्परिणामसे मर गया और यहीं सींगोंवाला भंसा हुआ। उसकी नाक छेदकर साध लिया (वशमें कर लिया ) गया और नमक लादकर उसे चलाया। समय बोतनेपर वह दुर्बल हो गया। जीव इसी प्रकार दुष्कृतका फल भोगता है। शक्ति क्षीण हो जानेपर वह गिरकर थक गया । नागरपन समूहने उसे मुक्त कर दिया। कोई भी उसे न जल देता और न घास । वह भैंसा अपने मनमें ऋद्ध होकर विचार करता है कि जब मैं बलवान था और गोनीका भार ढोता था, तबतक सब लोग मुझे भोजन देते थे। परन्तु आज किसीने मेरो ओर देखा तक नहीं। मैं कसमसाकर दांतोंसे नष्ट कर दूंगा, मैं कब ईन पुरजनोंको निगल सकूँगा।
पत्ता-दुर्गतिरूपो बेलका अंकुर वह तामसी मेंसा यह स्मरण करता हुमा बोझसे मरफर वहीं मरषटमें राक्षस हुआ ॥२॥
उसी नगरोमें अज्ञानसे विभूषित कुम्भ नामका मांसमक्षक राजा था। उसने बंगसके सारे पशु खा लिये । जब हरिण, खरगोश और पक्षी नहीं मिले तो निर्दय रसोइया सोचता है कि बिना मांसके राजा निश्चयसे भोजन नहीं करेगा। वनपशु नहीं हैं, मांस कैसे पा सकता है। मरषटकी धरतीपर घूमकर वह पड़े हुए बच्चे के मांसको ले आया। जो लोग षोभके लालची है
३. A यमाप3 K also records: हयमाणत इति पाठान्तरे । ४. AP बायउ सुविसागर ।
५. AP णासाघसें । .. P विधधि । ७. A गु । ८. P RE | ९. A समसंतोहि । १०.१. मृगु । २. Kध्रुट णिच ।
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१०
१५
५
महापुराण
वासीहरु पल्लव णिग्गट बड सि णरलोहिउ घोट्ट चरचैरंत तणु धम्म फाड रायणिमाखचरणजुयला चरुयसय मणुएं संजुतउ जयतुं तं आ ण णिरिक्खहि कुंभकारकडु पुरब घुटु
पवि महाणस सत्यणिओएं सूसिव व मुहकमलु णिरिक्खि उ माणुसमासहु रा पइद्धउ साहियरक्खस विज्जाणियरच तहि अवसर पुलिड णिसियरु कुलिसकद्विणण बियारह वाहिवि वाहिनि पुणु अबहेरिड अप्पयथियाई तमवंतई घचा-- - पंडुर मंदिरपड सलु लोड थड पसिषि
[ ६०. १०.६
ढो पहुहि रसायणपराएं 'चारु चार पभणते भक्ति । अवरहिं दिणि सूरु जि खद्धउ | रवरिंदु हूयउ स्यणिवरव । तहु सरीरि संठित भीसणयरु । णासंदई जंतई पश्चारइ ।
भुक्ख मारिउ ।
एमहिं कहिं महुँ जाहु जियंतई । ता पट्टणि कारय ॥ तहु रयणियरहु णासिषि ||१०||
११
विरक्खजणपच्छइ लग्गड | डेड त्ति हडई दलबट्टश् । गाई त्रिर्द्धणाई अफलोडइ । तो वृन पयाड भयभगाइ । दिहि दियहि लह तुम्छु जिउसव । तयहुं हुं पुणु सव्व भक्खहि । णिवमेव दिज इट्टएं ।
उनके लिए प्रेत-मांस भी मंगल होता है । पाकशास्त्र के विधान के अनुसार पकाकर रसोइयेने उसे दिया । राजाने सन्तुष्ट होकर उसका मुखकमल देखा, और 'बहुत सुन्दर, बहुत सुन्दर' कहकर उसको खा लिया। उसका प्रेम मांसभक्षण में बढ़ गया और दूसरे दिन उसने रसोइयेको खा लिया । जिसने राक्षस-विद्या-समूह सिद्ध कर लिया है ऐसा वह नरवर राक्षस हो गया। उस अवसर पर पहलेका निशाचर ( भैसेका जीव ) उसके शरीर में प्रविष्ट हो गया। वह अपने कुलिशके समान कठोर नखोंसे विदीर्ण करता और भागते हुए लोगोंको उलाहना देता। बुला-बुलाकर उनका तिरस्कार करता । भला मैं बहुत समय से भूख से पीड़ित हूँ, स्वार्थी और अज्ञान से भरे हुए तुम लोग मुझसे ( बचकर ) जीते जी कहाँ जाते हो?"
पत्ता - जो सफेद घरों से प्रगट है, ऐसे उस फारकट नगर में उस राक्षस राजासे भागकर प्रवेश कर रहने लगे || १० ॥
११
तब वह नृपराक्षस सिंहपुर से निकला और लोगों के पीछे लग गया । घड़-घड़ कर लोगोंका खून पोता और कड़कड़ करके हड्डियोंको चूर-चूर कर देता । शरीरके चमड़ेको चर चर करके फाड़ देता और उसके जोड़ों को तोड़ डालता। राजाके दोनों पैरोंपर गिरते हुए भयभीत प्रजाने कहा - "शुभ प्रतिदिन मनुष्य सहित एक गाड़ी भात निश्चित रूपसे लो, और जब तुम उसे आया हुआ न देखो, तब तुम सब लोगों को खा डालना।" इस प्रकार वह नगर कुम्भकारकट घोषित
३. AP रूसिवि । ४. AP स्यादवि ।
११.१ AP षडति । २. AP कयसि । ३ AP बरयरति । ४. AP णिबंधणारं । ५. AP आयतं ।
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-६०.१२.१]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित तहि जि चंद्धकोसिष्ठ दियसार सोमसिरीमणणयणपियारउ । पउरणिबद्धउ णिक दुवारउ अण्णहिं विणि तटु आयहु वारउ । विप्पेण वि अपवरि णिवेसिउ पुत्तु मंडकोसिउ लहु पेसिउ । भूयहि चालित पासि णिसीहहु ललललंतमुइणिग्गयजीहहु । पत्ता-दंडपाणि अवराइउ रक्खसु संमुहुं धाइउ ।।
ढं रेहिं महिरंधर बर्दुवउ वित्तु तमंधइ ॥११॥
तहिं अफिछउ अजयरु तें गिलियउ पुणु सो वलिवि ण जणणिहि मिलियः । तेण देष तुहु विवरिण घिहि एत्थु जि जीवोवाउ वियप्पाहि । पभणइ मइसायर महि दिजइ __ पोयणणाहु अबरु इह किन्न । ता अहिसिंचिवि मेइणिसासणि कंचणजस्खु णिहित सिंहासणि । सो किंकरजगंज पविजः संपन्यारेहिं विजिजइ । जीय देव आएसु भणिज्जा तासु पुरउ णचिन्नइ गिजइ । गयणविलेषमाणधयमाल गरवइ गपि पट्ट जिणालउ । शायइ अधुवु असरणु तिवणु जिणपडिमिंत्रणिहियणिञ्चलमणु । ता सत्तमउ दिया संपत्त
जो जणेण पोयणकइ उत्तः । हुआ। जो कहा गया था, वह प्रतिदिन दिया जाने लगा। वहाँ चण्डकौशिक नामका ब्राह्मण श्रेष्ठ था जो अपनी पत्नी सोमश्रीके मन और नेत्रोंके लिए प्रिय था । एक दिन नगरप्रवरके द्वारा निबद्ध ( निश्चित को गयी ) दुनिवार उसकी बारी आ गयो। ब्राह्मणने गाड़ी के ऊपर अपने पुत्र मण्डकोशिकको बैठाया और शोघ्र उसे भेजा। जिसके मुखसे लपलपातो हुई जीभ निकल रही है ऐसे राजाके पास भूत उसे ले गये।।
पत्ता-तब दण्डपाणि अपराजित नामका राक्षस सामने दौड़ा। दूसरे राक्षसोंने उस बटुकको एक अन्धे महीरन्ध्रमें फेंक दिया ॥११॥
१२ यहाँ एक अजगर था । उसने उसे खा लिया। वह ब्राह्मण दुबारा आकर अपनी मासे नहीं मिला। इसलिए है देव, तुम अपनेको विवरमें मत डालो, यहींपर जीनेके उपायको सोचिए। मतिसागर मन्त्री कहता है-धरती दे दी जाये और पोदनपुरका दूसरा राजा बना दिया जाये। तब स्वर्णयक्षको परतीके शासकके रूपमें अभिषेक कर सिंहासनपर स्थापित कर दिया गया। उसको किंकरजनोंके द्वारा प्रणाम किया जाता है, चंचल चमरोंके द्वारा उसे हवा की जाती है, "हे देव, आदेश दीजिए" यह कहा जाता है। उसके सम्मुख गाया और नाचा जाता है। जिसको ध्वजमाला आकाशसे लगी हुई है ऐसे जिनमन्दिरमें जाकर वह राजा बैठ गया। वह अनित्य और अशरण त्रिभुवनका ध्यान करता है। उसका मन जिनप्रतिमा लीन और निश्चित था। इतने में
६. P चंडकासिच । ७. AT अणु उपरि । ८. P इंदुरेहिं । ९. AP बडुबउ । १२.१. A पहि; P घेपिहि। २. AP अवर वर। ३. AP सीहासणि। ४. P वज्जिजनइ । ५. AP
अधुज।
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३६८
महापुराण
[ ६०. १२. १०१० असणि पडिय तहु जक्खड्डु उप्परि मित्तियह दिपणा रहे हरि करि ।
पत्रमिणिखेड गामसयसहियउं गंदणवणमारुयमहिमहियउं । घत्ता-अण्णु वि रयणिहि संचि मोत्तियदामहिं अंचिउ ।।
किन भणु परिपुषण पुणु पहु रजि णिसण्णउ ।।१२।।
चंदकुंदणिहदहियहि खीरहिं गंगासिंधुमहासरिणीरहि । अट्ठाषयकलसहिं जिणु पहाण करिवि विइण्णई दीणहं दाणाई । अप्पाणा कुलकुवलयचंद विहिय संवि सिरिविजयणरिद । कालें तें तहिं णिवसंत पोयणपुरवरु परिपालतें। जणणिपसाएं मंतु लहेप्पिणु पंचपरमपरमेट्टि णवेप्पिणु । सुजतेय विज्जाइरसामिणि साहिय विजणहंगणगामिणि । जोवणभावज्ञणियसिंगारइ एकहिँ वासरि सम सुतारइ । गल गहेण वणि दुमवलणीलाइ थिउ कामिणिकिलिकिंचियकीलइ ।
तावेत्तहि विहरणअणुराइउ भांमैरिविज लहेवि पराइड । १. पत्ता-हित्तमहारिछाइंदासणि खाराएं ॥
__ आसुरियहि उप्पपणउ लपिछहि गुणसंपुषण उ ॥१३॥ सातवां दिन आ गया। और ज्योतिषजनने जैसा कुछ पोदनपुरमें कहा था, वह वज्र उस स्वर्णयक्षके ऊपर गिर पड़ा। राजा कुम्भने उस नैमित्तिकको रथ, घोड़े और हाथी दिये। एक सौ ग्रामोंके साथ उसे परिपनीखेड नगर दिया, जो नन्दनवनको हवासे महक रहा था।
पत्ता-और भो उसे रत्नोंसे संचित और मोतियोंकी मालासे अंचित किया । उस ब्राह्मण. को परिपूर्ण बना दिया और वह स्वयं पुनः राज्यमें स्थित हुआ ||१२||
ranwww.annamonwrware
चन्द्रमा और कुन्दपुष्पोंके समान दही और दूधोंसे, गंगा-सिन्धु महानदियोंके जलोंके एक सो आठ कलशोंसे जिनका अभिषेक कर उसने दोनजनोंको दान दिया। कुलरूपी कुवलयके चन्द्र श्रीविजय नरेन्द्रने अपने कुलको शान्ति की। वहीं निवास करते हुए समय बीतनेपर और पोवनपुरका पालन करते हुए, मांके प्रसादसे मन्त्र पाकर, पांच परमेष्ठीको प्रणाम कर, अत्यन्त दीप्त विद्याषरोंको स्वामिनी आकाशगामिनी विद्या सिद्ध की। एक दिन पोवनके भावसे उत्पन्न श्रृंगारवाली सुताराके साथ आकाशमासे गया और बनमें वृक्षपत्रोंके घरमें कामिनी सुताराके साथ हैसने-रोने की कामकोड़ा करने लगा। इतने में विहार करने का अनुरागो, भ्रामरो विद्या प्राप्त करने के लिए ( अशनिघोष ) यहां आ पहुंचा।
___घसा-जिसने शत्रुओंके माहात्म्यका अपहरण किया है, ऐसे इन्द्राशनि नामक विद्याधर राजाके द्वारा आसुरी नामकी विद्यापरीसे उत्पन्न तथा लक्ष्मीके गुणोंसे परिपूर्ण-||१३||
६. AP रह करि हरि । ७. AP महियउं । ८. AP रमणहि । १३. १. APमहाणदणी हि । २. A जिगहवणाई । ३. AP भावरि ।
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-६०. १४. १५ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
३६९
घमरचंचपुरवा रहराइच असणियोसु णामेण पराइउ । तेणासुररिउसुयसीमंतिणि दिट्ट सुतार हारभूसियथणि । मोहिल णावइ मोहणवैशिद परि विद्धन मयरद्धयमल्लिइ। मायाहरिणु तेण देवखालिब पइ सासामीबहु संचालिउ । रूवु धरिवि वरइसा केरस अन्झाहिय आणंदजणेर। अप्पणु म ति जारु तहि पत्तल अमुणं तिइ धरिणीइ पवुत्ते। देवमिंगाई धरंतु ण लजहि अब बिबालत्तणु परिवनाहि । कोलणु तुझु तासु भयभंगई कंपइ मरणविसंतुलु अंगई। तं णिमुणिवि पररमणे भासिर सुंदरि चारु चार एवएसि। हई परियड एण जि करुणें आउ जाहुं पुरवरु किं हरिणे । एम भणेवि चढाविय सुरहरि रेहा चंवरे जलहरि। णहि जसे दावि ससरीरखं मुद्धा तं जोइवि विवरेरठ। যুক্ত ঘাহ হ সাঃ সলিং करजुयलेण सीसु पइणंतिछ । पत्ता-पुणु परपुरिसु ण जोइन एण णाहु विकछोइउ ।।
सुधष्डि विहि विहडावइ एवहिं को मेलाबाइ ॥१४॥
अशनिघोष नामका रतिशोभित चमरचंचपुरका राजा आया। उसने हारसे भूषित स्तनबाली विद्याधरकी स्त्री सुताराको देखा। मोहिनोलताके समान उससे पह मोहित हो गया। हृदयमें वह कामदेवके मालेकी नोकसे वित हो गया। उसने मायावी हरिण दिखाया और पतिको सतोके पाससे हटा दिया तथा सुताराको आनन्द उत्पन्न करनेवाले वरका रूप बनाकर वह पार स्वयं वहां पहुंचा। नहीं जानती हुई पत्नी सुतारा बोली, "भूगोंको पकड़ते हुए आपको शर्म नहीं आती, तुम आज भी बचपनको छोड़ दो। तुम्हारा खेल होता है, उसका भयसे नाश होता है, मरणसे अस्तव्यस्त उसका शरीर कांपता है।" यह सुनकर परम रमण उसने कहा"हे सुन्दरी, सुमने सुन्दर उपदेश दिशा, इस करुणासे मैं सन्तुष्ट हुआ, माओ नगरवरको चलें, हरिणसे क्या?" यह कहकर उसने उसे सुरविमान में चढ़ा लिया। वह ऐसी शोभित हो रही थी मानो मेघमें चन्द्ररेखा हो। आकाशमें जाते हुए उसने अपना शरीर दिखाया। वह विपरीत रूप देखकर मुग्धाने दोनों हापोंसे सिर पीटकर हे स्वामी कहते हुए दहाड़ मारी।
घत्ता-उसने परपुरुषको नहीं देखा। इसने मेरे स्वामीका विछोह किया है। विधि सुघटितको अलग कर रहा है। इस समय कोन मिलाप कराता है ॥१४]
१४. १. A शिक्षालिस। २. AP परिणीह पर वृत्तः। ३. K भुगाई। ४. AP चंदलेह । ५. AP
पुरुसु ।
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३७०
५.
१०
एम रुयंति तेण सा णिजइ
एहि पणु व वेrपयट्टल
महापुराण
१५
मत्तमयूर
पररमणीहरणेण णिवेसिय लोलइ विन्ज सुतारारूव उस भत्ता किं जायढं
अक्ख मायाविण हउं पट्टी विसरिसवि सरस वियणगुरुकी दणदणु पुंजिवि घसा - पियविओथयंपिय संपतु जिवसंगठ
ता संपत्त विणि विज्जाहर तेहिं तिषिपुत्त भोलषिखड एक बुझियमायाम
पिययमरिति विलु सिब्जइ । गमि पुणा पल्लए ।
पडिआय सुंदरिय मंदड | रसिला तेज वरिसिय जाणिव गद्दिय कंस जमदूएं । दीस बर्णकमलु विच्छायसं । - कुकुडफणिणा करयलि दट्ठी । इय भणति पाणेहिं बिकी। सूरत मणिजलणु परंजिवि । परिसेसियइहपर द्दि ||
रवइ सर्लाहि वलग्गज ॥११५॥३
१६
[ ६०.१५.१
सयणविहुरहूर असिवरफरकर । जिणि वणि मरंतु णोवैविखेड | ताडिय झति वामपायों !
१५
इस प्रकार विलाप करती हुई वह उसके द्वारा ले जायी गयी । प्रियतमके विरहमें वह तिल-तिल क्षीण हो रही थी । यहाँपर पवनके समान वेगसे भागा हुआ हरिण गाग गया। राजा लौट आया। जिसमें मत्त मयूरवृन्द नृत्य कर रहे हैं, ऐसे सुन्दर लता-मण्डपमें आया । परस्त्रीके हरण करनेवालेके द्वारा स्थापित उसी रत्न- शिलातलपर सुताराके रूपमें हिलती हुई विद्या दिखाई दी। यह जानकर कि वह यमदूत ( मृत्यु ) के द्वारा ग्रहण कर ली गयी है पसिने पूछा"क्या हुआ, तुम्हारा मुखकमल कान्तिहीन दिखाई क्यों दे रहा है ?" वह मायाविनो कहती है कि कुकुर सपिके द्वारा हथेली में काटी गयी मैं नष्ट हो रही है। असामान्य विषरसकी वेदनासे भरी हुई और यह कहती हुई, उसने प्राण छोड़ दिये। लाल चन्दनका ईंधन इकट्ठा कर सूर्यकान्तमणिको ज्वाला से आग लगाकर --
पता - प्रिया वियोगसे कविता हुआ इस लोक और परलोकके हितको छोड़ देनेवाला, कामदेव वशीभूत होकर वह राजा चितापर चढ़ गया ||१५||
१६
इतने में दो विद्याधर वह आये, जो स्वजनोंके दुःखको दूर करनेवाले और असिवररूपी अस्त्र हाथमें लिये हुए थे। उन्होंने त्रिपुष्ठके पुत्रको देखा । एकान्त वनमें मरते हुए उसकी उन्होंने उपेक्षा नहीं की । मायाके मार्गको समझनेवाले एकने बायें पैर के अग्रभागसे शीघ्र उस विद्याको
१५. १. K मृ । २. A कमलवयणु; P वयणु कमलु । ३. A ईषण ४. A आयामि १६. १. AP ण उपेक्षित ।
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-६०, १७.६ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
पायड करिवि निवेदकखालिय aftes विभैव अवलोइषि जंबुद्दीवि भरतंतरि दाहिणसेविहि जो पह पुरि इवं तहिं पहुणा संभिण्ण संजय पणणि सुख दीवयसिहु अतये अम्द सुंदर चिरु परिभमिवि रमिषि पिष्ठ बोल्लिवि पइव परमेसरि अहिमाणिणि
पत्ता - णिरु उठिय अच्छमि हा सिरिविजय पधावहि
वि पणट्ट भीयवेया लिय खबरें भणि णिणि मणु कोइषि । realete हारे । कीलासुर । अमियते किंकर माणुण्णड । महुं ओच्छ णं कति बिहु | अबलोयंति सिरिरिकंदर । गयगुल्ललिय आम षणु मेल्लिवि । सारुति णहि णिसुणिय माणिणि । बल्ल कर्हि छमि ॥ कुढि लम्महि म चिरावहि ||१६||
१७
इg अवसर तुहु बट्टह बंधव । प जीवंति ति मेई किं खल । मई रोवंति काई ण णिवारहि । महुं लग्गं कुपुर निवारि । मई लहु हि पासि भत्तारहु । पई हउ जणणसरिच्छु नियच्छमि ।
हा हा अमियतेय दुंदुहिरव हा हा मामतिविट्ठ महाबल हा सासुर देवर साहारहि हा हलहर पई अप तारिक हा हे घोर जार जैगि सारहु विमर्हेतुहुं तो वि ण इच्छमि
३७१
५
२. P शिव । ३. AP विभवसु । ४. P ते । ५. A समय वे यहं । ६. AP कह पर्छ । १७.१ APकि मई २. A ण वारिठ। ३ AP जगसार । ४. AP मयणु
१०
ताड़ित किया और उसे प्रकट कर राजाको बता दिया, वहीं भीम वैतालिक विद्या नष्ट हो गयी । विस्मयके वशीभूत राजाको देखकर विद्याधर बोला- "मन लगाकर सुनो, जम्बूद्वीपके भरसक्षेत्रमें विजय पर्वतकी दक्षिण श्रेणी में, जिसके उद्यानों में देव कोड़ा करते हैं ऐसे ज्योतिप्रभ नगर है । मैं उसका राजा सम्भिन्न हूँ। मानसे उन्नत, अमिततेजका अनुचर । मेरो प्रणयिनी से दीपशिख नामका पुत्र हुआ, वह मेरे साथ है मानो कान्तिके साथ चन्द्र हो । हे सुन्दर, इस प्रकार हम पितापुत्र हैं। पर्वतकी घाटियों और गुफाओं को देखते हुए खूब परिभ्रमण कर, रमण कर और प्रिय बोलकर वन छोड़कर जैसे हो आकाशमें उछले, वैसे ही हमने पतिव्रता स्वाभिमानिनी एक मानिनीको आकाशमें रोते हुए ( इस प्रकार ) सुना ।
पत्ता- "मैं अरपन्त उत्कण्ठित हूँ । है प्रिय, मैं तुम्हें कहीं देखूं ? हे श्रीविजय दोड़ो, पीछे लगो, देर मत करो" ||१६||
૧૭
हा हा ! दुन्दुभिके समान शब्दवाले अमिततेज, हे भाई यह तुम्हारा अवसर है। हे ससुर त्रिपृष्ठ और महाबल, तुम्हारे जीवित रहते हुए दुष्ट मुझे क्यों ले जा रहे हैं ? हे सास, हे देवर, तुम मुझे सहारा दो ।" मुझ रोती हुईको तुम मना क्यों नहीं करते ? हे बलभद्र, तुमने अपना उद्धार कर लिया, मेरे पीछे लगे हुए कुपुरुषको तुमने मना नहीं किया । हा है घोर जार, जनमें श्रेष्ठ मेरे पति के पास तुम मुझे ले चलो, यदि तुम कामदेव हो तो मैं तुम्हें नहीं चाहती। मैं तुम्हें
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३३२
महापुराण
[६०. १७.७णिमुणिषि णियामिहि णामस्वर अम्हई धाइय गुणि संधिवि सरु । मणिए वहरि भरवाएं भजहि अवरकलत्तु इरंतु ण लजहि । अप्पाहि तरुणि धुलियहारापलि दूसह सिरिविजयह वाणापलि । पत्ता-सा देवीह पसई एवाहि भिडहुँ ण जुत्तउं॥
काणणि कामसमाणड जाइवि जोइवि राणः ।।१७।।
१८
लहु महुं ताणिय पत्त तहु अक्बाहु । जीउ जंतु णरणाहु रक्खहु । तं परिहछिये पणवियमस्था उफंसकोदंडविहत्था । ए अम्हां भाइय पेणि विजण तुई मा मारामारंजियमण । एम मणिवि दीवयसिह पेसिस ते पोयणपुरि वयर भासिष्ठ । जिह हरिसुस गड मयणिसे जिह णिय परिणि चमरचंचेसें। जिह बेयालियविनइ विलसिव ता पहुजणणिहि वयणु विणीसित । जह ण वि सिटुर्स अण्ण केण वि जयगुत्तें अमोहजीण वि। तो वि सन्बु सम्भावह आणि सपरोक्खु वि पञ्चक्खु वि जाणिउँ ।
अम्हह परि जायई दुणिमित्तई पडियई णायलाच पक्खत्तई। १. पणइणिहरणु जाउँ पिपणीसह जायई विग्धु किं पि धरणीसह ।
पर कि कुसलु पडीव दीसह को वि कुसलपत्तिठ आवेसइ। अपने पिताके समान समानती हूँ। तब अपने स्वाधीक गामके अक्षर सुनकर हम प्रत्यकार पाण खड़ाकर दौड़े और शत्रुसे कहा-"भटवचनसे तुम भग्न होते हो, दूसरेकी स्त्रीका अपहरण करते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती। जिसकी हारावति धूम रही है, ऐसो तरुनीको मुक्त कर दो। श्रीविजयको नाणावलि तुम्हें असह्य होगी।"
पत्ता-तब उस देवोने कहा कि इस समय लहना ठोक नहीं। काननमें जाकर कामके समान मेरे प्रिय राजाको देखकर-॥१७॥
शीघ्र मेरा समाचार उसे दो और नरनायके जाते हुए जीवको बचाओ। उससे पूछकर प्रणमित मस्तक और हाथमें प्रचण्ड तोर और धनुष लिये हुए हम दोनों यहाँ आये हैं । हे स्त्रियोंके मनका रमण करनेवाले तुम मत मरो। यह कहकर उस विद्याधरने अपने पुत्र दीपशिखको भेजा। उसने पोदनपुरमें यह वृत्तान्त कहा कि किस प्रकार नारायणपुत्र मुगके पीछे गया, किस प्रकार बमरचंबके राजाके द्वारा उसको गहिणीका हरण किया गया, किस प्रकार वह वेतालिक विद्यासे विलसित था। प्रभुको माता (स्वयंप्रभा) का वचन निकला-यद्यपि किसी औरने नहीं जयगुप्त और अमोघजिह्व नैमित्तिकोंने कहा था, तो भी सब बात सद्भावके साथ ठीक हो गयी। बौर परोक्ष पातको भी मैंने प्रत्यक्षरूपसे जान लिया। हमारे घर में दुनिमित्त हो रहे थे, आकाशसे नक्षत्र गिर रहे थे, प्रिय राजाको प्रणयिनीका हरण होगा, राजाको भी कोई विघ्न होगा। लेकिन उल्टे उसे कोई कुशल दिखाई देगा और कोई कुशल-वार्ता आयेगी।
५. AP णियसामियणामक्खः । १८. १. AP परिहच्छिवि । २. A आम ।
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९७३
-६०.२०.२]
महाकवि पुष्पदन्त पिरवित पत्ता-इय जिह विप्पहि सिटुई तिह तुहुँ आयउ विट्ठलं ।।
सुयरिषि सुयहु साणउँ देखिइ दिण्णु पयाणां ॥१८॥
छत्तछण्णरविकिरणविलासे दि पुत्तु आलिंगिड माय पयहिं गवंतु विवाणि चडाविर पहु रहणेउस णिय सइरिसहि कहिड सो वि सवढंमुई जिग्गाट । पायघडणु घरपाहुणयत्तणु मंतिउ मंतु कहिस मंतीसाहिं णाम मरीइ वइरिजलसोसहु तेण वि णारीरयणु ण दिण्णाई पत्ता-आइये दूय सुहिते
हरिकुलहरपायारा
गय तं वणु ससेपणा आयासें। भूमिभाउ णं पाउसछायइ । बीयड सिसु पोयशु पट्टावि। अमियतेयरायड परपुरिसहिं । मिलियडर्ण दिसदविहि दिग्गउ । किंउ महसपरिवापर। अमियतेयसिरिविजयमहीसहि । पेसिज दूय असणिणिघोसहु। मंडणु भष्ठखंउणु पडियषण जलणजडीसुयपुरों ॥ सह सिरिविजयकुमारडु ॥१९॥
२०
AALAMA
vANUAnnar
दिण्ण विज वीरियपोरिसखणि पहरणवारणि बंधविमोयणि ।
ओसारियखलखेयरसत्थई रस्सिसुंबेयाइयह समत्थई ।
पत्ता-इस प्रकार जैसे विषोंने कहा, वैसे हो तुम यहाँ दिखाई दिये। पुत्रको याद करके मा { स्वयंप्रमा } ने सैन्यके साथ प्रयाण किया ॥१८॥
१९ छत्रोंसे जिसमें रविकिरणोंका विलास आच्छन्न है, ऐसे आकाशसे वह सेना सहित उस वनमें पहुंचे। पुत्रको देखा। माताने उसका आलिंगन किया मानो भूमिभागने पावस छायाका आलिंगन किया हो । पैरोंमें पड़ते हुए उसे विमानपर चढ़ाया और दूसरे पुत्र (विजयभद्र) को पोदनपुर भेज दिया। प्रभु ( श्रीविजय ) रचनपुर नगर ले जाया गया। अमिततेजके हर्षसे भरे हुए चरपुरुषोंने राजासे कहा, वह भी सामने निकला और इस प्रकार मानो दिग्गजसे दिग्गज मिला हो। पैर पड़नेसे लेकर गृहके आतिथ्य तक उसने बड़ोंको परम्पराका प्रवर्तन किया। (अर्थात् परम्पराके अनुसार उक्त शिष्टाचारका पालन किया ) मन्त्रीशोंने अपना विधारित मन्त्र कहा । अमिततेज और श्रीविजय राजाओंने शत्रुरूपी जलको सोखनेवाले मारोच नामक दूतको अशनिघोषके पास भेजा। उसने भी नारीरल नहीं दिया, युद्ध और भट-खण्डनको स्वीकार लिया।
पत्ता-दूत वापस आ गया। अर्ककीतिके पुत्रने मित्रताके कारण हरिकुलगृहके प्राकार उस श्रीविजय कुमारको-||१९||
वीर्य पौरुषकी खदान ( युद्धवीर्य ), प्रहरावरण और बन्ध-विमोचन विद्याएं दी। दुष्ट ३. AP आइउ । ४. कहाण। १९. १. P पट्टविउ । २. AP आइए दए । २०. १. AP परहण । २. A रस्सिसुवेवायहं ।
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૭૪
१०
१५
भीम महाहवभरधुर जुत्तहूं बहिणीव इण्णिा लपपिणु चमरच पुरवइहि ससंदणु यि सोहाणि खियमिषं तहु सहसरसिपुतेण समेयष्ठ तहि आराहियमिर्गसंवग्गइ णं निवsहि महिमंडल रिद्धी एहि असोिस सिरिविजयह यि असणषो से पेसिय सहसघोस सयधोस सुषोस वि जं गय ते पषिडियमाणा
घसा- निर्यानि सुताराहार छाइच सरवरपंतिहिं
आसुरियहि लच्छिहि सुद धायउ धाराजियखयहुयब हजाल रिड भामरिविज्जामाह
महापुराण
[ ६०.२०. ३
पंचसयाई सहायई पुत्तहूं । विजयदेवया सुमरेणु । उसवणं । अमियते सिहरिहि हिरिवंसँहु । ग मैरुवे मारुयवेयर | संजयंतपढिमा पायग्गइ | षिज्ज महाजालिपि सहु सिद्धी । जागत मंगल सह सरायहं । जे से जुव दिसिहिं पणासिय । मेघोस अरिघोस असेस वि । तं मेहलंतु बाण फणिमाणा । सिरिविजयं दुरुवारs || गाइ उवह संतिहिं ॥२०॥
२१
गाइ कतें दंड निवेइङ । हउ विजएं पइसिवि करवालें । बिद्दि रूपहिं उत्थर सदवें ।
विद्याधर समूहको हटानेवाले रश्मिवेगादि, भीम महायुद्ध के भारमें जुते हुए पाँच सौ पुत्र सहायकके रूप में अपने बहनोईको दिये। उन्हें लेकर और विद्यादेवियोंका स्मरण कर केशवनन्दन ( श्रीविजय ) रथ सहित चमरचं च नगरके राजापर उबबन्ध अश्वपर बैठकर आक्रमणके लिए गया। हवा के समान गतिवाला अमिततेज अपने पुत्र सहस्ररश्मिके साथ आकाशमार्ग से अपनी शोभासे चन्द्रमाको जोतनेवाले होवन्त पर्वतपर गया। वहां जहाँ देवसमूहकी आराधना की जाती है, ऐसे संजयन्त मुनिको प्रतिमाके आगे उसे महाज्वाला नामको विद्या सिद्ध हुई, मानो राजाके लिए महिमण्डलकी ऋद्धि सिद्ध हुई हो । यहाँ ध्वजों और गजों सहित अशनिघोष तथा श्रीविजय युद्ध हुआ । अशनिघोष के द्वारा भेजे गये जो पुत्र थे वे रूड़कर दिशाओं में भाग गये । सहस्रघोष, शतघोष, सुघोष, मेघघोष और अरिघोष आदि सभी । जब वे खण्डित मान तथा नागके आकारके बाण छोड़कर चले गये
घत्ता — तब सुताराके अपहरण करनेवालेको दुर्वार समझकर श्रीविजयने तीरोंकी पंकि उसे इस प्रकार छा लिया मानो शान्तिथोंने उपद्रवको छा लिया हो ||२०||
२१
आसुरी लक्ष्मीका पुत्र इस प्रकार दौड़ा मानो कृतान्तने अपना दण्ड निवेदित किया हो । विजयने प्रवेश कर धाराप्रलयकी आगको ज्वालाको जीतनेवाली तलवारसे उसे मार दिया। शत्रु
३. A ओखंषि; P उद्धवें । ४. AP हिरिनंतहु । ५. A मम T मरुवेगें आकाशेन । ६. मृगं । ७. A मेहति । ८. AP णिएवि ।
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-६०. २२.७] महाकवि पुष्पदन्त विरचित
इय वेणि वि इत्तारि समुग्गय ते वि दुहाइय अट्ट समुग्गय । अट्ठ णिहय सोलह संजाया सोलह तय बत्तीस समाया। बत्तीस वि दोखंडिय जामहिं रित्र चउसद्धि पराश्य तामहि । घसहि वि विदलिय सरुवर अट्ठावीस सक्ष संभूयस । एम दुवदिइ वढिउ दुद्धरु इणु भणंतु असिषमुणंदयकरु । जलि थलि दसदिसिवहिपहपंगणि दीसह असणिघोसु समरंगणि । वेटिव पोयणणाहुखगिदर्हि णे विसरि महाघणविंदहि । पत्ता-जैरफेरवरवभीमइ तहिं तेहा संगामा ।। पत्तउ सेण्णसणार रहणेतरपुरणे ॥२१॥
२२ रार सर्यपहपुर स्खला
जाम' ण हम्मइ तेहिं अखते। तव अमियतेरण पत्त
असणियोस किं कियउं अजुत्त । परफलत्तु किं आणि गेहह हकारिय भवित्ति णियदेहहु । एम भणेवि तेण लहु मुछी विज्ज महाजालणि रणि दुची। पवणुधूचिषु सविमाणस संपेक्खिवि सहस ति पलाण। जहिं णायहु सीमागिरिवर विजउ णामु जहि अच्छह जिणषक।
परणारीहरु भयवसु तहत समवसरणि तहिं मेरणु पाहत । भ्रामरी विद्याके माहात्म्यसे दर्पपूर्वक दो रूपोंमें उछला। दोके मारे जानेपर चार उछले। उनके भी दो भाग होनेपर आठ उत्पन्न हए । पाठके वाहत होनेपर सोलह हुए । सोलहके आहत होनेपर बत्तीस हो गये, जबतक बत्तीस खण्डित हुए, तबतक चौसठ हो गये। चौंसठ भी स्वरूपसे विदलित हो गये, तो एक सौ बीस हो गये । इस प्रकार दो की वृद्धिसे बढ़ता हुआ तथा वसुनन्दक तलवार जिसके हाथमें है ऐसा वह जल, स्थल, दसों दिशाओं और आकाशके प्रांगण में सब जगह दिखाई देता है । इस प्रकार विद्याधरौने पोदनपुरराजाको घेर लिया, मानो महाधनसमूहने विन्ध्याचलको घेर लिया हो।
पत्ता-बूढ़े शृगालोंसे भयंकर उस वैसे संग्राममें सैन्यसे सहित रथनूपुरका राजा वहाँ आया ॥२१॥
२२ स्वयंप्रभाका पुत्र राजा श्रीविजय जब उनके द्वारा दुष्टता और अन्यायसे नहीं मारा जा सका तो अमिततेजने कहा-“हे अशनिघोष, तुमने यह अनुचित क्या किया? दुसरेकी स्त्री अपने घरमें क्यों लाये । सुमने अपने शरीरको होनहारको स्वयं चुनौती दी है।" इस प्रकार कहकर उसके द्वारा फेंको गमी महाज्यालिनी नामकी विद्या शीघ्र युद्धमें पहुंची। उसे देखकर हवामें जिसका ध्वज उड़ रहा है ऐसा विमान सहित वह सहसा भाग खड़ा हुआ। जहां नाभेयसीम नामका गिरिवर था और जहाँ विजय नामके जिनवर थे, भयके वशीभूत होकर परस्त्रीका २१.१. A समागय । २. AP. हय । ३. A बरफेरकारवभीमः । ४. Pणाहह । २२.१, AP महाजासिणि गहि ढुक्की । २. AP सरणि ।
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महापुराण
[६०. २२.८सिरिविजयाइय चोइयगयघड अणुमम्रो तह लग्ग महाभड । माणसंभअवलोयणभावं मुक्का पत्थिव मच्छरभावें। केवलणाणसमुज्जलविविहि मउलियकर णवंति परमेहिदि। धत्ता-जसधवलियछणयंबहु पुच्छंतह खयरिंदहु ।।
विद्धंसियवम्मीसर अक्खा धम्मु रिसीसरु ॥२२॥
25
भणइ भहारउ रोसुण किज्जद रोसें गरयविवरि णिवाहिज्जइ । रोसवंतु णरु कह व ण रुबइ। जा वि सुवलहु तो वि पमुखाइ । रोसु करइ बड्ड आवइ संकबु रोसे पुरिसु थाइणं ककेदु । रोसु कयंतु व क ण तासइ अत्थु धम्मु कामु वि णिपणासइ । जो रोसेण परत्वम् अच्छा तहु मुहकमलु ण लडिछ णियच्छइ। माणपमत्तु ण काई वि मण्णा माणे गुरु देव वि अवगण्णइ । माणथैधु बंधुहि वि ण मावश णि दुणिरिकलाई दुक्खई पावइ । मायाभावें जो धिम्मका
तहु संमुहत ण सज्जणु दुखद । ण वीसस को नि णिधम्मद गिनियमायाकम्म। १० मायारठ तिरिक्खु चप्पज्जाइ लोहें णियजणणी चि विरजेइ । अपहरण करनेवाला वह वहां उनके समवसरणको शरणमें चला गया। श्रीविजय आदि महाभट भी अपनी गजघटाको प्रेरित करते हए उसके मार्गके पीछे जा लगे। मानस्तम्भको देखने के भावसे वे राजा ईर्ष्याभावसे मुक्त हो गये। जिनकी दृष्टि केवलज्ञानसे समुज्ज्वल है ऐसे परमेष्ठोको वे हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं।
पत्ता-अपने यशसे चन्द्रमाके धवलित करनेवाले विद्याधर राजाके पूछनेपर कामदेवका नाश करनेवाले ऋषीश्वर धर्मका कपन करते हैं ॥२२॥
___ आदरणीय वह कहते हैं-'क्रोध नहीं करना चाहिए । क्रोषसे नरकके बिलमें गिरना पड़ता है। क्रोधी व्यकि किसीको भी अच्छा नहीं लगता, व्यक्ति कितना ही प्रिय हो ( क्रोधो व्यक्ति) छोड़ दिया जाता है । कोष कई आपत्तियां और संकट उत्पन्न करता है । क्रोधसे व्यक्ति बन्दरको तरह रहता है । यमकी तरह क्रोध किसे पस्त नहीं करता उससे अर्थ, धर्म और काम नष्ट हो जाता है । ओ कोषसे परवश हो जाता है, उसके मुखकमलको लक्ष्मी कभी नहीं देखती। मानसे प्रमत्त आदमी किसीको कुछ नहीं गिनता। मानसे गुरु और देवकी भी अवहेलना करता है। मानसे ठस (स्तब्ध) आदमी भाइयों को भी अच्छा नहीं लगता। वह अत्यन्त दुर्दर्शनीय दुखोंको प्राप्त करता है। मायामावसे जो व्यक्ति आचरण करता है ( चिम्मक) उसके पास सज्जन व्यकि नहीं जाता। नित्य मायाकर्मका प्रयोग करनेवाले धर्महीन व्यक्ति का कोई विश्वास नहीं करता। मायारत व्यक्ति तियच गतिमें उत्पन्न होता है। लोभके कारण वह अपनो मौके प्रति विरक्त हो
३. AP'लोयणगावें। २३. १. AP कह वि । २. A मंकलु | ३. A माणवंतु । Y. APण |
५, AP पिम्मह । ६,P बिरहज्जह ।
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-६०. २४. ११] महाकवि पुष्पदन्त विरक्षित
लोहे जणु चामीयरु संचइ लोहें अप्पणु अप्पलं वंथइ । खाइ ण देइ धिवइ धणु खोणिहि लुद्धठ णिवडइ दुग्गयजोणिहि । घत्ता-एयह पउहं कसायहं दावियणरयणिवायहं ।।
जो अप्पाणउं रक्खई मोक्खसोक्खु सो चस्वइ ।।२३॥
मिच्छत जणवउ छाइज मिच्छा विडगुरुपय पुज्जइ भयणमत्तमहिलामसेवहं मिच्छतेण जीउ मोहिजइ मिच्छत्तेण असंजमु बढइ पोसइ पंचिंदियई दुरासई परहणपरकलत्तअणुबंधे तहिं अवसरि आसुरियइ लच्छिा अमियतेयसिरिविजयह ढोइय किन खंत वैचित्तु णीसल्लर तं रिउजणणिहि बयणु समिच्छिउ
हिंसइ सग्गगमेणु पडिवजा । मिच्छतें जिणणाहु विवज्जा। पायहिं पडइ रलदहं देवहं । भवविभमि भामिज्जा छिज्जा । जीवह जीविउ मंडेइ कइ । पावइ माणष्ट विहरसहासई । बज्झइ एम जीउ रयर्बधे । आणिवि सा सुतार धवलच्छिइ । भायरपइहि सणेहें जोश्य । भन्नईखम मंडणउ पहिल। पुणु रणेउरवाणा पुछिछछ।
जाता है। लोभसे मनुष्य सोना इकट्ठा करता है। लोभके कारण स्वयंसे स्वयंको ठगता है । न खाता है और न पीता है, धनको जमीनमें गाड़कर रखता है, लोभी व्यक्ति दुर्गतयोनिमें जाता है।
पत्ता-नरकमें पत्तन दिखानेवालो इन चार षायोंसे जो अपनी रक्षा करता है, वह मोशसुखका आस्वाद लेता है ॥२३॥
मिथ्यात्वसे जनपद आच्छादित होता है, हिंसासे स्वगंगमनका प्रतिषेध होता है। मिथ्यात्वसे विटगुरु-चरणोंको पूजा की जाती है। मिथ्यात्वसे मनुष्य जिननाथका त्याग करता है, कामदेवसे मत्त महिला और मधुका सेवन करनेवाला रौद्र देवोंके चरणों में गिरता है। मिथ्यात्यसे जीव मोहित होता है। संसारके चक्करोंमें घूमता है और नाशको प्राप्त होता है। मिथ्यास्वसे असंयम बढ़ता है, जीवोंका जोब बड़ी कठिनाईसे निकलता है। खोटे आशयवाली इन्द्रियों की पोषण करता है और मनुष्य हजारों दुःख उठाता है। दूसरेके धन और स्त्रीके अनुबन्ध तथा रागके बन्धसे इस प्रकार जीव बंध जाता है। उसी अवसरपर धवल आँखोंवाली आसुरी लक्ष्मोने सुतारा लाकर अमिततेज और श्रीविजयको दे दो। भाई और पतिने उसे स्नेहपूर्वक देखा। उसने उनके चित्तको क्षम्य और शल्पहीन बना दिया। क्षमा भव्योंका पहला अलकार है। शत्रुकी माताके वचनोंका उन्होंने विचार किया, फिर रयनपुरके पति अमिततेजने तीर्थंकर विजयसे पूछा। २४. १. A गवणु । २. A मड्ड; P मंडुइ । ३, P खंतव्य वित्तु । ४. A सम्वहं ।
४८
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३७८
महापुराण
[६०. २४.१२घसा-दुश्मपावनयंकर कहइ णरोइ.सुहकरु॥
उग्गयसंसयसंकट विजय अमियतेयंकहु ॥२४॥
जंधूदीवि मरहपरिसंतरि अचलगामि धरणीजडु बंभणु तह इंदग्गिभूइसुय सुहयर कविलु णामु दासेर अलक्खिड कुलविद्धसणु जाणिष्ठ विष्पं गड रयणउरहु भाई भाविडं जंयूपरिणिहि हूई सुंदर कुलणिदिउँ करंतु गुणवंवर घता-वर धणोहे चत्तज
दालिद संतत्तउ
मागहविसइ सुसासणिरंतरि । अग्गिलबंभणितररहर्सभणु । सुयसत्थस्थमहत्थ मणोहर । वेयचउक्त सडंगई सिक्खिः । दुग्जसभीएं धाडि बप्प। सचय दियवरेण परिणादिउ । सञ्चाम णामेण किसोयरि । बरु कुलहीणु वियाणित कंतइ । आयण्णिवि सुयवत्त। तहिं जि ताउ संपत्तउ ॥२५॥ २६ कविलें पुरयणमन्झि पसंसिड | दिपणा कंचणु जेत्तिई मग्गिळं । घणु ढोइवि आमिछउ सुण्डाइ ।
सपरावभीएण मंसिर चाहु पयजुवलु तेण ओलग्गिठ कुलदूसणसणीसासुण्हा
पत्ता-दुर्दम पापोंका नाश करनेवाला मनुष्यों के लिए शुभकर श्रीविजय, जिसके मनमें सन्देहकी कील उत्पन्न है, ऐसे अमिततेजसे कहता है ॥२४॥
२५
जम्बूद्वीपमें भारतवर्षके मगध देशमें, जिसमें निरन्तर सुशासन है ऐसे अचलग्राममें धरणीजट नामका ब्राह्मण था जो अपनी अग्निला ब्राह्मणीके स्तनोंका मर्दन करनेवाला था। उसके शुम करनेवाले इन्द्रभूति और अग्निभूति नामके पुत्र थे, दोनों सुन्दर थे और उन्होंने शास्त्रोंका अर्थ महार्थ सुना था। उसका कपिल नामका अज्ञात वासी पुत्र था। उसने चारों वेदों और छहों अंगोंको सीख लिया। विप्रने उसे कुलका नाश करनेवाला जानकर, अपयशसे धरकर पिताने उसे निकाल दिया। वह रत्नपुर गया। वहाँ सत्यक नामक ब्राह्मणने उसे भला समझा और अपनी अम्बू नामकी स्त्रीसे उत्पन्न हुई कृशोदरी सुन्दर कन्या सत्यभामा ब्याह दी। उस गुणवती कान्ताने कुलनिन्दित कर्म करते हुए उसे जान लिया कि यह कुलहीन पर है।
पत्ता-केवल धनसे रहित होकर पिता धरणीजट अपने पुत्रका समाचार सुनकर दारिद्रयसे पीड़ित होकर वहीं आया ॥२५।।
अपने पराभवसे डरे हुए (पोल खुलनेके भयसे) कपिलने नगरके लोगोंके बीच उनकी प्रशंसा की। उसने उनके चरण छुए और उसने जितना मोगा, उतना सोना दिया। विकट कर्मक
५.A पराह सुहकरु । २५. १. A बप्पे । २. AP सच्चा । ३. P सहसामि | Y. AP आयष्णिय ।
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-६०. २७.७]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित कहइ जणणु पियवयणहिं तुट्ठउ महं धरि दासीसुउ णिकिट्टर । कंतु तुहारउ होइ ण दियवरु ऐ भणेप्पिणु गज सो णियघर । तहिं सिरिसेणु राउ परसिरमणि पदम सौहणंदिय तह पणइणि ।। बीय अणिदिये फाई भणिज्जइ जाहि र वि दासि व्व गणिज्जइ । ताह बिहिं मि कतिइ सुच्छाया इवधिदसेण सुय जाया । कुललंछण धरियमज्जायतु जंबूधूयइ साहिर रायहु । मा....ते हि सागरिका शणि मंदा मण्णिन ॥
ककसदंडे ताडिउ पुरवराउ गिद्धाडिउ ॥२६।।
सभाम सइ सुद्ध हथेप्पिणु थिय उवसमु हिय उल्लइ लेप्पिंणु । सदैम अमियगइ णामारिंजय आइय भिक्खहि चारण संजय । सिरिसेणे आहारु पयच्छित दिज्जतउ घरिणीहि समिच्छिष्ठ । चउदहमलपरिमुक्कु अकुच्छित रिसिहि पाणिवत्तेण पउिच्छिउ । भायणधरणाइयड सुधम्मत सञ्चयतणयइ किन सुहकम्मउ । चहुं वि सुकयबीउ ल लद्ध भोयभूमिपरमाठ णिबद्ध।
सेमररंगदलवट्टियपरबलु कोसंबीणयरीसु महाबलु। कारण उष्ण उच्छ्वासवाली बहूने पूछा । उसके प्रिय वचनोंसे सन्तुष्ट होकर पिता कहता है कि यह मेरे घर में नीच दासीपुत्र था। तुम्हारा पति ब्राह्मण नहीं है। ऐसा कहकर वह ब्राह्मण अपने घर चला गया। वहाँ नर-शिरोमणि श्रीषेण राजा था। उसको पहली पत्नी सिंहनन्दिता थी। दूसरी पत्नी आनन्दिता थी, उसके विषयमें क्या कहा जाये ? उससे रति भो दासोके समान समझी जाती थी। उन दोनोंके कान्तिसे सुन्दर इन्द्रसेन और उपेन्द्रसेन नामके पुत्र हुए। जम्बूकी कन्याने मर्यादाको धारण करनेवाले राजासे कुलकलंककी बात कही।
पत्ता-राजाने उसका अपमान किया, लोगों में वह चण्डालको तरह समझा गया। कठोर दण्डसे प्रताड़ित उसे उस प्रवरपुरसे निकाल दिया गया ॥२६॥ ।
सती सत्यभामा शुद्ध होकर अपने मन में शान्तभाव धारण कर रहने लगी। संयमधारी अमितगति और अरिंजय नामके दो चारण मुनि आहारके लिए आये । श्रोषेण राजाने उन्हें आहार दिया, देते हुए उसका दोनों पत्नियोंने समर्थन किया, चौदह प्रकारके मलोंसे मुक्त और अकुत्सित उस आहारको मुनियोंने अपने हाथरूपी पात्रसे स्वीकार कर लिया। बरतन आदि रखनेका जो सुधर्म है, वह सुकर्म सत्यक ब्राह्मणकी कन्याने किया। उन चारोंने पुण्यरूपी बोजको प्राप्त किया और भोगभूमिकी परम-आयुका बन्ध कर लिया। कौशाम्बी नगरोमें, जिसने युद्धके
२६. १. AP एम | २. P अणंदिय । ३. P साहियउँ । ४. A तेण वि खलु । २७. १. AP सच्वभाव । २. AP लएप्षिणु। ३. A सदणे but records a p: सणि था। ४. AP
अमियगय । ५. AP समरंगण ।
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महापुराण
[६०.२७. ४सिरिमइदेवि हि जयरुप्पण्णी तें सिरिकंत णाम सुय दिण्णी। दुज्जणमणपइसारियसबाहू सिरिसेणंगरूहहु पुरिमिल्लहु । सम वहल्लियाइ गयगामिणि अवर पवर संपैसिय कामिणि । साणंतमइ उविदह रत्ती मोहें मयरोहेण व मत्ती। घत्ता-गंदणषणि णिवसंतहिं दोसु रोसु चितंतहिं॥ कारणि ताहि अजुत्ताई विहि मि जुझु आढत्तउं ||२७||
२८ धाइय पहरणपाणि ससंदण सिरिसेणे अवलोइय गंदण । कह व णिवारहुं वे वि ण सकिउ परवा दूमिउ चित्ति चमकिउ । रज्जु सणेहु सदेहु पमाइवि विससेलिधगंधु अग्याइवि । रायाणीयउ तेण जि मग्गे दियधीय वि सं तिह णासर्गे। गरेयवेई महियलि णिवडेपिणु मउलियणयणई तेत्थु मरेप्पिणु । धादइसडि पुषभार्यतरि उत्तरकुरुहि सुमोणिरंतरि । चत्तारि वि अजई संजायई छहणुसहसपमाणियफायई। जायेड णिब्भरु पेमरसिङ्ग राउ सीहणंदिय मिडणुझाई ।। हुई मुणिवरदाणे दिय
बंभणि भामिणि पुरिर्स अणिदिय । प्रांगण में शत्रुदलका संहार किया है ऐसा महाबल नामका राजा था। उसके अपनी श्रीमती नामको देवी सरसे उसम्म श्रीकान्ता नामकी पुत्री थी। दुजनोंके मनमें शल्य उत्पन्न करनेवाले श्रीषेणके पहले पुत्र इन्द्रसेनसे उसका विवाह कर दिया । उस बहू के साथ एक और गजगामिनी (अनन्तमति) स्त्री भेजी गयी। वह अनन्तमती उपेन्द्रसेन में अनुरक्त हो गयी, मोहके कारण वह मदिरा समूहके समान मतवाली हो उठी।
धत्ता-नन्दनवनमें निवास करते हुए, दोष और कोधका विचार करते हुए उन दोनों के बीच उसके कारण अयुक्त युद्ध प्रारम्भ हो गया ॥२७॥
हाथमें हथियार लेकर रथसहित दोनों भाई दौड़े। श्रीषेणने पुत्रोंको देखा, वह उन दोनोंको किसी भी प्रकार मना नहीं कर सका। राजा मनमें दुःखी हुआ और आश्चर्य में पड़ गया। राज्य, अपना शरीर और स्नेह छोड़कर तथा विषकमल पुष्पकी गन्धको मूंघकर, रानियां भी उसो मार्गसे, और उसी प्रकार ब्राह्मणकन्या भी नाकके अग्रभागसे ( सूंघकर) भारी वेदनासे धरतीतलपर गिरकर और बन्द किये हुए नेत्रोंसे भरकर धातकीखण्डकी पूर्वदिशामें सुन्दर भोगोंसे निरन्तर उत्तर कुरमें श्रेष्ठ लोग उत्पन्न हए। उनके शरीरका प्रमाण छह हजार धनुष था। राजा श्रीषण और सिंहनन्दिताका जोड़ा उत्पन्न हुआ जो प्रेमसे रसमय और पूर्ण था। ब्राह्मणी सत्यभामा स्त्री हुई और रानी आनन्दिता पुरुष ।
६. AP पुस्विस्ला। २८. १. " से लेंथ । २. A रायाणियर बितेग जि । ३. A सरस्वेय; P गरएं। ४. A सुललियाण
रंतरि । ५. A जोय णिमरम्म । ६. AP राय । ७. A भारिणि । ८. AP पुरिसु ।
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-६०. २९. १३ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित
पत्ता-जुझतई दुबारई दोह मि रायकुमारहं ।।
अंतरि घिस विजाहरू पाइ गिरिंदहं जलहरू ||२८||
पभणइ जिणकमकमलेदिविरु जुझेचर फुलहिं वि असुंद। कि पुणु पहरणेहि पिहियकहिं सत्तिसेल्ललंगलचलचकहिं । तं णिसुणिकि भणंति ते भायर के तुम्हई पडिसेइकयायर। अक्खा खेयर दिव्य वाय धादईसंडहु सुरदिसिभायह। मंदरपुरवासह सुवास
खलविरहियपुक्खलवरदेसइ । पहिं रययायलि दाहिणसेदिहि आइशाहणयरि गल रूढिहि । खयर सुकुंसलि रभसमाणी अमियसेण णामें तहु राणी मणिलंडलिक मामिभयम अत्थु व सुकइकह हि जणणयन । पर्वरि पुंडरिकिणि गट तेत्तहि । अमियप्पड जिणपुंगमु जेत्तहि । पुच्छिन सो मई णिययभवावलि कहइ मडारठ समयसमियफलि। पुक्स्वरदीवि वरुणसुरसिहरिहि पुवादिसहि हयसोयहि णयरिहि । घत्ता-हरणं मयरउ महिवाइ नहिं थफर्द्धउ ।।
णयमाल पीवरथणि तह पल्लह सोमैतिणि ॥२९।। पत्ता-सहते हुए उन दोनों राजकुमारके बीच एक विद्याधर आकर स्थित हो गया । मानो पहाड़ोंके बीच, भाकर मेष स्थित हो गया हो ॥२८॥
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A AAAAA
जिनभगवान्के चरणकमलोका भ्रमर बह विद्याधर कहता है कि फूलों से लड़ना भी बुरा है। फिर सूर्यको आच्छादित कर देनेवाले शक्ति शैल हल और चलचक्र अस्त्रोंसे लड़नेका तो क्या कहना ? यह सुनकर उन दोनों भाइयोंने कहा कि मना करने में आदर रखनेवाले तुम कौन हो ? तब विद्याधर विष्यवाणी में कहता है कि घातकीखण्डको पूर्व दिशामें मन्दराचलकी शुम पूर्व दिशामें दुष्टोंसे रहित पुष्कलावती देश है । वहाँ विजया, पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें आदित्य नगरके नामसे प्रसिद्ध नगर है। उसमें सुकुण्डली नामका विद्याधर था और अमृतसेना नामकी रम्भाके समान उसकी रानी थी। उससे उत्पन्न में मणिकुण्डल हूँ, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार सुकविकी कपाके लोगों के द्वारा संस्तुत भर्थ। वहाँसे में विशाल पुण्डरीकिणी नगर गया जहाँपर अमृतप्रभ जिनश्रेष्ठ थे। मैंने उनसे अपनी भवायलि पूछो। सिद्धान्तके ज्ञानसे जिन्होंने पापको शान्त कर दिया है ऐसे उन्होंने बताया, "पुष्कर वीपमें पश्चिम सुमेरुकी पूर्वदिशामें बीतशोक नामक नगरमें।
पत्ता-रूपमें कामदेवके समान चक्रध्वज नामका राजा था । कनकमाला* नामको उसको स्थूल स्तनोंवाली प्रिय पत्नी थी ॥२९॥
२९. १.A अझैवस । २. P° । ३. P वेयरु । ४. A संद। ५. A सुकाकहाहे बगियठ । ६.A
पारपुंडरिंगिणि; Kप्रवरपंडरिकिणि । ७. A समपसमिय । ८. P कणयबाट । * कनकमालिका ।
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५
१०
कणयल्या सररुहलय णांमें धीय बेणि तोहि मृगणेत्तर विज्जैम ईदेवि हि यदुम्मइ अमियत्रेण कंतियहि णवेपिणु सागय सग्गहु आराईयहु सुर जोएब सुरु रंजिय काले जंत सुरलोयहु चु कणयलया जलरुहपीड दुर्विदण पंकयमुह सोक्खु असं सुरु मुंजे प्पिणु हुई कहिं मि महाबलकामिणि सार्ज जिणणाई सिट्ट आयओसार
कासु वि को विप किं किर जुज्झछु हवं मायरि चिरु तुम्हई तणयउ
महापुराण
