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________________ ૪૦ ܕ पुरं चिद्धतोरण करेहि तं सहा तुम मंसि सुराद्दिषं पपिय महापुराण घरं सारणं । कुलकमागयं इमं | तो गओ घणी सुवं । अणेयखाइयाजलं । अपोसवण्णासाह अय के छा अणेयवादावर्ण अणेयसुंदरायणं कथं पुरं महासर तै चिराय मंदिरं । घसा - तहिं पच्छिमरयणिहि सुत्तइ सर्याणिहि दीसह देवि कुंजरू || सुबइ पंचाणु विष्फुरियाणणु मयमारणइपंज ||३|| ४ अव व सिरिवामहं दिट्टिहि सोम्मई ढोश्य हि पंडुरतं ससिरविधिई जोइयई । दुइ मीण रईणड दुइ मंगलवड सरयसक जलजिहि अलभीसणु सेहीरासणु सकघर | उरगिंद गिलणु णाणामणिगणु खत्त सिड Metrootss af संभाइ भणिउ पहु । मई विट्ठा सिविर्णय सोलह सिविजय तु सुडुं २. P सम्म । ३. A हिरा । ४. १. AP जव । २ AP सुविणय । अमणट्टार्स ! अयतूरणाइयं । [ ५९. ३. ३ यस्वर्ण | अयतित्थपाषणं । जिनेश्वरको जन्म देगी। अतः तोरणोंसे निबद्ध नगर और योग्य छत्रों सहित घर तुम वहाँ इस प्रकार बनाओ कि जिस प्रकार कुलकमागत हो ।" तब देवेन्द्रको नमस्कार कर उस समय कुबर मनुष्यलोकके लिए गया । उसने महासरोवरसे युक्त नगर और राजभवन बनाया, जो नवसुवर्णसे पीला था, जिसमें अनेक खाइयोंका जल था, जिसमें अनेक रंगके परकोटे थे, अनेक नृत्यशालाएँ थीं, जो अनेक पताकाओं से आच्छादित था, अनेक तूयसे निनादित था, अनेक द्वारों और दावण ( पशुओं को बांधने की रस्सी ) से युक्त था, जिसमें अनेक सुन्दर बाजार थे जो अनेक तीर्थोंसे पवित्र था । घत्ता -- वहीं शय्या पर सोती हुई देवो रात्रिके अन्तिम प्रहरमें देखती है- हाथी, बैल, विस्फारित मुलवाला तथा हरिणोंके मारने से पीले नखोंवाला सिंह ||३|| ४ और भी दृष्टि के लिए सौम्य श्रीमालाएं देखीं, आकाश में सफेद और लाल चन्द्रमा तथा सूर्यके बिम्ब देखे । रतिमें नृत्य करते हुए दो मीन, दो मंगलकलश, शरद्का सरोवर, जलसे भयंकर समुद्र, सिंहासन, इन्द्रधर ( देव विमान ), नागभवन, नाना रत्नराशि, अग्नि । उस मुग्धाने स्वप्नोंको देखा, मनमें उनका सम्मान किया और अपने स्वामीसे कहा कि मैंने सोलह स्वप्न
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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