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[५६. २.११
महापुराण पत्ता- हय गय णड संदण धय एक जि बसणे णडियज ।
वारंवहं गुरुहुं महतहं रायविलासह पडियउ ||२||
दुवई-जे ण करधि देवरभासि दुरगजपसा
ते णिवासंति एम्व हिवरा मुवि दुजसमसिमलीमसा ।। मायाविणीइ विभमहरीइ सेज्जातंबोलसुहं करीइ । आजाणुषिलंबियसाडिया वरै खजउ माणक चेडियाइ । णीसेससोक्खणिद्धाडियाइ खणि खणि आयइ ण पराडियाइ । जूएण ण कासु वि कुसलु एत्थु गड सो सुकेउ होइवि अवधु । वंदेवि सुदसणु मुवत्थु
णाोणालोइयसयलवत्थु । तज प्पिणु थिउ लंबंतहत्थु चिंतवइ अट्टझाणेण गत्थु । जइ अस्थि फलु वि तवतिञ्चकम्मि तो मारेसमि आगमियजम्भि । पाडेसमि मत्थइ तासु बज्जु बलि जेण महारउ जित्तु रज्जु । इय संभरंतु संणासणेण
मुउ जाय उ भूसिउ भूसणेण । लंतवि सुरु सुक्कियसोहमाणु चडेदहसमुइजीवियपमाणु। घत्ताणीसंगें' जिणवरलिंगे बलि देवत्त लहेप्पिणु ।।
असराले जंतें काले सुरणिलयाव चवेपिणु ||३|| पत्ता-न उसके पास अश्व-गज थे और न स्यन्दन-ध्वज । वह अकेला था । महान् गुरुओंके मना करनेपर भी उसका राज्यविलाससे पतन हो गया ||२||
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दुर्दमनीय अहंकारके वशीभूत होकर जो देव और गुरुका कथन नहीं करते, संसारमें अपयशरूपी स्याहीसे मैले उन राजाओंका पतन हो जाता है। मायासे विनीत, विभ्रमको धारण करनेवाली शय्या और ताम्बूल लिये अत्यन्त शुभंकरी, घुटनों तक लटकती हुई साड़ीवालो दासीके द्वारा मनुष्य खा लिया जाये, यह अच्छा है, परन्तु क्षण-क्षणमें इस बराटिका ( कौड़ी ) के द्वारा नहीं। इस संसारमें जुएमें किसीको कुशलता नहीं है। वह सुकेतु निर्वस्त्र होकर चला गया। दिगम्बर तथा जिन्होंने ज्ञानसे समस्त वस्तुओं को देख लिया है, ऐसे सुदर्शन मुनिकी वन्दना कर तप ग्रहण कर, हाथ लम्बे कर बातध्यानसे ग्रस्त वह विचार करता है कि यदि तपके तीव्रकमका कुछ भी फल है तो मैं आगामी जन्ममें उस बलिको मारूंगा, उसके मस्तकपर वज्र गिराऊंगा, कि जिसने मेरा राज्य जीत लिया है। इस प्रकार स्मरण करता हुआ वह संन्याससे मर गया और भूषणोंसे अलंकृत तथा पुण्योंसे शोभमान वह लान्तव देव हुआ चौदह समुद्र पर्यन्त जीवनके प्रमाणवाला।
पत्ता--अनासंग जिनबर दीक्षासे देवत्व पाकर बलि भी प्रचुर समय बीतनेपर देवविमानसे च्युत होकर--॥३॥ ३. १. AP°गुरुजपिउं । २. P"पिडग्रियं । ३. P वरि । ४. A' मुमकु वत्थु । ५. AP बोस ।
६. AP पाणु । ७. F गोसम्रौ ।