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-५२.४.९]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित वयणपेसला
विजयमंगला। रिखमालिणी तिक्खलिणी। चदमउलिणी
सिद्धवालिणी। पिंगलोयणा
धुणियफणिफणा ।
चोरघोसिरी। भीरभसिरी
पलयदंसिरी। इय सणामहं
विणकामह। घचा-पंच समागयई विजई सयई वक्खति सवसित्तणु ॥
तोसियवासवहं पलकेसवहं परि करति दासितणु ॥३||
दुवई-विज्जागमणमुणिइ हरिपोरिसि पमरियसिरिविलासए ।
__ णिहय पयाणभेरि जगभहरव वियलिइ सर्यणसंसए ।। विज्जाहरमहिहरणाह बे वि जलणजलि पयावइ धुरि करेवि । चलियई सेण्णई रिचरणमणाई बलएवषासुएयहं वणाई। णहु कंपइ कंपंतहि धपहिं
महि हल्लइ गच्छंतहिं गएहिं । रह चिळवंत चल चिरंति पडिवक्खमरणु णं वजरंति। जाएं हरिखुरधूलीरएण
धूसरिउ सूर दूरंगरण । भडरोले सुत्तट्टि र कयंतु
छत्तहि संछण्णउ दहदियंत । जोइय जणेण परवीरजूर सोमुग्गदेह णं चंद सूर। कालराक्षसी, वचनपेशला, विजयमंगला, ऋक्षमालिनी, तीक्ष्णशूलिनी, चन्द्राच्छादिनी, सिद्धपालिनी, पिंगलोचना, फणीफणध्वननी, स्थविरा, स्थूलधरा, घोरघोषिणी, भीभीषिणी, प्रलयदशिनी इन नामोंवाली और कामनाओंको प्रदान करनेवाली
पत्ता-एक सौ पांच विद्याएं अपनी अधीनता उसके लिए दिखाती हैं। और इन्द्रोंको सन्तुष्ट करनेवाले बलभतू और नारायणके घर दासता करती हैं ॥३॥
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विद्याओंके आगमनसे नारायणका पौरुष ज्ञात होनेपर तथा लक्ष्मीका विलास फैछनेपर और स्वजनोंका संशय दूर होनेपर विश्वभयंकर प्रयाण-भेरी बजा दी गयी। दोनों विद्याधरराजा और महीधरराजा ज्वलनजटी और प्रजापतिको आगे कर शत्रुसे युद्ध करनेका मन रखनेवाली बलदेव और वासुदेवको सेनाएं चलीं। कांपती हुई ध्वजाओंसे आकाश कांप उठता है, गोंके चलनेपर धरती कांप उठती है। रथके चिक्कार करनेपर परती चीरकार कर उठती है, मानो शत्रुपक्षकी मुत्युको घोषित कर रहे हों। दूर तक गयी हुई, घोड़ोंके खुरोंको धूलिरजसे सूर्य धूसरित हो गया। योद्धाओंके शब्दसे सोया हुआ यम उठ बैठा। दसों दिशाएं छत्रोंसे आम्छन्न हो गयीं । शत्रुवोरोंको सतानेवाले उन्हें लोगोंने इस प्रकार देखा, मानो सौम्य और उग्रदेहवाले चन्द्र-सूर्य हों;
१. AP पोसिणी । १०. A विज्जई सयई। ४.१. Pगमणु मुणिइ । २. A सणसंसए । ३. A जरणनडि । ४. Pघर।