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महापुराण
[ ५९. १५. २३धत्ता-जिउ मागहुँ वरतणु सुरखेयरगणु गेट्टमालितुहिणामरु ॥
"वसिकिय मंदाइणि साहिवि मेइणि पुणरत्रि आयउ णिययघरु ॥१५॥
दोचालीससद्धधणुतुगं
कणयवि पं मंदिरसिंग। अंगं तम्स सुलक्खणवंत कामिणिमणसंखोहणवतं । पंचलखवारिसह बद्धाउ
णि सिद्धसमीहियधाउ । दिव्वकामभोएं भोत्तर्ण
चक्कपट्टिरिदि मोत्तणं । पियमित्तहु पुत्तह दाऊणं सच जिणतचं जाऊणं । मणहरउजाणं गंतुणं
अभयघोसदेवं थोत्तर्ण । गहिच दिक्खं सहिर दुक्खं जिणि तण्हं णिदं मुक्खें। मघवंतो पयणयमघवंतो
रयपरिचत्तो मोक्त्रं पत्तो। धत्ता-जहिं कामु ण कामिणि दिणु णड जामिणि ताराणाहु ण णेसरु ॥
जहिं वसाह ण सजणु भसइ ण दुजगु तहि थि उ मघत्रमसिरु ॥१६।।
कालें जैसे अवरु जिह
जिनु उप्पण्णउ कहामि विह । चिंधचीरचुंबियखयलि
इह विणीयपुरि छुइधवलि । घत्ता-उसने मागध बरतनुको जीत लिया। देव-विद्याधर-गण, नृत्यमाल और हेमन्तकुमारको जीत लिया। मन्दाकिनोको अपने वश में कर लिया। इस प्रकार धरतीको सिद्ध कर वह पुनः अपने घर आ गया ॥१५॥
उसका शरीर साढ़े चालीस धनुष कंच! था, स्वर्णको छविवाला, मानो मन्दराचलका शिखर हो । उसका शरीर सुन्दर तथा अच्छे लक्षणोंसे युक्त था, यह कामिनोके मनको क्षुब्ध करनेवाला था। उसकी आयु पाँच लाख वर्ष की थी और तनिधानरूप स्वर्णादि धातुएं उसे नित्यरूपसे सिद्ध थीं। दिव्य कामभोग भोगकर, चक्रवर्तीको ऋषिको छोड़कर, अपने पुत्र प्रियमित्रको देकर, समस्त जिनतस्वको जानकर, मनहर उद्यान में जाकर, अभयघोष देवकी स्तुति कर उसने दीक्षा ले ली, दुःख सहा, तृष्णा, निद्रा और भूख जीत ली। जिसके चरणों में इन्द्र प्रणत है, ऐसा मघवा चक्रवर्ती कर्मरजसे परित्यक्त होकर मोक्ष गया।
पत्ता-जहाँ न काम है और न कामिनी। न दिन है और न यामिनी । न चन्द्रमा है और न सूर्य । जहाँ न दुर्जन रहता है, और न सज्जन बोलता है। मघवा महेश्वर वहाँ निवास करता है ।।१६||
१७ समय बीतनेपर जिस प्रकार एक और राजा हुआ, मैं उसी प्रकार उसकी कथा कहता है।
. ९. A मागहवर । १०. मालिच तुहिणामरु । ११. AP वसिकय । १६. १. A मंदरसिंग; P मंदर सिंग । २. A रिवी मोसूर्ण । ३. प्रियमित्त । १७. १. नूव; P णिज ।