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इय भविसयडंग अणेण पमें लिय दो वि पंचचालीस गुण्णय देहधर ते लहररिराणा मंगलभासिणिइ
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महापुराण
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चलु वइरिहि विलु वियरिषि घक्लियउं । हुँ दलक्ख वरिस थिय मुंअंत घर । वीर ने वि आलिंगिय विजयविलासिणिइ | रउरवि रणरवि विडित सत्तममहिविषरि । धम्म सर पर रामु सुदंसण । परवसद्धाहारहिं विलवणणीरसहि । कम्मकंदु पिल्लूरिवि मुणिगुणभावर्णाहि । णिकेसायणीरायहु गत सो चिलहू । फणिकिंणर विवाहरगणगंधयेधुर ।
काले मुसुमुति पुरिससीहु गहिरि ५ भाइपेउ सकारिवि सीह सेणतण
छट्ठमउवासहिं दसमदुवालसहि eraमूल हि सय रविचरतावणहिं भुवणत्तयसिद्दरमाहु मोक्खहु निकलहु मुणिणिंदु आहास गोत्तमु विप्पसुट
पत्ता- सविपदि घुगु काहि परि
॥
संगाम समरथ तय उत्थई मधेसणाइकुमारहं ॥ १४ ॥ १५
[५९.१४.१
पडवर हुई विडिइ तमतमधरणियलि गिद्धखमणुअंतर वित्तइ भडतुमुलि ।
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यह कहकर नारायणने चक्र चला दिया, तथा शत्रुके विशाल उरतलको भेदकर डाल दिया । पैंतालीस धनुष ऊँचे शरीर धारण करनेवाले वे दोनों ही ( नारायण और बलभद्र ) सुखपूर्वक दस लाख वर्षों तक धरतीका भोग करते रहे। वे दोनों हो बलभद्र और नारायण राजा मंगल-भाषिणी (सरस्वती) तथा विजयविलासिनी ( विजयलक्ष्मी ) के द्वारा आलिंगित थे क्षयकालके द्वारा मसला गया पुरुषसंह गम्भीर भयंकर तथा युद्धके कोलाहल से परिपूर्ण सातवें नरकके बिल में गया। सिंहसेनके पुत्र ( बलभद्र ) ले भाईके शवका संस्कार कर राम सुदर्शन ( बलभद्र ) धर्मनाथकी शरण में चले गये। छह, आठ दस और बारह उपवासों, नमक रहित दूसरोंके द्वारा दिये गये आहारों, वृक्षोंके मूल पथपर शयनों, सूर्यकिरणोंके तपनों और मुनिगणकी भावनाओंके द्वारा कर्मरूपी अंकुरको नष्ट कर वह भुवनश्रय के शिखर के अग्रभाग में स्थित, निष्पाप, कषाय और रागसे रहित और शरीर रहित मोक्षके लिए चले गये। मुनिगणनाथ विप्र, पुत्र, नाग, किन्नर, विद्याधरगण और गन्धर्वोके द्वारा संस्तुत गौतम कहते हैं
घत्ता - "हे मगधराजा, तुम संग्राम में समर्थ तीसरे और चौथे चक्र के स्वामी मघवा और सनत्कुमारके चरितको सुनो और फिर विश्वास करो" ||१४||
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प्रतिशत्रु ( प्रतिनारायण मधुकोड़) के मारे जाने और तमतमप्रभा धरणीतलमें पतन होनेपर, जिसमें गिद्धोंके द्वारा मनुष्यकी अतें खायी गयी हैं, ऐसी भटभिड़न्त समाप्त होनेपर भयंकर
१४. १. A देहवर । २. A सुहृदई । ३. 4 हरिणामि । ४. A रणयविणिवडिल । ५. A माई । ६. A पिकसाठी सुदंसणु णिञ्चल । ७. A गणिमुनि । ८. AP बिज्जाहरवरं । ९. P १०. P मघवा सणकुमार हूँ ।