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________________ ५१८ महापुरान [ XLVII 11. 50 बलदेव अग्गर देहि तिष्णि तीनके आगे 9का अंक दीजिए, जो बलदेवोंकी संख्या है । पूरा अंक 93 होगा, जो चन्द्रप्रभुके गणधरोंकी संख्या है। 10-11 इन पंक्तियोंमें आठ प्रातिहार्यो का वर्णन है । जैसे पिंडोम — अर्थात् अशोक वृक्ष । इन प्रातिहायों की स्थिति सूचीके मध्य में चन्द्रप्रभुके अनुपायियों में स्वाभाविक है 1 XLVII 4. 90 वच्छु जहि रोस – वह उन स्थानोंको छोड़ देते हैं जहाँ कोषका वृक्ष है। 'पी' में 'वासु' मित्र रूप स्पष्ट रूपये वच्छका सरल रूप है । 6. 9a-5 का अपनो माँ और उसकी प्रतिच्छायाको देखता हुआ भ्रान्तिमें पड़ जाता है और समझता है कि उसकी दो माताएं हैं और इसलिए वह यह निर्णय करने में असमर्थ था कि उसकी वास्तविक माँ कौन थी । XLVIII 1. 19 गुणभद्दगुणीहि जो संधु अर्थात् दसवें तीर्थंकर, जो गुणभद्रले गौरवान्वित है । हम जानते हैं कि गुणभद्र जिनसेनके शिष्य हैं, जो संस्कृत आदिपुराणके रचयिता है। उनकी मृत्युके बाद उनके कार्यको गुणभने जारी रखा, जो उत्तरपुराण कहलाता है। गुणभद्गुणीहि -- इस अभिव्यक्तिका यह अर्थ भो किया जा सकता है, विशिष्ट गुणोंको धारण करनेवाले पवित्रजमोंके द्वारा । 4. 14 सं पट्टणु कंषण घडिवं - वह नगर स्वर्णसे निर्मित था । यहाँ कंचनका प्रयोग कांचनके लिए हुआ है-- अर्थात् कांचनमय । 'ए-पी' में कंचणपडिउ पाठ है, क्योंकि प्रतिलिपिकार कंचणका अर्थ नहीं समझ सका । 9. lab सं सई पंक्तिका मर्थ है, यद्यपि शीतलनाथके अभिषेकमें प्रयुक्त जल नीचे की ओर बह रहा था, परन्तु वह पवित्र लोगों को ऊपर की दिशा में ले जा रहा था अर्थात् स्वर्ग | 10. 56 वाणाणणु गध्वेण जाइ - गर्वसे आदमी अपना सिर तानकर या ऊंचा उठाकर चलता है | घमण्डी आदमी अपना सिर अकड़ाकर और ऊंचा करके चलता है । 13. 16 संभर विरुद्ध जिनवरितु देवोंने उसके दिमाग में जिनवरके जीवनको परस्परविरोधी बातें ला दीं। बाकी पंक्ति में उक्त परस्परविरोधी बातोंका सन्दर्भ है। उदाहरण के लिए जिन गोपाल कहे जाते है ( ग्वाल- पृथ्वीका पालन करनेवाले ) लेकिन अपने ही शत्रुओंके लिए वे अत्यन्त भयंकर हैं । 18. 50-6 जो गायका दान करता है, वह विष्णुलोक जाता है, स्वर्णविमान में । और स्वर्गीय आनन्द मनाता है। 11 सुतर पिपलसणिण पीपलका वृक्ष छूने से शुद्ध होता है । 20 14. सई विरवि कम्बू, मुण्डसालायण - मुण्डसालायणने स्वयं गौ आदिकें दान के महत्त्वको बतानेके लिए छन्दांकी रचना की ओर उन्हें वह राजाके सामने लाया । राजाने अनुभव किया कि वे उतने ही प्रामाणिक है जितने कि वे ! IL 1. 1: किति वियंभव महं जगगेहि मेरी कीर्ति समूचे विश्वरूपी घरमें फैल जाये । कवि अपनी काव्यशक्तिके प्रति सचेतन है, जैसा कि वह कहता है कि वह उसे विश्ववयात यश दिलवायेगी।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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