SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 433
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१६ १० १० पियमित्तणाहु पुछियउ तं णिसुनिवि ओहिणाणणयणु पत्ता - धादसंडएराबर राम मंजियस लणिरसर मुणसगुत्तु आसंधियड जिगुण व वास विवि तणु दिसेहुदा पर्यायचं विरपिणु परमेट्ठि हवणु भेदु हु सीहरहु बहु खयराहिषइ पुण्णवं जयलच्छिव महापुराण घत- - अंग हिदि छंडिवि दुल्लभोयाकंखिणि नीचा करके रह गया । आकाशतल देखकर पूछा, "यह किसका है और कहाँ रहता है ?" राजा कहता है । फहुत एहु कहिं अच्छियत । अक्खड़ पर पहुल्लषयणु । सहि संखरि सुहावइ ॥ संखिणिरमणीरत्तव ||१२|| १३ [ ६२. १२. ८ संखइरिगुहाकुहरंतरइ । दोहिम संसार विलंघियड | जिणचरणकमलि थिरु करिवि मणु । पंचवि वि चोज्नु नियच्छिय । पणविधि समाहिगुत्त समणु । काले णवर तेरथाउ चुउ । देव दुजः तिहूणविजइ । मई जितब तो कि मज्झु मउ । चिरु संसरि विइंडिवि ॥ णितवेण सा संखिणि ||१३|| उसे बहुत दुख हुआ । प्रियमित्राने अपने स्वामीसे यह सुनकर अवधिज्ञानरूपी आंखवाला प्रफुल्ल मुख पत्ता - धातकी लण्डके ऐरावत क्षेत्र में शंखपुर नगर शोभित है। उसमें अपनी शखिनी भार्या में अनुरक्त रामगुप्त नामका राजा था || १२ || १३ जिसमें निरन्तर सिह्नोंकी गर्जना हो रही है, ऐसी शंखगिरि गुफा के भीतर मुनि सर्व गुप्त आकर ठहरे । उन दोनों (राजा रामगुल और शंखिनी) ने संसारका त्याग कर दिया। जिनगुणों ( पंचकल्याणकों के अनुसार ) के उपवाससे अपने शरीरको क्षीण कर तथा जिनवरके चरण-कमलों में अपना मन स्थिर कर धृतिसेनको आहार-दान दिया और पांच प्रकार आश्चयको देखा । पाँच परमेष्ठियोंका अभिषेक कर तथा समाधिगृप्त मुनिको प्रणाम कर संन्यास से मरकर ब्रह्मेन्द्र देव हुआ। समय आनेपर वहाँसे युत होकर विद्याधरपति सिंहस्थ हुआ है, जो अपनी त्रिलोकविजय में देवोंके लिए भी दुर्लभ है। यह पुण्यवान् तथा विजय लक्ष्मीका पति मेरे द्वारा जीत लिया गया है। तो भी मुझे मद क्यों है ! वत्ता -- शरीर और गृहका त्याग कर चिरकाल तक संसारमें परिभ्रमण कर तथा दुर्लभ भोगोंकी आकांक्षा रखनेवाली यह शंखिनी भी जिन तपसे || १३ || ७. AP मवि । ८ A पफुल्लवयणु P पप्फुल्लवयणु । ९. K नृछ । १३. १. A खवियतणु । २. AP संगिहिउ भणु । २ A गिव्हई । ४. A संसारु ।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy