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महापुराण
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सुरदारचई सू पवित्र भावे तित्थं करु दिव्वं दुगुल्लयाई परिछे प्पियु महि रज्ज समपिवि राण गडगडतणाणाखयराभर तहिं मासिरि मासि सिसिरहु भरि कुलिकेस णिक्कुडिलें लुंचिषि जाइवि अमर पवरमयराल वासु पयासु करेपिणु
अवरहिं वासरि संतकसायच सलैयरु मुणिभिक्खद्दि दुक्क उ तहु तहि उप्परं अच्छेर उ
घत्ता - वित्थारितवसिहि सिहं ससरीरे विहु णिपिहं ॥ पडणं जिणकप्पयं ||१२||
इस कपयं
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खोरमा भरियई खीरहं । घणवा घणेण णं महिहरु । परमसिद्धसंत णवेष्पिणु । सूरप्पहसिवियहि आसीण । विसियgs गुणंतरि । सियैपाडिवर वरुणदिसि दिणयरि । घलिय ते नियसिर्दे अंचिवि । जयकारिउ विज्जाहरमालइ । थिउ नृवसेहसँ सहुं तत्र लेपि ।
[ ४७.१२.१
हामकासजैमससिसुच्छायण । पुष्कमित्तरायहु घरि थउ । पंचपorn मणी रहगारज ।
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देवव रोंके हाथोंसे नगाड़े बज उठे । क्षीर समुद्रसे जल भरा जाने लगा । इन्द्रने नमन किया, तीर्थंकरका भावसे अभिषेक किया, मानो मेघने महीधरका अभिषेक किया हो। दिवा वस्त्र पहनाकर, परम सिद्ध सन्ततिको प्रणाम कर, सुमतिको राज्य समर्पित कर राजा सूर्यप्रभा शित्रिका में बैठ गये । नृत्य करते हुए नाना विद्याधर और देव विकसित पुष्पोंसे युक्त पुष्पवन में पहुँचे । वहाँ मार्गशीर्ष शुक्लपक्षको प्रतिपदा के दिन, सूर्यके पश्चिम दिशा में पहुँचनेपर अपने घुँघराले बालों को उन्होंने निष्कपट भावोंसे उखाड़ डाला । इन्द्रने पूजा कर उन्हें क्षीरसागर में फेंक दिया। विद्याधर समूहने जय-जयकार किया। छठा उपवास कर एक हजार राजाओं के साथ तप ग्रहण कर स्थित हो गये ।
पत्ता - जिसमें तपरूपी अग्नि विस्तारित की गयी है, जो अपने ही शरीर में निष्प्रभ है, जिसमें रतिको संरचनाका परित्याग कर दिया गया है, ऐसे जिनाचरणको उन्होंने स्वीकार कर लिया ||१२||
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एक दूसरे दिन हास्य, काश, यश और चन्द्रमा के समान कान्तिवाले शान्तकषाय वह नगर में मुनिचर्या के लिए पहुँचे। वहां पुष्यमित्र राजाके घर ठहर गये। वहाँ उसे पांच सुन्दर
१२. १. A महण २ APT दुगूलबाई ३ A मायसिरमासि; P मागसिरि मासि । ४. A पवि P परिवा५, Pणिकुडिल्ले । ६. AP पषसह सें ।
१३. १, P°ससिजस ं । २. AP सयलय । ३ P मनोहरं ।