३०
णियंकर भल्लि घिरा णं कामें । कयलीकंदल को मलग'तव । तासु जि राय सुय पोमावइ । कणयमाल सावयव लेप्पिणु । भोयभार संपीणिर्यैजी बहु | पोमावर हूई सुरलंजिय । कणमालकुंड लि एवं हुउ |
कोई किसी से
[ ६०.३०.१
कुछ
बे
जाया रणरातिणुरुह । सुरलंजिय सग्गाल चपेष्पिणु । दिor विवाहितु गयगामिणि । तं पथ्यक्खु विदिट्ठ ॥ दोहिं मि जुन्झु णिवार हुँ ||३०||
३१
શૈવ
उसकी कनकलता और पद्मलता नामकी सुन्दर कन्याएं थीं, जो मानो कामदेव के द्वारा फेंकी गयी उसके हाथ की भलिकाएँ थीं। उसकी दोनों कन्याएं मृगनयनी और कदली कन्दलके समान कोमल शरीरवाली थीं। उसी राजा ( चक्रध्वज ) की विद्युत्मती देवीसे दुर्मतिको नाश करनेवाली पद्मावती नामकी देवी हुई। अमितसेना नामकी गायिकाको प्रणाम कर कनकमाला श्रावक व्रत लेकर जिसमें भोगोंके मारसे जीव प्रसन्न रहता है, ऐसे सौध में स्वर्ग में गयी । देवको देखकर पद्मावती रूपसे रंजित हो गयो और वह स्वर्ग में दासी हुई। समय बीतनेपर स्वर्गलोकसे च्युत होकर मैं कनककुण्डली देव हुई हूँ। कनकलता और पचलता अपने कर्मसे विनीत दोनों पुत्रियाँ मरकर कमलमुख इन्द्रसेन और उपेन्द्रसेन के नामसे रहनपुर के राजाको पुत्र हुई है। बहुत समय तक असंख्य सुखका भोग कर वह देवदासी स्वर्गसे च्युत होकर कहीं अनन्तमती नामकी ater हुई। और वह गजगामिनी तुम्हें विवाह में दी गयी ।
भवसंसरणुण किंपि वि सुसहु । होतियाच परिपालिया पेणयः ।
घसा--जो कुछ जिननाथने कहा था, उसे मैंने आज यहाँ प्रत्यक्ष देख लिया । बाज मैं तुम दोनों को युद्ध से मना करने और अलग करते आया हूँ ||३०||
३१
युद्ध न करे, संसार के परिभ्रमणको क्या कुछ भी नहीं समझते। मैं
P
३०. १. A विकरें । २. A हो नि ताहि मिर्ग । ६. AP विज्जमई १४. AP जीयहु । ५. AP सवें । ६. A एपिणु ।
३१. १. पालयविगमत |
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-६०.३२.६ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित देवत्तणु माणिवि णरजाया कि पहरह उग्गामियघाया। तं णिसुणिवि कुमार हयछम्मा तन परेवि पयमूलि सुधम्महु । गय मोक्खहु णिक्खवियरोहहु अहमहागुणविरइयसोहछ। जो सिरिसेणु पुणु वि जो कुरुणा पढमकप्पि सो जाउ परामर । सिरिपहु सुरहरि णं ससहरसह हुय हरिणंदियज्ज विज्जुमूह । कुरुमणुयत्तणु माणिषि बहुमहु देवि अणिदिय विवि विमलप्पाहु । सुरु हूई पुर्ण भणि वयसह सञ्चमाम तहु फंत ससिप्पाह । पत्ता-जो सिरिसेणु महाइस कुरुणा सुरु लगाइच ॥
सो एवहिं तुहुं जायउ अमियतेस खगरायउ॥३१॥
Annanamamarnama
जा सा सइ पंचाणणणंदिय सा जोइप्पह घरिणि अपिदिय । पुण हुई सिरिविजउ वियाणहि सोचिणि सच्चभाम अहिणाणहि । जा सा धुवु सुतार सस तेरी सुरणरविसहरहिययवियारी। कविलु सुइरु हिंडिषि संसार भूयरमणकाणणि भयगारह। पविउलअइरावयणइतीरइ कोसियसावसमुत्तसरीरइ।
पवलवेयतवसिणियाइ जणियड सो मयसिंगु णाम सुट भणियस । पूर्वजन्मको प्रेमका परिपालन करनेवाली तुम्हारी मा हूँ। तुम देवत्वका भोग कर मनुष्य रूपमें जन्मे हो। घात उठाये हुए प्रहार क्यों करते हो?" यह सुनकर दोनों कुमार कोषका नाश करनेवाले सुधर्मा मुनिके चरणमूलमें तपका आचरण कर, जिसमें पापोंके समूहका क्षय हो गया है और जिसमें आठ महागुणोंको शोभा है ऐसे मोक्ष चले गये। जो श्रीषेण था और जो कुरुनर हुआ था वह प्रथम स्वर्गमें श्रेष्ठ देव हुआ-धीप्रभ नामक विमानमें श्रोप्रभ नामका । सिंहनन्दिता नामको रानी उसो स्वर्गमें विद्युत्प्रभ देव हुई। कुछ भोगभूमिके सुखोंको मानकर अत्यधिक तेजवाली देवी अनिन्दिता स्वर्गमें विमलप्रभ नामका वेव हुई। नतोंको सहते हुए ब्राह्मणी सस्पभामा शशिप्रभा ( शुक्लप्रभा ) नामकी उसको देवी हुई।
पत्ता-जो आदरणीय श्रीषेण था, कुरुनर और देव, वह स्वर्गसे आकर इस समय तुम अमिततेज नामक विद्याधर राजा हुए हो ॥३१॥
जो सती सिंहनन्दिता थी वह ज्योतिप्रभा नामको तुम्हारी गृहिणी है । और जो अनिन्दिता थो वह श्रीविजय हुई, यह जानो। और जो सत्यभामा ब्राह्मणी थी, उसे तुम सुर, नर और विषधरोंका हृदय विदारित करनेवाली तुम्हारी बहन सुतारा निश्चित रूपसे पहचानो। वह पुराना कपिल संसारमें लम्बे समय तक परिभ्रमण कर भयंकर भूतरमण काननमें विशाल ऐरावती नदीके किनारे जिसके शरीरका भोग कौशिक तपस्वीने किया है, ऐसी चपलवेगा नामक
२. AF माणवि । ३. A कुमारयशम्महु । ४. P विज्जापह । ५. A बहसुन। ६. AP बंभणि पुषु ।
७. अस्वभाव । ३२. १. AP सवभाव । २. P रमणि काणि ।
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महापुराण
६०. ३२.७
तेण तवंते काम विलुद्ध
खयर णिएवि णियाणु णिबद्ध । जायउ सुउ आसुरियहि तरुणिहि असणिवोसु रत्तम चिरर्धरणिहि ।
पिणियविजाविहां मोहिवि णिय कंचणविमाणि आरोहिदि । १० पमणड लिजगणाहु ण रुसिजन अमियतेय जीवह खम किजइ । णिसुणि णिसुणि किं बहुयइ वत्तई णवमइ जन्मंतरि संपत्तइ ।
घशा-धुंव पंचमु चोसरु इह सोलहमु जिणेसरु । ___भरहि राय तुई होसहि पुष्पदंतसिरि लेसहि ।।३२।।
इष महापुराणे विसट्रिमहापुरिसगुणालंकारे माहाकापुष्पयतविरहए महामनवमरमाणुमणिए महाकव्वे संविगाहमवावलिवणणं
णाम सट्टिमो परिच्छे श्री समतो॥३०॥
तपस्विनीसे उत्पन्न हुआ मृगशृंग नामका पुत्र कहा गया। तप करते हुए उसने विद्याधरको देखकर कामसे लुब्ध निदान बांधा। यह आसुरी नामकी स्त्रीसे उत्पन्न हुआ और अपनी पुरानी स्त्रीमें अनुरक्त हुमा। प्रिय श्रीविजयको अपनी विद्याके विभवसे मोहित कर और स्वर्णविमानमें चढ़ाकर उसे ले गया। त्रिजग स्वामी कहते हैं कि हे अमिततेज, क्रोध नहीं करना चाहिए। जीवोंको क्षमा करना चाहिए । सुनो-सनो, बहुत कहनेसे क्या ? नौवां जन्मान्तर प्राप्त करनेपर
पत्ता-निश्चयसे तुम पांचवें चक्रवर्ती और यहाँ सोलहवें तीर्थकर होगे। तुम भरतक्षेत्रके राजा और मोक्षलक्ष्मी प्राप्त करोगे ॥३२॥
इस प्रकार श्रेस महापुरुषों के गुणाकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकषि पुष्पदन्त द्वारा __विरचित पुर्व महामव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य में शाम्तिमाय
मषावलि वर्णन नामका साठवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥५०॥
३. P आसुरिहि । ४. AP विरु घरिणिहि । ५. A थिउ णिय; P पिउ मयं । ६. P बुत्तइ । ७. A ध्रव । ८. A राम।
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संधि ६१
सो असणिघोसु आसुरियाबार दाव सुतार सयंप६ वि ॥ पैवइयई णिसुणिवि जिणवयणु जिणु पणवेप्पिणु तिजगरवि ॥ध्रुवक।
सिरिविजयक मारुयवेएं वउ उज्जालित घरू बेणि वि अण सुरकरिकरमुउ णिरु णिरवजउ उत्तमसची णयलगामिणि जलसिहिथभैणि अंधीकरणी विस्सपवेसिणि अप्पडिगामिणि पास विमोयणि बलणिक्खेवणि
णिगयसंक। अपमियतेएं। पोसह पालिस। गय ते सज्जण । रविफित्तीसुल। साह विज। चलपण्णत्ती। इच्छियरूविणि। घंधणि रंभणि | पहरावरणी। अवि आवेसिणि। विविहपलाविणि । गहणीरोयणि । चंडपहायणि ।
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सन्धि ६१ वह अशनिघोष, आसुरीदेवी, सुतार और स्वयंप्रभा भी त्रिजग सूर्य जिनवरको प्रणाम कर और जिनवयनोंको सुनकर प्रवजित हो गये।
शंकाओंसे दूर, वायुके समान वेग और अपरिमित तेजवाले श्रीविजयने व्रतका उद्यापन क्रिया, प्रोषधोपवासका पालन किया। वे दोनों ( श्रोविजय और अमिततेज) ही सज्जन घर गये। ऐरावतको सूंडके समान हाथोंवाला, अर्ककीर्तिका पुत्र अमिततेज अत्यन्त निरवद्य विद्याएं सिद्ध करता है। उत्तम शक्ति, चलप्रज्ञप्ति, आकाशगामिनी, कामरूपिणी, जलस्तम्भिनो, अग्निस्तम्भिनी, बन्धिनो, हमनी, अन्धीकरिणी, प्रहारावरणी, विश्वप्रवेशिनी और आवेशिनी, अप्रतिगामिनी, विविधालापिनो, पाशविमोचिनी, ग्रहनिरोधिनी, बलनिक्षेपिणी, चण्डप्रभाविनी,
१. १. AP पावश्यई । २. P णिसुणवि । ३. AP'भिणि । ४. AP°णिणि । ५. A पहराघरणी ।
६. K recordsap चल इति पाठे चपला । ७. AP'पहाविणि ।
४१
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३८६
२५
महापुराण
[६१.१.१७पहरणि मोहणि जमणि पाडणि । अवर पहावइ सइ पविरलगद । भीमावत्तणि पवरपवत्तणि। पुणु लहुकारिणि भूमित्रियोरणि। रोहिणि मणजब देवि महाजव। चंडाणिलज पिन चंचलजव। बहुलुप्पायणि सत्तुणिवारिणि । अक्खरसंकुल खलगल संस्खल। मायाबेहुई पण्णलेहू। हिमवेयाली सि हिवेयाली। मोकलवाली चलचंडाली। अलिसामंगी सिरिमायंगी। इय वरविज्ञहिं णहयरपुजाहि । उहसेदीसर हुउ परमेसरू। अण्णहि वासरि तेणे सणेसरि। दमवरणामहु णिजियकामहु ।
पुण्णुप्पायणु दिण्णव भोयणु। घत्ता-तें चारणदिपणे भोयणेण 'ईह रति जि संभावित फलु ॥ __सुरवु दुंदुहिसर वसुवरिसु मेहहिं वुहल सुरहिजलु ॥१॥
म
प्रहरिणी, मोहिनी, जम्भनी, पातनी और प्रभावती, प्रविरलगति, भीमावर्तनी, प्रबलप्रवर्तनो, फिर लघुकारिणी, भूमिविदारिणी, रोहिणी मनोवेगा, चण्डवेगा, अग्निवेगा, बहुलोपिनी, शनिवारिणी, अक्षरसंकुला, दुष्टगल स्खला, मायाबह्वी, पर्णलध्वी, हिमवेताली, शिखीवेताली, मुक्त आलापिनी, चलचाण्डाली और भ्रमर-श्यामांगी, इस प्रकार विद्याधरोंके द्वारा पूजित इन वर विद्याओंके द्वारा वह दोनों श्रेणियोंका परमेश्वर हो गया। आदित्य सहित दूसरे दिन ( रविवारके दिन ) उसने कामको जीतनेवाले दमवर मुनिको पुण्यको उत्पन्न करनेवाला मोजन दिया।
पत्ता-उन चारण मुनिको दिये गये भोजनसे इसी जन्ममें फल प्राप्त हुआ। देवध्वनि, दुन्दुभिस्वर, घनवृष्टि और मेघोंके द्वारा सुरभित जल की वर्षा ॥१॥
८. A डणि पाणि; P बंधणि पाणि । S.AP चियारिणि । १०. A चंडालिनिजव । ११. मायापह; K मायबहू but corrects it to माया । १२. P पण लहई । १३. A तेण गरेसरि । १४. A इह रत्त जि । १५. A सुइ जल ।
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-६१. २. १९]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
अमरगुरुदेवगुरु णामोण सावसरु ।
साहूण पासम्मि। तहिं अमियतेएण सिरिविजयराएण । णियतायजम्माई वणहरणकम्माई। सिलखंभदलणाई दाइजमलणाई। सवधरणकरणाई सणियाणमरणाई। सुरलोयवासाई गरभवविलासाइं। पजिवक्खमहणाई हरिगीवणिहणाई। सिरिमारिभगाई करणरचगमणाई। जर्सेकतिफुरणाई असुरारिरियाई। रिसिणाहकहियाई सोऊण गहियाई । वोहि पि सुवयाई अमयाई सुदयाई । सिरिविजउ तण्हंतु मणि महा कण्हंतु | पुणु फालमाणेण परिवद्रमाणेण | विउलमइ विमलमइ गमिऊण परमजइ । णाऊण मासाउ मोत्तण मासाउ। रवितेय सिरियत्त राईवदलणेत्त। णियणियतणुब्भूय कंदप्पसमय । दोण्हं पि हविऊण फुलमगि थविऊण ।
किसी एक दिन अवसर पाकर अमरगुरु और देवगुरु नामके मुनियों के मोहपाशका नाश करनेवाले सामीप्यमें उन अमिततेज और श्रीविजयने अपने पिताके जन्मों, वनहरण कर्मों (शिलाखम्भको चूर्ण करना, शत्रुओंका मानमर्दन करना, तपश्चरण करना, निदानपूर्वक मरना, सुरलोकमें निवास करना, मनुष्यभवके विलास, प्रतिपक्षोंका मधन, अश्वग्रीवका निधन, श्रीरमपीसे रमण, नरकके लिए गमन करना, यश और कान्तिका स्फुरण, असुर शत्रुके चरित ) मुनिनाथके द्वारा कथनको सुनकर सुनतों और अमित दयाओंको प्रहण कर लिया। तुष्णासे आकुल श्रीविजय मनमें कृष्णत्व (नगरायणत्व) को महत्त्व देता है। विमलमति और विपुलमति परममुनियों को नमस्कार कर, मनो आयु एक माहको जानकर, लक्षमीका आस्वाद (भोग) छोड़कर, कमलदलके नेत्रोंवाले रयितेज और श्रीदत्त नामक अपने कामदेवके समान अपने अपने पुत्रोंका अभिषेक कर, २. १. A दिग्वगुरु । २. A पामेण । ३. P adds after this: अकितिपुरियाइ, असुरारिरियाइ,
which in our text is line 10 below । ४. A जकित्तिफुरियाई । ५. A सबयाई A adds after this: भवभावलमियाई: Kalso writes it but scores it off. ६. A परिवठमाणेण; P परिषड्नमाणेण ! ७. AP पविऊण । ८.AP दोहि पि । ९. A गायिऊण ।
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महापुराण
[६१.२.२०चंदणवणंतम्मि पांदणमुणी जम्मि ।
णिम्मुकम्मम्मि पईसरिवि लहु तम्मि । घत्ता-अहिसिंचिवि पुजिवि परमजिणु वंदिवि भत्तिसमेग्यविज ।।
आहार सरीरु कि परिहरिवि यिहि मि परत्तु जि चिंतविउं ॥२॥
जणियपरपेसणसुणिरवेखु जं घोरसरायकसायसमणु तेरहमाइ कपिमणोहिरामि हुल अमियतेउ रविचूलु देश मणिचूलु णामु सिरिविजन तेस्थु को वणइ ताहं महापहार कालेपा जंबुदीवंतरालि वच्छावइदेसि पहायरीहि पीसेसकलाल उ मणुययंदु तह देविहि देउ वसंधरीहि आवेप्पिणु णंदावत्तणाहु
जंणिण्णासियभवबंधदुक्खु । तं कय तेहिं पाओधमरणु। सुरणंदिय गंदावसधामि । सस्थित णामें अवर वि णिकेउ । सुरवा जायज लक्खणपसत्थु । ते बे वि वीससायरसमार। इह पुम्वविदेह रमाविसालि। णयरिहि वणकीलिय किंणरीहि । णामेण थिमियसायरू णरिंदु। रविचूलु गम्भि थिउ सुंदरीहि । अवराइउ हुई थिरथोरबाहु ।
कुलमार्गमें ( राजगहो ) पर स्थापित कर, जिस चन्दनवनमें नन्दनमुनि थे उसमें प्रवेश कर, निर्मुक्तकर्म उसके पास शीघ्र
घत्ता-भक्ति से प्राप्य जिन भगवान्फा अभिषेक, पूजा और वन्दना कर, आहार और शरीरका त्याग कर दोनोंने परत्व (श्रेष्ठ तत्व ) का चिन्तन किया ॥२॥
जो अपने पराये प्रयोजनसे निरपेक्ष हैं, जिसने संसारके बन्ध और दुःखका नाश कर दिया है, जिसमें घोर कषायका शमन है, उन्होंने ऐसा प्रायोपमरण किया। सुन्दर तेरहवें स्वर्गमैं, देवोंके द्वारा आनन्दित नन्दावतं विमानमें अमिततेज रविचूलदेव हुआ। वहाँ एक और स्वस्तिक नामक विमान था, श्रीबिजय उसमें लक्षणोंसे प्रशस्त मणिचूल देव हुआ। उनके प्रभावका वर्णन कौन कर सकता है। वे दोनों बीस सागरकी आयुवाले थे। समय होनेपर अम्बूद्वीपके लक्ष्मोसे विशाल पूर्व विदेहमें वत्सकावती देशकी जिसके वनमें किन्नरियां क्रीड़ा करती हैं, नगरीमें मनुष्यश्रेष्ठ समस्त कलाओंका घर स्तमितसागर नामका राजा था । उसको देवी सुन्दरी वसुन्धराके गर्भ में वह देव आकर स्थित हो गया। नन्दावर्त विमानका वह स्वामी अपराजित नामसे स्थिर और स्थूल बांहोवाला पुत्र हुआ।
१०. पइसरवि । ११. P समुम्बधित । ३. १.A पावोगमरणु; P पाादगमरणु। २.A पहावरीहि । ३. अमियसायरु; P तिमियसायरु ।
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-६१. ५.३]
महाकवि पुष्पवम्त विरचित घता-मणिचूलु वि मस्थियसुरहर णिवदिवि हुड अणुमइतणउ ।
सो मूहल सोम्मु सुलेक्खणच दपणे जियणीलंजण ॥३॥
परदुजउ केसात मणि गणेवि कोकिस अर्णवीरित भणेवि । पढमह विरएप्पिणु पदृगंधु लहुयहु ढोइवि जुवरायचिंधु । सिंहासणु छत्तई परिहरेवि णिम्मोहभावभावणन लेवि । अरहंतह अविचिंतियपहासु पिर सरणु पठ्ठ सयपहासु । अवलोइवि करथइ णायराउ सिरितण्ड मरिचि फणिदु जाउ । पुरि सुहं वसंति ते वे वि भाइ णडि बवरि अण्णेक वि चिलाइ ! णमंति ताउ ते सहि जियात जा ताम इनोवासति । आयउ णारउ दिग्गयज्ञसे हिं संमाणित ण रसपरवसेहिं । पत्ता-मणि रोसु हुयासणु पनलिष्ठ सह९ ण सकिल चैलियगहि ।।
सो जंतु ण केण थि दिदछु तहिं पवणु चहलु उल्मलिउ जहि ॥४॥
१.
गड रूसिवि सिधर्मदिरपुरासु दमियारिहि विज्जाहरणिवासु । वजरिउ सेणा रयणाई कासु पई मेल्लिवि को महियलि महीसु । वावरिचिलाइणामालियाउ णणि दोषिण बरबालिया।
पत्ता-मणिचूल देव भी स्वस्तिक विमानसे च्युत होकर अनुमतिका पुत्र हुआ। वह सुभग सौम्य सुलक्षण रंगमें नील और अंजन पर्वतको जीतनेवाला था ।शा
mannnn
मनमें बलभद्रको शत्रुओंके द्वारा अजेय समझकर उसे अनन्तवीर्य कहकर पुकारा गया। पहलेको पट्ट बांधकर और छोटेको युवराजके चिह्न देकर सिंहासन और छत्र छोड़कर निर्मोह भावनाका चिन्तन करते हुए वह अचिन्तनीय प्रभाववाले स्वयंप्रभ अरहन्त की शरणमें गया। कहींपर नागराजको देखकर लक्ष्मीको कामनासे मरकर वह धरणेन्द्र हमा। वे दोनों भाई उस नगरीमें सुखपूर्वक रहने लगे। उनकी बर्बरी और किलाती नामकी दो नर्तकियो थीं। जब वे दोनों नाच रही थी और वे दोनों देख रहे थे तभी हार हिम और हास्यके समान कान्तिवाले श्री नारद मनि आये। दिग्गजोंके समान यशवाले रसके वशीभत (नाट्यरस) उन दोनों के द्वारा उनका सम्मान नहीं किया गया।
पत्ता-उनके मन में क्रोधको ज्वाला भड़क उठी। वे उसे सहन नहीं कर सके, आकाशमें जाते हुए उन्हें कोई नहीं देख सका । पवनको तरह चंचल वे आकाशमें उछल गये ||४॥
वह रूठकर दमितारि राजाके निवास शिवमन्दिरपुर गये। उन्होंने वहाँ कहा, "रल किसके पास हैं, आपको छोड़कर धरतीपर और कौन राजा है ? बर्बरी और किलात नामकी दो
४. A मणिचूक्लि । ५. A सुरवरह णिवडिबि ताहि जि हुल तण उ । ६. A सलक्षणठ । ४. १.AP सोहासणु । २. A बलियम्गहि ।
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३९०
१०
परिपुरि अवराइयहु गेहि श्रेणि वि थणभारें भग्गियाउ पहि मंदि आणवहि तुरि अवलोय मंतिमंत संत गय ते विपुरिहि पायरोहि छ तेहि ताई डवट ठु कजु सोणिय डिजुयलउं देहू ताम ता पोसह नियमाल किएण
महापुराण
सं णिणिवि मंति भांति एमा णादाणेण वे होइ मलिणु थिष चिंताहरु णरणाहु जाम सव्वच पण्णतिपहूइयाउ
धन्तः - जिणभवेणथिएण णराहि त्रेण अवराइएण समंतियणु । आछि दिउ तियर्जुयलु कि किन सह तेण रणु ॥५॥
[ ६१.५.४
णं विज्जुलियर अच्छंति मेहि । लक्षणरवइ तुझु जि जोग्गियोउ । रायण वितं नियचिति धरितं । संपेसिय बुद्धिवंत | तणय वसुंधरीहि ।
सहसा
जे व
ज इच्छ संपय विलु रज्जु । दमियारिदेउ रूस पण जाम । जिणपायपोसेवापिषण |
६
खयराहि दुज्जउ समरि देव । विसुणिवि मरेलियणयणवयणु । चिरंभ विजय पत्ताच ताम | teag was
सुन्दर नर्तकी बालाएं प्रभाकरी नगरीके राजा अपराजितके घरमें इस प्रकार हैं, मानो मेघोंमें बिजलियाँ हों। ये दोनों ही स्तनभारसे भग्न हैं। हे राजा, तुम ले लो, वे दोनों तुम्हारे योग्य हैं। मन्त्री भेज दो, वह शीघ्र ले आये ।" राजाने भी यह बात अपने मनमें ठान लि । उसने अपने विद्वान् मन्त्रणा में महात् मन्त्रियोंकी ओर देखा और बुद्धिमान् मन्त्रियोंको भेजा। वे भी उस प्रभाकरी नगरीके लिये गये, जो वसुन्धरा ( धरती ) के लिए प्रिय थी। शीघ्र ही उन्होंने उससे अपना काम कहा कि यदि तुम सम्पत्ति से विपुल राज्य चाहते हो तो अपनी दोनों नर्तकियों दो, कि जिससे हे देव, राजा दमितारि माराज न हो। तब प्रोषषोपवासके नियमसे अलंकृत तथा जिसे farach चरणकमलोंकी सेवा प्रिय है ऐसे एस---
घता - जिनमन्दिर में स्थित राजा अपराजितने अपने मन्त्रीगण से पूछा - "उसे नर्तकीयुगल दे दिया जाये या युद्ध किया जाये ?" ||५||
६
यह सुनकर मन्त्रियोंने इस प्रकार कहा - "हे देव, विद्याधर राजा युद्धमें दुर्जेय है, लेकिन नादान से भी कलंक लगेगा ?" यह सुनकर अपना मुख और आँखें बन्द करके राजा जब चिन्तासे व्याकुल बैठा था, तब उसे पूर्व भवकी अर्जित विद्याएँ प्राप्त हुई । प्रज्ञप्ति प्रभृति सभी
L
५. १. AP जोगियाउ । २. AP आलोय | ३. A मंतमहंत ४ A जे प्रियसुय वहवसुंधरीहि; P जे पिवसहि वसुंधरीहि । ५. AP भचण थिएन । ६. Pतियजमलु ।
०
६. १. APवि । २. AP मठलियवयणणलिणु । ३ AP विभव । ४, AP add after this: जंपति
णवंत सदस्याउ, चिरु सामिहि दासलणु गदाउ को पहण को आग घरेबि ।
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-६१.७.९ ]
महाकवि पुष्पयत विचित चयागेण तेण संतुटू के वि
भायर णियमंति हि रज्जु देवि । गय सिवमंदिरु विस्थारण कवडे णडिवेसायारएण। दरिसित रायहु पडिहारपण जं संजुत्तडं सिंगारएण। दूर्पण कहिउ तं एक राय । को सहाय तुहारा विसमधाय । अवराइएण लइ दिपणु तुज्नु कामिणिजुयलुम उं खीणमझु । पत्ता-ता कडयम उडमणिकुंडलहिं कंचीदाम हिं भूसियउ ।।
दमियारे मायामाणिणिउ सुइसुमहरु संभासियज ॥६॥
करणंगहारबहरसविस? बीयइ दिणि अवलोएवि पटु । वीणाझुणि घणथण मज्झखाम अदुईय धीय कणयसिरिणाम । अप्पिय ताई मायाविणीहिं गाउ सिस्वाविय भाविणीहिं । णचंतिहि तेहि पुणु कामवेसु गाइड अणंतवीरिज णरेसु । कृष्णाइ भणिलं को सो अणिंदु कि किणरु किं सुरु किं फणिंदु । कित्तिमरूवाजीवाइ वृत्त
सो कमरु थिमिर्चसायरहु पुत्त । परमेसरु पहरिपुरिणिधासु अबराइड भायर होइ जासु। उयमिजइ सो मुषणयलि कासु ता कपणहि लग्गल कामपासु ।
सा भणइ मोरकेशारवाद तह दसणु लम्भइ केमे माइ। वशीभूत विद्याएँ शत्रुवध की बात कहती हैं। इस वचनसे वे दोनों भाई सन्तुष्ट हुए और अपने मन्त्रियोंको राज्य देकर, कपटसे नर्तक्यिोंके आकारको बनाकर वे दोनों विस्तारसे 'शिवमन्दिर नगर गये । प्रतिहारीने उन्हें राजा दमितारिको दिखाया। श्रृंगारक दूतने जो उपयुक्त था वह कहा कि हे राजन्, तुम्हारा विषम आधात कौन सहन कर सकता है। लो अपराजितने तुम्हें क्षीण मध्यभागवाली दोनों नर्तकियां दे दी।
पत्ता-तब कटक मुकुट और मणिकुण्डलों तथा कांची दामोंसे विभूषित मायाविनी नर्तकियों से दमितारिने मधुर वार्तालाप किया ॥६॥
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दूसरे दिन करणों, अंगहारों तथा अनेक रसोंसे विशिष्ट नृत्यको देखकर फिर अपनी वीणाके समान ध्वनिवाली मध्यक्षीणा और सघन स्तनोंकी अद्वितीय कनकधी नामकी कन्या उन्हें सौंप दी। उन स्त्रियोंने उसे नाटक सिखाया। उसके नाचते हुए कामरूप अनन्तवीर्य राजा (गीतमें) गाया गया ! कन्याने पूछा -यह कीन राजा है-क्या किन्नर है, क्या देव है या नागेन्द्र ? वेश्याका कृत्रिम रूप बनानेवालो उन्होंने कहा कि वह स्तिमितसागर राजाका पुत्र है, शत्रुपुरीके निवासोंको आहत करनेवाला परमेश्वर अपराजित जिसका भाई है। परतीतलपर उसकी उपमा किससे दो जा सकती है। यह सुनकर कन्या कामबाणसे आहत हो गयी। मयूरको केका वाणीमें वह
५. AP add after this : परिमिय ( P परमिय ) जणेहि णोसरिय थे कि । ६. AP दूयएण। ७. १. A हि आय धीय । २. AP पुण तहि । ३. A ण । ४. तिमियं । ५. AP कण्ह ।
६. P कि ण माइ।
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३९२
१०
५
१०
महापुराण
[ ६१.७.१०
दूसह विरह गिलमाभी
खालहि जाम ण जाइ जीउ ।
यत्ता -ता कवढणडित्तणु अषहरिबि थिउ हरि पायडु तणु करिवि ।। जोति तरुणिणं सिसुहरिणि विद्धी मयणें हुंकरिवि ॥७॥
८
मणि खुत्तु कुमारिहि कामवाणु यि सुंदरि तायडु कपि पेसिय मंडलिय अणेय भेय ते जित्त चित्त रणराइएण सयमेव पन्तु ता चावपाणि फिर बैणि विसर संधंति जान जुझिय बेण्णि वि बहुपहरणे हिं पच्छा पुणु कितिहरहु सुपण तं लेपिणु हरिणा सह जि दिष्णु रिव मारिदि किर चनंति जाम
आरोहविलु विमांणु । पिप
सुर विज्जाहर चंदतेय | हलिया बहिणा अवराइएण । हणु हणु भणंतु अहिमणि दाणि । अंतरि पट्टणुयारि ता । ते केस पेंडिक्सच घणेहिं । मुक रहेंगु णिङ्कुरमुरण । बिर्येतरुरुि बच्छयलु भिष्णु । पयमे चल विमाणु ताम | धत्ता--तापेक्तहिं सचलउ दिसउ समवसरणु अबलोइडं । हरिबलहिं हि मि विभियैवसहि णियविज्ञामुहुं जोइ ||८||
बोली, "हे आदरणीय, उसके दर्शन कैसे हो सकते हैं, उसे दिखा दीजिए कि जबतक असह्य विरहाग्निकी ज्वालासे भीत मेरा जीव नहीं जाता।"
धत्ता-तब नारायण अनन्तवीर्य अपना कृत्रिम नटत्व छोड़कर तथा प्राकृत शरीर धारण कर स्थित हो गये । उसे देखकर वह तरुणी हूँ करके कामसे इस प्रकार विद्ध हो गयी मानो तरुण हरिणी विद्ध हो गयी हो ||७||
..
कुमारीके मन में कामबाण लग गया । ध्वजोंसे चंचल विमान में बैठाकर कुमारो सुन्दरी ले जायी गयी । पिताको यह समाचार दिया गया। उसने युद्धयात्रा प्रारम्भ की। उसने अनेक प्रकारके मण्डलीक तथा सूर्य-चन्द्र के समान तेजवाले देव विद्यावर भेजे। उन्हें जीतकर युद्धशोभी बलभद्र अपराजित और नारायण अनन्तवीर्यने भगा दिया। तब यह अभिमानी दानी हाथमें धनुष लेकर स्वयं 'मारो मारो' कहता हुआ पहुँचा। जबतक वे दोनों अपने सरोका सन्धान करें तबतक दानवोंका शत्रु दमितारि खोचमें आ गया। वे नारायण और प्रतिनारायण सघन प्रचुर शस्त्रों से लड़े। परन्तु बादमें कीर्तिधरके पुत्र कठोर भुजाओं वाले दमितारिने चक फेंका। उसे झेलकर नारायण अनन्तवीर्यंने उसीपर चला दिया। जिससे रक्त गिर रहा है, ऐसा उसका वक्षःस्थल भिन्न हो गया । शत्रुको मारकर जैसे ही वे दोनों चलते हैं, एक पग भी उनका विमान नहीं चल पाता ।
घत्ता - तब सब दिशाओं में देखते हुए उन्होंने समवसरण देखा। विस्मयके वशीभूत होकर नारायण और प्रतिनारायण अपनी विद्याओंके मुख देखने लगे ||८||
८. १. AP विवाणु । २. AP हरिणा । ३. A बहिमाणदाणि; P अहिमाणलाणि । ४. A णिग्गंत रहिए । ५. AP पयमेतु विवाणु ण चलई ताम । ६. AP विभय ।
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-६१. १०.५]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
३९३
सा भणइ महापड विजयकंखु होतड सिवमंदिरि कणयपुंखु । तहु तणच तणल कित्तिहरु राउ एयहु देभियारिहि होइ ताउ । संतियरह सीसु मुरवि राज थिल बरिसमेत्तु परिमुलकार । अच्छइ भो केदलि जाहुं एह भत्तिइ वंदडे बोसट्टदेह। ता सम्बई मवई तहिं गयाई वंदेप्पिणु परमपयपयाई । लायगणवण्णणिज्जियमिती आनविदाच चामीयरमिरीड़। भणु देवदेव प्रियजणणमरणु मई दिट्ठः किं सुहिसोयकरणु । तं सुणिवि कहइ समसत्तुमित्तु भुवणत्तयणराईवमित्तु। धत्ता-इह दीवि भरहि संखघरपरि वणि देविलु चक्कलथाणिय ॥
बंधुसिरि परिणि गुणगणणिलय सुय सिरिदत्त ताइ जणिय ॥५॥
१०
पुणु कुंटि' पंगु अण्णेक वीण अण्णेक बहिर ण सुणइ याय अण्णेक एकलोचणिय जाय लहबहिणित करुणे तोसियाउ वणि संख महीहरि सीलबाहु
णिलक्षण हुई हत्थहीण । खुज्जी अण्णेक विमुखाछाय । पिठ मुम काले गय मरिवि माय । छ वि पय पई घरि पोसियाउ। अवलोइल सव्यसंकु साह ।
anrammamme
तब विजया कहती है कि शिवमन्दिर नगरको विजयका अभिलाषो राजा महाप्रभु कनकपुंख था। उसका पुत्र कीर्तिधर राजा है, इस दमितारिका वह पिता है। यह राज्य छोड़कर शान्तिकर मुनिके शिष्य होकर, एक वर्ष तक कायोत्सर्गसे स्थित रहे हैं। अरे कायोत्सर्ग में स्थित वह केवली हैं। जाओ और भक्तिसे इनको वन्दना करो। तब सब भव्य वहाँ गये । परमात्माके चरणोंकी वन्दना कर सौन्दर्य और रूपमें लक्ष्मीको पराजित करनेवाली स्वर्णश्रीने पूछा- "हे देवदेव बताइए, मैंने सुधीजनोंके शोकका कारण अपने पिताका मरण क्यों देखा।" यह सुनकर शत्रुमित्रमें समान भाव रखनेवाले बोले
पत्ता-इस द्वीपके भरत क्षेत्रमें शंखपुर नगरमें देविल नामका वणिक था। उसकी गोल स्तनोंवाली बन्धुश्री नामको परनी थी। उसने गुणसमूहको घर श्रीदत्ता नामकी कन्याको जन्म दिया ||२||
फिर बौनी लँगड़ी एक और दोन लक्षणशुन्य और हाथसे होन हुई । एक और बहरी थो, जो बात नहीं सुनती थी। एक और कान्तिसे रहित, बात नहीं सुनती थी। एक दूसरी एक आँखवाली कन्या उत्पन्न हुई। पिता भर गया और समय आनेपर माता भी मरकर चली गयी। करुणासे परिपूर्ण होकर तुमने इन छहों कन्याओंका घरपर पालन-पोषण किया। वनमें शंखपर्वत
९. १. AP दमयारिहि । २. AP केवलि भो । ३, AP भणइ । ४. A भरह । १०.१. A कुंट; P कुट्टि । २. AP सच्छवि । ३, A सच्चजसंक ।
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३२४
महापुराण
[६१. १०.५
पालिय अहिंस वयोण तासु अण्णेक्कु धर्मचक्कोववासु । दिण्ण सुव्वयखंतियाहि दाणु आहारवमणि विदिगिछठाणु । सम्मत्ताभावे कयउ बालि मोहेण पडइ जणु जम्मजालि ।
सोहम्मसग्गि सामण्णदेवि होइवि मुय माणुसदेह लेवि । १० हूई व मियारिहि तणिय पुत्ति जं दिट्ठी पिठख यदुहपवित्ति ।
धता-तं वयणीवमणविणिंदणटु फलु पई सुइ अणुहुँजियखं ।।
हियउल्लघं जणणहु रणि वडिउ दिएर रुहिरे मंडियं उं ॥१०॥
११
तं णिसुणिवि हरि बल णिय घरासु गय कण्ण लेदि पहेयरिपुरासु । गोबिंदतण कइकामधेणु . सिवमंदिक गयउ अणंतसेणु । रिउसुन तं तह पइसहं ण देति । करवालहि मूलहिं उत्थरति । कंचणसिरियहि संरंभगाद भायर सुघोस पर विज्जदाद । आवेप्पिणु चवलाजहकरेहि ते चे वि णिहय हरिहलहरेहि। सोयरिंग दड्डु सरीररुक्षु असई ति सबंधवपल्यदक्व । बलकेसन पस्थिवि गय कुमारि जिणु णविवि सर्यपहणाणधारि ।
सुप्पहहि पासि थिय संजमेण गणणिहि संतिहि कहिए कमेण । पर शोलबाह और सर्वपशोक साधुके दर्शन किये। उनके उपदेशसे उसने अहिंसा धर्मका पालन किया ! तया एक और धर्मचक्र उपवास किया। सुव्रता नामक आयिकाको दान दिया। उसने आहारको वमन कर दिया ( लेकिन ) सम्यक्त्वके अभाबमें (आपिकाके द्वारा) आहारवमनको उस बालाने घृणाका स्थान माना। जन मोहके कारण जन्मजाल में पड़ते हैं। सौधर्म स्वर्ग में सामान्य देवी होकर, यहाँसे मरकर मनुष्य शरीर धारण कर वह दमितारिकी पुत्री हुई और इसलिए पिताके विनाशके कारण दुःख प्रवृत्ति उसने देखी।
पत्ता-उस आर्या सुव्रताके वमनको निन्दाका फल उसने भोगा। और युद्ध में मारे गये अपने पिताको रक्तसे सना हुआ देखा ॥१०॥
११
यह सुनकर बलभद्र और नारायण कन्याको लेकर अपने घर प्रभाकरीपुरोके लिए चले गये । गोविन्दपुत्र, कवियों के लिए कामधेनु अनन्तसेन शिवमन्दिरके लिए गया । लेकिन शत्रुपुत्रों (सुघोष और विद्यदंष्ट्र) ने उसे नगर में प्रवेश नहीं करने दिया। वे तलवारों और शूलोंको लेकर उछल पड़े। हिंसाके संकल्पसे दुनु ये दोनों कनकीके श्रेष्ठ भाई थे। तब अपने हाथों में चंचल आयुध लिये हुए उन दोनों ( बलभद्र और नारायण ) ने उन दोनोंको मार डाला। उस ( कनकधी) का शरीररूपी वृक्ष शोककी आगसे जलकर खाक हो गया। सम्बन्धियोंके विनाशका दुःख नहीं सह सकने के कारण बलभद्र और नारायणसे प्रार्थना कर ( अनुमति लेकर ) कनकधी ज्ञानधारी स्वयंप्रभ मुनिको प्रणाम कर उपदिष्ट क्रम और संयमके साथ शान्त सुप्रभा आयिकाके
४. K धम्मु। ५. AP यिजिगिछ। ६. A तें वइणीव'; P तं वइणीव । ७. AP अणुइंजिन ।
८. AP रंजिय। ११. १, AP पपरपुरासु।
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-६१. १२. ११] महाकवि पुष्पदन्त विरचित
सोहम्मि अमरु हूई मरेवि गवधि हि घ बसि कोवि ! खग माणव दाणय जिणिवि समरि णारायण सीरि पइट णयरि । घसा-बलए विजयासुंदरिहि हुई सुय णाम सुमइ ।
कंकेलिपल्लवारत्तकर पाडलपिल्लयमंदगइ ।।११।।
१२
णियमियदुइममणवारणासु घर आयउ दमवरचारणासु । संपुण्णु अण्णु दिपण समिद्धे पंचच्छेर उ पत्ती पसिर्छ । विट्ठी पिउणा सुय दिपणदाण णवजोवण हवे सोहमाण । संणिहियसयंवरमंडचंति देसंतरायणररायति । जोवह वर जा किर रह वरस्थ तावच्छर चयइ वरंबरस्थ । हलि दिलिदिलिए ण भरहि काई पई मई मि सगिंग भणियाई जाई । जा पुवमेव ण लइद णिजम्मु सा इयरहि अक्खन परमधम्मु । सुणि विहिं मि भतरु कह मि माइ पुक्खरवरपुस्विल्लभाइ ! भरहे गंदेउरइणं सुरिंदु
णामेण अमियविकमु गरिंदु । तहु अस्थि अजंतमइ ति भज वरकइविज्जा इच जणमणोज ।
धणसिरि अणंतसिरि सहि सुयाउ उ तुह बैषिण वि सुललियभुयाउ । पास स्थित हो गयी। मरकर वह सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुई। यहाँ धरतोको चक्रसे जोतकर तथा विद्याधर, मनुष्य और दानवोंको युद्ध में जोतकर बलभद्र और नारायण नगर में प्रविष्ट हुए।
धत्ता-बलभद्र और विजयासुन्दरीसे सुमती नामको सुन्दरी हुई। अशोक पल्लवोंके समान आरक्त हाथोंवाली और बालहसके समान गतिबाली ॥११॥
जिन्होंने मनरूपी दुर्दम पजको वशमें कर लिया है ऐसे घर आये हुए दमवर चारण मुनिको उसने सम्पूर्ण और समृद्ध आहार दिया। वहाँ पांच आश्चर्य प्राप्त हुए। दान देनेवाली कन्याको पिताने देखा कि वह नवयौवनवती और रूपसे शोभित है। जिसमें देशान्तरके राजाओं और मनुष्य राजाओंको कान्ति है, ऐसे उस नवनिर्मित मण्डप में रथवरपर बैठो हुई वह वर देखती है तो आकाशमें स्थित एक अप्सरा उससे कहती है-हे कन्ये, यह तुम्हें याद नहीं आ रहा है कि जो मैंने और तमने स्वर्गमें कहा था कि जो पहले मनुष्य जन्म नहीं लेगा वह दूसरेसे परमधर्म कहेगा। हे आदरणीय सुनो, दोनोंके जन्मान्तरका कथन करता हूँ। पुष्कराध द्वीपके पूर्वभागमें भरतक्षेत्रके नन्दनपुरमें सुरेन्द्र के समान अमितविक्रम नामका राजा था। उसकी अनन्तमती नामकी भार्या थी, जो वरकविको विद्याको तरह लोगोंके लिए सुन्दर थी। उसको मैं और तुम दोनों सुन्दर भुजाओंवाली धनश्री और अनन्तश्री नामकी कन्याएं थीं।
२. AP दाणव माणव । ३. AP सवरि । ४. APणाराण । १२. १. AP संरक । २. A समिदु । ३, A सिट्ठ । ४. A सरहिं । ५. A नृजम्मु । ६. P गंदरिहि ।
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महापुराण
[ ११.१२. १२धत्ता-वणि सिद्धमहागिरि गंपि हलि गंदणमुणिवरपयजुयलु ॥
वंदेप्पिणु बैंड उववासतउ चिण्णलं दुधरु गलियमलु ॥१२॥
१३
वजंगल पामे ससंहरा
सहि आयल करथइ तिउरणाहु । कताइ कुलिसमालिणिइ सहित अम्हई णियंतु मारेण महिउ । गउ णियपुरि णियपणइणि थवेवि कामावर पडियागज बलेवि। बेणि वि जणीय संचालियाउ णं से कुवलयमालियाछ । आयासि जाम धायद तुरंतु ता दिट्ठष्ट तेण कलत्तु एंतु। भत्तारचित्तगइ संभरंतु
ईसाकसायबसु विप्फुरंतु । णिकरणें दादुप्पेल्लियाउ भीएण वेणुवणि धलिया । परिहरियभीमवणयरभयास तहिं बेणि वि संणासे मुयाउ । घत्ता-ण कंदु ण मूलु ण फलु ण दलु अहिलसियर पनि पि वणि ।।
जो सच सासयसिद्धिया परमजिणेसर धरिवि मणि ॥१२॥
हउँ णवमी आईडलहु देवि हूई तुहु माणुसतणु मुएवि। में रह पवर फ्रुबेरणारि
दीसरजत्तहि दुक्खहारि। मंदरयलि दिवस परियतिक्खु दिहिसेणु णाम पणवेषि भिक्खु ।
पत्ता-हे सखो, सुनो सिद्धिमहागिरि पर्वतपर जाकर नन्दन नामक मुनिवरके चरणकमलोंको प्रणाम कर कठोर तथा मलनाशक उपवासतपस्पी व्रत ग्रहण किया ॥१२॥
वहाँ चन्द्रमाके समान कान्तिवाला त्रिपुरका स्वामी बचांगद नामका विद्याधर राजा कहींसे आया । हमें देखकर यह कामसे पीड़ित हो उठा। अपनी पत्नीको अपने घर छोड़नेके लिए वह गया और कामातुर वह शौन वापस आ गया। उसने हम दोनोंको इस प्रकार उठा लिया मानो हंसने कुवलयमालाको उठा लिया हो । जैसे ही वह आकाशमें दौड़ा कि उसने तुरन्त अपनी पत्नीको आते हुए देखा। अपने पसिको गतिको याद करते हुए और ईर्ष्या कषायके कारण तमसमाते हुए। देवसे प्रेरित निष्करुण उस भयावहने हमें घेणुवनमें फेंक दिया। जिन्होंने भीषण वनधरोंके भयको छोड़ दिया है, ऐसो हम दोनों वही संन्यासपूर्वक मर गयों।
पत्ता-शाश्वत सिद्धि देनेवाले योगीश्वर परम जिनको अपने मन में धारण कर हम लोगोंने उस वनमें न कन्द, न मूल, न फल और न दल कुछ भी न चाहा ॥१३॥
मैं नौवें स्वर्गमें देवी हुई। दू मनुष्य शरीर छोड़कर कुबेरकी रति नामको देवी हुई। दुःखका हरण करनेवाली नन्दीश्वरको यात्रामें मन्दराचलपर चरित्र में तीक्ष्ण तिसेन नामक मुनिको देखा । उन्हें प्रणाम फर हम लोगोंने पूछा कि सिद्धत्व ( मोक्ष ) कम प्राप्त होगा ! मुनिने
१३. १. A सहसबाह । २.
मालिणए । ३. AP यह पेल्लिया |
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-६१. १५. ६ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित पुच्छिड सिद्धत्तणु कम्मि कालि होसइ रिसि भणइ भवंतरालि। चोत्था णित्थरह भवक्षिणोरु । तं सुणिषि कण्ण बिहुणिवि सरीरु। आउपिछवि हरि घल बे वि वाय वंदिवि सुव्वयसंजइहि पाय । णिवकुमरिहि सहुं सहि सरहिं पावन लक्ष्य भूसियवरहिं । एयारहमइ दिवि सुहणिहाणि सुरवरु हुई पाणावसाडि | केसवु महि मुंजिवि फम्मणटि रयणप्पहवसुहाधिवरि पडिष्ट । सुउ रजि थवेषि अर्णत सेणु जसहरगुरुचरणयुरुहि लीणु । तब चरिवि सीरि विहडियकसाउ सोलहमइ सम्गि सुरिंदु जाए । घत्ता-पिड जायउ जो उरयाहिवइ तासु पासि दसगरयणु ॥
पावेपिणु परयहु णीसरिउ सो अणवीरियउ पुणु ॥१४॥
१५
भरहम्मि एत्थु विजयाचलि दि उत्तरसे ढिहि धवलहररुदि। पाहवल्लहपुरि घणयाहु राउ घणमालिणिवरकतासहाउ। घणवणउ जायउ वाहं पुत्तु घणणाहु णाम णवणलिणणेस्तु । सो सयलस्खयरखोणीव ईसु मंदरणदणवणि णमियसीसु। पण्णत्तिविज संसाहमाणु अध्चुयणा बोहिउ सणाणु ।
सम्मत्तु लएप्पिणु तिमिरणासु णिक्खंतु सुरामरगुरुहि पासु। बताया कि चौथे जन्मान्तरमें संसाररूपी समुद्र के जलसे तुम लोग तर जाओगी। यह सुनकर कन्या (सुमति ) अपना शरीर कपातो हुई, नारायण और बलभद्र पितासे पूछकर, सुअता आर्यिकाके चरणोंको प्रणाम कर व्रतोंसे भूषित सात सौ राजकुमारियोंके साथ प्रवजित हो गयो। प्राणोंका अन्त होनेपर वह सुखके निधान ग्यारहवें स्वर्गमें देव हुई। कर्मोसे प्रतारित केशव, नारायण, रत्नप्रभा नामक नरकमें गया । अपने पुत्र अनन्तसेनको राज्यमें स्थापित कर यशोधर महामुनिके परणकमलोंमें लोन होकर और तपश्चरण कर विघटित कषाय श्री बलभद्र सोलहवें स्वर्ग में सुरेन्द्र हुए।
पत्ता-उनका पिता स्मितसागर धरणेन्द्र हुआ। उसके पाससे सम्यग्दर्शनरूपी रत्न पाकर अनन्तवीर्य नरकसे पुनः निकला ॥१४॥
इस भरत क्षेत्र में विजया पर्वतकी उत्तरश्रेणी में धवल गृहोंसे विशाल नभवल्लभ नगरमें मेघमालिनी नामक सुन्दर कान्ता जिसकी सहायक है, ऐसा मेघवाहन नामका विद्याधर राजा था। वह ( अनन्तवीर्यका जीव) उन दोनोंका मेधके समान वर्णवाला तथा नवनलिनके समान नेत्रवाला मेघनाद नामका पुत्र हुआ। समस्त विद्याधर भूमिका स्वामी मेघनाद मन्दराचलके नन्दनवन में सिर झुकाये हुए प्रति विद्या सिद्ध कर रहा था। अज्ञानी उसे अच्युतेन्द्रने सम्बोधित किया। तिमिरके नाशक सम्यक्त्व को लेकर और देव तथा अमरोंके गुरुके पास संन्यास लेकर, १५. १. A नृवकुमरि हि; P णित्रकुरिहिं । २. K प्राणावसाणि । ३. P असहरचरणबुरुहे णिलोणु ।
. AP दसणु रयणु । ५. P बोरित। १५. १. A परिण उ । २. A पणत्त । ३. P अणाणु; K अणाणु bur corrects it to सणाणु ।
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महापुराण
[६१. १५.७अण्णहि दिणि गर गंदणगिरिदु थित पडिमाजोएं मुंणिवरिंदु । हयकंठमाइ णामें सुकंछु
संसार भमिवि दुक्खोहिददछु । जायर भीमासुरू सरिवि वेरु आढत्तु तेण मुणि मेरधीरु । अवसग्गहु ण चला कि पि जाम सई लज्जित गज रिद गयणु ताम | रिसि साहिवि आराण अमंदु अच्चुइ इंदह हूयद पडिदु । इह दीवंतरि सुरदि सिविदेहि मंगलवइदेसि विचितगेहि । पत्ता-पुरि रयणसंचि मणिचे घाइप थिर आचंचियारिपसरु ।।
राणउ खेमंकरु दीदकर धीमहंतु उद्धरियधर ॥१५।।
१६
तह कणयचित्त णामेण देथि दहि जण इंद पहिंद बे वि। जोया हियमाणिणिहिययसार वज्जाउह सहसासह कुमार | सिरिसेणहि सुख सहसाउद्देण जणियड णेहु व कुसुमालछेण । णियसंति णामु सुरणाहमाहिउ खेमकर प्रत्तपउत्तसहिउ। जांवच्छह ता दिवि वसत्यु पभणइ मुवि को सईसणस्थु ।
अण्णहिं वैषिणउ कुलिसाउहासु णिम्मर्दू सम्मत्तु गुणावयासु । दूसरे दिन वह नन्दनपर्यंत पर गया और वह मुनिवरेन्द्र प्रतिमायोगमें स्थित हो गया। अश्वग्रीवका भाई सुफण्ठ दाखसे आहत और संसारका परिभ्रमण कर भीम असरहा। पूर्वभवका स्मरण कर मेरुपर्वतके समान धीर उन मुनिसे उसने शत्रुता शुरू कर दी। परन्तु जब वह मुनि उपसर्ग अरा भी विचलित नहीं हुए तो वह यात्रु स्वयं लज्जित होकर आकाश में कहीं भी चला गया। मुनि मी अनन्त आराधनाको साषकर अच्युत स्वर्गमें इन्द्रका प्रतीन्द्र हुमा। इसी द्वीप (जम्बूढोप) की पूर्वदिशामें ग्रहोंसे विचित्र मंगलावती देश है।
पता-मणियोंसे शोभित रस्तसंचय नगरमें शत्रुओंके प्रसारको रोकनेवाला बुद्धिमें महान धरतीका उद्धार करनेवाला क्षेमकर नामका राजा था |॥१५॥
उसकी कमकचित्रा नामको देवी थो। उससे इन्द्र और प्रतीन्द्र दोनों मानिनियोंके हृदय सारका अपहरण करनेवाले वायुध और सहस्रायुष कुमार उत्पन्न हुए। सहस्रायुधको श्रोषेणसे इन्द्रसे पूषित कनकशान्त नामका पुत्र, वैसे ही हुआ जैसे कामदेवसे स्नेह उत्पन्न हुआ हो। इस प्रकार जब पुत्र और पौत्रों सहित क्षेमकर राजा रह रहा था, तब स्वर्गमें देवसमूह कहता है कि पृथ्वीपर सम्यकदर्शनमें कौन स्थित है ? दूसरे देवोंने कहा कि गुणोंसे युक्त वषायुधको निर्मल सम्यक्रव प्राप्त है। यह सुनकर चित्रचूल नामका सुरवर जिसके शिखर आकाशको चूम रहे हैं
Y. AP जयवरिंदु । ५. AP संसारि । ६. P दुक्खेहि दट्ट । १६. १. A वहि गंदणु अमचुवईयु ए पि । २. A reads this line and 3das; बजाउहणा तिजय
सार, तें परिणिय सिरिमाणं कुमार, वीए जणियर सहसाउह कुमाह। ३. AP को भुवि । ४. । भणि । ५. A णिम्मले।
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-६१. १७. १०
माह की दुनिया तं णिसुणिवि सुरवर चित्तचूलु आयउ णिवघर गहलग्गचूलु । जिणजेद्वतणुमधु मणिउ तेण अण्णण्णु होइ तिहुवणु खणेण!
धत्ता-ण अस्थि तो वि दीसइ पयह जिह सिविणउ तेलोक्कु विह॥ ___ लइ सुष्णु जि णिच्छ उ आवडिउं कहि अच्छइ गय दीवसिंह ॥१६॥ १०
तं सुणिषि भणइ पविपहरणक्खु अण्णाणहं दुकरणाणचक्खु । जइ अबेर जि खणि खणि होइ सव्वु तो किं जाणइ जणु णिहिल व्छ । पज्जायारूढी सव्वसिहि
आउँचिन हत्थु जि होइ मुट्टि। अण्णयविरहिउं जि जगु भणंति खकुसुमे ते सससिंगे हणति । जइ सिविणु व तनु परोवहासि तो सिविणयभोयणि किं ण धासि । ५ जइ सुण्णतहु दीवधि जाइ तो खप्परि कजलु केमै थाइ तं सुणिवि पबुद्धत सुरु बउद्ध संसह तुहुँ गरवणाणसुद्ध । को करइ बप्प पई सहुँ विवाउ अरहंतु भडारड जासु ताउ । धत्ता-गउ चित्तचूलु सणिलणाहु इंदचंदफणिपरियरिउ ।।
खेमकर पढमहु तणुरुहहु अप्पिवि वसुमइ णीसरि ॥१७॥ ऐसे राजभवन में आया। उसने जिनके बड़े लड़के ( वज्रायुष ) से कहा कि त्रिभुवन एक पलमें कुछका कुछ हो जाता है।।
पत्ता-यपि वह नहीं है, तो भी वह प्रत्यक्ष रूपमें दिखाई देता है, जिस प्रकार स्वप्न { दिखाई देता है ) उसी प्रकार त्रिलोक । लो शून्यको शून्य ही निश्चय रूपसे ज्ञात हुबा, गयो दीप शिखा कहां रहती है ? ||१६||
१७
यह सुनकर वसायुध कहता है कि अज्ञानियोंके ज्ञानचक्षु कठिन होते हैं। यदि सब कुछ क्षण-क्षणमें कुछका कुछ हो जाता है तो लोग रखे हुए धनको किस प्रकार जान लेते हैं ? समस्त सृष्टि पर्यायोंपर आश्रित है। संकुचित्त हाथ मुट्ठी बन जाता है। जो विश्वको एक दूसरेसे ( द्रव्य पर्याय ) रहित कहते हैं वे आकाशके फूलको खरगोशके सींगसे मारते हैं। हे परोपहासी ( दूसरोंका उपहास करनेवाले ), यदि तत्त्व भी स्वप्नकी तरह है, तो तुम स्वप्न में किये गये भोजनसे तृप्त क्यों नहीं होते ? यदि दीपकी शिखा शून्यस्यको जाती है तो खप्परमें काजल कैसे पाड़ा जाता है ? यह सुनकर वह क्षणिकवादी बौसदेव प्रबुद्ध हो गया और प्रशंसा करने लगा कि हे देव, हे राजन्, तुम ज्ञानसे शुख हो। हे सुभट, तुम्हारे साथ विवाद कोन करे कि जिसके पिता आदरणीय बरहन्त हैं ?
पत्ता--चित्रचूल देव. अपने घर चला गया और इन्द्र, चन्द्र और नागोंसे घिरा हुआ क्षेमकर अपने पहले पुत्रको घरतो सौंपकर चला गया ॥१७॥
1. A नृपधक । ७. AP सुण्णज णिच्छत । १७. १. AP जह सणे खणे मन जि होइ । २. P खकुसुम । ३, AP कि ण थाई। ४. A सुरु पबुद्ध; P
सुफ बबुद्ध ।
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४००
महापुराण
[११.१८१.
