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________________ -४८, २१.५] महाकवि पुष्पवन्त विरचित जे अरिबंध बहु मि समसहाव दिज्जइ जोग्गउ आहारु वाह सत्थे णाणु अण्णेण भोले अभयो हेर्हि परियल रोउ ता सालायण मुंडे उत्त विणु आगमेण किं तुहुँ पमाणु पडिउत्तर दिष्ण सावपण अम्हारडं सागु णत्थि बप्प राहु पैप तुह सुई णिग्गंथ णिरंजण मुगावें । मज्झणि पट्ट मुणिवराहं । फलु दाणसूर व लहइ लोड | पण कथा विणिहाल दुक्खजोडें । दावहि तेरहं सिद्धंतसुत्तु / भाणवु पायमाणय सभाणु । इह सीयलपरमेसें गएण । जं च तं तुहुं चहि विप्प | दावहि दियवरदावियगई । घत्ता-ता कुणयरपण विध्वे जिणम णिरसियनं ॥ सई विरsवि क आणिवि रायहु दरिसियचं ॥२०॥ रइगाई ललियाई कब्वाई भणिऊण तवासराओ तहिं दुहिययाई गुरुदेव पडिकूलप्पण्णाबाई कय पियर मिससिय पैसुपेसिगासाएं गोदाणभूदाई २१ देहीणे संदेहबुद्धी अणिऊण । गिद्धम्ममम्गन्मि कम्मेण निहियाई । वसुविचित्तमित्तभावाई | पेयले महुसोमबाणाहिलासाई । जिलाई पठाएँ । १७१ ५ शत्रु और मित्रमें समान स्वभाववाले हैं, निर्ग्रन्थ निरंजन और गर्वसे मुक्त हैं, मध्याह्नमें आये हुए ऐसे मुनियोंको योग्य आहार देना चाहिए। शाखसे ज्ञान होता है, और अन्नसे मोग होता है । है राजन, दानशूर व्यक्ति संसारमें फल पाता है । अभय और औषधियोंसे रोग नष्ट होता है । और कभी भी वह दुःखका योग नहीं देखता । इसपर शालायन मुण्ड बोला- तुम अपना सिद्धान्त सूत्र बताओ, आगम के बिना तुम्हारा क्या प्रमाण ? मनुष्य तो प्राकृत मानव के समान है । तब उस श्रावकने प्रत्युत्तर दिया- परमेश्वर शीतलनाथके मोक्ष चले जाने पर हे सुभट, हमारा शासन नहीं है । विप्र, इसलिए तुम्हें जो कहना हो वह कहो । तब राजा घनरथ कहता है - जिसमें द्विजवरों की श्रेष्ठ गति बतायी गयी है, तुम अपने ऐसे शास्त्र बताओ । घता - तब कुनय में रत उसने जिनमतका निरसन किया। स्वयं काव्यकी रचना कर और लाकर उसने राजाको दिखा दिया ॥ २० ॥ २१ रचे हुए सुन्दर काव्य कहकर, शरीरधारियोंमें सन्देह उत्पन्न कर उस दिन से वहाँ दृष्ट हृदय कर्मके द्वारा धर्महोनमार्ग में लगा दिये गये । गुरुदेवको प्रतिकूल करने में जिन्हें अहंकार उत्पन्न हो गया है, जिनके सुविचित्र मिथ्यात्वभाव बढ़ रहे हैं, पितरोंके बहाने किये गये यज्ञमें जिन्होंने पशुओं की मांसपेशियोंको खाया है। जिनमें मधु और सोमपान करनेकी इच्छा तीव्रतम ४. A पडत ५, सोमपाणां । ६. उट्टियं । ७. AP बट्ठाई । Á २०. १. AP गलियगाव । २. P पवणु P adds after thes : वलतुलिडं गाई लोकभव । २. K नृष । ४. Padds: पन्चेलिड पावद्द सरसु भो । ५. AP पपई | २१. १. A बेण । २. A देवगुरुकुलणुपणगव्वाई; P देवदप विकूणनाथा । ३. A अमागासा |
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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