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________________ ૪૧૮ ५ १० महापुराण तहु हत्थे मैरिही परसुरामु 1 किं अच्छ काणि निब्बियप । हु हु र जंगलंपुंजु फीरु । जे दिसण दुत्थियाई । जेणावविजय नंदंश पिसुण । अम्हारिसु जीवs भूमिभारु । धुवु ससिहास आठ मज्झु । रिंड चूरमि मारमि कलहकालि । इ अज्ज कर मिह सहलु रोसु रिणु य चिरु दिवाएँ | टं इ तासु रणिल अज्जु देमि लुणि ॥ ४ ॥ ५ चोज्जु बप्प सो जासु कुरु होही सुरामु afe गच्छहि पेच्छ तं सुणिषि मणि चिंत कुमारु दुणकर गाइगल थियाई दरिसावियबंधवलोयबसण सो हिजणणिव्वणवियाद वरिस परमाउसु जमदुगेष् लइ नियइ ण तुकइ अंतरालि अह वा जइ सरमिण तो वि दोलु वत्ता - वायवियारणडं जं वैइरु इय भणेवि बीरो धुरंधरों कायकविध लिय दिसावहो धरणिविजय सिरिविजयलंडो पाणिपत्य परिमाहो समरभारवहणे कंधरो । चिकण्णुपाणहो । करणकुडिलधम्मिल्लशंपडो । रत्तचीर चेचश्य विग्गहो । [ ६६, ४.३ चन्द्रकान्तके समान दति दिलायें जाते हैं। जिससे ये दाँत सुन्दर भात हो जायेंगे उसके हाथसे परशुराम द्वारा जायेगा । है सुमट तुम वहाँ जाओ और उस आश्चर्यको देखो। बिना किसी freeपके जंगल में क्यों पड़े हो ।" यह सुनकर कुमार अपने मनमें विचार करता है-प्रचुर मांससमूह वह मनुष्य खाक हो जाये कि जिसने स्वजनोंको दुर्जनोंके द्वारा हाथ पकड़कर बाहर निकाले जाते हुए और खराब स्थिति में होते हुए देखा है। जिसने बान्धवलोकको दुख दिखानेवाले दुष्टों को आनन्दित होते हुए सुना है। अपनी माँके यौवन-विकारको नष्ट करनेवाला (व्यर्थ कर देनेवाला) ऐसा वह मुझ जैसा धरतीका भारस्वरूप व्यक्ति जीवित है। परमायु में यमके द्वारा अग्राह्य है, ( यम मुझे नहीं पकड़ सकता ), निश्चय ही मेरी आयु साठ हजार वर्ष है, लो इस अन्तरालमें ( इस बीच ) नियत नहीं आ सकती, इसलिए युद्धकालमें शत्रुको चकनाचूर कर मारता हूँ । अथवा यदि मैं मर जाता है तो इसमें दोष नहीं है। लो में आज अपना क्रोध सफल करता है । बत्ता -पिता के मारने का जो वैर और ऋण पहले दिया गया है, मैं आज उसे युद्ध में दूँगा और उसे उच्छिन्न करूंगा ||४|| यह कहकर समरभारको अपने एक कन्धे से उठानेवाला, अपनी शरीर-कान्तिसे दिशाओंको पवलित करनेवाला, चरमराते हुए छह कोनोंवाले जूतोंसे युक्त, पृथ्वीविजय और श्रीविजयका कम्पट, मुक्त खुले काले बालोंवाला, जिसके हाथमें दण्ड और पुस्तकका परिग्रह है, जिसका शरीर २. A मरही । ३. A णरजंगल । ४. AP भारु | ६. AP समरकालि । ७. A वइद रिशु चिरु ण दिष्णचं ५. १. AP घोरो । २. AP कविलियं । ३. A चिकरंतु ५. AP हियजणणिहि नोव्यर्ण । P बरु रिणु व चिद दिण्ण ं । पकष्णुवाणहो; P चिक्करंतु छष्णवाणहो ।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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