स
घर मेल्लिवि वणि थिउ मुकगतु रायाहिराउ णिवूढमाणु गोमिणिकामिणि अणुटुंजमाणु । बजाउहु अवइपणइ वसंति जलि रमइ सुदंसणसरबरंति । तडिदाढ़े घिरमववइरिएण दुकम्मभावसंचारिएण। खयरेण णायपासेण बधु विडलइ सिलाइ सह संणिरुद्ध । सा तेर णिहय दतकरयलेण गय सयपैलु णारि व रयमलेण । रिटणासिवि गह भयभीयजीउ णियधरि पट्ट कुलहरपईड। बसिकयसुरणरविबाहरासु णवणिहि चलदहरयणाई ता। घरु आय गविहरिवि भाशु पार गहयर एक पवण्णु सरणु । पत्ता-तहु अणु आगय असियरखयरि चवइहणमि को मई धरइ ।।
पहरणफल थविर अवरु अइड मिषहु सवझ्यरु बजरइ ।।१८।।
इह परिसि स्वगायलि अरिहमत्त तह देषि जसोहर वाउवे तेस्थु जि पुरु किंणरगीउ अस्थि तहु सुय सुकंत महुँ तणिय कंत
सबैमहपुरि पह इंदयत्तु । हर पुसु पुण्णसंपुण्णतेउ । सहि चित्तचूलु खगु जसगभस्थि । बहुतंतभंतबिहिबुद्धिवंत ।
मुक्त शरीर वह घर छोड़कर वनमें स्थित हो गया और समय बीतनेपर वह अरहन्त अवस्थाको प्राप्त हुआ। अपने मानका निर्वाह करनेवाला राजाधिराज परती और लक्ष्मीको भोगता हमा वधायुष वसन्त ऋतु आनेपर सुदर्शन नामक सरोवरमें जलमें कोड़ा कर रहा था। पूर्वजन्मके शत्रु और दुष्कर्मभावसे संचारित विशुदंष्ट्र विद्याधरने उसे नागपाशसे बांधा और विशाल चट्टानसे उसे अवक्त कर दिया । उस चट्टानको उसने अपने दृढ़ करतलसे आहत किया, वह उसी प्रकार सौ टुकड़े हो गयो जैसे रजस्वला स्त्री रक्तमलसे लाजके कारण टुकड़े-टुकड़े हो जाती है। भयसे भीत जोव शत्रु नष्ट होकर चला गया। वह कुलगृहका दीपक अपने घर आया । जिसने मनुष्यों और देवोंको विद्याओंको अपने वश में कर लिया है, ऐसे उसके घर नौ निधियों और चौदह रत्न माये । एक विद्याधर मरणके भयसे उसके घर शरण आया ।
वत्ता-उसके पीछे हाथमें तलवार लिये हुए एक विद्याधरी आयी और बोली कि मैं मारूंगी, कोन मुझे पकड़ सकता है ? एक और बूढा विद्याधर हाथमें पिधार लेकर आया और राजासे अपना वृत्तान्त कहने लगा !|१८||
९
इस भारतवर्ष में विजया पर्वतके शुकप्रभ नगरमें अर्हद्भक्त राजा इन्द्रदत्त है। उसकी देवी यशोधरा है। उसका मैं पुण्यसे सम्पूर्ण तेजवाला वायुवेग नामका पुत्र हूँ। उसी देशमें किन्नरगीत नगर है। उसमें यशको किरणोंवाला विद्याधर राजा चित्रचूल है। उसकी कन्या १८. १. AP सहसा गिराक्ष । २. A सयदण । ३. AP पियपुरि | Y. AP मई को । १२. 1. A अरुह ।
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४०१
-६१. २०.४] महाकषि पुष्पदन्त विरचित
ओइच्छइ तुह पयणय विणीय संतिमइ णाम महुँ तणिय धोय । विजासाहणि थियवणयरासु उवगय मुणिसायरगिरिवरासु। किर साह इच्छियसिद्धि जाव गुरुविग्धु पउंजिट एण नाव । सं अवगणिवि मृगलोयणाइ सिद्धी देषय जाणिवि अणाइ । आरूसिवि कढिज मंडलग्गु एह वि लंधिय गृहमंडलग्गु । आवेप्पिणु सुजल पइट गेहि हउँ पुन्ज लेवि खे भमियमेहि। आगच्छामे का माहेररित्ति ता पेच्छिवि णहि धावति पुत्ति । इह आयल अक्खिल तुज्झु राय पेक्खहि परिरक्वहिणायछाय । गंभीरघोरवइराण
तं सुणिवि वुस्तु वजाहेण । पत्ता-ह दीपरावयविझरि विझसेणु णामें पिवई ।।
णामेण सुलक्खण मिगेणथण तहु रायाणी हंसगइ॥१||
Mmwwwww
Amnia
२० तहुँ गंदणु णामें लिगकेट ___णं घिउ पररूवं मयरके! तेत्थु जि पणिवर णामें सुमित्तु सिरिदत्त कंत तणुरुह सुदत्त । पीयंकरिणामें तासु भन्न
साहित्ती णिवतणएं मणोज । महिलाविरहेण मुर्णिदवासि रिसि हुन सुदत्तु सुखयहु पासि । सुकान्ता मेरो कान्ता है। बहुतसे तन्त्र-मन्त्रोंको विधि और बुद्धिसे युक्त शान्तिमतो नामको मेरी कन्या जो आपके चरणों में विनीत है, विद्या सिद्ध करनेके लिए जहाँ वनपर स्थित हैं ऐसे मुनिसागर नामक पर्वतपर गयी हुई थी। जबतक यह इच्छित सिद्धिको सिद्ध करती तबतक इसने भारी विघ्न किया। उसकी उपेक्षा करके मगनयनीने विद्या सिद्ध कर ली। इसने यह जानकर और क्रुद्ध होकर अपनी तलवार निकाल ली। यह भी आकाशमण्डलका अग्रभाग लांघकर और आकर तुम्हारी शरणमें प्रवेश कर गया। में पूजा लेकर, जिसमें बादल घूम रहे हैं, ऐसे आकाश जबतक पर्वतकी भूमिपर आता है, तबतक आकाशमें पुत्रीको दौड़ते हुए देखता हूँ। में यहां आया हूँ और आपसे कहा है । आप इसे देखें और न्यायके प्रभावको रक्षा करें। गम्भीर घोर शत्रुषोंको ललकारनेवाले वज्रायुधने यह सुनकर कहा
पत्ता-इस जम्बूद्वीपके ऐरावत क्षेत्रमें विव्यनगर है। उसमें विन्ध्यसेन राजा है । उसकी सुलक्षणा नामकी मृगनयनी तथा हंसको चालवाली रानी है ॥१२॥
२० उसका नलिनकेतु नामका पुत्र है, जो मानो मनुष्य के रूपमें कामदेव हो। वहींपर सुमित्र नामका बनिया था, उसकी श्रीदत्ता परनी थी और सुदत्त पुत्र था। उसकी प्रोतकरी नामकी मार्या थी । उस सुन्दरीका राजाके पुत्रने अपहरण कर लिया। पत्नीके विरहमें वह जिसमें मुनीन्द्रोंका
२. A सुक्क । ३. P मिग । ४. AP हि मंडल । ५. Pणायणाय । ६, AP णिसुपिति ।
७. यह । ८. A सलक्षण । ९. K मूग । २०.१. AP पीइंफरि । २. A नृवसथएं ।
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४०२
महापुराण
[ ६१. २०. ५मंतिनि हुन्मर मंदपायु संणासे गई ईमाणकप्पु । जंबूदीवंतरि कच्छदेसि वेयड्ढा उत्तरसेढिवासि । पुरि कण्यतिलइ णं पुण्यदु णामें महिंदविका खगिंदु । तहु पणइणि णामें गोलवेय सुरु मेलिवि सुरतणु अमियतेय । चिरु वणि सुदत्तु जो दुक्खरीषु । सो तहि सुउ जायउ अजियसेणु । इंदीवरदलसंकासणेत्तु । जे हित्तर वणितणयहु कलत्त । सीमकरसूरिहि पविवि पाय तज चरिवि धोरु चूरिवि कसाय । णियक्षिण णिदिवि णायणेउ गउ मोक्खहु सोणिवे णलिणकेउ । पत्ता-पीइंकरि सुव्वयसंजइहि पासि मुएप्पिणु घरणियलु ।
चंदाराणु चरिवि पसण्यामइ मय पक्खालिपि पावमलु ॥२०॥
१०
ईसाणि देवि तित्थाउ आय संतिमइ तुहारिय धीय जाय । इल अजियसेणु चिरवरु दुलंधु विजउ साह तिहि करइ विग्घु । इय णिसणिवि कण्णइ पुध्वजम्मु । खेमंफरणाहस पासि धम्मु । संतिमई सुगथपियक्खणाहि हुई सीसिणिय सलक्खणाहि । देवत्तु लहेप्पिणु बीयसम्गि संचरइ जाम गयेणयलमगि । ता पेक्खा जो णरजम्मि ताल सो जिणव जायज वाउवेट ।
वास है, ऐसे सुव्रतके निकट मुनि हो गया । दुर्मद काममदका क्षय कर संन्याससे वह ईशान स्वर्गमें गया। जम्बूद्वीपके अन्तर्गत कच्छ देशमें विजयाध पर्वतकी उत्तर श्रेणी में स्थित कनकतिलक (कांचनतिलक) का विद्याधर राजा महेन्द्रविक्रम था, जो मानो पूर्णचन्द्र था। उसकी प्रणयिनी नोलगा थी। अमिततेज देव जो पहले दुखसे क्षीण सुदत्त नामका वणिक् था, वह उसका अजितसेन नामका पुत्र हुआ और जिसने कमलके समान नेत्रोंवाली वणिपुत्रकी पत्नीका अपहरण किया था। सीमन्धर स्वामीके चरणोंमें प्रणाम कर तथा घोर तपश्चरण कर, कषायोंको चूर-चूर कर, अपने पापोंको निन्दा कर तत्त्वोंको जाननेवाला वह राजा नलिनकेतु मोक्ष गया।
पत्ता--प्रसन्नमति और प्रीतंकरी भी सुबला आर्यिकाके पास धरिणीतल को छोड़कर चान्द्रायण तपकर तथा पापमलका प्रक्षालन कर मृत्युको प्राप्त हुई ॥२०॥
ईशान स्वर्गकी देवी प्रीतकरी { प्रोतकरा ) वहाँसे आयी और शान्तिमती नामसे तुम्हारी पुत्री हुई। यह अजितसेन पूर्वजन्मका दुर्लभ वर है जो विद्या सिद्ध करतो हुई इसे विघ्न कर रहा है। इस प्रकार अपना पूर्वजन्म सुनकर क्षेमकरस्वामीके निकट कन्या शान्तिमतो सुशास्त्रोंमें पारंगत आर्यिका सुलक्षणा को शिष्य हो गयी। दूसरे स्वर्ग में उत्पन्न होकर जब वह आकाशतलमें विचरण कर रही थी तो वह देखती है कि जो मेरे पूर्वजन्मके पिता वह वायुवेग जिनवर हो
३. AP हुन । Y. A परिणवियु; पुणियंदु । ५. A अभियसेणु । ६. A नृत; P णिज । ७. A
पोइंकर । ८. AP मय । ९, A पायमल्छु । २१. १. AP तुहारी । २. AP इस शिसुणेपिणु अप्पणन जम्मु । ३. AP गयणमगामग्गि ।
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महाकवि पुष्पदन्त विरचित
जिह सोहि अवरु वि अजियसेणु रयणत्तयजलघुय कम्मरेणु । थुसर्या पसंसिवि वरगिरेण देवि वि संसार चित्त काणदणदिजं दाणि
9
पत्ता - खगमद्दिद्दरदाद्दिणपतियहि सिवमंदिर घणवाणहू ॥ विमलादेविहि संभूय सुय कणयमाल सँपसाहणहु ||२१||
२२
-६१. २२. ९ ]
संगरभर मारियखत्तियासु गुणमणिकुलहरासु वसुसारयणयरि समुहसेण बोहि मिस गड गहणंतरालु विमलपणा त्थु साहु निसुणेवि तहु पावज्ज लइय नारिहि में चल भइ जणियसंति सिद्धाय काओसग्गु देवि अवियाणियसमचित्तें जडेण
बेfor वि वंदिय पणमिय सिरेण । जिम्मि कि केम चित्तु सररज्जि पचबूढमाणि ।
I
दिण्णी वसुहाविणत्तियासु । सोवण्णसंतिणामहु वरासु । राहु जयसेण वसंतसेणं । घोळंतणीलदल वे लिजालु । अबलोइट णाणजलोहवाहु | सरणिहिं तेण विमुकादश्य । आसंघिय विमलमs त्ति खंति । विणि वि थियाई मणि जोड लेवि । त्रिज्जाहरेण बरुम्भडेण ।
४०३
१०
गये हैं। जिस प्रकार वह उसी प्रकार दूसरा अजितसेन भी रत्नत्रयरूपी जलसे कर्मरजको धो चुका है। उसने सैकड़ों स्तुतियों और उत्तम वाणी तथा नम्रांसरसे दोनों की वन्दना की। उसने विचार किया कि संसार विचित्र है, जिनधर्म में चित्तको क्यों न किया जाये ? जिसमें कन्यापुत्रों और दीनोंको दान दिया जाता है ऐसे चक्रवर्ती राज्यके बढ़नेपर
पत्ता - विजयार्थं पर्वतको दक्षिण श्रेणीके शिवमन्दिर नगर में सैन्ययुक्त मेघवाहन और मलादेवीके कनकमाला नामकी पुत्री हुई ॥२१॥
२२
जिसने संग्राम समूहमें क्षत्रियों को मारा है, जिसने गुणरूपी मणियोंसे कुलगुद्दोंको आलोकित किया है, ऐसे राजाके नाती कनकशान्ति नामक वरको कन्या दी गयी । वसुसार नगर (बस्वोकसार ) के समुद्र राजाकी जयसेना और वसन्तसेना स्त्रियां थीं वह उन दोनोंके साथ गहन वनके भीतर गया कि जहाँ हरे-हरे पत्तोंवाला लताजाल आन्दोलित हो रहा था। वहाँ उसने ज्ञानरूपी जलसमूहको धारण करनेवाले विमलप्रभ नामक मुनिको देखा। उनसे तर सुनकर उसने अपनी गृहिणियोंके साथ, जिसमें पत्नी का त्याग किया जाता है ऐसी दीक्षा ग्रहण कर ली । स्त्रियोंने मी अविचल मति एवं शान्ति देनेवाली विमलमति नामकी अधिकाकी शरण ग्रहण की। सिद्ध-शिलासलपर कायोत्सर्ग करते हुए वे तीनों मनमें योग धारण कर स्थित हो गये। जो
४. AP बैणि वि पर्णादवि बंदिवि सिरेण । ५. A देवें; P देखिए । ६. AP वाहिणसेवियहि । ७. AP सुसा
२. १. A adds after this: तह शुभ उप्पणी वरभुएण, सा पुणु परिणिय पहुसुयसुएन । २. AP निच्चलमा ।
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४०४
१.
महापुराण
[६१. २२.१०लहुपणइणिमेहुणएण ताई।
उबसग्गु रइड तीहि मि जणाई। सजिउ खरिद असिगहेण गउ चिप्सचूलु णासिवि णहेण । घत्ता-णिवसुयस कणयसंति णिवह कणयमाल परिसेसिपि ।।
आहिंडइ महिलि सुद्धभणु अप्पन नविण विहूसिवि ।।२२।।
रयणउरइ राणस रयणसेणु ते तदु भयवंतहु दिण्णु दाणु । अण्णे वणि अच्छंतु संतु आदत्तु इणई कम्मई खवंतु । एयह दोह मि मुणिवर समाणु संजायल केबलि तिजगभाणु । देवागमु पेक्खिवि हीणु दीणु पुणु मुणिवरकमकमलयलि लोणु । सो स्खलु वसंतसेणाहि सयणु पणविउ हिरिभावोणम वयणु । णियणत्तिष्ठ णिएवि अर्णतणाणि णिविण्णउ रइसुहि चमपाणि । खेमंकरतायहु पासि दिक्ख मणि धरिवि असेस वि समयसिक्ख । सिद्धइरिहि लेप्पिणु वरिसजोउ थिउ देहविसग्ग मुकमोउ । वत्ता-संशायद पंचमहन्वयई पंचहि पंचे जि भावण ॥
पंचमगइणिवलपिहियमइ परिगयपंचेदियपणउ ।।२३।।
१०
समचित्तको नहीं पहचानता ऐसे जड़ और वेरसे उद्भट छोटी पत्नी वसन्तसेनाके मामाके लड़के वित्रचूलने उन तीनोंपर उपसर्ग किया। विद्याधर राजाके द्वारा तलवारसे धमकाया गया चित्रचूल आकाशमार्गसे भाग गया।
घसा-नृपसुतका सुत अर्याद कनकशान्ति कनकमालाको छोड़कर, शुद्धमन तथा स्वयंको तपसे विभूषित कर धरतीतलपर भ्रमण करते हैं ।।२२।।
रत्नपुरमें राजा रत्नसेन था, उसने ज्ञानवान् उनको आहारदान दिया। एक और दिन जब वह वनमें कर्मोका क्षय करते हुए विद्यमान थे तो उसने (चित्रचूल देव ) उपसर्ग करना शुरू किया। लेकिन वह मुनिवर इन दोनों ( अर्थात् आहारदान देनेवाले राजा रत्नसेन और उपसर्ग करनेवाले चित्रचूल ) में एक समान थे। वह त्रिजगसूर्य केवलज्ञानी हो गये। देवागम देखकर बहू देव दीन-हीन हो गया और मुनिवरके चरणकमलोंमें लीन हो गया। वसन्तसेनाके मातुलपुत्र दुष्ट उस चन्द्रचूलने लज्जाभावसे विनत होकर उन्हें प्रणाम किया। बचायुध भी अपने नातीको केवलज्ञानी देखकर रतिसुखसे विरक्त हो गया। पिता क्षेमंकरके पास दीक्षा लेकर और मनमें समस्त शास्त्र शिक्षा धारण कर सिद्ध पर्वतपर एक वर्षका योग लेकर मुक्त भोग वह कायोत्सर्गमें स्थित हो गया।
पत्ता-वह पांच महावतों और उनकी भावनाओंकी भावना करता। उसकी मति मोक्षमें अचल थो और पांचों इन्द्रियोंके प्रेमसे वह उन्मुक्त था ॥२३॥ २३. १. AP मुणियरु । २. A हरिवाहोणवल्लवमणु । ३. AP पंच वि ।
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-६१. २४.१०]
महाकवि पुष्पयन्त विरचित
४०५
चिरु हरिगीवहु सुथ धम्मभट्ट णामें रयणाउह रयणकंठ । संसारु भमेपिणु जाय देव पहरंति पाव तं सावलेव। आयइ रंभाइ तिलोतिमाइ णिन्मच्छिय वंदियजइकमाइ । अइबलु समहाबलु खणि पलाणु पाविट्ठा कासु ण भग्गु माणु । सहसाउछेण सयवलिहि रज्ज ढोइवि ववसिउ परलोयकज । बेउ लक्ष्य पिहियास वढ्न पासि मझ रमाण संतहु गेहवासि । वईभारमहोदति सिद्धटागि विधि कापसाणि । वज चरिवि तहिं जि रिसिजुवलु मयउं उबरिमगेवजहि णवैरि गयर्ड। घत्ता-एकूणतीससायरसमई बेपण वि सहूं मुंजत थिय ।।
भरहूवरिंगामि हिमअहिमयर पुप्फयंतसुरणियर पिय ॥२४॥
स्य महापुराणे विसद्विमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयतविरइए महामश्वमरहाणमणिए महाकचे वजाउहचकवष्टिवागणं णाम
एकसहिमो परिच्छेत्री समत्तो ॥६॥
पुराने अश्वग्रीवका धर्मभ्रष्ट पुत्र रत्नायुध और रलकण्ठ पुत्र संसारमें परिभ्रमण कर देव उत्पन्न हुए। पाप सहित वे दोनों उसपर प्रहार करते हैं। वहीं रम्भा और तिलोत्तमा आदि देवियों आयीं और यतिवरके चरणोंको वन्दना करनेवाली उन्होंने उसकी भर्त्सना की। वह अतिबल महाबल के साथ एक क्षणमें भाग गया। किस पापीका मान भंग नहीं हुआ। सहस्रायुधमें शतबलीको राज्य देकर वह परलोककाजमें लग गया। उसने पिहितास्रवके पास व्रत ग्रहण कर लिया। सन्तकी मति गृहवास में नहीं रमती थी। ऋद्धियों के स्थान वैभार पर्वतपर योगका अन्त होनेपर उसने अपने सुधो पिता सहस्रायुधको देखा। वहां तपका आचरण कर वे दोनों ऋषियुगल मृत्युको प्राप्त हुए और सिर्फ उपरिमग्नेयक विमान में उत्पन्न हुए।
पत्ता-बे दोनों उनतीस सागर प्रमाण समय तक सुखका भोग करते हुए स्थित रहे । वे भरतक्षेत्रके ऊपर चलनेवाले सूर्य-चन्द्र-नक्षत्र और सुरसमूहके लिए प्रिय थे ॥२४॥
इस प्रकार ग्रेस महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त, महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा रचित एवं महामन्य मरत द्वारा अनुमत महाकाव्यमें वसायुध चक्रवर्ती-वर्णन
मामका इकसठवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥२१॥
२४.१. AP संसारि । २. K Bउ। ३. AF दइभारि महीहरि सिद्धिठाणि | ४, P मुम। ५. AP
गवर । ६. A महिमस्य । ७. AP पुष्पदंत ।
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५
१०
संधि ६२
पढnata fres इ
तहिं घर पहु सयमहणमिउ हु देवि मोहर तुंगथणि बाहु जो अहमिंदुहुउ aणुतेओहामियभारह सहसा अमर मणोरमह चित दणु संगिड भायर बिहिं मि कमभाणियल एकहि दिवुड्डु त अवरेकाहिं दिणि सुसेण गणिय सामु कुकुडुलेवि गय पपिक्खि पक्खक्खहिं द्दण्इ
सुरगिरिपुःषविदेइ || परपुंडरिंगिणपुरि || ध्रुवकं ॥
१
तिहुयणसिरिरमणी पापि । गलकंदललंबिया र मणि । संभू गभि सो ताहि सुत | हकारिताएं मेहरहु | वजहि आयउ सुहसमइ । सो सजणेहिं ददरहु भणिज । पियमित सुमइ वरणियत । ture रसेणु वराणणच । पियमित्तद्दि घर कोडावणिय | भासह वेविहि पण मंति पय । किंवा एहु जो रणि जिणइ ।
सन्धि ६२
१
जम्बूद्वीप में जहां मेघ स्थिर हैं ऐसे सुमेरुपवत के पूर्वविदेहमें पुष्कलवती देशके पुण्डरीकणो नगरवर में धनरथ राजा था जो इन्द्रके द्वारा प्रणम्य और त्रिभुवनकी लक्ष्मीरूपी रमणीका प्राणप्रिय था। उसकी उन्नत स्तनोंवाली तथा जिसके गले में मणियों का हार लटकता है ऐसी मनोहरा नामकी देवी थी। जो वज्रायुध अहमेन्द्र हुआ था, वह उसके गर्भ से पुत्र उत्पन्न हुआ । अपने शरीर के तेजसे सूर्यरथको तिरस्कृत करनेवाले उसे पिताने मेघरथके नामसे पुकारा। मैवेयक विमान से शुभ समय में मनोरमा के गर्भ में आया। उस नृपकान्ताने पुत्रको जन्म दिया। सज्जनोंके द्वारा उसे दृढ़रथ कहा गया । उन दोनों भाइयोंकी कमसे कही गयीं प्रियमित्रा और सुमति रानियाँ थीं। एकसे नन्दिवर्धन पुत्र हुआ। दूसरोमे सुन्दर मुखवाला वरषेण । एक और दिन प्रियमित्राकी दासी सुषेणा कुतुहलसे भरी हुई घनतुण्ड मुर्गा लेकर देवीके घर गयो और पैरोंमें प्रणाम कर बोली, "जो प्रतिपक्ष अपने पंखों और नखोंसे इसे आहत करता है और युद्धमें इस मुर्गेकी जीतता है -
१. १.AP थिए । २. K प्राणपि ३. APकिंताणंदणु ।
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-६२. २. १२ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित पत्ता-दिल्लइ सालंकारह ताई सहस्सु दोणारई ।।
एह दत्त णिसुणेपिणु अवर वि पक्खि लएप्पिणु ॥ १॥
१५
कुलिंसाणणु कुकडु कंचणिय अक्खइ सुमइहि घरकामिणिय । गाडेण वि जिप्पड़ पहुए वि जुड़े तहु संकइ गणि रवि। ता हरिसे वाइय जयवाह खंजय णचंति लडमडह। तहिं आया धणरह मेहरह दढरह वरसेण णदि सुमैह । पियमित्तसुमइकरयलपुसिय चिरजम्मणिबद्धवइरिवसिय । जुझंति पक्खि ते पबल बल चंचेलचंचुचरणारेचल। उल्ललणवलणपरिथत्तहिं पेहुणसिरसिहरवियत्तणहिं । रोसुद्धयकंधर केसरय
जं के विण ओसरंति सरय । तंताएं पुच्छिल मेहरा
संबोहहुं भन्नजीवणिवहु । किं तंबचूल जुझंति सुय भणु अवहिवंत सग्गग्गचुय । धत्ता-कहइ कुमारु सुहावह एत्थु दीवि अइरावद ॥
सपडजीवि तिहार र पारावर ॥२॥
पत्ता-उसे अलंकारों सहित एक हजार दोनारें दी जायेंगी।" यह बात सुनकर दुसरी भी ( सुमतिको दासी कांचना ) अपना पक्षो ( मुर्गा ) ॥१॥
वज्रतुण्ड लेकर सुमति की गृहदासी बोली कि यह गाड़के द्वारा भी नहीं जीता जा सकता। उड़ते हुए इससे आकाश में सूर्य शंकित हो उठता है । सब हर्षसे विजयके नगाड़े बना दिये गये, सुन्दर वामन कुब्जक नाचने लगे। वहाँपर घनरथ, मेघरथ, दुहरथ, वरसेन और तेजस्वी नन्दिवर्धन आये । प्रियमित्रा और सुमतिके हाथोंसे पोसे गये तथा पूर्वजन्ममें बांधे गये वैरके वशीभूत होकर प्रबल बलवाले तथा अपनी वक्र चोंचों और पैरोंसे चंचल वे दोनों मुर्गे उछलना, मुड़ना, घूमना तथा पूंछसे सिरके शेखरको धुमाना आदिसे युद्ध करने लगे। क्रोधसे कांपते हुए कन्धों और केशरक ( सिरके बाल ) याले और चिल्लाते हुए जब वे मुर्गे नहीं हटे तो पिताने मेघरथसे भव्यजीवोंके सम्बोधनके लिए पूछा, "ह पुत्र, ये मुर्गे क्यों लड़ते हैं। हे स्वर्गसे च्युत अवविज्ञानवाले तुम बताओ।"
पत्ता-कुमार बताता है-यहाँ इस जम्बूद्वीपमें सुखास्पद ऐरावत क्षेत्र है। उसके रलपुर नगरमें गाड़ीसे अपनी आजीविका चलानेवाले दो लालचो भाई रहते थे ||२||
४. A सहासु । ५. AP अबरु । २. १. P परि कामिणिय । २. AF कुज्जय। ३. A गंविपमुह । ४. AP बदररसिम। ५. A चरणा
चवल । ६, AP केम विणोसरति ।
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४०८
महापुराण
[ ६२. ३. १
पहरेषि परुप्पर कविणमुय बलिषा कारणि कोवजुय । णामेण पसिद्धा भर धणि ते बे वि मरेप्पिणु तेत्थु धेणि। बहुपुंडरीयपंचाणण
कंचणसरितीरइ काणणइ। सियकण्ण तंबण्ण ति गय संजाया पुणु जुन्झेवि मुंय । कोसलणयरिहि गोडलियघरि जाया सेरिह णववयहु भरि। एप्पिणु जुज्झेप्पिणु खयहु गय तेत्थु जि पुरि कुरैर पलद्धजय । परसेणसत्तिसेणहं णिवह अग्गइ जुज्झिवि उझियकिवह । ए यूलि पहूया संभरमि
भउ पेक्खालुअहं मि वज्जरमि। वीथाइदीवि खगसिहरि परि उत्तरसेढिहि कणयाइपुरि । १० खगु गहलवे दिहिसेण प्रिय सुय चंदविचंदतिलय सुहिय ।
पत्ता-कुसुमालुद्धईदिदिरि सिद्धफूडजिणमंदिरि॥
जइवरु तेहिं णियच्छिउ णियजम्मतह पुच्छिउ ॥३॥
घिउ लछणु धावइविडवि नहिं सुरधिसि अइरावइ तिलयपुरि जिह तिहगेहिणि चणसिलय
रिसि अक्खा धादइसंडि तहिं । पह अभयघोसु सिरि तासु उरि । प्यावइ राणाहहु रविलय ।
-..--.-rvvyur-
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.
बेलके कारण क्रोधयुक्त होकर कठोर बाहुवाले भद्र और धन्य नामसे प्रसिद्ध वे दोनों मरकर वहीं जिसमें बहुत-से व्याघ्र और सिंह हैं, ऐसे कांचननदीके तटपर वनमें श्वेतकर्ण और ताम्रकर्ण नामक गज हुए और पुनः युद्ध करके मर गये। अयोध्या नगरमें एक ग्वालाके घर नववयसे युक्त भैंसे हुए । आकर और युद्ध कर विनाशको प्राप्त हुए, फिर उसी नगरमें आधे पलमें जीतनेवाले मेढ़े हुए। क्या रहित वरषेण राजाके सम्मुख वे दोनों लड़कर ये मुर्गे हुए हैं । मैं याद करता हूँ और देखनेवालोंके पूर्वभव कहता हूँ। जम्बूद्वीपके विजया पर्वतपर कनकपुर नामका नगर है। उसमें विद्याधर गरुड़वेग और उसकी पत्नी धूतिषणा थी। उसके दिवितिलक और चन्द्रतिलक नामके अच्छे हृदयके मित्र थे।
___ घत्ता-जहां भ्रमर फूलोंपर लुन्ध हो रहे हैं ऐसे सिद्धकूट जिनवर मन्दिरमें उन्होंने एक मुनिको देखा और उनसे अपने जन्मान्तर पूछे ।।३।।
ऋषि कहते हैं-जिसमें धातकी वृक्षका चिह्न है, ऐसे पातकोखण्ड द्वीपकी पूर्वदिशामें ऐरावत क्षेत्र है। उसमें राजा अमयघोष था। जैसे उसके हृदय में लक्ष्मी थी, वेसे ही उसकी
३. १.AP वणि । २. A तंवकणत गय। ३. मय । ४. A उत्रय लद्धजय; Pउरर पलबजय;
Tकुररम मेघी, Kकुरर मेषो. पलमजय प्रलब्धजयो । ५. AP लिय हया । ६. AF"सिहरिसिरि। ७. AP पिय । ८. A कुसुमलुद्ध ।
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- ६२. ५.४ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
मयरद्धयबाणैवरोलियहि जानें जगि जाणिय जय विजय विनादरगिरिवाहिण तहि
संखु खयरु त जय परिणि दिपणी जयविजय व्यहु संच्छरति कयवणिलय पण सुवण्णतिलयहि तण आहि जाहूं जोयहि वि मे व जोory किंण सुहं धत्ता - ताहि वयणु अवगण्णिवि गउ महिवर वणजत्तहि
जाया सुबेणि पिलियहि । णं कामदेव निम्मेयरधय । मंदरपुर सर तर्णालि | सुय पुतळय ससिमुहि तरुणि । चहु अब तदिध । णामेण विसारि चंद तिलय | aणु फुलि फैलिय णघण | ता वइ सवत्ति विरुद्धमइ । जें जो यहि दूयहि तणवं मुहुं । पडिवक्खु जि बहु मणिवि । विमा
||४||
साड़ीण काहि भत्तारदय करपंक लुहियभालतिलय रिसिणाहरु संजमवयधरहु अबलोइवि पंचमहमुयई
५
सुमईगणिणिहि सा सरणु गय । तवचरणि लग्ग वुई तिलय । पणा किं भो दमबरहु । सुर किंणरणाय रायथुयई ।
४०९
१०
स्वर्णतिलका नामकी गृहिणी थी जो मानो कामदेवकी रतिकामिनो यो । कामदेव के बाणोंकी पंक्ति उस प्रियासे दो पुत्र उत्पन्न हुए जो जगमें जय-विजयके नामसे जाने जाते थे, जो मानो मकरध्वजसे रहित कामदेव थे । विजयार्धं पर्वतके दक्षिण तटपर जिसमें नट मधुर नृत्य करते हैं। ऐसे मन्दरपुर में शंख नामका विद्याधर राजा था । उसकी जया नामकी पत्नी थी और पुत्री पृथ्वीतिलका जो तरुण और चन्द्रमुखी थी। वह जय-विजयके पिता ( अभयघोष ) को दी गयी । उसमें अनुरक्त उसे कुछ और अच्छा नहीं लगता था। एक वर्ष तक वे कपटगृहमें रहे। तब चन्द्रतिका नामकी दूती उससे कहती है कि स्वर्णतिलका के उपवन में खूब फूल और फल लग गये हैं। आइए और उसे देखने चलिए । तब विरुद्धमति सौत ( पृथ्वीतिलका ) कहती है, "क्या मेरा यौवनरूपी वन शुभ नहीं है ? जिससे दूती (चन्द्रतिलका) का मुख देखना चाहते हो ।"
पत्ता - उसके वचनों की उपेक्षा कर प्रतिपक्षको ही मानकर तथा उस मृगनेत्री के मानको मलित कर राजा वनयात्राके लिए चला गया || ४ ||
५
प्रिय की दया किसीके लिए भी स्वतन्त्र नहीं होती ( अर्थात् पतिको दयापर किसीका एकाधिकार नहीं होता ) । वह ( पृथ्वीतिलका) सुमति नामकी आर्थिकाकी शरण में चली गयी । अपने हाथसे उसने मस्तकका तिलक पोंछ डाला और तपश्चरणमें लग गयी। राजा अभयघोषने संयमदरके धारी मुनिनाथ दमदरको आहारदान दिया। सुरों, किन्नरों और नागराजोंसे संस्तुत
४. १. AP बाणविरोल्लियहि । २. AP णं मयरधय । ३ AP मंदिरपुरि । ४ A कि । ५. AP कइवयलिय ६. A फलियतं पण घण P फलिउं घणघणलं । ७. A वृष । ८. A जं जीयहि P जैं जाहि । ९. K मृगणेसहि ।
५२
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४१०
महापुराण
अप्प मोहे ण विडंबियर ससुरण वर जि अवलंबियम् । इंदियपडिबलु रणि णिजिय अरहतणामु तेणज्जियां। मुख सन्मावें सम्मयणिर
हुउ अंतिमकप्पि पुरंदरन्छ । सिसु तासु बे वि तेत्थु जि अमर जाया अच्छरकरधुयचमर । दिवि मरिवि बे वि ते भाइवर तिलयंतिम चंद षिचंद गर । भुवि जाया गालवेयर
जाख्या सजियथणहि । तं सुणिवि कुमारहिं बोलियर्ड मुणि जम्मसर सम्वेलियर्स । भणु अभयघोसु उप्पण्णु कहि पिउ वसइ जहि जि गच्छामि तहि । जइ चवइ पुंडरिंकिणिपुरिहि शंदणु घणमालिणिसुंदरिहि । पत्ता-तणु मेल्लिवि तियसाहित लायउ तेलुकाहि ।।
जो सके पणविजय सो जिणु किं वणिज्जइ ॥५||
तहिं अच्छा देउ सबंधुयणु जोयंतु कूडकुक्कुडयरेणु । परिभमणणमणसहाणणिहि चितंतु घोरसंसारविहि । दिश्वास एहउ षजरि
तं सुणिवि खयरमायर तुरि । गय वेणि वि चिरजणणासयहु पयडेप्पिणु अग्गइ जणसयहु। ५ तायत्तणु तहु ससुयत्तण ___ कम्माणुबंधविणियतणई। पांच आश्चर्योंको देखकर उसने अपनेको मोहसे विखण्डित नहीं होने दिया। अपने पुत्रों के साथ व्रत ग्रहण कर लिये । इन्द्रियरूपी शत्रुओंको उन्होंने जीत लिया। उसने अर्हत् प्रकृतिका बन्ध किया । सम्यग्दर्शन में निरत वह सद्भावसे मर गया और अन्तिम स्वर्गमें इन्द्र हुआ। उसके वे दोनों पुत्र भी जिनके ऊपर अप्सराओं द्वारा धमर ढोले जाते हैं, ऐसे देव हुए। वे दोनों भाई स्वर्गमें मरकर चन्द्रतिलक और विचन्द्रतिलक नामसे, जिसके स्तन केशरको जटिलतासे मण्डित हैं, ऐसी गरुड़वेगा धन्यासे उत्पन्न हुए। मुनि द्वारा प्रकट किये गये जन्मान्तरको सुनकर कुमारोंने पूछा-मुनिवर बताइए अभयघोष कहाँ उत्पन्न हुए? जहाँ पिता हैं, हम वहीं जायेंगे ? मुनिवर कहते हैं-पुण्डरीकिणी नगरीकी रानी मेघमालिनीका पुत्र
पत्ता-देवराज शरीर छोड़कर त्रिलोकराज हो गया है। जो इन्द्रके द्वारा प्रणम्य है, उन जिनका वर्णन किस प्रकार किया जाये ? ॥५॥
वह देव इस समय बन्धुजनोंके साथ कूट कुक्कुटोंका युद्ध देखते हुए, जिसमें परिभ्रमण नमन और उड़ान को विधि है, ऐसी घोर संसार विधिका विचार करते हुए वहीं पुण्डरीकिणो नगरमें स्थित हैं। दिगम्बर मुनिने यह कहा कि वे दोनों विद्याधर भाई यह सुनकर अपने पुराने पिताके घर गये। सैकड़ों लोगोंके सामने उनका पुत्रत्व सहित पिताका कर्मानुबन्धका ५. १. AP अरहंतु । २. AP वे वि तासु । ३. P जानडुयं । ४. A गमछामु; P गच्छमि । ५. AP
तइलोक्का। ६. १. A रयणु।
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-६२. ७.६]
महाकवि पुष्पदन्त विचित गुणवंतहु गुत्तिगुत्तमण
बैध लइउ णविवि गोबद्धणहु । गय णिव्वाणहु खरतवसवण ते चंदविचंद तिलय सवण। भउ णिसुणिवि पक्खि हि कंदियउं अपाण गरहिउ णिदियउं । किमिपिडु ण भविउ मरिवि गय जिणवयर्ण दुछियवेजिय ।। वेंतरसुर जाया भूयकुलि तहिं एक देववणि गिरिगुहिलि । अण्णेक्कु भूयरमगंतवणि भूयाहिव बेणि वि पत्त खणि । तहि जहि अच्छे सुर घणरहहु संदरिसियविमलणाणपहहु । पत्ता--भणिउ तेहिं जडपविखहिं अम्हे हि किमिउलभक्निहिं ।
तुझ पसाएं आयर्ड दिवभवंतर जायउं ॥६॥
मेहरहदेव पई दिण्णु सुहं आवहि विमाणि आरुहहि तुहुँ । मणुउत्तरमहिहरपरियरि सरसरिकुलसिरिअलंकरिउं । पणयाललक्वजोयणविलु अवलोयहि मणुयखेत सयलु । उवयारह पडिउवयार किह तुह किज्जइ जसु जगि रिद्धिसिह । दुल्लंघु सदेवई दाणवई अहिवंदणिज्जु वरमाणवहं ।
ता इच्छिवि कीलाभवणु मणि आरुढ उ सुंदर सुरभवणि । निवर्तन प्रकट कर गुणवान गुप्तियोंसे गुम मन गोवर्धन मुनिको प्रणाम कर उन्होंने व्रत ग्रहण कर लिये । प्रखर तप करनेवाले वे दोनों चन्द्रतिलक और विचन्द्रतिलक श्रमण निर्वाणको प्राप्त हुए। अपने जन्मान्तरोंको सुनकर पक्षियोंने आकन्दन किया और स्वयं की गहाँ एवं निन्दा की । उन्होंने कृमियों के समूहको नहीं खाया। वे मर गये। पापरूपी लतासे आहत वे दोनों जिनवरके शब्दोंसे भूतकुलमें व्यन्तरदेव हुए। उनमेंसे एक देबबनकी गिरिगुहामें और दूसरा भूतरमणवनके भीतर। ये दोनों भूत राजा एक क्षणमें वहां पहुंचे जहाँ विमल केवलज्ञानको प्रभाको प्रगट करनेवाले पनरथका पुत्र था।
पत्ता-कृमिफुलका भक्षण करनेवाले उन जड़ पक्षियोंने कहा कि आपके प्रसादसे हमलोगोंका दिव्य जन्मान्तर हुआ है और हम यहाँ आये हैं ।।६।।
हे मेघरथ देव, तुमने सुख दिया है। आओ, तुम विमानपर चढ़ो, मानुषोत्तर पर्वतसे घिरा हा सर सरित् कुल पर्वतोंसे अलंकृत पैंतालीस लाख योजन विशाल इस समस्त मनुष्य लोकको देख लो। तुम्हारे द्वारा जगमें जिसकी ऋखिका प्रकर्ष किया जाता है उस उपकारका प्रतिकार क्या हो सकता है ? देवताओं सहित दानवोंको जो दुलंय है और जो उतम मनुष्योंके द्वारा बन्दनीय है । ऐसे वह अपने मनमें कोड़ा भ्रमणको इच्छा कर देव विमानमें बैठ गया । अपने मित्रों,
२. K 3 1 ३. A दुश्क्षिय वेणि हय; P दुश्वियवेल्लिहय । ४, AP सुन अग्छ । ५. A अहह ।
६. AP विष्नु । ७. 1. AP विवाणि । २. P मणुमुत्तर । ३. P परियरठं । ४. AP सरिसर । ५. P तो।
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४१२
महापुराण
[ ६२.७७
णियंसहयरकिंकरगुरुसहिउ कुकुठदेविहिं भत्तिइ महि । यहि सुरहरि जंति विविहपुरई दावंति देव देसतरई । धत्ता-एड भरहु अवलोयहि इहु हिमपंतु विवेयहि ॥
पह दिव्व गंगाणइ. पद सिंधु मंथरगइ ।।७।।
इहु दोसइ णिम्मलु पोमसरु सिरिवेविस हिज जियभमरु । इइमवैड पहु पूरियदरिष्ठ बररोहियंरोहियाससरिउ । तुहिणईरि पहु गरुयल अवरु अण्णेक्कु महासयवत्तसरु । हिरिदेवि एत्थु णिच्चु जि वसई हरिवरिसु एउ सरगु वि हसह । इहु एत्थु वहइ णामेण हरि अण्णेक्कु पेक्खु हरिकंतसरि । इई मदर ए गयदंतगिरि इहु सुरकुरु उत्तरकुरु सँसरि । इहु णिसहु णाम महिहरु पत्र इह जीवहिणि विगिछिसक । दिहि देवि एत्थु विरइयभवणे अच्छइ सुररायणिहामण।
एयाई विदेहई दोणि पिय सरि सीया सीओया वि थिय । १० इहु णीलिहि केसरि णाम ददुहुँ दीसह कितीवेविस हुँ । अनुचर और गुरुजनों सहित उसकी कुक्कुट देवोंने भकिपूर्वक पूजा को। आकाशमें देवविमानमें जाते हुए, देव विविध नगर और देशान्तर दिखाते हैं।
पत्ता-इस भरतक्षेत्रको देखो। इसे हिमवन्त (हैमवत क्षेत्र) जानो। मह दिव्य गंगा नदी है, और यह मन्दगामिनो सिन्धु नदी है ||७||
यह निर्मल पा सरोवर है, जो श्रीदेवोसे सहित और भ्रमरों से गुंजित है । घाटियोंसे भरा हुआ यह हैमवत पर्वत है, ये श्रेष्ठ रोहित और रोहितास्या नदियाँ हैं । यह दूसरा महान् हिमगिरि है, और दूसरा महापग्रसरोवर है, इसमें हो देवी नित्य रूपसे निवास करती है। यह हारवर्षे है, जो स्वर्गका उपहास करता है ? यहाँ हरि नामकी नदी बहती है और दूसरी हरिकान्ता नदी देखो। यह मन्दराचल है। यह गजदन्त गिरि है। यह नदियों सहित उत्तरकुरु और दक्षिणकुरु है । यह निषध नामका विशाल पर्वत है । हे राजन् ! यह तिगिच्छ सरोवर है। यहां तिने अपना भवन बना रखा है। सौधर्म स्वर्गके इन्द्र में अपना मन करनेवाली वह स्थित है। हे प्रिय, ये दोनों विदेह हैं और ये सोता और सीतोदा नदियां स्थित हैं। ये नील और केशर नामके सरोवर हैं,
६. AP गित सहयर । ७. A विविप्फुरई । ८. K संतई । ८... Mss. reads एह and इस promiscuously here 1 २. A रंजिय । ३. A हामवर ४. ?
रोहिणि रोहियास व सरित । ५. A तुहिणयरि । ६. Preads this line after 8b. ७. A सुर कुछ । ८. A ससिरि । ९, AP मवणु। १०. A सुप्रराय । ११. AP पिहितमणु। १२. A सिक । १३, A Rो दीसर; P पह दोसइ । १४. A सुद्ध ।
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४१३
-६२.९.११]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित इह रम्मु एउ गइणारिवर णरकत पह पपइ अपर । इहु रुम्मिधराहरू पुंडरित सरु एत्थु देव पाणियभरिसे। ___ धत्ता-बुद्धिदेवि इह अच्छा जगि माणउ जो पेच्छा।
जिवरसेवासिद्ध तेण णयणफलु लद्धः ।।८।।
णिव खेत्तु हिरण्णवंतु णियहि सोवणकूलसरिजलु पियहि । रुप्पय कूल वि इइ एम गय जहि कुद्धहि सीहहिं हथि हय । सो एहु सिहरिगिरि सिहरपिउ सरु एत्थु महापुंडरित हिस। लच्छीदेविहि रुख रमा
ओहध्छइ इह वासरु गमई । रत्तारत्तोयसरिहिं सहि
अइरावत एवं खेत्तु कहिउँ । फुल्लियवरुमालापरिमलाई
वरिसंति मेह धारीजलइं। पिहंति कलमायलीहलाई श्चतमोरपिच्छेजलाई। कच्छाइयाई पिसयंतरई खेमाझ्याई गयरइं वरई। दरिसंति अमर जोयंति पर विम्हइयहियय कंपवियकर । यत्ता-कंदररिकीलियसुर जोइवि णाणागिरिवर ।।
अपर मणिराव गनिनि जिणएलिपिबई ॥५॥ यह कोतिदेवीके साथ दिखाई देते है, यह रम्यक पर्वत है। यह श्रेष्ठ नारी नदी है और यह दूसरी नरकान्ता नदी बहती है । यह कमी महीधर है, यह पुणरीक नामका हे देव, जलसे भरा हुषा सरोवर है।
___पत्ता-यहाँ बुद्धिदेवी है, जो विश्वके मानको देख लेती है। उसने जिनवरको सेवासे सिद्ध नेत्रोंके फलको प्राप्त कर लिया है ||८||
हे नृप, यह हैरण्यवत क्षेत्र देखो। और स्वर्णकूला नदोका जल पियो। यह रूप्यकूला नदो इस प्रकार बहतो है, जहां कव सिंहोंके द्वारा हायो मारे जाते हैं ? यह वह, शिखर प्रिय शिखरी पर्वत है। यह महापुण्डरीक सरोवर है जो लक्ष्मीदेवीके द्वारा चाहा जाता और रमण किया जाता है। यहाँ रहकर वह अपने दिन व्यतीत करती है। रक्ता रकोदा नदियों के साप यह ऐरावत क्षेत्र कहा आता है। जहाँ मेघ खिली हुई वृक्षमालासे सुगन्धित धाराजलोंकी वर्षा करते हैं। जहां धान्य और कदली फल पकते हैं। अपने पक्षोंसे सुन्दर मयूर नाचते रहते हैं । जिसमें कच्छादि देशान्तर और क्षेमादि नगर हैं । देवता लोग दिखाते हैं और मनुष्य विस्मित हृदय तथा अपना हाथ हिलाते हुए देखते हैं ।
पत्ता-जिसके पहाड़ोंकी घाटियोंमें देय कोसा करते हैं,ऐसे नाना गिरिवरोंको देखकर तथा अकृत्रिम मणिकिरणोंसे लाल जिन प्रतिमाओंको बन्दना कर १९11
१५.AP पहु, probably his confounded with ए।१६. A रम्मि । १७. AP एह । ९. १. A वरिसंत । २. A जलधाराई। ३. A°की । ४. AP चंति । ५. पियलाई । ५.P
दरिसति य अमर । ७. P विभइयं । ८. A दरकेशियं ।
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४१४
५
१०
रखेत्तु गिरीसरिभालिय डं तहु उपरि मनुयहं णत्थि गह डिआया घणरणिषैणय रु पुजिषि कुमारु गय तियस तहिं संसार असार विवेश्य धरणि पुत्तु इच्छारियउ लोयंतिएहि उद्दीविय जाणे माणिकविराइए वैणि किउ देखें तवचरणु पता- सूपरसगर
महापुराण
१०
मणुत्तर जाम बिहालियरं । पट्ट सविन्य भिण्णमद्द | जयजयस पर्सेरिवि घरु | दवणि यणयराई जहिं । इंदियखइ पडिचोइयड | मेहर रजि इस रियउ । वेरगुणं णिरु भाविय । परखयर सुरिं दुचाइएण । उपाय केवलु मलहरणु । विदेवकार्यादि ॥ वणएं जाइबि भत्तिइ ||१०||
११
fine जिमिंदु यत्ति
अहिं दिणि वणि तरुकोमलइ आसीण राणच मेहरहु विज्जोहर विना चोइय
ताण व पेंड वि किह
।
पियमिप्तइ सम सिलायलाइ | जांबच्छता ढकं उपरि विणु पाउं । वारणवारणु जडहुँ जिछ ।
[ ६२. १०. १
१०
t
पहाड़ों और नदियोंकी मालासे घिरा हुआ जब उन्होंने मानुषोत्तर पर्वत देख लिया तो उसके ऊपर मनुष्यों की गति नहीं है। विस्मयसे परिपूर्ण मति वह लोट आया । नगर आ गये । और जय जय शब्द के साथ घरमें प्रवेश कराकर तथा कुमारको इजाकर देवता पुण्डरीकिणी लोग वहां गये । नन्दनवनमें उनके अपने नगर थे । इन्द्रियोंकी आकांक्षा से प्रेरित उसने जान लिया कि संसार असार है। घतरथने अपने पुत्रको पुकारा और मेघरथको राज्यपर बैठाया । लोकान्तिक देवोंने प्रेरणा दी। उन्हें वैराग्य बहुत अच्छा लगा। माणिक्योंसे शोभित मनुष्य विद्याधर और देवेन्द्रोंके द्वारा उठायो गयो पालकीसे वह वनमें गये और देवने वहां तपश्चरण किया। उन्हें मलका नाश करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हो गया ।
घसा - मनुष्यों और विद्याधरों तथा चार प्रकारके देवनिकायों और पुत्रने पीड़ाको दूर करनेवाली भक्ति से जाकर जिनकी वन्दना की ॥१०॥
११
दूसरे दिन वृक्षोंसे कोमल वनमें आकर चट्टानपर प्रियमित्रा के साथ जब राजा मेघरथ बैठे हुए थे कि इतनेमें व्याकाशको ढँकता हुआ, विद्यावरको विद्यासे प्रेरित एक विमान वहाँ आया । वह उन लोगों के ऊपरसे एक पग भी उसी प्रकार नहीं चल सका, जिस प्रकार मूर्ख लोगों में
१०. १. A मउत । २. AP सविभयं । ३. K भूवणयs । ४ A पसेवि P पसरवि । ५. A "वणि । ६. AP तेहि । ७. A1 ८. AP नवि |
११. १. P ढंकंतु । २. A विज्जाहरु । १. AP विवाणु संपाइयर्ड । ४. P बच्चइ उरि कि ।
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-६२, १२.७!
महाकवि पुष्पदन्त निरसित आरटुउ वड़ियअमरिसर खेयर अवलोयह दसदिसर । महियलि कोलंतु रसु सुयणु दिद्वार उवविहर्ष णरमिहणु । उत्थल्लिवि घमि एउ खलु अणुहवउ विमर्माणणिरोहफलु । इय चिंतिवि कुद्ध अकारण विजेर पायालवियारणइ। तलि पइसि विचौलिय सेण सिल डोसिउ बहुवर थरहरिय इल। धत्ता-अरिवरु तणु व वियप्पिवि सिल चरणयले पपिधि ।।
मेहरहे परिपेक्षिय तासु जि मस्थाइ बलिय ॥११॥
संचलहुं ण सकाइ सो खयर आकंदह रखपूरियविवरु । तहु धरिणि भणइ उद्धरहि लहुं वे देहि बप्प पइभिक्ख महुं। मा मारहि रमणु मेहुँ वणस तुएं देखें पहरिविाषणउ । तं' णिसुणिवि करपल्लवि धरिवि कहिउ कारणे दय करिवि । पहु मणइ म मेल्लहि करुणसरु लइ अम्मि तुहारस एहु वरु । विहलुद्धारणि पसरियह रिस पिमुणहं मि स्वमंति महापुरिस ।
थिस वीलावसु ओणे ल्लमुहु णयलु अवलोइवि जायेदुह। ध्याकरणका विचार। जिसे ईर्ष्या बढ़ रही है ऐसा विद्याधर ऋद्ध हो उठा । वह चारों दिशाओं में देखता है। उसने धरतीतलपर क्रीड़ा करते हुए स्वजनोंसे रहित बैठे हुए मनुष्यके जोड़ेको देखा। में इस दुष्टको उछालकर फेंकता हूँ, मेरे विमानके निरोधका फल यह अनुभव करे यह सोचकर वह अकारण कुन हो उठा, पाताल विदारण विधासे तलमें प्रवेश कर उसने शिलातल चलायमान कर दिया । वधूवर सोल उठे और धरती हिल उठी ।
पत्ता-शत्रुको तिनकेके बराबर समझते हुए शिलातलको पैरसे चौपकर मेघरचने उसे उल्टा प्रेरित किया और उसोके मस्तकपर फेंक दिया ||११||
२
___ वह विद्याधर चल नहीं सका। शब्दसे विवरोंको भरता हुआ वह रोता है। तब उसकी गृहिणी ( विद्याधरी) कहती है-"शीघ्र उद्धार कीजिए। हे सुभट, मुझे पतिको भोख दीजिये । प्रियकी हत्या मत कीजिए। हे देव, आप शत्रुओंका विदारण करनेवाले हैं।" यह सुनकर उसने दया कर कापण्यसे अपनी हथेलीपर धारण कर उसे निकाला। प्रभु मेघरथ कहते हैं-“हे मां, तुम करुण विलाप मत करो ये लो तुम्हारा वर" विकल जनोंका उद्धार करने में जिनमें हर्षका प्रसार होता है, ऐसे महापुरुष दुष्टोंको क्षमा नहीं करते। लज्जाके वशीभूत वह विद्याधर अपना मुख
५.A बात। ६. A पत्तथणु । ७. A पस्किवि एड: P स्लिमि एउ। ८.AP विवाण ।
९. P विजाइ। १०. A तेणुच्चइय सिल । ११. A रिवर । १२. A पस्मेिल्लिय । १२. १. A महं वण । २. AP देउ । ३. P हैं। ४. AP ओणुल्लमुह । ५. APणया । ६. A जायमुद्र ।
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४१६
१०
१०
पियमित्तणाहु पुछियउ तं णिसुनिवि ओहिणाणणयणु
पत्ता - धादसंडएराबर राम
मंजियस लणिरसर मुणसगुत्तु आसंधियड जिगुण व वास विवि तणु दिसेहुदा पर्यायचं विरपिणु परमेट्ठि
हवणु
भेदु हु सीहरहु बहु खयराहिषइ पुण्णवं जयलच्छिव
महापुराण
घत- - अंग हिदि छंडिवि दुल्लभोयाकंखिणि
नीचा करके रह गया । आकाशतल देखकर पूछा, "यह किसका है और कहाँ रहता है ?" राजा कहता है ।
फहुत एहु कहिं अच्छियत । अक्खड़ पर पहुल्लषयणु । सहि संखरि सुहावइ ॥ संखिणिरमणीरत्तव ||१२||
१३
[ ६२. १२. ८
संखइरिगुहाकुहरंतरइ । दोहिम संसार विलंघियड | जिणचरणकमलि थिरु करिवि मणु । पंचवि वि चोज्नु नियच्छिय । पणविधि समाहिगुत्त समणु । काले णवर तेरथाउ चुउ । देव दुजः तिहूणविजइ । मई जितब तो कि मज्झु मउ । चिरु संसरि विइंडिवि ॥ णितवेण सा संखिणि ||१३||
उसे बहुत दुख हुआ । प्रियमित्राने अपने स्वामीसे यह सुनकर अवधिज्ञानरूपी आंखवाला प्रफुल्ल मुख
पत्ता - धातकी लण्डके ऐरावत क्षेत्र में शंखपुर नगर शोभित है। उसमें अपनी शखिनी भार्या में अनुरक्त रामगुप्त नामका राजा था || १२ ||
१३
जिसमें निरन्तर सिह्नोंकी गर्जना हो रही है, ऐसी शंखगिरि गुफा के भीतर मुनि सर्व गुप्त आकर ठहरे । उन दोनों (राजा रामगुल और शंखिनी) ने संसारका त्याग कर दिया। जिनगुणों ( पंचकल्याणकों के अनुसार ) के उपवाससे अपने शरीरको क्षीण कर तथा जिनवरके चरण-कमलों में अपना मन स्थिर कर धृतिसेनको आहार-दान दिया और पांच प्रकार आश्चयको देखा । पाँच परमेष्ठियोंका अभिषेक कर तथा समाधिगृप्त मुनिको प्रणाम कर संन्यास से मरकर ब्रह्मेन्द्र देव हुआ। समय आनेपर वहाँसे युत होकर विद्याधरपति सिंहस्थ हुआ है, जो अपनी त्रिलोकविजय में देवोंके लिए भी दुर्लभ है। यह पुण्यवान् तथा विजय लक्ष्मीका पति मेरे द्वारा जीत लिया गया है। तो भी मुझे मद क्यों है !
