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________________ -५९. १८.४] महाकवि पुष्पदन्त विरचित सुरवसणहदिणयरत धीरउ पयपालणणिरउ । पहु अगंतवीरित वसइ बहु महऐवी घरिणि सह। हरि करि विसवा कुमुयपिर जोइवि सिविणय गैलिपहिउ । अधुयकप्पड ओरित सुरेसिसु व्यरि ताइ धरिउ । किणरवीणारवट्झुणित पुणु णवमासहिं संजणि । विरइयणामकरणवि हिडिं सणकुमार कोकिउ सुहिहिं। तेण समुहणियंसणिय चउदहरयणविहसणिय। घणणंदणवणकोंतलिये गंगाजलचेलंचलिय। बहुणरिंदकोहावणिय गरुयगिरिंदसिहरणिय । छक्खंड वि महि जित्त किह णिहिघडधारिणि दासि जिह । पुव्वणियधणुतुंगयरु विष्णि लक्ख दरिसाउधरू। घत्ता-बत्तीससहासाहि मउडविहूसहिं परणाहहिं पणविजइ ॥ जो सयलमहीसरु परपरमेसरु तासु काई वणिजइ ॥१७॥ रंभापारंभियतंडषद अस्थाणि परिदिउ सकु जहि भो अस्थि णस्थि किं सुइयरटु तं णिसुणिचि भणइ सुराहिवड तावेकहिं दिणि मणिमंडवइ । आलाष जाय सुरवरहिं तहिं । भरखोइ रूउ कासु वि णरहु । वाचकवर जिसके ध्वजपटोंसे आकाश चुम्बित है, ऐसे चूनेसे सफेद विनीतपुरमें सूर्यवंशरूपी आकाशका दिनकर, धीर, प्रजापालनमें लीन राजा अनन्तवीर्य निवास करता था। उसकी गृहिणी महादेवी सती थी। स्वप्नमें सिंह, गज, बैल, चन्द्रमा और सूर्य देखकर उसने अच्युत स्वर्गसे अवतरित देवशिशुको अपने उदरमें धारण किया। और फिर नौ माहमें किन्नरोंके वीणारवसे ध्वनित पुत्रको उसने जन्म दिया । नामकरण-विधि करनेवाले सुधियों ने उसे सनत्कुमार कहकर पुकारा। उसने, समुद्र जिसका वसन है, चौदह रत्न जिसके विभूषण हैं, सघन नन्दनवन जिसके कुन्तल हैं, गंगाजल जिसका वस्त्रांचल है, जो अनेक राजाओंको कुतूहल उत्पन्न करनेवाली है, भारी गिरीन्द्र शिखर, जिसके स्तन हैं, ऐसी छह खण्ड धरतो उसने इस तरह जीत ली मानो निधिघट धारण करनेवाली गृहदासी हो। उसका शरीर पूर्वोक्त धनुषों ( साढ़े चालीस धनुष ) के बराबर ऊंचा था । वह तीन लाख वर्षे मायुको धारण करनेवाला था। पत्ता-वह मुकुट धारण करनेवाले बत्तीस हजार राजाओंके द्वारा प्रणाम किया जाता था। जो समस्त महीश्वर और मनुष्य परमेश्वर था, उसका क्या वर्णन किया जाये ? ॥१७॥ एक दिन मणिमण्डपमें जब रम्भा अप्सरा ताण्डव नृत्य कर रही थी और इन्द्र दरबारमें बैठा हुवा था, तब देवदरोंमें आपस में बातचीत हुई कि "अरे क्या किसो भी शुभकर मनुष्यका नरलोकमें सुन्दर रूप है या नहीं है ?" यह सुनकर इन्द्र कहता है कि "इस समय जो चक्रवर्ती हैं, २. महदेवी । ३. Pणलिमिहिन । ४. A अवयरित। ५. P सुरु सिमु । ६. AP कोतलिया । ७. AP लिया 1 ८.A कोडावणिया; P कोड्डावाणया । ९. AP यणिया।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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