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महाकवि पुष्पदन्त विरचित
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सणिय वियरइ पावहु बीहइ । ure hr a fiदि मण्णइ दुहुं । हिंसंत मणावि उ हिंसइ । समु जि समणु संठिउ समचरणइ । तिणि तिउत्तरसैंय पासंडहं । स सुद्धि बुद्धि आराहिवि । सिरिअरहंतणारं गोत्तज्जलु । देहखेत्तु रिसिई लिएं किसियाडं । पासहिं दिवि दढयर मंडिवि । सासु मुयंतें मुक्कु णियंगउं ।
सोगं गंथु ण समीहइ ण पसंसाइ करइ पहेसिउं मुहुं दूत पर पिसुणु ण दूसइ महालाहइ जीवियमरणइ जिणिवि कुहेउवाय णयचंडहं यारह अंगई अवगाहिवि बंधिवि कय सोलह कारणहलु हिण्यालि अणसणु अब्भसियड कामकोहधरणीरुह खंडिवि णाणसासु वड्ढारिउ चंगडं
घत्ता - सुहझानें मुउँ सो परमरिसि णिम्मलु णिरुवमरूयउ || अहमंदु अंतरि धवलतणु विजयविमाणई' हूयउ || ३ ||
जल हिस मेमिए कालि णिग्गए तम्मि सुंदरे
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ती सति यहिए । सुहं मग्गए । हं पुरंदरे ।
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वह निर्ग्रन्थ मुनि, परिग्रहको इच्छा नहीं करते, धीरे-धीरे विचरण करते, और पापसे डरते । प्रशंसासे वह अपना मुख हँसता हुआ नहीं करते ( प्रसन्न नहीं होते ), और किसीके द्वारा निन्दा किये जाने पर दुःख नहीं करते । दूषण लगाते हुए भी दुष्टको वह दोष नहीं देते। हिंसा - करनेपर भी, जरा भी हिंसा नहीं करते। लाभ-अलाभ, जीवन और मरणमें सम, वह श्रमण समता के आचरण में स्थित हो गये । कुहेतुवादोंको जीतकर और नयसे प्रचण्ड तीन सौ त्रेसठ पाखण्डोंको जीतकर, ग्यारह अंगोंका अवगाहन कर दर्शनशुद्धि और बुद्धिकी आराधना कर, सोलह कारण भावनाओंके फल, श्री अरहन्तके उज्ज्वल गोत्रका बन्ध कर, उन्होंने अन्तिम समय अनशनका अभ्यास किया, और देहरूपी खेतको मुनिरूपी कृषकने कर्षित किया | काम-क्रोधरूपी वृक्षोंको उखाड़कर चारों ओर धैर्यंको मजबूत बागड़ लगाकर उन्होंने ज्ञानरूपी धान्य खूब बढ़ा ली, सांस छोड़ते ही उन्होंने अपने शरीरका त्याग कर दिया ।
घत्ता - शुभध्यानसे मरकर वह निर्मल परममुनि, और विजय नामक अनुत्तर विमान में अनुपम रूपवाले धवलशरीर अहमेन्द्र देव हुए ||३||
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तीन अधिक तीस अर्थात् तेंतीस सागर प्रमाण, देवरीतिसे समय बीतनेपर, उस शुभाशय
३. १. P ण गंथु । २. AP पहसियमुहु । ३. A परविसुणु ण दूसइ; P परि पिसुणु ण दोसइ । ४. A P तिणि तिस ट्ठसय । ५. AP दंसणं । ६. A रिसिहलि संकिसियत । ७.A मुयउ ।
८.AP
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व । ९. A अणुत । १०. P . विमाणे ।
४. १. A समणिए; P समसिए । २ A सुरहरं गए ।