वत्ता -- शरीर और गृहका त्याग कर चिरकाल तक संसारमें परिभ्रमण कर तथा दुर्लभ भोगोंकी आकांक्षा रखनेवाली यह शंखिनी भी जिन तपसे || १३ ||
७. AP मवि । ८ A पफुल्लवयणु P पप्फुल्लवयणु । ९. K नृछ । १३. १. A खवियतणु । २. AP संगिहिउ भणु । २ A गिव्हई । ४. A संसारु ।
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महाकवि पुष्पदन्त विरचित
४१७
गय सम्ग पुणु देयधरि दाहिणसे विहि वसुमालपुरि । विजाहरु इदके वसइ
पिय मयणवेय तह अस्थि साइ। सुप्पह उप्पण्णी ताई सुय
ओहमछाइ बालमुणालमुय । एयइ पिययमु ओलग्गियर भत्तारभिक्ख हई मग्गियज । णिसेंणिवि वि संसरि विलि सुट थविवि सुवण्णतिलड सउलि। घणरहजिणकमेकमल महिउँ सोहरहें मुणिचरित्तु गैहि । पियमित्तयर्गणणीकहिल संजमु जमु अवलंबिवि सहित । थिय मयणवेयविरईइ किह कइमइ दुबरकहरीण जिद्द । दलालइ लोपहुं गायब तहिं रज करइ सो मेहरहु । घसा-गंदीसरि संपत्ता जिणु शायंतु सचित्तइ ।।
दसणु णाणु समिच्छइ उबवासिर जो वच्छइ ॥१४॥
भवभावपवेवियसव्वतणु ताचेकु कवोल पराइयड किर शचि जैडप्पिवि लेइ खलु
चलेमरणुतासिउ सरणमणु। तह पच्छा गिद्ध पराश्यड | णियवपरिहि लुंचिवि खाइ पलु ।
स्वर्ग गयो। फिर विजया पर्वतको दक्षिण घेणोके वसुमालपुरमें इन्द्र केतु विद्याधर निवास करता है। उसकी पत्नी मदनवेगा सती है। वह उन दोनोंको सुप्रभा कन्या उत्पन्न हुई। बाझमृणालके समान बाहवाली वह, यह स्थित है। इसने अपने पतिकी सेवा की है, और मुझसे पतिकी भीख मांगी है। विपुल संसारमें परिभ्रमणको सुनकर अपने पुत्र स्वर्णतिलकको गद्दीपर स्थापित कर बनरष जिनवरके चरणकमलोंकी पूजा कर सिंहरथने मुनि दीक्षा स्वीकार ली। प्रियमित्रा आर्यिकाके द्वारा कहे गये संयम और यम तथा स्वहितका बवलम्बन कर विरतिसे मदनदेगा उसी प्रकार स्थित हो गयो जिस प्रकार कविको मति दुष्कर कथासे शान्त हो जाती है। वहाँ मेघरथ लोगोंको न्यायपय दिखाता है और इस प्रकार राज्य करता है।
पत्ता-नन्दीश्वरपर्वत प्राप्त होनेपर जिनका अपने मनमें ध्यान करते हुए जबतक वह उपवास करता है और दर्शनज्ञानकी इच्छा करता है ॥१४॥
कि इतनेमें जिसका जन्मके भावसे सारा शरीर प्रकम्पित है, जो चंचल मरणसे पीड़ित है, बोर जिसका मन शरणके लिए है, ऐसा एक कबूतर वहाँ आया। उसके पीछे एक गीध आया।
१४. १. A पेयडवरि । २. A तासु । ३. P has i before शिंसुणिवि । ४. A मक संसरियर; P मधि
संधरियां । ५. AP कमजुयलई। ६. P महिय । ७. P गहिथ । ८. A गणिणों । ९. A सह
सह। १०.AMा ; Pामच्छइ । १५. १. AP चलु । २. AP सेणु। ३. A सडेप्पिणु ।
५३
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४१८
महापुराण
[ ६२. १६.४ता परिख भरि वारिया पई या भवतरि मारियड । कि भारहि वारहि अप्पण मा पावहि भघि दुई घणघणउँ । सा पुच्छइ दढरह देव किह महुँ कह हि कहाणार्ड वित्त जिह । पहु अक्खइ मंदरउत्तर
खेतरि सोक्खणिरंतरह। पुरि पउमिणिखेडइ मंदगइ घेण सागरसेणहु अमियमइ। धणमित्तु तासु वाहु वणुउ पुणु जायड दिसेणु अणुउ। मु चणिवरि भायर जायरह अवरोप्परु पणिवि धणहु कइ । ते लुद्ध मुद्ध मुय थे वि जण जाया स्वग मारणदिण्णखण । घत्ता-इह मारह इहु णासह भीयउ रक्ख गधेसा॥
णहि एते हई विठ्ठल मगु जि सरणु पइटउ ॥१५॥
१०
अण्णोणु जि मक्खिवि जणु जिया ण णिहालइ णिषडती णियइ । इहु ढीणु इहु णिरु मुक्त्रियठ इय चिंतिवि राध दवे कियउ । किं किजइ खगु दिजैइ जइ वि स लभइ धम्मलाहु तइ वि |
सहि अवसरि कुंडलमजलधर अंबरयलि थिर भासद अमरु । ५ जइ देसि ॥ तो गिद्धहु पलट पलि दिण्णइ पारावयह खब। वह दुष्ट उसे झड़पकर जबतक ले और अपने शत्रुका मांस लोचकर खाये, तबतक राजाने उसे मना किया कि तुमने इसे जन्मान्तरमें मारा था, अब क्यों मारते हो अपनेको रोको, संसारमें सघन दुःखोंको मत प्राप्त करो। तब वह सिंहस्थ देव पूछता है कि जिस प्रकार मेरा कथानक है, उस प्रकार बताइए । राजा कहता है कि मन्दराचलके उत्तरमें सुखसे निरन्तर परिपूर्ण क्षेत्रान्तर (ऐरावत ) को पभिनीखेद नगरीमें सागरसेन वेश्य था ! उसकी पत्नी अमितगति थी। घनमित्र उसका प्रिय पुत्र था, फिर छोटा पुत्र नन्दिषेण हुआ। सेठको मृत्यु होनेपर जिनमें लड़ाई चल पड़ी है, ऐसे दोनों भाई धनके लिए एक दूसरेपर प्रहार करते हैं। वे दोनों लोभी और मूर्ख मृत्युको प्राप्त होते हैं । मारने में अपना समय देनेवाले वे पक्षी हुए।
___घत्ता-यह मारता है, यह भागता है, डरा हुआ रक्षाको खोज कर रहा है। आकाशमें जाते हुए इसने मुझे देखा और मेरी ही शरणमें आ गया ।।१५।।
जन एक दूसरेका भक्षण कर जीवित रहता है, अपने ऊपर आती हुई नियतिको नहीं जानता । यह दोन है, यह अत्यन्त भूखा है-यह सोचकर राजा अत्यन्त भयभीत हो उठा । क्या किया जाय? यद्यपि यह खग दे दिया जाये तो भी इसमें धर्म लाभ नहीं पाया जा सकता। उस अवसरपर कुण्डल और मुकुट धारण किये हुए आकाशमें स्थित एक देवने कहा-"यदि नहीं ___४. P भवि मथि दुई घणउं । ५. P वणिसागर । ६. A पहरिवि । ७. P°दिण्णमण । १६. १. 4 एउ । २. K दुवक्कियज; P दुवक्वियन; T दुवक्खिय उ पक्षत्रयः। ३, A हिजइ। ४. AP
सेकह।
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-६२, १७.९ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
चाइतणु तेर किं करइ मई चाट करेव तेम तिह वर अच्छणिग्गुणु छुट्टियतणु किं वधु भणिज्जइ पत्तु गुणि पत्ता- --- जेहिं नियागमि वृत्त तेलति दुणिरिक्खई
तं सुणिवि देव संसियट ग अमर णिवासुरण भनि को एहु किमत्थु समागमणु पदभयारिहि रणि पाइयड भवि भमिव सुरु कइलासर्याद वर सिरिदत्ताकंतावस चंदाहु णामपि पाणपिङ जो इस कुलि उप्पण्ण अमर ईसाणणाम कप्पाद्दिवइ
तो विष महिव वज्जरइ । जिउ ण सर ण हवइ हिंस जिह । पण ओयाविव पाणिगणु । आहार असुद्ध ण लेति मुणि । आमिसु दिण्डं मुत्तरं ॥ भवि भवि विविहई दुक्ख ||१६||
१७
मेहरहु सिरेण णमंसियड । कोहलु महुं हियवइ जणिउ । तो कह राहिल रिदमणु । भरहु णामणि चाय । वणि पैष्णकंततीरिणिणियद्धि ।
जय सोम्ताबसहु । पंचग्गिता तर तेण किड गउ जहिं हरि अच्छइ कुलिसकरु । तहिं तियस णिणिवि वयणगइ !
४१९
१०
दोगे तो गोषका नाश है और मांस देनेपर कबूतर का नाश है ? तुम्हारा त्याग इसमें क्या करेगा ?" तब राजा हँसकर उत्तर देता है, "मेरा त्याग वह करेगा कि जिससे जीव नहीं मरेगा और हिसा नहीं होगी ? निर्गुण और भूखा रहना अच्छा, लेकिन प्राणियोंका घात नहीं करना चाहिए? क्या बाघको गुणीपात्र कहा जाता है, मुनि लोग अशुद्ध आहार ग्रहण नहीं करते ।
पत्ता -- जिन लोगों के द्वारा अपने आगममें कहा गया और दिया गया आमिष भोजन खाया जाता है, वे भव भव में दुर्दर्शनीय दुःखोंको पाते हैं ॥१६॥
५. A तो । ६.
उज्जाविज्जइ । ७. प्राणिगणु; P पाणिगुणु ।
१७. १. A तो । २. AP पण्णकंति । ३. A सोम । ४ K प्रिय । ५. A कुलिस
१७
यह सुनकर देखोंने उसको प्रशंसा की और मेघरथको सिरसे प्रणाम किया । वह देव चला गया। राजाके अनुज ( दृढ़रथ ) ने कहा कि इसने मेरे हृदय में कुतूहल उत्पन्न कर दिया है। यह कौन है और किसलिए यहाँ आया ? तब शत्रुओं का दमन करनेवाला, राजा मेघरथ कहता है - तुमने (अनन्तवीर्य के रूपमें ) दमितारिके पैदल सैनिक हेमरथ राजाको मारा था । वह बहुत समय तक संसार में भ्रमण कर कैलासके तटपर पर्णकान्ता नदीके निकट वनमें श्रेष्ठ श्रीदत्ता कान्ता के वशीभूत तापस सोमशर्माका चन्द्र नामका प्राणप्रिय पुत्र हुआ। उसने पंचाग्नि तप किया, वह ज्योतिषकुल में देव उत्पन्न हुआ है। वह वहाँ गया जहाँ हाथ में वज्र लिये इन्द्र था, जो - ईशान स्वर्गका राजा था। वहां देवताओंको वचनगति और मेरे त्याग तथा भोगकी स्तुतिको
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४२०
१०
५
१०
महापुराण
महुं के चाभ आएं महु सोलु णिरिक्खिय घत्ता -- एव वयणु पिसुणेपिंणु बंदिवि जिणवरसासणु
इहुआ कुछ अजायरुः | चित्तेण असेसु परिक्खियउ । पक्खें रोसु मुरपिणु ॥ कयडं चिहिं मि संणासणु || १७||
१८
बेष्णि वि सुरूवअद्दरूववर राहु तेहिं संमाणियउ परउरवि निविङमाण घरिय गय सुरवरराएं दमबरहु दुंदुहिरच मणिकंचणवरिसु मरु सुरहियेगु थरुह दीसरि पोस करिवि सुरणिय कहु फेरचं चरिउ पई पत्ता - ते नियगुण रक्खिड मई संधु परमेस्वरु
वडि
[ ६२.१७.१०
सुररमणवणंतर जाय सुर । पई दे जाणि । अम्दई मि कुजोणिहि णीसरिय । कथ भोजजुत्ति संजमधरहु । सुरजयसरु पाउसु कयह रिसु । जणु जण दाणु विलसिड कहइ । थि पडिमाजोएं जिणु सरिषि । अण्णहिं देवहिं आयण्णिय । की तु वि गरुय देवें सई । सुरवरराएं अक्रि ॥ सिरिमेहरहु महीरु || १८||
सुनकर यह अच्छा नहीं लगनेसे क्रुद्ध होकर यहाँ आया है। इसने मेरे शोलका निरीक्षण किया और चित्तसे सबकी परीक्षा की।
घता - यह वचन सुनकर क्रोध छोड़कर तथा जिनवर शासनकी वन्दना कर दोनों ( पक्षियों ) ने संन्यास ले लिया || १७ ||
१८
दोनों सुररमणवन (देवारण्य ) के भीतर सुरूप और अतिरूप नामके देव हुए। उन्होंने राजा (मेघरथ) का सम्मान किया ( और कहा ) हे देव, तुमने हो संसार में धर्मको जाना है । तुमने रौरव नरकमें जाते हुए हमें पकड़ लिया और हम लोगोंको कुयोनिसे निकाल लिया | सुरवरराजके जानेपर उसने दमवर संयमधारीको भोजनयुक्ति ( आहारदान ) को । दुन्दुभि शब्द, मणिकनकी वर्षा, देवोंका जयस्वर, हर्ष उत्पन्न करनेवाली वर्षा, सुरभित हवा मन्थर-मन्थर बहती है । जन-जनोंसे दानका प्रभाव कहते है । फिर नन्दीश्वरमें प्रोषधोपवास कर जिनको स्मरण करते हुए वह प्रतिमायोग में स्थित हो गया। ईशानीकने वर्णन किया और दूसरे देवोंने उसे सुना (और पूछा कि तुमने स्वयं किसके चरितका वर्णन किया । हे देव, तुमसे महान कौन है ? बत्ता - उस सुरेन्द्र ने अपना रहस्य छिपाकर नहीं रखा। सुरवरराजने कहा- मैंने परमेश्वर श्री मेघरथ परमेश्वरको स्तुति को है ||१८||
६, A वायसुभो । ७. A कुड़ व जाय । ८. P विलुणेबिणु । १८. १. AP तु देव । २. AP देउ । ३ AP तं ।
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-१२. २०.४]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
१२
तं णिसुणियि देवि सुरूविणिय अपोक दुक अइरूपिणिय। जहिं अच्छइ राउ समाहिरउ वहिं ताहिं तासु दाविर समउ । दोहिं मि गाढउ आलिंगियर वोहि मि मुहचुंबणु मग्गियउ । दोहिं मि सुमहरु संभासियत दोहिं मि आहरणहिं भूसियउ । णीवीणिबंधु आमेलियउ दोहि मि थणकलसहि पेल्लियउ। दोहि मि सवियार पलोइयाउ दोहिं मि उरुडप्परि ढोइयउ । अचलत्ते अहिणवमंदरह जहिया हित्तउ सुंदरहु । तं बेणि मि देपिणु गया वंदारयपरिणि अविरयउ । अण्णहि दिणि सुर चवंचि जुबह । परलोइ अस्थि किं स्ववा। ता भासइ ईसाणाहिवइ पियमिचाह केरी रूवगइ। घत्ता-ता देवय मणि कंपद पुरहयउ किं जपइ ।। सर्व मण्णा माणवि आगय रइ रइसेण वि ।।१९।।
२० असणीहिं सुरकामिणिहिं जोइवि अइरादयगामिणिहिं ।। अभंगिउ अंगु मनोहर
उघाडउं तुंगपयोहर वेणि वि पुणु दारि परिट्ठियउ देवि दसणउकंठियद। अक्खिउ कण्णइ कट्ठियहरद अमछतिनियउदारतर :
यह सुनकर एक सुरूपिणी और दूसरी अतिरूपिणी देवियां वहां पहुंचों कि जहां राजा समाधिमें लोन था। वहां उन्होंने उसका अवसर प्रदर्शित किया। दोनोंने एक दूसरेका प्रगाढ़ रूपसे आलिंगन किया। दोनोंने एक दूसरेका मुख-चुम्बन मांगा। दोनोंने सुमधुर सम्भाषण किया। दोनोंने एक दूसरेको आभरणोंसे आभूषित किया। नीवीबन्ध खोल दिया। दोनोंने एक दूसरेको स्तनकलशोंसे प्रेरित किया। दोनोंने विकारपूर्वक देखा। दोनोंने उरके ऊपर जर रखा। अचलत्वमें नये मन्दराचलके समान उस सुन्दरके हृदयका अपहरण नहीं किया जा सका तो व्रतहीन वे दोनों देवांगनाएं वन्दना करके चली गयो । दूसरे दिन देव कहते हैं कि क्या मनुष्यलोकमें रूपवती युवती है ? इसपर ईशानेन्द्रने प्रियमित्राको रूपगतिका वर्णन किया।
पत्ता-तब देवी मन में कांप उठती है, इन्द्र क्या कहता है मनुष्यणोके रूपको मानता है। रति और रतिसेन देवियाँ आयीं ॥१९॥
ऐरावत गजके समान चलनेवाली उन देवबालाओंने अदृष्ट होकर उसके तेलसे मदित सुन्दर पारीर और खुले हुए ऊंचे स्तन देखकर फिर वे देवीको देखनेकी उत्कण्ठासे द्वारपर गयीं। यष्टि धारण करनेवाली कन्याने कहा-द्वारके पास स्त्रियाँ हैं, क्या विद्यापरियां हैं, या अप्सराएं?
१९. १. A समहरू । २. AP पुरुहू । २०. १, A सदसणीहि । २. P देविहिं । ३. AP तृपत्र ।
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४२२
[१२.२०.५कि खेयरीउ कि अच्छरउ
तुइ सणमण मच्छर । तं हाइवि जणगणसाहणउं लह लक्ष्यउं ताइ पसाहणउं । सुरणारिउ पुणु पइसारियउ माणवजणदूरोसारियउ। अवलोइवि झीणु रूषिहवु देवहिं पवुत्तु ण किं पि धुवुन तेरउ सरूउ रूवह ढलि पुब्बिालहि रेहहि परिगलिन । घत्ता-ता र सुहि णितिवण्णी सा पियमित्त विसणी ।।
उम्मण दुम्मण थक्षी माणमरहें मुझी ॥२०॥
२१
तं पेक्खिवि गढ मणहरवणहु राण पणषिवि घणरजिणटु । चउपन्वपयारि अणासयह आउच्छह वित्ति उपासयहं ।। साययअज्झयगु ण तं रहा सचम अंगु रिसिबइ कहा। धिविहान घरधम्मपवित्तियत किरियाउ असेसल पत्तियः । दढरक्षिगा रज्ज समिच्छियर णीसार दुरंग दुगुंछियउ । सुख मेहसेणु पच्छइ थविवि मेहरहिं जिणवरु विष्णविधि । सहुँ भाइ सहसा लइल तर बारहविहु सोसिउ विसमभेउ । धीरहिं णिदियइदिय सिवाद भयसमसहसाहिं सह पत्थिवाई। घता-सिरिपुरि घरि सिरिसेणाहू मुंजिवि दिपणसुदाणा ॥
अंतयपुरि गिषणंदङ थाइवि अमराणंदहु ॥२२॥ ईयांसे रहित वे तुम्हें देखनेका मन रखती हैं ? तब उसने स्नान कर तथा जनमनको आकर्षित करनेवाला प्रसाधन कर लिया। फिर मनुष्यजनको दूरसे हटानेवाली देवस्त्रियोंको भीतर प्रवेश . दिया गया। उसके रूपवैभववाले शरीरको देखकर देवियोंने कहा कि ( संसारमें) स्थिर कुछ भी नहीं है । तुम्हारा स्वरूप रूपसे ढल गया है, पूर्वको शोभासे गल गया है।
___ घत्ता-रतिसुखसे विरक्त विषण्ण, उन्मन और दुर्मन यह प्रियमित्रा मानके अहंकारसे मुक्त होकर श्रान्त हो गयी ॥२०||
२१
उसे इस प्रकार देखकर राजा मनहर बन गया और धनरथ जिनको प्रणाम कर उसने कर्मानवसे रहित उपासकों (श्रावकों) को वृत्ति पूछो। ऋषीश्वर सातवें अंग उपासकाध्ययनका कथन करते हैं, वह उसे छोड़ते नहीं। गृहस्य धर्मको विविध-प्रवृत्तियों, मशेष क्रियाओं और उक्तियों का उन्होंने कथन किया । दृढ़रथने राज्यकी इच्छा नहीं की। असार और दुरंगो चालवाले उसकी निन्दा की। बोदमें अपने पुत्रको राज्य में स्थापित कर मेषरथ जिनसे निवेदन कर अपने भाई के साथ इन्द्रिय सुखको निन्दा करनेवाले सात सौ राजाओंके साथ उसने बारह प्रकारका तप ले लिया, और संसारके भयको नष्ट कर दिया।
पत्ता-प्रोपुरमें सुदानको देनेवाले श्रीषेण राजाके घर पाहार कर और देवोंको आनन्द देनेवाले नन्दन राजाके प्रासादमें ठहरकर ।।२१॥
४. A समच्छरत । ५. A "गुणिविणो । २१.१. A हर । २. A विष्णिविवि: P वेषण विधि । ३. A विसमत। ४. A णिवदाणहै।
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४२३
-६२. २३.५]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
२२ सहि भत्तपाणगिद्विारहित इच्छिवि णिच्छियमत्तासहिउ । पासिवि वर्णगिरिधरकंदर फणिविच्छियघरि तहकोइरइ । पिण्णासह सत्त वि सो भयई मयचिंध नहु अट् वि गयई । दिलु बभचेह णवविधरित दहविहु जिणधम्मु परिप्फुरिउ । वहभेत विकालु वि लक्खियड एयारह अंगई सिक्खियउ । बारह अणुपेक्खर चिंतव तेरह चारितई थिरु थवइ । पदहगुणठाणई अम्भसइ पण्णारविह पमाय पुसइ । परिभाविवि सोलहकारणई। तित्थयरत्तणहकारणई। घत्ता-सहुं बंधवेण अर्णिदहु गणहतिलयगिरिंदहु॥
दूसहणिवाणिहिट तहिं अणसणिण परिदिउ ।।२२।।
२३
हियसलाई मुणिमग्गोण णिव जइपुंगम घणरहरायसुय सम्वत्यसिद्धिसुरेहरि धवल तेत्तीसससुरजीवियपवर तइ बरिससहासई लेति खणु
पाउंगगमरणु मासंतु किउ । मेय बेणि वि ते अहमिंद हुय । करमेत्तदेह वरमुहकमल। सेत्तिय जि पक्ख णीसासधर । आहार वि चिंतिध सुहेमु अणु ।
wom
यहां भोजन और पानकी इच्छासे रहित, निश्चित मात्रासे युक्त ( भोजन ) चाहकर सो और बिच्छुओंके घर तथा वृक्ष कोटरवाली वनगिरिकी गुफाओंमें प्रवेश कर, वह भी सात भयोंका नाश करते हैं, मानके आठ चिह्न भी उनसे चले गये । उन्होंने नौ प्रकारके दृढ़ ब्रह्मचर्यका पालन किया। इस प्रकारका धर्म उनमें स्फुरित हो उठा । दस प्रकारके मुनि-आचारको भी उन्होंने जान लिया। उन्होंने ग्यारह अंगोंको सीख लिया। उन्होंने बारह अनुप्रेक्षाओंका चिन्तन किया। सेरह प्रकारके चारित्रोंको स्थापना करता है। चौवह गुणस्थानोंका अभ्यास करता है। पन्द्रह प्रकारके प्रमादोंका नाश करता है। तीर्थकरत्वका बन्ध करनेवाली सोलहकारण भावनाओंका विचार कर
पत्ता- अपने भाईके साथ, यह अनिन्द्य नभस्तिलक पर्वतके लिए गये। असह्य निष्ठामें निष्ठ वह यहाँ अनशनमें स्थित हो गये ॥२२॥
अपने हृदयको मुनिमार्गमें लगाकर एक माहका प्रायोपगमन उपवास किया। दोनों यतिश्रेष्ठ घनरथ और उसका पुत्र मृत्युको प्राप्त हुए और दोनों सर्वार्थसिद्धि के विमानमें अहमेन्द्र उत्पन्न हुए। दोनों गोरे, एक हाय शरीरवाले, श्रेष्ठ मुखकमल और तैंतीस सागर प्रमाण आयुसे युक्त उत्तम जीवनवाले थे। वे उतने हो पोंमें श्वास लेते थे। तैंतीस हजार वर्षों में एक क्षण में २२. १. AP मस्तु पाणु । २. A धणे गिरि । ३. A विच्छियतगिरि । ४. AP कोहरह। ५. AF सो ____सत वि भयहं । ६. AP अगुवेक्खः । ७. P तेरह धि चरित्तई बिरु घरह ।। २३. १, A पासवगमण । २. AP पुस । ३. A हरयल | ४. AP जहि । ५. A मुहम् ।
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४२.
महापुराण
[१२.२.६
जगणाडिपलोयणणाणधर ते णिम्पडियार पसण्णमा रिझवि धम्मसंभासणई केवलि अप्पण्णइ जिणवरई सहुं भायरेण अहमिद सुरु धत्ता-गोत्तमेण ज अक्खिल
जं सुह सोत्तहिं माणइ
तेत्तियवीरियषिकिरियकर। कत्थई णउ ताई वियोररह। कम्याई मुयंति सीहासणई। भुवि जाइजराजम्मणहरह। जाणंतु तनु पर्णमंतु गुरु । जंभरहेसे लक्खि ।। पुष्फयंतु तं जाणइ ।।२३॥
इय महापुराणे विसटिमहापुरिसगुणाकारे महाकापुफ्फर्यतविरहार महामध्यमरहणुमणिए महाकाले मेहराहसिस्थयरगोतणिवर्ण
णाम सहिमो परिच्छे प्रो समतो nen
nama
m
arinirnationna
movemen
चिन्तित सूक्ष्म-सूक्ष्म अणुका बाहार करते। विश्वनाडोको देखनेवाले प्रानके धारक थे। उतनी ही विकियाऋद्धिको कर सकते थे। प्रतिकारको भावनासे रहित और प्रसन्नमति थे। उनमें विकाररति कहीं भी नहीं थी। वे धर्मसम्भाषणोंसे प्रसन्न होते थे। जन्म, जरा और मरणका हरण करनेवाले मिनवरोंको केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर वे कभी-कभी अपना सिंहासन छोड़ते थे । वह अहमेन्द्रसुर अपने भाईके साथ तत्वको जानता और गुरुको प्रणाम करता।
घत्ता-गौतमने जो कुछ कहा, वह भरतेश श्रेणिकने जान लिया। अपने कानोंसे जो उस सुखको मानता है, हे पुष्पदन्त वही उसे जानता है ॥२३॥
इस प्रकार प्रेसठ महापुरुषों के गुणाकारोंसे पुक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामन्य मरत द्वारा अनुमत महाकाव्य में मेघस्थ तीर्थकर
गोत्र मिबन्धन मामका बासठया परिच्छेद समाप्त हुषा ३॥
६. AP विहारर । - A कत्थह ण मुयति । ८. A पणवंतगुरु ।
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संधि ६३
सम्मासई आउससेसई थियई जाम अहमिदहु ॥ वा रम्मइ तहि सोहम्मद जाय चित वियसिंदहु ।। धुवर्फ ॥
जिणवरण्हवणण्हरियगिरिमंदरु कुंजरकरताडियसीयलजलि वरदंडसंडमंडियसरि सीमारामगामरमणीयह गंधसालिकणसुरहियपरिमलि दिव्वुजाणविडषिणिवडियफलि हस्थिणयह तर्हि मंडलि छज्जा सम्गे सरिसाउ अप्पर मण्णइ
धणयह अक्खइ देव पुरंदरु। सिसिरकिरणविलसियणीलुप्पलि। दसदिसु गुमुगुमंतमयमयरि । दणाणाहदिण्णतवणीयइ। कीरकुररकलहंसीकलयलि । जंयूदीवि मरहि फुरजंगलि । सूरई सहण गलगज्जा। घरसिहरहिं हरह व तिजगुण्णइ ।
१०
सन्धि ६३
जब अहमेन्द्रको छह माह आयु शेष रह गयी, तो खौधर्म स्वर्गमें इन्द्रको चिन्ता उत्पन्न हो गयी।
जिनवरके स्नानमें मन्दराचल पर्वतको स्नान करानेवाला इन्द्र कुबेरसे कहता है-इस जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें कुरजांगल देश है, जिसमें हाथियोंसे प्रताडित शीतल जल है। जिसमें नील-कमल शिशिर किरणोंसे विकसित है, नदियां नवपयोंसे मण्डित है, दसों दिशाओं में मधुकर गुंजन करते हैं, सीमोद्यानों और ग्रामोंसे जो रमणीय है, जहाँ दीन और अनाथोंको सोना दिया जाता है, जहाँ सुगन्धित धान्यके कणोंसे सुरभित परिमल है, जिसमें कोर, कुरल और कछह सोंका सुन्दर कलकल शब्द हो रहा है। ऐसे उस मण्डलमें हस्तिनापुर नगर शोमित है जो मानो तुर्योको ध्वनियोंसे गरज रहा है। वह अपने आपको स्वर्गके समान मानता है। अपने परोंके धिक्षरोंसे All MB), have, at the beginning of this saipdhi, the following stanza:
बन्धः सौजन्यवाफ: कविखलषिषणाच्यास्तविध्वंसमानुः प्रौढाकारसारामलतनुविभवा भारती यस्य नित्यम् । पानाम्भोजानुरागक्रमनिहितपदा राजहंसीव भाति
प्रोचद्गम्भीरभावा स जति भरते धार्मिक पुष्पदन्तः ॥१॥ AP read more: in the first line, for me, but K has a glass og: on it, P readı
#974: for 'atar in the third line. १. १. AP वियसिय । २. A सीभागामराम । ३, AF कमसरियपरिमलि ।
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४२६
महापुराण
[१३.१.११. अजियसेणु तहिं पहु पियवाइणि तह पियदसण णामें पणइणि । बंभकप्पचुन वइरिविमहणु बीससेणु उप्पण्णव णंदणु । सुणि गंधारदेसि गंधार
पुरि पंडुरधरि पुहईसार। तहिं णरणाहु णाम जियजउ अजियदेविवालहु परदुजः । घत्ता-तेराएं सुहिअणुराएं णिरु भल्लार मावि |
अइरा सुय णषफिसलयमय वीससेणु परिणाषिउ ॥१॥
एयह होसह धुवु तित्थंकर घणय धणय लइ तेरउ अवसरु तं णिसुणिवि ते कमलदलखे हरियङ मरगयसोरणमालहिं कोमलगत्तमलियणेत्ता णिकाएंतिइ पुण्णपवित्तिह परादेवि दिल कुंजर सिरिवामाहं दोणि विलुलतइं
कुंभजुप शससुया कोसिस १. सीहासणु विमाणु अमराणां
सोलइमउ कंदप्पखयफ। करि पुरु मणियरहय दिवसेसरु । कंधणपट्टणु णिम्मिउ जक्खें। जलद व पउमरायकरजालहि । सउयला पेल्लंकपसुत्ता। पमिछमरसिइ गुणगणजुत्तिइ । पसुबह केसरि खरणहपंजरु । ससिरविबिंबई णहि जयंतई। सरबह जलहि जलावलिचालिरु । भवणु फणिदहु तण पहाण ।
त्रिजगकी उन्नतिका अपहरण कर रहा है। अजितसेन नामक वहांका राजा था उसकी प्रिय बोलनेवाली प्रियदर्शना नामकी प्रणयिनी पी ! शत्रुओंका मर्दन करनेवाला ब्रह्मस्वर्गखे च्युत होकर उनका विश्वसेन नामका पुत्र हुमा। सुनो-गान्धार देश में पृथ्वोमें श्रेष्ठ धवल घरोंवाली गन्धारी नगरीमें अजितजय नामका राजा था, जो अजिता देवीका प्रिय और शत्रुओंके लिए अजेय था।
पत्ता-सुधियोंके प्रति अनुराग रखनेवाले उस राजाने अच्छा विचार किया कि जो उसके नवकिसलयके समान भुजाओंवाली अपनी अचिरा नामको कन्याका विवाह विश्वसेनसे कर दिया ॥२॥
इन दोनोंसे निश्चयपूर्वक कामदेवका नाश करनेवाले सोलहवें तीर्थ फरका जन्म होगा। कुबेर-कुबेर ! लो, यह तेरा अवसर है । तुम मणिकिरणोंसे दिनेश्वरको पराजित करनेवाले पुरको रचना करो। यह सुनकर कमल दलके समान आँखोंवाले उस यक्षने स्वर्णनगरको रचना की। मरकत मणियोंकी तोरणमालाओंसे वह हरा-हरा था। पद्मराग मणियों के किरणजालसे जलता हया था। सौषतलमें पलंगपर सोते हुए कोमल शरीरवालो, मुकुलित नेत्र, पुण्यसे पवित्र तथा गुणगणोंसे युक्त एरा देवी थी। रात्रिके अन्तिम प्रहरमें उसने हाथी देखा । वृषभ, तीव नखसमूहसे युक सिंह, लक्ष्मी, दो मालाएं झूलती हुई, आकाशमें उगते हुए सूर्यचन्द्र के बिम्ब, घटयुगल, खेलते हए दो मत्स्य, सरोवर, जलकी लहरोंसे चंचल समुद्र, सिंहासन, देवोंका विमान, नागेन्द्रका प्रमुख २. १. A तोरणवारहिं । २. P पल्लकि पसुत्तइ । ३. AP भइरादेविह। ४. A उत्रयंतई । ५.
अमराराज।
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-६३. ३. १२ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
रणरासि सत्र्त्तचि चि जोइड
गय सुंदरि सुविधा
तेत्त
मु धोविदपणु अवलोइड | थि अत्थाणि राहिङ नेतहि ।
घसा - सित्रिणंत णिहिदु गिरंतरु कंत कंत ईरिटं ॥ अबही तेण महीसें तं फलु ताहि वियारिडं ॥ २ ॥
३
होस सिरिअरहंतु भडारउ । जा छम्मास ताम बसु बुट्ठरं । आगय घरु जिणगुणरंजियमइ । भरणिरिक्खि णिसिपर पहतरि । for Toभावया परमेस । पुणपण कंपावियदे | पुज्जिय सगल असेल विसपियर । एं कि पपगणु पिंजरु । ऊणि तिसायरि गलियजमंसे । चित्तौजुत्तमासपक्वंतरि | जाम जोड़ सुहंकरि आयइ । जिगु रेहड़ णाणत्तयछाय |
तु उयरि तेलोकपियारउ रागणिलोपहिं विदिट्ठ हिरि सिरि बुद्धि कंति कित्ती सह भदवय भयसंखावासरि जणणिहि मुहि पट्ट गयबे से मेहरण तेण अहमिदे आय देव सयल वि पंजलियर मास विहित्तु चामीयरु पल्लवत्थ भारत से धम्ममहामुणिदेव जिणंसरि काइ दिदिम जायर पछिम संझहि जणियउ मायइ
૪૨૭
१०
भवन, रत्नराशि और अग्निज्वाला भी देखी। मुंह धोकर उसने दर्पण देखा । सवेरे वह सुन्दरी वहाँ गयी जहाँ राजा सिंहासनपर विराजमान था ।
पत्ता - समस्त लगातार स्वप्नान्तर कान्ताने अपने पति से कहा । अवधीश्वर ( अवधिज्ञान के घारी) महीश्वर ने उसे उसका फल विवेचित कर दिया || २ ||
३
तुम्हारे उदरसे त्रिलोकके प्यारे आदरणीय श्री अरहन्त उत्पन्न होंगे। लोगोंने भी देखा कि राजा के अगऩमें छह माह तक रश्नोंकी वर्षा हुई। हो- श्री-बुद्धि-कीर्ति आदि सतियाँ जिनगुणोंसे रंजितमति होकर आयो । भाद्र वदी सप्तमीके दिन भरणी नक्षत्र में रात्रिके अन्तिम प्रहरमें वह माता के उवरमें गजरूपमें प्रविष्ट हुए और इस प्रकार परमेश्वर उस अहमेन्द्र मेधरथने गर्भावतार किया। सभी देव अंजली बाँधे हुए आये और पिता सहित उन्होंने सभी स्वजनों की पूजा की। कुबेरने नव माह तक स्वर्णकी वर्षों की ओर उसने राजाके आँगनको पोला कर दिया। धर्मनाथ महामुनि तीर्थंकरके बाद चौथे पत्यके तोन भाग कम तीन सागर समय बीतनेपर, एक भाग (पाव) पल्प का उच्छेद होनेपर, ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्थीके दिन शुभंकर शुभयोग में रात्रि के अन्तिम प्रहर में मालाने जिनको जन्म दिया। वे तीन ज्ञानोंकी छायासे शोभित थे ।
६. A सत्तविषय |
३. १. A उत्थाय । २. A ऊर्जातिसार । ३. A जिट्टा" but gloss चैत्रः; T चित्तमुत्तमास चैत्रः ।
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४२८
५
१०
महापुराण
बत्ता -- एराव चडिवि सुरावर सहसा पत्तु पुरंदरु || सहुं देवहिं णाणावहिं अरुड्डु लेखि ग संदरु || ३ ||
४
ईदचं दखयरिंदफेणिंद हिं पुजि कुंद कुलकणियारहिं जपसंतीयरु संति भणेपिणु आणिवि भवहु अपिठ जणविहि हरि वरि पाण्डु व पणचित्र राज साहु पणविषि सदगु कवणं ग लक्खन रिसपरमाउ मद्दामहू वीससेणरायण वण्ण
में चक्का पितरुहु
धत्ता -- ते भायर चंद्द्विायरणिह परिणाविय ताएं || चिकण्ण बहुलायण जयजय पणिणाएं ॥ ४ ॥
पंचवीस वरवरिससड़ा सई जेहहु अपिय धरणि परिंदें
[ ६३. ३. १३
हाणि तहिं वंदारयवंदहिं । बलविलय चंपय मंदारहि । तं गुरु सुरगिरिसिहरु मुएप्पिणु । जिणवरसुरतरुसंभवधरणिहि । तेण ण को को किर रोमंचित । कार्ले जाउ डुबो दह दह तह दह दह धणुतुंग | दढरहु णाम अवरोहसमहु । जसदेवहि सो उप्पण्णहु | छणसत्तावीसंजोयणमुहु ।
|
५
बोली कुमरति पयास | अप्पणु बद्धर पहु सुरिंदें |
धत्ता -- ऐरावतपर चढ़कर देवोंका स्वामी पुरन्दर शीघ्र वहाँ पहुँचा तथा नानारूपोंवाले देवोंके साथ अर्हन्त देवको लेकर मन्दराचल गया ||३||
४
इन्द्र, चन्द्र, विद्याधरेन्द्र और नागेन्द्र मादि देवसमूहने वहाँ उनका अभिषेक किया तथा कुन्द, कुटज, कनेर, बकुल, तिलक, चम्पक और मन्दार पुष्पोंसे पूजा की। लोगोंको शान्ति देनेवाले होने से उन्हें शान्ति कहकर मन्दराचल शिखरको छोड़कर, गुरुको लाकर, जिनवररूपी कल्पवृक्षको उत्पन्न करनेकी भूमि माँको सौंपकर इन्द्र प्राकृतनटकी तरह नाचा । उससे कौन-कौन नहीं रोमांचित हुआ । इन्द्र प्रणाम कर स्वर्ग चला गया। समयके साथ जिन नत्रयौवनको प्राप्त हुए। स्वर्णरंगके वह मानो बालसूर्य थे। वह चालोस धनुष प्रमाण ऊँचे थे। एक लाख वर्षकी उनकी परमायु थी । दृढरथ नामका दूसरा अमेन्द्र था, वह भी विश्वसेन राजाकी दूसरी पत्नी यशस्वती से उत्पन्न हुआ | चक्रायुध नामसे वह प्रियपुत्र था । उसका मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान था ।
घत्ता - चन्द्रमा और दिवाकरके समान दोनों भाइयोंका पिताने नगाड़ोंकी ध्वनि के साथ अत्यन्त रूपवतो राजकन्याओंसे विवाह कर दिया || ४ ||
५
कौमार्यकालमें जब उनके पचीस हजार वर्ष बीत गये तो राजाने बड़े भाईको धरती अर्पित
४. १ इयरिरि । २. AP पायडु डुव । ३. AP यह तह दह । ४. AP लक्खु वरिसु परमाउ | ५. A अवरु बहसयम । ६ ।
.
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-६३. ६.८)
महाकवि पुष्पदन्त विरचित रज करतह देतहु णियधणु. गलिय समासहास सेत्तिय पुणु । जइयहं तइयई पुण्णविसेसे आयई दिदुई शेण णरेस। चक्कु छत्तु अति पहरणसालहि संभूयडे पंड वि मुषिसालहि । कागणि मणि पाणई सिरिहरि थवा पुरोधमूवह गयउरि। कण्णा गय तुरंग लगभूहरि णय णिहि जलणिहिणइसंगमधरि । छक्खड वि महिवीलु पसाहिवि वितर सुर विजाइर साहिवि । पणवीसरसहस महि पालिषि वप्पणयलि णियबयणु णिहालिवि । घाता-णिवेइउ णाहु पैसाइड लोयंतिएहिं पषोहिउ ॥
अवमत्तत्र इंदै सित्तउ रयणाहरणहिं सोहि ॥५॥
थिउ सम्वत्थसिद्धि सिवियासणि जाइवि तहिला सहसंबयवणि । सिलहि णिसणे उत्तरषरणे कयपलियः दीहरणयणे । जेट्ठहु मासहु सतिमिरपक्वह दिवसि चचदसि भरणीरिक्खइ । अवरण्डा णिक्खवणु करते छववासिएण गुणवते । उप्पाइस मणपजउ देखें
कि ण होइ भणु संजमभायें । जो घम्मिलभारु आलुचित सो सुरणाहें कुसुमे अंषिउ । घलिउ णवर खीरमयरालय पकाउहुपमुहहिं तकाल ।
संजमु णिवसहसें पडिवण्ण बीयइ वासरि समसंपण्णव । कर दी और देवेन्द्रने स्वयं पट्ट बांधा। राज्य करते हुए और अपना धन देते हुए फिर जब उनके चतने ही अर्थात् पवीस हजार वर्ष बीत गये, तो पुण्य विशेषसे उस राजाने इन चीजोंको देखा ( प्राप्त हुई ) सुविशाल आयुधशालामें चक्र-छत्र और तलवार तथा दण्डन उत्पन्न हुए। श्रीगृहमें कागणि मणि उत्पन्न हुई। हस्तिनागपुरमें स्थपति, पुरोहित और चभूपति । कन्या, गज, दुरंग विजयाई पर्वतपर उत्पन्न हुए ! जलनिधि और नदीके संगमस्थलपर नवनिधियां प्रास हुई। छह खण्ड धरतीको सिद्ध कर व्यन्तर, विद्याधरों और देवोंको साधकर पचीस हजार वर्षों तक घरतीका पालन कर { एक दिन) दर्पणतलमें अपना मुख देखकर
पत्ता-प्रसन्नताको प्राप्त देव विरक्त हो उठे। लोकान्तिक देवोंने उन्हें सम्बोधित किया। रस्नाभरणोंसे शोभित और अप्रमत्त उनका इन्द्रने अभिषेक किया ॥५॥
वह सर्वार्थसिद्धि नामक शिविकापर आरूढ़ हए। शीघ्र सहस्राम्ब वनमें जाकर शिलापर बैठे हुए उत्तर दिशामें मुख किये हुए पपासनमें स्थित वीर्षनेत्रवाले वह, ज्येष्ठ माहके कृष्णपक्षको चतुर्दशोके दिन भरणी नक्षत्रमें अपराह्म के समय छठे उपवासके साथ दीक्षा ग्रहण करते हुए गुणवान् देवको मनःपर्ययशान उत्पन्न हो गया। बतामो संयम भावसे क्या नहीं उत्पन्न होता? उन्होंने जिस केशभारको उखाड़ा था उसे इन्ने फूलोंसे अचित किया और क्षोरसमुद्र में फेंक दिया । पक्रायुध प्रमुख एक हजार राजामोंने तत्काल संयम पहण कर लिया। दूसरे दिन ५. १. A सि पहरणु सालहि P बसि पम्मु वि सालहि । २. P गेहपर रि। R. AP संगमहरि ।
४. A छपसंदु। ५. AP पयासिर ।
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महापुराण
१०
गत मंदरपुर जिणु तथता विउ पियमित्तै राएं पाराविच । महि विहरंतु मुणियसत्थत्थउ सोलह परिसई थिउ छम्मरथउ । संतु दंतु भयवंतु सरिसिगणु पुणु आयउ तं सहसंबयवणु । घत्ता-पववत्तहु णंदावत्तहु तरुहि मूलि आसीणउ ।।।
खंत्रियदुहु सुरदिसिसमुह रिउमित्त वि समाणउ ॥ ६ ।।
पूसहु मासहु. सोक्खणिवासहु। दहमदिणंतरि
सियपक्खंतरि। छट्टववासे विय लियपासे। दरसंझाइ
जोइ वियालइ। कम्भुणिवाइट खणि उत्पाइन। केवलदसणु दोस विहसणु। ध्रु सिवमाणणु केवलजाणणु । कयमयविलएं कुरुकुलतिलएं। कासगोते सुयसुइसोतें। पत्तसं कित्तणु सिरिअरुहसणु। दहविह सुविह अवर वि ययविह। सुर सोलह विह भूसणयरसिह।
गुणगणवत्तं पंकयणेत्तं । समताभाषसे परिपूर्ण और तसे सन्तप्त जिनवर मन्दरपुर नगर गये। प्रियमित्र राजाने उन्हें आहार कराया। मात कर लिया है शास्त्रार्थको जिन्होंने ऐसे वह धरतोपर बिहार करते हुए सोलह वर्षे तक छप्रस्थभावमें स्थित रहे । शान्त, दांत, ज्ञानवान वह ऋषिगणके साथ फिरसे उसी सहस्राम्रवनमें आये।
धत्ता-नये पत्तोंवाले नन्दावर्त वृक्षके नीचे बैठे हुए, दुःखोंका नाश करनेवाले पूर्वदिशामें मुख किये हुए, शत्रु तथा मित्रमें समान बह-||६||
Num
mary
पौष शुक्ल दशमीके दिन, बन्धनोंको काटनेवाले छठे उपवासके द्वारा, थोड़ी-थोड़ी सध्या होनेपर उन्होंने कर्मों का नाश कर दिया और एक क्षणमें दोषोंको नष्ट करनेवाला केवलज्ञान और शिवको माननेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। जिन्होंने मदका विलय किया है, ऐसे कुरुकुलके तिलक, कश्यप गोत्रीय, पवित्र शास्त्रों के प्रवाहवाले उन्होंने श्री अरहन्त होनेका कीर्तन प्राप्त कर लिया । इस प्रकारके, आठ प्रकारके और भी पांच प्रकारके, सोलह प्रकारके देव, (भूषण६. १. जिणतवताविउ २. A विरहंतु । ३. AP णवपतच । ४. A सुरदिसिमुह । ७. १. A नियंतरि । २. AP डायवियाला। ३. A कम्मणिपाईन। ४. A qध; P पूर्व । ५. AP
कयमलविलए । ६. AP गणवंतें; AP add after this: ससहरवते । ७. APणेत्तें।
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-६३. ८.११]
महाकवि पुष्पान्त विरचित बारापुतं खमदमजुत्त। खाइयभावं संति देवं"। तेवदंते
"सई मायंते । पंजलिहत्या पणवियमत्था।
भत्तिरसाला विलुलियमाला। पत्ता-म वजइ गई पडिवाइपंचिदियई वि दंडा॥
पइं होतें मग्गु विसंते जणु संसारिण हिंडइ ।।७।।
तओ कोसिएणं जसेणं सिएणं। फर्य मुकभं महामाणस्वभं। महाधम्मल महापंकयंभ। महाखाइयालं
महापुष्फमालं। महाधूलिसालं
माणसालं। महासाहिवं महाकेउर्फत । महावेइयम्म महा५ हहम्म। महादेवछण्णं महासाहुपुषण । महारिद्धिरुढं महापीईपीढ़। महासोयरतं महासेयछ।
महाचामरिझं महादुंदुहिल्लं। को किरणों की शिखावाले), गुणसमूहके पात्र, कमलनयन, ऐरापुत्र क्षमा और संयमसे मुक्त शापिकभाववाले शान्तिदेवकी वे वन्दना करते हैं, उनका शुम ध्यान करते हैं, हापकी अंजलि बांधे हुए, मस्तक झुकाये हुए, भक्तिसे मीठे और मालाएं हिलाते हुए।
पत्ता-अन मदका त्याग करता है, मोक्षगतिको स्वीकार करता है, पांचों इन्द्रियोंको दण्डित करता है, आपके रहनेपर और उपदेश देनेपर यह (जन) संसारमें परिभ्रमण नहीं करता ७॥
१०
तब यशसे श्वेत इन्द्रने दम्भसे मुक्त महामानस्तम्भ बनवाया जिसमें महाधर्मको प्राप्ति है, महाकमलोंका जछ है, जो महान खाइयोंसे सहित है, जिसमें महानत्यशाला है, जो महावृक्षोंसे युक्त है, ओ महाध्वजोंसे सुन्दर है, जो महावेदिकाओं को रचनासे युक्त है, जिसमें स्कूल प्रासाद है, जो महादेवोंसे व्याप्त है, जो महामुनियोंसे सम्पूर्ण है, महाऋद्धियोंसे प्रसिव है, महासिंहासनोंसे युक्त है, महान् अशोक वृक्षोंसे आरक्स है, महाश्वेतछत्रोंवाला है, महाचामरोंसे पुक्त है,
८.AP पते । . A omits समवमवृत्त; P adds : दोपविषतं । १०. AP भायें। ११. A?
देवें। १२. तं वदति; Pत पसे । १३. A मुझं बोयते; P सुई गोयते । १४. मा। ८. १. AP मुकदमं । २. A पूलहम्म । 1. AP सीहवी । ४. AP महासोयवंतं ।
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४R
महापुराण
[६३.८.१२महापुष्फवास महादिषभासं ।
महादितिवंत महंत पवितं । घत्ता-पबिहारहि णायकमारहिं सेविजंतु दयावरु
गंभीरहिं हयजयतूरहिं समवसरणु गठ जिणवर ॥ ८ ॥
अक्खइ धम्मु कम्मु ओसारइ सत्त वि सबई जणहु वियारइ । अटेड धरणिहिं माणु पयासइ सग्गविमाणह पंतिउ भासइ । पायालंवरि भवणसहासई चलणिश्चलाई मि जोइसवासई। जीवकम्मपोग्गलपरिणामई कहइ भडारडणाणाणामई। पकाउहपहूइ त गणहर जाया छत्तीस वि जणमणहर । अट्ठसयई पुरुवंगवियाणहं रिसिहि कट्टतणकणयसमागई। एकतालसहसई वसुसमसय सिक्खमुदिक्खसिक्खपारंगय ।। सहसई विणि अयहिणाणालई 'घउ केवैलिहि पि हियतमजालई।
विकिरियायतह छइ भणियई मणपज्जवधराई चउ गणियई। १० वाइहिं वोसहसाई णिसई । सयचा अग्गल उ पत्तई । महादुन्दुभियोंसे परिपूर्ण है, महापुष्पोंको वाससे युक्त है, महादिव्यभाषासे पूर्ण है, महादीप्सिसे युक्त है और महान् पवित्र है।
बता–प्रतिहार नागकुमार देवों द्वारा सेधित दयावर जिनवर शान्तिनाय गम्भीर वाहत विजय सूर्योके साथ समवसरणके लिए गये ।।८।।
वह धर्मका कपन करते हैं, कर्मका निवारण करते हैं, जनके लिए सातों तस्वोंका विचार करते हैं, आठवीं भूमि ( मोक्षभूमि) का मान प्रकाशित करते हैं, स्वर्गके विमानोंकी पंक्तिका कथन करते हैं, पातालके भीतर हजारों भवनवासियों, थल और निश्चल ज्योतिषवासियों, जीवकर्म और पुदगलके परिणामोंका नाना नामोंसे बादरणीय वह वर्णन करते हैं। चक्रायुध आदिको लेकर उनके जनमनोंके लिए सुन्दर छत्तीस गणधर थे। पूर्वांगों को जाननेवाले तथा काष्ठ तिनका धीर सोनेको समान समझनेवाले आठ सौ वषि थे। शिक्षा और दीक्षाको सीखमें पारंगत इकतालीस हजार पाठ सौ थे। अवधिज्ञानको धारण करनेवाले तीन हजार थे, तमजालको नष्ट करमेशले केवली चार हबार । बिक्रियाऋषिके धारक छह हजार थे और मनःपर्ययज्ञानके पारी चार हजार मोर दो हजार श्रेष्ठ वादो मुनि पे।
५.Aमहा वित्तवितं; P महापिसिवितं । १. समवसरणयच । १. १.A अमिधरणिहि । २. AP "विमाणहं। 1. A परिमरणई। ४. P जि । ५. A सिम्सयदिख
सिप । ६. Aयलिहि पयतम अवसिहि मि हयतमं । ७. A वसई ।
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-६३. १०. १२]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-हिरिसेणहि दर्यविहिखीणहि पायपोमधुइरायई ।।
परमहियाई तिसयहि सहियइ साहसहासई जायई ॥ ९ ॥
AAAAA
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झाणमोणणियमियणियमइयत पत्तियाड भणियउ संजइयत्र । लक्खई दुह साधयह सेलम्बई सुरकित्तीपमुहहं णिविग्ई । अमहदासिपमुहाई सुइत्तई सावईहि चडलक्खई वुत्तई। देव असंख संख मिर्गकुलरुह एकदुखुर गयवय जाया बुह । पंचवीससहसई बोलीणई परिसहं सोलहवरिसविहीणई। इिंडिषि महियलि धम्मु कहेपिणु : मासमेत्तु जीवित जाणेप्पिणु । गिरिसमेयारहणु करेप्पिणु चरमसुकु दियहेहि घरेप्पिणु । जेट्टचद सिवासरि कॉलइ भरणि रिक्खि धरणीमुहि विमला। गउ जगसिहरहु संति भडारउ देख समाहि बोहि भवहारउ । सहुं चकाउहेण तवैरिद्धई णवसहसई रिसिणाइह सिद्ध। पत्ता-सुविलेषणु घल्लिवि कुसुमई मेल्लिवि पविउ तहिं अमिगदहि ॥
मणि ईहिय सिद्धणिसीहिय णविय भरेण सुरिंदहि ॥१०॥ पत्ता-व्रतोंकी विधिसे क्षीण हरिषेणा आदि आयिकाएं साठ हजार तीन सौ थी। जिसके चरण राजाओंके द्वारा स्तुत थे और ओ देवों सहित मनुष्यों द्वारा पूज्य थीं ॥९॥
१० ध्यान और मोनसे जिन्होंने अपनो मति संयत कर ली है ऐसे संयमी और इलाधनीय, सुरकोति-प्रमुख विधन रहित दो लाख श्रावक थे। अहंदासो आदिको लेकर चार लाख पवित्र याविकाएं कही गयी हैं। देव असंख्यात थे और तिर्यचयोनिके पशु संख्यात थे। एक दो खुरवाले शानवतसे युक्त पण्डित । सोलह वर्ष रहित पचीस हजार वर्ष बीत गये । परती तलपर भ्रमण कर और धर्मका कथन कर तथा अपना जीवन एक माह शेष जानकर, सम्मेदशिखर पर्वतपर आरोहण कर कुछ दिनों तक चरम शुक्लध्यान धारण कर, ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशीके दिन, भरणी नक्षत्रमें पवित्र धरतीके अग्रभाग विश्वके शिखरपर आदरणीय शान्तिनाथ चले गये। भवका हरण करनेवाले देव मुझे समाधि प्रदान करें। तपसे समृद्ध नौ हजार मुनिनाय भी चक्रायुषके साथ सिव हो गये।
पत्ता-सुन्दर लेप कर, फूल डालकर वहाँ अग्नीन्द्र देवोंने प्रणाम किया (शवका )। देवेन्द्रोंने भी मनमें अभीप्सित सिद्ध नृसिंह को प्रणाम किया ॥१०॥
८. AP विहिलोणहि । ९. P तिसई सहियई। १०. १. P सलामई । २. णिदिग्धई। ३. A सुबत्तई । ४. K मृग । ५. A पहलह । ६. AP गुण
रिख । ७. A गवसयाई। ८. AP कालायर स्लिवि सुरसर दिण ( ण ? ) अग्नि अगिदहिं ।
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४३४
५
१०
जिंदु सिरिसेणु पुणु बिजो सुरवर घणसंदणु
दरिसर भज्नु सलु सयलायक देवि अलिंद कुणा अमयास अतीरिक्ष हरि मेहणा पहिरि सहसाउछु
णु सत्थसिद्धि परमेसन
संति अंति विहुणेवि महारी
महापुराण
११
देव स्वयरु सुरु हलि पवरामरु | सत्याहि अइरहि गंदणु । होच पसंतहु लहु लग्गणतरु । सुन सिरिति णारच जोश्यवइवरणीसरि ।
महीयलराणउ |
कुरुणरु
कपणाहू दढरहु पलिय मुहु । सुदेव रिसीसर |
कर कसायसंति गरुयारी ।
घत्ता- - भरसर जियसह मुणिपवरु जहिं गढ जिण तुहुं तेतद्दि ॥ मई पावहि सिद्धालयमहि पुष्फेयंतरुइ जेतहि ॥ ११ ॥
[ ६३.११.१
इव महापुराणे विसद्विमहारिसगुणालंकारे महाकपुष्कर्यंत विनश्ए महामन्यमरहाणुमणिए महाकवे संतिणाइ निम्बाजयमणं णाम सिट्टिमो परिच्छे समतो ॥६३॥
०
११
कुरुमानव जो राजा श्रीषेण थे, वह देव ( भोगभूमिमें ) विद्याधर, देव फिर प्रवर अमर, वज्रायुष, इन्द्र, मेघरथ, फिर सर्वार्थसिद्धिमें अहमेन्द्र और फिर ऐराके पुत्र ( शान्तिनाथ ) हुए । वह मुझे समस्त सकलाचार दिखायें और गिरते हुए मुझे आधारस्तम्भ हों, और जो अनिन्दिता देवी कुरुकी नर हुई थी, फिर श्रीविजयदेव, फिर महीतलका राजा, अमृताशय अनन्तवीर्य, नारायण, वैतरणी नदीको देखनेवाला नारको, मेघनाद प्रतिनारायण, फिर सहस्रायुध, कल्पदेव, प्रहसितमुख दृढरथ, फिर सर्वार्थसिद्धिका देव और तब परमेश्वर चक्रायुध ऋषीश्वर देव सुख दें। हमारी विद्यमान भ्रान्तिको नष्ट कर वे मेरी भारी कपाशान्ति करें ।
पत्ता - है जिन, कामको जीतनेवाला मुनिप्रवर भरतेश्वर जहाँ गया, और जहाँ आप गये हैं, और जहाँ चन्द्र और सूर्यके समान दीति है, वह सिद्धालयभूमि मुझे प्राप्त करा दो ॥ ११ ॥
इस प्रकार प्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित पूर्व महामध्य मस्त द्वारा अनुमत महाकाव्य में शान्तिनाथ निर्वाण मन नामका प्रेसठवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ ६३ ॥
११.१. नृउ २. विजा ३. P कुरुतणुमान । ४. AP सिरिविज्ञ महिय । ५. AP
पुप्फदं ।
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संधि ६४
जिणगिरिपवरहणीसरिय बारहंगपाणियसरि ।। पुवमहण्णवगामिणिय पणवे प्पिणु वाईसरि ।। ध्रुवकं ।।
जो मुवणि भणिउ छ?उ णिरास जो इंदियकूराहिहिं विराट । जो ण मरइ ण हवाइ कालरण घणमणतिमिरें ऑलिकालएण जो पगु गिरंजणु लुकवालु
जो हियवएण णिषु जि णिराउ ! जो सत्तारहम जिणु विराम । जो' को जाणिजद कालएण । ण समंकित जो कंकालएण |
जो ण करइ करि कत्तियकवालु । सन्धि ६४
जो जिनवररूपी र पर्वतरे निकली है, जो बारह अंगोंके जलकी नदी है, जो (चौदह ) पूर्वरूपो गाती और जावादी' ऐमो धादेवीको में प्रणाम करता हूँ।
जो संसारमें छठे चक्रवर्ती हैं, जो हृदयसे नित्य वीतराग हैं, जो इन्द्रियरूपी क्रूर सांपोंके लिए विराड (वीराज - गरुड़ ) हैं, और जो सत्तरहवें वीतराग जिन हैं । जो काल के साथ न मरते है और न जन्म लेते हैं, जो काउको पमज्ञानसे जान लेते हैं, जो सघन मनरूपी अन्धकार, भ्रमरके समान कृष्णस्य और कलना ( चर्म ) से अंकित नहीं हैं, जो नग्न निरंजन और लोकपाल AU Mss, have, at the beginning of this barpdbi, this following stanza:
बासडोद्धमरारबोहमक्क (?) चण्डोशमाश्रित्य यः कुर्वकाममकाण्डवाडवविषि विहीरपिछपिम् । हंसाहारमुगमणकलमनागीरपोनायकं
काठमनित्वमहं कुतूहलवती सणस्प कीतिः वः ॥१॥ P reads'ग्मरावासमहक; Preads चण्डोसमासस्य; K reads wण्डीसमासृत्य Preads कुर्वरकाम'; A reads कुर्वरकी; P reada श्वेः । A reads हिडमण्डल । Pread ते । Khas marginal gloss on the starza: बलड एव बाबा, उहमसे भयानकः, आरवशम्मः तेन युक्तं उहुमतकं वाय यस्य हरस्य तम् । अकाण्ड मप्रस्तावेन । बद्रमाश्रित्य या कोतिर्षतते इत्यध्याहार्यम् । नादप्यई अतिशयेन निर्मला इति भावार्थः। कृतेः काम्यस्य । The stanza, all the
iame, is not clear. १, १.A वो वाणिज्जा यह कालएण | २. A माइकाएग। ३. पमंकित । ४. A लुबकवाल ।
५. AP कत्तियकराल ।
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४३६
महापुराण जे वुत्तु अहिंसावित्तिसुत्तु 'जो गणिवि ण याणइ अक्खसुत्त । जो दंसियसासयपरममोक्खु णन करइ पिणाएं कंडमोक्खु । जो तिउरउहणु जियकामदेव पट्ट परमप्पा देवाहिदेउ । जे रक्खिउ सण्हु वि जीउ कुंथु सो वंदिवि रिसिपरमेहि कुंथु । पुणु कह मि कहतह विच्च तासु दालिदुक्खदोहगाणासु । घसा-पत्थु जि जंबूवीववरि पुत्वषिदेहि महाणइ ॥,
णामें सीय सलक्खणिय तं को वपणहूं जाणइ ॥ १॥
तहि दाहिमतौरइ वरुछदेसि डिंडीरपिंडपंडुरणिवासि । सोहिल्लसुतीमाणयरि रम्मि अणवरयमहारिसिफाहियथम्मि । सोहरहु सीह विकमु महंतु जरवा णियारिकुलपलक्यतु । अणुहुँजिवि भोई सुदीहकालु जोयत कहिं मिणहंतरालु । णिवेळेत णिहालिय तेण उक संसारिणि रह णोसेस मुक्छ । जइवसहहु पासि यत्तिपहिं पावड्यउ सहुं बहुख तिपहिं । एयारहंगधरु सीलवंतु
षणि णिवसइ रक्खु व अणलवंतु । सिणि कणि सचित्ति उ चरणु देव वयविहिअजोन्गु दिपणु वि ण लेइ। हैं, जो हाथमें छुरी और खप्पर नहीं लेते। जिन्होंने अहिंसा-वृत्तिके सूत्रोंका कथन किया है, जो अक्षसूत्रोंको गिनना नहीं जानते, जिन्होंने शाश्वत परम मोक्षको देखा है, जो अपने धनुषसे तीरोंको नहीं छोड़ते, जो त्रिपुरका दाह करनेवाले और कामदेवको जोतनेवाले हैं, जो प्रभु परमात्मा और देवाधिदेव हैं, जिन्होंने सूक्ष्मजीवकी भी रक्षा की है, ऐसे उन ऋषि परमेष्ठी कन्धु जिनकी वन्दना कर, मैं फिर दारिद्रय दुःख और दुर्भाग्यको नष्ट करनेवाले उनके दिव्य कयान्तरको कहता हूँ।
धत्ता-इस श्रेष्ठ जम्बूढोपके पूर्वविदेहमें लक्षणोंवाली महानदी सीता है। उसका वर्णन करमा कौन जानता है ? ॥१॥
.........
