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-५९.३.२६)
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
फलु ताह भडारा णरवरसारा कहहि तहुं । पइ कंतहि अक्खाइ गुज्झु ण रक्खइ मुयणगुरु
तुह होसइ तगुरुहुणवसरसह मुहु गुणपउरु । तं णिसुणिवि राणी णं सहसाणी घणरविण
णञ्चइ सिंगार रसविस्थारें णवणविण । हेमुज्जलभित्तिहिं जग्गयदित्तिहिं जियतवणि
बोलाविये अयणई पडियई रयणई णिवभवणि । वसाहइ मासइ तेरसिदिवसइ स सिधवलि
थिद गम्भि जिणेसह अहममरेसरु गलियमलि । रेवइणक्खत्तइ गविउ पवित्तइ सुरवरहि.
आयहिं दिहिकतिहि सिरिहिरिकिचिहि अच्छरहि । चउसायरमेत्तइ सिद्धि अणंतइ मयमहणु
लिमाल पहावा गइ णिहणु । माह म्मि रवण्णइ धर्णपउपणइ जणियसुहि
___ ओसोकणसंकुलि णवतणकोमलि तुहिणवहि । सियपक्खहु अवसरि तेरसिवासरि दिण्णदिहि
___ उप्पण्णड जगगुरु सिरिसेवियउस पाणणिहि । गुरुजोइ सुरिंदहिं हविउ फणिदहि, सुरगिरिहि
आणिधि पियवाइहि अपिर मायहि सुंदरिहि ।
देखे हैं, हे नरवर श्रेष्ठ आप उनके फल बतायें। पति अपनी कान्तासे कहता है, वह कुछ भी छिपाकर नहीं रखेगा, तुम्हारा गणोंसे प्रवर, नवकमलमख पुत्र विश्वगुरू होगा। यह सुनकर रानी नवश्रृंगार और रसविस्तारसे इस प्रकार नृत्य करतो है, मानो मेघध्वनिसे मयूरो नाच उठो हो । स्वर्णके समान उज्ज्वल भित्तियोंके समान निकलती हुई किरणों के द्वारा एक अयन ( छह माह ) बीतनेपर स्वर्णके जीतनेवाले राजाके भवनमें रत्नोंकी वर्षा हुई। वैशाख माहके शुक्ल पक्षको तेरसके दिन वह महमेन्द्र जिनेश्वर मलसे रहित गर्भ में रेवती नक्षत्र में आकर स्थित हो गया है। धृति-कान्ति-श्रो-हो-कोति आदि अप्सराओंने उन्हें नमन किया। अनन्त भगवान्के सिद्ध होनेपर चार सागर प्रमाण समय बीतने और अन्तिम पल्यके आधे समयके धर्म विशुद्धिसे रहित होनेपर, धान्यसे प्रपूर्ण, सुख उत्पन्न करनेवाले ओसकणोंसे व्याप्त, नवतुणोंसे कोमल तथा हिमपथसे युक्त माघ शुक्ला त्रयोदशीके दिन पुष्य नक्षत्र में भाग्यविधाता विश्वगुरु तथा लक्ष्मोके द्वारा जिनका वक्ष सेवित है ऐसे ज्ञाननिधि उत्पन्न हुए, देवेन्द्रों और नागेन्द्रोंने सुमेर
३. A णवससमुह । ४. A सहस्रीणी; P सहसाणी । ५. F वोल्लाविय । ६, A अमिदिवसः । ७. AP णकवि । ८. A धम्मपउपणइ । ९. P सा । १०. A गुहेजोय ।