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[४८. १८.११
महापुराण घत्ता-भक्खइ मृगमासु सुज्झाइ पिपलफंसणिण ||
णिउ गरयहु लोल णिग्घिणयंभणसासणिण ॥१८॥
अण्णाणिणि पसु पुगणेण रहिय बंधणताउणदुक्खेण गहिय । जा गाइ घरंति अमेज्झु स्वाइ सा कि संफासें सुद्धि देई। पाणिउ तणुसंग होइ मुत्तु सोत्तिय तं वुवइ किह पवित्तु । कयप्राणिवग्गणिप्राणियाइ कि एयै धुत्तकहाणियाए। जइ दुइ देश तो होउ चाइ कुच्छियदाण सरगहु ण जाइ। दिजइ सुपत्तु जाणिवि सणाणु सुय भेसह अभयाहारदाणु । भाविजइ जीव दयालु भाउ पुजिजा सामिस वीयराल । णियमिज्जइ कुवहि परंतु चित्तु जिज परंगुरका । धत्ता-जसु दिण्णइ दाणि होइ महंतु अणंतु फलु ।।
तं उत्तमु पत्तु पण वंवई परियलइ मलु ॥१५॥
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जे वजियपुत्तकलत्तणेह
दुद्धरमलपडलविलित्तदेह । अपरिग्गह जे गिरिगणणिलय भयलोह मोहमयमाणविलय । जे शिवडिय भन्बुद्धरणलील उबसग्गपरीसहसणसील |
पत्ता-वह पशुका मांस खाता है और पीपल वृक्षको छूनेसे अपनेको शुद्ध करता है । निर्दय ब्राह्मण-शासनके द्वारा लोग नरक में ले जाये जाते हैं ? ||१८||
१९ वह मात्र अज्ञानी और पुण्यसे रहित है। बन्धन ताड़न और दुःखसे गृहीत है। जो गाय जब चरती है तो अभक्ष्य खाती है, वह स्पर्शसे शुद्धि कैसे दे सकती है, शरीरके संगसे पानी मूत बन जाता है, फिर ब्राह्मण उसे ( मूतको ) पवित्र कैसे कहता है ? जिसमें प्राणीवर्गको निष्प्राण किया जाता है ऐसी इस धूतकथासे क्या ? यदि देव देता है, तो त्यागसे क्या? खोटे दानसे वह स्वर्ग नहीं जा सकता? ज्ञानपुर्वक सुपात्रको जानकर शास्त्र औषधि अभय और आहारदान देना चाहिए । जीवोंके प्रति दयाभावको भावना करनी चाहिए। वीतराग स्वामी की पूजा करनो चाहिए । कुपथमें जाते हुए मनको रोकना चाहिए । परधन और पर-त्रीका त्याग करना चाहिए।
पत्ता--जिसको दान देनेसे महान और अनन्त फल होता है, ऐसे उत्तम पात्रको प्रणाम करनेवालोंका मल दूर हो जाता है ||१९||
जो पुत्र और कलत्रके स्नेहसे रहित हैं, जो दुर्धर मल पटलसे अलिप्त देह हैं, परिग्रहसे रहित जो गहन गिरिरूपी घरवाले हैं, भय लोभ मोह मद और मानको नष्ट करनेवाले हैं, जो संसारमें गिरे हुए भव्योंका उद्धारलीला वाले हैं, उपसर्ग और परीसहको सहन करनेवाले हैं, जो
६. AP मिगमासु । ७, AP पिप्पल । १९. १. A अण्णाणि । २, A होइ । ३. AP क्रयपाणिवाणिपाणियाइ। ४. A एणइ । ५. A सुणाणु ।
६. A परहण । ७. पणवतहु ।