उसके दक्षिण किनारेपर वत्स देश है, जहाँके निवासगृह फेनसमूहके समान धवल हैं, जो शोभित सीमाओं और नगरोंसे सुन्दर हैं। जहां महामुनियों द्वारा अनवरत रूपसे धर्मका कथन किया जाता है। उसमें अपने शत्रुकुलके बलके लिए यमके समान सिंहके समान विक्रमवाला राजा सिंहरथ था। लम्बे समय तक भोगोंको भोग चुकनेके बाद किसी समय आकाशके अन्तरालको देखते हुए उसने एक टूटते हुए तारेको देखा, उसको संसारमें रति नष्ट हो गयो। जिन्होंने पोड़ामोंको आहत किया है, ऐसे अनेक क्षत्रियोंके साथ यतिवृषभ मुनिके पास वह प्रबजित हो गया । ग्यारह अंगोंको धारण करनेवाले शीलवान् वह वनमें वृक्षकी तरह मौन रूपसे निवास करते हैं। संचित कण और तृणपर वह पैर नहीं रखते। दो हुई जो चीज व्रतविधिके अयोग्य है, वे उसे
६. A omits this foot. ७. १ ण जाणा । ८. P जंबूदीवि वरि । २. १.A भोय । २. AP णिवति । ३. A सणे । ४. A विष्णण मेछ।
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-६४.३.१० 1 महाकवि पुष्पदन्त विरचित
बंधिवि वित्यंकरणामकम्म मउ उवरिमिल्लु ससिरियसोम्मु । पत्तउ पंचाणुचरविमाणु मुंजिवि तेत्तीसजलणिहिपमाणु । छम्मास परिष्ट्रिउ आउ जाम वइसवणहु कहइ सुरितु ताम । पत्ता-दीवि पहिल्ला पविउलइ भरहि देसु कुरुजंगलु ।।।
गयउरि महिषइ बहिं यसइ सूरसेणु जैगमंगलु ॥२॥
कुरुकुलकहुँ सिरिजयसिरिणिकेउ कासवगोतें भूसिउ सुतेउ । सिरिकत कंत कमणीयरूय सुरखवरणियंदिणितिलयभूय । णरणाहहु सा वल्लहिय केव सुत्रियहड वरकश्वाणि जेव । एउहुं वोहं मि होही ण मंति जिणु कुंथु णाम केवलि कहंदि । करि पुरवरू प णंदणवणालु पुजिन्ना भत्तिइ सामिसालु | तं णिसुणिवि धणएं तं विचित किउ पयह कणयमाणिकदित्तु । पवणुद्धयपहकप्परर्पसु
सरसरिनीरंतररमियहंसु। पासायचूलियालिड़ियमेडु गय[ग्गयसुरहियधूंमरेहु । पत्ता-सेहुं सुत्ती रयणिहि सयणि बालहंसर्गयेगामिणि ।।
पच्छिमजामइ सोलह वि पेच्छइ सिविणय सामिणि ॥ ३॥ १० ग्रहण नहीं करते। तीर्थकर नामक प्रकृतिका बन्ध कर वे मर गये तथा वे ऊपर चन्द्रबिम्बके समान सौम्य पांचवें अनुसर विमानमें पहुंचे। वहां तैंतीस सागर प्रमाण आयु भोगते हुए जब छह माह आयु शेष रह गयी, तो इन्द्र कुवेरसे कहता है।
पत्ता-पहले द्वीप जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें कुरुजांगल देश है। वहाँ हस्तिनापुरमें जगमंगल राजा सूरसेन राजा है ॥२॥
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कुरुकुलका अंकुर तथा विजयश्रीका पर तेजस्वो वह कश्यपगोत्रसे विभूषित था । उसको कान्ता श्रीकान्ता अत्यन्त कमनीय रूपवाली और सुर विद्यापर-स्त्रियोंमें तिलकस्वरूप थी। राजाके लिए वह वैसी ही प्रिया थी जैसे सुविदग्धोंके लिए वरकविको वाणो प्रिय होती है। इन दोनोंके जिन कुन्थुके नामसे उत्पन्न होंगे, इसमें भ्रान्ति नहीं है। ऐसा केवली कहते हैं। तुम नगर, घर और नन्दनवनको रचना करो और भक्तिसे स्वामी श्रेष्ठको पूजा करो। यह सुनकर कुबेरने स्वर्ण और माणिक्योंसे प्रदीप्त विचित्र नगरकी रचना की। जिसमें हवासे पयमें कपूरको धूल उड़ती है, जिसके सर-नदीके नोरके भीतर हंस रमण करते हैं, जिसके प्रासादोंके शिखर मेघोंको छूते हैं, जहां सुरभित धूम्र रेखाएँ आकाश तक उठी हुई हैं।
पत्ता-शय्यातलपर सुखसे सोयी हुई बालहंसगामिनी स्वामिनी श्रीकान्ता रात्रिक अन्तिम प्रहरमें सोलह स्वप्न देखतो है ।।३।।
५. AP जयमंगल । ३. १. A 'कुलकाजयसिरिसिरि । २. A सुकेउ । ३. AF परगाहह तह पहलाहिय । ४. AP घर । ५..
पवाडयपंकयस्यविमीसु; P पवणुद्धयपहकप्पूरफंसु । ६. AP सरिसर । ५. A गयणगय । ८.१ धामरेछ । ९. A सुहमुत्ती । १०. गरगामिगि ।
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४२८
महापुराण
[६४.४.१
वारणं मयालोणछप्पयं
गोवई खुरुभिण्णवप्पयं । केसरि गलालंबिकेसरं
गोमिणी सुमालाजुयं वरं। उग्गयं हिमसुं' दिणेसरं
रत्तमीणजुम्म रईसर। सायकुंभकभाण संर्घद्धं
पंकयायर लच्छिपायई। खीरवारिरासि महारवं
विट्ठरं सकंठीरवं एवं । मंदिरं सुराणं बिहावियं . णायगेहमहिरायसेवियं। मेलयं मणीणं विपित्तयं
शत्ति धूमके पलित्तयं। राइछेयष संविद्धिया
सा णिवस्स बजरइ मुद्धिया । रसियाविरामे णियच्छियं दसणावलि कयसुइच्छियं । कहा ती तिस्सा फलं पई होहिहीं तुई सुट महामई । इंदचंदणाईदयदिओ
दिवणाणि णिजियमणिदिओ। चक्रपट्टि भोत्तूण भूयलं
पाविही पयं परमणिकलं । जवा-- गिणिति रह सह आइय मंदिर मीणइ ।।
बुद्धि सच्छि सिरि कति हिरि दिहि किचि वि लीलागइ ।। ४ ।।
१.
कय धणएं दरिसियसुरणसुढि सावणमासंतरि कसणपक्खि
छम्मासु जाम ता रयणबुट्टि। दहमइ दिणि भाणवजणियसोक्खि ।
Arram
जिसके मदमें भ्रमर लोन है ऐसा गज, अपने खुरोंसे वप्रकोड़ा करता हुआ वेल, गले तक लटकती हुई क्यालवाला सिंह, लक्ष्मी, सुन्दर मालाका उत्तम युग्म, उगता हुआ चन्द्र और सूर्य, खेलता हुमा रक्त मीनयुगल, स्वर्णकुम्भोंका युग्म, शोभाको प्रकट करता हुआ सरोवर, महाशब्दवाला क्षीरसमुद्र, नव सिंहासन, देवोंका विमान, नागराजोंसे सेवित नागभवन, मणियोंका विचित्र संगम और शीघ्र ही प्रदीप्त अग्निको उसने देखा। रात्रिका अन्त होनेपर जागी हुई वह मुग्धा राजासे कहती है कि रात्रिके अन्तमें मैंने शुभ और इच्छितको करनेवालो स्वप्नावली देखी है। पति उससे उसका फल कहता है कि तुम्हारा महामतिमान् पुत्र होगा। इन्द्र-चन्द्र और नागेन्द्रसे वन्दित दिव्यज्ञानी मन और इन्द्रियोंके विजेता, चक्रवर्ती जो भूतलका भोगकर परम निष्कल पद ( मोक्षपद ) प्राप्त करेगा।
पत्ता-यह सुनकर वह सती सन्तुष्ट हुई। मेनका उसके घर आयो। बुद्धि-लक्ष्मीश्रो-कान्ति-ह्रो-ति और लोलागति कीर्ति भी ।।४।।
कुबेरने सुजनको सन्तुष्ट करनेवाली रत्नवृष्टि छह माह तक की। श्रावण माहके कृष्णपक्षमें ४. १. A अरविभिष्ण । २. AP गोमिणि । ३. A हिमैसुं । ४. P संघणं । ५. A मेलयं विधित्तं मणोणयं
६. AP तुहं सुबो पहोही महामई । ७. A संतुटुमा । ५. १. A रयणविद्धि।
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४३२
-६४. ६.७]
महाकवि पुष्पदन्त बिरचित
थिउ गम्भि भडार परधामि । सोहरहु राउ अहमिंदु देख
वणिजइ कि णिवाणहेन । वणवाहिं घल्जियकन्चुरेहि थुध इदपांडदादि सुराई ।। गइ संतिणाहि मलदोसहीणि पल्लोवमद्धि सायरि वि खीणि । वईसाहमासि पडिययहि दियहि अग्गेयजोइ णरणाह पियहि । जायंट जिणु फयतइलोकाखोड सुरवइ संपत्तु ससुरवरोहु । णिस सुरगिरिसिरु सुरणाहणाहु णाणत्तयसलिलवरंभवाह । पत्ता-सिंचिवि खीरघडेहि जिणु अंचित णवसयवत्तहिं ॥
इंदै रुंदाणंवयरु जोइस दस सयणेत्तहिं ।। ५ ॥
बंदिवि पुणु णामु केहि वि कुंथु लंघेप्पिणु दीहरु पक्षणपंथु । पुरु आविवि जणणिहि दिण्णु बालु गा सग्गहु हरि सुरचकवालु । पोढसभावि थिउ कणयवण्णु कंतीइ पुण्णचंदु व पसण्णु । पहु पंचतीसघणुतुंगकाउ सिरिलंछणु जयदुंदुहिणिणाउ । तेवीससहसवरिसह सयाई सत्तेव सपण्णासई गयाइं । चरणंभोरणमियामरासु णियबालकलीलाइ तासु ।
पुणु तेत्तिउ मंडलियत्तण तेत्तिउ जि चकपरियतणेण । दसमीके दिन मानवोंको सुख देनेवाले कार्तिक नक्षत्रमें निशाके अन्तमें आदरणीय यह सिंहरथ राजा अहमेन्द्र देव प्रवरधाम और गर्भमें आकर स्थित हो गया। उसके निर्वाणके कारणका क्या वर्णन किया जाये ? जिन्होंने स्वर्णको वर्षा की है ऐसे वनवासियों, इन्द्र-प्रतीन्द्रों आदि देवोंके द्वारा उनकी स्तुति की गयो। मलदोषसे रहित शान्तिनाथ तीर्थकरके बाद लक्ष्मी उत्पन्न करनेवाला भाषा पल्प समय बीतनेपर वैशाख शुक्ल प्रतिपदाके दिन राजाओंको प्रिय आग्नेय योगमें त्रिलोकको क्षोभ उत्पन्न करनेवाले जिनका जन्म हुआ। सुरवर-समूहके साथ इन्द्र भी उपस्थित हुआ। देवेन्द्रोंके नाथ और ज्ञानरूपी सलिलके श्रेष्ठ मेघ उनको सुमेरु पर्वतपर ले जाया गया ।
पत्ता-वहीं क्षीरके बड़ोंसे अभिषेक कर फिर उनको नवकमलोंसे अंचित किया । इन्द्रने विशाल आनन्द उत्पन्न करनेवाले उन्हें हजार नेत्रोंसे देखा ।।५।।
फिर वन्दना कर, उनका नाम कुन्थु कहकर, लम्बे पवन-पथको पार कर, नगरमें बाकर धौर बालक माको देकर देवसमूहका पालक इन्द्र चला गया। स्वर्ण रंगवाले वह प्रौढ़ताको प्राप्त हुए। कान्तिमें वह पूर्णचन्द्र के समान प्रसन्न थे। स्वामी पैंतीस धनुष प्रमाण कंचे थे। वह श्रीलांछन और जय-जय दुन्दुभि निनादसे युक्त थे। जिनके चरण-कमलोंमें देव नमित हैं, ऐसे उनके नृपयाल क्रीड़ामें तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष बीत गये। फिर इतने ही वर्ष अर्थात् तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष राज्य करते हुए और इतने ही वर्ष ( २३७५०) चक्रवर्तित्वमें,
२. AP कित्ति । ३. A बइसाहमासि पडिवयह दियहिः P पइसाहमासि सेयपडिवयहि दियहि ।
४, AP जायत जिणि तेलोपकाखोहु । ६. १. AP करिवि । २. A सुरु पक्कवालु । ३. AP विय' ।
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४४०
[६४.६.८
महापुराण जइयतुं परिछिण्ण र कालु दीहु तइयतुं परमेसरु पुरिससीहु । गप कहि, मि वणंतरु रमणकामु दिट्ठल रिसि तेण तवेण खामु । मत्तंडचंडकिरणई सहंतु दुम्मुकजम्माविलसिउ महंतु । पत्ता-सो तमणियह दसियच मंतिहि तेण परिंदें।
जोयहि दुखेरु तवघरगु चिण एण रिसिंदें ।।६।।
छडिवि 'कुलुबु कुविडंबु सन्यु छडिवि कुल्लबलु छलमाणगन्दु । वणि पइसिवि णिहसिषि इंदिई अवगविजयि युजः देखाई। धंगत ववसिउ जइपुंगमेण लइ हमि जामि एण जि कमेण । तं णिसुणिवि मते वुत्तु एम एयइ णिट्टा तउ करिवि देव । जाएसइ कहिं णिम्गुरूगथु तं शिसुणिवि भासइ देउ कुंथु । जाएसइ तहि जहिं भूयगामु पर पहवइ लोहु ण कोहु कामु । जाएसइ तहिं जहि हेमकंति गउ परमप्पउ परमेट्रि संति । हो हर मि एवञ्चमि तेत्थु तेम ण णियत्तमि काले कहि मि जेम ।
घरु आवेप्पिणु संसरासाईहि ता पडियोहिउ सुरवरजईहिं । १. अहिसेउ विरइज पुरंदरेण कुलि णिहि प्रतणुरुहु जिणवरेण ।
घत्ता--सिषियहि तेणारहणु किट विजयहि विजयपयासहि ॥
जाणामणिसिहरजलहि लग्गखगाहिव तियसहि ॥७॥ इस प्रकार जब उनका लम्बा समय निकल गया, तब वह पुरुष श्रेष्ठ परमेश्वर रमण करनेको इच्छासे कहीं भी बनान्तरमें चले गये। वहां उन्होंने तपसे क्षीण एक मुनिको देखा-सूर्यकी प्रचण्ड-किरणोंको सहन करते हुए महान् तथा जन्मको चेष्टाओं से मुक्त।
पत्ता-उस राजार्ने अपनी तर्जनीसे मन्त्रियों के लिए उन्हें बताया कि देखो इन ऋषीन्द्रने कठोर तपका आचरण किया है ||६||
कुत्सित विडम्बनावाले सब कुटुम्बको छोड़कर; कुलबल, कपट, मान और गर्वको छोड़कर, वनमें प्रवेश कर, इन्द्रियोंको संयत कर, दुर्जनोंको निन्दाकी उपेक्षा कर इन यतिश्रेष्ठने बहुत अच्छा किया। लो मैं भी इसो परम्परासे जाता है। यह सुनकर मन्त्रोने इस प्रकार कहा-"हे देव, इस निष्ठासे तपकर परिग्रहसे रहित, यह कहां जायेंगे ?" यह सुनकर कुन्थु क्षेव कहते हैंकि वह वह जायेंगे जहाँ प्राणिसमूहको लोभ, क्रोध और काम प्रभावित नहीं करते । वहाँ जायेंगे जहाँ स्वर्णकान्ति शान्ति जिन परमेष्ठी हों, मैं भी उसी प्रकार वहां जाऊँगा, जहाँसे समयके साथ वापस नहीं आऊँगा। तब घर आकर लोकान्तिक देवोंने अपनी बाणोंमें उन्हें सम्बोधित किया। इन्द्रने अभिषेक किया । जिनवरने अपने पुत्रको कुलपरम्परामें स्थापित किया।
पत्ता-उन्होंने विजयको प्रकाशित करनेवाली, नाना मणिशिखरोंसे उज्ज्वल तथा जिसमें विद्याधर राजा और देव लगे हुए हैं, ऐसी शिबिका आरोहण किया ।।७।।
४. AP दुक्कामसम्म । ५. A दुद्ध । ७. १. A कुटुंदु । २. A मुसराईहि: KT recard: सुसुहासईहि इति पाठे अतीव शोभनमाषिभिः ।
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- ६४.९.२]
महाकवि पुष्पवन्त विरचित
वणि विलिसउक्खणील दिन तम्मि चेय विच्छुलियपंकि मैड लण्ड लवि छट्ठोववासु संसार सण किंपि बहु ates दिणि दिrयरकपप दाँसि गयचरि दाबि आहारु चारु अमरहिं वह्निय मंदारयाई सोरिस त froषु चरिषि दिवखावणि पत्ति इति मासि कयखट्टे तिलयतला सिएण अप्पेणपाणसं सुणिवं तेण पेरिजाणिडं दिजगु अनंतु गयणु
८
८. १. AP
५६
णियजम्ममास पक्वं वरालि । कित्तियणक्खत्तासि समं किं । तें हुं पश्यसिहासु । जय णाणु जिणेण लद्ध | परिभ्रमण परवासवासि थि धम्ममित्तघरि इयबियाह । विहियई पंच वि अच्छेरयाई । भवभामिरु बुकियभाष हरिबि । दिति दिणि सुहणिवासि । वणि खोणकाएं जससिएण । उग्गमिणा केवलेण । जायत ओइजिणु अचलणयणु ।
घसा--दिनवंबर दिव्षाहरणई सुर णमंत चढपासहि ॥ पुणु वि पुरंदरु अवरित णाणाज्ञाणसासहिं ॥ ८ ॥
९.
थिओ समवसरण या विससरणि । जिणो विधियकरुणो इयावरणमरणो ।
४४१
१०
८
सहेतुक वृक्षोंसे हरे विशाल वन में अपने जन्मके अन्तराल और दिनमें ( अर्थात् वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन ) चन्द्रमा कृत्तिका नक्षत्र में स्थित होनेपर छठा उपवास करते हुए उन्होंने व्रत ग्रहण कर लिया। उनके साथ एक हजार लोग और प्रव्रजित हुए। उन्होंने संसारके प्रति कुछ भी स्नेह नहीं रखा, जिननाथने मन:पर्ययज्ञान प्राप्त कर लिया। दूसरे दिन, दिनकर द्वारा जिसमें प्रकाश किया गया है, ऐसे हस्तिनापुर में स्वामी घर-घर परिभ्रमण करते हैं। हतविकार वह धर्ममित्र के घर ठहर गये। वहां उन्हें सुन्दर बाहार दिया गया। देवोंने मन्दारपुष्प बरसाये और पाँच आश्चर्य प्रकट किये। सोलह वर्ष तक तीव्र तपका आधरण कर संसारमें परिभ्रमण करानेवाले पापभावको नष्ट कर वह शुभ विश्वास दीक्षा वनमें पहुँचे । चैत्रमाह के शुक्ल पक्षको तृतीयाके दिन तिलक वृक्षके नीचे स्थित यशसे श्वेत छठा उपवास करनेवाले क्षीणकषाय उन्होंने आत्मासे आरमाका ध्यान किया । उत्पन्न हुए केवलज्ञानसे उन्होंने त्रिलोक और अनन्त आकाश जान लिया । अचल नेत्र जिन ज्योति सहित हो गये ।
पत्ता - दिव्य वस्त्र और दिव्य आभरण धारण करनेवाले देव चारों बोरसे उन्हें प्रणाम करते हैं। फिर भी अपने नाना यानोंसे पुरन्दर वहाँ आया ॥ ८॥
९
सदैव विद्वानोंके लिए शरणस्वरूप समवसरण में वह स्थित हो गये। करुणा करनेवाले,
मूलि । २. A विलियं । ३ AP वस । ४. A नृवसहासु । ५. P पर जाणिव ।
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૪૪૨
१५
समुद्धरइ समयं मुसाषयणमुइयं जणं करइ विमयं
मलं महइ कसणं फणी सुरणिमवर्ण लं खलइ कविलं
तणियि महिल बला विहियेपुरं मुणि कणवरणं खणाभाव विगयं
महापुराण
अर्थ अमरतरुणीपरं रिसहचरियं जिणा किमवि गहिये सोड र
चालीस तिणि सहसाई होति एत्तिय सिक्खु सिक्खाविणीय
या हरइ कुमयं । पसूहणणरूयं । पहे थवर दुभयं । घणं दमइ दसणं ।
फुबं कहइ भुषणं । हरं हसणमुहलं । महीधरणबलं । हरि भगइ ण वरं । तं तिमिरहरणं । पत्तियह सुगयं । रथं पणमइण गुणी | महोपसमरियं । मणे अहब महिये । ण णरयविवरि ।
धत्ता-पंचतीस गणहर जिगहू जाया हयरेयसंग ॥ भयसाई दिव्वहरिसिंहि मणमणिय पुरुषं गहूं ॥ ९ ॥
१०
सहं अद्धसएं सब तर्हि णति । गुरुभत्तिवंत संसारभीय ।
[ ६४.९.३
मरणके आवरणको नष्ट करनेवाले वह जिन जिनशासनका उद्धार करते हैं, नयोंसे कुमतका हरण करते हैं। असत्य भाषणसे मुदित होनेवाले, पशुहत्या में रुचि रखनेवाले उनको वह मंद रहित करते हैं, दुर्मदको पथमें लाते हैं, पाप और मलका नाश करते हैं, सघन दुःखोंका दमन करते हैं, नागेश्वर और नृपभवनवाले विश्वका स्पष्ट कथन करते हैं। चंचल कपिल मतको और हंसीसे मुखर हरको स्वलित करते हैं। शरीरपर महिलाको धारण करनेवाले धरतीको धारण करने में समर्थ, बलपूर्वक द्वारिकाका निर्माण करनेवाले हरिको जो वर नहीं कहते, जो अक्षपाद मुनि हैं, वह अन्धकारका नाश करनेवाले नहीं हैं, जो क्षणिकवादको माननेवाले हैं ऐसे उन सुगतका विश्वास मत करो। ब्रह्मा देवस्त्रीमें रत है, उसे गुणी नमस्कार नहीं करते। केवल महान्
से भरित ऋषभचरितको जिसने स्वीकार किया है, अथवा मनमें उसकी पूजा की है, वह नर गम्भीर नरकविवर में नहीं पड़ता ।
पत्ता - जिनवर के पैंतीस गणधर थे। पापसंग्रहको नष्ट करनेवाले और अपने मनमें पूर्वांगों को माननेवाले दिव्य ऋषि सात सौ थे ||९|
१०
तैंतालीस हजार एक सौ पचास इतने महान् भक्ति से पूर्ण, संसारसे पीत और शिक्षा में
.
९. १ K सुरभवणं । २ विहियपरं । ३ A महापस । ४. Pomits ण । ५. AP मरहसंग । ६. AP मणिमणिय ।
C
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४४३
-६४. ११.४]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित दोसहसाई पंचसयाई भोहि णाणिहिं केलिहिं ति दोण्णि लेहि । पंचेव सहस सउ एफु ताह महरिसिहि विश्वणरिद्धि जाई। वोसहसई पपणासाहियाई गुणवंतह वाइहिं साहियाई । सहसाई तिण्णि तिणि जि सयाई मणपज्जववंतह गयमयाई । सहसाई सट्टि आहुइसयई
अज्जियहं तेत्थु थुयकुंथुपयई। सार्वयह लक्ख दो दिणि लक्ख सावहिण याणमि देव संख। संखेज तिरिया पाकरालु जेन्दिन होवि भित्र चायालु । तेत्तिज सोलहव रिसूणु कालु महि विहरिवि हयणरमोहजालु । गठ संमेयह सम्मयगुणालु तं सुकमाणु पूरिउ बिसालु। पडिमाइ परिट्ठिउ मासमेतु रिसिसहसं सहुं णिमुकगत्तु । पत्ता-पइसाहहु सियपडिवइ जामिणिमुहि णिहयक्खहु ।।
गउ जिणु सहसक्खें कित्तियउ कित्तियरिक्खे मोक्खहु ।।१०।।
उपदटण
कय तियसहिं तासु सरीरपुज सुरकिंकरकरहयविविहबज्ज । भंभाभेरीदुंदुहिणिणाय
घणथणियामरमुहमुकणाय । पयपणइपयासियदुरियदलणे जय जयहि जिणेसर कम्ममलण ।
उज्वसिरंभाणाचणरसिल्लु। सयमहकरपंजलिपित्तफुल्ल । विनीत शिक्षक थे। दो हजार पाँच सो अवधिज्ञानी थे। तोन हजार दो सौ केवलज्ञानी, विक्रिया ऋषिके धारक महामुनि पांच हजार एक सो, गुणवान वादी मुनि दो हजार पचास थे, तीन हजार तोन सौ मद रहित मनःपर्ययज्ञानी थे। साठ हजार तीन सौ पचास कुन्थु भगवानके चरणकी स्तुति करनेवाली आर्यिकाएँ थीं। दो लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएं थीं। देवोंकी संख्या में नहीं जानता। नखोंसे भयंकर जितना संख्यात तिथंच समूह था, वह गोलाकार स्थित हो गया। जिन्होंने मनुष्यों के मोहजालको नष्ट किया है, ऐसे सम्यक्त्व गुणोंके पर वह उत्तने हो सोलह वर्ष तक धरतीपर विहार करते हुए सम्मेदशिखर पहुंचे। वहां उन्होंने विशाल शुक्लध्यान पूरा किया। एक माह तक प्रतिमा योगमें स्थित रहे और एक हजार मुनियोंके साय शरीरसे मुक्त हो गये।
घता-वैशाख शुक्ला प्रतिपदाके दिन रात्रिके पूर्वभागमें कृत्तिका नक्षत्रमें इन्द्रके द्वारा कीर्तित जिन मोक्षके लिए गये ॥१०॥
जिसमें देवों और अनुचरोंके हाथोंसे विविध वाद्य बजाये गये हैं, देवोंने उनकी ऐसी शरीर पूजा की। भम्भा, भेरी और दुन्दुभियोंका निनाद और जोर-जोरसे बोलनेवाले देवोंका नाद होने लगा । चरणों में प्रणत लोगोंके पापोंका दलन प्रकाशित करनेवाले और कर्मों का नाश करनेवाले हे देव, आपको जय हो। जो उर्वशी और रम्भाके नृत्यसे रसमय है, जिसमें इन्द्र के हाथों फूल फेंके जा १०. १. A केवलिहि वि दोणि । २. A सावयह संख दो । १. A omits this foot. ११. १. AP दलणु । २. AP वरजलणकुमारणिहितजल । ३. A रसिल्क । ४. A फुल्ल ।
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महापुराण
[६४, ११.५तुबरुणारयसंगीयगेय
विरइय जिणपद्धिविबाहिसेय । मालाविजाहरपिहियगयण मुणिघोसियणाणाथोत्सवयण । णवकमलकलसवप्पणसमेय धवलायबत्तधयसंखसेय। दूवंकुरदहिचंदणपसस्थ
घंसगविलंबियदिव्ववत्थ । सण्णाणि सुसणि विलबुद्धिणियाणपुज्ज महुं देख मुद्धि । घत्ता-सुई कुंथु भडारउ देउ महुं वंदिउ भरहरिदहि ॥
सियपुप्फयंतउज्जलमुहिं मिल फणिसुरिंदहिं ॥११।।
इय महापुराणे विसटिमहापुरिसाणाकंकार महाकइपुप्फयतविरहर महामस्वमरहाणुमपिणए महाकम्वे कुंधुर्चकहरतिस्पयरणिध्वाणगमणं णाम घाटिमो
परिको समतो ॥४॥
रहे हैं, तुम्बुरु और नारदके द्वारा गीत गाये जा रहे हैं, जिन प्रतिबिम्बोंका ऐसा अभिषेक किया गया। जिसमें विद्याषरोंकी कतारोंने भामाशनो दल लिया है, जिसमें मुनियोंके द्वारा नाना स्तोत्रवचन घोषित किये जा रहे हैं, जो नवकमल-कलश और दर्पणसे युक्त हैं, जो धवल आतपत्र ध्वज और शंखोंसे पवेत है। दुर्वांकुर, दही और चन्दनसे प्रशस्त है, जिसमें बाँसोंपर दिव्यवस्त्र अवलम्बित हैं, ऐसी निर्वाण पूजा, मुझे ज्ञान और दर्शनसे युफ विपुल बुद्धि और शुद्धि प्रदान करे।
पत्ता-भरतादि नरेन्द्रोंसे वन्दित, श्वेत नक्षत्रों के समान उज्ज्वल मुखोंवाले नागेन्द्रों-सुरेन्द्रों द्वारा नमित आदरणीय कुन्थुदेव मुझे सुख प्रदान करें ॥११॥
बेसह महापुरुषोंके गुणाकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त बाग विरचित पूर्व महाभय मरत द्वारा अनुमत महाकाव्य में कुन्थु पक्रवर्ती और तीर्थकर
निर्वाण गमम मामका चौसठवौँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥६॥
५. AP सेयरविसहरवाहि । ६. AP कुंथुपाकवहितिस्पयरपुराणं ।
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संधि ६५
सुयदेवयहि पत्यहि पस भियदुम्महि ॥ बंदिदि सिरेण सवई अंगई भयवइहि ॥ ध्रुषकं ॥
जो भयवंतो मुझसवासो जेण कथं उत्तमसंणासं जिगदहं पंचिदियणास' भीममुहा वग्धारणवासर रक्ख सुवणं जरस स्खमा णं जेणुव धम्मणिहाणं जो जीवाणं जाओ ताणं अत्ताणं वत्पाणं
१
जं णीसासो सुरहियवासी । जो ण समिच्छर घणासं । जं पण तो पावर या सं । जस्स गया दूरेण सवासा । पाणं जस्साणंतखमाणं । सेमियं चित्तं भिमणिहाणं । गुरुभक्ती जाणताणं । जो बत्ताशे सव्यपयाणं ।
सन्धि ६५
दुर्मतिको प्रशमित करनेवाली प्रशस्त भगवती श्रुतदेवताके चौदह पूर्वी सहित ग्यारह अंगोंकी में वन्दना करता हूँ ।
जो ज्ञानवान् अपने गृहवाससे मुक्त हैं, जिनसे मनुष्यों को शिक्षा होती है, जो सुरभित गन्धवाले हैं, जिन्होंने उत्तम संन्यास लिया है, जो आहारनिद्रादि संज्ञात्रोंको नहीं चाहते, बल्कि जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट पाँच इन्द्रियोंका नाश चाहते हैं। जिनको प्रणाम करनेवाला पुरुष सुख प्राप्त करता है । व्याध्यादि धर्मको धारण करनेवाले पाशयुक्त वेताल आदि देव जिनसे दूर चले गये हैं, जिनकी क्षमा विश्व और मनुष्यकी रक्षा करती है, जिनका ज्ञान अनन्त आकाश के प्रमाणवाला है । जिन्होंने धर्मका उपदेश किया है और भीलके समान लोगोंके चित्तको शान्त किया है, जिन जीवोंमें गुरुजनोंके प्रति भक्ति है, वे उनके त्राता हैं। जो आाप्त आदिके वस्तुप्रमाण और समस्त पदोंके
All Mas, have, at the beginning of this samdhi, the following stanza:
बाजभ्मं (?) कवितारसे कधिषणा सौभाग्य भाजो गिरो
grea raut frera कलयम्यानुगा बोधतः ।
किंतु निगूढमतिना श्रीपुष्पदन्तेन भोः
साम्यं विभ्रति (?) नैव जातु कविता शोधं ततः प्राकृते ॥ १ ॥
AP read fares in the second line; A reads of in the third line; and AP read कविता, A reads शोनं तत प्राकृतः, Preads शीघ्रं त्वतः प्राकृतेः in the fourth line.
१. १. A सम्मितिं । २. A अंताईणं; P बधाई |
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५
४७६
१५
१०
दिण्णं जेणं' अभयपण भक्तारं धीरं हूं तरस भणामि चरितं चित्तं
सीहि उत्तरकूलि रवण्णइ खेमणार धणव पुहईसरु दाह तित्ययरसमीवर अप्परं तेण णिओडे राएं कुपथें जाणियसत्यें जाउ जयंताणुत्तरि सुरवरु भाउ तासु तेत्तीस महोयहि तप्पमाणवि किरियाते एं
अहमदगडं
महापुराण
घता- - जंबूदीषद सुरगिरिपुव्य दिसा सियइ || पुषविदेह पविउलि केवलिभासियम् ।। १ ।।
२
घसा - सोहम्माहित भव्ष
सासयसिवणयरस पयाणं । णमितं देवं अरमरिहतं । जणियसुरासुर बिसहर चित्तं ।
कच्छाणाम देसि वित्थण्णइ । रु रमणीसरु बम्मीसरु | झिवि धम्मु णाणसम्भावइ । वेणुकाएं | किस ओवगमणु परमर्थे । कायमाणु तक एक जि फिर कठ । ataणाडि सो पेक्ख साहि ।
वरण संतु अमेएं । उहि थि छम्मा पाउं । जिणपयरथमहि ॥
[ ६५, १.११
हि कालिहिं आवास सुरवइ धणवइहि || २ |
वक्ता हैं, जिन्होंने अभयको प्रदान और शाश्वत शिवनगरको प्रयाण किया है, ऐसे संसारका नाश करनेवाले धीर अरहनाथ अर्हतको नमस्कार कर उनके सुर, असुर और विषधरोंके चित्तको आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले विचित्र चरित्रको कहता हूँ ।
धत्ता - ज - जम्बूद्वीप के सुमेरुपर्वत की पूर्व दिशा केवलोके द्वारा भाषित विशाल पूर्वविदेह में || १ ||
२
सीता नदीके उत्तरीतटपर फैले हुए सुन्दर कच्छ नामके देशके क्षेमनगर में धनपति नामका राजा था। रूपमें जो स्त्रियोंका स्वामी और कामदेव था, वह बर्हन्नन्दन तीर्थंकर के समीप धर्म समझकर उस राजाने ज्ञानके स्वभाव में अपनेको नियोजित कर लिया। मन बचन कायसे श्रमण होकर, खोटे मार्गको छोड़कर और शास्त्रको जानकर उसने परमार्थं भावसे प्रायोपगमन किया । वह जयन्त विमान देव पैदा हुआ। वहाँ उसके शरीरका प्रमाण एक हाथ था। उसकी आयु तैं तोस सागर प्रमाण थी । अवधिज्ञानी यह फोकनाड़ीको देख सकता था। सन्तप्तमान विक्रिया ऋद्धिके तेज और वीर्य से संयुक्त सुखको बिना किसी मर्यादाके भोगते हुए उस बहमेन्द्रकी बायु छह माह शेष रह गई।
पत्ता- तो उस अवसरपर सोष इन्द्रने जिनपद में जिसकी मति अनुरक्त है, ऐसे भव्य कुबेरसे कहा ||२||
A येणं । ४. AP वीरं ।
२. १. A बृजतवि णाणु बम्मू । २. APणिनोषि । ३ AP सबणु । ४. AP पायोगमरण । ५. AP
०
अहमिदानं । ६. A वाणं; P पमाणं । ७. AP हि निकाल बाहास |
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-६५.४.५]
महाकवि पुष्पवन्त विरचित
३
एत्यु भरहि कुरुजंगलि जनवर राणु त गुणजलसरि एयह दोहं वि होसह जगगुरु ता तं चाइनिज रइय णिसि हुं सुतइ पियकमणीथड़ करि करोड पंचाणणु गोमिणि सफल दो कलस सुहायर विमा णायालए
जायवेट दोहरजालावलि
कुंजरपुरवर माधुयधः । मित्तसेण णामेण घरेसरि । तुहुं करितो तुरि कंचनपुर । पट्टणु रयण किरण अस इयउ । सिवियर्पति दिट्ठ रमणीयइ । मालाजुयलु चंदु णहयलमणि । विमलसलिलकमलायर सायर । मणिणि ऊरालय 1
इय जोइवि ताए सिविणावलि ।
घता
- देवि सुविद्धि अवि णरवहि || तेण वि फलु बिसेष्पिणु भासि तहि सहहि ॥ ३ ॥
जो जण तिष्यणि पर अप्प सुर्ण हरिसिय सीमंतिणि कँति किति सह बुद्धि भडारी जाम्भासबारे चंदि फग्गुणि चंदषिद्धहि तद्दयहि
४
सो तुह सुड होसह परमध्य
आइय घरु सिरि दिहि हिरि कामिणि ।
भसुद्धि कय ह जणेरी । वैशिशिर णिसिपछि म झहि रेवइयहि ।
४४७
१०
३
यहाँ भरतक्षेत्रके कुरुजांगल जनपद में जिसमें हवासे ध्वज हिलते हैं, ऐसा हस्तिनापुर नगर है, उसमें राजा सुदर्शन है। उसको गुणरूपी जलकी नदी मित्रसेना नामको गुहेश्वरी थी । इन दोनोंके विश्वगुरु जन्म लेंगे, तुम शीघ्र उनके लिए स्वर्णनगरकी रचना करो। तब कुबेरने जाकर रनकिरणोंसे अतिशय पूर्ण नगरको रचना की। प्रिय रमणी कामिनीने रात्रिमें सुखसे सोते हुए स्वप्नमाला देखी। हाथी, बैल, सिंह, लक्ष्मी, मालायुगल, चन्द्रमा, सूर्य, दो मत्स्य, दो शुभाकार कलश, विमल जल और कमलोंका सरोवर, समुद्र, सिंहासन, विमान, नागलोक, किरणोंसे भास्वर मणिसमूह और दीर्घ ज्वालावली से युक्त आग। इस प्रकार स्वप्न देखकर उस
धसा - देवोने सोते जागकर, राजासे कहा। उसने भी हँसते हुए उस सती से उसका फळ बसाया ॥३॥
३. १. AP । २. A सुसुप्त ३ AP मयूहं ४ A विबुद्धर । ४. १.AP विहुवणु । २. P सुणिनि ।
३. A खितव; P चित्रात ।
*
जो त्रिभुवनमें स्त्रपरको जानता है, वह परमात्मा तुम्हारे पुत्र होंगे। यह सुनकर वह सीमन्तिनी हृषित हो उठी। घरपर श्री, धृति, हो, कान्ति, कीर्ति, सती और बुद्धि आदि आदरणीय देवियां मायी और उन्होंने सुखको उत्पन्न करनेवाली गर्भशुद्धि की । जब छह माह बाकी बचे तो कुबेरने लोगोंको आनन्द देनेवाले सोनेकी घरपर वर्षा की। फाल्गुन कृष्णा तृतीयाके दिन, रात्रिके
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४४८
महापुराण
[६५.४६थिउ गन्भतरालि जो धणवइ सो अहमिंदु पवेप्पिणु सुइमा । थुड अमरिंदचंदधरणिंदाहि सह दिवसहु लग्गिवि जखिदहि । बुट्टउं विसरिसेहि वसुहारहिं अट्ठारहपक्खंतरमेरहिं । परिवरता विणानंतर परिसकोडिसइसेण विहीणइ । थकाइ कंथुणाहणिवाणइ । पक्ष पत्थभायपरिमाण वरममासिरमासि सिसिरहु भरि पूसजोइ चवदहमद वासरि । घत्ता-सग्गममा खोहणु बुझ्यणदुरियहरु॥
णाणत्तयसंजुत्तम णासियजम्मअरु ॥४॥
सत्तम पकवट्टि हथपरमाउ संभूयउ जिणु अट्ठारहम। मंदरसिहरि तूरणिरघोसहिं पहदिन पुरंदरेहिं बत्तीसहिं । णामु फरेप्पिणु परमेसहु अक अम्महि करि अप्पिर आविवि पत। गड पोलोमीवर णियमंदिर बडइ पुण्णवंतु जिणु सुंदर। हेमच्छवितणु दहदहवणुतणु गहयारउ गुणगणरंजियजणु । एकवीसवरिसह सहसई सिसु लीलइ थिउ डिंभयकीलावसु । एचवीसेसहसई मंडलषह एकवीससहसई पुणु महिवह।
चवदह रयणई णव वि.णिहाण मुंजिवि पीणिवि दक्षिणे दीणहं । अन्तिम प्रहरमें रेवती नक्षत्रमें, जो धनपति, अहमेन्द्र था, शुभमति वह, वहसि व्युत होकर, गर्भमें आकर स्थित हो गया। अमरेन्द्र चन्द्र और धरणेन्द्रने स्तुति की। उस दिनसे लेकर यक्षेन्द्रने अठारह पक्षों तक असामान्य स्वर्णधाराकी वर्षा की। कुन्थुनाथके निर्वाणके बाप समयको परम्परा बोतनेपर एक हजार करोड़ वर्ष कम पस्यका चोपाई भाग जब पोष रह गया, तो शिशिरके भारसे भरे मार्गशीर्षके शुक्ल पक्षको चतुर्दशीको पुष्य नक्षत्र में
पत्ता-स्वर्गमार्गको क्षुब्ध करनेवाले, बुधवनोंके पापको हरण करनेवाले तीन ज्ञानों युक्त, जन्म और बुढ़ापेका जिन्होंने नाश कर दिया है ॥४॥
___ ऐसे शत्रुका मद दूर करनेवाले सातधे पक्रवर्ती और अठारहवें जिन उत्पन्न हुए। मन्दराचलके शिखरपर, बत्तीस इन्द्रोंने तूथों के निर्घोषके साथ उनका अभिषेक किया। परमेश्वरका 'बर' माम रखकर और घर आकर माताके हाथमें सौंप दिया। इन्द्र अपने घर पला गया। पुण्यवान सुन्दर जिन बढ़ने लगे। स्वर्णके समान शरीर कान्तिवाले उनका शरीर बीस धनुष प्रमाण ऊंचा था। और वह अपने गुणगणसे जनोंका रंजन करनेवाले थे। बाल कीराके वशीभूत वह शिशु इसकीस हजार वर्ष तक कीड़ामें रहा। फिर इक्कीस हजार वर्षों तक वह मण्डपति रहे फिर इक्कीस हजार पर्ष तक चक्रवर्ती राजा रहे । चौदह रत्न और नौ निधियोंका भोगकर धमसे
४. A वेवसह; P विवहह । ५. AP परिगड्ढ़ता। ६. AP विणि । ७. P सियमन्पसिर । ८...
सिसिहरभरि; P सिसिरहे भरि। ५. १.K मंदिरसिंहरि । २.Pएक्कवीसंसहसहस।
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-६५. ६.११]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित सारयन्मु पविलीणु णियच्छिवि लच्छिविहोत असेसु दुगुंछिवि । जीविउ देहु असारु पियपिवि अरविंदेहु महिरनु समाप्पिवि घता-खीरवारिपरिपुण्णहिं दारहारसियहिं ॥
पहाइवि मंगलकलसहिं सुरपल्हस्थियहिं ॥५॥
णिमणिवि सारस्सयसंबोहणु वइजयंतसिबियहि आरोहणु। करिवि सहेउयवणु तं जेत्तहि उ तुरिएण महापह सत्ता। मियसिरजुतमासि वहमइ दिणि चदिणि रेवइरिक्ति सुसोहणि । अवरोहर छटेणुववासे णिर्खतउ सहुँ रायसहासे । लुचिवि कुंतल णिम्मोहाल लिंगु असंगु लेवि गिलहं। मणपज्जयधरु सुद्धिणिरिक्खहि बोयह दियहि पदुड भिक्खहि । चक्षणयरि अवराइयणर। पारावित अमरासुरसुरखें। तहु धरि पंच षि चोजई घडियई कुसुमई रयणई गयण पडियई । सवतायें णियतणु तावतउ सोलहवरिसई महि विहरतस । धत्ता-दिखावणु आवेप्पिणु कत्तियमासि 'पुणु ॥
सियबारहमद वासरि सुरषरणवियगुणु ॥ ६ ॥ दोनोंको प्रसन्न कर शरदके मेधको लीन होते देखकर, अशेष लक्ष्मी-विभोगको निन्दा कर जीवन और देहको असार समझकर, अरविन्द (पुत्र) को महाराज्य देकर।
पत्ता-क्षीर समुदके जलोंसे परिपूर्ण, तार और हारके समान स्वच्छ मंगलकलशोंसे, देवपंक्तियों द्वारा स्नान कराकर ||५||
लोकान्तिक देवोंका सम्बोधन सुनकर, वैजयन्त शिविकापर आरोहणकर, जहाँ वह सहेतुकबन था, वहाँ महाप्रभु तुरन्त गये। मार्गशीर्षके शुक्ल पक्षकी बसमीके दिन, सुशोभन रेवती नक्षत्रमें अपराह्नमें वह छठा उपवास कर एक हजार राजाओंके साथ दीक्षित हो गये। केशलोंच कर निर्मोहसे युक्त असंग चिह्न और दिगम्बरत्व लेकर, वह जिसमें शुद्धिका निरीक्षण है, ऐसी भिक्षाके लिए दूसरे दिन प्रविष्ट हुए। चक्रनगरमें अमरों और असुरोंके समान सुन्दर स्वरवाले राजा अपराजितने उन्हें बाहार दिया। उसके घर में पांच आश्चर्य प्रगट हुए । पुष्पों और रत्नोंकी बाकाशसे वर्षा हुई। तपके तापसे अपने शरीरको तपाते हुए तथा सोलह वर्ष तक परतीपर विहार करते हुए।
पत्ता-दीक्षावन ( सहेतुकवन ) में बाकर, सुरक्रोंसे जिनके गुण प्रणम्य है, ऐसे यह कार्तिक शुक्ला द्वादशीके दिन ।।६।। ६. १. A सारयस्स । २. AP तावंतह । ३. AP विहरंतह ।
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Y
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महापुराण
अवरोहह अक्यतलि थाउ छट्टववासिउ मोहें मुकठ । जायउ केवलि केवलंदसणि ऑयज भेसेइ अंगौरउ सणि । धरणु बरणु ससि तरणि धणेसर पवणु जलणु भावेण सुरेसर । थुणइ अणेयहिं थोत्तपउत्तिहिं समवसरणु किउ विविहवित्तहि । तेत्थु णिसण्णएण तं सिड जं अपरेहिं मि देवहिं दिवट । पाणिरूवि अज्जीव पयासिय रूविर्खधदेसाइवि भासिय । मग्गणगुणठाणाई समासिय जीव सकाय अकाय षि दरिसिय । सत्तपंचणवछविड्भेयई
एयई अवरई कहिय पोय। तहु संजाया वहिं मलियकर गणहर तीस रिद्विषुद्धोसर।। गणमि दहुत्तर वम्महदमणहं तिण्णि तिषिण सय सिक्खुय र्सेवणहं। पत्ता-पंचतीससहसई भणु अहसयई कियई ।।
तीसणिउत्सई जाणसु मुणिहिं वयंकियई ॥७॥
एत्तिय आहेणााण तहु हयकाले जिणवरचरणुष्णामियसीसई मणपजयधराहं वरचरियह
दुसहस वसुसय साहिय केवलि। दोसहसई पणवणविमीसई। चउसहसई तिसय चिकिरियहं ।
अपराहमें आम्रवृक्षके नीचे स्थित हो गये और छठे उपवासके द्वारा मोहसे मुक्त हो गये। केवलदर्शनी वह केवली हो गये। बृहस्पति, मंगल, शनि, धरण (नागकुमारोंका इन्द्र), वरुण, शशि, सूर्य, धनेश्वर (कुबेर), पवन, अग्नि और इन्द्र भावपूर्वक बहाँ आये । वह अनेक स्तोत्र प्रवृत्तियोंसे स्तुति करता है और अनेक विभाजनोंके साथ समवसरणको रचना करता है। वहां विराजमान उन्होंने वह कथन किया जो दूसरे देवोंने भी देख लिया। चार द्रव्यों (धर्म, अधर्म, आकाश और काल ) का निरूपण कर उन्होंने अजीव तत्त्वका प्रकाशन किया। उन्होंने द्रव्यके स्कन्ध और देशका भी कथन किया । संक्षेपमें मार्गणा और गुणस्थानोंको चर्चा की। सकाय-अकाथ जीवोंको भी दरसाया। सात, पांच, नौ और छह भेदवाले इन और दूसरी ज्ञेय वस्तुओंका कथन किया । वही उनके हाथ जोड़े हुए तोस गणधर हुए। कामदेवका दमन करनेवाले ग्यारह अंगों और चौदह पूरोंके पारी छह सौ मुनि थे।
पत्ता-बसोंसे अंकित शिक्षक मुनि पैंतीस हजार माठ सौ तीस थे, यह पानो ||७||
पापको नष्ट करनेवाले अवपिज्ञानी अट्राईस सौ थे। केवलज्ञानी भी इतने ही अर्थात् बट्ठाईस सौ। जिनवरके चरणों में सिर झुकानेवाले मनःपर्ययज्ञानी दो हजार पचपन थे। श्रेष्ठ ७. १.A भेसह । २. AP अंगारय । ३. AP पोरूवि । ४. AP सभणहं । ५. पंचबोस । ८. १.AP एतिय तीयणाणि; T तयगाणि ।
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-६५. ९,४]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित सोलहसयई पसलमा सविसहासई संजमणारिहिं । सावयाहं पुणु लक्खु भणिजद सुष्णचक्क छडग्गइ दिजइ । लक्खई तिणि गेहधम्मस्थाई माहिलह मंगलदयविहत्थह। संखापजिएहि गिल्वाणहिं स्वगेमिंगेहिं पुध्यत्तयमाणहि । एकवीससहसई धतूं माणई. वरिसह सोलहवरिसविहीणई । भूयलि भमिवि भव्य पहि लाइवि मासमेत णियजीवित जोइवि । सहुँ रिसिसहर्स थिङ संमेयद मुशधि दिव्वतणु पडिमाजोयइ। फग्गुणपुरिममासि कर्सणंतिमि दियहि चंदि कयरेवइसंगमि । पुत्वणिसागमि णिकलु जायर गउ तहिं जिणु जहिं गयउ ण आयप। पत्ता-यउविहदेवणिकायहिं जयजयकारियउ॥
अस अग्गिदकुमारहिं तहिं साहुकारियउ॥८॥
अन अरविंदगम्भकयचारउ अरु अरुहंतु अणंगवियारउ । अरु अरमाणिहीहिं रुबह अरु अरहिल्ल तनु जंगि सुबइ। अरु अरसिल्ल अगंधु अरूअर अरु अरामु अविरामउ हूयउ।
अद अरईरईहिं णउ छिप्पड़ अरु अरोसु किह पावें लिप्पा । चर्या धारण करनेवाले विकियाऋद्धिके धारक चार हजार तीन सौ थे। परमागमको धारण करनेवाले श्रेष्ठ वादी मुनि सोलह सौ थे। संयम धारण करनेवाली आयिकाएं साठ हजार थीं। श्रावक एक लाख साठ हजार थे। गृहस्थ धर्म में स्थित तथा हाथमें मंगल द्रष्य लिये हुए तीन लाख भाविकाएं थीं। देवता संख्या-विहीन थे, खग और मुग पूर्वोक्ल मानवाले (संख्यात) थे। सोलह वर्षे कम इक्कीस हजार वर्ष पर्यन्त भूतलपर परिभ्रमण कर, भव्योंको पथपर लाकर, अपना जीवन एक माहका देखकर वह एक हजार मुनियों के साथ सम्मेद शिखरपर स्थित हो गये एवं शरीरको ( मोहको) छोड़कर प्रतिमायोगमें स्थित हो गये । फागुन माहके कृष्ण पक्षकी द्वितीयाके दिन रेवती नक्षत्रमें निशाके पूर्वभागमें वह निष्पाप हो गये, जिन वहाँ चले गये कि वहाँ गया हुआ वापस नहीं आता।
पत्ता-चार प्रकारके निकायोंके देवोंने जय-जयकार किया। तब अग्नीन्द्रकुमार देवोंने अरह तीर्थंकरका दाह संस्कार किया ॥८॥
अझ-अरविन्दके गर्भ में उत्पन्न शोभा है, अरु-कामको विदारण करनेवाले जिन हैं, अब-दरिद्रों के लिए नहीं रुवते, अरु-अहतुका तत्व संसारमें स्पष्ट सुचित होता है। अरुरसरहित, अगन्ध और अरूप है । अरु-रति-अरतिके द्वारा स्पृश्य नहीं है। अरु-क्रोधसे रहित
२. मृगेहि। ३. AP पुत्रुत्तरमाणहि । ४. A जयमाणः । ५. A परिसरहीणई। ६.T
चोइवि। ७, AP कलेवरु । ८.A कसणतमि । ९. AP सक्कारिपउ । ९. १.AP जणि । २. A किम ।
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४५२
५
महापुराण अरू और गुणेण संजुत्तउ अरु अरुणे पॅवणे पड वुत्तर। अरु अरुयाणिवास अजरामर अरु अरुद्ध विहरेण सहायह। अरु अरुहक्खरेहिं जगि भाणिउ अझ अरु बप्प जेण णउ जापिउ । सो संसारि भमंतु ण थकाइ अरथुइ करहुँ ण सकु वि सकाइ । अरु अरिहरु आवरणु महारसणिणउ दंसणणाणणियारउ । पत्ता---अरतित्थंकरि णिव्वुड रंजियविउससह ।।
हूई णिसुणि सुभमहु पक्षिहि तणिय कह ॥ ९॥
१०
एत्यु भरहि लंबियधयमाला रयणसिंहरघरि णयरि विसालइ । पहु भूषालु णाम भूमंडणु तहु जायउ परेहि सहुं भंडणु। बहुयहिं आहदि एकुणिरुज्झइ बहुयहि सुत्तहिं हस्थि वि बज्झइ । खज्जइ बहुयहि भरियभरोलिहिं विसहरु विसदारुणु वि पिपीलिहिं । बहुहि मिलिवि माणु बहु खंडिड तेण वि पुरु कलत्तु घर छंडिडे । लोहमोहमयमयजमदूयह रिसिउ लइड णियडि संभूयहु । भोयाफंखइ करिवि णियाण मुरलद्धरं महसुक्क्रधिमाप
सोलहसायराउ सो जझ्यहुं अच्छइ सुरवर सहुं दिवि वइयहूं । हैं, वे पापके द्वारा कैसे लिप होते हैं ? अरु-अशब्द-गुणसे युक्त हैं, अरु- सूर्य और पबनके द्वारा प्रभु कहे जाते हैं । अरु-आरोग्यके निवास हैं, अजर-अमर हैं। अरु-कष्टोंसे अबद्ध हैं और शुभाकर हैं, अरु-अहंतु अक्षरोंसे जगमें कहे जाते हैं। हे सुभट, जिसने 'अरु अरु' को नहीं जाना, वह संसारमें भ्रमण करता हुआ कभी विधान्ति नहीं पाता। अरहन्तकी स्तुति करने में इन्द्र भी समर्थ नहीं है। मेरे दर्शनज्ञानका निवारण करनेवाले आवरणको नष्ट करनेके लिए अरु-अरिका नाश करनेवाले हैं।
घता-अर तीर्थकरके मोक्ष प्राप्त कर लेनेपर विद्वसभाको रंजित करनेवाली सुभौम चक्रवर्तीको कथा हुई, उसे सुनो ।।९||
इस जम्बूद्वीपमें, जिसमें ध्वजाएं अवलम्बित हैं और रत्नोंके शिखरवाले घर हैं, ऐसे विशाल नगरमें, पृथ्वोका अलंकार भूपाल नामका राजा है। उसको शत्रुओंके साथ भिड़न्त हुई। युद्धमें बहुतोंके द्वारा एकको रोक लिया गया । बहुत-से धागों के द्वारा तो हाथी भी बांध लिया जाता है। जिन्होंने वल्मीकको भर दिया है ऐसी बहुत सी चींटियों द्वारा विषसे भयंकर विषधर खा लिया जाता है। बहुतोंने मिलकर उसके मानको खण्डित कर दिया। उसने भी पुर, कला और घरको छोड़ दिया। लोभ, मोह, मद और भयके लिए यमदुत सम्भून मुनिके पास उसने मुनिवत ले लिया। भोगको आकांक्षाका निदान कर मर गया। उसने महाशुक्र विमानको प्राप्त किया। जब
३. A अरए । ४. AP Tणे । ५. A अरुवाणिवाम् । ६. AP जेण वप्प । ७. Pमुमोमह । १०.१. AP भूपाल । २. P छडिहह । ३. K रिसिव्रत । ४. AP विवाण ।
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-६५. ११. १० ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
कार्ले कालु जा झट्ट परिखावंसु सियमंदिर दुद्धरवइरिवीरसंघारउ
एत्थु कतर अरु पत्रट्टइ । सहसबाहु णरवइ कोसलपुरि । काकुजहिं राणउ पारउ ।
धत्ता-णाम बिचित्तमइ सइ तेण मुणालभुय || सहसबाणरणा दिण्णी नियय सुय ||१०||
सुंदर लक्खणलक्खियकायड वीणालाहि मन्ये खामहि सचबिंदु दिकुल से सिसु जमयग्गि णाम उप्पण्ण बासम्म तेण सेविड वणु ran तहिं जि दढगाहिणरेसरु for मिसम सोक्खु मुंजेपिगु डि जिणवररिसि सोति तावसु मित्र्त्त मित्तु वृत्त गड जुज्जइ वि तासु वयणु अवहेरिस
११
तहि कथवीरु णाम सुख जायठ । पायविहिणिहि सिरिमइणामहि । णियजसस सहधव लियस । जणणिमरणसोएं णिनिवण्णस । जग जाय तन्तवोहणु । तासु मित्तु हरसम्म सुदियवर । जइ जाया इच्छित बडे लेपिणु । हू मोहमंदु मिच्छावसु । तावसमग्र्ग जम्मु ण छिन । उत्तरु किंपि विशेय समीरिउ ।
४५३
१०
१०
तक सोलह सागर समय है तबतक वह समर्थ सुरवर स्वर्ग में रहा। तब तक समयके द्वारा समय पलटता है और यहां दूसरा कथान्तर प्रारम्भ होता है। सफेद घरोंसे युक्त अयोध्यानगर प्रवर इक्ष्वाकुवंशीय राजा सहस्रबाहु था। दुर्धर शत्रुवी रोंको संहार करनेवाला कान्यकुब्जका राजा
पारद था।
धत्ता - उसने अपनी मृणालके समान भुजाओंवालो सती कन्या विचित्रमती राजा सहस्रबाहुको दे दी ||१०|
११
उसका लक्षणोंसे लक्षित शरीर सुन्दर कृतवीर्यं नामका पुत्र हुआ। वीणाके समान बोलनेवाली मध्य में क्षीण श्रीमती नामकी पारको बहनसे, नरेन्द्रकुलके हंस अपने यशरूपी चन्द्रमासे वंशको घवलित करनेवाले शतबिन्दुके जमदग्नि नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। माताको मृत्युके शोसे वह विरक्त हो गया। बचपन में उसने वनमें तपस्या की और जगमें यह तपसे तीव्र तपस्वी के रूप में प्रसिद्ध हो गया । वहाँपर एक दृढ़ग्राही राजा था । श्रेष्ठ द्विजवर हरिशर्मा उसका मित्र था । साथ-साथ सुखका उपभोग कर दोनों अपना इच्छित व्रत लेकर यत्ति हो गये । राजा ( दृढ़ग्राही ) जैन मुनि हुआ और मोहसे मूर्ख और मिथ्यात्व के वशीभूत होकर तापस हो गया। मित्रने मित्रसे कहा कि यह ठीक नहीं है, तुम्हें तपस्वी मार्ग में अपना जन्म नष्ट नहीं करना चाहिए। ब्राह्मणने
6
५. AP अंसितह मंदिर । ६. AP सहसबाह ।
११. १. A सुंदरं । २. AP बहिणिहि । ३ A बालसणिजि । ४. AP तति । ५. K | ६. A वर सिरि सोमिलि; P वररिसि सौमित्तिउ । ७. P मेहमं ।
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४५४
५
१०
महापुराण
जिणवरहरपयाई सुमरेभिशु खति मरिवि जाउ सोहम्मद पत्ता - चितिपत्थित्र देखें सुद्दि वसुमलमहि | तर अण्णाणु चरेणुि हुए जोइसगहि || ११ |
१२
मई सयोग वित्र उत्तारिक इज्झिाइवि ढुक्क तेत्तर्हि हवसे हि सुयमंडिड अलोइवि जोइसु मउलियकरु पई जिणवयगु बप्प अवगणित चइ देउ यसरु गायइ दुई किलु किं सिद्धंतु समासइ स विकहिं सत्यपरिग्गहु
चार
तं सुणिवि इयरेण पबुत्तउं
[ ६५. ११. ११
for मिय संणा करेपिणु । भणु पुणु जोइससुरहम्मद |
जाय बंधु' दोहसंसारिङ । अच्छा सुबरु जोइस जेतहि । दो मि एकमेक्कु अवरुंडिउ । आह्रासह विसिषि कप्पामरु । अण्णा जि गुरुवार मण्णिउ । महिलड माणइ वजड वायइ । एव किं संसार तारइ । विणु वचणेण सह कहि होसइ । पई कुमग्गि किं किल मियणिग्गहु । मण सिवागमि इट्टु तत्र तत्त ।
पत्ता-- गजरी मुहकमलालिहि वरगोवइगइहि || भासि किं पिबुझि देवहु पसुवइहि ॥ १२ ॥
उसके वचनोंकी उपेक्षा की। उसने कुछ भी उत्तर देने की चेष्टा नहीं की। जिनवर और शिव के चरणोंका स्मरण कर दोनों संन्यासपूर्वक मर गये । क्षत्रिय ( राजा ) मरकर सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुआ और ब्राह्मण ज्योतिषदेवके विमान में |
घता - राजा देवने विचार किया कि मित्र अज्ञानत का आचरण कर आठों मलोंसे युक्त मतिवाले ज्योतिषो घरमें उत्पन्न हुआ है || ११ ३
१२
स्वजन मैंने उसका उद्धार नहीं किया और मेरा बन्धु दीर्घ संसारी हो गया। यह सोचकर वह वहाँ पहुँचा, जहाँपर वह ज्योतिष सुरवर था। स्नेहके परवश होकर दोनोंने बाहु फैलाकर एक दूसरेका आलिंगन किया। हाथ जोड़े हुए ज्योतिष देवको देखकर कल्पवासी देव हँसकर कहता है- "हे सुभट, तुमने जिनवचनोंकी उपेक्षा की, अज्ञानको हो तुमने बहुत बड़ा माना । देव (शिव) नृत्य करता है, गीत स्वर गाता है, महिला (पार्वती) को मानता है । वाद्य (म) बजाता है, नगरों (त्रिपुर ) को जलाता है, शत्रुवर्गका नाश करता है वह क्या संसारसे तार सकता है ? सदाशिव क्या सिद्धान्तका कथन कर सकता है, बिना वचनके क्या शब्द हो सकता है ? शब्द के बिना शास्त्रकी रचना कैसे हो सकती है ? तुमने कुमार्ग में अपना तप क्यों किया?" यह सुनकर दूसरेने कहा- "मैंने शिवागम में इष्ट तपका आचरण नहीं किया ।
घत्ता - पार्वती के मुखरूपी कमलके भ्रमर, बेलपर ( नन्दीपर) चलनेवाले पशुपति देवका कहा हुआ मैंने कुछ भी नहीं समझा " ||१२||
१२. १. A देह बंधु | २. A जोइसर । ३ AP हार ४ AP सह ।
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-६५. १४.२]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
५
ता पभणइ सुरु सम्माइद्विप जो तुम्हारइ णिहा णि ट्ठिल । सोदावहितावसु जो गयमल आउ आउ वह धरणायलु। सुहिणा उत्तर मयणणिवारस पेच्छेहि रिसि जमय ग्गिभडार । ते बेणि वि जण गुणगणसिक्खहि सजण लग्गा धम्मपरिक्खहि । गय कलविकमिट्टणु होएप्पिणु थिउ मुणिमीसियवासु रएप्पिणु । कणु चुणंति कीलंति भमंति वि तावर्सेमासुरवासि रसंति वि । अण्णहि दिणि जंपइ चिइसमउ कति कति हाल भर्मणपियल्लज ! गच्छमि लम्गउ एत्थु जि अच्छहि कलइ आयहु महु मुंहूं पेच्छहि । ता चिडल्लियाइ पडिबोजित हियवउ णाह महारउ संलिट ! पई विणु एकु धि द्विवहु ण जीवमि अञ्ज वियाला जमपुरि पावमि ! करहि सवह जइ परइ ण आवहि . तो मई णिच्छउँ मुइय विहायहि । धत्ता-भणह पक्खि हलि पक्खिणि परइ ण एमि जइ ।।
हर एयह जमयग्गिहि दुचित लेमि' तइ ॥१३॥
तं णिसुणिवि सयबिंदुहि गंदणु पभणइ रोसजलणजालियतणु । अरि अरि पिसुण पक्खि कि बुकडं महुं गुणवंतह किं किर दुनिउँ ।
तब वह सम्यग्दृष्टि देव कहता है कि जो तुम्हारी निष्ठा ( साधना ) में लीन है, और जो गतमल है, ऐसे तापसको बताओ। आओ-आओ, धरणीतलको चले। सुधिदेवने कहा-कामका निवारण करनेवाले आदरणीय जमदग्नि मुनिको देखिए। वे दोनों ही देव, जिसमें गुणगणकी शिक्षा है, ऐसी धर्म परीक्षामें लग गये। वे दोनों चटक पक्षीका जोड़ा बनकर मुनिकी दाढ़ीमें घोंसला बनाकर रहने लगे। वे दोनों कण चुगते क्रीड़ा करते और भ्रमण करते । तापसके दाढ़ीरूपो घरमें रहनेवाले वे दोनों शब्द भी करते । एक दूसरे दिन चिड़ा कहता है-'हे प्रिये, प्रिये, मैं भ्रमण-प्रिय हूँ। मैं जाता हूँ। तुम यहाँ लगकर रहो। कल आये हुए मेरा मुँह तुम देखोगी। तब चिड़ियाने उत्तर दिया कि हे स्वामी, मेरा हृदय पीड़ित है, तुम्हारे बिना में एक दिन जीवित नहीं रह सकती, मैं आज ही शाम यमपुर चली जाऊँगी। तुम शपथ लो। यदि तुम कल तक नहीं आओगे तो तुम मुझे निश्चित रूपसे मरा हुआ देखोगे ?
