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सो दूर जो कयसंधिणासु सो दूस जो णिविमंतु सोदू जो बहु सो उ जो रिडहिययस्लु शिवसंतगरूयतंधाररोलु पण वेषि तेणें पालियविसिट्
महापुराण
मार का चपिवि कवालु मा सरसयणीयलि सुबउ ताउ माउ रह चूरणणिहाड दीस मा सयण मरणे मारुहरु कालवेयालु पियव माकर मृगाव पुत्तदुक्खु
घता - दूरं वज्जरि पहु विष्फुरिव दिव्वपुरिसेर्गुणजागर ॥ गुणिहेस तु अणुहुंजि हुं पेक्खु णवेपिशु राण ||६||
जो वज्जरियसामु ।
सो दूयउ सो दूड जो कुलजाइर्वतु । सो दूर जो संगाचं |
सो दूत पेसिडरचलु | छवि गिरिगहणंतरालु अस्थाणि णिविरुतिविट्ठु दिनु
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दुबई- -जा मैग्गिय णिवेण खगसुंदरि सा तुह होइ सामिणी ॥ देवि खमंसणिज सा कामहि किं कामंध कामिणी ॥
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[ ५२.६.११
७८. P संगामि ७. १. A मयि खगेण णिवसुंदरि । ५. A छिउज। ६. AP हलहरु |
भक्तुम गिद्ध, भतजालु । मा पोयणपुरवरु खयद्दु जाव | भज्जंतु म चामरछत्त फेट | रसससमुहकंकाल से | मासूरकित्ति जमकरण वियव | मा हिज्जैन लहरेकपलवस्तु ।
जाननेवाला है, वह दूत है जो विशिष्ट वेशवाला है, वह दूत हैं जो सन्धान करना जानता है, वह दूत है जो 'साम'का कथन करनेवाला है, वह दूत है जिसने दण्डका उपदेश दिया हो, वह दूत है जो कुलीन और जातिवाला हो, वह दूत है जो युद्ध में प्रचण्ड हो, वह दूत है जो शत्रु के लिए हृदयका काँटा हो। ऐसा वह रत्नचूड़ नामका दूत भेजा गया। जिसमें निवास करते हुए स्कन्धावारका भयंकर शब्द है, ऐसे उस गिरिके गहन अन्तराल में जाकर उसने प्रजाका पालन करनेवाले दरबार में आसनपर बैठे हुए त्रिपृष्टको देखा ।
धत्ता- दूतने कहा - "हे प्रभु, विकसित दिव्य पुरुष के गुणगणके ज्ञाता गुणी व्यक्तिको ग्रहण करने में ओजस्वी तुम सुखका भोग करो और प्रणाम कर राजासे मिल लो || ६ ||
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और जो राजा (अश्वग्रीय) ने विद्याधर सुन्दरी मांगी है, वह तुम्हारी स्वामिनी होती है। जो देवी तुम्हारे द्वारा नमन करने योग्य है, उस स्त्रीको हे कामान्ध तू क्यों चाहता है ? तुम्हारे सिरपर बैठकर न बोले, योद्धाओंके अतोंके जालको गीध न खायें, तुम्हारे पिता तीरोंके शयनीयतलपर न सोयें, पोदनपुर नगर क्षयको प्राप्त न हो, रथोंके चूर्ण होनेका शब्द न हो, चमर-छत्र और ध्वज नष्ट न हों, स्वजनोंके मरणका कारण रस और मज्जा के समुद्र में कंकाल सेतु दिखाई न दे, कालरूपी बेताल रुधिर न पियें, शूरको कीर्तिको यमके अनुचर न देखें। मृगावती पुत्रके दुःख
। ९. ते वि । १०. A पुरि । ११. AP गुणिगह णिज्जु । २. AP मरणमेव । ३. संगरसमुह । ४. APविगाय६ ।