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________________ १४९ ४७.१४.७] महाकवि पुष्पदन्त विरचित चउवरिसइं गलियई छम्मत्थहु पायरुक्खतलि मुणियपयत्यहु । कत्तियमासि विसुद्धहि बीयहि दिवसक्खइ गिन्वाणपगीयहि । लोयालोयपलोयणदीवउ जायउ देवहु अप्पसहावउ । केवलणाणु सो जि लइ भण्णइ अण्णे जीवहु कहिं परमुण्णइ ! जं बुखें सुषण जि पयासि जं विप्पेण बंभु मिसिहं । जंकउलें अबरु आहासिर जं सइवेण सिबत्तु समासिउँ। जं कविलें णिकिरिडं णिउत्तर णिग्गुणु णिचविसुद्ध अन्तर्ड। जं सुरगुरुणा णस्थि पउत्तर जं अणंतु अच्छइ अविइत्तई । तं खं देवं सुसिरु विसिटुत अप्पाणाउ विहिष्ण विदुर । पत्ता-एयाणेय विवाइणा पुर्पदंसजिणजोयणा ।। जेउ कुसुमापिसकर्य पेहि णिहियं तेलोकायं ॥१॥ इंदण जलणेणे वरुणेण पवणेण। फणिणा कुबेरेण चंदेण सुरेण । दसदिसिहिं आएण सुरवरणिहारण । थोत्तं पदंतेण धुर जिणवरो तेण। तुहुं धोयरइरेणु तुहुँ कामदुधेणु । तुहूं बंधु हयदधु तुहं माय तुहुँ बप्पु । जे दुह पाविट्ठ णिकिटु जेड घिट्ट. आश्चर्य उत्पन्न हुए : जब चार वर्ष बोत गये, तो नागवृक्षके नोचे, पदार्थोको जाननेवाले छद्मस्थ देवको कार्तिक मामकी देवोंके द्वारा प्रगीत द्वितीयाके दिनका अन्त होनेपर लोकालोकके अवलोकनका दीप आत्मस्वभाव प्राप्त हो गया। लो, उसोको केवलज्ञान कहा जाता है, किसी दूसरे ज्ञानके म उन्नति कहा? जिसे बदने शन्य प्रकाशित किया है. जिसे ब्राह्मणने ब्रह्मक रूपमें विशेष कथन किया है, जिस कोलने ( मीमांसक ) स्वर्ग कहा है, जिसे शैवने शिवत्व कहा है, जिसे कपिल ( सांख्य ) ने निष्क्रिय, निर्गुण, नित्य विशुद्ध और अकर्ता कहा है, जिसे चार्वाकने नास्ति (नहीं है) कहा है, और जो अनन्त और अविभक्त (अखण्डित) है, देवने उस अन्तःशून्य विशिष्ट अपनेको पृथक् करके देख लिया। पत्ता--एकानेक विवादो पुष्पदन्त जिनयोगीने ( इस प्रकार ) सारे संसारको कामरूपी पिशाचको जीतनेके लिए रास्तेपर लगा दिया ॥१३॥ इन्द्र, अग्नि, वरुण, पवन, नागराज, कुबेर, चन्द्र, सूर्य और दसों दिशाओंसे आये सुरवरसमूहने स्तोत्र पढ़ते हुए जिनवरकी स्तुति को-"तुमने रतिरूपी रेणुको धो लिया है, तुम कामरूपी धनु हो, तुम हतदर्प बन्धु हो, तुम मा हो, तुम बाप हो। जो दुष्ट, पापिष्ठ, निकृष्ट, जड़ और ढीठ ४. AP कवलं । ५. A संखें । ६. P अक्कत्त । ७. A अप्पाणाउ विभिण्णजं; P अप्पसहावे जाएं। ८. AP पुप्फयंत । ९. P पहि णोय । १४. १. P adds after This: जमदिसिकुमारण; गैरइयभावेण । २. P जण घेटु ।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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