पत्ता-चिड़ा कहता है-“हे चिड़िया रानी, ( पक्षिणी ) यदि मैं कल तक लौटकर नहीं आया तो मैं इस जमदग्निके पापको ग्रहण करूं" ॥१३॥
यह सुनकर क्रोधकी ज्वालासे जिसका शरीर जल रहा है, ऐसा शतबिन्दुका पुत्र बोला, १३. १. AP बमबह । २. ५ पच्छहि । ३, A जिण | ४. A तावसभासुर । ५. A रमंति। ६. A भवणं; ____P भणमि ! ७. महुँ । ८, A डोल्लिर । ९. A करहु । १०, A णिच्चउ । ११. A लेवि । १४. १. A पक्सि पिसुण । २. AP बुकिङ ।
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४५६
जइ दुनिल तो पई संघारमि हत्थे णिहसिवि पेड़ समारमि | एव चवेप्पिणु कयसंकीलणु करहि णिहिटिस सउणिणिहेलणु । पेहुणिल थिय अंबरि जाइषि पभणिय तपसि सेण पोमाइवि । तबहु ण जुत्तउं जीवविणासणु खमहि ताय खस मुणिहिं विहूसणु । ता भासइ छारेणुलिस
हर तुम्हहिं किं झाणहु चालिन । कि मई फियर पारतवचरणे गणवइतिणयणपूयाकरण । ता घरेपक्खि कहइ लहगडं पई तवतावें वावि अंगडं । पर किं वेयवयण ण वियाणि षड कलत्तु ण कत्थु कि माणिलं । सुयमुहकमलु ण कहिं वि णिहालिडं दुरिएं अपाणउं किं मइलिछ । णस्थि अपुत्तर गइ विप्पागमिता संजाय चित जइपुगमि । घता-अण्णाणिड तवभठ्ठल मायावयणहर ।
सो नहु पारयणामह मामहु पासि गर |॥१४॥
१५
m
ariyar
तणुसहकारणि मग्गइ कपण कजलकंधणमरगयवण्ण) देयालु व वियरालु जडालउ अवलोएप्पिणु ण बालउ । थे जराजजरिटण लना घरघरिणीवाएं किह भजइ।
कोलंदी अण्णे पियारी कुयरि रेणुधूसर लहुयारी। "अरे अरे पुष्ट पक्षो, तूने क्या कहा, मुझ गुणवान में क्या पाप है ? यदि दुष्कृत है तो तुम्हें मारता हूँ। हायसे रगड़कर चूर्ण-चूर्ण करता हूँ।" यह कहकर, जिसने परिहास किया है, ऐसे पक्षियों के घोंसलेको वह हापसे रगड़ता है। दोनों पक्षी जाकर आकाशमें स्थित हो गये प्रशंसा करते हुए। तापससे कहा कि तपस्वीके लिए जीवका नाश करना ठीक नहीं। हे तात, क्षमा कीजिए, क्षमा मुनियोंका आभूषण है। तब भस्म विभूषित वह मुनि कहते हैं कि तुम लोगोंने हमें ध्यानसे क्यों विचलित किया १ गणपति और शिवकी पूजा और तपश्चरण करके मैंने क्या पाप किया? इसपर गृहपक्षो कहता है-"अच्छा लो, तुमने तपतापसे अपने शरीरको सन्तप्त किया। पर क्यों तुमने वेद वचन नहीं जाना। तुमने नवकलत्रको भी नहीं माना। तुमने पुत्रके मुखकमलको कभी भी नहीं देखा । तुमने अपनेको पापसे मलिन क्यों किया? ब्राह्मणोंके आगमके अनुसार पुवहीन व्यक्तिको कोई गति नहीं है।" ( यह सुनकर ) यसिंबरको चिन्ता पैदा हो गयी।
पत्ता-अज्ञानी तपसे भ्रष्ट और मायावचनोंसे बाहत वह अपने पार, नामके मामाके पास गया ॥१४॥
पुत्रकी इच्छासे यह कन्या मांगता है। काजल, स्वर्ण और मरकतके रंगका वह वेतालके समान विकराल और जटासे युक्त था। उसे देखकर, कन्याएँ भाग गयीं। बुढ़ापेसे जजेर वह बूढ़ा जरा भी नहीं लजाया। पर और गहिणीकी बातसे वह कैसे भग्न होता? खेलती हुई एक और
३. AP पिट्ठ | Y, AP हि । ५. AP कमठ । ६. A सुरपमिल; T घरपक्लि । ७. AP पई । १५. १. AP परि परिणों । २. धूसरि ।
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-६५. १६.८ ]
महाकवि पुष्पवन्त विरचित
रेणु भणिवि तेण हकारिवि सार अलिहि लुद्ध सुणि ससुर एय हवं इच्छि RE देवि हुई कि ges
घत्ता - नासर तैणुगहयत्तणु
कथलोलुपाि भणितं अनंगसरोह णिरुद्धे ।
कण्ण खुखिया तह सार्बे कणकुण तं 'घोसि यहं पासि एह रवण्णी as aणवास महिहर कंवरि जाया तगुरु दोष्ण महाभुय दोहि मि मिहिये जयजसधामई रेणुयभारु साहु अरिंज आणिहालिषि ससह णमंति
मुद्ध एंतु मणेण पडिछ । जाहि महार बोलि रुच । पत्थवपुत्तियहं ॥
aratorror मञ्जु विरत्तिय || १५||
१६
जायच तिब्बतवोपावें ।
देवहिं जैडचरितु ष्ठवहासिउ | देहि माताएं दिणी । तहिं णिव संत साई सम्झिरि । दोणि वि चंद सूर णं णहचुय | α ईद सेयरामंत णामई । रिद्धिषंतु तवतत्तु सुसं । किं पिसतह संविइ ।
४५७
१०
धूल-धूसरित छोटी प्रिय कन्याको रेणुका कहकर पुकारा और केलेका फल दिखाकर उसे वंचित कर उस लोभी ने उसे गोद में बैठा लिया। कामदेवके तीरोंसे घायल वह बोला, 'हे ससुर, सुनिए । उसके द्वारा में चाहा गया हूँ। आते हुए मुझे मुग्धाने मनसे स्वीकार किया है। यह देवी है, इसे छोटा क्यों कहा जाता है ? कि जिसे हमारा बोलना अच्छा लगता है ।
धत्ता --- मुझसे विरक्त तथा जिनका यौवनग बढ़ा हुआ है ऐसी पार्थिव कन्याओंके शरीरोंका गौरव नष्ट हो जाये ॥ १५॥
१६
उसके शाप और तीव्र तपके प्रभावसे कन्याएँ कुछड़ी हो गयीं । उसे कन्याकुब्ज (कान्यकुञ्ज) नगर घोषित कर दिया गया। देवोंने उसके ( जमदग्नि ) मूर्खचरितका उपहास किया। इनकी तुलना में यह सुन्दरी है, यह मुझे दे दो । तब पिताने उसे दे दिया। वनवासके लिए वह झरनोंसे युक्त पर्वतकी कन्दरा चला गया। वहीं निवास करते हुए उनके दो महाबाहु पुत्र हुए। दोनों मानो माकाशसे च्युत सूर्यचन्द्र थे। जय और यशके घर दोनोंके नाम इन्द्रराम और श्वेतराम रखे गये। रेणुका के भाई मुनि अरिजंय ऋद्धिसे युक्स, तपसे सन्तप्त और सुसंयमी थे। वह उसे
३. A. वियारिवि; PT पवियारिवि । ४. A अच्चो लिहि ५. AP देहि । ६. लहुषी; P लगी । ७. P
१६. १. AP कष्णाखुज्जु । २. A वह घोषित । ३. A कुडचरितु । ४. A महम्भूय । ५. विष्ण
५८
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महापुराण
जइयतुं महु विवाहु किस ताएं तइयतुं धणु ण दिण्णु पई भाएं। १० अञ्ज देहि बंधव जैइ भावइ जेण दुक्खु दौलिए विणावह ।
घत्ता-भणइ मुणीसा सुंदरि छिर्दहि कुमयमइ ॥ .
दसणणाणधरित्तइं रयणई तिणि लइ ॥१६।।
ता सम्मत्तु विचार सहिया सावयबाट मुद्धइ संगहियड । तुझु भडारउ सुटु पियक्खणु करुणे कारयि सबहिणिणिरिक्खणु । परसुमंतु परिरक्खणु दत दिणी कामधेणु भयवंत। हूई रेणुय ताइ कयत्थी
पभणइ भिक्खुहि पंजलिहत्थी। तुम्हारिसह सजोड दि देतई दीणुद्धरणु सहाउ महंतई । ससहि महंतु हरिसु पयणेप्पिणु ग: रिसि धम्मविद्धि पभणेपिणु । कामधेणु हियइच्छिन दुन्भइ तं तावसकुडुबु तहि रिझह । अण्णहि वासरि सुरगिरिधीरें सहसबाहु संजुउ फयवीरें। गहणणिहेलगु छुडु जि पइट्ठल राउ तदोहणेण से दिट्ठउ । धत्ता--अब्भागयपडिपत्तिइ भोयणु दिण्णु तहु ॥
हिर' भिण्णवं दोहं मि'कुअरहु पस्थिबहु ॥१७॥ देखने के लिए आये । प्रणाम करते हुए बहन ने हंसी-हंसीमें कुछ तो भी मांगा-"जब पिताने मेरा विवाह किया था तो तुम भाईने मुझे कुछ भी धन नहीं दिया था। हे भाई, यदि अच्छा लगे तो मुझे आज दो। जिससे दुख और दारिद्रय न फटके।"
__ पत्ता-मुनीश्वर कहते हैं- "हे सुन्दरि, अपनी कुमतबुद्धिको दूर करो और सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चरित्र ये तीन रत्न स्वीकार करो" ॥१६॥
१७
तब सस' मुग्धाने ज्ञानके साथ सम्यक्स्व श्रावक व्रत स्वीकार कर लिये। अत्यन्त विचक्षण अपनो बहनसे भेंट करनेवाले आदरणीय मुनि परम सन्तुष्ट हुए और करुणा कर उसे परिरक्षण मन्त्र सहित फरसा देते हुए उन्होंने ज्ञानवान् एक कामधेनु दो। रेणुका उससे कृतार्थ हो गयो। हाथ जोड़कर उसने महामुनिसे कहा-"अपना जीवन भी देनेवाले आप जैसे महापुरुषोंका स्वभाव हो दोनोंका उद्धार करना है।" इस प्रकार अपनी बहन के लिए महान् हर्षे उत्पन्न कर
और धर्मवृद्धि हो-यह कहकर वह मुनि चले गये। वह कामधेनु इच्छानुसार दुहो जाती और वह तपस्वी परिवार वहाँ सम्पन्न हो गया। दूसरे दिन सुमेरुपर्वतके समान धीर कृतवोरके साथ सहस्रबाहु आया। वह शोन तापस-गृहमें प्रविष्ट हुआ। तपोधन ( जमदग्नि ) ने राजाको देखा ।
धत्ता-अभ्यागतको ( आतिथ्यकी ) परम्पराके अनुसार उसके लिए भोजन दिया गया। राजा और कुमार ( कृतवीर ) का हृदय आश्चर्यसे चकित हो गया ॥१७॥
६. A जं भावइ । ७. A दालिद्द ण आवइ; दालिद्द वि ण आवह । ८. A Vड्डहि । १७. १. A सुद 1 २. P पररक्षणु । ३. " तें। ४. P तहि । ५. AP हियव । ६. A कुमरह।
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महाकवि पुष्पदन्त विरचित
णियजणणीसस णविवि णियच्छिय माउच्छिय कयवीरें पुच्छिय ! अम्मि अम्मि भोयणु भल्लार जहि चक्खिजइ तहिं रससार। एहउँ नृवह मि ण संपजइ |
तुम्हह तावसाहं किह जुल्मइ । अक्खि उ रेणुयाइ विहसे पिणु
गड बंधवु सुरघेणुय देप्पिणु। ताइ वुत्तु अम्हहं चिंतिउ फलु णं तो पुणु वणि भुजहुं दुमंहलु । जं अंबाइ एम आहासिउं
तणएं तं पियपिउहि पयासि । रयणई होति महीयलवाल ण न तसिहिपसरियजडजालहं। तासु वि ताद जि चि त कनी कर मलिवि चुत्तउं । चउरासमगुरु रयणिहि अंचहि दिवगाइ दिय देहि म चहि । घत्ता--गाइ ण देमि म पत्थहिं अरितरुणियरसिहि ।।
विगु गाइड अम्हारइ ण सरइ होमविहि ॥१८॥
तोतं सुणिवि तेण महिणाहें शत्ति अमरवरसुरहि महड्डिय मुयहिं धरह जमय ग्गि ण संकह
गोहणलुद्धे णं वणवाहे। कंचणदामइ धरिवि णियड्डिय । रेणुय कलयलु करहुं ण थकाइ ।
१८ अपनी माको बहनको प्रणाम कर कृतवीरने उसे देखा। मौसोसे उसने पूछा, "हे मा, हे मां, भोजन बहुत अच्छा है, जहाँसे भी चखो, वहींसे रसमय है। ऐसा भोजन तो राजाओंके लिए भी सम्भव नहीं है। तुम तपस्थियोंके लिए यह कैसे प्राप्त होता है ?" तब रेणुका हंसकर बोली, "मेरा भाई सुरधेनु देकर गया है, हे पुत्र, उसके द्वारा हमारे लिए चिन्तित फल मिलते हैं, नहीं तो वनमें हम वृक्षोंके फल खाते हैं।" जब मौसीने इस प्रकार कहा तो पुत्रने यह अपने पिताके लिए बताया कि रत्न धरतीका पालन करनेवालोंके होते हैं न कि तपस्याको आगसे जटाजाल बढ़ानेवालोंके । उसका ( सहस्रबाहुका) चित्त भो उसमें आसक्त हो गया । कृतवीरने उससे हाय जोड़कर कहा, "चारों आश्रमोंके गुरु ( राजा ) की तुम रत्नोंसे अर्चा करो। हे द्विज, तुम दिव्य गाय दो, धोखा मत दो।"
पत्ता-(द्विजने कहा )-शत्रुरूपी वृक्षों के समूह के लिए आगके समान हे ( कृतबीर ), में राजाके लिए गाय नहीं दूंगा । गायके बिना हमारो यज्ञविधि पूरी नहीं होगी ॥१८॥
तब गोधनके लोभी उस राजाने मानो भोलके समान महा-ऋद्धि सम्पन्न वह सुरधेनु स्वर्णको श्रृंखलासे पकड़कर खींच ली। जमदग्नि बाहुओंसे उसे पकड़ता है, शंका नहीं करता, १८. १. AP णिवह । २. Pण वि । ३. AP दुमफल । ४. गियपियहि । ५. A तवसियपसरिय । १९. १. P ता ते सुणिधि । २. AP महिदित्य ।
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महापुराण
[१५, १९.४. तवसिहि कर करेण आच्छोडिउ णिचलु मेइणियलि सो पाडिउ | णोसारिय दिणि मढवासह णं णियजीयवित्ति तणुदेसहु। उद्धाबद्धणिविडजडमंडलु सवणोलंबियतंबयकुंडलु । सोतरीयउवकीययउरयलु धूलिधलु अवलोइयमुयबलु । बद्धतोणु परिवढियअमरिसु धाइड सर मुयंतु रणि तावसु । दोण्णि तिण्णि घउ पिच्छंघिय वर पंच सत्त णव दह चंचलयर । बारह तेरह पुणु पपणारह । सोलह बाण मुक सत्तार । पाहयल्सरसंछष्णु ण दोसई सहसबाड गियरहियहु भासह । पत्ता-वाहि वाहि रहु तुरिएं संघारमि कुमइ ।।
एहा महियलि जइ जह तो केहा णिवा ॥१९॥
२०
बाणहिं बाण हणेपिणु विद्धबणं चंदणतरु णायहिं रुद्ध । जइ विचित्तमइदइएं घाइछ सयबिंदुहि तणुरुहु विणिवाइउ । णाहमरणि दुक्खेण विसट्टा गाइ ण जाइ हयवि पलट्टइ।
महिपलोट्ट णियसामि णिहालइ पुच्छि विजाइ जीहह लालइ। रेणुका कलकल करते हुए नहीं थकती। तपस्वीके हायको उसने अपने हाथसे झकझोर दिया और उसे अचेतन धरतीपर गिरा दिया। आश्रमसे नन्दिनो निकाल ली गयी मानो शरीरप्रदेशसे अपनी जीववृत्ति निकाल ली गयो हो। जिसका निविड जटामण्डल ऊपर बंधा हुआ है, जिसके लाललाल कुण्डल कानों तक लटक रहे हैं, जो वक्षपर उत्तरीय और यज्ञोपवीत पहने हुए हैं, जो पूलसे घूसरित है और भार-बार अपनी भुजाएँ देख रहा है, जिसने तूणीर ( तरकस ) गौष रखा है, जिसका अमर्ष बढ़ रहा है ऐसा वह तपस्यो ( जमदग्नि) तीर छोड़ता हुआ युद्ध में दौड़ा। उसने पुंखसे शोभित दो, तोन, चार, पाच, सात, नो और दस, बारह, तेरह फिर पन्द्रह, सोलह और सत्तरह चंचल तीर छोड़े। तीरोंसे आच्छन्न आकाश दिखाई नहीं देता। तब सहस्रबाहु अपने सारथिसे कहता है
पत्ता-अश्वसे शीघ्र-शीघ्र रथ बढ़ाओ, मैं उस कुमतिको मारूगा । यदि धरतीपर इस प्रकारके यति हैं, तो राजा किस प्रकारके होंगे ||१९॥
तोरोंसे तोरोंको आहत कर उसने उसे विद्ध कर दिया, मानो चन्दनवृक्षको नागोंने अवरुद्ध कर लिया हो । विचित्रमतिके पति ( सहस्रबाहु ) ने यतिको आहत कर दिया । शतजिन्दुका पुत्र मार डाला गया। अपने स्वामीके मरनेपर गाय दुःखसे आहत हो उठती है, वह आगे
३. A तहि पाहिज । ४. AP adds after this : चल्लिन लेवि जाम णियबासह ( A fणयदेसह)। ५. A ornits this foot. ६. P तणु देतह। ७. A समणोलंगिय । ८.A सोसरीउ । १. A धवलु। १०. AP सर। ११. Aणयलु संछण्णव पर दोसइ; Pणयल अप्पा ण पाणहि दीसह ।
१२. बाहु वाहु । २०. 1. AP चंदणतरु णं ।
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-६५, २१.९]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित दुढे सिंचाइ वयणु समिच्छ ओरसंति णियडेना अच्छा । जाम ताम णियव इरिहिं चप्पिवि रोवह रेणुय विदुर वियप्पिधि । हा हा कंत कंत किं सुत्तम
कि चहि महुंकाई विरत्तड। मुच्छिओ सि किं तषसंतावे किं परवसु थिउ शाणपहा । लइ कुसुमाई घट्ट लइ चंदणु करहि भडारा संझावंदणु। पत्ता-उढि णाह जलु ढोवहि तण्डाणिरसणउं ॥
करि सहवासियहरिणहं करयलफंसण ॥२०॥
दावहि एयदु कुवलयकतिहि जलु होमायसेसु सिसुदंति हि । ट्ठि माह तुहुँ एकु जि जाणहि तणयह वेयपयई वक्खाणहि । तेहि वि अज काई सुइराविडं अवरु किं पि कि दुग्गि विहावित । जाहिं गय कंदमूलफलगुंछेहं तहिं किं कमि णिवडिय खलमेच्छह । णउ मुणंति जं जया जायउ ता तहिं सुयजुवलुज आयर्ड । आर्यण्णवि तंहिंजणणिहि रुपणउं विराज्ञवं नागनिहिणा ! जाइषि दोहिं मि थीयणसारी पुच्छी अम्मारवि भडारी । भणु भणु केण वाउ संघारित केण संपाणणासु हकारित।
कुलिसिहि कुलिम केण मुसुमूरिउ सेसफडाकडप्पु किं चूरिउ । नहीं जाती, ( सोंग मारकर ) पीछे हट आतो है। धरतीपर पड़े हुए अपने स्वामीको देखती है। पूंछसे हवा करतो है, जीभसे चाटतो है। दूधसे सींचती है, उसका मुख देखती है, चिल्लाती है और जब उसके निकट रहती है, तबतक अपने शत्रुओंके द्वारा घिरी हुई रेणुका दुखका विचार कर रोती है, "हा-हा हे स्वाभी, तुम क्यों सो गये ? मुझसे बोलते क्यों नहीं, मुझसे विरक क्यों हो? तपके सन्तापसे मूच्छित क्यों हो ? ध्यानके प्रभावडे परवश क्यों हो? लो पे फूल, लो यह चन्दन चिसा । हे आदरणीय, सन्ध्यावन्दन करिए।।
पत्ता-हे स्वामी, उठिए । प्यासको दूर करनेवाला जल ग्रहण करिए और सहवास करनेवाले हरिणोंका करतलसे स्पर्श कीजिए ? ॥२०॥
२१ कुवलयके समान कान्तिवाले बालगजको होमावशेष जल दिखायो। हे स्वामी, तुम उठो । एक तुम्ही वेदपदोंको जानते हो और बच्चोंके लिए उनको व्याख्या करते हो। उन्होंने भी आन क्यों देरी कर दी ? क्या कुछ और वनमें उन्होंने देख लिया है ? जहाँ कन्दमूल और फरके गुच्छोंके लिए गये हुए वे क्या दुष्ट म्लेच्छोंके हाथ पड़ गये हैं कि जो वे पिताको मृत्युको नहीं जानते ?" इतनेमें वे दोनों पुत्र वहाँ आ गये। यहां अपनी माका रोना सुनकर और पिताके शवको तोरोंसे छिदा हुआ देखकर दोनों, स्त्रोजनमें श्रेष्ठ आवरणीय माता रेणुका देवीसे पूछा-"बतायोबताओ, किसने पिताको मारा ? किसने अपने प्राणों के विनाशको ललकारा है? वजसे वजको
२. A गियडुल्लिय; P णियदुल्लाह । ३. A पियवारि । २१. १. AA बुग्ण । २. AP गोंछह । ३. AP जणणह। ४. A नामग्णिघि हि; Pायगंतहि ।
५. A जीयवि । ६. P ताउ केण । ७. A सुपाणणासु ।
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४६२ .
१०
५
१०
केसरिकेसर किंर्छिण्णउं दे णि कालाणणि
महापुराण
के गर हालाeg froं । org समुलि । भोयणरिद्धि भरि ॥ मुंजिवि मज्जु घरि ॥ २१॥
२२
पत्ता- इज कहि रुयंति समबाहु seats वि
जहिं मुत्तरं तहिं भागचं भिविषि य रिच हरिवि महोरिय घेणुय जिवि पुणु वि रोसरसभरियड ताजे इटु माय गय बेणि भि जण वीरं महाश्य करि तुरंगु रहबरु णरु णावर बिरस भाभीसई विखत्तिय मिि जो भूणाम विरु राण देव महासुधर जायच समचं तेण गम्भेण पलाणी
[६५.२१. १०
कंतु महारउ कंडहिं छिंदिवि । ता संथविय सँपुत्तिर्हि रेणुय | णयणजुयलजलु जणणिहि पुसियत । परसुमंतु दिण्णासीवाय |
सायण संप्रइय । दस दिसु चलु परसु परिधाव | पिपुरा खणि छिण्णई सीसई |
समुहहरंवरि बलिय ।
जो तत्र चारेवि मरिवि सनियागड | जो पुणरधि जम्मंतरि आयउ । सह विचितमइ णायें राणी ।
किसने चूर-चूर किया है ? उसने शेषनाग के फनसमूहको क्यों चूर-चूर किया है ? सिंहके अयालके अग्रभागको किसने छुआ ? गरलविषको किसने ग्रहण कर लिया है ? किसने कालानन में अपने शरीरको होम दिया है ? यमकी मुखरूपी विडम्बनामें कौन पड़ गया है ?"
बत्ता - आदरणीया (माँ) ने रोते हुए कहा, "भोजनको ऋद्धिसे भरपूर मेरे घरमें भोजन करके सहस्रबाहु और कृतबीर - ॥२१॥
२२
जिस पात्र में उन्होंने खाया, उसीमें छेद कर और मेरे स्वामीको तीरोंसे छेदकर दुश्मन हमारी गायका हरण कर ले गया ।" तब पुत्रोंने अपनी मां रेणुकाको सान्त्वना दी। फिर को धके रस से भरे हुए उन दोनोंने गरजकर मौकी दोनों आंखोंके बांसू पोंछे । जिसने आशीर्वाद दिया है ऐसी माने, तभ बड़े पुत्र के लिए परशुमन्त्रका उपदेश दिया। वीर और महा-आहत वे दोनों गये और उस साकेत नगर पहुँचे। हाथो घोड़ा, रथवर और मनुष्यकी भाँति वह चंचल फरसा दसों दिशाओं में दौड़ता है । पिता-पुत्र के लम्बे केशवाले, मोहोंसे भयंकर सिरोंको उसने क्षण-भर में काट डाला । भागते हुए क्षत्रियोंको भी उसने धूलमें मिला दिया और उन्हें धमके मुखरूपी कुहर में डाल दिया । जो पुराना भूपाल नामका राजा था और जो तप कर निदानपूर्वक मरा था, महाशुक्र स्वर्ण देव हुआ था और पुनः जन्मान्तरमें आया था। उसके साथ गर्भ लेकर (उसे गर्भ में रखकर ) fafeमती नामकी उस सती रामोने वहाँसे पलायन किया।
८. A जिति । ९AP भुत्तरं । १०. AP हरि ।
२२. १. AP गव । २. AP महारी । ३ A सहि । ४. P धीर । ५. AP संपाइय । ६. AP भूषालु । ७. AP सो ।
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-६१. २४.२]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित पत्ता-णियपइपुत्तहं मरणे सोयविसंतुलिय सुंदरि भयकंपियतणु कस्बइ संचलिय ॥२२॥
२३ सा गुमहार दिट्ट संडिल्ले ताबसेण संसयणवच्छों। अप्पिय सा सुबुद्धिणिगंथह सुद्धसहाबहु कहियसुपंथहु । वसँइ जिणालइ गइ रणयाला फुजियकाणणि वहिं निगमेलइ । पुत्तु पसूई देवहिं रविवार माधव कुमार निरेिलिः । पुच्छिष्ट साहु समंजसु पोसइ णंदणु छक्खंडाहिट होसइ । सोलहमा पत्तइ संवच्छरि तुहुं पेच्छिहिसि पिंधु तणुरुद्ववरि । देवीभायरेण हयसले
णिउ णियभवणहु सिसु संउिल्लं । पडिभष्टवरसिरखुडणसमत्थई परिपालिउ सिक्खि उ सस्थत्थई । एत्तहि रिसिजमयग्गिहि पुत्ते जयसिरिरइरसलंपडचित्त । धत्ता-जणणमरणु सुअरंत मारिय रायवर ।।
परसुमंतमाहप्पं रणि करवालकर 1॥२३।।
एकवीसवारउ णिवत्तिवि खत्तिय सयेलु वि छारुपैरतिषि । बटियवेयवयणमाहपई
पुहइ असेस वि दिण्णी पिप्पहं । धत्ता--अपने पति और पुत्रको मृत्यु के कारण शोकसे अस्त-व्यस्त, भयसे जिसका शरीर कोप रहा है ऐसी वह सतो सुन्दरी कहीं भी चल दी ॥२२॥
स्वजनोंके प्रति वात्सल्य रखनेवाले तपस्वी शाण्डिल्य ने जब उसे गर्भवती देखा तो उसने सन्मार्गका कथन करनेवाले शुद्ध स्वभावसे युक्त सुबुद्धि ( सुबन्धु ) नामक निर्गन्ध मुनिको उसे सौंप दिया । वह जिनालयमें रहने लगो। रणका समय बीतनेपर जहाँ पशूबोंका संगम है, ऐसे खिले हुए जंगल में उसने पुत्रको जन्म दिया। देवोंने उसकी रक्षा की । माताने अपने कुलके उतारकर्ताको देखा। उसने न्यायशील मुनिसे पूछा । उन्होंने बताया, "तुम्हारा पुत्र छह खण्ड धरतीका स्वामी होगा । सोलहवौ वर्ष प्राप्त होनेपर तुम अपने पुत्रके ऊपर राजचिह्न देशोगी।" जिसका शल्य नष्ट हो गया है ऐसा देवोका भाई शाण्डिल्य बच्नेको अपने घर ले गया। उसने उसका परिपालन किया और शत्रु योद्धाओंके श्रेष्ठ सिरोंको काटने में समर्थ शस्त्र-अस्त्रोंको उसे शिक्षा दी। यहां पर जमदग्निके विजयश्रीके रतिरसके लम्पट चित्तवाले पुत्रने
पत्ता-अपने पिताके मरणकी याद करते हुए रणमें हाथमें तलवार लिये हुए राजाओंको परशुमन्त्रके प्रभावसे मार डाला ।।२३॥
२४
इक्कीस बार मारकर, समस्त क्षत्रियोंको खाकमें मिलाकर जिनके वेदवचनोंका माहात्म्य २३. १. A सिसुमणवच्छल्लं; P ससुयणि वच्छलें। २. AP सह सुबंधू । ३. A तेस्य सा विजा सा
जिणाला; बसा जिणालइ गय रयणालइ । ४. A सचिषु त । ५. A सिरिजम । ६. AP सुमरतें।
७. A मंतिमाहप्प रण । २४. १. A सयक्ष वि । २. AP पतिवि ।
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महापुराण
[६५. २४.३
जाया रिद्धिइ सकसमाणा जहि दीसहि सहि वियवर राणा। जहिं दीसइ तहिं पसु मारिमाइ पियरहं ढोएप्पिणु पलु खजइ । सोमपाणु महुमहुरउ पिज्जा सामवेयपड मणहरु गिजा । विसलजण्णमंडवसिरि दायर होमहुयासधूमु णहि धावइ । णिवमेव संठियपटिहार
परसुरामदेवेसदुवारइ । पयडियदंतपंविवियरालई खंभि खंभि कीलियई कपालई। ताराणियरसिसिरकरधवलई णं जसवैलिहि फुल्लई विमलई । जायउ सर्वेभोमभूवालउ किं वणिजइ तावसबालउ । गुरुहारहि कह कह व चलंतहि मायहि पसवणवियणफिलंतहि । उप्पज्रइ सो को वि सुर्णदणु फिजइ जेण वहरिसिरछिंदणु । जामयरिंगणरणाहें मेहब अण्णहु जयविलासु कहु एइष्ट । पत्ता-भरहु असेसु वि भुत्तउ हय रिउ तायवहि ।।
पुप्फदत सड्ड तेएं समय परवि णहि ॥२४॥ इस महापुराणे विसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुष्फयतविरहए महामस्वभरहाणुमग्णिए महामने अरतिस्थंकरणिधाणामण परसुरामविहवषण्णणं णाम
पंचसटिमो परिच्छेश्रो समतो १६५॥
AN
बढ़ रहा है ऐसे विप्रोंको धरतो दे दी। ऋषिसे वे इन्द्र के समान दिखाई देने लगे। जहां दिखाई देता है वह ब्राह्मण राजा है। जहां दिखाई देता है वहाँ पशु मारे जाते हैं, पितरों को पढ़ाकर मांस खाया जाता है, मधुर मधुर सोमपान किया जाता है, सामवेदके मधुर पदोंका गान किया जाता है, विपुल यशोंकी मण्डपत्री दिखाई देती है, यज्ञोंकी आगका धुओं आकाशमें दिखाई देता है। जिसमें प्रतिहार बैठे हुए हैं, ऐसे परशुराम राजाके द्वारपर निस्य ही, जो स्पष्ट दिखाई पड़नेवाली दन्तरक्तिसे विकराल हैं ऐसे कपाल खम्भे-खम्भेपर ठोक दिये गये हैं, जो ऐसे लगते हैं मानो यशरूपी कताके तारासमूह और चन्द्रकिरणोंके समान धवल और विमल फूल हों। वह सार्वभौम राजा हो गया। उस तपस्वी राजाका क्या वर्णन किया जाये गर्भके भारवाली, किसी प्रकार कठिनाईसे चलते हुए प्रसवको वेदनासे पीड़ित माताका वैसा कोई एक अच्छा बेटा पैदा होता है कि जिसके द्वारा शत्रुका सिर काटा जाता है। जमदग्नि राजाने जैसा विजविलास भोगा) ऐसा जयविलास किसका है ?
पत्ता-पिताका वध होनेपर उसने शत्रुको मारा और अशेष भारतका भोग किया । उसके तेजसे सूर्य और चन्द्रमा आकाशमें बरसे भ्रमण करते हैं ॥२४॥
इस प्रकार श्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामन्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य में भरतीर्थकर निर्वाण गमन
एवं परशुराम विभव वर्णन नामका पैसठवाँ परिच्छेद समाप्त हुभा ॥१५॥
३. A सुवार । ४. A सम्बभूमिभूषालच । ५. A कहि । ६. A सुभूमपकवनिप्पसी ।
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संधि ६६
एत्तरी गिरिमाशिवाजविहा सुंदर !!
लक्खणर्चेचइट इणिवडिउ णाइ पुरंदर ।। ध्रुवकं ॥ करताजियवरफुणिफेणकडप्पु उहालियषणमायंगप्पु । लीलाइ धरियकेसरिकिसोर तरकीलिरकिणरिचितचोक। दियसिहि वहिट गं बालयंदु णं सो णिवर्षसहु तणख फंदु । सतुहि छिदंतहु अमरसेण । स्वरिउ कहि मि जो विहिवसेण । णं सहसबाहुकुलजणिहाल
णं परसुरामसिरकुंलिसघाउ ।
सन्धि ६६
यहाँ गहनवनमें तपस्वी शाण्डिल्य के घर यह सुन्दर इस प्रकार बढ़ने लगा जैसे लक्षणोंसे शोभित आकाशसे पतित इन्द्र हो ।
जिसने महानागोंके फनसमूहको अपने करतलसे ताड़ित किया है, जिसने वनगजोंके दर्पको उखाड़ दिया है, जिसने खेल-खेल में किशोरसिंहोंको पकड़ लिया है, जो वृक्षोंपर कोड़ा करती हुई किन्नरियोंके चित्तका चुरानेवाला है, ऐसा वह कुमार कुछ ही दिनोंमें इस प्रकार बढ़ने लगा, मानो बालचन्द्र हो, मानो वह राजवंशका मूल हो। देवसेनाको नष्ट करते हुए शत्रुसे जो भाग्यके वशसे किसी प्रकार बच गया हो, जो मानो सहस्रबाहुके कुलका यशसमूह हो, मानो परशुरामके सिरपर
All Mss. have, at the beginning of this apdhi, the following stanza:
यस्येइ कुन्दामलचन्द्ररोपिम्समानकीतिः ककुभां मुखानि । प्रसाधयन्ती ननु बम्नमोति जयस्वसी धोभरसो नितान्तम् ॥ १॥ पोयुषसूतिकिरणा हरहासहारकुम्दप्रसूमसुरतीरिणिशक्रनागाः। सोरोद शेष बल याहि निई स चैव
कि खणकापधवला भरतः स्प यूयम् ॥ २ ॥ A reads in the third line: बलयासिति हंस चैव; Preads दलससम हंस चैव; AP reards in the fourth line मरतस्तु यूयम् । K has a gloss : या हिरवं गच्छ; निहंस निसरी हंस
स्वरि गच्छ । युमं कि मरतः अतिशया सण्डकाव्यवत् पवला बर्तध्ये, अपि तु न । तहि गामस्तु । १. १.AP हि णिवरित । २. P फणिफर। ३. P सहालिय । ४. A कि कोकिरकिणर । ५. P
omital | ६. AP सिरि कुलिस ।
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महापुराण चकियकरयलु पायपउनु हकारिउ मामें सो सुभेउमु । विहवत्तणदुक्खोहरियछाय अपणहि दिणि पुच्छिय तेण माय । संडिल्लु मामु तुहुँ जणणि माइ पर ताउ ण पिच्छमि महुरवाइ । विणु ताई पुत्तु ण होइ जेण महु संसउ बइ कह हि तेण ।
पत्ता-भेणु इ कासु सुख महियलि मंडणउ पहिल्ला ॥ ___भणु किं कारणेण तुह हथि गस्थि कईंल्ल ॥१॥
तावम्महि अंसुजलोल्लियाई णयणई णं कमल ई फुल्लियाई । जाणिवि णियतणयहु सणिय सत्ति पडिलबह सहसमुयरायपत्ति। सुणि सुय जो सुव्वद परसुरामु ते मारिव तुह पित अतुलथामु । ताबटुवीसधणुदतुंग
व कामकृवि रणि अहंगु। तं णिसुणिवि णं जमरायदून आरुट्ट अरिहि सिहिचुरुलिभूउ | चूडामणिकिरणालिहियमेहि तावेत्तहि रेणुयतणयगेहि। दिउ पारायणकमकमलभसलु संपत्तल केहि मि णिमित्तकुसलु । सो पुच्छिउ तेण कयायरेण युद्धरियसैधरधरगुरुभरेण ।
सहसयरसिकप्पललूरणेण णियजणणिमणोरहपूरेणेण । वजका आधात हो, जिसका हाथ चक्रसे अंकित है, जिसके पैरों में कारन है, ऐसे उस कुमारको मामा शाण्डिल्यने सुभौम कहकर पुकारा। वैधव्य के दुःखसे जिसके शरीरको कान्ति नष्ट हो गयो है ऐसी अपनी मासे उसने एक दिन पूछा, "हे मा, शाण्डिल्य मामा है और तुम जननी हो, परन्तु मधुर बोलनेवाले पिताको मैं नहीं देखता हूँ। परन्तु विना पिताके पुत्र नहीं हो सकता, इसीलिए मेरा सन्देह बढ़ रहा है आप बताइए।
पत्ता-कहो, मैं किसका पुत्र हूँ ? पृथ्वीतलपर में किसका पहला मण्डन हूँ ? बतानो किस कारण तुम्हारे हायमें कड़ा नहीं है" ||१||
numarner
तब माताके नेत्र अनुजलसे आई हो उठे, मानो खिले हुए कमल हों । अपने पुत्रकी शक्तिको जानते हुए सहस्रबाहुको पत्नी प्रत्युत्तर देती है, "हे पुत्र सुनो, जो परशुराम कहा जाता है उसने अतुलशक्तिवाले तुम्हारे पिताका वध किया है। जो अट्ठाईस धनुष प्रमाण ऊँचे थे, 'रंगमें स्वर्णकान्तिके समान ओर युद्ध में अभग्न थे।" यह सुनकर आगको ज्वाला बनकर वह शत्रुपर इस प्रकार ऋद हो गया, मानो यमराजका दूस हो। जिसके शिखरमणिको किरणोंसे मेघ अंकित है, ऐसे रेणुकाके पुत्रके घर नारायणके चरणकमलोंका भ्रमर एक निमित्तशास्त्री ब्राह्मण आया। जिसने पर्वत सहित धरतीका गुरुभार उठाया है, ऐसे सहस्रबाहुके सिररूपी कमलको काटनेवाले तथा अपनी माके मनोरथोंको पूरा करनेवाले उसने आदर करते हुए पूछा
७. A सुभूमु। ८. A°दुपखें हरिय। ९. A भणु कासु सुउ हर्च महिलहि मंडण । १०. AP
कडल्ली २. १. AP ता सम्महि । २. AP रिउहि । ३. A कह व । ४. A सघरगुरुभायरेण । ५. पुरएप ।
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-६६.४.२]
महाकवि पुष्पदन्त विरक्ति घत्ता-पई विप्पेणे जगि जीवहं भवियव्वु पाणिउं !!
महु कइयहुं मरणु भणु भणु जइ पई फुड आणिउं ॥२॥
तं णिसुणिवि विप्पं धुत्तु एम रायाहिराय भो णिमुणि देव। भोयणकालइ रसरसियभावि अग्गइ दक्खालिइ कयसरावि । रिसदसण असणभावेण जासु णिव परिणमंति तुई वझु तासु । साराएं जहागिता भारषिय तक्खणि दाणसाल | संणिहिय णिोक्ष्य दिपणु दाणु पि दुद्ध दहिवं इच्छापमाणु । पीणिविदेसिय तित्तिइ डरत णिर्थ यि पाविनंति दंत। दसदिसिवैहि पसरिय एह वत्त जयवीराणुयसुझसुसिरु पञ्च । अइदीहरपथ मंथिएण
वैणि जंते दुसमपंथिपण। भो भो कुमार लहु जाहि जाहि साकेयणयरि मुंजंतु थाहि । घत्ता-कि षणतरुइलेहिं खद्ध हिं मि तित्ति ण परइ ।।
पेच्छिवि तुन्झु तणु महुं भायर हियवर्ड जूरइ ॥३॥
जहिं रायहु केर अस्थि दाणु जहिं जणवउ मुंजइ अप्पमाणु । भोयणपत्थोवइ मुहरुहोहु जहिं दरिसिजइ ससिअंतसोहु ।
पत्ता-तुन विपके द्वारा विश्वमें जीवोंका भवितव्य प्रमाणित किया जाना है। मेरा मरण कब होगा ? कहो कहो, यदि तुम स्पष्ट जानते हो तो? ॥२॥
यह सुनकर विप्रने इस प्रकार कहा, "हे राजाधिराज देव, सुनिए । जिसमें रसके ज्ञायकका भाव है ऐसे भोजनकालमें, सकोरेमें रखे गये शत्रुके दाँत जिसके आगे दिखाये जानेपर ओदनभावको प्राप्त होते हैं, है नप तुम उसके द्वारा वध्य होगे।" तब राजाने नगरमें उसी क्षण एक विशाल दानशाला बनवायी। वहां किंकर रख दिये । इच्छाके अनुसार घी, दूध और दहीका दान दिया। सुप्सिसे प्रसन्न कर करते हुए यात्रियोंको नित्य ही दांत दिखाये जाते। दसों दिशापथों में यह बात प्रसारित हो गयी । कृतयोरके अनुज सुमोमके कर्णविवरमें यह बात पहुंची। अत्यन्त लम्बे पथसे श्रान्त वनमें जाते हुए एक पथिकने कहा, "हे कुमार, पोन जाओ-जागो और साकेत नगरमें भोजन करते हुए रहो।
धत्ता-बाये गये वन-तरुफलोंसे क्या ? तृप्ति पूरी नहीं होती, तुम्हारा शरीर देखकर हे भाई, मेरा हृदय सन्तप्त होता है ॥३॥
जहाँ राजाका दान है, जहाँ अप्रमाण जनता भोजन करतो है। भोजनके प्रस्तावके समय
६. A विष्पेण पर अगि; P वि वर जगि । ७. AP पमाणिज । ८. जाणियउं। ३. १.AP पोणिय । २. A फुरंत । ३.A बद्ददिसिपह; Pसविसिपह। ४. A कुमरह अक्खिवता
पंथिएण। ४. १.P"पत्यार।
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૪૧૮
५
१०
महापुराण
तहु हत्थे मैरिही परसुरामु 1 किं अच्छ काणि निब्बियप । हु हु र जंगलंपुंजु फीरु । जे दिसण दुत्थियाई । जेणावविजय नंदंश पिसुण । अम्हारिसु जीवs भूमिभारु । धुवु ससिहास आठ मज्झु । रिंड चूरमि मारमि कलहकालि । इ अज्ज कर मिह सहलु रोसु रिणु य चिरु दिवाएँ | टं इ तासु रणिल अज्जु देमि लुणि ॥ ४ ॥
५
चोज्जु बप्प
सो जासु कुरु होही सुरामु afe गच्छहि पेच्छ तं सुणिषि मणि चिंत कुमारु दुणकर गाइगल थियाई दरिसावियबंधवलोयबसण सो हिजणणिव्वणवियाद वरिस परमाउसु जमदुगेष् लइ नियइ ण तुकइ अंतरालि अह वा जइ सरमिण तो वि दोलु वत्ता - वायवियारणडं जं वैइरु
इय भणेवि बीरो धुरंधरों कायकविध लिय दिसावहो धरणिविजय सिरिविजयलंडो पाणिपत्य परिमाहो
समरभारवहणे कंधरो । चिकण्णुपाणहो । करणकुडिलधम्मिल्लशंपडो । रत्तचीर चेचश्य विग्गहो ।
[ ६६, ४.३
चन्द्रकान्तके समान दति दिलायें जाते हैं। जिससे ये दाँत सुन्दर भात हो जायेंगे उसके हाथसे परशुराम द्वारा जायेगा । है सुमट तुम वहाँ जाओ और उस आश्चर्यको देखो। बिना किसी freeपके जंगल में क्यों पड़े हो ।" यह सुनकर कुमार अपने मनमें विचार करता है-प्रचुर मांससमूह वह मनुष्य खाक हो जाये कि जिसने स्वजनोंको दुर्जनोंके द्वारा हाथ पकड़कर बाहर निकाले जाते हुए और खराब स्थिति में होते हुए देखा है। जिसने बान्धवलोकको दुख दिखानेवाले दुष्टों को आनन्दित होते हुए सुना है। अपनी माँके यौवन-विकारको नष्ट करनेवाला (व्यर्थ कर देनेवाला) ऐसा वह मुझ जैसा धरतीका भारस्वरूप व्यक्ति जीवित है। परमायु में यमके द्वारा अग्राह्य है, ( यम मुझे नहीं पकड़ सकता ), निश्चय ही मेरी आयु साठ हजार वर्ष है, लो इस अन्तरालमें ( इस बीच ) नियत नहीं आ सकती, इसलिए युद्धकालमें शत्रुको चकनाचूर कर मारता हूँ । अथवा यदि मैं मर जाता है तो इसमें दोष नहीं है। लो में आज अपना क्रोध सफल करता है ।
बत्ता -पिता के मारने का जो वैर और ऋण पहले दिया गया है, मैं आज उसे युद्ध में दूँगा और उसे उच्छिन्न करूंगा ||४||
यह कहकर समरभारको अपने एक कन्धे से उठानेवाला, अपनी शरीर-कान्तिसे दिशाओंको पवलित करनेवाला, चरमराते हुए छह कोनोंवाले जूतोंसे युक्त, पृथ्वीविजय और श्रीविजयका कम्पट, मुक्त खुले काले बालोंवाला, जिसके हाथमें दण्ड और पुस्तकका परिग्रह है, जिसका शरीर
२. A मरही । ३. A णरजंगल । ४. AP भारु | ६. AP समरकालि । ७. A वइद रिशु चिरु ण दिष्णचं ५. १. AP घोरो । २. AP कविलियं । ३. A चिकरंतु
५. AP हियजणणिहि नोव्यर्ण । P बरु रिणु व चिद दिण्ण ं । पकष्णुवाणहो; P चिक्करंतु छष्णवाणहो ।
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-६६.६.५
भाविपुला वि
सपदित कियक रंगुली सहयरेहिं सह लछिमाणपो दाणसंडवं खणि पइटुओ तेहि तस्स विऊण गोरयं आसणे निविट्टेस्स पिम्मलं
कोसलं पुरं पत्तओ बली । 'बेघोस महिरियदिताणणो । तं मिईि दिओ । पापमपखालणं कथं । नीलद खरं पुणो जलं ।
घता - पुणु अहियारिएहिं ढोएप्पिणु मिट्ठल भोयणु ॥ दसणुकेत दक्ख]लिड जायड ओयणु ॥ ५ ॥
६
जं दंत जाय णवकलमसित्थ णु णु भणत करफुरियखभा परमेसह ते ण गणइ केव जो दस पुंजु तं कूरु जाउ उद्वषिदि चप्रय सब विषितेहि प परसुधारि आसपुर संपत्तु भीमु ससाणेण हरिवाहणेण आवंतु दिट्टु बार्ले अणेण
मिड रणभेरसमस्थ | अतधम्मेण लग्ग | बाळहू कंठीरच वणि गोसाच जेव । तं जणं नियजसणिहाच । गणापि भड ग़लियगव्य | भो हरणाह रिच जीवहारि । संणिसुणिवि निम्गव ईदराभु । संक्षि लहु स साहणेण । सुदेव तुलिय हरिसियमणेणे
४६९
लाल वस्त्र से शोभित है, जिसकी अंगुलियाँ दर्भमुद्रिकासे अंकित हैं, ऐसा वह वीर धुरन्धर और बलवान् अयोध्या नगरी पहुँचा । लक्ष्मीको माननेवाला वह अपने सहचरोंके साथ वेदोंके घोषसे दिशामुखों को बहरा बनाता हुआ एक क्षण में दानमण्डप में प्रविष्ट हुआ। वहां नियुक्त मनुष्योंने उसे देखा। उन्होंने उसे प्रणाम कर उसके चरणकमलोंका धूलरहित प्रशासन किया और मासनपर बैठे हुए उसे निर्मल हरा दर्भखण्ड ( दूब खण्ड ) और जल दिया ।
धत्ता - फिर अधिकारियोंने मीठा भोजन देकर उसे दांतोंका समूह दिखाया, वह भात
बन गया ।।५।।
६
जब दाँत नये चावलों की तरह सीज गये तो रणभार में समर्थ योद्धा उठे। जिनके हाथ में तलवारें चमक रही हैं, ऐसे वे मारो मारो कहते हुए क्षात्रधर्मको ताक पर रखते हुए वे बालकके पीछे लग गये। लेकिन वह परमेश्वर उन्हें उसी प्रकार कुछ नहीं समझता कि जिस प्रकार सिंह नमें शृंगालोको कुछ नहीं समझता । ओ वह दाँतसमूह भात हो गया था उसे वह अपने यशसमूहके समान देखता है। उठकर उसने दृष्टिसे उन्हें हटा दिया। गलितगर्व सभी योद्धा भागकर चले गये । उन्होंने फरसा धारण करनेवाले अपने स्वामोसे निवेदन किया, "हे पृथ्वीनाथ, शत्रु जीवका हरण करनेवाला है । भयंकर आवेगपुरुष है।" यह सुनकर इन्द्रराम निकला। अपने प्रसा
४, AP गमिकग । ५. A आसणोपविटुस्स । ६
।
६. १. A भड समत्य २P बलतषम्मेण । ३ AP हि कुरु । ४, परिवि । ५. A adds after this: बोल्लिउ पणि ।
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१०
१०
a
जइ अस्थि को वि सुकियपहाज इथ चितिवि तेण सुकम्मवाउ भामिव हि जायउ मिस्त्रियकु घता
महापुराण
तई एक जिपहरणु म हो । तंदर सिराज । आरासहास विष्फुरियड चक्कु ।
-रिसिसु तेण हउ मारिख ग णरय णिवासहु || दुमाइ साढइ सव्वहु षि लोइ कर्याहंस || ६ ॥
७
दुइसय 'कोडिहिं वरिलहं गयहं अरतिस्थे रात सुभो रामाकामउ हु उ सुत्थे । माणुसपणु दुई घट्टहं दुज्ज
हित्तई छत्ते चमर चिंधई बंभई । रपाइं पितामहं लढाई
चप्पहरुलई गए दिािई विद्धाएं । छक्खंड वि महि जयलच्छीसहि भुक्त किड्
असिया तासिबि पाएं भूमिवि दासि जिह । एकहिं वासरि उग्गइ दिनयरि उत्तसिउ विरश्य भोयणु मरणायणु भागसिर ।
[ ६६. ६.१०
धन सहित अश्व वाहन और सेना के साथ शीघ्र सन्नद्ध होकर उसे आते हुए इस बालकने देखा । हर्षित मन होकर उसने अपने बाहु तोले ( उठाये ) । यदि मेरा कोई पुण्य प्रभाव हो तो मेरा यही एक अस्त्र हो - यह विचारकर उसने सुकर्मके पाककी तरह उस दांतोंरूपी भातसे भरे सकोरेको घुमा दिया। सूर्यको जीतनेवाला तथा सैकड़ों आरामोंसे विस्फुरित चक्र आकाशमें उत्पन्न हो
गया ।
धत्ता - उससे उसने शत्रुपुत्रका काम तमाम कर दिया। वह नरकनिवास में गया । हिंसा करनेवाले सभी लोगों के लिए लोकमें नरकगति मिलती है ||६||
७
अरनाथके प्रशस्त तीर्थके दो सौ करोड़ वर्ष बीतनेपर स्त्रियोंको चाहनेवाला सुभौम नामका चक्रवर्ती हुआ । दुष्ट, ढोठ और दुर्जन ब्राह्मणोंका मान मर्दन कर उनके छत्र चमर और चिह्न छीन लिये गये । उसे रथ जम्पशन और पिताको परम्परा प्राप्त हुई तथा चौदह रत्नों और नव निधियों सिद्ध हुई। विजयलक्ष्मीकी सखी, छह खण्ड धरतीको तलवारसे त्रस्त कर तथा न्यायसे भूषित कर इस प्रकार उपभोग किया जैसे वह दासी हो । एक दिन सूर्योदय होनेपर
६. A ६ एउ; P वा एउ। ७. A सम्मवाउ । ८. A दंतंतकूर । ९. AP " विष्फुरिंज ।
७. १. A दुइसय वरिसहं गइयहं कोहि P दुइसय दरिसह कोहि गइयहं २ AP सुभम । ३. A उहिल्यै हु सत्ये । ४. AP हिं हं । ५. चमर छत्तई चिवई; P चमरदं चिवई छत्तई । ६. जाणई सयण लखाई । ७. P अभिय
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-६६. ८.२]
४७१
महाकवि पुष्पदन्त विरचित कयलालाजल णाषा कोमल झर्दुलिय
तेण सिरीधरि दिण्णी णिवकरि अंविलिय । सा भेक्खंत रसुचक्खत सिरु धुणिर्ड
"राएं तं रूसिवि तह गुण दूसिवि जे भणिउं । तं खलसंढहिं णिरु दुवियहिं पोसियउं
जीविज धीरहु तह सूवारह पासियर्ड । मरिवि सतामसु जायत जोइस टुक्कु तहिं
छण्ण रोसें वणिवरवेस राउ जाहिं । तें महिवालहु जीहालोलह ढोइयेई
फलई अणेय बहुरंस भेयई जोइयेई । गई पक्खंतरि अह मासंतरि रहाइ स्वलु
वणिउ सराएं मग्गिउराएं देहि फल । तेण पवुत्तउं देव णिरत्त णिट्ठियई
णिक तरि परदीवंतरि मंठियई । पत्ता-फलसंदोहु मई सुरवरहुं पसाएं लद्धः ।।
णिच्छउ णिट्टियर लइ पई जि भडारा स्वद्धन ||७||
सुचाउ वसुहाहिब कह मि तुज्झु तुह पुणु पडु अवलोयणि तसंति
एवहिं ते देव ण देंति मझु । इयरई कह महिमंडलि वसति ।
उसका भोजन बनानेवाला अमृतरसायन नामका रसोइया त्रस्त हो उठा। उसने लक्ष्मी धारण करनेवाले राजाके हाथमें कढ़ी दी जो लारजल उत्पन्न करनेवाली कोमल इमलोके समान थी। उसे स्वाते हुए और रस चखते हुए राजाने अपना माथा ठोका तथा उसके गुणोंको दोष लगाते हुए क्रुद्ध होकर जो कुछ कहा उसका मूर्ख दुष्ट स्खलसमूहने समर्थन किया। उस धीर रसोइएका जीवन नष्ट हो गया । कोषपूर्वक मरकर वह ज्योतिष देव हुआ और वह प्रच्छन्नक्रोधसे सेठका रूप बनाकर वहां पहुंचा जहाँ राजा था। उसने जीभके लालची राजाको बहुरस भेदवाले अनेक योग्य फल दिये । एक पक्ष अथवा माह व्यतीत होने पर एकान्तमें राजाने रागपूर्वक उस दुष्ट बनियेसे याचना को-"फल दो।" उसने कहा-हे देव, निश्चित रूपसे फल समाप्त हो गये हैं और वे बस्यन्त दूर तोपान्तरमें हैं।
पत्ता-वह फलसमूह मैंने सुरवरके प्रसादसे प्राप्त किया था, वह अब खत्म हो गया है। हे आदरणीय, वह आपने खा लिया है ।।७।।
हे वसुधाधिप, मैं तुमसे सच कहता हूँ। इस समय वे देव मुझे फल नहीं देते । हे स्वामी, ८. A मिलिय। ९.A भवस्वंतई । १०. A चखंतई । ११. A राएं सिवि । १२. Pइयई। १३. AF बहुविहभेयई। १४. P बोहयई । १५. P गहापखंतरि । १६. A fणउत्त: ।।
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महापुराण
[६६.८.३
राएं पडिवपणउं वयणु तासु भणु मुवणि ण दुबई णियइ कासु । णिउ णरपरमेसर तेण्ड वेत्यु करिमयरभयंकरु जलहि जेत्थु । जीहिं दियविसयेवसेण खवित तहि सिहरि सिलायलि णिवह थविउ । चट्टयविहत्थु रोसेण फुरित सूयारवेसु देवेण धरिउ। पणिउ मई जाणहि किंण पाव खलवयणणडिय रे कूरभाव । चिंचिणिहलस्थि दप्पिट दुर्दु हर पई जम्मतरि णिहउ कहूँ। इय कदिवि तेण सयखंडु करिवि मारिउ गउ गरयह भलमु मरिदि। धत्ता-गोत्तमु बज्जरइ मगहाहिव चारु चिराण ॥
अण्णु वि णिसुणि तुई बलणारायणहं कहाणउं ! ८||
इह खेत्ति णिसे विवि जइणमग्गु । दो पत्थिव गय सोहम्मसगा । तहि एक्कु सुकेउ सहुँ ससल्लु किं वण्णामि मूढेउ मोहगिल्लु । इह भारहति संपुण्णकामु चरि पाहु बरसेणु णामु । खालसगयणयलि चंदु
दाणोल्लियकरु णं सुरकरिंदु । तहु देवि पढम पिय वइजयंति लच्छिमइ बीय णं ससिहि कति ।
जइयतुं सुभउमि मुइ जाणियाहं छहसयसमकोडिहि झीणियाहं । तुम्हारे देखनेसे वे त्रस्त हो उठते हैं। नहीं तो दूसरे परती गएकालो को निकास गररे ? राजाने उसका कहा स्वीकार कर लिया । बताओ संसारमें किसकी नियति ( अन्त ) नहीं आती १ उसके द्वारा वह नरपरमेश्वर वहां ले जाया गया कि जहाँ हाथियों और मगरोंसे भयंकर समुद्र था। जिह्वा इन्द्रियके विषयरूपो विषसे नष्ट वह राजा पहाड़की एक चट्टानपर स्थापित कर दिया गया। देवने जिसके हाथमें करछुली है ऐसा रसोइयेका रूप धारण कर लिया और कोषसे तमतमाया । वह बोला-“हे पाप, तू मुझे नहीं जानता। दुलोंके वचनोंसे प्रतारित हे दृष्टभाव, चिचणी फल (इमली ) के अर्थी दपिष्ठ और दुष्ट कठोर जन्मान्तरमें मैं तेरे द्वारा मारा गया।" यह कहकर उसने सो टुकड़े कर उसे मार डाला । सुभौम मरकर नरकमें गया ।
घत्ता-गोतम कहते हैं-हे मगधराज, एक और सुन्दर और पुराना बल तथा नारायणका कथानक है, उसे सुनो |८||
इस भरत क्षेत्रमें जेनमार्गका पालन कर दो राजा सौधर्म स्वर्ग गये। उनमें एक सुकेतु या जो शल्य सहित था । मोहग्रस्त उस मूर्खका क्या वर्णन करूं? इस भारत में चक्रपुरमें सम्पूर्णकाम वरषेण नामका राजा था। वह इक्ष्वाकुवंशरूपो आकाशतलका चन्द्र था, दान (जल और दान) से आकर (हाथ और सूंड) वाला जो मानो ऐरावत गज था। उसको पहली प्रिय पत्नी वैजयन्ती थी तथा दूसरी चन्द्रमाकी कान्तिके समान माना लक्ष्मीवती थी। सुभीमके मरनेपर जब ८. १. A वडिवण । २. AP विसविसेण । ३. A चहुवविहल्यु; ' चद्द अविहत्थु । ४. A दुट्ट ।
-
९, १.A मुज । २.A मोहें मूढगिल्लु । ३. A चक्काउरणाह।
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-६६. १०, ७ ]
महाकवि पुष्पवन्त विरचित
तयहुं संचु सोहम्मदेव tude लच्छिमहि ससल्लु तहिं एक्कु पको िदिसेणु णाम हकारिष्ट पुंडरी ते वेणि वि णीलसुपीय वसण दोहं म उ आषयाउ
उत्तु जयंतिहि सोक्खदेव । किं चणमि अप्पडिमल्लमन्तु । today विदुत्थियकामधेणु । किं णमि रिपुंडरीच । ते बेणि वि भायर धवलकरण । दोहं मिसंसिद्ध देवयाउ ।
- सीरिति साहियां लप्पण्णसहासई वरिस | हि नाहिय पर माउसु एं सुपुरिसहं ॥२॥
छबीसचा देह पमाणु safe ft उर्विदणु तहु तेण घीय दामोधरासु तर पराइन पहु णिसुंभु जाय रणु विवहि लग के वि परिहरिणा पल्लिउ धगधगंतु तेणा उरयलि पडिङ वेरि
१०
तहिं ताइं पहुत्तणु जाणमाणु । जो देवहिं गेज्जइ धरिवि वेणु । पोमावर दिण्ण कयायरासु । चिरभवि सुकेत सो रिवणिसुंभु । अवरोधपरु णव सक्रिय इणेवि । धरिय कण्ण रहंगु पंतु । अभीसणु कयधम्मावरि ।
४७३
ܘܐ
जो छह सौ करोड़ वर्ष बीत गये तो सौधर्म स्वर्ग से देव च्युत होकर वैजयन्तीका पुत्र हुआ सुखका कारण था। दूसरा जो सशल्य था, वह लक्ष्मीमतीसे जन्मा अप्रतिम मल्लोंके महल उसका में क्या वर्णन करूँ उनमें से एकको नन्दिषेण कहा गया और दूसरेको जो दुःस्थितों (विपत्तिग्रस्तों ) के लिए कामधेनु था, पुण्डरीक नामसे पुकारा गया । शत्रुरूपी हरिणोंके लिए पुण्डरीक (व्याघ्र ) के समान था उसकी में क्या स्तुति कैसे ? वे दोनों ही नील और पीत वस्त्रवाले थे। वे दोनों ही भाई गोरे और काले थे। दोनोंने आपत्तियों को तहस-नहस कर दिया था। दोनोंको विद्याएँ सिद्ध थीं।
घता - श्री बलभद्र नन्दिषेणकी आयु छप्पन हजार वर्षं कही गयी है। चकवर्ती पुण्डरीककी आयु भी इससे अधिक नहीं थी, इस प्रकार दोनों सुपुरुषोंकी यह परमायु थी ||२९||
१०
दोनों के शरीरका प्रमाण छब्बीस धनुष था । वहाँ उनका प्रभुत्व भी ज्ञातमान था । इन्द्रपुरीका राजा उपेन्द्रसेन था, जिसका देवों द्वारा वेणु लेकर गान किया जाता था । किया गया है आदर जिसका ऐसे उग्र दामोदर ( पुण्डरीक ) को उसने अपनी कन्या पद्मावती दे दी । पूर्वभवमें शत्रुओं का नाश करनेवाला जो सुकेतु राजा था, ऐसा निशुम्भ राजा ( वक्रपुरका ) उसका अपहरण करनेके लिए आया। दोनोंमें युद्ध हुआ। वे विद्याओंसे लड़े। वे एक-दूसरेको मारनेमें समर्थ नहीं हो सके। प्रतिनारायण निशुम्भने धकधक करता हुआ चक्र चलाया। आते हुए उसे नारायण पुण्डरीकने पकड़ लिया। उससे शत्रु का वक्षःस्थल आहत होकर अत्यन्त भयंकर और धर्मकी
४. AP अष्णेत्रकु वि लच्छिमहि । ५. AP अप्पणिमल्लू। ६. APमिगं । ७. AP read a as b and bass. ८. P संचिण्णउ । ९, AP एउ
६०.
