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________________ -५९. ३. २] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३३९ एव चवेपिणु रजि थवेप्पिणु अइरह पदणु संगु मुएप्पिणु गउ तल लेप्पिणु णिम्माणुसु वणु । पढिउ सुवंगई सोश्यारह णि?इ शिज्जिवि तिहुवणस्त्रोहणु तित्थयरतणु पुण्णु समजिवि । पाव विणासे मुख संणासें गड सव्वत्य जगि णड काई मि चींसह दुग्गमु धम्मसमस्थाह । जं तसणाडिहि लहुयस गरुयड काई वि अच्छा त णियणाणे एक करंग जाणइ पेच्छइ। १० सो विहिं तीसहि पक्वहिं गलियहिं सासु पउजइ तेत्तियवरिससहासहिं संखइ झीणइ भुंजइ । सुलेसु ससिसुकवण्णु सुई णिप्पडियारउ किं वषिणआइ इंदु चंदु अहमिदु भखारच।। तेणे तितीससमुहमाणु परमासु मुस्ता परियाणिव सव्वार से सम्मासु निरुत्तउं । पेसणु पढमें सयमहिण जक्खिबहु सिहं कुरु कुरु जिणपुजाविहाणु परमागमि दिट्टई । घता-सुणि जंयूदीय ससिरविदीवइ भरहखेति जणपरइ ॥ १५ महोउ गरेसर सुरकरिकरकरु अस्थि अवरख रयप्पर ।। - n-rrrr-~-~ पुरंघि सस्त सुप्पहा सई अर्णगमापहा। जणेदिही जिणेसरं रईणिसादिणेसरं। अमृत के समान फिरणोंवाले चन्द्रमाको ग्रसित कर लिया, दुष्ट यमके द्वारा उसी प्रकार जीव पकड़ लिया जायेगा और नष्ट कर दिया जायेगा. अतः वतरहित शरीरसे जीतेसे क्या ?" यह कहकर और राज्यमें पुत्र अतिरषको स्थापित कर, परिग्रह छोड़कर तथा तप ग्रहण कर वहां गया, जहाँ निर्जन वन था। उसने ग्यारह श्रुतांगोंका अध्ययन किया और निष्ठापूर्वक ध्यान कर त्रिभुवनको क्षुब्ध करनेवाला तीर्थकरत्वका पुण्य अर्जित कर, पापको नाश कर तथा संन्याससे मरकर सर्वार्थ सिद्धि में गया। धर्मसे समर्थ जीवके लिए संसारमें कुछ मो दुर्गम दिखाई नहीं देता। असनाड़ी में जो भी लघु और भारी हैं, उसे वह अपने एक शानसे हस्तगतके समान जानता और देखता है। यह वहाँ (सर्वार्थसिद्धिमें तैतीस पक्ष गलने पर सांस लेता है, उतने ही हजार वर्ष अर्थात् तेंतीस हजार वर्षों की संख्या क्षीण होनेपर आहार ग्रहण करता है, शुक्ललेश्यासे युक्त चन्द्रमा और शुभके रंगवाला पवित्र निष्पीड़ाकारक इन्द्रचन्द्र उस आदरणीयका क्या वर्णन किया जाये ? उसने वहाँ तेतीस सागर प्रमण आयुका भोग किया। यह जानकर कि निश्चयसे छह माह आयु शेष बची है, प्रथम सौधर्म इन्द्रने कुबेरको आदेश दिया-"परमागममें देखे गये जिनपूजा विधानको करिए। घसा-हे पक्ष सुनो, सूर्यचन्द्रमाके दीप जम्बूद्वीपके जनप्रधुर भरतक्षेत्रके रत्नपुरमें ऐरावतकी सूरके समान हायोंवाला राजा भातु है ।।२।। उसकी रानी सुप्रभा सती कामश्रीके समान है। वह, रतिरूपी निशाके लिए सूर्यके समान ५. AP read this line as पठिउ सुर्यगई सो अविहंगहं पयारह पुणुः P adds after this: परिवि सुहंगई बहधम्मंगई सोसिरि णियतण; AP adds after this : छत्तोस वि गुणसहिए तवगिट्ठर (A तवणिविएं मिज्जिवि । ६. P एक । ७. A सो खेतीसहि । ८. A सुई । ९. A तिणि तेत्तीस । १०. A पुण जंबू; P मुणि मं । ११. नजणे पतरह; K जणपवरह but corrects it to जणपउरह । १२. A मेहराउ; P महाराठ। ३. १ AP नही।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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