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- ६२. ५.४ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
मयरद्धयबाणैवरोलियहि जानें जगि जाणिय जय विजय विनादरगिरिवाहिण तहि
संखु खयरु त जय परिणि दिपणी जयविजय व्यहु संच्छरति कयवणिलय पण सुवण्णतिलयहि तण आहि जाहूं जोयहि वि मे व जोory किंण सुहं धत्ता - ताहि वयणु अवगण्णिवि गउ महिवर वणजत्तहि
जाया सुबेणि पिलियहि । णं कामदेव निम्मेयरधय । मंदरपुर सर तर्णालि | सुय पुतळय ससिमुहि तरुणि । चहु अब तदिध । णामेण विसारि चंद तिलय | aणु फुलि फैलिय णघण | ता वइ सवत्ति विरुद्धमइ । जें जो यहि दूयहि तणवं मुहुं । पडिवक्खु जि बहु मणिवि । विमा
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साड़ीण काहि भत्तारदय करपंक लुहियभालतिलय रिसिणाहरु संजमवयधरहु अबलोइवि पंचमहमुयई
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सुमईगणिणिहि सा सरणु गय । तवचरणि लग्ग वुई तिलय । पणा किं भो दमबरहु । सुर किंणरणाय रायथुयई ।
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स्वर्णतिलका नामकी गृहिणी थी जो मानो कामदेवकी रतिकामिनो यो । कामदेव के बाणोंकी पंक्ति उस प्रियासे दो पुत्र उत्पन्न हुए जो जगमें जय-विजयके नामसे जाने जाते थे, जो मानो मकरध्वजसे रहित कामदेव थे । विजयार्धं पर्वतके दक्षिण तटपर जिसमें नट मधुर नृत्य करते हैं। ऐसे मन्दरपुर में शंख नामका विद्याधर राजा था । उसकी जया नामकी पत्नी थी और पुत्री पृथ्वीतिलका जो तरुण और चन्द्रमुखी थी। वह जय-विजयके पिता ( अभयघोष ) को दी गयी । उसमें अनुरक्त उसे कुछ और अच्छा नहीं लगता था। एक वर्ष तक वे कपटगृहमें रहे। तब चन्द्रतिका नामकी दूती उससे कहती है कि स्वर्णतिलका के उपवन में खूब फूल और फल लग गये हैं। आइए और उसे देखने चलिए । तब विरुद्धमति सौत ( पृथ्वीतिलका ) कहती है, "क्या मेरा यौवनरूपी वन शुभ नहीं है ? जिससे दूती (चन्द्रतिलका) का मुख देखना चाहते हो ।"
पत्ता - उसके वचनों की उपेक्षा कर प्रतिपक्षको ही मानकर तथा उस मृगनेत्री के मानको मलित कर राजा वनयात्राके लिए चला गया || ४ ||
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प्रिय की दया किसीके लिए भी स्वतन्त्र नहीं होती ( अर्थात् पतिको दयापर किसीका एकाधिकार नहीं होता ) । वह ( पृथ्वीतिलका) सुमति नामकी आर्थिकाकी शरण में चली गयी । अपने हाथसे उसने मस्तकका तिलक पोंछ डाला और तपश्चरणमें लग गयी। राजा अभयघोषने संयमदरके धारी मुनिनाथ दमदरको आहारदान दिया। सुरों, किन्नरों और नागराजोंसे संस्तुत
४. १. AP बाणविरोल्लियहि । २. AP णं मयरधय । ३ AP मंदिरपुरि । ४ A कि । ५. AP कइवयलिय ६. A फलियतं पण घण P फलिउं घणघणलं । ७. A वृष । ८. A जं जीयहि P जैं जाहि । ९. K मृगणेसहि ।
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