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महापुराण
[६६. १०.८. गउ गरयहु णियमणगहियखेरि महि साहिवि पहयाणवभेरि ।
हरि हलहर रज्जु करत थक ता कालें अणुयड दि हि मुक। १० सम्भंतरि णिवडिन चक्रपाणि हलिणा विरइय कम्मावहाणि । सिषघोसगुरुहि उवएसएण सिद्धष्ट मुक्कल मोहें मरण । घत्ता-भरहणराहियहि मणभरियभत्तिपइरिक्कहिं ।।
बंदिउ विसहरैहिं खगपुष्फयंतगहचक्कहिं ॥१०॥
इय महापुराणे सिसद्विमहापुरिसगुणालंकारे महाकापुफ्फर्यतविरहए. महामसमरहाणुमग्णिए
महाकावे सुभउमाकयाष्ट्रियकएववासुएवएदिवा एवकहतरं गाम
___ सहिमो परिच्छेनी समतो ॥६॥
अवहेलना करनेवाला वह शत्रु गिर पड़ा। अपने मनमें कलहका भाव धारण करनेवाला वह नरकमें गया। जिसमें आनन्दको भेरी बजायी गयी है, ऐसी धरतीको सिद्ध कर जब बलभद्र और नारायण राज्य करते हुए रह रहे थे, तो कालने अनुज (पुण्डरीक ) पर अपनी दृष्टि छोड़ी। चक्रवर्ती नरककै मध्य गया । बलभद्रने शिवशेष गुरुके उपदेशसे कर्मों का नाश किया तथा मोह और मदसे मुक्त होकर वह सिद्ध हो गये।
पत्ता-जिनके मनमें भक्तिको प्रचुरता भरी हुई है, ऐ। भरतक्षेत्रका राजाओं, विषधरों, विद्याधरों, सूर्य-चन्द्र बादि गृहचक्रोंने उनकी वन्दना की ॥१०॥
इस प्रकार श्रेसठ महापुरुषोंके गुणाकारोंसे युक महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामन्य मरत द्वारा अनुमत महाकाव्य में सुमौम चक्रवर्ती चकवेष वासुदेष प्रतिवातुरेव कथान्सर नामका छियासठवा
परिच्छेद समाप्त हुआ ॥६६॥
१०. १. AP सहिदि । २. AP हलिणा पुणु विरहय कम्महाणि । ३. A °रिसिहि । ४. AP omit पडिवा
सुएवं । ५. P adds सत्तमयकपट्टि पर स एव तिस्थपर अट्टमचक्कट्टि सुभौम छटवलएव मंदिसेण, वासुदेव ब्रीय, परिवामुएष णिसुंभ एतच्चरिय सम्मत्तं; K gives this in margin )
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संधि ६७
तिहुवणसिरिधरो सङ्गविवजिओ ॥ जो परमेसरो सयमपुजिओ ॥ ध्रुवकं ।
जेण हओ णीहारओ रुइणिज्जियणीहारओ। सुजसोधवलियइंसओ जस्स भुवणसरहंसओ। जा कंती मयलंछणे संपुष्णा जाय छणे। सा वि जस्स मुहपंकए इर मजेइ पिप्पंकए। मोत्तर्ण महिवइचलं चित्तं सोदामणिचलं । गाढं जेण वसं कयं मुणिमग्गे णीसंकर्य। हिंसायारो वारिओ जो कोषाणलवारिओ। कामभोयआसी या सरहस्स व षणसीया। पट्टा जस्स विवाइयो शहादुर विनायो ।
सन्धि ६७ जो त्रिभुवनको लक्ष्मीको धारण करनेवाले और शल्पसे रहित हैं, जो परमेश्वर इन्द्र के द्वारा पूज्य हैं।
जिन्होंने मनुष्यको मिथ्या चेष्ठासे उत्पन्न कर्मको नष्ट कर दिया है, जिन्होंने कान्तिसे चन्द्रमाको जीत लिया है, जिन्होंने अपने सुयशसे सूर्यको धवलित किया है, जिनका यश भुवनरूपी सरोवरमें इसकी तरह कीड़ा करता है। पूर्णिमाको रात्रिमें चन्द्रमाको जो सम्पूर्ण कान्ति होती है, वह भी जिसके निष्र्पक ( कलकरहित ) मुखरूपी कमलमें डूब जाती है। राज्यलक्ष्मीको छोड़कर जिन्होंने सौदामिनीको तर चंचल मनको अच्छी तरह वशमें किया है और मुनिमार्गमें निःशकभावसे लगाया है। जिन्होंने हिंसामय आचारका निवारण किया है, जो क्रोधरूपी आगका निवारण करनेवाले हैं, जिन्होंने कामभोगरूपो सर्पको दालको नष्ट कर दिया है, उसी प्रकार जिस प्रकार अष्टापद वनसिंहको नष्ट कर देता है। अत्यन्त अधिक कर्मविपाकवाले विवादी जिनसे नष्ट हो गये
All Ms. have, at the beginning of this samdhi, the following stanza
इह पठितमुवारं वाचकैर्गीयमान इह लिखितमजलं लेख कैश्वास काम्यम् । गतवति कविमित्र मित्रतां पुष्वदन्ते
भरत तव गृहेऽस्मिन्भाति विधाविनोदः ॥१॥ १. १. सिरिवरो। २. K reads ap: मिजद इति पाठे मोयते। ३. A महिवइबलं । ४. T
reads ap : कामभोहासी इति पाठे काम एव भोगी सर्पस्तस्य भासी दंष्ट्रा ।
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સ
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सोउं जस्ल सुख्खामयं पुरिसा किलधामयं आयंबुलकर हं णिम्मलत्तणिरसियनई वो तस्सेव य कई
सोयरेस धीरो' जियपरमंडलो कोसेणं वसवणओ
महापुराण
पत्ता -- पढमइ दीषइ सुरगिरिपुषइ ॥ सोहादिष
२
रायो रुवी विद सरो । विवेणं आईडलो !
णामेणं वस्रवणओ ।
सिदिय धणं केरुहरयधूसरो साम पवासियविद्दिरो थरथरणहो फुल फुलयकबओ जीरपूरपूरियधरो पचो वासारतो बावियसिलिणड़ो
तू मोहामयं । पत्ता णाणसुधामयं । भयवंसं जियकरणहं । तं मणिमिण है । इयर मोक्खविही कहूं ।
कीलावणं ।
म जाम पुइसरो ! सुरमंडियजलधरो । अच्छाइयदसदिसिहो । वियसायिदालियो । किकिरीण सुकरो | दूरं कंको मत्तओ । बिज्जुजलज लिओ वडो ।
[ ६७ १.१२
हैं, जिनके श्रुतरूपी अमृतको सुनकर, मोहरूपी व्याधिको नष्ट कर लोग ज्ञानरूपी सुधासे युक्त निष्कलधाम ( मोक्ष ) को प्राप्त हुए हैं, जिनके हाथोंके नख लाल और उज्ज्वल हैं, जो ज्ञानवान् और अपनी इन्द्रियोंका घात करनेवाले हैं, जिन्होंने निर्मलता में आकाशको तिरस्कृत कर दिया है ऐसे उन मल्लिनाथको में नमस्कार करता है और उन्होंको कथाको कहता हूँ ।
पत्ता - प्रथम जम्बूद्वीप के सुमेरुपर्वतकी पूर्व दिशामें शोभासे दिव्य चन्द्रदेश में – ||१||
२
वीतशोक नगरका स्वामी राजा ( वैश्रवण ) कामदेव के समान सुन्दर था। धीर और शत्रुमण्डलको जीतनेवाला जो वैभवमें इन्द्र, घनमें कुबेर और नामसे वैश्रवण था। दूसरे दिन सचन क्रीड़ावनमें जाकर कमलपरागसे धूसरित वह राजा कोड़ा करता है तो इतनेमे प्रवासियों के धैर्यका हरण करनेवाला जिसमें इन्द्रधनुषसे मेघ मण्डित हैं, आकाशसे बड़ी-बड़ी बूँदें गिर रही हैं, दसों दिशापथ आच्छादित हैं, जिसमें कदम्ब वृक्ष विकसित और पुष्पित हैं, जिसने कुकुरमुत्तोंको विकसित कर दिया है, जलोंसे धरती प्लावित है, जो सुअरों ओर गजोंसे सुन्दर है ऐसी वर्षाऋतु आ गयो, बगुले दूर हो गये हैं। जिसने मयूरकुलरूपी नटों को नचाया है ऐसा वटवृक्ष
५. A णविऊण ।
२. १. A यं वें जियसरो । २. AP बी ३ AP असं । ४. APजलहरो । ५. APP थिर्भ ।
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४७७
-६७. ३.१२ ।
महाकवि पुष्पदन्त विरचित पर्यलियपल्लवरायं हृयवहपउलियसाहयं । दणं तं पायवं
चितइ णि ण णवं। होइ जयं पुणु णासए णिच्च चिय ण हु दीसए। घत्ता-जिह जग्गोइओ दाणि दिदुओ॥
तडिदंडाहओ सहसा गट्टओ ॥२॥
णासिहिति तिहहय गया देहो जो रसपोसिओ सिंभवसापित्तासओ इय भणिउंदा सिरि सिरिणायं सिहरणयं संबोहियबहुवणपरं विऊणं जाओ जई एयारह वि सुयंगई धरिऊणं हिययं दद इंदचंदकोंकित्तणं अहमिदेहिं विराइप तेत्तीसबुहिकालए
चिंधछत्तधामरचया। रयणाहरणविहूसिओ। सो वि ण होही सासओ। णियतणयस्स गओ गिरि । दरितरुकीलियपण्णय । सिरिणायं मणिवरं। सामतेहिं समं यई। पढिऊणं अविहंगई। चिण्णं चरियं णीसढं। बद्धं तिस्थयरतर्ण। संभूयड अवराइए। गइ थिइ छम्मासालए।
n
बिजली की आगमें जलकर भस्म हो गया। उस वृक्षको देखकर राजा अपने मनमें सोचता है कि यह विश्व नया-नया होता है,फिर नाशको प्राप्त होता है।
पत्ता--जिस प्रकार इस समय वटवृक्ष विद्युत्-दण्डसे आहत सहसा नष्ट होता हुआ दिखाई दिया- ॥२॥
उसी प्रकार हाथी और घोड़े, चिह्न, छत्र और चामर-समूह नाशको प्राप्त होगा। रससे पोषित, रनाभरणोंसे विभूषित, श्लेष्मा (कफ), मज्जा और पिससे आश्रित यह शरीर भी शाश्वत नहीं होता। उसने यह विचार किया और लक्ष्मी अपने पुत्रको देकर राजा श्रीनाग पर्वतके लिए चल दिया कि जो पर्वतोंसे उन्नत था और जिसकी वाटियों में साँप कोड़ा कर रहे थे। जिन्होंने महतसे अनेक बनवरोंको सम्बोधित किया है, ऐसे श्रीनायक मुनिवरको प्रणाम कर यह सामन्तोंके साथ मुनि हो गया। अविभंग ग्यारह श्रुतांगोंको पढ़कर उसने निष्कपट चारित्र्य ग्रहण कर लिया । जिसका कोतन इन्द्र और चन्द्रमा करते हैं ऐसे तीर्थकरत्वका उसने बन्ध कर लिया। वह अमरेन्द्रोंसे विराजित अपराजित विमानमें उत्पन्न हुआ। वही उसके सैंतीस सागर आयु बीतने और छह माह शेष रहनेपर
A पदिय । ७. A परवा । ३. १.A चामरघया । २. A णमिकणं । ३. P परिऊणं ।
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महापुराण
[६७. ३. १३
घत्ता-तम्मि फालय शमलिणदेसहो ।।
सोहम्माहिवो कहह धणेसहो ।शा
सुणि इह भरहे अंगए विसए धम्मवसंगए। मिहिलाउरणयराहियो दोणेसु य पसरियकिवो। रिसहगोत्तम्सुम्भवो कुंभो णाम महाणिवो। किं फिर कहामि महासई देवी तस्स पयावई। णिकदप्पो णिन्भओ होही ताणं अभओ। मुदि हिरण्णगन्भो गुणी जं थुगंति देवा मुणी। कुणसु तस्स जयरं तुम ता धणएण अणोवमं । सहसा रइयं तं पुरं
रयणजालफुरियंवरं । पुण्णाणं पिव संचए
पासाए मणिमंचए । राइविरामे सुत्तियां
पेच्छद पंकयणेत्तिया। साहियसिरियणुभवणए एए सोलह सिविणए।
धत्ता-पूर्ण मत्तयं धोरेयं मियं ॥
सारंगाहिवं गोब द्धणपियं ॥४॥
पत्ता- उस समय स्वच्छ वेशवाला सौधर्म इन्द्र कुवेरसे कहता है ॥३॥
"सुनो, भरतक्षेत्रके धमके वशीभूत अंगदेशमें मिथिलापुर नामके नगरका राजा है, जो दोनोंके प्रति कृपाका विस्तार करने वाला है। जो ऋषभके गोत्र और वंशमें उत्पन्न हुआ है, ऐसा कुम्भ नामका महान् राजा है। उसकी देवी महासती प्रजावती है। उसका मैं क्या वर्णन करू ? उससे कामदेवका नाश करने वाला विष्कलंक बालक उत्पन्न होगा, जो संसारमें हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा) होगा, और जिसको देव और मुनि स्तुति करते हैं, उसके लिए तुम सुन्दर नगर बनाओ।" लब कुबेरने सहसा अनुपम, जिसके रत्नजालसे आकाश स्फुरित है ऐसा मिथिलापुर नगर बनाया। पुण्योंके समूहके समान प्रासादमें मणिमय मंचपर सोते हुए रात्रिके अन्त में वह कमलनयनी, जिसमें लक्ष्मीके भोगको कहा गया है, ऐसे स्वप्न में ये सोलह ( चीजें ) देखती है।
पत्ता-मतवाला गज, सफेद बेल, सिंह, लक्ष्मी ॥४॥
४. १. A महिलाबरं । २. A दोणेमुं; P दोणेसु परियं । ३. AP महाहियो । ४. AP पड़ावई । ५. A
तासु ।
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-६.७६.५ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
मालाओ कयजणदिहिं भावभरियनम्मरस
धवलवाणं जयल पुलिपणिलीण बेलाय सरिरायं रसणार अच्छरणाइणियप हरियं पीयं संबयं दुहूणं मरुजालिय परिबुद्धा परमेसरी
मणिर
५
अमरु सरहहिं । अणिमसमहु रसं । सीबिषयं । सजलं कमळतोययं । भणिषीढं हरिभरणं । - ईव फर्णिदणिकेथए । रणाणं frani |
अरिंग जाळामालयं । कहइ सपो सुंदरी ।
विट्टा सिविजय संतई ।
बत्ता - तिस्सी तं फलं कहइ नुसाओ || सुओं देवि भडारओ ||५||
सुह हो
६
धरिद्दी जो रयणत्तयं
हिदी जो छत्ततयं बहिही जो भिंतयं सो ते होही डिंभओ अमरविलास णिसत्थओ
बिही जरस जयत्तयं । जाजरामरणतर्थं । जाही मोक्मर्णतयं । हिजणगणभयो । तो मंगलइत्थओ |
४७९
१०
५
मालाएँ, जनों का भाग्यविधाता चन्द्रमा और सूर्य जिसमें भावोंसे 1
I
कामदेवका रस भरा हुआ है ऐसा रतिवश मत्स्ययुगल धवल षड़ोंका युग्म, जिसमें कमल हंसिनियोंके द्वारा चुम्बित हैं, जिसके तटोंपर बगुले बैठे हुए हैं, ऐसा सजल सरोवर । गर्जनासे भयंकर समुद्र, सिंहासन ( सिहोंसे भयंकर मणिशेठ), अप्सराओं और नागिनोंके द्वारा गाये गये स्वर्गलोक और नागलोक, रत्नोंका हरा-पीला और लाल समूह तथा पवनसे प्रज्वलित ज्वालाओंसे सहित आगको देखकर वह परमेश्वरी जाग गयी। वह सुन्दरी अपने पति से कहती है कि मैंने मखों में रति उत्पन्न करनेवाले स्वप्नोंको देखा ।
धत्ता--तब उसके लिए राजा उनका फल कहता है कि हे देवी, तुम्हारे आदरणीय पुत्र होगा । ||५||
५. १.A कालयं । २. A ठडालयं । ३. A४. APणिसारमो । ६. १-A सो तब होही।
जो रश्नत्रयको धारण करेगा, जिसे तीनों जगत् प्रणाम करेंगे। जो तीन छत्र प्राप्त करेगा, जन्म- जरा और मरण तीनोंका नाश करेगा, जो बिना किसी चान्तिके अनन्त मोक्षको प्राप्त होगा। सुधीजनोंका आधारस्तम्भ वह तुम्हारा पुत्र होगा। मंगलद्रव्य हाथमें लिये हुए अमर
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४८०
महापुराण सुविसुद्धे गम्भासए घणधारावरिसे कए। पढममासि पढमे दिणे आसिणिगइ हरिणंकणे। राणड जो हदओ वसवणो अहमिदओ। गयरूवेणवइण्णओ राणीगभि णिसण्णओ। सो सुरेहि अहिणदिओ फणिकिंणरणरचलिओ। णियाणं पसे अरे
वरिसकोडिसहसंतरे। मग्गसिरे तुहिणायरे सियएयारसिवासरे। आसिणिरिक्खे जायओ तित्थयरो हयरायओ। एक्कुणवीसमओ. इमो गरहवेण-व संजमो। अहि सित्तो अमरायले हरिणा पंडुसिलायले।
धत्ता-मल्लियमालागंधो जाणिओ॥
ईदेण मिणो मल्ली भाणिओ ॥६॥
अणुरथं पवियप्पिो जणणीहत्ये अप्पिओ। घणघरपल्लियपया। देवा णियवासं गया। बुहमुहपोमार्ण इणो वदह कालेणं जिणो। जाओ जायहवाहओ पंचवीसधणुदीहओ। आउसु तस्स सहासई वरिसह पणपण्णासहं ।
बरिससर बोळीणए आरूढो सुरपूणए । विलासिनियोंका समूह आ गया। धनधाराको वर्षा होनेपर सुविशुद्ध गर्भाशयमें चैत्र शुक्ला प्रतिपदाके दिन प्रातःकाल चन्द्रमासे युक्त अश्विनी नक्षत्र में रतिका अंकुर वह राजा वैश्रवण अहमेन्द्र गजरूपमें अवतीर्ण होकर रानीके गर्भ में स्थित हो गया। नाग, किन्नर और मनुष्योंके द्वारा बन्दनीय वह देवों के द्वारा अभिनन्दित किया गया। अरनाथके निर्वाण प्राम करनेके बाद एक हजार करोड़ वर्ष बीतनेपर मार्गशीर्ष सुदी एकादशीके दिन अश्विनी नक्षत्रमें कामदेवका माप करनेवाले तीर्थंकरका जन्म हुआ। उन्नीसवें तीर्थकर यह जैसे मनुष्य के रूपमें मूर्त संयम थे । इन्द्र के द्वारा सुमेरुपर्वतपर पाण्डुकशिलाके ऊपर वह अभिषिक्त हुए।
पत्ता-मस्तिकाकी मालाके गन्धसे युक्त जानकर इन्द्रने उन जिनकोमल्लि कहा ।।६।।
उसने सार्थक नाम समझा और माताके हाथमें उन्हें दे दिया। मेघोंके आडम्बर ( घटा) में पैर रखते हुए देवता अपने निवासगृह पले गये। जो अषोंके मुखरूपी कमलोंके लिए सूर्य हैं, ऐसे जिन भगदान समयके साप बढ़ने लगे। वह स्वर्णरूप हो गये एवं वह पच्चीस धनुष ऊंचे थे। उनकी बायु पचपन हजार वर्ष यो । सो वर्ष आयु पूरी होनेपर वह ऐरावतपर बारक हुए । वह
२. A सिणि । ३. A रामो यो । ४. AP शरदको । ५. A अस्मिणि । ७. १. A अणुभब and glors वाश्चर्यम्; T मगुनस्र्थ आश्चर्यम् । २. A अवहो । ३. A सुरथूणए ।
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-६७.८.८]
महाकषि पुष्पदन्त विरचित कुणइ विवाहपवर्ण पेच्छा कुरो पट्टणं। परिहापाणियदुग्गम बहुदुवारकयणिग्गर्म ।
मघडियपायारयं पवरहालयसारयं। पोमरायफयभारण उभियधुयधयतोरणं। हसियणिसावइतिचं पेच्छतो घरपंतियं । सरइ पहू अवराइयं सुक्यं मधु पुराइयं । खीणं तेण विमाणयं मुकं अहमिदाणर्य। एम्हि होही कि थिर गरजम्मे जयरं घरं। पत्ता-छत्तायारयं सिवमहिमंडलं ॥
करमि ववं परं लहमि घुवं फलं ॥७॥
Kannarava
ता सारस्सयभासिय
सोऊणं सुइमीसियं । कुंमणिवस्स य आणुसहो तरुणीणं विवरंमुहो। इंदणं ससहरमुहो
पहनिनो दिखायो। जयणे जाणे थपाओ
कुवलयकुमुरामियंकयो। कामेसु सुषिरत्तो
सरयषणं संपत्तो । जन्मदिणे गक्खतए
पक्खे तम्मि पहलए। णिववरतिसेयइए जुओ मोहणिबंधाओ चुनो। सायण्हे सुतवे थिओ
णाणपक्षणकियो। विवाहके लिए प्रवर्तन करते हैं। कुमार नगरको देखते हैं कि जो परिखा और पानीसे दुर्गम है, जिसमें बाहर जानेके अनेक द्वार हैं, जिसके परकोटे स्वर्णरचित है, जिसमें श्रेष्ठ और विशाल अट्टालिकाएं हैं, जो पपराग मणियोंकी भाभासे युक्त हैं, जिसमें हिलती हुई ची पताकाओंके सोरण है। गृह-पंक्तियोंको देखते हुए कुमार मल्लि अपगजित विमानको याद करता है। मेरा पुरातन पुथ्य क्षीण हो गया है उसीसे अहमेन्द्र विमानसे मैं मुक्त है। इस मनुष्य जन्मके नगर और घर क्या स्थिर रहते हैं?
पत्ता-मैं केवल तप करूंगा और छत्राकार शिवमहीमण्डलके शाश्वत फलका भोग करूंगा ।।७।।
तब लोकान्तिक देवोंका आगमयुक्त कथन सुनकर स्त्रियोंसे पराङ्मुख दीक्षाके लिए उद्यत चन्द्रमाके समान मुखवाले कुम्भराजाके पुत्र वैश्रवणका इन्द्रने अभिषेक किया । 'बयन' यानमें बैठकर कुवलय (पृथ्वीरूपी) कुमुद के लिए पन्द्रमाके समान कामोंसे अत्यन्त विरक्त वह शरवनमें पहुंचे। जन्मके दिन अर्थात् अगहन सुदी एकादशोके दिन अश्विनी नक्षत्र में तीन सौ राजाबोंके साथ वह मोह बन्धनोंसे छूट गये । सार्यकाल सुतपमें स्थित हो गये और पार मानोंसे अंकित
४. AP कुमरो। ५. AP पोमरायकिरणारगं। ८. १. A सुबमोसियं । २. A"तिसईए; P"तसएप ।
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४८२
[६७.८.१
वित पाखाणयं
मोत्तं भतं पाणयं । बिहि दिवसेहिं गएहिं सो दसविसिषहपसरियजसो। पिण्णेहो णीसंगयो
मिहिलाए भिक्खं गओ। णंदिसेणवरराणा
दिणं भत्तंजोईणा। मुत्तं राणुणिषाहणं
संजमजतासावर्ण। पत्ता-पुणु दिक्खावणे सुरहियपरिमले ।
थक्कु असोयहो तलि धरणीयले ॥८॥
दिणि इथे विच्छिण्णए भिषणे मिच्छादुपणए । हुच देवाण वि देवो लद्धोखाश्यभावओ। रिसिविजाइरसंसिओ इंदपहिंदणमंसिओ। समवसामिासीणधो किसिलो। जीवमजीपं पास
संवरणिज्जरणं तवं । बंधं मोस्खं भासए
लोयं धम्मविसेसए। थवा वस्स णिमुणियामुणी अट्टवीस जाया गणी। सयई पंचपण्णासई
पुग्वधराह णिरासई। एक्कुपातीससहास
सिक्खुयाई मलणासई। हो गये । प्रत्याख्यानावरण आदि छोड़नेके लिए भात और पानी छोड़ दिया। दो दिन हो जानेपर दसों दिशाओंमें जिनका यश फैला हमा है ऐसे निर्नेह और अनासंग वह मिथिला नगरीमें भिक्षाके लिए गये। नन्दिषेण श्रेष्ठ सजाने योगीको बाहार दिया। शरीरका निर्वाह करनेवाला और संयमयात्राका सापक बाहार उन्होंने ग्रहण कर लिया।
पता-फिर सुरभित परागवाले दीक्षावनमें वह अशोक वृक्षके नीचे धरणीतलपर स्थित हो गये ||
छठा (पंचभक्त) दिन बीतनपर (पारणाके बाद) मिथ्या दुर्नय नष्ट होनेपर वह देवोंके देव हो गये। उन्होंने क्षायिकभाव प्राप्त कर लिया। ऋषि विद्याधरों द्वारा प्रशंसित इन्द्र और प्रतीन्द्र के द्वारा प्रणम्य समवसरणमें बैठे हुए शत्रु और स्वजनमैं समान वह जीव-अजीव-यास्रव-संवर-निर्जरा-तपबन्ध और मोक्षका कपन करते हैं, लोकको धर्मविशेषमें स्थापित करते हैं। जिन्होंने विव्यध्वनि सुनी है ऐसे उनके अट्ठाईस गणधर हुए। आशारहित पूर्वागके धारी पांच सौ पचास थे। मानका माश करनेवाले शिक्षक उनतीस हजार थे।
___३. P घेतुं । ४. A मोतं । ५. P राणो । ६. A भिक्खं; P भक्वं । ७, A जोइणो । १. १. Padd after this: पूसकिण्डदीयए उमओ, पंचमु णाणुप्पण्णभो । २. A अरिप्तयणे; P बरिसयणा ।
३ सिक्खुबाह; P भिक्खयाह ।
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-६७. ११.२]
महाकवि पुष्पवन्त विरचित
भवा--दुमहसतुमयई लावहि हयकलि ॥ जेचिय ते वेतिय केवलिं ||२||
१०
सय बाईसह णवसय दोणि सहासई मणजाई सतारह
पोषण्णसहास सावचषस्तु अहोणचं सुर असं सम्मोि भवसमुपाविष पंचसहास जुओ संमे चिरयण: भरणीरिक्खे मुकओ
विििरयह विरिस्त्रीसहूं । कुलियणयनिसः । समपणास समीर ! विरास |
सावईहिं सं तिष्णवं । संबोहिषि ।
पसु स मासेसधियजीविए । रिसिहिं पाहू तमचत्तश्रो । फग्गुणि पिंच मिय | अमपुरधिकओ |
घचा- हर भयंकरं भविष्यमदुई ॥ मल्लिसुणीस देव सुहं महं ॥ १०॥
११
मल्लिवित्थताणे कयपडिववई
बुषणसुसुहेयरणं हि चण्टिक ।
४८३
१०
५
१०
पता - पापका नाश करनेवाले अवधिज्ञानी दो हजार दो सो थे । वहाँ जितने थे उतने केवलज्ञानी थे ॥१॥
१०
वादी मुनि चौदह सौ थे। कुसित नयोंका ध्वंस करनेवाले विक्रिया- ऋद्धिके धारक मुति दो हजार तो सी थे। तुम मन:पर्ययज्ञानी एक हजार सात सौ कहो। अपना गृहवास छोड़नेवाली पचपन हजार गायिकाएँ थीं, श्रावक एक लाख थे और श्रादिकाएं तिगुनी अर्थात् तीन लाख पौं । अस्य देवोंको मोहमुक्त कर संख्यात विर्य चोंको सम्बोधित कर संसाररूपी समुद्रका तट प्राप्त कर जीवनका एक माह शेष रहनेपर पांच हजार मुनियोंके साथ अन्धकार रहित स्वामी शिखरसे आकाशको छूनेवाले सम्मेद शिखरपर फागुन शुक्ला सप्तमीके दिन भरणी नक्षत्र में मुक्त हुए। वे आठवीं धरतीपर पहुँच गये।
●
११. १. Aसुहणणी: P सूबामण 1
घता है, मस्लि बिनेश्वर, तुम भयंकर भवविश्रमके दुलको दूर करो और मुझे सुख दो ॥ १०॥
११
मल्लिनाथको तीर्थ परम्परा में जिसमें शत्रुपक्षका वध किया गया है, जो बुधजनोंके कानोंके
४. AP हि हु जेतिय तेतिय ।
१०.१.२. A मुक्कसवास; P मुक्कसवासहं । ३. 4 संमोहिषि । ४ AP मम्ससेसि विविए । ५.AP विहि। ६. AP मई सुई ।
०
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४४
महापुराण जंबूदीवसुरीयलि पुम्वविदेहवरे
विशलि सुकन्छामणवा सिरिहरि सिरिणयरे । तडिकरालअसिधारावासियसयलखलो
पयपालो पुदईसो पोसियपुहायलो। णिसिसमए णं एक हाहसियं
सिषगुप्तस्स समीवे मुफियं तेण फियं । यारहविहतवचरणे इंदियमयहर
मुकाहारसर सल्लेहणमरण । जायच अपवुयकप्पे अमरो मरिऊर्ण
सगसिहरभवणाओ पुणु ओयरिऊर्ण । इह भरदे कासीए वाणारसिणाहो
आइवेवकुलतिलो पटु पंकयणाहो । मझे खामा सामों रामा तस्स सई
जाओ देवो पोमो वाणं सुखमई। तीसवरिससहासर धणुबावीसतणु
णयसंणिहियणरोहो पशु पं घरममणु । गंगासिंधूणविओ साहियमाहियमरो
'णिहिरयणालंकारो णवमो पहरो। पत्ता-पुहईसुंदरीपमुहस धीय ॥
अट्ठ वि सिहँउ सुद्छु विणीयच ॥११॥ लिए शुभकर है ऐसी चक्रवर्ती कथाको सुनो। जम्बूद्वीपके सुमेरुपर्वतके श्रेष्ठ पूर्वविदेह में अत्यन्त विशाल कच्छावती देशमें लक्ष्मीको धारण करनेवाले श्रीनगरमें प्रजापाल नामका पृथ्वीश्वर है जो बिजलीके समान भयंकर बसिधारासे समस्त शत्रुओंको त्रस्त करनेवाला है और पृथ्वीतलका पालन करनेवाला है। रात्रिके समय आकाशसे गिरते हुए तारेको देखकर उसने शिवगुप्त मुनिके समीप बारह प्रकारके तपके आचरणके द्वारा इन्द्रियों के मदका हरण करनेवाला पुण्य किया सपा छोड़ दिया है आहार और शरीर जिसमें ऐसा सल्लेखना मरण किया। मृत्युको प्राप्त होकर वह अच्युत स्वर्गमें उत्पन्न हुआ। स्वर्गके विमान शिखरसे अवतरित होकर वह पुनः इस भारतवर्षके काशीदेशमें वाराणसीका राजा हुआ-इक्ष्वाकुकुलका तिलक स्वामी पद्मनाभ। उसकी सती स्त्री सुन्दरी मध्यमें क्षीण थी । उनका शुमति पत्र नामका पुत्र उत्पन्न हवा । सीस हजार वर्ष उसकी आयु पो । बाईस धनुष उसका ऊँचा शरीर था। वह लोगोंको न्यायमें स्थापित करनेवाला मानो अन्तिम मनु पा। जिसने गंगा और सिन्धु नदियोंको सिद्ध किया है, परती और देवोंको सिद्ध किया है, जो निषियों-रत्नों और अलंकारोंसे युक्त है, ऐसा वह मौवा पावर्ती था।
__ पत्ता-उसको पृथ्वीसुन्दरी प्रति कन्याएं यों जो आठों ही अत्यन्त विनीत कही गयी हैं ॥११॥
२. A सुरालए। ३. A विदेहि वरे। Y. A उपचहसियं। ५.A रामा लामा तस्स । ६. A सहसा । ७. A सिद्धच ।
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-६७.१२.१६ 1
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
हे णिचाण विष्णाणजुत्ताण दिण्णा ताओ सुकेयेस्स पुस्ताण । णिच्छिन्नमाणेण दीहेण कालेण रज्जं करतेण भूषकवालेण: देवेण सव्वावणीरिद्धिरिद्रेण दिट्टो घणो 'खे पणट्टो खणद्वेण । कम्मारिचारित्ततस्ती कया जामदभतिणा मंतिणा अंपियं ताम। जायंवि भूयाण संजोयभावेण जीषा ण बसि पुण्णेण पावेण । दिक्खाइ भिक्खाइ किं होत हे राय णाहेण सो उत्तु भो बुड्ढ पिण्णाय । जंणेस्थि णो तस्स उत्पत्तिसंताणु णो जम्मु णो कम्मु प्यो फस्से णिवाणु । कूराण फउलाण फकालचिंधाण कीलालमत्ताण कंतारयंधाण। सुत्तेण किं मझु किं बंधुणेहेण साहामि सोक्षं धुर्ष एण देहेण । एवं पवोत्तूण तचाई जाऊण पुत्तस्स भूमि असेसं पि दाऊण । सूरिस्स तिन्वं समाहीइ गुत्तस्स काउं तवं पायमूले सुजुत्तस्स । सोमो व्य सोमेणे जिम्मुपोमेण राया सुकेॐ वि अण्णे वि पोमेण । "सड्ढे इसी जायया णिसारण णिशोहणिम्मोहिणा णिबिसाएण | "खीणा तवेणं खरं णिकलतेण मोखं गया संठिया णिकलसेण ।
पत्ता-पत्थइ तिस्था हरावारिणो ॥
जाया भाणिमो ते हरिसीरिणो ॥१२॥
१२ वे आठों राजा सुकेतुके स्नेहसे परिपूर्ण विज्ञानसे युक पुत्रोंको दी गयीं। लम्बा समय निकल जानेके बाद राज्य करते हुए भूपाल चक्रवर्ती समस्त पराऋदियों से समृद्ध देवने माकासमें आधे ही पल में बादलको नष्ट होते हुए देखा। जब उसने कर्मोंके शत्रु जिनके चरित्रको चिन्ता को तो दुर्घान्त मन्त्रीने कहा-"प्राणी संयोगमावसे जन्म लेते हैं, जीव पुण्य या पापसे बन्धनको प्राप्त नहीं होते। इसलिए हे राजन्, दीक्षा और भिक्षासे क्या होता है ?" तब राजाने कहा- "हे न्यायहोन वृद्ध मन्त्री, जो पोज नहीं है उसको उत्पत्ति या परम्परा नहीं हो सकती है। अब जन्म नहीं है, कम नहीं है, तो मिर्वाण क्या है ? कंकाल चिह्नवाले कर फोल मद्यसे मस्त कान्तारतिमें अन्धे चार्वाकोंके सिद्धान्तसे मुझे क्या, बन्धुस्नेहसे क्या? इस शरीरसे में शाश्वत सुखकी सिद्धि कमा?" यह कहकर, तस्वोंको जानकर, पुत्रको समस्त परती देकर सुयुक्त समाषिगुप्त मुनिके पादमूछमें तीव सप कर लक्ष्मीसे मुक्त चन्द्रमाके समान सौम्य राजा पनके साथ राजा सुकेतु तथा दूसरे राजा मुनि हो गये। निकषाय, निढुंभ, निर्मोह और निर्विषाद तया स्त्रीशून्य तपसे श्रोण वे मोक गये और वहां अशरीरभावसे स्थित हो गये।
पत्ता-इसी तीर्थमें जो शत्रुओंको मारनेवाले बलभद्र और नारायण हुए उनका कथन करता हूँ ॥१२॥
१२. १. A विण्णास ता साच । २.AP सुकेतस्स । ३.A पिच्छिमाणेण ! .A खं पणतो। ५.A
अस्ति। ६. P छम्मणिब्याणु। ७. A.कंकालगिवाण। ८. AP साइम्भि। ९. P सोभो ण । १०.A सुके अविपणेण । ११. A सुखें इसी पायबो; P सपकं इसी जायया । १२.A बीन गं ।
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महापुराण
[६७.१३.१
ससहरधवलहरे धरिद्धे. इह भरहे साकेयपसि। मंदरधीरो वीरो राया पुत्वा रामविरामा जाया । एए फिर दुम्ममइरिका पिसुणमंतिवयणेण विमुका । लग्गा तेज हु पिडणो चित्ते भाउँ वि णिहियर जुबराइचे। लक्लियतच्चे रविनयजीवे गुरुणो सिरिसिषगुत्तसमीवे । धम्मणाहतित्ये हयमारा से पावइया रायकुमारा। णो समियं णियचित् कुद्ध अणुजाएण णियाणं पर। अइ वयवेशिहलं पाषामो तो तं खलमति णिहणामो। एम भरंतो णिग्गर्यपाणो अणसणेण जाओ गिम्वाणो । पढमे कप्पे पिहलेविमाणे जेहो विहु तत्थेय विमाणे । पिसुणेमहंतो ता संसारे अणुइषिऊणं दुक्खपयारे । उत्तरसेडीमंदिरणामे
पयरे कामिणिकामियकासे । जाओ धरणीषा खरिदो बलिषलणासो णाम लिंदो। पत्ता-पंडा राइको असिणा दंडिया॥
वेण तिखंडिया मेंइणि मंडिया ॥१३॥
इस भारतवर्ष में धनसे समुख चन्द्रमाके समान धवल गृहवाले अयोध्या नगरमें मन्दराचलके समान धीर वीर नामका राजा था। उसके राम-विराम नामके पुत्र थे। वे दुर्भातसे प्रचुर थे। दुष्ट मन्त्रीके कहने में बाकर आजाद हो गये। वे दोनों पिताके चित्तको अच्छे नहीं लगे, इसलिए उसने छोटे भाईको युवराजपदपर स्थापित कर दिया। कामदेवको नष्ट करनेवाले वे राजकुमार, धर्मनाथके तीर्घकालमें जिन्होंने तरखोंको जान लिया है, जीवोंकी रक्षा की है ऐसे श्री शिवगुप्त मुनिके पास प्रवजित हो गये। छोटे भाई (विराम) ने अपने व चित्तको शान्त नहीं किया और निदान बांध लिया कि यदि मैं व्रतरूपो लताका फल प्राप्त करता हूँ तो मैं उस दुष्ट मन्त्रीको मारूंगा। इस प्रकार स्मरण करता हुआ वह अनशनसे मृत्युको प्राप्त हुआ और प्रथम स्वर्गके विशाल विमानमें देव हुमा। बड़ा भाई भी वहीं उत्पन्न हुआ। वह दुष्ट मन्त्री भी संसारमें तरहतरहके दुःखोंका अनुभव कर विजया पर्वतको उत्तर श्रेणी में जिसमें कामिनियोंके द्वारा काम पाहा जाता है, 'ऐसे मन्दरपुर नगरमें बलवानोंके बलका नाश करनेवाला बलोन्द्र नामका विद्याधर राजा हुवा।
पत्ता-प्रचण्ड राजाओंको उसने तलवारसे दण्डित किया। उसने तीन खण्ड धरतीको अलंकृत किया ॥१३॥
१२.१.P सायए पसिद्धे। २. A रामषिराम विजाया। ३. A माऊणिहियो। ४. A सविखपित।
५. A तो। ६. AP पाणो । ७. AP विवाणे । ८. P तत्पेस सभाणे; K recorde: तत्पेश समाणे इतिमा पूजामहो । ९. P पिसुगु । १० गरियो।
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-६७.१४. १९
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
४७
एथंतरए सिरिसुंदरय। खेचचिचित्ते भारहखेत्ते। कासीदेसे सजणवासे। बहुगुणरासी
वाणारासी। भणयहम्मा णयरी रम्मा। पडिभडमल्लो अग्गिसिहिरुलो। सत्तिसहाओ तस्सि राओ। सिसुईसगई अवराय है। " पच्चक्खा कयरयसोक्खा। अलिकेसघई थी फेसषई। षीया सरसा पियघरसरसा। विस्सुयणामो जो चिररामो। कयजिणसेवो ओयर देवो। यको गन्भे रवि व सियम्भ। लामो गीत रमियरईप केसवईए। अवरो लूओ वम्महरूओ। घत्ता-लीलागामिणो णाइ मरालया ।।
णवजोवणसिरि पत्ता बालया॥१४॥
इसी बीच श्रीसे सुन्दर तथा क्षेत्रोंसे विचित्र भारत क्षेत्रके सज्जनोंसे बसे हुए काशी देशमें बनेक गुणोंको खान वाराणसी नगरी है जो उन्नत प्रासादोंवाली और सुन्दर है। उसमें शत्रुयोद्धाओं के लिए मल्ल तथा जिसकी सहायक शक्ति है ऐसा अग्निशिख नामका राजा था। उसकी शिशहंसके समान गमनवाली अपराजिता नामकी पल्ली थी जो प्रत्यक्ष रतिसुख करनेवाली थी। दूसरी भ्रमरके समान बालोंवाली केशवती नामकी पत्नी थी। दूसरी अत्यन्त सरस और पतिघररूपी सरोवरको लक्ष्मी थी। जो पहला विश्रुतनाम राम था और जिसने जिनकी सेवा की है ऐसा वह देव मामा तथा गर्भमें उसी प्रकार स्थित हो गया जिस प्रकार श्वेतकमलमें सूर्य। वह प्रथम सती अपराजिता स्त्रीसे उत्पन्न हुआ। जिसने रतिकी तरह रमण किया है ऐसी केशवतीसे दूसरा (विराम) कामदेवके रूपमें उत्पन्न हुआ।
घत्ता-हंसोंके समान लोलापूर्वक चलनेवाले ये दोनों बालक यौवनश्रीको प्राप्त हुए ॥१४॥ १४. १. A गिरिसुंदरए । २. P क्षेसि विषिते । ३. A गुणवासी । ४. नग्गयहामा । ५. AP पाओ ।
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४८८
महापुराण
[६७. १५.१
सहि पहिलो दिमितओ बोयनो वि णामेण दत्तओ। खरपयाषभरतसियवासवा बेवि ते णिवा सीरिफेसबा । के वि सिद्धहरिरहविहंगया के विकासकजलणिहंगया। बिहि मि अस्थि महिपंसुपिंजरो खीरसायरो णाम कुंजरो। मग्गिओ सो रायराणा धीरैवइरिसंतापदाइणा। अट्टहास हिमरासिकपणओ तेहिं तस्स सोणेय दिपणओ। ध्यवयणविहिडिओ कली सह चमूह आर्येउ पियो पली । थारु अमरकतारवासिणा दोहिणिझसेढीखगीसिणा। बद्धणेहरसमुणियसाचणा मारलेण केसपइभाषणा। सहिय के वि बंधू वि णिम्गया सह बलेण समराइरं गया। जाययं रणं बलियसमुहा सीरिणा हया वहरितणुरुद्दा । चूरिया रहा वारिया हरी सूरिया धया मारिया करी। णचिया णहे अमरसुंदरी बद्धमछरो धारो अरी। अंतरे भडो संठिओ हरी तेण बोंछिओ खयरकेसरी।
पत्ता-दोहि मि जे कयं विजापहरणं ॥
को तं वण्णए बहुरूष रणं ॥१५||
सनमें पहला नन्दिमित्र था दूसरा भी नामसे दत्त था। अपने प्रस्वर प्रतापके मारसे इन्द्रको सन्त्रस्त करनेवाले वे दोनों राजा बलदेव और नारायण थे। उन दोनोंको क्रमशः सिद्ध रथ वाहिनी और गरुड़ विद्याएं सिद्ध थौं । दोनोंके शरीर कास और काजलके रंगके समान थे। दोनोंके पास घरलोकी घूससे घूसरित क्षीरसागर नामका हाथी था। उसे धीर वैरियोंको सन्ताप देनेवाले राजराजा (बलीत)ने मांगा। अट्टहास और हिमराशिके रंगका वह गज खन लोगोंने उसे नहीं दिया । दूतके शब्दोंसे कलह बढ़ गयो । सेनाके साथ वह बलि राजा वहां आया। अमरकान्तार नगरके निवासी दक्षिण श्रेणोके विद्याधर स्वामी बढस्नेहके स्वादको जाननेवाले मामा केशवतीके भाईके साथ वे दोनों भाई भी निकल पड़े । सेनाके साथ दोनों समरांगणमें गये। उनमें रण हुआ। बलि (बलोन्द्र राजा) के सम्मुख बलभद्रने शत्रुके पुत्रका काम तमाम कर दिया, रयको चूर-घर कर दिया। घोड़ेको फाड़ डाला । ध्वज फाड़ डाले । हायोको मार डाला। अमरसुन्दरो आकाशमें नाच उठी। तब मस्सर बांधता हुआ शत्रु दोड़ा। वह योद्धा और हरिके बीच स्थित हो गया। उसने विद्याधर राजाको भत्सना की।
पत्ता-दोनोंके द्वारा जो विद्याओं का अपहरण किया गया है, ऐसे उस बहुरूपी रणका कोन वर्णन कर सकता है ? ॥१५॥ १५. १. A हुवा । २. AP वि । ३. AP पोर । ४. AP बारमो । ५. A दाहिणल । ६. A दुछियो ।
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महाकवि पुपान्त विचित
१६ जं दिणयरबिंबु व विष्फुरिष पढिवखें चक्कु मुक्कु सुरिउ । सुइडत्तदीच णं संचरिउ
तं दत्तएण हत्थे धरिउ । हर बरि सेण मारिउ तुमुलि गत णिवडिड सत्तमधरणियलि। इह एव पर थिर गपि जहिं महि मुंजिवि कण्ड वि गर्यट तर्हि । तहि अवसरि सोलु परिग्गहिस हलिणा हिय उल्लर णिम्गदिदं । संभूय जिणेसैरु सेवियर तवतायें अप्पर तावियउ। सहियई बावीसपरीसहई महियई चउकम्मई दुम्महई । अणयार महाकेवलिपवरु जायउ कालेण अजर अमरु । ससहा तिहुवणसिहरु णि बीयउ परमेट्टि हवेवि ठिठ । सो बुधु सिधु णिद्ध्यरस धुवकेवलदसणणाणमत । मयरद्धय चावसमुह लिय णिसिम् संछिदउ आवलियं ।
पत्ता-भरहणमंसिउ मई देहाणियं ॥
सुफुसुमयंतच कुसुमसराणियं ॥१६॥ शव महापुराणे तिसट्रिमहापुरिसपार्ककार महाकापुप्फर्यसविरहए महामम्वमहामग्गिए
महासम्वे मालिणाइपरमपरिणदिमिरादत्तययमिपुराणं णाम
परासटिमो परिच्छेको समत्तो ॥१०॥
१६
जो दिनकरके बिम्बके समान चमक रहा है ऐसे उस चक्रको तुरन्त चलाया गया मानो सुभटस्वका द्वीप ही संचरित कर दिया गया हो । दत्तने उसे अपने हाथ में ले लिया। वेरी नष्ट हो गया। उसके द्वारा मारा गया वह भयंकर सातवें नरक में गया । इस प्रकार यह जहाँ जाकर स्थित रहा धरतीका भोग कर नारायण भी वहीं गया । उस अवसरपर बलभद्रने शील ग्रहण कर किया और अपने हृदयका निग्रह किया। उसने सम्भूत जिनेश्वरकी सेवा की और तपके तापसे स्वर्यको सन्तप्त किया । उसने बाईस परिवहोंको सहन किया । दुर्मद चार पातिया कोका नाश कर दिया। अनभार महाकेवली प्रवर समयके साथ अजर-अमर हो गये। अपने स्वभावसे वह त्रिभुवनके शिखरपर विराजगये और दूसरे परमेष्ठी (सिद्ध) होकर स्थित हो गये। पापको नष्ट करनेवाले वह बुद्ध सिय शाश्वतरूपसे केवळदर्शन ज्ञानमय हो गये । कामदेवके घनुषसे उल्लसित
पत्ता-कुसुमबाणमयी मेरे शरीरमें लगी हुई पैनी तोरपंक्तिको हे कुन्दकुसुमके समान कान्तिवाले भरतके द्वारा नमनीय मल्लिनाथ काट दो ।।१६।। वेसठ महापुरुषों के गुणाकारोंसे युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभय मरतारा मनुमत महाकाग्य में मल्सिनाथ,पस पवर्ती नदीमित्र
दत्तबकि पुराण मामका सबसौ परिच्छेद समास दुमा 400 १६... A परिसके । २. AP वेग वहरि । ३. A इह एम पि पित एह अहि। ४. A आम नहि; P
म तहिं । ५. AF भावें । ६. A दुम्मयई । ७. APउ । ८. A णिसि पासिंच सिदित श्रावरियं । २. A महुँ । १०. A मरिरुगाहगिम्यागयमणं णाम ससक्तिमो ।
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अँगरेजी टिप्पणियों का हिन्दी अनुवाद
सन्धियोंकी टिप्पणियों के सन्दर्भ रोमन अंकोंमें है, अब कि कड़वकों और पंक्तियों के अरबी अंकोंमें । वण्यविषयका संक्षिप्त सार प्रारम्भिक परिचय दिया गया है, जिससे पाठक मूलपाठको समझ सकें। ये टिप्पणियों उन संस्कृत टिप्पणियों की पूरफ है जो अष्टके नीचे पाठ टिप्पणके अपमें दिये गये हैं। टीप्रभाचन्द्र के टिप्पणके लिए है।
XXXVIII
1. 125 भवजसोहो-सूर्यसे उत्पन्न किरणोंकी शोभा धारण करनेवाले, 26 प्रकाशयामिप्रकाशित करता है या व्यक्त करता है। पयासयाभि- इसे समझना आसान है-परन्तु 'क' प्रति कभी-कभी ऐसे रूपोंको यरोक्ता देती है । तुलना कीजिए-बादकी पंक्तिसे (समासवि) साथ ही हावि और अमरवि । पापकी 10-11 पंक्ति या तीसरी पंक्तिमें परिच्छवि और ओहच्छवि, तीसरे कडवककी आठवीं पंक्ति ।
2. 15 महवयदियहई-कुछ दिनोंके लिए। 24 णिग्विष्णत निविण्ण-वदास । णिविणोउ अर्थात् निविनोद । 'क' प्रतिका यह पाठ पढ़ने में समान रूपसे ठीक है और इसका अर्थ हो सकता है काष्यरचनाके विनोदसे रहित । परंतु मैंने णिविष्णत पाठको उम्मेठ मि विस्वर जिरारिज पाठके दृष्टिकोण ठीक समशा हे, जो 4 के 94 में है, और टिप्पणके विचारसे भी। 9-10 खलसंकुलि कालि-इत्यादि, भरत जिसने सरस्वती ( विद्याकी देवी ) का उद्धार किया, जो रिस अत्यन्त, या खतरनाक रास्तेपर आ रही थी। ( शून्य सुशून्य पपमें ) अथवा परे समयमें, (खाली आसमानमें ) जो दुजनोंसे व्याप्त है ( जल संकुलि ) । और सोदे चरित्रवाले लोगोंसे भरा है ( कुसोलमा ) । पसे विनय करके । Modesty विनय ।
3. अयणदेवियवतणुजाएं-भरतके द्वारा जो अइवण ( एयण ) और देवि अवाका पुत्र था। 25 बुरिषयमितें-भरतके द्वारा, जो उन लोगोंका मित्र था, जो संकटमें थे। 30 मई उक्यारभावु णिमहणे-भरतके द्वारा, जिसने मुक्षपर उपकारोंको वर्षा की। [ फवि पुष्पदन्तपर ], भरतने पुष्पदन्तको किस प्रकार उपकृत किया, यह, महापुगणके I. 3-10 कड़वकोंमें देखा जा सकता है, और जिल्द एक को भूमिकामें देखा जा सकता है। pp-XXVIIII 10 तुह सिद्धदि इत्यादि । तुम नबरसोंका दोहन क्यों नहीं करते, अपनी वाणीरूपी कामधेनुसे । अथवा काव्यात्मक पाक्तिसे जो तुम्हें सिट है, या जिसपर तुम्हारा अधिकार है।
4. १ राउ राउ णं संशहि केरउ-राजा, सन्ध्याफे अश्ण रागकी तरह है, अर्थात् पोड़े समय ठहरनेवाला है, 8 एक्कु वि पर वि रएवउ भारठ-एक पदकी रचना करना भी बहुत बड़ा कार्य है। 10 जगु एस इत्मादि-संसार गुणों के साथ वक्र है जिस प्रकार कि पनुष पर गोरीपर सींचा जाता है।
5. 7b-38 कबिके अनुसार भरत सालवाहन (सातवाहन ) से बढ़कर है, इस बात कि भरत कवियोंका लगातार मित्र रहा है ( अणवरयरइयकइमेत्तिह) + ab-यहाँ कवि उस किस्सेका सम्दर्भ दे रहा है कि राजा श्रीहर्षने कालिदासको अपने कन्धोंपर उठा लिया था । ऐतिहासिक दृष्टिमे यह सम्दर्भ पूसरोंसे भी समानता रखता है, जिनका कि भोवप्रथम्पमें उल्लेख है। श्रीहर्षकी जो बाणभट्टका आश्रयदाता है राजगद्दी
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५१२
महापुराण
[xxxVIII - पर बैठने की तारीख 620 ईसयी है, शणकी ( 620) को तुलनामें, और वत्सभट्टिको प्रशस्ति ( 473 ई. सं.) से 1 8 ------पुष्पदन्त जो अपनेको काल्पपिसल्ल कहते हैं, कुछ लोगोंके द्वारा सम्मानिस हुए, और कुछ लोगों द्वारा सम्मानित हुए, यह कहते हुए कि वह युद्ध, है । 11 देवोसुय---देवोका पुत्र, अथवा देवियश्या of 3.1a ऊपर अर्थात् भरत।
6. Jad महाँ कविं अपने आश्रयदाता भरतको विश्वास दिलाता है कि उसकी काव्य-प्रतिभाकी अभिव्यक्ति जिनवरके घरणकमलोंकी भक्ति के कारण है, बाजोविकाके लिए धन कमानेको इच्छासे नहीं । (उणियजीवियक्तिहि ), 10 फरह कणि कहकोहलु-अजितनायके कपाके कर्णकुण्डलको तुम अपने कानोंमें धारण करो।
7. दूसरे तीर्थंकर अजितनाथकी कया इस कडवकसे शुरू होती है; में पहले ही उस कराऊ शैलीका सन्दर्भ दे चुका है जिसमें बड़े लोगोंकी जीवनियों का जैन साहित्यमें वर्णन किया जाता है (म. पु. जिल्द I पृ. 599 )। सबसे पहले हम तीर्थकरें या महापुरुषों के बारेमें सूचनाएं पाते हैं जिनमें वे कुछ विशेष योग्यताएँ हैं, जिनके कारण अगले भवमें तीर्थंकरों का जन्म होता है। अजितनाथके मामले में विमलवाहन एक राजा था जो वत्स देशका शासक था जो कि पूर्व विदेहमें सीता नदीके दक्षिण किनारेपर स्थित था। वहाँ एक दिन उसे सांसारिक जीवनसे विरक्ति हो जाती है, वह तप करता है, सोलह कारण मावनाओंका ध्यान करता हैं, (जैसे तीर्थकर नाम गोत्र इत्यादि) उपक्षसपर उसको मृत्यु होती , और वह अब अनुसार विमानमें उत्पन्न होता है। वहां उसकी तेतीस सागर प्रमाण आयु थो । जब उसके लम्बे जीवनके छह माह बाकी बचते है, तो सौधर्म इन्द्र धान लेता है कि यह अहमेन्द्र अयोध्यामें जन्म लेनेवाले है, भारतवर्ष में राजा जितशत्रु मौर रानो विजयाके पुत्र के रूप में। वह कुबेरको अमोध्यापर स्वर्णकी वर्षा करनेका आदेश देता है। श्री,
ह्री, धृति, मति, कान्ति और की ति ये छह देवियां विजयाकी देखभाल करने के लिए पाती है। रानी विजया सोलह सपने देखती है। नींद खुलनेपर वह राजासे उनका वर्णन करती है, जो उसे बताते है कि वह जिनको जन्म देगी। जब विमलयाहन अपने जीवन के समयको समाप्त करता है तो वह विजयाके गर्भ में हाथोके रूपमें चम्म लेते है । उस अवसरपर देव आते है और राजाको बधाई देते हैं । तीन ज्ञानों के साथ जिनवर जन्म लेते है, अर्थात् उन्हें मति, श्रुति और अवधिज्ञान प्राप्त थे । माष शुक्ला दशवींके दिन इन्द्र के नेतृत्वमें देवता वहाँ पहुंचते हैं और जिनवरको तीन या प्रदक्षिणा करते हैं, माता-पिताको प्रणाम करते है। माताको मायावी रामक देते हुए वे जिनबालकको मन्परावलपर ले जाते है, जहाँ उनका अभिषेक करते हैं। उनका अमित नामकरण करते है, और उनकी स्तुति करते हैं। उसे अयोध्या वापस लाकर माताको सौंप देते है। अब अजितनाथ युवा हुए, तो उनका एक हजार राजकुमारियों से विवाह हुआ। उनका युवराजके रूपमें अभिषेक हुआ। सन्होंने 19 लाख पूर्व धरतोका उपभोग किया। एक रात युवराज अजितने उल्कापान देखा और उससे यह सोचते हुए कि भाग्य उसी प्रकार क्षणभंगुर है, जिस प्रकार यह उल्का । एक बार फिर देवता मायें और निश्चयके लिए भगवान्को प्रशंसा की। उन्होंने अपने पुत्र अजितसेनको गद्दीपर बैठाया। देवोंने उनका अभिषेक किया बोर माघ शुक्ल नवमी को दोपहर बाद उन्होंने केशलोंच कर दीक्षा ग्रहण की। मुनि अजितके वालोंको देवेन्द्रने इकट्ठा किया स्वर्णपात्र में, और उन्हें क्षीरसमुद्र में फेंक दिया। उनके साथ एक हबार राजकुमारोंमे दीक्षा ग्रहण की। घोड़े ही समय में उन्हें चौथा मनःपर्यमज्ञान उत्पन्न हो गया । उन्होंने हाई दिनका उपवास ग्रहण किया और दूसरे दिन अयोध्यामें राजा ब्रह्माके घर उपवास तोड़ा। उसे पांच बारपर्य प्राप्त हुए । अजितने बारह वर्ष तक तप किया, और पौष शुक्ला ग्यारहनों के दिन ससद वृक्षके नीचे उन्होंने केवलज्ञान प्रान किया । इस अवसरपर इन्द्र और दूसरे देव आये । उन्होंने स्तुति की और समयसरणकी रचना की। उसमें अजितनाप सर्वभद्र सिंहासनपर बैठे । उनके साथ पाठ प्राविहार्य थे । उन्होंने धर्म प्रवचन किया । उनके अनुयायी बारह गणोंमें विभक्त थे-गणधर, पूर्वधारिन, शिक्षक, अवधिज्ञानो, केवली,
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-XXXVIII ] अंगरेजी टिप्पणियोंका हिन्दी अनुवाद विक्रियाधारीऋद्धिमत, मनःपर्ययज्ञानी, अनुत्तरवावी, गायिका, श्रावक, श्राविका और देव, देवी तिर्यपत्यादि। इस संपके साथ भगवान् अजितनाथने 53 लाख पूर्व तक धरतीपर भ्रमण किया (बारह वर्ष कम ), तब यह सम्मेवशिवरपर गये और 72 लाख पूर्वका जीवन पूरा कर उन्होंने मो महीनों तक प्रतिमाओंका अभ्यास किया और चैत्र शुक्ला पंचमीको उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। इस अवसरपर देवोंने भगवानकी पूजा की। अग्निकुमारने घनके शरीरका दाह-संस्कार किया । देवेन्द्र ने आदरपूर्वक भस्मको इकट्ठा किया और उसे समुद्र में फेंक दिया ।
मैंने यहां अजितके जीवनका समूचा जीवन विस्तार दे दिया है। यही चीजें प्रायः प्रत्येक तीर्थकरके जीवनमें दुहरायी पामेंगी । केवल समय, नामों, तिथियों में कुछ परिवर्तन के साथ। इस विस्में वणित सभी तीर्थंकरोंके जीवनफे वर्णममें इन बातों को नहीं दुहराया जायेगा। इन बिस्तारोंको इम चित्र रूपमें दे रहे हैं जिससे पाठक उन्हें समझ सकें ।
7. 24- सोयहि दाहिणकलि-के' प्रतिमें उत्तर पाठ है, परन्तु हमने उसे सुधार किया है। और उत्तर कर दिया है। गुणभद्रके उत्तरपुराणके प्रमाणपर, जिममें पाठ इस प्रकारका है-सीतासरिवपाभागे वत्सास्यो विषयों महान् । यहाँ अपाग्भागका अर्थ है दक्षिण ! 8 हलिा:-किसानों के द्वारा।
8. Jab जसु सोहगर्गे-प्रेमके देवता ( कामदेव ) राजा विमलबाहनके सौन्दर्य के कारण पृष्ठभूमिमें चला गया इसलिए उसने शरीरको छोड़ दिया और वह अनंग हो गया।
9. 2 पंचमहन्दयमायउ-पांच महायतोंको माता। अर्थात् पञीम भावनाएं', एक-एक व्रत को पांच भावनाएं | Ba दसवसुशिविण- कामभावनाएं दर- हो म होती है ! विस्मारके लिए तत्त्वार्थ सूत्र देखिए VI. 24 । इन भावनाओं से व्यक्तिको तीर्थकर गोत्रका इन्ध होता है ।।
10. 9a सो अहमराहिउ---वह अहमिन्द्र जो पूर्वजन्ममें विमलवाहन था। I! फणयमणि. लयण-( अयोध्या ) जिसके स्वर्णप्रासाद है।
11. 15 माणवमाणिणिवे सें-परतीको स्त्रियों का वेश धारण किये हुए ! 4 गम्भि ण यंतहजिनके गर्भमैं स्थित होने के पूर्व इन्दने स्वर्णकी वर्षा की। जिनेन्द्र अजितके विजयाके गर्भ में आनेके पूर्व ।
12. सोलह स्वप्नों के लिए म. पु. प्रथम जिल्य, पृ. 600-601 देखिए ।
13. 4a-b कुंजरवेसें-अहमिन्द्र अपने जीवनको अवधि समाप्त कर (विजप विमान में ) रानी विजयाके मुख में, एक हाथी के रूप में इस प्रकार प्रविष्ट हुए जिस प्रकार सूर्य बादलों में प्रवेश करता है। 9-10 ये पंक्तियाँ ऋषभ के निर्वाण, अजितनाथके विजयाके गर्भ में अवतरणके बीचकी अवधिका वर्णन करती है जो पचास करोड़ सागर प्रमाण है ।
___14. 4-5 दसणकमलसरणच्चियसुरवरि--इन्द्र अपने ऐरावत हाथोपर आरूढ़ हुआ। जिसकी कमलसरोवर के समान सूंडपर देवता नृत्य कर रहे थे । 85 सरसर सिर-भकिसे परिपूर्ण बातें करते हुए।
__15. 6 मन्तु पणवसाहा संजोइदि-'ओं स्वाहा' मन्त्रका प्रयोग करते हुए ।
___18. 94. वसुवइवसुमहकताक़ते-अजितके द्वारा, जिनकी दो पत्नियां थीं। अर्थात घरतो और लक्ष्मी ।
19. !6 ईसमणीस समासमलोधी-स्वामी अजितका मस्तिष्क पूर्णतः मानसिक शान्तिमें निमग्न था। ( सम, उपधम, बैराग्य )। 46 आउ वरिसवरिसेग मि सिजइ-मनुष्यको माधु वर्ष प्रतिवर्ष कम होती जाती है।
___20. 4-5 गइदुधरित्तकम्मसंताणइ-अपनी जातिको जारी रखने के लिए, जिसका अर्थ है कर्माकी परम्परा, जैसे- गति ( देवमनुष्यादिगति ) खोटे कार्य ( दुश्चरित्र ) । जातिको जारी रखने के कर्ममें
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११४
महापुराण
जन्म और मृत्युकी श्रृंखला संन्न रहती है। और भी दूसरे कर्म होते हैं जो बुरे कार्य है।
21 bab कुसुमबरि-पांच वाक्चयोंकी वर्षा कुसुमवर्षा है । स्वर्ग के फूलोंका बरसना, सुरपटनिनाद, स्वर्णक नगाड़ोंका शब्द, बहारा स्वर्गसे स्वर्ण की वर्षा, वेलुक्यण्डे ऊंचे करता, अहो दाणंदानकी शालीनता में किये गये प्रशंसा के स्वर्गीय शब्द: तुलना कीजिए वियागसुपसे, पृष्ठ 78 ।
23. समवसरणका वर्णन |
24. पाठ प्राविहाय का वर्णन - अशोकवृक्ष, पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि चामर, सिंहासन, भामण्डल, देवदुन्दुभि और छत्र 10-12 और बादका कड़वक अपने गणका वर्णन करता है इसके लिए चित्रफलक देखिए ।
[ XXXIX
da
26, 10 सिंहरिहि - सुमेरु पखपर। 58 - दण्डकवाडुरुज गजगपूरणु-उप प्रक्रियाका वर्णन करता है जिससे जिनेन्द्रकी आत्मा सिद्धशिलापर आरोहण करती है ।
XXXIX
यह सन्धि सगरकी कहानी बताती है, जो जैनोंके दूसरे चक्रवतीं है ।
1.2 महातिजा, जिसने गणधर गौतम इन्द्रभूतिसे त्रेसठ शलाका पुरुषोंके जीवन के बारेमें कहनेके लिए कहा था। 4 दाहिणयलि के लिए 'ए' और 'के' प्रतियोंमें सामान्यतः उत्तरयति 'पाठ' है, परन्तु 'के' प्रति इसकी जगह शुद्ध पाठ दाहिणयलि मानती है। गुणभद्रके उत्तरपुराण में श्रीपत्र प्राग्विवेहस्य सीताप्राम्भागभूषणे ।
विषये वत्सकावत्यां पृथिवोनगराधिपः ।। 43-58
12 घरकूलाल – राजधानी पृथ्वीपुर जो अपने प्रासादोंके शिखरोंसे आकाश को छूती थी ।
2. 98. सिमोहणीउ मुहि विदुदारों प्रति प्रेमको रोकना मुनियोंके लिए भी कठिन है। 10 जिणवरवणु रसायणु-राजाके मन्त्रियोंने उस दुःखको सहने के लिए जिनवरका वचनामृत दिया । 4. 3 इयरु वि - अर्थात् महायत मन्त्री । 58 कि दोहि मि पडिश्रहणणिबंधु देव महाबल, (पूर्वजन्मका राजा जयसेन ) और देव मणिकेतु ( पूर्वजन्मका महारुत मन्त्री ), दोनोंने यह समझौता किया कि जो पहले मनुष्य होगा, उसे दूसरा इस तथ्यका स्मरण करायेगा जो स्वर्ग में देर तक देव रहता है।
5. 9-10 सार्वभौम राजाके ये जीवह रत्न हैं ।
5
36 जिलनो सम्पत्ति भरतकी थी, उतनी ही सगरकी भी हुई, चक्रवतोंके रूपमें । 7. 1a मयमउलविणवण - हाथी मदके कारण बखें बन्द किये हुए या । अर्थात् मणिकेतु ।
8. 96 सरणिहि कोविक हसिमि ताव — जवान औरतें उसपर हंसों और उसे पापा कहकर
पुकारा ।
=
10,
24 देवसाहू - मणिकेतुने देव होने के कारण साधुका रूप धारण कर लिया ।
12. गंगा अवतरणका वर्णन ।
10 रयणकेज
14.
2a विह्नि ऊणी तट्टी- -साठ हजार पुत्रों में से दो को छोड़कर, ( भीम और भागीरथ ), जो अपनेको मौससे बचा सके । 96 गत आवह णउ सरिसरत रंगु नदी के जलकी तरंगें, जब एक बार जाती हैं तब दुबारा नहीं लाठीं ।
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-XLI ]
16
17.
XL
1. सासय संभव - शाश्वत आशीर्वाद, ( शाश्वत + शंभव) ( संसार ) का अन्त कर देता है । पुसियबंभरिहरणयं - वह जिसने ब्रह्मा, खण्डन कर दिया है। 206 असिवाउस इस अभिव्यक्तिवर टिप्पणके 653 पर देखिए। 23 अमितं पियहि कण्णंजलिहि— अमृतका पान करिए मेरे काव्यका पान करिए। तुलना कीजिए कर्णाञ्जलिपुटपेयं विरचितवान् भारताख्यमभूतं यः रागमकृष्णं कृष्ण पायनं बन्दे ।
कुबेर ।
अंगरेजी टिप्पणियोंका हिन्दी अनुवाद
110 दम्म पाति — दृढ़ धर्मके पैरोंके नीचे ।
6b गउ जेण महाजणु सो जि पन्यु - तुलना करिए महाजनो मेन गतः स पम्मा. 1
8. 12 कि जाहिं सोसि वषहि- [- क्या तुम सोचते जिनके अभिषेक के लिए पानी ले जा रहे हैं।
9 13 पदं मुवि - तुम्हें छोड़कर ।
4. 10b सत्या स्वस्थ । अत्यन्त शान्त और प्रसन्न ।
5.
14a जितसत्तुसुए जितशत्रुके पुत्रने, अजित, दूसरे तीर्थंकर 18b भारिणा — इन् ।
6.
4a सई सई घारियल - इन्द्राणीने स्वयं धारण किया ।
14.
15.
भूमिका ।
५११
11. 7 कत्तियसियपत्रि – कार्तिक कृष्ण पक्ष में गुणभद्रके 49 से तुलना कीजिए। 41 जन्म कार्तिक कृष्ण चतुर्थ्यामपराग 1] गाणें यपमार्णे - उनका ज्ञान जो ज्ञेयके साथ विस्तृत है— अर्थात्
केवलज्ञान ।
संभवणासणु — वह जो जम्म विष्णु और शिवके सिद्धान्तों का लिए म. पु. की जिल्व एक, पृष्ठ अर्थात् अपने कानोंकी अंजलिसे
रामहम
13.
5 विषममिरुद्ध रिव- यक्षेन्द्र के मुकुटके अप्रभाग से माता हुआ । यक्षेन्द्र यानी
कि समुद्र सुख गया, क्योंकि देवता सम्भव
XLI
100 दहगुणिय तिष्णि सड्स - तीस हजार, यद्यपि गुणभद्र बीस हजारका उल्लेख करते हैं। 1a भवियति मिय— मध्य जीवोंके अन्धकारको । 14 सिंगारंगह = श्रृंगार के मंगका । श्रृंगार
1. णिदिदियई निवारउ -- जिन्होंने निन्द्य इन्द्रियोंका निवारण कर दिया है, अर्थात् वीर्थंकर, यहाँपर अभिनन्दन 18 जीहास इसेण विणु - हजार जीभवाले के बिना । फणीश्वरकी एक हजार जीम हैं, इस लिए वह तीर्थंकरकी सभी विशेषताओं का वर्णन करने में समर्थ है, परन्तु कवि पुष्पदन्तकी एक ही जीम है इसलिए वह तीर्थंकरोंके गुणोंके साथ न्याय नहीं कर सकता ।
3. 16 मणिय वियर-धीरे चलते हैं इसलिए प्राणियोंको चोट नहीं पहुँचती। 56 तिष्णि तिउत्तरस्य — अभिव्यक्ति में म्यूनपद है, परन्तु वह स्पष्टतः वंशपरम्परा 363 सिद्धान्तको सन्दर्भित करता है। जैसा कि अपभ्रंश पाठोंकी सरलता सूचित करती है।
5. 76 थ्व सवारिउ उसने इसे पूरा सम्पादित किया ।
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५१६
महापुराण
[ XLII6. 12 आसणयणहरणि-आसनके कम्पन के द्वारा इन्द्र जानता है; आसनके कम्पायमान होनेके कारण इन्द्र जानता है कि जिनका जन्म हुआ है।
8. इस कड़वकमें उन दस लोकपालोंकी सूची है। जिनवरके जन्माभिषेकके समय जिनका आह्वान किया जाता है । ये देव या लोकपाल है-इन्द्र, अग्नि, यम, नैर्ऋत, वरुण, बाम, कुबेर, रुद्र, चन्द्र और फणीश्वर । यहाँ वाहनों, प्रहरणों, पलियों, और चिह्नोंके साथ उनका विशेष वर्णन किया गया है । जैसा कि २३वीं पंक्ति बताती है।
12-13 भयलज्जामाणमयवज्जियां जिणवर्ड पेम्मसमाण—जिनपरके प्रति व्रतप्रेमके अथवा चरित्र के प्रेमके वतके समान उत्तना हो जितना यह भय, लज्जा, मान और मरका परित्याग करता है, उसी प्रकार जिस प्रकार प्रेम में पड़कर आम्मी-भय आदिको अनुभूतिको उपेक्षा करता है।
17. जीवपविखबंदिग्गपंजरु-( मृत दारीर ) पक्षी ( आत्मा ) को पकड़नेका पिंजरा है।
XLII
1. 18 समासई वइयर-व्यतिकर । कहानी या कथानकको संक्षेपमें कहता हूँ।
2. 4 पोमरयासिन्जिरियकुंजरघडे ( देशमें )-हाथियोंके झुण्ड कमलपुष्पोंके परागसे रंजित है । 5a दुक्खणिग्गमण इत्यादि-पुरुकलावतःका क्षेत्र इतना आकर्षक था कि वह वनश्रीसे समानता रखता था जो प्रेमको देवी है । रहरमण-तिका स्वामी ----कामदेव, कठिनाईसे अलग होगा। 106 रमन वइसमणो आवणे धावणे--धनका देवता-कुबेर प्रत्येक दुकान में प्रसन्न होता है, क्योंकि उसमें धनको प्रचुरता है । 15 उदसमवागिएण-मनको शान्ति के जलसे । 16 भोयतणेण-भोगरूपी तृण । ___३. 176 हरिसुद्ध देहेण-अपने रोमांचित शरीरसे | आनन्दके कारण ।
4. 15a हुए हरिभणणे--जब कि हरिके आदेशसे, इन्द्रको आज्ञाओंको माना गया, जब कि नगर आदिको सजाया गया इन्द्र के भादेशसे । 17 अणवष्णि अरुहे-अहत्के जन्म के होने के पूर्व ही।
5. 21 शुल्लंतवडायहि-झण्डोंसे मूलते हुए ।
7. 66 णिविषकामावहो—जिनेन्द्रका, ओ लगातार मा बिना किसी बाधाके, प्रेम अथवा वासनाके देवताका बात कर देते हैं। 100 टकरार दुर्गण-जड़ और धूतक लिए जिसका आचरण दुस्साध्य है। कसरका शान्दिक अर्थ है दुष्ट बैल । गिरिककरि पडइ-दुष्ट ऊंट अपने आपको फेंक देता है या घूमता है, जंगलके रेतीले क्षेत्रमें । मीठी घासके लिए, वहां जिसे वे नहीं पा साते ।
५. 5 एणे पच्छिमस्थे- अब कि सूर्य पश्चिम दिशामें पहुँच गया, अस्त होने को था ।
12. 156 घडिमाला यह-पूर्वसमय उन घटिकाओंसे मापा जाता है, जो समाप्त हो माता है। यदियहपाहीहि से तुलना कीजिए 5. 14a में ।
XLIII
1.5a णियायममगणिोऽयसीसु-पिसने शिष्योंको आगमके पवित्र मार्गपर निर्देशित किया है। 76 गलकंदलु-बल्बफे समान गलेवाला।
2. a णी-घोंसला या घर । 10a माविणि--(भामिनी ) औरत । 13 होउ पहन्या-पूर्ण हो । सामान्यतः अर्थ है समर्थ होना। परन्तु गवदकोश. पूर्ण अर्थ करता है। 14. जं पुरत इत्याधि-यदि
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-XLVI ]
अंगरेजी टिप्पणियों का हिन्दी अनुवाद
५१७
नगर या राजधानी छोड़ दी जाती है तो व्यक्ति शीघ्र तपस्या ग्रहण कर सकता है। यदि राजा अपना राज्य छोड़ता है, तो वह संसार से मुक्ति पा सकता है
4. 1-5 मिहोगुणठाणवएहिं विमी - अहमिन्द्र जोवनकी आयु बोस सागर प्रमाण थी, उसमें 99 ( प्रतिमाओं की संख्या ) मिलानेसे कुल इकतोस सागरयो !
10b हुमाजवु— नीच व्यक्ति ।
8.
10. 46 पंक्ति इस प्रकार पड़ी जानी चाहिए- सबंधु पेरि णिच्वसमाणु — जो अपने परिवारजनों और शत्रुओंसे समान भाव रखते थे ।
XLIV
3. 8a परमारसरिणाय - ऋषभ के वंश में उत्पन्न । प्रथम तीर्थकर जो परमर्षि है । 11 परिमाणु- यहाँ परमाणुका रूप है- अणु । संसार में जितने परमाणु प्राप्त हैं उनसे सुपार्श्वका शरीर बनाया गया ।
6.
7. 5 उडुपर लट्टड नक्षत्रों का पतन या उल्काओं का पतन | जो संसारकी क्षणभंगुरताकी सूचक थीं।
9. 56 जलहिमाणि क आणि ड – क्या हम मिट्टी के घड़ते समुद्रका पानी माप सकते हैं।
1.
शब्दों के द्वारा ।
2.
XLV
176 वयणणुवुप्पलमाल - नये कमलोको मालाके द्वारा अर्थात् काव्यात्मक रूपसे रविव
16b कलहोद्दमश्याउ —— स्वर्ण ( कलबीत ) से निर्मित ।
3.
=
124- तूररवें दिन इम्म नगाड़ों के शब्दों दिशाएँ निनादित थीं। कणि विपणि सुम्मई- यदि ध्वनि कानों में भी पहुँचती थी तो सुनाई नहीं देती थी, या समझी जाती थी - विजय के सघन नावके कारण ।
6. 96 सरसेणा - कामदेवको सेना |
13.
13-14 इन पंक्तियोंका अर्थ पद्मप्रभ है, जो वैजयन्त स्वर्गमें उत्पन्न हुए। और उनका शरीर गौरवर्ण था, तथा अत्यन्त चमकीली कान्ति थी। पद्मप्रभी इस कान्तिको देखकर पुष्पदन्त (चन्द्र और सूर्य ) की पत्नियोंने अनुभव किया कि उनको कान्ति कुछ भी नहीं है पद्मप्रभुके शरीरकी कान्तिकी तुलनायें ।
XLVI
5, 96 सासेहिं व चासपइष्णए हि--धान्यके समान जो हलके द्वारा को गयो रेखा ( चास ) में बोये गये हैं । चास देशी शब्द है जिसका अर्थ है हलके फलकसे खींची गयी रेखा, हलविदारित भूमिरेखा । और वासके रूपमें अब भी मराठी में सुरक्षित है ।
6. 12 जितहि कति पण होत - जिस दूधका जिनवरके अभिषेकके लिए उपयोग किया जाता था, वह जिनवर के शरीरकी कान्तिसे साफ दिखाई नहीं देता था, क्योंकि दूधकी कान्ति जिनवर के शरीरकी कान्ति मिल्ठो -जुलती थी। मोलिव अलंकारका उदाहरण ।
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५१८
महापुरान
[ XLVII
11. 50 बलदेव अग्गर देहि तिष्णि तीनके आगे 9का अंक दीजिए, जो बलदेवोंकी संख्या है । पूरा अंक 93 होगा, जो चन्द्रप्रभुके गणधरोंकी संख्या है। 10-11 इन पंक्तियोंमें आठ प्रातिहार्यो का वर्णन है । जैसे पिंडोम — अर्थात् अशोक वृक्ष । इन प्रातिहायों की स्थिति सूचीके मध्य में चन्द्रप्रभुके अनुपायियों में स्वाभाविक है 1
XLVII
4. 90 वच्छु जहि रोस – वह उन स्थानोंको छोड़ देते हैं जहाँ कोषका वृक्ष है। 'पी' में 'वासु' मित्र रूप स्पष्ट रूपये वच्छका सरल रूप है ।
6. 9a-5 का अपनो माँ और उसकी प्रतिच्छायाको देखता हुआ भ्रान्तिमें पड़ जाता है और समझता है कि उसकी दो माताएं हैं और इसलिए वह यह निर्णय करने में असमर्थ था कि उसकी वास्तविक माँ कौन थी ।
XLVIII
1. 19 गुणभद्दगुणीहि जो संधु
अर्थात् दसवें तीर्थंकर, जो गुणभद्रले गौरवान्वित है । हम जानते हैं कि गुणभद्र जिनसेनके शिष्य हैं, जो संस्कृत आदिपुराणके रचयिता है। उनकी मृत्युके बाद उनके कार्यको गुणभने जारी रखा, जो उत्तरपुराण कहलाता है। गुणभद्गुणीहि -- इस अभिव्यक्तिका यह अर्थ भो किया जा सकता है, विशिष्ट गुणोंको धारण करनेवाले पवित्रजमोंके द्वारा ।
4. 14 सं पट्टणु कंषण घडिवं - वह नगर स्वर्णसे निर्मित था । यहाँ कंचनका प्रयोग कांचनके लिए हुआ है-- अर्थात् कांचनमय । 'ए-पी' में कंचणपडिउ पाठ है, क्योंकि प्रतिलिपिकार कंचणका अर्थ नहीं
समझ सका ।
9. lab सं सई पंक्तिका मर्थ है, यद्यपि शीतलनाथके अभिषेकमें प्रयुक्त जल नीचे की ओर बह रहा था, परन्तु वह पवित्र लोगों को ऊपर की दिशा में ले जा रहा था अर्थात् स्वर्ग |
10. 56 वाणाणणु गध्वेण जाइ - गर्वसे आदमी अपना सिर तानकर या ऊंचा उठाकर चलता है | घमण्डी आदमी अपना सिर अकड़ाकर और ऊंचा करके चलता है ।
13. 16 संभर विरुद्ध जिनवरितु देवोंने उसके दिमाग में जिनवरके जीवनको परस्परविरोधी बातें ला दीं। बाकी पंक्ति में उक्त परस्परविरोधी बातोंका सन्दर्भ है। उदाहरण के लिए जिन गोपाल कहे जाते है ( ग्वाल- पृथ्वीका पालन करनेवाले ) लेकिन अपने ही शत्रुओंके लिए वे अत्यन्त भयंकर हैं ।
18. 50-6 जो गायका दान करता है, वह विष्णुलोक जाता है, स्वर्णविमान में । और स्वर्गीय आनन्द मनाता है। 11 सुतर पिपलसणिण पीपलका वृक्ष छूने से शुद्ध होता है ।
20 14. सई विरवि कम्बू, मुण्डसालायण - मुण्डसालायणने स्वयं गौ आदिकें दान के महत्त्वको बतानेके लिए छन्दांकी रचना की ओर उन्हें वह राजाके सामने लाया । राजाने अनुभव किया कि वे उतने ही प्रामाणिक है जितने कि वे !
IL
1. 1: किति वियंभव महं जगगेहि मेरी कीर्ति समूचे विश्वरूपी घरमें फैल जाये । कवि अपनी काव्यशक्तिके प्रति सचेतन है, जैसा कि वह कहता है कि वह उसे विश्ववयात यश दिलवायेगी।
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-11]
अंगरेजी टिप्पणियों का हिन्दी अनुवार 3.35 गुण देव भवदेवई ईस-अनन्त जिनवर गणधरों और जम्मसे देव होनेवाले इन्द्रादिकके ईश्वर है।
5. 9 ता णजद इत्यादि-शहरमें स्वर्णवर्षा होने के कारण लोगोंको रात और दिन के बीच भेद करना कठिन था 1 इसलिए लोग उस समयको दिन का समय मानते थे जब सरोवरमें कमल खिलते थे।
यह और इसके बादकी दो सन्धियां प्रथम वासुदेव त्रिपृष्ट, प्रथम बलदेव (विजय) और प्रथम वासुदेव अश्वग्रोवकी कहानीका वर्णन करती है, जो जन पौराणिक परम्परा के अनुसार है। पाठक त्रिपृष्ठ और विजयको मित्रता और त्रिपृष्ठ तथा अश्वग्रोव को शत्रुताको पृष्ठभूमि समझ सकें, इसके लिए कवि तीनोंके दो पूर्वभवोंके जीवन का वर्णन करता है।
1. 5a गोउलपयधाराघायपहिह-जहाँपर यात्री गायोंके दूधको जी-मर पी सकते हैं। 11a जाणी-जनी, जो यहाँ व्यक्तिवाचक संज्ञा है। 15 खलपित्तसणेहदुष्ट आदमी माष मित्रता थोड़े समयके लिए रहती है।
2. 5 णिग्गेसह ण वाय-शब्द बाहर नहीं निकलेंगे। महा किम शब्द तथा 76 में मराठी निघणेके समतुल्य है जिसकी व्युत्पत्ति निगममे की जा सकती है।
3. 56 तरSwims-मूल 'तर' तैरना मराठ में सुरक्षित है, इसो अर्थमें प्राकृतमें एक और मूल शब्द तर है जिप्रका अर्थ समर्ध या योग्य होता है।
___4. 16 वणुस्साहिलासं होना चाहिए वत्साहिलासं, उद्यान रखने की अभिलाषा । वणुस्स सभी पाण्डुलिपियों में मिलता है इसलिए इसे रहने दिया है अथवा क्या हम वण + उत्सुक + अभिलासं ले सकते है, जिसका अर्थ होगा वन रखनेकी तीय इच्छा। 12b तायाउ राहणिज्जो-प्रादमें आदर करने योग्य । ( पिताको मृत्यु के बाद ), तुम भी मेरे पिताकी तरह समान आदर पाने योग्य हो ।
5. 13 दुगु भणेवि--यह कहते हुए या सोचते हुए कि वृक्ष दुर्गके समान है ( दुग्ग)। वारि-शत्रु ।
8. 6 छाउ (छादितः )-पराजित च्यिा।
9. 10 तुम हसियह करमि समाण--में बराबर कर दूंगा। मैं उस हसीका बदला दूंगा जो मेरा मजाक उड़ाती है और अपमान करती है ।
10. 8 अवरु-विशाखनन्दी ।
LI
1. 64 जायासीषणुतणु-वे दोनों (विजय और त्रिपुष्ठ) 80 धनुष बराबर ऊंचे हो गये । ५० बिहि गलहिणं पुणिमवासर--पूर्णिमाके दिनके समान जिसके एक ओर भाषा उजला पक्ष है और दूसरी ओर अंधेरा पक्ष है । मो विजय इलदेवके समान है, जो गोरे है, और त्रिपृष्ठ वासुदेव को श्याम वर्णके है।।
2, 11a.b हलहरु दामोयह-यहाँ कृपया याद रखिए कि बलदेव और वासुदेवका उल्लेख उनके विभिन्न पर्यायवाची नामोंसे होगा। जैसे सीरि, हलो, लंगलाहर, सीराउह, मलदेवके नाम है। दामोदर, मार, श्रीवत्स, अनन्त, सिरिरमणीस, लच्छीवा ( लक्ष्मीपति ), दानवारि, दानववैरिन्, विट्टरसव, विस्ससेण वासुदेवका; इसी प्रकार अश्वग्रीवा सल्लेख हयग्गोव, हयफण्ठ, तुरंगगलके रूपमें होगा।
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५२० महापुराण
[ LII5.46 पृयवयणहि-ऋ पृय में है जो प्रियके रूप आनी चाहिए, सम्भवतः यह हेमचन्द्र के नियम अभूतोऽपि क्वचित, ( 399 ) का बढ़ाव है ।
6. 13 जसु अमु-यस्य यश:--जिसका यश ।
7.86मिगवइयहि जाएं–मगावती के पुषके द्वारा । यानी त्रिपष्ठ के द्वारा । 9a संघालेबी-कर्मचाम्पका सम्भाव्य कृदन्त रूप है, तुलमा कीजिए-पालेवी जणेवी, परिणेदी इत्यादिसे । हेमचन्द्र 4.38 नियम इसके लिए एषा रूप देते हैं जो तव्थका स्थानापन्न है । वे एवी का उल्लेख नहीं करते ।।
9. 13-14 णियजणणविष्णु --पंक्तियों का अर्थ है कि अर्क कीति अपने पिताको भौहोंके संकेतोंको समझते हुए राजा प्रजापतिके पास गया और इस प्रकार उसे प्रणाम किया।
10. la हरियहि---त्रिपृष्ठ और बल के द्वारा; समुन्ड ( श्वसुर ), विपृष्ठका होने वाला ससुर ।
12. 2-5 पु ... नहीं किए परन्त ( निष्ठ) से कहा-हम देखें और पत्थरफे गोल खम्भे उठायें और मुझे बताये कि क्या तुम अश्वग्रीषकी हत्या कर सकते हो।
15. 14 अह सो सामण भणहूं ण जाह-उसे सामान्य व्यक्ति नहीं कहा जा सकता ।
LII 1, 2 चिरभववइरवसु-पूर्वजन्मके वरके प्रभावसे कि जब वे विश्वनन्दी और विशाखनन्दी थे। 4. तिखंडालोशिपर मेसर-तीन खण्ड घरतीके चक्रवर्ती । अश्वग्रीव अर्धचक्रवर्ती था ।
5. 45 विजाहर भूपरभूमिणाहु---विद्याधरभूमि और मनुष्य भूमिके स्वामो। अर्धचक्रवर्ती अश्वग्रीव । ____7. a मा रसउ काउ चप्पिवि कवालु--आदमोके सिरपर कोएका बैठना और कांव-काव करना आने वाली मौतका संकेत है।
0. 2 करगय-स्वर्णका हार देखने के लिए सुम्हें दर्पण क्यों चाहिए कि जो तुम्हारे हायमें है। वह प्रसिद्ध लोकोक्ति है, 5a भरहह लग्गिवि-भरत चक्रवर्तीके समयसे लेकर, प्रथम चक्रवर्ती । 11 रणु बोल्लंतहुं चंगजे-युद्धकी बात करना आनन्ददायक है । तुलना कीजिए कि युद्धस्य कथा रम्या ।
3. किंकर णिहणंत जस्पिाय-अनुचरों को मारने में कोई आकर्षण मा आनन्द नहीं है । अश्वग्रीव त्रिपृष्ठसे लड़नमे प्रसन्न था, उसने सोचा कि छोटे व्यक्ति या अनुचर से लड़ने में कोई मजा नहीं है। 15 सारंग का 'टी' में बलवान् अर्थ किया गया है । परन्तु लगता है कि विटको बासुदेव होने के कारण शृंगका बना धनुप रखना चाहिए, विष्णु को शाबर नहा जाता है-हिन्दू-पुराण विद्या | हिन्द-पुराण विद्यामें विल्गुके दूसरे प्रतौफ है पांचजन्य, कौस्तुभमपि, असि, कौमोदको गदा, गरुडध्वज और लक्ष्मी 1 जैनपुराण विद्यामें ये प्रतीक वासुदेवके भी माने जाते हैं और इसलिए मैं सोचता हूँ कि सारंगधनुका अर्थ शार्ङ्गधनु होगा।
10. 4-6 यह पंक्ति कलदेवके हथियारोंका वर्णन क. ती है, ये है गिल, मुसल और गदा जो चन्द्रिमा कहा जाता है।
11. 2 सगाड़िवो-गरुड़, जो वासुदेव या विष्णु के वजका प्रतीक है । 8a णिच्चिच्चे -मोटा और ऊँचा । 'टी' के अनुसार यह मुहावरा निम् + उच्च से बना । सम्भवतः कि नित्य + उच्च से बना हो, उन्न उंच होता है, अथवा उच्च + उच्च; इसका अर्थ है अन्त तक खड़े बाल, जो हमेशा खड़े रहते है।
_12. Ba-6 भडु इत्यादि- पोद्धा कहता है यदि मेरा मस्तक भी गिर जाता है तो भी मेरा धड़ शत्रुका वध करेगा और नाचेगा ।
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५२१
-LXV ]
अंगरेजी टिप्पणियोंका हिन्दी अनुवाद
15 2 कण्णाहरणकरणरणलाई सेना उस युद्ध में व्यस्त थी, जो विवाह में दो गयो करमा स्वयंप्रभा अपहरणके लिए हो रहा था 1 12-13 ये दो पंक्तियों, दो सेनाओंकी तुलना प्रेम करते हुए जोड़ेसे करती है। मिहुई - मिथुनानि — प्रेमक्रीडामें लगे हुए ।
16. 2 सिरिरिमस्सु — जो कि ऊपर वर्णित है LI में 16-95, प्रजापति राजा के मन्त्रो के रूपमें 25 माहवलवणा अर्थात् हरिमस्सु ।
17. 145 णं अष्टुमउ चंदु-- - चन्द्रमा आठवें स्थानगर हो तो ज्योतिषशास्त्रमें मृत्युको सूचना देता है । 19. 36 गोलंजणपदेवी सुएण - मध्वग्रीवके द्वारा। दूसरे दृष्टिकोणके लिए देखिए मृच्छकटिक VI. 9. "कस्टुमो दिणअरो कस्स चउत्यो आ बट्टए चेदो" इसमें चतुर्थ स्थानका चन्द्रमा मृत्युका सूचक है ।
20. 218 भोमूह-उक्लिउभयसे मुक्त !
146 स्विकामिणी-प्रेमिकाके द्वारा अर्थात् स्त्रीभ्टगाल शिवा । 16 मोल्लषणु - मूल्य
21,
या वापसी ।
24. 156 कुलालचक्कु -- कुम्हारका चक्र । जब अश्वग्रीधका चक्र त्रिपृष्टको आहत नहीं कर सका, और वह उसके हाथमें ठहर गया। अश्वप्रोच बोला- यह कुम्हारके चक्र के समान है जो युद्धमें व्यर्थ है । यद्यपि त्रिपुष्ठ और उसके पक्षने इसका बहुत कुछ मूल्य का अश्वग्रोवने त्रिपृष्ठकी यह कहकर निन्दा की कि feart तिलतुष खण्डको सूख मिटानेवाला कीमती खाद्य पदार्थ समझकर महत्व थे उकता है, परन्तु दूसरे लोग ऐसा नहीं सोचते ।
25. 9 कामिणिकारणि कलहसमत्तो - कामिनी के लिए युद्धमें व्यस्त !
LIII
5. 5b अबंधवो सरराम्भ दिष्णपोमिणीरई—सूर्य जो कि कमलका मित्र है और झोलमें कमलके पौषको आनन्द देता है ।
6,
85 तित्यणाह संखम्मि रिक्बर- चौबीसवें नक्षत्रपर अर्थात् शततारिका ।
5a अण्ण पासि ण सत्यविही करवर सुण- वह शास्त्रका अध्ययन नहीं करता, मेरे अध्यापकसे वह स्वयं अध्ययन करता है। तीर्थंकर स्वयं प्रकाशित हैं, और उन्हें किसी दूसरे गुरुकी
आवश्यकता नहीं।
13.
8.
1a सस्यभिसह - शततारिकाके साथ ।
LIV
1. 14-15 पंक्तियोंका अर्थ है - यदि मैं (कवि ) गुणमंजरीके मुखकी तुलना चन्द्रमासे करता है तो इसमें मेरी कवित्व शक्तिका प्रदर्शन नहीं होगा। मुझे कवि नहीं कहा जाना चाहिए। क्योंकि गुणमंजरीका मुख गन्दा या काला नहीं है, जैसा कि मृगचिल चन्द्रमण्डलपर है। उसकी आकृतिमें चन्द्रमाकी तरह घट और वक्रता है ।
3. 2 इहु फल्लोलविहु-कषि बहता है कि विन्ध्यशक्ति और सुवेगको मित्रता इतनी घनिष्ठ और पक्की थी कि उनमें मेरा भेद करना असम्भव है । क्योंकि समुद्रसे उसकी लहरोंको दूर कौन कर सकता है ? दार्शनिकों द्वारा समुद्र और उनकी लहरोंका एकात्म्य, एक स्वीकृत सत्य है ।
६६
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[LV
५२२
महापुराण 8, 76 बलदेव और वासुदेवका जन्म माताओंके द्वारा स्वप्न में देखे गये सूर्य और पन्द्रने पहलेसे दोषित कर लिया।
8. 90 बीयर अववादविइ नभुउ-द्विपुष्ठ वासुदेवकी माताका नाम उववादेवी है-जैसा कि यहाँ दिया गया है । यद्यपि गुणभद्रने उसका नाम उषा दिया है : तुलना कीजिए :
तस्यैवामी सुषेणाकोऽप्युषायामात्मजोशनि ।
द्विपृष्ठाख्यस्तनुस्तस्य वापसप्ततिसंमिता ।। 58184 9. 10 गलिय सुथई मुह हि णयणई-मैं अचलको मारूंगा और उसकी सुभद्राको बात-बातमें आँसू बहानेके लिए विवश कन्गा ।
12. 10-12 रायत्तणु इत्यादि - रायमै श्लेष है, जिसका अर्थ है राजन् और राग । ___17, रासह होइदि-तारक द्विप्छकी तुलना गधेसे और अपने हाथीसे करता है। 10a गोवालबाल-खालेका पुत्र, बालक । चामुदेवका एक विशेषण है, जो कि हिन्दू पुराण विद्याके अनुसार ग्वालों में रहे और वहीं बड़े हुए।
L.V
3. 6 तह गुण किं यण खडकइ-खण्ड कवि (पुष्पदन्त ) उसके गुणोंका वर्णन किस प्रकार कर सकता है । खण्डका अर्थ है-टूटा हुआ, अधूरा जो पुष्पदन्तका एक उपनाम है।
7. 8 णायभव, नाकभषा-देवता । 16 गि: जितु सिमालउ-प्रोष्मऋतुने शीतको पराजित कर दिया । यह एक निमित्त या कि जिससे विमलनाथ विश्वकी अपूर्णताका अहसास कर सकें।
LVI
1. 6a धणु सुरघणु जिह तिह घिरु ण ठार-इन्द्रधनुपकी तरह पन व्यक्ति के पास स्थायी रूपसे नहीं रहता। 70 भावर णियभायहु अवयरंति-भाई भाईके साथ पुरा बर्ताव करते हैं।
१. 8a-b चर इत्यादि-चर, गमण, छेज्ज और कण-पास के खेलके विभिन्न प्रकार है जो विरोधीपर आक्रमण करने और उसके अधिकारको पार्ज लेने में है। 9 एपफ उडिउ णियराज तामउन में से एकने ( सुकेतु ) अपनी राजधानी खो दी। ध्यान दीजिए कि उड्डिठका प्रयोग भाधुनिक मराठीमें उहवणेके रूपमें सुरक्षित है।
6. 4 महुराउ भणहि महुघोट्ट काई-तुम मधुको राजा कसे कहते हो कि वह मधुसे भरा मुसवाला है ? मधु राजाफे सम्बन्ध में इतने ओछे शब्दोंमें तुम कैसे बोल सकते हो ? 7a णीलाणयासणेणधर्मबलदेवके द्वारा जो कि नीले वस्त्र धारण करता है । बलदेवको नीलाम्बर कहा जाता है । तुलना कीजिए : नीलाम्बरो रोहिणेयः कालांको मुसली हली-अमरकोश |
7. 10a बिदुप्पणरोसु-वविदु + उप्पणरोम, उपेन्द्र अर्थात् । स्वयंभू वासुदेव कुद्ध हो गये। 114-5 जर लोहिउ-मैं अपने भाई के चरणोंकी शपथ खाता हूँ यदि मैंने देवालको मधु रक्त नहीं पिलाया । पायमि पाययामिका रूप है। 'पा' घातुका प्रेरणार्थक रूप ।
8. सुहासु-वसुबाका पुत्र-अर्थात् स्वयंभू । स्वयंभू की मासाका नाम । इस पर्यायवाची शब्दका उपयोग कवि पृथ्वी के अर्थ में किया है, जैसा कि हम 4 और 7 के रूपोंसे देखते हैं।
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-LVIII]
अंगरेजी टिप्पणियोंका हिन्दी अनुवाद
५२३
9. 40, 60 सुंदर तगुण -- मधुके द्वारा। 5ab6a विउससयणकय वयण विणुएण--- मधुके द्वारा जो सैकड़ों विज्ञानों के समान काव्य रचना में प्रशंसित है । 36 महमनुष चक्के चक्र द्वारा, जो मधुके मनु द्वारा प्रक्षिप्त था। महुमह— मधुमथन विष्णुका एक नाम है, हिन्दूपुराण विद्यायें ।
LVII
इस सन्धिमें तीन व्यक्तियोंकी कथा है। ये हूँ — संजयन्स, मेद और भन्दर और उनके पूर्वभवोंको जीवनियोंकी भी कथा है। इनमें मेह और मन्दरकी जीवनियाँ प्रमुख है जो विमलनाथ के गणधर हैं । नोचे वी गयी सूची में इन दोनोंके पूर्वभव कालक्रमानुसार इस प्रकार हैं
(a ) संजयन्त - 1, सिंहसेन, 2. अशनिषोष हस्ती, 3. श्रीधरदेय 4. रश्मिवेग, 5. अकंप्रभ, 6. वज्रायुध, 7. सर्वार्थसिद्धि अहमिन्द्र 8 संजयन्त इस जोवनमें उसने तपस्या ग्रहण की। (b ) मेरु- 1, मधुरा, 2 रामदत्ता, 3. मास्करदेव, 4. श्रीधरा, 5. रत्नमाला, 7. आदित्यप्रभ, 8. मेरु, जो विमलनाथ के गणधर हैं ।
6. वीवभ्रम,
(c) मन्दर- 1. वारुणी 2. पूर्णचन्द्र, 3 वैडूर्यदेव, 4 यशोधरा, 5, रुचकप्रभ, 6. रत्नायुध, 7. विभीषण, 8. द्वितीय नारकी, 9 श्रीधामा, 10 ब्रह्मस्वर्गस्थित देव, 11. जयन्तधरणेन्द्र, 12. मन्दर, जो विमलके गणधर हैं ।
इस वर्णनात्मक वृत्तान्तमें दो और प्रमुख व्यक्तियों का वर्णन है । वे हैं (1) सत्योप या श्रीभूति, हिसेनका मन्त्री, जो अगन्धनसर्प, चमरमृग, कुक्कुटसर्प, नृटीपनाक अजगर, चतुर्यनारक, त्रसादिभव, सप्ततारक, सर्प, नारकी, मगचंग और विद्युदुष्ट्र ( 2 ) भनि व्यापारी जो सिंहचन्द्र, प्रीतिकरदेव और चक्रायुध ।
150 विज्जच से विकसित है तोड़ने और तब खाने के लिए 'टो' में इसका अर्थ खाना दिया है, जो दूसरा अर्थ हूं ।
9.
14.
15.
18.
10 देवाय
11 णत्रि एव बोगीत और मुद्रिका ।
14 णावर वारुणिपुरा
समान ।
देश जो परवतो दूसरे में मेह बना ।
-
6a तूलिहि- सुतसे बना गद्दा
40 कम्मार - श्रमिक ।
LVIL
9.
10 पृणु राहू कइ - पंक्तिका अर्थ है के लिए (क) राज्यश्री प्रेमकी कसकसे पीड़ित हो उठी और मूहित हो गयी । परन्तु उसे सचेत किया से
11. 88 मिहिर महाहि — कान्ति श्रेष्ठ सूर्यसे
13. 120 अमवासाणिसियहि अमावस्थानी में और माहका उल्लेख नहीं करते जो चैत्रमास है । हमें माइका नाम 11. 1 से लेना पड़ा है ।
16. 96 महसूणु - मधुसूदन विष्णुका नाम है । हिन्दुपुराण विद्याने यह दिष्णुका नाम हूँ । क्या मदनको उस मधुसूदनके समकक्ष माना जाये जो मधुसूदनसे समता रखता है ।
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५२४
महापुराण
21.
दाम्यम अथवा श्रृंखलाथमकपर ध्यान दीजिए ओ पूरे कडवकर्मे है ।
22. 56 चरण-चक्र | 130. सरसलिलि रहंगसपाई अस्थि- वहाँ झोलमें सैकड़ों चक्रवाक परन्तु क्या वे पागल हाथी को पकड़ सकते हैं ।
[LIX
LIX
4 7 सिविणय तु सुडुं उस आदमीको सुख देता हुआ जो धनिक होते हुए भी नम्र और सदय हैं। ध्यान दीजिए कि शब्द सिविषयमें कारक चिह्न नहीं है ।
6 30 पूसरिक्खि छणसमिदिवस - इसमें भी माहके नामका उल्लेख नहीं है। गुणभद्र में मात्र माहा लेख है, परन्तु माघको पूर्णिमाको हम पुष्यनक्षत्र नहीं पा सकते इसलिए पौष माह होना चाहिए । क्या यह उत्तर और दक्षिणमें माह गिनने के अलग-अलग प्रकारोंके सन्देहके कारण ऐसा हुआ ?
14, 1a सयडंग ( शकटांग ) -- चक्र; चक्रवर्तीका शस्त्र ।
19.
10 बिसरिसजझलझलं वर्षाके गन्दे पानीका टपकना ।
L.20
2. 5 जहि मणिरहिं ण दिडु पर्यगड - जहाँ रत्नोंकी किरणोंके कारण सूर्य दिखाई नहीं पड़ता या रस्न इतने अधिक और विशाल थे कि उन्होंने सूर्यको आच्छादित कर दिया ।
3. 58 कोडिसिला संचालणधवल - यह पंक्ति प्रथम वासुदेव त्रिपुष्ठके कार्यको सम्दर्भित करती है। कि जिसने कोटिशिलाको उठाया ।
4.
136 पाहुडगमनागमणपवाई- - मॅट की वस्तुओंके आने-जाने के प्रकार में – विजयभद्र और अमिततेजस के बीच । नैमित्तिक – ज्योतिषी ।
5. 96 इर्ड पब्वइढ सम हलीस-इलीस अर्थात् विजय बलदेव, जिन्होंने संसारका परित्याग कर दिया। मैं (ब्राह्मण ज्योतिषी भी ) उसके साथ साधु हो गया ।
6. 11a मामसमयि -मेरे ससुर के द्वारा दिया गया। यहाँ तक आधुनिक मराठीमें ससुरको मामा कहते हैं ।
8. 24 अमोहजो–ज्योतिषीका नाम 76 जेतुम्बरसि – जिससे तुम आपत्ति में सुरक्षित रह सकोगे ( जीवित रह सकोगे ) |
11. 38 विद्धणाई 'ए' 'पी' में पाठ है पिबंधणाई, जो सरल है। मुहावरेका अर्थ है तम्बुओंको बाँधनेवाले । 96 बार पारी । वार शब्दका पारी अर्थ मराठी में सुरक्षित है ।
I
18. 5a हरिसुत — श्रीविजय, त्रिपृष्ठ वासुदेवका पुत्र ।
29.
10b समयसमयकल - जिसने समता या अपनी मजिसे कलहको शान्त कर दिया है ।
LXI
1. 9a-28 इन पंक्तियों में अमिततेज द्वारा बर्जित विद्याओं को सूची है।
12. 6a दिल्लिदिलिए, हे बाले कन्या, देशी नाममाला देखिए ।
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-Lxv]
अंगरेजी टिप्पणियोंका हिन्दी अनुवाद 15. 13 पाउँपियारिपसर---जिसने शत्रुओं की प्रगति रोक दी है। 21. 11 घणवाहणहु-मेघरथका ।
LXIL
2. 2a गरुडेण वि जिप्पइ रह ग वियह रसोइया गरुड़के द्वारा भी नहीं जीता जा सकता । 5. 10b जाउसमज डिलमंडिययहि - जिसके स्तन केशरसे सघन रंगे हुए हैं। 7. 9a to 10. 25—यहाँ पूरी धरती और उसके खण्डौंका वर्णन है जो आकशिसे दिखाई देते हैं।
17. 123 पक्खें-पक्षी के द्वारा। इस शब्दको क्या पविखके रूपमें लिया जा सकता है, जो वाद्यात्मक संगीतका एक अंग है।
I.XIII
2. 74 एरादेविर-दूसरी जगह शान्तिको माताका नाम अहरा दिया गया है, उदाहरण के लिए 1.16 और 11 में।
5. 5-6-इन पंक्तियों में उन रत्नोंकी सूची है, जो चक्रवर्ती शान्तिनाथको प्राप्त थे। ___11. 1-7-इन पमितयोंमें शान्तिनाथ और चक्रायुधके पूर्वभवोंका वर्णन है । शान्तिनायकं कुल 12 भष है-श्रीषेण, कुरुनरदेव, विद्यापर, देव, बलदेव, देव, पत्रायुध, चक्रवर्ती, देव, मेघरच, सर्वार्थसिद्धिदेव, शान्ति । 'माई ये नद-आदिला, कुरुमर, विमलप्रमदेव, श्रीविजय, देव, अनन्तवीर्य, वासुदेव, मारक, मेघनाद, प्रतीन्द्र, सहलायुष, अहमिन्द्र, दृढ़रथ ( मेघरपम्राता), सर्वार्थसिद्धिदेव, चक्रायुध ।
I.XIV 1. 7bओ ण करइ करि कत्तिय कवालु-कुन्थु या तीर्थकर, जो अपने हाथमें मानवीकपाल नहीं रखते, और बाषका चमड़ा जैसा कि शिव रखते हैं, इसलिए तोयंकर शिवसे बहुत ऊंचे है।
2 8 वयविहिबजोगु विष्णु वि ण लेह-हाथ पसारे हुए, वह ऐसी चीजें स्वीकार नहीं करते, जो अपनी व्रतनिष्ठाके कारण, के ग्रहण नहीं कर सकते।
8. 10 णियजम्ममासपर्खतरालि-उसी दिन माह और पक्षम, कि जब उनका जन्म हुआ । अर्थात् वैशाख शुक्ल प्रतिपदाके दिन । 26 किसियणक्ख तासिर ससंकि-जबकि चन्द्रमा कृत्तिका नमत्रके संगममें था।
LXV 3. 40 पट्टणु रयणकिरणअइसहयज-रत्नोंकी किरणों के कारण नगर अत्यन्त चमकदार मा । __ 4. 9b-10b वरिसकोटि सहसेण विहीणह-जबकि कुम्थुके निर्वाणके एक हजार करोड़ मर्ष जीत गये।
5. 5 बदहवणुतणु-शरीर बीस धनुष ऊँया था, यद्यपि गुणभद्र तीस धनुष ऊँचा शरीर बताते है;जो अरहको ऊबाईसे तुलनीय है। तुलना कोजिए = त्रिशब्यापसनूरसेषः चारुचामोकरम्यविः-65. 26 मो अधिक सम्भवनीय है।
9. 1-8 ध्यान दीजिए-घर शब्दपर अलंकारिता है।
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________________ 526 महापुराण ( LXVI 11. 84 जिउ जिणवररिसि सोतिउताबराणा जिन साधु बना अब कि ब्राह्मण तपस्वी / अर्थात् वैदिकधर्मका अनुयायी सापक बना / विशेष रूपसे वह विवकी भक्ति के सिद्धान्तोंका अनुमायी बना। 12. 6-7 गच्चा देउ---इन पंक्तियों में शिरके चरित्र की विशेषताओंका वर्णन है कि जो ताण्डव नृत्य करते हैं, और जो पार्वतीको रखते हैं / इमरू बजाते हैं, त्रिपुर को जलाते हैं, और राक्षसोका संहार करते हैं / जिनवर कहते है कि ऐसी ईश्वरता संसारसे नहीं बचा सकती। ___13. 6 तावसमासुरवासि रसति-विड़ा-चिड़िया के जोड़ने दाढ़ीमें घोंसला बना लिया साधुकी और वे उसमें गाते है। 16. 1-2 इन पंक्तियोंमें कान्यकुरुज नगरका नाम है। क्योंकि उसमें सा से विवाह नहीं करनेएर कम्पादोंको शापके कारण 'बोनी' बनना पड़ा। 24. 1 वत्तिय सपलु वि छारु परतिवि-सभी क्षत्रियों को जलाकर खाक कर देनेवाले / परतिवि परत्तसे बना है जो देशो है, और जो आधुनिक मराठीमें सुरक्षित है। LXVI 1. 9a विहवतणदुक्खोहरियछाय-वधव्यके कारण उत्पन्न दुखते उसके शरीरको कान्ति पालो गयी। 105 पर ताज ण पिच्छमि-परन्तु मैं अपने पितासे (सहस्रशहुसे) नहीं मिलती / 5.56 कोसलं पुरं--कोसलपुर अर्थात् साकेत, जो कोसल राज्यको राजधानी है। 6. 3 परमेशर - अर्थात् सुभौम, जो बाद में चक्रवर्ती होनेवाले थे। 10b एक जि-पिताले पाँवोंसे पकड़ा हा मिट्टीका प्लेट इस प्रकार चक्र में बदल गया। 10. 100 सम्मंतरि-( दवभ्रान्तरमें ) नरकमें / LXVII ___4. 6 हिरण्णगमो-- जिन-हिरण्यगर्भ शब्द हिन्दूपुराण विद्या ब्रह्मासे भेद जताने के लिए है परन्तु जैनपुराण विधामें यह तीर्थकरका वाचक है / 9. 1 दिणि छपके विच्छिण्णए-दीक्षाके छह दिन बाद। अर्थात् पौष कृष्ण द्वितीया दिन महिलने केवलज्ञान प्रार कर लिया / गुणभद्र भी इस विपिको इस रूपमें देते है। __13. 11 पिसुणमहतो-पिशुन नामका मन्त्री, जिसने राम-विरामके बारेमें उनके पिता 'वीर' को गलत सूचना वी; यह बलि हुआ। 14. 48 वाणारासि-वाराणसी, छन्दके कारण तीसरे अक्षरको दीर्घ किया गया /